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भगवती सूत्र-श. २५ उ. ७ धर्म ध्यान
होना एवं हिंसादि में प्रवृत्ति करते रहना 'आमरणान्त दोष' है। जैसे कालमौकरिक कमाई ।
.. कठोर एवं संक्लिष्ट परिणाम वाला रौद्रध्यानी दूसरे के दुःख में प्रसन्न होता है । ऐहिक और पारलौकिक भय से रहित होता है । उसके मन में अनुकम्पा भाव लेशमात्र भी नहीं होता । अकार्य कर के भी उसे पश्चात्ताप नहीं होता। पाप कार्य कर के वह प्रसन्न होता है।
धर्म ध्यान
१४७-धम्मे झाणे चउविहे चउप्पडोयारे पण्णत्ते, तं जहा१ आणाविजए २ अपायविजए ३ विवागविजए ४ संठाणविजए । धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तं जहा-१ आणा. रुयी- २ णिस्सगरुयी ३ सुत्तरुयी ४ ओगाढरुयी। धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि आलंबणा पण्णत्ता, त जहा-१ वायणा २ पडिपुच्छणा ३ परियट्टणा ४ धम्मकहा। धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-१ एगत्ताणुप्पेहा २ अणिचाणुप्पेहा ३ असरणाणुप्पेहा ४ संसाराणुप्पेहा ।
कठिन शब्दार्थ--चउप्पडोयारे--चतुष्प्रत्यवतार अर्थात् भेद, लक्षण, आलम्बन और अनुप्रेक्षा, इन चार बातों से जिसका विचार किया जाय।
भावार्थ-१४७-धर्म ध्यान के चार प्रकार एवं चतुष्प्रत्यवतार कहा है। यथा-१ आज्ञाविचय २ अपायविचय ३ विपाक-विचय और ४ संस्थानविचय ।
धर्म ध्यान के चार लक्षण कहे हैं । यथा-१ आज्ञारुचि २ निसर्गरुचि ३ सूत्ररुचि और ४ अवगाढ़रुचि ।
धर्म ध्यान के चार अवलम्बन कहे हैं । यथा-१ वाचना २ प्रतिपृच्छना
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