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________________ भगवती सूत्र - श. ५ उ. ६ सन्निकर्ष द्वार विभाग न हो सके ) होते हैं । पुलाक आदि का पुलाक आदि के साथ सन्निकर्ष अर्थात् संयोजन को 'स्वस्थान सन्निकर्ष कहते हैं । पुलाक आदि का बकुश आदि के साथ संयोजन 'परस्थान सन्निकर्ष' कहलाता है । ३३९५ विशुद्ध संयम के स्थानभूत विशुद्धतर पर्यायों की अपेक्षा अविशुद्ध संयम स्थानभूत अविशुद्धतर पर्याय ' हीन' कहलाते हैं । गुण और गुणी के अभेद सम्बन्ध से उन पर्यायों वाला साधु भी हीन कहलाता है। शुद्ध पर्यायों की समानता के कारण 'तुल्य' कहलाता है । विशुद्धतर पर्यायों के सम्बन्ध से 'अधिक' कहलाता है । १ एक पुलाक, दूसरे पुलाक के साथ सजातीय चारित्र - पर्यायों से षट्स्थान पतित होता है । षट्स्थान हीन - १ अनन्त भाग हीन २ असंख्य भाग हीन ३ संख्य भाग हीन ४ संख्येय गुण हीन ५ असंख्येय गुण हीन और ६ अनन्त गुण हीन । इसी प्रकार अधिक ( वृद्धि ) के भी षट्स्थान पतित होते हैं । यथा - अनन्त भाग वृद्धि २ असंख्य भाग वृद्धि ३ संख्येय भाग वृद्धिं ४ संख्येय गुण वृद्धि ५ असंख्येय गुण वृद्धि और ६ अनन्त गुण वृद्धि । इनका खुलासा इस प्रकार है- प्रत्येक चारित्र के अनन्त पर्याय होते हैं । एक चारित्र के पालने वाले अनेक जीव होते हैं । ययाख्यात चारित्र के अतिरिक्त दूसरे चारित्र के पालन करने वालों के परिणामों में समानता और असमानता दोनों हो सकती है। असमानता को समझाने के लिये षड्गुण हानि-वृद्धि का स्वरूप बताया है । यथा - १ अनन्तवां भाग हीन - चारित्र पालने वाले दो साधुओं में से एक के जो चारित्र-पर्याय हैं, उनके अनन्त विभाग किये जायँ, उनसे दूसरे साधु के चारित्र - पर्याय एक विभाग कम है, तो वह कमी अनन्त भाग हीन कहा जाता है । २ असंख्यातवां भाग हीन- इसी प्रकार चारित्र का पालन करने वाले द्रो साधुओं में से एक साधु के चारित्र के असंख्य विभाग किये जायें, उनसे दूसरे साधु का चारित्र एक भाग कम हो, तो वह असंख्येय भाग हीन माना जाता है । ३. संख्यातवां भाग हीन - उपर्युक्त रीति से एक साधु के चारित्र के संख्यात भाग किये जायें, उनसे दूसरे साधु का चारित्र एक भाग कम हो, तो वह संख्यातवां भाग हीन कहा जाता है । Jain Education International ४ संख्य गुण हीन - उपर्युक्त रीति से एक साधु के जितने चारित्र - पर्याय हैं, उनको संख्यात गुण किया जाय, तब वह पहले साधु के बराबर हो सके, तो उस दूसरे साधु का चारित्र संख्यात गुण हीन होता है। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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