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________________ ३५.८ भगवती सूत्र-श. २५ उ. ७ रस परित्याग नप, काय-करेग ता . इसलिये इसे 'वृत्ति संक्षेप' तप भी कहते हैं । औपपातिक मूत्र में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव तथा शुद्धषणिक, संख्यादत्तिक आदि अनेक भेद किये हैं। रस परित्याग तप ११६ प्रश्न-से किं तं रसपरिच्चाए ? ११६ उत्तर-रसपरिचाए अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा-णिवि. गिइए, पणीयरसविवजए-जहा उववाइए जाव लूहाहारे । सेतं रसपरिच्चाए। भावार्थ-११६ प्रश्न-हे भगवन् ! रसपरित्याग के कितने भेद है ? . ११६ उत्तर-हे गौतम ! रसपरित्याग अनेक प्रकार का है। यथानिविकृतिक, प्रणीतररस विवर्जक इत्यादि औपपातिक सूत्रानुसार यावत् रूक्षाहारक । यह रस परित्याग है। विवेचन-दूध, दही, घी, तेल और मिष्टान्न, इन पांच को विकृति (विगय) कहते हैं । इन विकारजनक विकृतियों का तथा प्रणीत (स्निग्ध और गरिष्ठ) खान-पान वस्तुओं का त्याग करना 'रस परित्याग' कहलाता है। इसके भी निविकृतिकः प्रणीतरस विवर्जक यावत् रूक्षाहारक आदि अनेक भेद औपपातिक सूत्र में कहे हैं । काय-क्लेश तप ११७ प्रश्न-मे किं तं कायकिलेसे ? ११७ उत्तर-कायकिलेसे अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा-ठाणाईए, उक्कुडुयासणिए, जहा-उववाइए जाव सव्वगायपरिकम्म-विभूसविप्प Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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