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________________ ३५७० भगवती सूत्र - शं. २६ उ. १ नैरयिक के पाप-वन्ध विशेषता है । यथा - सम्यक्त्व, ज्ञान, आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान, इनमें केवल तीसरा भंग ही पाया जाता है, क्योंकि उनमें सम्यक्त्व आदि सास्वादन भाव से अपर्याप्त अवस्था में ही होते हैं । इनके चले जाने पर आयु का बंध होता है। इसलिये उन्होंने पूर्व भव में आयु बांधा था, सम्यक्त्व आदि अवस्था में नहीं बांधते और उसके बाद बांधेंगे । इस प्रकार एक तृतीय भंग ही घटित होता है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच में कृष्णपाक्षिक पद में प्रथम और तृतीय भंग ही पाया जाता है, क्योंकि कृष्णपाक्षिक आयु बांध कर या नहीं बांध कर उसका अबन्धक अनन्तर ही होता है। और वह मोक्ष जाने के अयोग्य है । सम्यग्मध्यादृष्टि तियंच-पचेन्द्रिय में आयु-बन्ध का अभाव होने से तीसरा और चौथा भंग ही होता है । पंचेन्द्रिय तियंच में सम्यक्त्व, ज्ञान, आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान-इन पांच में द्वितीय भंग को छोड़ कर शेष तीन भंग पाये जाते हैं । क्योंकि सम्यग्दृष्टि आदि युक्त पंचेन्द्रिय तिर्यंच देवों में ही उत्पन्न होता है । वहाँ वह आयु बांधेगा, इसलिये दूसरा भंग घटित नहीं होता। प्रथम और तृतीय भंग की घटना पहने बता दी गई है। चौथा भंग इस प्रकार घटित होता है कि किसी पंचेन्द्रिय तियंच ने मनुष्य आयु बांध ली, इसके बाद उसको सम्यवत्व आदि की प्राप्ति हुई । इसके पश्चात् प्राप्त हुए मनुष्य भव में ही वह मोक्ष चला जाय, तो वह आयु नहीं बांधेगा । इस प्रकार चतुर्थ भंग घटित होता है । मनुष्य के लिये भी इन सम्यक्त्व आदि पाँच पदों में भी इन तीनों भंगों की घटना इसी प्रकार करनी चाहिये । ॥ छब्बीसवें शतक का प्रथम उद्देशक सम्पूर्ण || Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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