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भगवती सूत्र-शश. ४. अवान्तर शतक २
बन्ध, वेद, उदय, उदीरणा, लेश्या, बन्धक, संज्ञा, कषाय और वेद-बन्धक, इन सभी का कथन बेइन्द्रिय के समान । कृष्णलेशी संज्ञी के तीनों वेद होते हैं, अवेदक नहीं होते । संचिटणा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम और स्थिति भी इसी प्रकार । स्थिति में अन्तर्मुहर्त अधिक नहीं कहना चाहिये । शेष प्रथम उद्देशक के अनसार यावत् 'पहले अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं । इस प्रकार सोलह युग्म में जानना चाहिये । ४०-२-१ ।
२ प्रश्न-पढमसमयकण्हलेस्सकडजुम्मकडजुम्मसण्णिपंचिंदिया णं भंते ! कओ उववज्जति ?
२ उत्तर-जहा सण्णिपंचिंदियपढमसमयउद्देसए तहेव गिरवसेसं । णवरं--
प्रश्न-ते णं भंते ! जीवा कण्हलेस्सा ?
उत्तर-हंता कण्हलेस्सा, सेसं तं चेव। एवं सोलससु वि जुम्मेसु । 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' तिएवं एए वि एकारस वि उद्देसगा कण्हलेस्ससए । पढम तइय-पंचमा सरिसगमा, सेसा अट्ठ वि एक्कगमा ।
® 'सेवं भंते ! सेवं भंते !' त्ति • ॥ चत्तालीसइमे सए बिइयं सण्णिमहाजुम्मसयं समत्तं ॥
भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! प्रथम समय के कृष्णलेशी कृतयुग्मकृतयुग्म राशि संज्ञो पञ्चेन्द्रिय जीव कहां से भाते हैं ?
२ उत्तर-हे गौतम ! प्रथम समय के संज्ञी पञ्चेन्द्रियों के उद्देशक के अनुसार । विशेष में
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