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________________ ३४०८ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ६ परिणाम द्वार १०१ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि वर्ष पर्यन्त । विवेचन- -चारित्र के भावों को 'परिणाम' कहते हैं । संयमशुद्धि की उत्कर्षता (वद्धि) होती रहे, उसे 'वर्द्धमान परिणाम' कहते हैं और संयमशुद्धि की अपकर्षता (हीनता) होती रहे, उसे, 'हीयमान परिणाम' कहते हैं, तथा संयमशुद्धि स्थिर रहे, उसमें किसी प्रकार की हीनाधिकता (घट-बढ़) न हो, उसे 'अवस्थित परिणाम' कहते हैं। निर्ग्रन्थ हीयमान परिणाम वाला नहीं होता। यदि उसके परिणामों में हीनता आती है, तो वह 'कषाय-कुशील' कहलाता है। स्नातक के परिणामों में हीनता होने का कारण ही नहीं है, इसलिए वह हीयमान परिणाम वाला नहीं होता। पुलाक के परिणाम जब वृद्धिंगत हो रहे हों, तब यदि वे कषाय से बाधित हो जाय, तो वह एकादि समय वर्द्धमान परिणाम का अनुभव करता है । इसलिए उसका काल जघन्य एक समय होता है और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त होता है। इसी प्रकार बकुश, प्रतिसेवना-कुशील और कषाय-कुशील के विषय में भी जानना चाहिए । बकुशादि के जघन्य एक समय वर्द्धमान परिणाम, मरण की अपेक्षा भी घटित हो सकता है, परन्तु पुलाक में मरण की अपेक्षा एक समय घटित नहीं हो सकता, क्योंकि पुलाकपने में मरण नहीं होता। मरण के समय पुलाक, कषाय-कुशीलादि रूप में परिणत हो जाता है। पहले पुलाक का जो मरण कहा है, वह भूतभाव की अपेक्षा समझना चाहिये। निर्ग्रन्थ जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक वर्द्धमान परिणाम वाला होता है, जब फेवलज्ञान उत्पन्न होता है, तब उसके परिणामान्तर हो जाते हैं । निग्रंथ के अवस्थित परिणाम जघन्य एक समय, मरण की अपेक्षा घटित हो सकता है। ...... स्नातक जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक वर्द्धमान परिणाम वाला होता है, क्योंकि शैलेशी अवस्था में वर्द्धमान परिणाम अन्तर्मुहूर्त तक होते हैं । स्नातक के अवस्थित परिणाम का काल भी जघन्य अन्तर्मुहूर्त होता है, क्योंकि केवलज्ञान उत्पन्न होने के बाद अन्तर्मुहूत तक अवस्थित परिणाम वाला हो कर फिर शैलेशी अवस्था को स्वीकार करता है, इस अपेक्षा से यह काल पटित होता है । अवस्थित परिणाम का उत्कृष्ट काल देशोन पूर्वकोटि वर्ष होता है, क्योंकि पूर्वकोटि वष की आयु वाले पुरुष को जन्म से जघन्य नौ वर्ष बीत जाने पर केवलज्ञान उत्पन्न हो, तो नौ वर्ष न्यून पूर्वकोटि वर्ष पर्यन्त अवस्थित परिणाम वाला हो कर शैलेशी अवस्था की प्राप्ति तक विचरता है और शैलेशी अवस्था में वर्द्धमान परिणाम वाला हो जाता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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