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भगवती मूत्र-श. २५ उ. ६ समद्घातं द्वार
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पुनः पुलाफपन आदि को प्राप्त होते हैं । पुलाक, पुल।कपन छोड़ कर जघन्य अन्तर्मुहूर्त में पुनः पुलाक हो सकता है और उत्कृष्ट अनन्तकाल में पुलाकपन को प्राप्त होता है । वह अनन्तकाल अनन्त अवरापिणी-उत्सर्पिणी रूप सगझना चाहिये और क्षेत्र से देशोन अपाद्धं पुद्गल-परावर्तन समझना चाहिये ।
पुद्गल-परावर्तन का स्वरूप इस प्रकार है। कोई जीव आकाग के प्रत्येक प्रदेश पर मृत्यु को प्राप्त हो । इस प्रकार मरण से जितने काल में समस्त लोक को व्याप्त करे, उतना काल क्षेत्र पुद्गल-परावर्तन' कहलाता है। यहाँ देशोन अर्द्ध पुद्गल परावर्तन काल पुलाकादि का अन्तर बताया है । स्नातक का अन्तर नहीं होता, क्योंकि स्नातक का पतन नहीं होता, इसलिये उनका अन्तर नहीं पड़ता है ।
समुद्घात द्वार
१४७ प्रश्र-पुलागस्स णं भंते ! कइ समुग्घाया पण्णत्ता ?
१४७ उत्तर-गोयमा ! तिण्णि समुग्घाया पण्णत्ता, तं जहावेयणासमुग्घाए, कसायसमुग्याए, मारणंतियसमुग्धाए ।
भावार्थ-१४७ प्रश्न-हे भगवन् ! पुलाक के समुद्घात कितने फहे हैं ?
१४७ उत्तर-हे गौतम ! तीन समुद्घात कहे हैं । यथा-वेदना-समुद्घात, कषाय-समुद्घात और मारणान्तिक-समुद्घात ।
१४८ प्रश्न-बउसस्स णं भंते !-पुच्छा । १४८ उत्तर-गोयमा ! पंच समुग्धाया पण्णत्ता, तं जहा-वेयणा
+ इस प्रकार का स्वरूप टीकाकारों ने ओर ग्रन्थकारों ने बताया है, किन्तु भगवती शतक १२ उद्देशक ४ में जो पुद्गल-परावर्तन का स्वरूप बताया है, उसका कथन पहले किया जा चुका है। यहाँ आगमोपत वक्रिय पुदगल-परावर्तन का आधा समझना चाहिये-ऐसी प्राचीन धारणा है।
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