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भगवती सूत्र श. २९ उ. २ अनन्तरोपपन्नक कर्म-भोग
३ प्रश्न - सलेस्सा णं भंते! अनंतशेववण्णा रइया पावं० ? ३ उत्तर - एवं चेन, एवं जाव अणागारोवउत्ता । एवं असुरकुमा राणं । एवं जाव वेमाणियाणं, णवरंजं जस्स अत्थितं तस्स भाणियव्वं । एवं णाणावर णिज्जेण वि दंडओ, एवं णिरवसेसं जाव अंतगइएणं । * 'सेवं भंते ! मेवं भंते!' त्ति जाव विहरइ *
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|| गूणती महमे सए बीओ उद्देसो समत्तो ॥
भावार्थ - ३ प्रश्न- हे भगवन् ! सलेशी अनन्तरोपपन्नक नैरधिक एक साथ पाप कर्म का वेदन प्रारंभ करते हैं और एक साथ समाप्त करते हैं० ?
३ उत्तर - हे गौतम! पूर्ववत् । इसी प्रकार यावत् अनाकारोपयुक्त तक । असुरकुमार से ले कर यावत् वैमानिक तक भी इसी प्रकार । किन्तु जिसके जो हो, वही कहना चाहिये। इसी प्रकार ज्ञानावरणीय से ले कर यावत् अन्तराय पर्यन्त ।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं ।
विवेचन - आयु उदय के प्रथम समयवर्ती जीव, 'अनन्तरोपपन्नक' कहलाते हैं । उनके आयु का उदय समकाल में ही होता है, अन्यथा उनका अनन्तरोपपन्नकपना ही नहीं वन सकता । मरण के पश्चात् परभव की उत्पत्ति की अपेक्षा 'समोपपन्नक' कहलाते हैं, और मरणकाल में भूतपूर्व गति की अपेक्षा वे अनन्तरोपपन्नक कहलाते हैं । इस प्रकार यह प्रथम भंग बनता । दूसरे भंग में समकाल में आयु का उदय होने से 'समायुष्क' कहलाते हैं और मरण समय की विषमता के कारण 'विषमोपपन्नक' कहलाते हैं, इस प्रकार दूसरा भंग बनता है । ये अनन्तरोपपन्नक हैं, इसलिए इनमें विषमायु सम्बन्धी तीसरा और चौथा मंग नहीं
बनता ।
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॥ उनतीसवें शतक का दूसरा उद्देशक सम्पूर्ण ॥
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