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भगवती सूत्र-श. २५ उ. ३ संस्थान के प्रदेश
पश्चात् बहुवचन सम्बन्धी विचार किया है । उसमें ओघादेश और विधानादेश-ये दो भेद किये हैं । सामान्यतः सर्व समुदाय रूप का कथन 'ओघादेश' है और पृथक्-पृथक् विचार 'विधानादेश' है । इनके कथन में जो कृतयुग्म आदि परिमाण बनता है, वह वस्तु-स्वभाव होने से उस-उस प्रकार को कृतयुग्म, त्र्योज आदि परिमाण बनता है। इस प्रकार क्षेत्र विषयक विचार कर के काल और भाव से विचार किया है, जिसका अर्थ यह है कि-- परिमण्डलादि संस्थानों से परिणत स्कन्ध कितने काल तक ठहरते हैं और उन समयों में चतुष्कादि का अपहार करने पर कितने शेष बचते हैं, जिससे वे कृतयुग्मादि संख्या वाले बनते हैं । इसी प्रकार पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस और आठ स्पर्श, इन बीस बोलों की अपेक्षा भी कृतयुग्मादि का विचार किया है ।
३९ प्रश्न-सेढीओ णं भंते ! दव्वट्ठयाए किं संखेजाओ, असं. खेजाओ, अणंताओ ? ____३९ उत्तर-गोयमा ! णो संखेजाओ, णो असंखेजाओ, अणंताओ।
भावार्थ-३९ प्रश्न-हे भगवन् ! आकाश-प्रदेश की श्रेणियाँ द्रव्यार्थ रूप से संख्यात हैं, असंख्यात हैं, या अनन्त हैं ? ।
३९ उत्तर-हे गौतम ! संख्यात नहीं, असंख्यात भी नहीं, अनन्त हैं। ... ४० प्रश्न-पाईणपडीणाययाओ णं भंते ! सेढीओ दवट्ठयाए किं संखेजाओ० ?
४० उत्तर-एवं चेव । एवं दाहिणुत्तराययाओ वि, एवं उड्ढमहा. ययाओ वि ।
कठिन शब्दार्थ-पाईण-पूर्व दिशा, पडीण-पश्चिम दिशा । भावार्थ-४० प्रश्न-हे भगवन् ! पूर्व और पश्चिम लम्बी श्रेणियां द्रव्यार्थ
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