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भगवती सूत्र - श. ३५ अवान्तर शतक १ उ. १
होते हैं । मारणान्तिक समुद्घात से समवहत अथवा असमवहत हो कर मरते । उद्वर्तना उत्पलोद्देशक के अनुसार जाननी चाहिये !
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विवेचन - जिन एकेंद्रिय जीवों में से चार-चार का अपहार करते हुए अन्त में चार शेष रहें और अपहार समय भी चार हों, तो वे ' कृतयुग्मकृतयुग्म एकेद्रिन्य' कहलाते हैं । यहाँ 'उत्पलोद्देशक' का अतिदेश किया गया है, सो यह उत्पलोद्देशक ११ वें शतक का पहला उद्देशक है ।
उत्पल शक में उत्पल ( कमल) के जीव का उत्पाद विवक्षित है और वह पृथ्वीकाकादि दूसरी काय में जावे, पुनः उत्पल में आ कर उत्पन्न हो, तब उसका संवेध होता है, परन्तु यहाँ कृतयुग्मकृतयुग्म राशि रूप एकेन्द्रिय का उत्पाद अधिकृत है और एकेन्द्रिय तो अनंत उत्पन्न होते हैं । उनमें से निकल कर विजातीयकाय में उत्पन्न हो कर पुनः एकेन्द्रियपने उत्पन्न हों, तब संवेध होता है, किन्तु उनका वहाँ से निकलना असम्भवित होने से संवेध नहीं होता । यहाँ जो सोलह कृतयुग्मकृतयुग्म राशि रूप एकेन्द्रिय का उत्पाद कहा है, वह सकाय से आकर उत्पन्न होने वाले जीव की अपेक्षा है, परन्तु वह वास्तविक उत्पाद नहीं है । क्योंकि एकेन्द्रिय में प्रतिसमय अनंत जीव का उत्पाद होता है । इसलिये यहाँ एकेन्द्रिय की अपेक्षा संवेध असम्भवित होने से नहीं कहा है ।
१२ प्रश्न - अह भंते ! सव्वपाणा जाव सव्वसत्ता कडजुम्मकड-जुम्म एगिंदियत्ताए उववण्णपुव्वा ?
१२ उत्तर - हंता गोयमा ! असई अदुवा अनंतखुत्तो ।
भावार्थ - १२ प्रश्न - हे भगवन् ! सभी प्राण यावत् सभी सत्त्व कृतयुग्मकृतयुग्म एकेन्द्रिय रूप से पहले उत्पन्न हुए हैं ?
१२ उत्तर - हाँ, गौतम ! पहले अनेक बार अथवा अनंत बार उत्पन्न हुए ।
१३ प्रश्न - कडजुम्मते ओय ए गिंदिया णं भंते! कओ उववष्नंति ? १३ उत्तर - उववाओ तहेव ।
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