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भगवती मूत्र-श. २६ उ. ११ अचरम बन्धक
सेसं । वेयणिजे सव्वत्थ वि पढम-बिइया भंगा जाव वेमाणियाणं, णवरं मणुस्सेसु अलेस्से, केवली अजोगी य णस्थि ।
भावार्थ-४ प्रश्न-हे भगवन् ! अचरम नैरयिक ने ज्ञानावरणीय कर्म बांधा था० ?
४ उत्तर-हे गौतम ! पाप-कर्म के समान । परन्तु सकषायी और लोभकषायो मनुष्यों में पहला और दूसरा भंग कहना चाहिये तथा शेष अठारह पदों में अन्तिम भंग के अतिरिक्त शेष तीन भंग कहने चाहिये । शेष पूर्ववत् । इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त । दर्शनावरणीय-कर्म के विषय में भी । इसी प्रकार वेदनीय-कर्म के विषय में समी स्थानों में पहला और दूसरा भंग यावत् वैमानिक पर्यंत । किंतु यहां अचरम मनुष्य में अलेशी, केवली और अयोगी नहीं होते।
५ प्रश्न-अचरिमे णं भंते ! गेरइए मोहणिजं कम्मं किं बंधीपुच्छा ।
५ उत्तर-गोयमा ! जहेव पावं तहेव णिरवसेसं जाव वेमाणिए ।
भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! अचरम नयिक ने मोहनीय कर्म बांधा था० ?
५ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार पाप-कर्म के विषय में कहा, उसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए।
६ प्रश्न-अचरिमे णं भंते ! णेरइए आउयं कम्मं किं बंधीपुच्छा।
६ उत्तर-गोयमा ! पढम-बिइया भंगा. एवं सव्वपएसु वि । णेरइयाणं पढम-तइया भंगा, णवरं सम्मामिच्छत्ते तहओ भंगो, एवं जाव थणियकुमाराणं । पुढविक्काइय-आउक्काइय-वणस्सइकाइयाणं तेउ.
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