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________________ (8) ही नहीं हो सकता, पाँवों में लगे काँटे आदि का कष्ट नहीं हो सकता । अतएव आत्मा के आठ मध्य-प्रदेशों को अनावरित बताना उचित नहीं है। निग्रंथ-दर्शन निग्रंथों का विषय श. २५ उ. ६ में है। निग्रंथों में कषाय-कुशील का चारित्र निर्दोष होता है । उनके चारित्र में किसी प्रकार का दोष नहीं होता (पृ. ३३६७) निग्रंथ और स्नातक भगवंतों का चारित्र भी सर्वथा निर्दोष होता है । दोष लगता है-पुलाक, बकुश और प्रतिसेवना-कुशील निग्रंथों के चारित्र में। इनके स्वरूप के विषय में कुछ भ्रम जैसा चल रहा है। पुलाकपन तो संयमी जीवन में अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं रहता ( पृ. ३४२६ ) । जब तक रहता है, तब तक ही दोष लगता है । इसके बाद या तो वे शुद्ध हो कर कषायकुशील रूप उच्च श्रेणी में प्रविष्ट हो जाते हैं, या असंयमी बन जाते हैं (पृ. ३४१३) इनके विषय में व्याख्याकारों का मत है कि पुलाक-निग्रंथ उस समय पुलाक-लब्धि को सक्रिय करते हैं, जब कि कोई प्रचण्ड धर्म-द्वेषी, जिनधर्म एवं संघ पर क्रूर बन कर भयंकर क्षति पहुँचाने को तत्पर हो और किसी प्रकार समझना एवं शान्त होना नहीं चाहता हो, तब उस उपद्रव से संघ की रक्षा करने के लिए वे इस शक्ति का उपयोग कर के उस क्रूर की शक्ति नष्ट करते हैं । पुलाक-लब्धि में इतनी शक्ति होती है कि वह शक्तिशाली महात्मा अपनी क्रुद्ध दृष्टि से लाखों मनुष्यों की सेना का भी निरोध कर सकते हैं । उनकी शक्ति के आगे शस्त्रबल व्यर्थ हो जाता है। . पुलाक-लब्धि, निर्दोष साधना करने वाले कषाय-कुशील संयतों में से ही किसी विशिष्ट साधक को अनायास प्राप्त होती है (पृ. ३४१६) बकुश या प्रतिसेवना-कुशील को नहीं होती (पृ. ३४१५) । तात्पर्य यह कि निर्दोष चारित्र के सद्भाव में ही किसी को पुलाक-लब्धि उत्पन्न होती हैं। कठिन परिस्थिति में अन्य कोई मार्ग नहीं देख कर वे लब्धि का प्रयोग करते हैं, तब भी उनमें तीन शुभ लेश्या में से कोई लेश्या रहती है, अशुभ लेश्या नहीं रहती (पृ. ३४०२) और आहारादि संज्ञा के उपयोग युक्त भी नहीं होते (पृ. ३४१८) किन्तु उस समय उनका चारित्र हीनकोटि का हो जाता है (पृ. ३३९०)। उनका चारित्र दूषित होता है, बकुश और प्रतिसेवना-कुशील से भी हीन (पृ. ३३६५) । यदि वे सावधान हो कर अपने दोष की शुद्धि कर लें, तो पुनः कषाय-कुशील निग्रंथ हो कर निर्दोष Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004092
Book TitleBhagvati Sutra Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size11 MB
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