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________________ भगवती मूत्र-श. २५ उ. ६ गति द्वार । ३३८१ ४ दुषमसुषमा ५ दुषमा और ६ दुपमदुपमा । उत्सपिणी काल के भी उलटे क्रम से ये ही छह आरे होते हैं । यथा-१ दुषमदुषमा २ दुपमा ३ दुषमसुषमा ४ सुषमदुषमा ५ सुषमा और ६ सुषमसुषमा । . पुलाक, जन्म की अपेक्षा अवसर्पिणी काल के तीसरे औ· चौथे आरे में होता है तथा सद्भाव की अपेक्षा तीसरे. चौथे और पांचवें आरे में होता है । इनमें से जो चोथे आरे में जन्मा हुआ है, उसका सद्भाव पाँचवें आरे में भी होता हैं। तीसरे और चौथे आरे में जन्म और सद्भाव दोनों होते हैं । उत्सपिणी काल में जन्म की अपेक्षा दूसरे, तीसरे और चौथे आरे में होता है अर्थात् दूसरे आरे के अन्त में जन्म होता है और तीसरे आरे में वह चारित्र को स्वीकार करता है । तीसरे और चौथे आरे में जन्म और सद्भाव (चारित्र परिणाम) दोनों होते हैं अर्थात् सद्भाव की अपेक्षा तीसरे और चौथे आरे में ही होता है, क्योंकि इन्ही आरों में चारित्र की प्रतिपत्ति (स्वीकार) होती है । देवकुरु और उत्तरकुरु में सुषमसुषमा के समान काल होता है । हरिवर्ष और रम्यक्वर्ष क्षेत्रों में सुषमा के समान काल होता है । हैमवत और ऐरण्यवत क्षेत्रों में सुषमदुषमा के समान काल होता है और महाविदेह क्षेत्र में दुषमसुषमा के समान काल होता है। मुलाक का संहरण नहीं होता, किन्तु निग्रंथ और स्नातक का संहरण होता है । इसलिये संहरण की अपेक्षा निग्रंथ और स्नातक का सद्भाव सर्वकाल में होता है । तात्पर्य यह है कि पहले संहरण किये हुए मनुष्य को निग्रंथ और स्नातकपने की प्राप्ति होती है, यह समझना चाहिये । क्योंकि निग्रंथ और स्नातक वेद रहित होते हैं और वेद रहित । मुनियों का संहरण नहीं होता । जैसा कि कहा है .समणीमवगयधेयं परिहार-पुलाय-मप्पमत्तं च । चोद्दसपुचि आहारयं च, ण य कोइ संहरइ॥' . अर्थात्-श्रमणी (साध्वी) अपगतवेद (वेद रहित), परिहारविशुद्धि चारित्रवान्, पुलाक, अप्रमत्त संयत (सातवें आदि गुणस्थानवर्ती) चौदह पूर्वधर और आहारक लब्धिमान्, इनका संहरण नहीं होता। गति द्वार ५९ प्रश्न-पुलाए णं भंते ! कालगए समाणे किं (क) गई गच्छद? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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