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________________ भगवती मूत्र श. २५ उ. ७ प्रतिसंलीनता तप ३५०१ मुक्के । मेतं कायकिलेसे । कठिन शब्दार्थ-उक्कु डुयसाहिए- उत्कुटकासनिक । भावार्थ-११७ प्रश्न-हे भगवन् ! काय-यलेश तप कितने प्रकार का है ? ११७ उत्तर-हे गौतम ! काय-वलेश तप अनेक प्रकार का है । यथास्थानातिग, उत्कुटुकाप्सनिक आदि औपपातिकसूत्रानुसार यावत् शरीर के सभी प्रकार के संस्कार और शोमा का त्याग करना । यह काय-क्लेश तप हुआ। विवेचन--शास्त्र-सम्मत रीति से काया अर्थात् शरीर को कलेश (कष्ट ) पहुंचाना 'काय-क्लेश' तप है। उग्र वीरासनादि आसनों का सेवन करना, लोच करना, शरीर की शोभा-शुश्रूषा का त्याग करना आदि काय-क्लेश के अनेक भेद हैं। औपपातिक सूत्र में स्थानस्थितिक, स्थानातिग, उत्कुटुकासनिक आदि भेद दिये हैं । प्रतिसंलीनता तप ११८ प्रश्न-से किं तं पडिसंलीणया ? ११८ उत्तर-पडिसलीणया चउब्विहा पण्णता, तं जहा-इंदियपडिसंलीणया, कसायपडिसलीणया, जोगपडिसलीणया, विवित्तसयणासणसेवणया। भावार्थ-११८ प्रश्न-हे भगवन ! प्रतिसंलीनता कितने प्रकार की कही है ? ११८ उत्तर-हे गौतम ! प्रतिसंलोनता चार प्रकार की है। यथाइंद्रिय-प्रतिसंलीनता, कषाय-प्रतिसं लीनता, योग-प्रतिसंलीनता और विविक्त शयनासनसेवनता। ११९ प्रश्न-से किं तं इंदियपडिसलीणया ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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