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भगवती सूत्र - श. ३५ अवान्तर शतक १ उ. १
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आठ कर्म-प्रकृति के बन्धक होते हैं । वे आहार संज्ञा यावत् परिग्रह संज्ञा वाले होते हैं । वे क्रोधकषायी, मानकषायी यावत् लोभकषायी होते हैं । स्त्रीवेदी और पुरुष वेटी नहीं होते, किन्तु नपुंसकवेदी होते हैं । वे स्त्रीवेद बन्धक, पुरुषवेद बन्धक अथवा नपुंसकवेद बन्धक होते हैं। वे संज्ञी नहीं, असंज्ञी होते हैं । वे सइन्द्रिय होते हैं, अनिन्द्रिय नहीं होते ।
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११ प्रश्न - ते णं भंते ! कडजुम्मकडजुम्मए गिंदिया कालओ केवचिरं होंति ?
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११ उत्तर गोयमा ! जहण्णेणं एक्क समयं उक्कोसेणं अनंत कालं - अनंता उस्सप्पिणी ओस्सप्पिणीओ, वणस्सइकाइयकालो | संवेहो भण्ण, आहारो जहा उप्पलुद्देसए, णवरं णिव्वाघापणं छद्दिसिं, वाघायं पच्च सिय तिदिसिं सिय चउदिसिं सिय पंचदिसिं, सेसं तहेव । ठिई जहणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्को सेणं बावीसं वाससहस्साई | समुग्घाया आदिल्ला चत्तारि । मारणंतियसमुग्धाएणं समोहया वि मरंति, असमोहया विमति । उव्वट्टणा जहा उप्पलुद्देसए ।
भावार्थ - ११ प्रश्न - हे भगवन् ! वे कृतयुग्मकृतयुग्म राशि रूप एकेन्द्रिय जीव, काल की अपेक्षा कितने काल तक होते हैं ?
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११ उत्तर - हे गौतम! वे जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अनन्तकाल, अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी रूप वनस्पति काल पर्यन्त होते हैं । यहाँ संवेध नहीं कहना । आहार उत्पलोद्देशक के अनुसार, व्याघात रहित छह दिशा का और व्याघात हो, तो कदाचित् तीन, चार या पांच दिशा का आहार लेते हैं । स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष । समुद्घात पहले के चार
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