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________________ ३५८६ भगवती मूत्र-श. २६ उ. ११ अचरम बन्धक सेसं । वेयणिजे सव्वत्थ वि पढम-बिइया भंगा जाव वेमाणियाणं, णवरं मणुस्सेसु अलेस्से, केवली अजोगी य णस्थि । भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! अचरम नैरयिक ने ज्ञानावरणीय कर्म बांधा था० ? ४ उत्तर-हे गौतम ! पाप-कर्म के समान । परन्तु सकषायी और लोभकषायो मनुष्यों में पहला और दूसरा भंग कहना चाहिये तथा शेष अठारह पदों में अन्तिम भंग के अतिरिक्त शेष तीन भंग कहने चाहिये । शेष पूर्ववत् । इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त । दर्शनावरणीय-कर्म के विषय में भी । इसी प्रकार वेदनीय-कर्म के विषय में समी स्थानों में पहला और दूसरा भंग यावत् वैमानिक पर्यंत । किंतु यहां अचरम मनुष्य में अलेशी, केवली और अयोगी नहीं होते। ५ प्रश्न-अचरिमे णं भंते ! गेरइए मोहणिजं कम्मं किं बंधीपुच्छा । ५ उत्तर-गोयमा ! जहेव पावं तहेव णिरवसेसं जाव वेमाणिए । भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! अचरम नयिक ने मोहनीय कर्म बांधा था० ? ५ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार पाप-कर्म के विषय में कहा, उसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए। ६ प्रश्न-अचरिमे णं भंते ! णेरइए आउयं कम्मं किं बंधीपुच्छा। ६ उत्तर-गोयमा ! पढम-बिइया भंगा. एवं सव्वपएसु वि । णेरइयाणं पढम-तइया भंगा, णवरं सम्मामिच्छत्ते तहओ भंगो, एवं जाव थणियकुमाराणं । पुढविक्काइय-आउक्काइय-वणस्सइकाइयाणं तेउ. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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