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भगवती सूत्र-श. २५ उ. ७ प्रतिसंटीनता तप
१२२ उत्तर-हे गौतम ! सम्यक् प्रकार से समाधिपूर्वक शान्त हो कर हाथ-पांव संकुचित करना, कछुए के समान गुप्तेन्द्रिय हो कर, आलीन-प्रलीन (स्थिर) होना 'काय-प्रतिसंलीनता' है । यह 'योग-प्रतिसंलीनता' हुई।
१२३ प्रश्र-से किं तं विवित्तसयणासणसेवणया ?
१२३ उत्तर-विवित्तसयणासणसेवणया जण्णं आरामेसु वा उज्जाणेसु वा जहा सोमिलुद्देसए जाव सेज्जासंथारगं उवसंपजित्ता णं विहरइ। सेत्तं विवित्तसयणासणसेवणया । सेत्तं पडिसंलीणया । सेत्तं बाहिरए तवे १।
भावार्थ-१२३ प्रश्न-हे भगवन् ! विविक्तशयनासनसेवनता किसे कहते हैं?
१२३ उत्तर-हे गौतम ! विविक्त (स्त्री, पशु और पण्डक-नपुंसक से रहित) स्थान में अर्थात् आराम (बगीचा) उद्यान आदि अठारहवें शतक के दसवें सोमिल उद्देशकानुसार निर्दोष शय्या-संथारा आदि उपकरण ले कर रहना, विविक्तशयनासन सेवनता' कहलाती है । यह विविक्तशयनासनसेवनता और प्रतिसंलीनता के साथ-साथ ही बाह्य तप पूर्ण हुआ।
विवेचन-प्रतिसंलीनता का अर्थ है गोपन करना । योग, इन्द्रिय और कषायों की अशभ प्रवत्ति को रोकना 'प्रतिसं लीनता' है । मुख्य रूप से इसके चार भेद हैं । इन्द्रिय प्रतिसंलीनता, कषाय प्रतिसंलीनता, योग प्रतिसलीनता और विविक्तशयनासन सेवनता इन्द्रिय प्रतिसंलीनता के पाँच, कषाय प्रतिमलीनता के चार और योग प्रतिसंलीनता के तीन ..भेद हैं । ये बारह और विविक्तशयनासनसेवनता, ये सभी मिला कर तेरह भेद होते हैं उनका अर्थ इस प्रकार है
१ श्रोत्रेन्द्रिय प्रतिसंलीनता-श्रोत्रेन्द्रिय को अपने विषयों की ओर जाने से रोकन तथा श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा गृहीत विषयों में राग-द्वेष नहीं करना ।
२ चक्षुरिन्द्रिय प्रतिसंलीनता-चक्षु अर्थात् नेत्रों को अपने विषय की ओर जाने रो रोकना और चक्षुरिन्द्रिय द्वारा गृहीत विषयों में राग-द्वेष नहीं करना ।
३ घ्राणेन्द्रिय प्रतिसंलीनता।
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