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३२१४ भगवती सूत्र-श. २५ उ. २ जीव स्थित द्रव्य ग्रहण करता है या अस्थित
शरीरपने ग्रहण करता है, वे नियम से छहों दिशाओं से आये हए होते हैं। इसी प्रकार आहारक शरीर के विषय में भी समझना चाहिये।
विवेचन-वैक्रिय-शरीर वाला, वैक्रिय-शरीर के योग्य छहों दिशाओं से आये हुए द्रव्यों को ग्रहण करता है, इस कथन का अभिप्राय यह है कि उपयोग पूर्वक वैक्रिष-शरीर करने वाला प्रायः पञ्चेन्द्रिय ही होता है और वह सनाड़ी के मध्यभाग में होता है । इसलिए उसके छहों दिशाओं का आहार संभव है । कुछ आचार्यों का ऐसा मत है कि-- त्रसनाड़ी के बाहर भी वायुकाय के वैक्रिय शरीर होता है, किन्तु अप्रधानता के कारण उसकी यहाँ विवक्षा नहीं की गई है। तथा कुछ आचार्यों का ऐसा मत है कि--. लोकान्त के निष्कुटों (कोणों) में वैक्रिय-शरीरी वायु नहीं होती । यह पिछला अभिप्राय ठीक मालूम होता है। .
- १२ प्रश्न-जीवे णं भंते ! जाइं दव्वाइं तेयगसरीरत्ताए गिण्हइपुच्छा ।
१२ उत्तर-गोयमा ! ठियाइं गेण्हइ, णो अठियाइं गेण्हइ, सेसं जहा ओरालियसरीरस्स । कम्मगसरीरे एवं चेव । एवं जाव भावओ वि गिण्हइ।
__भावार्थ-१२ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव, जिन द्रव्यों को तेजस् शरीरपने ग्रहण करता है, इत्यादि ? |
१२ उत्तर-हे गौतम ! वह स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है, अस्थित को नहीं । शेष कथन औदारिक-शरीरवत् । कार्मण-शरीर के विषय में भी इसी प्रकार । इस प्रकार यावत् ‘भाव से भी ग्रहण करता है' पर्यन्त। .. १३ प्रश्न-जाई दबाई दवओ गेण्हइ ताई किं एगपएसियाई गेण्डइ, दुपएसियाई गेण्हइ ?
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