________________
भगवती मूत्र-स. ३४ अवान्तर शतक १ उ. २ विग्रहगति
३७२१
से तेणटेणं जाव वेमायविसेसाहियं कम्मं पकरेंति ।
सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति * ॥ चोत्तीसड़मे सए पढमे एगिदियसए बीओ उद्देमो समत्तो॥
भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन ! तुल्य स्थिति वाले अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव, परस्पर तुल्य, विशेषाधिक कर्म-बन्ध करते हैं. ?
६ उत्तर-हे गौतम ! कई तुल्य स्थिति वाले एकेन्द्रिय जीव, तुल्य विशेषाधिक कर्म-बन्ध करते हैं और कई तुल्य स्थिति वाले एकेन्द्रिय जीव विमात्र-विशेषाधिक कर्म-बन्ध करते हैं।
प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया कि यावत् भिन्न विशेषाधिक कर्म-बन्ध करते हैं ?
उत्तर-हे गौतम ! अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव दो प्रकार के कहे हैं । यथा-कई जीव समान आयु और समान उत्पत्ति वाले होते हैं और कई जीव समान आयु और विषम उत्पत्ति वाले होते हैं । जो समान आयु और समान उत्पत्ति वाले हैं, वे तुल्य स्थिति वाले परस्पर तुल्य विशेषाधिक कर्मबन्ध करते हैं और जो समान आयु और विषम उत्पत्ति वाले हैं, वे तुल्य स्थिति वाले विमात्र-विशेषाधिक कर्म बन्ध करते हैं। इस कारण हे गौतम ! यावत् विमात्र-विशेषाधिक कर्म-बन्ध करते हैं।
"हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैकह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं।
विवेचन-पहले स्थिति और उत्पत्ति की अपेक्षा चार भंग कहे, उनमें मे विषम स्थिति सम्बन्धी अन्तिम दो भंग अनन्तरोपपन्न क जीव में नहीं पाये जाते, क्योंकि अनन्तरोपपन्नकत्व में विषम स्थिति का अभाव है।
॥ चौतीसवें शतक के प्रथम अवांतर शतक का दूसरा उद्देशक संपूर्ण ॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org