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________________ भगवती सूत्र-श २६ उ १ नरयिक के पाप-बाध ३५६९ को प्राप्त होने वाला है, उसकी अपेक्षा से दूसग भंग है । बन्ध काल के अभाव और भावीबन्ध काल की अपेक्षा तीसरा भंग है । जिमने परभव का आयु बांध लिया और जिसका आयु वांधा है, वही उसका चरमभव है, उसकी अपेक्षा से चौथा भंग है । इस प्रकार सर्वत्र घटित करना चाहिये । कृष्णलेशी नैरयिक में प्रथम और तृतीय भंग पाया जाता है । प्रथम भंग तो प्रतीत ही है । दूसरा भंग उसमें नहीं होता, क्योंकि कृष्णलेशी नैरयिक तिर्यंच में अथवा अचरमशरीरी भनुष्य में उत्पन्न होता है । कृष्णलेश्या पाँचवीं नरक पृथ्वी आदि में होती है । वहाँ से निकला हुआ केवली नहीं होता। इसलिये वहाँ से निकला हुआ नरयिक . अचरमशरीरी होने से फिर आयु बांधेगा। कृष्णलेशी नैरयिक अबन्धकाल में आयु नहीं बांधता, किन्तु बन्धकाल में बांधेगा। इस प्रकार तृतीय भंग घटित होता है । वह आयु का अबन्धक नहीं होता, इसलिये उसमें चोथा भंग नहीं पाया जाता। इसी प्रकार कृष्णपाक्षिक में भी पहले और तीसरे भंग की घटना करनी चाहिये। सम्यमिथ्यादृष्टि जीव, आयु नहीं वांधता। इसलिये उसमें तीसरा और चौथा भंग होता है । कृष्णलेशी असुरकुमार में चारों भंग होते हैं, क्योंकि वह वहाँ से निकल कर मनुष्य गति में आ कर सिद्ध हो सकता है। इस अपेक्षा से दूसरा और चौथा भंग घटित होता है । पृथ्वीकायिक जीवों में मभी स्थानों में चार भंग होते हैं. किन्तु कृष्णपाक्षिक में प्रथम और तृतीय भंग ही होता है । ने जोलेशी पृथ्वीकायिक में एक तीमरा भंग होता है, क्योंकि कोई तेजोलेशी देव, पृथ्वी कायिक जीवों में उत्पन्न हुआ, वह आर्याप्त अवस्था में तेजोलेशो होता है और तेजोलेश्या का समय बीत जाने पर आय बांधता है । इसलिये तेजोलेशो पृथ्वीकायिक ने पूर्वभव में आयु बांधा था, परन्तु तेजोलेण्या के समय नहीं बांधता और तेजोलेश्या का समय बात जाने पर फिर बांधेगा। इस प्रकार तीसग भंग घटित होता है । इसी प्रकार कृष्णपाक्षिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक जीवों में प्रथम और तृतीय भंग होता है और उनमें तेजोलेश्या में तीसरा भग होता है । दूसरे स्थानों में चार भंग होते हैं। ते उकायिक और वायुकायिक जीवों में सर्वत्र प्रथम और तृतीय भंग ही होता है, क्योंकि वहाँ से निकल कर उनकी उत्पत्ति मनुष्य में नहीं होने से सिद्धि-गमन का अभाव है, अतः द्वितीय और चतुर्थ भंग नहीं होता। विकलेन्द्रिय जीवों में सर्वत्र प्रथम और तृतीय भंग ही होता है, क्योंकि वहां से निकले हुए मनुष्य तो हो सकते हैं, किन्तु मुक्ति नहीं पा सकते । इसलिये वे अवश्य आयु का बन्ध करेंगे । अतः दूसरा और चौथा भंग घटित नहीं होता। विकलेन्द्रियों में इतने स्थानों में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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