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भगवती सूत्र - श ३० उ. १ समवसरण
इस प्रकार अज्ञान को श्रेय मानते हुए उन्हें ज्ञान का आश्रय लेना ही पड़ता है ।
विनयवादी -- केवल विनय से ही स्वर्ग. मोक्ष आदि कल्याण को पाने की इच्छा रखने वाले विनयवादी मिथ्यादृष्टि हैं। क्योंकि ज्ञान और क्रिया, दोनों से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है, अकेले ज्ञान से या अकेली क्रिया से नहीं । ज्ञान को छोड़ कर एकान्त रूप से क्रिया के केवल एक अंग का आश्रय लेने से वे सत्य मार्ग से दूर हैं । इस प्रकार ये चारों वादी मिथ्यादृष्टि हैं ।
इस शतक में उपरोक्त क्रियावादी का ग्रहण नहीं किया है, किन्तु 'क्रियावादी' शब्द से 'सम्यग्दृष्टि' का ग्रहण किया है ।
सम्यग्दृष्टियों का कथन अलेशी जीवों के समान कहा है। अलेशी जीव अयोगी और सिद्ध होते हैं । वे क्रियावाद के कारणभूत द्रव्य और पर्याय के यथार्थ ज्ञान से युक्त • होने से क्रियावादी हैं । यहाँ जो सम्यग्दृष्टि के योग्य अलेश्यत्व, सम्यग्दर्शन, ज्ञानी, नोज्ञोपयुक्त और अवेदकत्व आदि स्थान हैं, उन सभी का क्रियावाद में समावेश होता है। और मिथ्यादृष्टि के योग्य मिथ्यात्व अज्ञान आदि स्थानों का अक्रियावाद आदि तीन समवसरणों में समावेश होता है। मिश्रदृष्टि, साधारण परिणाम वाला होने से उसकी गणना आस्तिक में या नास्तिक में नहीं की है। इसलिये वे अज्ञानवादी और विनयवादी हो होते हैं ।
पृथ्वी कायिकादि जीव, मिथ्यादृष्टि होने से अक्रियावादी और अज्ञानवादी होते हैं । यद्यपि उनमें वचन का अभाव होने से वाद नहीं होता, तथापि उस उस वाद के योग्य परिणाम होने से वे अक्रियावादी और अज्ञानवादी कहे जाते हैं । उनमें विनयवाद के योग्य परिणाम न होने से वे विनयवादी नहीं होते ।
पृथ्वी कायिकादि के योग्य सलेश्यत्व, कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या और तेजोलेश्या तथा कृष्णपाक्षिकत्वादि जो स्थान हैं, उन सभी में अक्रियावादी और अज्ञानवादी समवसरण होते हैं । इस प्रकार चौरिन्द्रिय पर्यन्त जानना चाहिये, किन्तु यहाँ इतना समझना आवश्यक है कि क्रियावाद और विनयवाद, विशिष्ट सम्यक्त्वादि परिणाम के सद्भाव में होते हैं । इसलिये यद्यपि बेइन्द्रियादि जीवों में सास्वादन गुणस्थान की प्राप्ति के समय सम्यक्त्व और ज्ञान का अंश होता है, तथापि वे क्रियावादी और विनयवादी नहीं कहलाते ।
पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच में अलेश्यत्व, अकषायित्वादि की पृच्छा नहीं करनी चाहिये, क्योंकि ये स्थान इनमें नहीं होते ।
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