Book Title: Samaysundar Kruti Kusumanjali
Author(s): Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
Publisher: Nahta Brothers Calcutta
Catalog link: https://jainqq.org/explore/003810/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्उर-कृति--कुसुमाञ्जली संग्राहक-सम्पादक गरच नाहटा भनाहटा Jain Educatio Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अभय-जैन ग्रन्थमाला पुष्प १५ समयसुन्दर-कृति-कुसुमाञ्जलि (कविवर की ५६३ लघु रचनाओं का संग्रह) भूमिका लेखक डा० हजारीप्रसादजी द्विवेदी चरित्र लेखक और संशोधक महोपाध्याय विनयसागर संग्राहक और सम्पादक अगरचन्द नाहटा, भंवरलाल नाहटा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: नाहटा ब्रदर्स ४ जगमोहन मल्लिक लेन कलकत्ता ७ चैत्र शुक्ल १३ । । वि० सं० २०१३ । वीर सं० २४८२ ) प्रथमावृत्ति मूल्य २००० मुद्रक:जैन प्रिन्टिंग प्रेस, कोटा. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. जैन साहित्य महारथी स्व० श्री मोहनलाल द० देशाई Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण जिनके "कविवर समयसुन्दर" निबन्ध ने हमें साहित्यक्षेत्र में आगे बढ़ने का अवसर दिया, जिनके "जैन गूर्जर कविओ" भाग १-२-३ व "जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास" ग्रन्थ जैन साहित्य और इतिहास के लिए परम प्रकाश पुञ्ज हैं, उन्हीं सहृदय, परम अध्यवसायो, शोध निरत, महान् परिश्रमी और निष्णात साहित्य-महारथी स्वर्गीय श्री मोहनलाल दलीचन्द देसाई (एडवोकेट, बम्बई हाईकोर्ट) महोदय की मधुर स्मृति में यह सयमसुन्दर कृति कुसुमाञ्जलि सादर समर्पित है। अगरचन्द नाहटा, भंवरलाल नाहटा. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका मेरे मित्र श्री अगरचन्दजी नाहटा प्राचीन ग्रन्थों के अन्वेषक की अपेक्षा उद्धारक अधिक हैं, क्योंकि वे केवल पुस्तकों के भाण्डारों में गोते लगाकर सिर्फ पुरानी अज्ञात अपरिचित पुस्तकों और प्रन्थकारों का पता ही नहीं लगाते हैं बल्कि पता लगाई हुई पुस्तक और लेखकों के अतिरिक्त वक्तव्य विषय का ऐतिहासिक वृत्त एवं सांस्कृतिक महत्त्व बताकर साहित्य प्रेमी जनता को उनके प्रति उत्सुक बनाते हैं और समय समय पर महत्व-पूर्ण ग्रन्थों का संपादन करके उन्हें सर्व-जन-सुलभ भी बनाते हैं। नाहटाजी ने अब तक सैकड़ों अत्यन्त महत्वपूर्ण पुस्तकों का संधान बताया है और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में सैंकड़ों लेख लिखकर विस्मृत ग्रन्थों तथा ग्रन्थकारों की ओर सहृदयों का ध्यान आकृष्ट किया है । नाहटाजी जैसे परिश्रमी और बहुश्रुत विद्वान है वैसे ही उदार और निस्पृह भी। उन्होंने अपने महत्व-पूर्ण लेखों को दोनों हाथ लुटाया है। छोटी-छोटी अपरिचित पत्रिकाएँ भी उनकी कृपा से कभी वञ्चित नहीं रहती हैं। इस अवीर दानी स्वाभाव का फन यह हुआ है कि उनके लेख इतने बिखर गए हैं कि साहित्य के विद्यार्थी के लिए एकत्र करके पढ़ना और लाभ उठाना लगभग असम्भव हो गया है। यदि ये सभी लेख पुस्तक रूप में एकत्र संगृहीत हो जाँय तो बहुत ही अच्छा हो । अस्तु। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर भारत में ईस्वी सन् की १० वीं शताब्दी के पाद विदेशी आक्रामकों के धक्के बार-बार लगते रहे हैं। इसका नतीजा यह हुआ है कि दसवीं से चौदहवीं शताब्दी तक देशी भाषाओं में जो साहित्य बना वह उचित संरक्षण नहीं पा सका। साधारणतः तीन प्रकार से प्राचीन काल में हस्तलिखित ग्रन्थों का रक्षण होता रहा है-(१) राजशक्ति के आश्रय में, (२) संघटित धर्म-संप्रदाय के संरक्षण में, और (३) लोक-मुख में । जिन प्रदेशों में परवर्तीकाल में अवधी और ब्रजभाषा का साहित्य लिखा गया, उनमें दुर्भाग्यवश चौदहवीं शताब्दी तक देशी भाषाओं में लिखे गए साहित्य के लिए प्रथम दो आश्रय बहुत कम उपलब्ध हुए । मुगल साम्राज्य की प्रतिष्ठा के बाद देश में शान्ति और सुव्यवस्था कायम हुई और हस्तलिखित ग्रन्थों के संरक्षण का सिलसिला भी जारी हुआ। परन्तु राजपूताने में दोनों प्रकार के आश्रय प्राप्त थे। इसीलिये राजस्थान में देशी भाषा के अनेक ग्रन्थ सुरक्षित रहे । यद्यपि विदेशी आक्रामको ने राजपूताने पर भी आक्रमण किए परन्तु भौगोलिक कारणों से उस प्रदेश में बहुत-सी साहित्यिक संपत्ति सुरक्षित रह गई। अनेक राजवंशों के पुस्तकालयों में ऐसी पुस्तकें किसी न किसी रूप में सुरक्षित रह गई। किन्तु पुस्तकों के संग्रह और सुरक्षण का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य जैन-ग्रन्थ-भारडारों ने किया है। जैन मुनि लोग सदाचारी और विद्याप्रेमी होते थे। वे स्वयं शास्त्रों का पठन-पाठन करते थे, और लोक-भाषा में काव्य-रचना भी करते थे। इन ग्रन्थ भाण्डारों का इतिहास बड़ा ही मनोरंजक है । काल-कम से गृहस्थ भक्तों के चित्त में इन ग्रन्थ भाण्डारों के प्रति कभी कभी मोहान्ध भक्ति भी देखी गई है । कितने ही भाण्डारों के ताले वर्षों से खुले ही नहीं, कितने ही ग्रन्थ भाण्डारों में पुस्तकें रखी-रखी राख हो गई, और जाने कितने बहुमूल्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रन्थ सदा के लिये लुप्त हो गए। फिर भी इस निष्ठा पूर्वक समाचरित अन्धभक्ति का ही सुफल है कि इन ग्रन्थ-भाण्डारों के ग्रन्थ बिना हेर-फेर के शताब्दियों से ज्यों के त्यों सुरक्षित रह गए हैं। इन प्रन्थ-भाण्डारों को पूर्ण परीक्षा अभी नहीं हुई है। परन्तु जिन लोगों को भी इन महत्त्वपूर्ण भाण्डारों को देखने का सुअवसर मिला है; वे कुछ न कुछ महत्त्व-पूर्ण ग्रन्थ अवश्य (प्रकाश में) ला सके हैं । नाहटाजी को कई भाण्डारों के देखने का अवसर मिला है और उन्होंने अनेक ग्रन्थ-रत्नों का उद्धार भी किया है। समयसुन्दर कृति 'कुसुमाञ्जलि' भी ऐसी ही खोज का सुफन है। यह प्रन्थ भाषा, छन्द, शैली और ऐतिहासिक सामग्री की दृष्टि से बहुत महत्व-पूर्ण है। इसमें सन् १६८७ ई० के अकाल का बड़ा ही जीवन्त वर्णन है । यह अकाल गोसाई तुलसीदास के गोलोकवास के सिर्फ सात वर्ष बाद हुआ था। कवि ने इसका बड़ा ही हृदय-द्रावक और जीवन्त वर्णन किया है । इस ग्रन्थकार के बारे में नाहटाजी ने नागरी-प्राचारिणी पत्रिका के सं० २००६ के प्रथम अंक में जो लिखा था, उससे जान पड़ता है कि इस ग्रन्थ कार की जन्म-भूमि मारवाड़ प्रांत का सांचौर स्थान है। ये पोरवाद वंश के रत्न थे और इनका जन्मकाल संभवतः सं० १६२० वि० है। अकबर के आमंत्रण पर ये लाहौर में सम्राट से मिलने गए थे । इनके लिखे संस्कृत ग्रन्थों की संख्या पच्चीस है और भाषा में लिखे ग्रन्थों की संख्या भी तेईस है। इन्होंने 'सात छत्तीसियों' की भी रचना की थी। कई अन्य रचनाएं भी इनके नाम पर चलतो है पर नाहटाजी को उनकी प्रामाणिकता पर संदेह है। सं० १७०२ में चैत्र शुक्ला त्रयोदशी (महावीर जन्म जयन्ती) के दिन अहमदाबाद में इन्होंने अनशन आराधना पूर्वक शरीर त्याग किया। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (=) इनके द्वारा रचित साहित्य की नामावली देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वह कितना महत्त्व पूर्ण है । उसमें रास, चौपाई आदि कई ऐसे काव्य रूप मिलते हैं, जो अपभ्रंश-काल से उस समय तक बनते चले आ रहे थे। इनके प्रकाशित होने पर उन छूटी हुई कड़ियों का पता लग सकता है, जो अब तक अज्ञात हैं । नाहटाजी ने जिस ग्रन्थ का संपादन किया है वह इनकी कवित्वशक्ति की प्रौढ़ता का उदाहरण है । इसकी भाषा में भावों को अभिव्यक्त करने की अद्भुत क्षमता है । कवि का ज्ञान परिसर बहुत ही विस्तृत है, इसलिये वह किसी भी वर्ण्य विषय को बिना प्रयास के सहज ही संभाल लेता है । इस पुस्तक के छन्दों और रागों से तत्कालीन ब्रजभाषा में प्रचलित पढ़-शैली के अध्ययन में सहायता मिलेगी । नाथ-पंथी योगियों और निगुणियों सन्तों की भाषा और शैली की तुलना की जा सकती है । जान पड़ता है कि इस ग्रन्थ का लेखक निर्गुण भाव से भजन करने वाले सन्तों की साखी तथा सबदी शैली से पूर्णतः परिचित है और सूरदास, तुलसीदास जैसे सगुण भाव से भजन करने वाले भक्त कवियों की पदावली से भी प्रभावित है। कई पदों में सूरदास और तुलसीदास की शैलियों का रस मिलता है । यह ग्रन्थ सन् ई० की सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी की भाषा और शैली के अध्ययन में बहुत सहायक सिद्ध होगा । नादाजी ने इस ग्रन्थ का संपादन करके हिन्दी - साहित्य के अध्येताओं के सामने बहुत अच्छी सामग्री प्रस्तुत की है। मैं हृदय से उनके प्रयत्न का अभिनन्दन करता हूँ । भगवान से मेरी प्रार्थना है कि नाहटाजी को दीर्घायुष्य और पूर्ण स्वास्थ्य प्रदान करें; जिससे वे अनेक महत्त्व - पूर्ण ग्रन्थ-रत्नों का उद्धार करते रहें । तथास्तु | हजारीप्रसाद द्विवेदी काशी ११-३-५६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तव्य महोपाध्याय कविवर समयसुन्दर की लघु रचनाओं का यह संग्रह प्रकाशित करते हुए २८ वर्ष पूर्व की मधुर स्मृतियें उभर आती हैं। वैसे तो कविवर की रचनाओं का रसास्वाद हमें अपने बाल्यकाल में ही मिल गया था, क्योंकि राजस्थान में, विशेषतः बीकानेर में आपके रचित शत्रु जय रास, ज्ञान पञ्चमी और एकादशी के स्तवन, वीर स्तवन ( वीर सुणो मोरी वीनती), शत्रु अय आलोयणास्तवन ( कृपानाथ मुझ वीनती अवधार ) और कई अन्य स्तवन और सज्झायें जैन जनता के हृदयहार बन रही हैं। इनमें से कई रचनायें तो किसी गच्छ और सम्प्रदाय के भेदभाव बिना समस्त श्वेताम्बर जैन समाज में खूब प्रसिद्ध हैं। हमारे पिताजी प्रातःकाल की सामायिक में आपके रचित शत्रुञ्जय रास, गौतमगीत, नाकोड़ा स्तवन आदि नित्य पाठ किया करते थे और माताजी एवं अन्य परिवार वालों से भी आपकी रचनाओं का मधुर गुन्जारव हमने बाल्यकाल में सुना है । पर सं० १९८४ को माघ शु०५ को खरतरगच्छ के बड़े प्रभावशाली और गीतार्थ प्राचार्य श्रीजिनकृपाचंद्रसूरिजी हमारे पिताश्री और बाबाजी आदि के अनुरोध से बीकानेर पधारे। वह विशेष रूप से उल्लेखनीय है । हमारी कोटड़ी में ही उनके विराजने से हम भी व्याख्यान, प्रतिक्रमण आदि का लाभ उठाने लगे। इससे पूर्व भी कलकत्ता में सरवसुखजी नाहटा के साथ प्रतिदिन सामायिक में गाते हुए शत्रु जय रास आदि तो हमने कण्ठस्थ कर लिये थे और ज्ञानपञ्चमी-एकादशी के स्तवन आदि भी समय समय पर बोलने और सुनाने के कारण अभ्यस्त हो गये थे। प्राचार्यश्री के साथ उपाध्याय सुखसागरजी, विनयी राजसागरजी और लघु शिष्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगलसागरजी थे, उनसे भी प्रतिक्रमण आदि में आपके कई स्तवन-सज्भाय सुनते रहते थे। पर एक दिन उनके पास आनन्दकाव्य महोदधि का सातवाँ मौक्तिक देखा, जिसमें जैन साहित्य महारथी स्व० मोहनलाल दलीचन्द देसाई का "कविवर समयसुन्दर"। निबन्ध पढ़ने को मिला। इस ग्रन्थ में कविवर का चार प्रत्येकबुद्ध रास भी छपा था। देसाई के उक्त निबन्ध ने हमें एक नई प्रेरणा दी । विचार हुआ कि समयसुन्दर राजस्थान के एक बहुत प्रसिद्ध कवि हैं और बीकानेर की आचार्य खरतर शाखा का उपाश्रय तो समयसुन्दर जी के नाम से ही प्रसिद्ध है। अतः उनक सम्बन्ध में गुजरात के विद्वान ने इतने विस्तार से लिखा है तो राजस्थान में खोज करने पर तो बहुत नई सामग्री मिलेगी। बस, इसी आंतरिक प्रेरणा से हमारी शोध प्रवृत्ति प्रारम्भ हुई। श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरिजी के उपाश्रय में ही हमें आपकी अनेक रचनाएँ मिलीं, जिनमें से चौवीसी को तो हमने अपने 'पूजा संग्रह' के अन्त में सं० १९८५ ही में प्रकाशित करदी थी और बड़े उपाश्रय के ज्ञान-भंडार, जयचंदजी भंडार, श्रीपूज्यनी का संग्रह, यति चुन्नीलालजी भं० अनूप संस्कृत लाइब्रेरी और पाश्वचंद्रसूरि उपाश्रय भ०व खरतर आचार्य शाखा का भण्डार मुख्यतः इसी दृष्टि से देखने प्रारम्भ किये कि कविवर की अज्ञात रचनाओं का संग्रह और प्रकाशन किया जाय । ज्यों ज्यों इन संग्रहालयों की हस्तलिखित प्रतियां देखने लगे, त्यों त्यों कविवर को अनेक अज्ञात रचनाएं मिलने के साथ अन्य भी नई नई सुन्दर सामग्री देखने को मिली उससे हमारा उत्साह बढ़ता चला गया। सबसे पहले महावीर मण्डल के पुस्तकालय में हमें एक ऐसा गुटका मिला जिसमें कविवर की छोटी छोटी पचासों रचनाएँ संगृहीत थीं। साथ ही विनयचन्द्र आदि सुकवियों की मधुर यह गुजराती साहित्य परिषद में पहले पढ़ागया फिर जैन साहित्य संशोधक भा० २०३-४ में छपा था। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) रचनाएँ भी देखने को मिली । हमने बड़े उत्साह के साथ उन सब की नकलें करलीं। उस समय की लिखी हुई स्तवन सज्झाय संग्रह की दो कापियां आज भी हमें उस समय की हमारी रुचि और प्रवृत्ति की याद दिला रही हैं। साथ ही दूसरे कवियों की जो छोटी छोटी सुन्दर रचनाएँ हमें मिलीं, उनके नोट्स भी दो छोटी-कॉपियों में लेते रहे, जो अब तक हमारे संग्रह में हैं। कविवर की रचनाएं इतनी अधिक प्रचलित हुई व इतनी बिखरी हुई हैं कि जिस किसी संग्रहालय में हम पहुंचते, वहां कोई न कोई अज्ञात छोटी मोटी रचना मिल ही जाती । इसलिये हमारं। शोध प्रवृत्ति को बहुत वेग मिला। बड़े-बड़े ही नहीं,छोटे-छोटे भण्डारों क फुट कर पत्रों और गुटकों को भी हमने इसी लिये छान डाला कि उनमें कविवर की कोई रचना मिल जाय । आशानुरूप हर जगह से कुछ न कुछ मिल ही जाता । इस तरह वर्षों के निरन्तर लगन और श्रम से इस सग्रह को हम तैयार कर सके हैं। कविवर के सम्बन्ध से ही हमें बड़े बड़े विद्वानों से पत्र व्यवहार करने, मिलने और भण्डारों को देखने का सुयोग मिला। अन्यथा पांचवीं कक्षा तक के विद्यार्थी और व्यापारी घराने में जनमे हुए साधारण व्यक्ति के लिये वैसे सम्पर्कों की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस लिये कविवर का जितना ऋण हमारे पर है, उससे थोड़ा सा उऋण होने का हमारा यह प्रकाशन-प्रयास है। देसाई के उल्लिखित कविवर की कई रचनाओं के सम्बन्ध में हमें उन्हें पूछ-ताछ करना आवश्यक था । इसलिये हमने अपनी जिज्ञासा कई प्रश्नों के रूप में उन्हें लिख भेजी। किसी भी साहित्यिक विद्वान से पत्र व्यवहार करने का हमारा यह पहला मौका था। कई महीनों तक उनका उत्तर नहीं आया तो वहा विचार और निरुत्साह होने लगा। पर कई महीनों बाद (ता० १६-१-३० को) उनका एक विस्तृत पत्र आया और फिर तो हमारा और उनका घनिष्ट सम्बन्ध होगया। उनके करीब ५० महत्त्वपूर्ण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) पत्र हमारे संग्रह के हजारों पत्रों में निधिरूप हैं । फिर तो देसाईजी ने हमारे यु० जिनचन्द्रसूरि प्रन्थ की विस्तृत प्रस्तावना लिखी । वे बीकानेर भी आये और कई दिन हमारे यहां रहे। तत्पूर्व और तब सैंकड़ों अज्ञात ग्रन्थों की जानकारी हमने शताधिक पृष्ठों की उन्हें दी, जिसका उपयोग उन्होंने 'जैनगूर्जर कविश्रो' के तीसरे भाग में किया है। इसी तरह पं० लालचन्द भगवानदास गाँधी, बड़ौदा इन्स्ट्रीच्यूट के बड़े विद्वान हैं। उन्होंने जैसलमेर भांडागारीय सूची में समयसुन्दरजी की रचनाओं की सूची दी है, उसमें से कई रचनाएँ हमें कहीं नहीं मिली थीं। इसलिये उनसे भी सर्व प्रथम (ता०२७-१२-२६ के हमारे पत्र का उत्तर ता०१-२-३० को मिला) पत्र व्यवहार कवि की उन रचनाओं के लिये ही हुआ। कलकत्ते के अद्वितीय संग्राहक स्व० पूर्णचन्द्रजी नाहर से भी हमारा सम्बन्ध कविवर की आलोयणा छत्तीसी को लेकर हुअा। हम कविवर की अज्ञात रचनाओं की जानकारी के लिए उनके यहाँ पहुंचे तो पालोयणा छत्तीसी का नाम उनकी सूची में पाप छत्तीसी लिखा देखकर दोनों रचनाओंकी अभिनता की जांच करने के लिए उसकी प्रति निकलवाई। तभी से उनसे हमारा मधुर सम्बन्ध दिनों दिन बढ़ता गया। वे कई बार हमारे इस प्रारम्भिक सम्पर्क की याद दिलाते हुए कहा करते थे कि हमारा और श्रापका सम्बन्ध उस "पाप छत्तीसी" के प्रसङ्ग से हुआ है। ये थोड़े से उदाहरण हैं, जिनसे पाठक समझ सकेंगे कि कविवर की रचनाओं की शोध के द्वारा ही हमारा साहित्यिक, ऐतिहासिक, अन्वेषणात्मक जीवन का प्रारम्भ हुआ और बड़े बड़े विद्वानों के साथ सम्पर्क स्थापित हुआ। उपाध्याय सुखसागरजी की प्रेरणा और सहयोग भी यहां उल्लेखनीय है। उन्हें भी कविवर के ग्रन्थों के प्रकाशन की ऐसी धुन लगी कि बीकानेर चातुर्मास के बाद सर्व प्रथम सं० १९८८ में कल्याण मन्दिर वृत्ति, जिसकी उस समय एक मात्र प्रति पार्का Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रसूरि गच्छ के उपाश्रय में ही मिली थी, प्रकाशित करवाई और उसके बाद क्रमशः गाथा सहस्री, कल्पसूत्र की कल्पलता टीका, कलिकाचार्य कथा (स.१६६६), सप्तस्मरण वृत्ति, समाचारी शतक (स०१६६६) आदि बड़े-बड़े प्रथ सम्पादित कर प्रकाशित करवाये । इसके पूर्व भी विशेषशतक (सं० १९७३), जयतिहुअणवृत्ति, दुरियरवृत्ति (सं० १९७२-७३), जिनदत्तसूरि ग्रन्थमाला से वे प्रकाशित करवा चके थे। इनके अतिरिक्त इससे पूर्व कविवर की संस्कृत रचनाओं में दशवैकालिकवृत्ति, अल्पबहुत्त्वगर्भित वीरस्तवस्वोपज्ञवृत्ति, श्रावकाराधना और अष्टलक्षी ये चन्द ग्रन्थ ही विविध स्थानों से छपे थे। सं० २००८ में बुद्धिमुनिजी ने चातुर्मासिक व्याख्यान पद्धति प्रकाशित की। राजस्थानी भाषाओं की रचनाओं में शत्रुञ्जय रास, दानादि चौढालिया, ज्ञानपञ्चमी, एकादशी आदि के पूर्व वर्णित स्तवन, सज्झाय, 'रत्नसागर', 'रत्न समुच्चय' और हमारे प्रकाशित 'अभयरत्नसार' आदि में बहुत पहले ही छप चुके थे। देसाई ने भी उन्हें प्राप्त कुछ छोटे-मोटे गीत और वस्तुपाल तेजपालरास, सत्यासिया दुष्काल वर्णन आदि जैनयुग (मासिक) में प्रकाशित किये थे। हमने कविवर की रचनाओं में सर्वप्रथम 'जैनज्योति' मासिक पत्र में पुन्जा ऋषिरास सं.१९८७ में प्रकाशित करवाया और कवि के मृगावतीरास के आधार से 'सती-मृगावती' पुस्तक लिखकर सं० १९८६ में प्रकाशित की। उसके बाद तो कविवर सम्बन्धी कई लेख जैन, कल्याण (गुज०), भारतीय विद्या (सत्यासीया दुष्काल वर्णन छत्तोसी), नागरी प्रचारिणी पत्रिका, जैन-भारती, जैन जगत आदि पत्रों में प्रकाशित किये। सं० १९८६ में ही हमें कविवर के जीवनी संबंधित उन्हीं के शिष्य हर्षनंदन और देवीदास रचित 'समयसुंदरोपाध्यायनाम् गीत द्वयम् का एक पत्र प्राप्त हुआ, जिनकी नकल हमने देसाईजी को भेजकर जैनयुग गत वर्ष धनदत्त रास व प्रियमेलक रास का सार भी जैनभारती और मरुभारती में प्रकाशित किया गया है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के सं० १९८६ के वैशाख जेठ अङ्क के पृ० ३५२ में प्रकाशित करवाये। साथ ही सत्यासिया दुष्काल वर्णन के अपूर्ण प्राप्त १६ पद्य देसाई ने जैनयुग सं० १६८५ के भादवे से कार्तिक अङ्क के पृ०६८ में छपवाये थे, उनके कुछ और पद्यं हमें प्राप्त हुए उन्हें भी अगमवाणी के साथ उसी वैशाख-जेठ के अङ्क में प्रकाशित करवा दिये । गीत द्वय को प्रकाशित करते हुये उस समय हमारे सम्बन्ध में देसाई जी ने लिखा था---"श्रा कवि श्री सम्बन्ध मां में भावनगर गुजराती साहित्य परिषद माटे एक निबन्ध लख्यो हतो अमे ते जैन साहित्य संशोधक ना खण्ड २ अङ्क ३।४ मां अने ते सुधारा वधारा सहित आनन्द काव्य महोदधि ना मौक्तिक ७ मां नी प्रस्तावना मां प्रकट थयो छे । ते कवि सम्बन्धी बीकानेर ना एक सज्जन श्रीयुत अगरचन्द भवरलाल नाहटा घणो प्रयास करता रह्या छे अने अप्रकट कृतिओ तेमणे मेलवी छ । अ शोधना परिणाम रूपे तेमना सम्बन्ध मां तेमना शिष्य हर्षनन्दने अने देवीदासे गोतो रच्या छे । .... ""श्रा बन्ने गीतो अमे नीचे उतारीने आपिये लीये अने तेनो उपगार श्रीयुत नाहटाजी ने छे कारण के तेमने पोताना संग्रह मां थी उतारी ने मोकल्या छे।" कविवर की जीवनी संबन्धी जो दो गीत उपयुक्त 'जैनयुग' में प्रकाशित करवाये गये, उनमें सं० १६७२ तक की घटनाओं का ही उल्लेख था। इसके बाद बाड़मेर के यतिवये नेमिचन्दजी से कविवर के प्रशिष्य राजसोमरचित 'महोपाध्याय समयसुन्दरजी गीतम्' प्राप्त हुआ, जिसमें उनके उपाध्यायपद, क्रियाउद्धार और अहमदाबाद में सं० १७०२ के चैत्र शु. १३ को स्वर्गवास होने का महत्वपूर्ण उल्लेख पाया गया। उसके बाद आज तक भी उनकी जीवनी सम्बन्धी कोई रचना और कहीं से प्राप्त नहीं हुई। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर के प्रगुरु अकबर प्रतिबोधक युगप्रधान श्रीजिनचन्द्रसूरि थे। कविवर के प्रसङ्ग से ही उनका संक्षिप्त परिचय पहले लिखा गया जो बढ़ते बढते ४५० पृष्ठों के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ के रूप में परिणित हो गया। शताधिक ग्रन्थों के आधार से हमारा यह सर्वप्रथम विशिष्ट ग्रन्थ लिखा गया, उसका श्रेय भी कविवर को ही है । इस ग्रन्थ में विद्वत् शिष्य समुदाय नामक प्रकरण में कविवर का भी परिचय दिया गया था। उसी के साथ-साथ हमारा दूसरा वृहद् ग्रन्थ 'ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह' उपना प्रारम्भ हुआ, जिसमें कविवर के जीवन सम्बन्धी उपयुक्त तीनों गोत प्रकाशित किये गये। कविवर ने अपनी लघु रचनाओं का संग्रह स्वयं हो करना प्रारम्भ कर दिया था । क्योंकि वैसी रचनाओं की संख्या लगभग एक हजार के पास पहुंच चुकी होगी। अतः उनका व्यवस्थित संकलन किये बिना इन फुटकर और विखरी हुई रचनाओं का उपयोग और संरक्षण होना बहुत ही कठिन था। हमें उनके स्वय के हाथ के लिखे हुए कई संकलन प्राप्त हुए हैं और कई संकलनों की नकलें भी प्राप्त हुई हैं, जिनसे उन्होंने समय-समय पर अपनी लघु रचनाओं का किस प्रकार सङ्कलन किया था उसकी महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है । उनके किये हुए कतिपय संकलनों का विवरण इस प्रकार है छत्तीस की संख्या तो उन्हें बहुत अधिक प्रिय प्रतीत होती है। क्षमा छत्तीसी, कर्मछत्तोसी, पुण्य छत्तीसी, सन्तोष छत्तीसी, आलोयण छत्तीसी आदि स्वतंत्र छत्तीसियां प्राप्त होने के साथ-साथ निम्नोक्त संकलित छत्तीसियां विशेष रूप से उल्लेखनीय है : १.ध्र पद छत्तीसी-इसमें छोटे छोटे छत्तीस पद जो रागरागनियों में है, उनका संकलन किया गया है। यद्यपि हमने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) उनको उस रूप में इस ग्रन्थ में नहीं रखा है। हमारा वर्गीकरण कुछ विशेष प्रकार का होने से प्राप्त कई संकलनों का क्रम टूट गया है। इस ध्र पद छत्तीसी की सं० १६७० की लिखित प्रति देसाई के संग्रह में है। अन्य प्रति बीकानेर के बड़े ज्ञान भंडार में है। २. तीर्थ भास छत्तीसी-इसमें तीर्थों सम्बन्धी छत्तीस गीतों का संकलन किया गया है। इसकी ११ पत्रों की अहमदाबाद में सं० १७०० आषाढ वदि १ स्वयं की लिखित प्रति बंबई रॉयल ऐशि. याटिक सोसाइटी से प्राप्त हुई है। अन्य प्रति हमारे संग्रह में है। ३. प्रस्ताव सवैया छत्तीसी-इसमें छत्तीस फुटकर सवैयों का संकलन है, जो समय समय पर रचे गये होंगे। इसकी स्वयं लिखो प्रति हमारे संग्रह में है। ४. साधु गीत छत्तीसी-इसके अंतिम २ पत्रों वाली प्रति हमारे संग्रह में है, जिसमें ३१ से ३६ तक के गीत व अन्त में ३६ गीतों की सूची है। ५. सत्यासिया दुष्काल वर्णन छत्तीसी-इसके फुटकर वर्णन बाले छन्दों की कई प्रकार की प्रतियां मिली हैं। जिनसे मालूम होता है कि समय समय पर उन छन्दों की रचना फुटकर रूप में हुई और अन्त में पूर्तिस्वरूप कुछ पद्य बनाकर यह छत्तीसी रूप संकलन तैयार कर दिया गया। ६. नेमिनाथ गीत छत्तीसी-इसकी स्वयं लिखित प्रति के नौ पत्र हमारे संग्रह में है, इसका अन्त का एक पत्र नहीं मिलने से ३४ वें गीत की एक पंक्ति के बाद शेष २ गीत अधूरे रह जाते हैं। ७. वैराग्य गीत छत्तीसी-इसमें वैराग्योत्पादक छत्तीस गीतों का संकलन था, पर इसकी प्रति भी त्रुटित (पत्रांक ५-१० वां, दो पत्र) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्त हुई है। उसके अन्त में जो सूची दी गई है, उसमें से तीन गीत तो अभी तक प्राप्त नहीं हुए हैं--१. मोरा जीवनजी, २. जपउ पञ्च परमेष्टी परभाति जापं, ३. मरण पगा माहि नित वहइ । सांझी गीत पचीसी-इसी तरह सांझी गीतों का एक संग्रह तैयार किया गया, जिसकी एक प्रति पालनपुर भण्डार में इलादुर्ग में स्वयं की लिखी हुई सात पत्रों की मिली, जिसमें २१ सांझी गीत थे। इसके बाद वीदासर के यति गणेशलालजी के संग्रह में दूसरी प्रति मिली, जिसमें चार गीत और जोड़कर गीतों की संख्या २५ की करदी गई है। इसलिये हमारे इस ग्रन्थ के पृष्ठ ४६३ में सांझी गीतों का कलश रूप जो गीत छपा है, उसके अन्तिम पद्य में 'सांझी गीत मुहावणा ए, मैं गाया इकवीस' छपा है। यहां दूसरी प्रति में २१ के स्थान पचवीस' का पाठ मिलता है। रात्रिजागरण गीत पंचास-इसमें धार्मिक उत्सवों के समय रात्रिजागरण करने की जो प्रणाली थी, उसमें गाये जाने योग्य ५० गीतों का संकलन कवि ने किया है। जिसका अंतिम कलश-गीत इसी ग्रन्थ के पृ० ४६३ में छपा है। इसकी स्वयं की लिखित प्रति हमारे संग्रह में है, जिसमें ४६ गीत हैं। ७ भास शतकम-इसमें भास संज्ञावाली एक सौ रचनाओं का संकलन है । सं० १६६७ अहमदाबाद में स्वयं की लिखी हुई २६ पत्रों की प्रति महोपाध्याय विनयसागरजी को प्राप्त हुई। इसका प्रथम पत्र नहीं मिला है। साधु गीतानि-इसमें मुनियों की जीवनी सम्बन्धी गीतों का संकलन किया गया है। इसकी भी स्वयं लिखित दो प्रतियां और अन्य लिखित कई प्रतियां मिली हैं। जिनमें एक के तो मध्य पत्र ही मिले हैं। उनमें संख्या २१ से ५१ तक के गीत ही मिले हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं० १६६५ में हरिराम का लिखा हुआ गीत भी इसमें है। प्रारम्भिक गीत स्वयं लिखित है और पीछे के गीत हरिराम के लिखित हैं। एक गीत में | गाथा तो स्वयं की लिखित और पीछे का अश हरिराम का लिखा मिला है। लींबड़ी भण्डार में 'साधुगीतानि' की जो दूसरी प्रति मिली है उसमें ४६ गीत हैं। इनमें स० १६६२ मिग सुदि १ अहमदाबाद के ईदलपुर में चातुर्मास करते हुये ४५ गीत लिखे और ४ गीत फिर पीछे से लिखे गये । ६ पत्रों की अपूर्ण अन्य प्रति में २३ गीत मिले हैं। वैराग्यगीत-साधुगीतानि-की एक दूसरी प्रति के अंत के पत्रों में वैराग्य गीतों का संकलन किया है। पर वह प्रति अधूरी मिली है। नाना प्रकार गीतानि-इसकी स्वयं लिखित एक प्रति २७ पत्रों की हमारे संग्रह में है, जिसमें १३५ गीत संगृहीत हैं। पर इसके प्रारम्भ और मध्य के कुछ पत्र नहीं मिले हैं। पार्श्वनाथ लघुस्तवन-इसकी ८ पत्रों की स्वयं लिखित प्रति हमारे संग्रह में है। इसमें पार्श्वनाथ के १४ गीतों का संकलन है, सं० १७०० मार्ग० ० ५ अहमदाबाद के हाजा पटेल पोल के बड़े उपाश्रय में शिष्यार्थ यह प्रति लिखी गई। अन्त समये जीव प्रतिबोध गीतम-इसमें इस भाव वाले १२ गीत संकलित हैं। प्रथम पत्र प्राप्त नहीं होने से प्रथम के दो गीत प्राप्त नहीं हो सके। प्रति स्वयं लिखित है। दादागुरु गीतम्-इसमें जिनदत्तसूरि और जिनकुशलसूरि जी के १० गीत हैं । इसका स्वयं लिखित सं० १६८८ के एक पत्र का आधा अंश ही मिला है । जिससे पांच गीत त्रुटित प्राप्त हुए हैं, जो इस ग्रन्थ के अन्त में दिये गये हैं। इनमें से अजमेर दादा जी स्तवनादि का एक पत्र स्वयं लिखित और हमारे संग्रह में था पर अभी नहीं मिला अन्यथा पूर्ति हो जाती। जिनसिंहसरि गीत-हमारे संग्रह की वृहद् संग्रह प्रति के बीच के पत्रांक ४३ से ५६ में जिनसिंहसूरि के २२ गीत लिखे हैं। पीछे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) के कई पत्र नहीं मिले, उनमें और भी होंगे। इसी तरह जिनसागरसूरि का गीत संग्रह आदि विविध प्रकार के अनेक सङ्कलनसंग्रह मिले हैं। इस प्रकार और भी कई छोटे-बड़े संकलन कवि के स्वयं लिखित या उनकी प्रतिलिपि किये हुये प्राप्त हैं। हमें ये सङ्कलन आहिस्ता-आहिस्ता मिलते गए और कइयों की प्रतियां तो अधूरी ही मिली हैं । इसलिये बहुत से गीत अभी और मिलेंगे और कई जो त्रुटित रूप में अपूर्ण मिले हैं, उनकी भी अन्य प्रतियां प्राप्त होनी आवश्यक हैं। हमने उनको पूर्ण करने के लिए बहुत प्रयत्न किया। पचास प्रतियां व सैंकड़ों फुटकर पत्र देखे,पर जिनकी अन्य प्रति नहीं मिली उन्हें जिस रूप में मिले उसी रूप में छपाने पड़े हैं। अब हम इस संग्रह में प्रकाशित जिन रचनाओं में कुछ पाठ टित रह गये हैं। उनकी सूची नीचे दे रहे हैं, जिससे उन रचनाओं को किसी को पूरी प्रति प्राप्त हो तो वे पूर्ति के पाठ को लिख भेजें। पृ० १६ 'चौवीस जिन सवैया' के ७ वें पद्य का प्रारंभिक अंश। , १७ , , , ८ वें पद्य का मध्यवर्ती अंश । ,, २२ 'ऐरवतक्षेत्र चतुर्विंशति गीतानि' के प्रारंभिक सात जिनगीत , १०४ पाटण शांतिनाथ स्तवन' की प्रारम्भिक १६ गाथाएँ। ,, १२६ नेमिनाथ गीत' की प्रथम पद्य के बाद की गाथाएँ । ,, १३३ 'नेमिनाथ सवैया' के प्रारम्भिक ८॥ सवैये। १३६ .. ,, पद्यांक १६ में इस प्रकार छपने से रह गया है'विजुरी विचई डरावइ सखि मोहि नींद नावइ, कृपाल कुको कहावइ श्रेकु अरदास रे।' , १४२ 'नेमिनाथ सवैया' के पिछले २॥ सवैये । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) पृ० १८८ श्लोक ८ की प्रथम पंक्ति में 'ललित' और 'विनात भव्य' के बीच एक अक्षर त्रुटित है। ,, १६४ पार्श्वनाथ शृङ्गाटक बद्ध स्तवन' के ८३ पद्य की तीसरी पंक्ति में ललनं' और 'विधारिरिक्त' के बीच में एक अक्षर त्रुटित है। ,, २४७ 'अइमत्ता मुनिगीत' के सवा दो पद्यों के बाद के पद्य नहीं मिले हैं। ,, ३३२ 'चुलणी भास' के पद्य ३॥ से ४॥ नहीं मिले हैं। , ३४१ राजुल रहनेमि गीतम् ' के पद्य ५ की अन्तिम दूसरी पंक्ति का छूटा हुआ अंश त्रुटित है। ,, ३७१ 'जिनचन्द्रसूरि छन्द' के तीसरे छन्द की तीसरी पंक्ति टित है। ,, ३७८ 'जिनसिंहसूरि प्रालीजा गीत' गाथा १० के बाद टित है। ,, ३८४ जिनसिंहसूरि गीत' के गीत नं०७ की गाथा नं० १ का मध्यवर्ती अंश त्रुटित । ४०३ 'जिनसिंहसूरि गीत' नं० ३२ गाथा ४॥ के बाद त्रुटित । ,, ४०७ 'जिनसागरसूरि अष्टक' तीसरे श्लोक की अंतिम पंक्तित्रु०, ,, ४४८ 'कर्मनिर्भरा गीत' चौथी गाथा की दूसरी पंक्ति त्रुटित । ४५५ 'तुर्ग वीसामा गीत' दूसरी गाथा की तीसरी पंक्ति त्रुटित। ,, ४७३ 'ऋषि महत्व गीत' दूसरी गाथा की अंतिम पंक्ति प्राप्त नहीं। ,, ४७६ 'हित शिक्षा गीत' ७ वें पद्य की दूसरी पंक्ति त्रुटित । ,, ४८७ 'आहार ४७ दूषण सज्झाय' गाथा ३६ की अन्तिम पंक्ति के कुछ अक्षर त्रुटित। , ५०० फुटकर श्लोकों में सं०१ की अन्तिम और अन्त्य श्लोक को प्रत्येक पंक्ति का प्रारम्भिक अंश ऋटित । "६१६'नानाविधकाव्यजातिमयं नेमिनाथ स्तवनम्' के प्रार म्भिक ६॥ श्लोक त्रुटित । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) , ६१७ 'नानाविधकाव्यजातिमयं नेमिनाथ स्तवनम्' ६ वें श्लोक की प्रथम पंक्ति में त्रुटित अंश । , ६१८ 'यमकबद्ध पार्श्वनाथ स्तवन' में गाथा प्रथम की पंक्ति दूसरी त्रुटित । ,, ६१६ 'समस्यामयं पार्श्वनाथ स्तवन' पहले और दूसरे श्लोक त्रु०. , ६२० , , , श्लोक ६ से १३ त्रुटित । ,, ६२२ 'यमकमय पार्श्व लघुस्तवन' श्लोक ७ की प्रथम पाक्ति त्रुटित ,,, 'यमकमय महावीर बृहद्स्तवन' श्लोक १ और ४ में दो दो अक्षर त्रुटित। ,, , 'यमकमय महावीर बृहद् स्तवन' श्लोक ११ और १३ में दो दो अक्षर त्र टित। , ६२५ 'मणिधारी जिनचन्द्रसरि गीत' तीनों ही गाथा त्रुटित । , ,, 'जिनकुशलसूरि गीत' , " , , ६२६ जिनदत्तसूरि और जिनकुशलसूरि गीत' दोनों की पांचों गाथा त्रुटित । ,, ६२७ 'अजयमेरुमंडन जिनदत्तसूरि गीत' चारों गाथाएँ त्रुटित. , ६२८ 'प्रबोध गीत' गाथाएँ २ से ५ त्रुटित । कविवर की रचनाएँ आज भी जहां तहां नित्य मिलती रहती हैं । पृ० ६१४ छप जाने पर इस संग्रह को पूरा कर दिया गया था। पर उसी समय विक्रयार्थ एक त्रुटित प्रति प्राप्त हुई, जिसमें आपकी बहुत सी रचनाएँ थीं। अतः उसमें जो रचनाएँ पहले नहीं मिली थी उन्हें भी इसमें सम्मिलित करना आवश्यक हो गया। हस्त लिखित फुटकर पत्र आदि के लिये हमारा संग्रह भी, एक बहुत बड़ा भण्डार है। समयसुन्दरजी के गीतों के फुटकर पत्रों की संख्या सैंकड़ों पर है। उनमें की अभी कुछ रचनायें ऐसी ठीक मालूम होती हैं, जो बहुत ध्यानपूर्वक संग्रह करने पर भी इस संग्रह में नहीं आ सकीं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ( २२ ) आखिर में अपने पूज्य गुरु श्री कृपाचंद्रसूरिजी का वह वचन याद कर संतोष करना पड़ता है कि "समयसुन्दर ना गीतड़ा, भीतां पर ना चीतरा या कुम्भे राणा ना भीतड़ा" अर्थात् दाबालों पर किये गये चित्रों का और राना कुम्भा के बनाये हुये मकान और मन्दिरों का पार पाना कठिन है उसी तरह समयसुन्दर जी के गीत भी हजारों की संख्या में और जगह-जगह पर बिखरे हुए हैं उन सबको एकत्र कर लेना असम्भव सा है। पचासों संग्रह-प्रतियां हमें त्रुटित व अपूर्ण मिली हैं । उनके बीच के और आदि अन्त के पत्र माला के मोतियों की तरह न मालूम कहाँ कहाँ बिखर गये हैं। बहुत से तो उनमें से नष्ट भी हो गये होंगे। इसी तरह समयसुन्दर जी का विहार भी राजस्थान और गुजरात के बहुत लम्बे प्रदेशों में था और उनके शिष्य प्रशिष्य भी बहुत थे। अतः उन सभी स्थानों और व्यक्तियों में प्रतियां बिखर चुकी हैं। जालोर, खम्भात, अहमदाबाद आदि स्थानों में जहां कवि कई वर्षों तक रहे थे, उन स्थानों के भण्डारों को तो हम देख ही नहीं पाये । महान् गीतिकार समयसुन्दर गीति काव्य के सम्बन्ध में हिन्दी साहित्य में इधर में काफी चर्चा हुई और कई बड़े-बड़े ग्रन्थ भी प्रकाशित हुये, लेकिन अभी तक आज से ४००/५०० वर्ष पहले कितने प्रकार के गीत प्रचलित थे, उनका शायद किसी को पूरा पता नहीं है। जिस प्रकार लोक गीतों के अनेक प्रकार हैं-अनेक राग-रागनियां हैं, हर प्रसा के गीतों के अलग-अलग नाम हैं, उसी तरह विद्वानों के रचित गीतों के भी अनेक प्रकार थे। उनकी अच्छी झांकी समयसुन्दरजी के इस गीत संग्रह से मिल सकेगी। वैसे तो प्रायः सभी लघु रचनाओं की संज्ञा गीत ही दी गई है, पर उनके प्रकारों की संख्या Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) बहुत लम्बी है । जैसे कि -भास, स्तवन, फाग, सोहला, हुलरावरणा, गूढा, चन्द्रावला, आलीजा, हिंडोलना, चौमासा, बारहमासा, सांझी, रात्री जागरण, श्रोलम्भा, चूनड़ी, पर्व - गीत, तप- गीत, वाणी - गीत, स्वप्नगीत, वेलिगीत, वधावा. बधाई, चर्चरी, तिथिविचारणा, वियोग, प्रेरणा- गीत, प्रबोध-गीत, महिमा-गीत, मनोहरगीत, मङ्गल-गीत, क्षामरणा-गीत, हियाली गीत इत्यादि नाना प्रकार के गीत इस संग्रह में हैं । समय-समय पर कवि हृदय में जो स्फुरणा हुई, उनका मूर्त्त रूप इन गीतों में हम पाते हैं । यद्यपि afa को अपनी काव्य-प्रतिभा दिखाने की लालसा नहीं थी, फिर भी कुछ रचनाएँ उसको व्यक्त करने वाली स्वतः बन गई हैं । ऐसी रचनाओं में कुछ तो जरा दुरूह सी लग सकती हैं, पर स्वाभाविक प्रवाह बना रहता है । तृणाष्टक, रजोष्टक के अन्त में तो वि स्वयं कहा है कि ये कवि कल्लोल के रूप में ही बनाये गये हैं । इनमें कल्पनाएं बड़ी सुन्दर हैं। बहुत सी रचनाओं में ऐतिहासिक तथ्य भी मिलते हैं। जैसे पृ० ३०, ५८, ६२, ६६, ६८, ७६, ७, ८७, ८६, १०७, १२३, १४४, १५३, १६४, १६६, १७६, १७७, १७८, ३०६, ३७७, ३६४, ४०४ । शब्दों और भावों की दृष्टि में भी इस संग्रह की कतिपय रचनाओं का बहुत ही महत्त्व है । अनेक अप्रसिद्ध व अल्पप्रसिद्ध शब्दों का प्रयोग इनमें पाते हैं, जिनका अर्थ अभी तक शायद किसी कोश में नहीं मिलेगा | हमारा विचार ऐसे शब्दों का कोष भी देने का था, पर ग्रन्थ इतना बड़ा हो गया कि इसी तरह के अनेक विचारों को मूर्त रूप नहीं दे सके। इसी प्रकार छत्तीसियों और कई स्तनों में जिन व्यक्तियों का केवल नामोल्लेख हुआ है, उनमें से बहुतसों का परिचय कम लोगों को ही होगा तथा जिन साधु और सतियों के जीवन चरित्र को स्पष्ट करने वाले गीत प्राप्त हैं उनकी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) भी संक्षिप्त जीवन गाथा देना आवश्यक था। पर उस इच्छा को भी संवृत्त करना पड़ा है। कवि की संवतानुक्रम से लिखी हुई संक्षिप्त जीवनी और उनकी रचनाओं व लिखित प्रतियों की सूची नागरी-प्रचारिणी पत्रिका वर्ष ५७ अङ्क १ में प्रकाशित की गई थीं, पर उनकी रचनाओं के उदाहरण सहित जो विस्तृत जीवनी हम लिखना चाहते थे,वह भी करीब ५०० पृष्ठों के लगभग की होती, क्योंकि २७ वर्षों से हम इनकी रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसलिये हमने ग्रन्थ बढ़ जाने के भय से संक्षिप्त जीवनी महोपाध्याय विनयसागर जी से लिखवा लेना ही उचित समझा और उनके भी बहुत संक्षिप्त लिखने पर भी १०० पृष्ट तो हो ही गये। भाषाएँ भी इस ग्रन्थ में कई हैं। प्राकृत, संस्कृत, समसंस्कृत, सिन्धी की रचनाएँ थोड़ी हैं, पर राजस्थानी, गुजराती और हिन्दी तीन तो मुख्य ही हैं। इनमें से हिन्दी के भी इसमें दो रूप मिलते हैं; जो विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। अन्य पदों एव गीतों की हिन्दी भाषा से पृ० ३६३ में जिनसिंहसूरि सम्बन्धी जो ५ पद्य छपे हैं, उनसे तुलना करिये। वे एक दम खड़ी बोली के और मानों जहांगीर के भेजे हुए मुसलमान मेवड़ों की स्वयं की भाषा हो, लगते हैं । उसका थोड़ा सा नमूना देखियेबे मेवरे, काहेरी सेवरे,अरे कहाँ जात हो उतावरे, टुक रहो नइ खरे। हम जाते बीकानेर साहि जहाँगीर के भेजे, हुकम हुया फुरमाण जाई मानसिंघ कु देजे। सिद्ध साधक हउ तुम्ह चाह मिलणे की हमकु, वेगि आयउ हम पास लाभ देऊँगा तुम कुँ । १। बे मेवरे० । कवि के गीतों में दोनों प्रकार का सङ्गीत प्रतिध्वनित हुआ है। बहुत से गीत तो शास्त्रीय संगीत की राग-रागनियों में रचे गये हैं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) और बहुत से लोक प्रचलित गीतों की देशी या चाल में। उनके 'रास-चौपाई आदि में भी इन लोक गीतों की देशियों को खूब अपनाया गया है। सीताराम चौपाई जो लोक भाषा की आपकी सबसे 'बड़ी कृति है, में लगभग ५० देशियें हैं। कवि ने इस चौपाई में देशियों के आदि पद्य के साथ ऐसा भी निर्देश किया है कि"ए गीत सिंध मांहे प्रसिद्ध छ, नोखा रा गीत मारूयाड़ी, हूँदाड़ी नागोर नगरे प्रसिद्ध छै। दिल्ली रा गीतरी ढाल मेड़ता आदि देशे प्रसिद्ध छै" और अन्त में कहा है कि सीताराम नी चौपाई, जे चतुर हुई ते वाँचो रे । राग रतन जवहर तणो, कुण भेद लहै नर काचो रे ।। नवरस पोष्या मै इहां, ते सुघड़ो समझो लेज्यो रे । जे जे रस पोष्या इहां, ते ठाम देखाड़ी देज्यो रे॥ के के ढाल विषम कही, ते दूषण मत द्यौ कोई रे । स्वाद साबुणी जे हुवै, नै लिंग हदै कदे न होई रे॥१॥ जे दरबार गयो हुसे, दुढादि, मेवादि ने दिल्ली रे । गुजराति मारवाडि में, ते कहिस ए भल्ली रे।। मत कहो मोटी का जोड़ी, बांचतां स्वाद लहैसो रे । नवनवा रस नवनवी कथा, सांभलतां साबास देसो रे॥ गुण लेज्यो गुणियण तणो, मुझ मसकति साहमोजोज्यो रे। अणसहतां अवगुण ग्रही, मत चालणि सरखा होज्यो रे।। बालस अभिमान छोडि नै, सूधी प्रत हाथ लेई रे । ढाल लेजो तुमे गुरु मुखे, वली रागनो उहयोग देई रे॥ सखर सभा मांहे बांचजै, बेजणा मिल मिलते सादे रे। नरनारी सहु-रीझसै, जस लेहसो गुरु प्रसादे रे ॥ कवि की कविता में एक स्वाभाविक प्रवाह है। भाषा में सरलता तो है ही, क्योंकि उनकी रचना का उद्देश्य पांडित्य-प्रदर्शन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) नहीं । पर जैसा कि उन्होंने अपने अनेक ग्रन्थों में भाव व्यक्त किया है कि साधु और सती के गुणानुवाद में मुझे बड़ा रस है। और बहुत सी रचनाएँ तो उन्होंने अपने शिष्यों और श्रावकों के सुगम बोध के लिये ही बनाई है। कुछ अपनी स्मृति की रक्षार्थ । इन सब कारणों से कवि प्रतिभा का चमत्कार उतना नहीं दिखाई देता जितना कि स्वाभाविक सारल्य । प्रस्तुत ग्रन्थ में संकलित गीतों का भक्ति, प्रेरणा, प्रबोध प्रधान विषय है। भक्ति का स्रोत अनेक रचनाओं में बह चला है। विमलाचल मण्डन आदि जिन स्तवन में कवि कहता है कि विमलगिरि क्यों न भये हम मोर, क्यों न भये हम शीतल पानी, सींचत तरुवर छोर । अहनिश जिनजी के अङ्ग पखालत. तोड़त कर्म कठोर । वि. १॥ क्यों न भये हम बावन चन्दन, और केसर की छोर । क्यों न भये हम मोगरामालती,रहते जिनजी की ओर । वि.२। क्यों न भये हम मृदङ्ग झलरिया, करत मधुर धुनि मोर । जिनजी आगल नृत्य सुहावत, पावत शिवपुर ठौर । वि.३। इसी प्रकार अन्य गीतों में भी कहीं पर पांख न होने से पहुंच न सकने की शिकायत, कहीं पर चन्द्रमा द्वारा सन्देश भेजना, कहीं पर स्वयं न पहुंच सकने की वेदना व्यक्त की है। इस प्रकार नाना प्रकार के भक्ति के उद्गार इस ग्रन्थ में प्रकाशित गीतों में मिलेंगे। उन सबके उद्धरण देने का बहुत विचार था, पर विस्तार भय से उस इच्छा को संवरित करना पड़ा है। प्रेरणा गीतों में कवि अपने शिष्यों को कितने ढङ्ग से प्रेरित कर रहा है, यह इस ग्रंथ के पृष्ठ ४३६-३७ में प्रकाशित पठन प्रेरणा और क्रिया प्रेरणा गीत में पढ़िये । इसी प्रकार प्रबोध गीत भी पृ० ४२० से प्रारम्भ होते हैं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) कई गीतों में ऋषि कल्पना भी बड़े सुन्दर रूप में प्रगट हुई है । इन सबके उदाहरण नोट किये हुये होने पर भी, यहां विस्तार भय नहीं दिये जा रहे हैं । कभी विस्तृत विवेचन का अवसर मिला तो अपने उन नोट्स का उपयोग किया जा सकेगा । महोपाध्याय विनयसागरजी ने कवि का परिचय देते हुए कथाकोश की पूरी प्रति नहीं मिलने का उल्लेख किया है । यद्यपि इसकी कई प्रतियां हमें प्राप्त हुई हैं, जिनमें से एक तो कवि की स्वयं लिखित है । पर भिन्न-भिन्न प्रतियों के मिलाने से ऐसा मालूम पड़ता है कि कवि ने दो तरह के क्थाकोश बनाये हैं । एक में अन्य विद्वानों के ग्रन्थों से कथाएं उद्धृत व संगृहीत की गई हैं और दूसरे में उन्होंने स्वयं बहुत सी कथाएँ लिखी हैं। इनमें से पहले प्रकार की एक प्रति नाहरजी के संग्रह में मिली और दूसरी की एक पूरी प्रति स्व० जिनऋद्धिसूरिजी के संग्रह में से प्राप्त हुई है । इसमें १६७ कथाएँ हैं । पर कवि के अन्य ग्रन्थों की भाँति इसमें प्रशस्ति नहीं मिलने से सम्भव है कुछ और भी कथाएँ लिखनी रह गई हों या प्रशस्ति नहीं लिखी गई हों । 'कथापत्राणि' नामक कवि के स्वयं लिखित फुटकर पत्रों की एक प्रति मिली है, जिसके १३७ या १५५ पत्र (दोनों हांसियों पर दो संख्याक ) थे । इसमें ११४ कथाएँ हैं और ग्रंथ परिमाण करीब ६००० श्लोक का लिखा है । अंत में कवि ने स्वयं लिखा है कि AMRA " सं० १६६५ वर्षे चैत्र सुदि पंचमी दिने श्री जालोर नगरे लिखितं श्री समयसुन्दर उपाध्यायैः । इयं कथाकोशप्रति मयि जीवति मदधीना, पश्चात् पं० हर्षकुशलमुनेः प्रदत्तास्ति । वाच्यामाना चिरं विजयताम् ।" अर्थात् कविवर स्वयं जहां तक जीवित रहे अपनी रचनाओं में उचित परिवर्तन परिवर्द्धन करते रहे हैं । कवि के रचित माघ काव्य की टीका के केवल तृतीय सर्ग की वृत्ति के मध्य पत्र चूरु सुराना लाइब्रेरी में स्वयं लिखित मिले हैं। उसमें बीच Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) के पत्रांक दिये हैं। अतः वह टीका तो पूरी बनाई ही होगी,पर अभी तक अन्य सर्गों की टीका के पत्र नहीं मिले। जिसकी खोज अत्यावश्यक है। इसी प्रकार मेघदूत वृत्ति की अपूर्ण प्रति ओरियन्टल की लाइब्ररी लाहौर में देखी थी, उसकी भी अन्य प्रति नहीं मिली। अतः पूरी प्रति अन्वेषणीय है। सं० २००२ में जब कवि के स्वर्गवास को ३०० वर्ष हुये, हमने शार्दूल राजस्थानी रिसर्च इन्स्ट्रीच्यूट की ओर से समयसुर त्रिशती उत्सव मनाया था और कवि की रचनाओं का प्रदर्शन भी किया गया था, जो विशेष रूप से स्मरणीय है। कवि को कई रचनाएँ अभी संदिग्धावस्था में है। उनकी अन्य प्रतियों की प्राप्ति होने से ही निर्णय किया जा सकेगा। जिस प्रकार जैन गुर्जर कविओं भाग ३ के पृ०८४४ में स्थूलभद्र रास का विवरण छपा है। इस प्रति को हमने मँगवा कर देखी तो पद्यांक ६५ में समयसुन्दर नाम आता है, अन्यत्र 'कवियण' उपनाम प्रयुक्त है और ग्रन्थ का रचना काल संदिग्ध है इन्दु रस संख्याइं एह, संवत्सर मान आदिनाथ थी नेमिजन, तेतमउ वरस प्रधान । इसकी अन्तिम पंक्ति से देसाईजी ने २२ की संख्या ग्रहण की है, पर वह संदिग्ध लगती है। इसी प्रकार झडियालागुरु (पंजाब) की सूची में कवि के रचित शालिभद्र चौपाई और अगडदत्त कथा (सं० १६४३ में रचित पत्र १०) आदि का उल्लेख है। जैसलमेर भण्डार की सूची में पं० लाल चन्द गांधी उल्लिखित कई रचनाएँ हमें अभी तक नहीं मिली। वे वास्तव में कवि की हैं या नहीं, प्रतियां मिलने पर ही निर्णय हो सकेगा। हमारे संग्रह में एक व्रत प्रहण टिप्पण मिला है । जिससे मालूम होता है कि सं० १६६७ के फाल्गुन शु० ११ गुरुवार को Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) अहमदाबाद में संखवाल गोत्रीय साह नाथा की भार्या श्राविका धन्नादे ने जो शाह कर्मशी की माता थी, महोपाध्याय समयसुन्दरजी के पास इच्छा परिमाण ( १२ व्रत ) ग्रहण किये थे । इस पत्र के पिछली ओर में कवि ने उन १२ व्रतों के ग्रहण का रास बनाया था, जिसकी कुछ ढालें स्वयं लिखित मिली हैं। इससे कवि के रचित १२ व्रत रास का पता चलता है, जिसकी पूरी प्रति अभी अन्वेषणीय है । और भी कई श्रावक-श्राविकाओं ने धापसे इसी तरह व्रत आदि ग्रहण किये होंगे, जिनके उल्लेख कहीं भण्डारों के विकीर्ण पत्रो में पड़े होंगे या ऐसे साधारण पत्र अनुपयोगी समझे जाते हैं; अतः उपेक्षावश नष्ट हो चुके होंगे। विविध विषयों के सैकड़ों फुटकर पत्र कवि के लिखे हुए हमने भण्डारों में देखे हैं और हमारे संग्रह में भी है। उन सबसे इनकी महान् साहित्य - साधना की जो झांकी मिलती है, उससे हम तो अत्यन्त मुग्ध हैं । सुयोगवश कवि ने दीर्घायु पाई और प्रतिभा तो प्रकृति प्रदत्त थी ही । विद्वान् विद्यागुरुओं आदि का भी सुयोग मिला, सैंकड़ों ज्ञानभंडार देखे, विविध प्रान्तों के सैंकड़ों स्थानों में विचर कर विशेष अनुभव प्राप्त किया और सदा अप्रमत्त रहकर पठन-पाठन और साहित्य निर्माण में सारे जीवन को खपा दिया । उस गौरवमयी साहित्य-विभूति की स्मृति से मस्तक उनके चरणों में स्वयं झुक जाता है । उनके शिष्यों में हर्षनन्दन आदि बड़े विद्वान् थे । अभी अभी तक उनकी परम्परा विद्यमान थी । उनकी चरण पादुका गड़ालय (नाल ) में होने का उल्लेख तो म० विनयसागरजी ने किया ही है; पर जैसलमेर में भी दो स्थानों पर आपके चरण प्रतिष्ठित हैं। तीनों पादुका लेख इस प्रकार हैं:१. " संवत् १७०५ वर्ष (र्षे) फागुण सुदि ४ सोमे श्रीसमम सुन्दर महोपाध्याय पादुके कारिते श्रीसंघेन प्रतिष्ठितं हर्षनंदन ( गणिभिः) ह्रीं नमः ।" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (नाल गढ़ालय में जिनकुशलसूरि गुरु मन्दिर के पास चौमुख स्तूप में आपके गुरु सकलचन्द जी की भी पादुका रीहड़ जयवंत लूणा कारित व यु. जिनचन्द्रसूरि प्रतिष्ठित है । (देखें, हमारा बीकानेर जैन लेख संग्रह ग्रन्थ । लेखांक २२८७ । ) २. “सं० १७०५ वर्षे पोष वदि ३ गुरुवारे श्रीसमयसुन्दरमहोपाध्यायानां पादुका प्रतिष्ठिते वादि श्रीहर्षनन्दन गणिभिः।" (जैसलमेर के समयसुन्दरजी के उपाश्रय में) ३. जैसलमेर देवासर दादावाड़ी की समयसुन्दरजी की शाखा में स्तूप पर श्री जिनायनमः ॥ सं० १८८२ रा मिति आषाढ़ सुदि ५ श्री जैसलमेर नगरे राउल श्री गजसिंहजी विजयराज्ये आचारज गच्छे श्रीजिनसागरसूरि शाखायां भ । जं० । श्रीजिनउदयसूरिजी विजयराज्ये ।। उ० । श्री १०८ श्री समयसुन्दरजी गणि पादुकामिदं । उ । श्री आणंदचंदजी तत्शिष्य पं ।प्र। श्रीचतुरभुज जी ततशिष्य पं०। लालचंद्रे ण कारापितमियं थंभ पादुका शाखा सही २ । ___ पादुकाओं पर ॥ उ॥ श्री १०८ श्री समयसुन्दर गणि पादुका । स्वर्ग स्थान अहमदाबाद में भी चरण अवश्य प्रतिष्ठित किये गये होंगे, पर वे शायद अब न रहे या खोज नहीं हुई। कवि की प्राप्त लघु कृतियों का यह संकलन हमने अपने ढङ्ग से किया है। सम्भव है उसमें कुछ अव्यवस्था रह गई हो। आभार इस ग्रंथ को इस रूप में तैयार करने और प्रकाशन करने में हमें अनेक भण्डारों के संरक्षकों और कई अन्य व्यक्तियों से Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) विविध प्रकार की सहायता मिली है। २७ वर्षों से हम जो निरन्तर इस सम्बन्ध में कार्य करते रहे हैं. उनमें इतने अधिक व्यक्तियों का सहयोग है कि जिनकी स्मृति बनाये रखना भी सम्भव नहीं । इसलिये जो सहज रूप में स्मरण आरहे हैं. उन्हीं का उल्लेख कर अवशेष सभी के लिये आमार प्रदर्शित करते हैं। ___सबसे पहले जिनकृपाचन्द्रसूरिजी, उपाध्याय सुखसागरजी, बीकानेर के भण्डारों के संरक्षक, फिर स्वर्गीय मोहनलाल दलीचन्द देसाई, ३० यति नेमचन्द जी बाड़मेर, पन्यास केशरमुनिजी और वाहर के अनेक भण्डारों के संरक्षकगण, फूलचन्दजी झाबक, मुनि गुलाबमुनिजी, आनन्दसागरसूरिजी, स्व पूर्णचन्द्रजी नाहर आदि से जो कवि की रचनाओं की उपलब्धि और अन्य प्रकार की सहायता मिली है, उसके लिये हम उनके बहुत आभारी हैं । अन्त में महोपाध्याय विनयसागरजी, जिन्होंने इस सारे ग्रंथ का प्रफ संशोधन का और कवि के विषय में अध्ययनपूर्ण निवन्ध लिखकर हमारे काम में बड़ी आत्मीयता के साथ हाथ बँटाया है, उनके हम बहुत ही उपकृत हैं। हिन्दी साहित्य महारथी विद्वान् मित्र डा० हजारीप्रसादजी द्विवेदी ने हमारे इस ग्रंथ की भूमिका लिख भेजी है। जिसके लिये हम उनके बहुत आभारी हैं। इस ग्रन्थ के प्रकाशन में एक प्रेरणा रूप श्री अनोपचन्दजी झाबक, कनूर ने हमें रु०१५१) अपनी सद्भावना से भेजकर इस ग्रंथ को तत्काल प्रेस में देने को प्रेरित किया, अतः वे भो स्मरणीय है। __कवि की लिखी हुई सैंकड़ों प्रतियों और फुटकर पत्र हमारे संग्रह में है। उनमें से संवतोल्लेख वाले २ पत्रों का सम्मिलित ब्लॉक इस ग्रन्थ में छपाया जा रहा है। कवि का कोई चित्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) नहीं मिलता तो उनकी अक्षर देह को ही प्रकाश में लाना आवश्यक समझा गया। दूसरा ब्लॉक कवि के एक चित्र-काव्य स्तोत्र का है, जिसका हारबद्ध चित्र पन्यास केशर मुनिजी ने पालीताना से बनाकर भेजा था और दूसरा चित्र-बद्ध उपाध्याय सुखसागरजी ने कवि की कल्याण मन्दिर स्तोत्रवृत्ति के साथ छपवाया है। जैन साहित्य महारथी स्व० मोहनलाल दलीचन्द देसाई अपनी विद्यमानता में हमारे इस संग्रह को प्रकाशित देखते तो हर्षोल्लास से झूम उठते। अतः उन्हीं की मधुर स्मृति में अपना यह प्रयास समर्पित करते हैं। अगरचन्द नाहटा भंवरलाल नाहटा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education memoriam कविवर-लेखनदशनम् (१) सन्मान EVEDO Tomrelsonar anu डागास्तमानकरलाल जामियाजवयनागारगनंगा२UDERजागलादानासाटमाइमराननाताळयानालकोटमलकिल्लान मानारपटिनयनमनिनादनपचासनिबरनाटयानहरकनकनानन्यामामालन इतेकमायनाककळमळनतमउजनीटिननादधनबाबानायनलमालम्लाघाइतारिक नयकालागाराकनकयुताकताकळापकजराराराबरकाशाएकवाच्माननायडावरनंम्नम जापावागवनम्नवरतरयुकवानिवदन्हरापनानानिधिहनिलजन्यानजनदायक बमानस्यामानानकपतानडामालतमालालाम्माविमलनानयनतालाजतिनका चढउमालमतगनमुभांववालकचनारनलिमाक्षफायणमानापजन्मजयनाची हिगावनइबुननानाविधालुवाएनधनानगरमाउसलीगणमाकाटननंदवनन्युयुनाइनुपन्हावर समसयाकलापमएलगाढालयानमाइन्मान्तवापरामामागमामयनश्मलाजमघा समालालम्यानमामाजगाना विमानांनतरच्छनोफायनमान्दानानिधनानेही भायमानयनेमाकनळकनगममकवटमानवमरकामाउसबारमाहाकुमार Val OSC Only [सं० १६६४ लि० करकण्डू प्रत्येक बुद्ध चौ० का अन्तिम पत्र] www.jamemorary.org Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educ कविवर-लेखनदर्शनम्-(२) o nal ममनोधानविहिमालीनीवरनरयालीरंदतरखपवेकाध्यापनमननातानत्मनिममानलयामारवाव्यलय बनाविकपेसननलिन निकल्यानाकवल्यकारककानातासम्झाय्यटनसलातका For Personal and Private Use Only शिवाजतात्यायोतिरिकालयकयकमनसावतमामाकरवडलनालय [सं० १६८४ लि० वेट्थपदविवेचना का अन्तिम पत्र ] library.org Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर प्रस्तुत संग्रह के प्रणेता १७ वीं शती के साहित्याकाश के जाज्वल्यमान नक्षत्र, महोपाध्याय पद-धारक, समय-सिद्धान्त (स्वदर्शन और परदर्शन ) को सुन्दर मंजुल-मनोहर रूप में जनसाधारण एवं विद्वत्समाज के सन्मुख रखने वाले, समय-काल एवं क्षेत्रोचित साहित्य का सर्जन कर समय का सुन्दर-सुन्दरतम उपयोग करने वाले अन्वर्थक नाम धारक महामना महर्षि समयसुन्दर गणि हैं। इनकी योग्यता एवं बहुमुखी प्रतिभा के सम्बन्ध में विशेष न कहकर यह कहें तो कोई अत्युक्ति न होगी कि कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य के पश्चात् प्रत्येक विषयों में मौलिक सर्जनकार एवं टीकाकार के रूप में विपुल साहित्य का निर्माता अन्य कोई शायद ही हुआ हो! साथ ही यह भी सत्य है कि आचार्य हेमचन्द्र के सदृश हीव्याकरण, साहित्य, अलङ्कार, न्याय, अनेकार्थ, कोष, छन्द, देशी भाषा एवं सिद्धान्तशास्त्रों के भी ये असाधारण विद्वान् थे । सङ्गीतशास्त्र की दृष्टि से एक अद्भुत कलाविद् भी थे। . कवि की बहुमुखी प्रतिभा और असाधारण योग्यता का मापदण्ड करने के पूर्व यह समुचित होगा कि इनके जीवन और व्यक्तित्व का परिचय दिया जाय; क्योंकि व्यक्तित्व के बिना बहुमुखी प्रतिभा का विकास नहीं हो पाता। अतः ऐतिह्य ग्रन्थों के अनुसार संक्षिप्त रूप से उनकी जीवन-घटनाओं का यहां क्रमशः उल्लेख कर रहा हूँ। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर जन्म और दीक्षा मरुधर प्रदेशान्तर्गत साचोर ( सत्यपुर) में आपका जन्म हुआ था, जैसा कि कवि स्वयं स्वरचित सीताराम चतुष्पदी के खएर ६ ढाल तीसरी के अन्तिम पद्य में कहता है:"मुझ जनम भी साचोर मांहि, तिहां च्यार मासि रह्या उछाहि ।" [ पद्य ५०] भाप पोरवाल * (प्राग्वाट) ज्ञाति के थे तथा आपके मातु। श्री का नाम लीला देवी और पिता श्री का नाम रूपसिंह (रूपसी) था। कवि का जन्म समय अज्ञात है, किन्तु जैन साहित्य के महारथी श्री मोहनलाल " दुलोचन्द देशाई बी० ए०, एल० एल०बी० के मत को मान्य रखते हुये जैन इतिहास के विद्वान् और मेरे मित्र श्री अगरचन्द जी नाहटा ने अपने "कविवर समयसुन्दर" + लेख में इनका जन्म काल अनुमानतः स० १६२० स्वीकृत * "प्रज्ञाप्रकर्षः प्राग्वाटे, इति सत्यं व्यधायि यः।१३।" वादी इष नन्दन प्रणीत मध्याह्नव्याख्यानपद्धति । । कवि देवीदास कृत समयसुन्दर गीत, "मातु लीलादे रूपसी जनमिया।" प०६] | "प्रथमनो ग्रन्थ भावशतक सं० १६४१ मां रचेलो मली आवे छे, तेथी ते वखते तेमनी उमर २१ वर्ष नी गणीए तो तेमनो जन्म सं० १६२० मां मूकी शकाय।" कविवर समयसुन्दर निबन्ध, आनन्द काव्य महोदधि मौक्तिक ७, पृष्ठ २। + "परन्तु इनकी प्रथम कृति 'भावशतक' के रचना काल के आधार पर श्री मोहनलाल दुलीचन्द देशाई ने उस समय इनकी आयु २०-२१ वर्षे अनुमानित कर जन्म काल वि० १६२० होने की सम्भावना की है जो समीचीन जान पड़ती है। वादी हर्ष Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर ( ३ ) किया है; किन्तु मेरे मतानुसार इससे कुछ पूर्व ज्ञात होता है। क्योंकि देखिये: महालाक्षणिक आचार्य मम्मट द्वारा प्रणीत काव्य प्रकाश नामक लक्षण ग्रन्थ में मम्मद ने वाच्यातिशायि व्यङ्गया ध्वनि काव्य की जो चर्चा की है, कवि उसी वाच्यातिशायि व्यङ्गथा ध्वनि काव्य के भेदों का उद्धरण सहित लक्षण इस (भावशतक) ग्रन्थ में स्वोपज्ञ वृत्ति के साथ दे रहा है: "काव्यप्रकाशे शास्त्रे, ध्वनिरिति संज्ञा निवेदिता येषाम् । वाच्यातिशायि व्यङ्गयान, कवित्वभेदानहं वच्मे ॥२॥" काव्यप्रकाश जैसे क्लिष्ट लक्षण ग्रन्थ का अध्ययन कर 'ध्वनि' जैसे सूक्ष्म विषय पर लेखिनी चलाने के लिये प्रौढ एवं तलस्पर्शी ज्ञान की आवश्यकता है; जो दीक्षा के' पश्चात् ५-६ वर्ष में पूर्ण नहीं हो सकता। यह ज्ञान कम से कम भी १०-१२ वर्ष के निरन्तर अध्ययन के फलस्वरूप ही हो सकता है और दूसरी बात यह है कि यदि हम सं० १६३५ दीक्षा स्वीकार करें तो यह असंभव सा है कि ५-६ वर्ष के अल्प-दीक्षा पर्याय में 'गणि पद ' प्राप्त हो जाय। अतः वि० १६२८ के आस-पास या १६३० में दीक्षा हुई नन्दन के "नवयौवन भर संयम संग्रह्यौ जी, सई हथे श्रीजिनचंद" इस उल्लेख के अनुसार दीक्षा के समय इनकी अवस्था कम से कम १५ वर्ष होनी चाहिये । इस अनुमान से दीक्षा--काल वि० १६३५ के लगभग बैठता है।" [नागरी प्रचारिणी पत्रिका, वर्ष ५७ अङ्क १, सं० २००६] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) महोपाध्याय समयसुन्दर हो, यह मानना उचित होगा। और जहां वादी हर्षनन्दन अपने समयसुन्दर गीत में "नवयौवन भर संयम संग्रह्यौ जी" कहते हुये नजर आरहे हैं, वहाँ यह स्पष्ट हो जाता है कि “ नवयौवनभर" परिपूर्ण तरुणावस्था का समय १६ से २० वर्ष की आयु को सूचित करता है। अतः दीक्षा का अनुमानतः संवत् १६२८-३० स्वीकार करते हैं तो जन्म सम्बत् १६१० के लगभग निश्चित होता है। इनका जन्म नाम क्या था और इनका प्रारम्भिक अध्ययन कितना था ? इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता है। किन्तु मरुधर प्रान्त जिसमें साचोर डिविजन में देवगिरा के पठन-पाठन का अत्यन्ताभाव होने से इनका अध्ययन दीक्षा पश्चात् ही हुआ हो, समीचीन मालूम होता है। युगप्रधान आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने सं० १६२८ में सांभलि के श्री संघ को पत्र दिया था, उसमें समयसुन्दर का नाम नहीं है। हो भी नहीं सकता, क्योंकि इस पत्र में उल्लिखित उपाधिधारक प्रमुख साधुओं के ही नामों का उल्लेख है। अतः सं० १६२८ में इस पत्र के देने के पूर्व या पश्चात् या आस-पास ही आचार्य श्री ने स्वहस्त * से इनको दीक्षा प्रदान कर अपने प्रमुख एवं प्रथम शिष्य श्री सकलचन्द्र गणि का शिष्य घोषित कर समयसुन्दर नाम प्रदान किया होगा। ___कवि अपने को खरतरगच्छ का अनुयायी बतलाता हुआ, खरतरगच्छ ॥ के प्राद्याचार्य श्रीवर्धमानसूरि के प्रगुरु से अपनी परम्परा सिद्ध करता है । इस परम्परा में कवि केवल 'गणनायकों' के नामों का ही उल्लेख कर रहा है । अष्टलक्षी प्रशस्ति के अनुसार कवि का वंशवृक्ष इस प्रकार बनता है:* वादी हर्षेनन्दन कृत गुरु गीत "सई हथे श्रीजिनचन्द्र। 1 खरतरगच्छ की उत्पत्ति के सम्बन्ध में देखें, मेरी लिखित वल्लभ भारती प्रस्तावना। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर नेमिचन्द्रसूरि उद्योतनसूरि वर्धमानसूर ( सूरिमन्त्रशोधक ) I जिनेश्वरसूरि२ ( वसतिमार्ग ( खरतर गण) प्रकाशक ) जिनचन्द्रसूरि‍ ( संवेगरंगशालाकार ) अभयदेवसूरि४ ( नवाङ्गीवृत्तिकारक ) | जिनवल्लभसूरि‍ I जिनदत्तसूरि ६ ( युगप्रधान पदधारक ) I जिनचन्द्रसूरि७ ( नरमणिमण्डित भालस्थल ) T जिनपतिसूरि ( षट्त्रशद्वाविजेता ) J जिनेश्वरसूरि 1 जिनप्रबोधसूरि ( ५ ) Jain Educationa International जिनचन्द्रसूरि 1 जिनकुशल सूरि ( खरतर वसति प्रतिष्ठापक ) जिनपद्मसूरि१० ( कूर्चालसरस्वति ) १-५, देखें, मेरी लि० वल्लभभारती प्रस्तावना. ६ देखें, अगरचन्द भँवरलाल नाहटा द्वारा लि० युगप्रधान जिनदत्तसूरि. ७ लेखक वही, मणिधारी जिनचन्द्रसूरि. ८-६-१० लेखक वही, प्रगटप्रभावी दादा जिनकुशलसूरि. For Personal and Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर जिनलब्धिसूरि जिनचन्द्रसूरि जिनोदयसूरि जिनराज् सूरि१ जिनभद्रसूरि (जेसलमेर, जालोर, देवगिरि, नागपुर,अण हिलपुर पत्तन आदि भण्डारों के संस्थापक) जिनचन्द्रसूरि जिनसमुद्रसूरि जिनहंससूरि जिनमाणिक्यसूरि१२ जिनचन्द्रसूरि१३ ( सम्राट अकबर प्रदत्त युगप्रधान पद धारक) सकलचन्द्र गरिण ( प्रथम शिष्य ) समयसुन्दर गणि ( महोपाध्याय पद धारक ) कवि को दीक्षा प्रदान करने वाले युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि हैं; जो आपके प्रगुरु होते हैं और कवि के व्यक्तित्व का विकास भी इनकी ही उपस्थिति में और इनके ही प्रसाद से हुआ है। अतः यहां युगप्रधान जिमचन्द्रसूरि का संक्षिप्त जीवन-दर्शन कर लेना समुचित होगा। ११, मेरी लि० अरजिनस्तव प्रस्तावना. १२-१३ नाहटा बन्धु लि० युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर (७ ) युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि के माता-पिता वीसा ओसवाल ज्ञातीय श्रीवंत और सियादे खेतसर (मारवाड़ ) के निवासी थे। आपका जन्म सं० १५६५ में हुआ था और आपका बाल्यावस्था का नाम सुलतान था। आचार्य प्रवर श्रीजिनमाणिस्यसूरिजी के उपदेश से प्रभावित होकर ६ वर्ष की अवस्था में आपने सं० १६०४ में दीक्षा ग्रहण की थी। आपका दीक्षा नाम रखा गया थासुमतिधीर । आचार्य जिनमाणिक्यसूरि का देरावर से जेसलमेर आते हुए मार्ग में ही स्वर्गवास हो गया था। अतः सम्वत् १६१२ भाद्रपद शुक्ला ६ गुरुवार को जेसलमेर में बेगड़गच्छ (खरतरगच्छ की ही एक शाखा) के आचार्य श्री गुणप्रभसूरि ने आपको आचार्य पद प्रदान कर, जिनचन्द्रसूरि नाम प्रख्यात कर श्री जिनमाणिक्यसूरि का पट्टधर (गच्छनायक ) घोषित किया । इस पट्टाभिषेक का महोत्सव जेसलमेर के राउल श्री मालदेवजी ने किया था। जेसलमेर से विहार कर, बीकानेर के मन्त्रिवयं संग्रामसिंह जी के आग्रह से आप बीकानेर पधारे। वहां सं० १६१४ चैत्र कृष्णा सप्तमी को स्वगच्छ में प्रचलित शिथिलाचार को दूर करने के लिये आपने क्रियोद्धार किया । सं० १६१७ में पाटण में जिस समय तपगच्छीय प्रखर विद्वान् किन्तु कदाग्रही उपाध्याय धर्मसागरजी* ने गच्छविद्वेषों का * सागर जी के गच्छ विद्वेष प्रकरण पर लिखते हुए कविवर समयसुन्दर निबन्ध में श्री मो० दु० देशाई लिखते हैं: "श्वेताम्बर मतना खरतरगच्छ अने तपगच्छ वच्चेनी मतामती पण प्रबल थई पड़ी हती अने तेमां धर्मसागर उपाध्यायजी नामना तपगच्छीय विद्वान्-पण उग्र स्वभावी साधु कुमतिकंदकुद्दाल (याने प्रवचन परीक्षा) नामनो ग्रन्थ बनावी तपगच्छ सिवाय ना अन्य सर्व गच्छ अने मत सामे अनेक आक्षेपो मूक्या । आथी ते सर्व मतो खलबली उठ्या; अने तेनु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर सूत्रपात किया उस समय आचार्यश्री ने उसको शास्त्रार्थ के लिये आह्वान किया और उसके उपस्थित न होने पर तत्कालीन अन्य समग्र गच्छों के आचार्यों के समक्ष धर्मसागर जी को उत्सुत्र जो समाधान न थाय तो आखा जैन-समाज मां दावानल अग्नि प्रकटे । आ माटे जोखमदार आचार्यों ने वच्चे पड्या वगर रही शकाय नहीं तेथी तपागच्छाचार्य विजयदानसूरि उपरोक्त ग्रन्थ पाणी मां बोलावी दीधो अने तेने अप्रमाण-ठेरव्यो । तेमणे जाहिरनामु काढी 'सात बोल' नी आज्ञा काढी एक बीजा मतवालाने वाद-विवाद नी अथडामण करता अटकाव्या हता। पण आटलाथी विरोध जोइए तेवो न शम्यो त्यारे विजयदानसूरि पछी आचार्य हीरविजयसुरि ए उक्त सात बोल पर विवरण करी 'बार बोल'ए नामनी बार आज्ञाओ जाहिर करी हती सं०१६४६ । अाथी जैन समाजमा घणी शान्ति प्रावी।" [ पृ०३] xxxx ___ "११. विक्रमनी सत्तरमी शताब्दि मां (सं० १६१७) अभयदेवसूरि खरतर हता के नहिं ते संबंधी पाटणमांज तपागच्छना धर्मसागर उपाध्याय अने खरतरगच्छना धनराज उपाध्यायने जबरो झगड़ो थयो हतो। धर्मसागरे एवु प्रतिपादन करवा मांड्य हतुके खरतरगच्छनी उत्पत्ति जिनेश्वरसूरि थी नहिं, पण जिनदत्तसूरि थी थई छ; अभयदेवसूरि खरतरगच्छमां थइ शकता नथी; जिनवल्लभसूरिश्रे शास्त्र विरुद्ध प्ररूपणा करी छेवगेरे चर्चाना विषयो पोताना औष्ट्रिक मतोत्सूत्र दीपिका नामना ग्रन्थमा भूक्या (रच्या सं०१६१७)। आ अन्थनु बीजु नाम प्रवचन परीक्षा छे या बन्ने जूदा होय-बन्नेमां विषयो सरखा छ । तेमांना एकनु बीजुनाम कुमतिकंदकुदाल छे । आथी बहु होहाकार थयो । बे गच्छ बच्चे अथडामणी अने अन्ते प्रबल विखवाद उत्पन्न थतां ते क्यां अटकशे, ए विचारवानु रह्यु। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर दी घोषित किया था। सम्नाट अकबर के आमन्त्रण से सूरिजी मात से विहार कर सं० १६४८ फाल्गुन शुक्ला १२ के दिवस महोपाध्याय जयसोम, वाचनाचार्य कनकसोम, वाचक रत्ननिधान जो जोखमदार आचार्यों ने बच्चे पड्या वगर चाले नहि, ते थी - तपागच्छना विजयदानसूरि उक्त कुमतिकुहाल ग्रंथ सभा समक्ष पाणीमां बोलावी दीधो हतो अने से ग्रन्थनी नकल कोई नी पण पासे होय तो, ते अप्रमाण ग्रन्थ छे माटे तेमानु कथन कोइथे प्रमाणभूत मानवु नहि, श्रेवु जाहेर कयु हतु। खरतरगच्छ वाला पोताना मतनु प्रतिपादन कराववा भगीरथ प्रयत्न सेव्यो हतो; वातना प्रमाणमा जणावधान के आपणा नायक समयसुन्दर उपाध्यायजी ना सं. १६७२ मां रचेला समाचारी शतक मां सं० १६१७ मां पाटण मां थयेला एक प्रमाण पत्र नी नकल आपेली छे के जेमां एवी हकीकत छे के अभयदेवसूरि खरतरगच्छ मां थयेला छे, अ वात पाटणना ८४ गच्छो वाला माने छे, अने प्रमाण पत्र साचु जणाय छे, अने तेनो हेतु उपरनो कलहवाद शमाववा अर्थे हतो।" [ पृ० १५ टिप्पणी | जहाँ प्रवचन-परीक्षा जैसे प्रन्थ को अप्रामाणिक ठहराकर जल-शरण कराया गया और इसी कारण धर्मसागरजी को सात और बारह बोल निकाल कर गच्छ बाहर घोषित किया गया था। वहीं उन्हीं के विचारानुयायी उसी ग्रन्थ को प्रकाशित कर और उसी विचार सरणि को पुनः समाज पर लादकर जो समाज में विषमता का वीज बो रहे हैं, वह सचमुच में दयनीय विषय है। अस्तु, धर्मसागरजी कथित समस्त प्रश्नों का विशद-समाधान सह उत्तर के लिये देखें, मेरी लिखित बल्लभभारती प्रस्तावना । प देखें, उ० समयसुन्दर रचित समाचारी शतक 'श्री अभयदेव पूरेः खरतरगच्छेशत्वाधिकारः' पृ० १६ [प्र. जि० भ० सूरत] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) महोपाध्याय समयसुन्दर और पं० गुणविनय प्रभृति ३१ साधुओं के परिवार सहित लाहोर में सम्राट् से मिले और स्वकीय उपदेशों से प्रभावित कर आपने तीर्थों की रक्षा एव अहिंसा प्रचार * के लिये आषाढी अष्टाह्निका एवं स्तम्भतीर्थीय जलचर रक्षक आदि कई फरमान प्राप्त किये थे। और सं० १६४६ फाल्गुन वदि १० के दिवस सम्राट के हाथ से ही युगप्रधान पद प्राप्त किया था जिसका विशाल महोत्सव एक करोड़ रुपये व्यय कर महामन्त्री कर्मचन्द्रो वच्छावत ने किया था। एक समय जब कि सम्राट जहांगीर अपने अन्तःपुर में सिद्धिचन्द्र नामक व्यक्ति को दुष्कृत्य करते हुए देखता है तो अत्यन्त ही कुपित होकर समग्र जैन साधुओं को कैद करने का और अपनी सीमा से बाहर करने का हुक्म निकाल देता है । उस समय जैन-शासन की रक्षा के निमित्त आचार्यश्री वृद्धावस्था में भी आगरा जाते हैं और * युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि परिशिष्ट ग. विद्यामन्त्रविशेषैश्चमत्कृतः श्रीजलालुद्दीनोऽपि । श्रीस्तम्भतीर्थजलनिधिजलजन्तुदयापरो वर्षम् । ८ । आषाढ-विमलपक्षे, दिनाष्टकं सर्वादेशसूबेषु । अनुकम्मायाः पटहः साहेवचनेन दत्तो यैः।।। [उत्तराध्ययन वृत्ति प्रशस्तिः, हर्षनंदन कृता] पा तेजः श्रीमदकब्बराभिधनृपः श्रीपातिसाहिमुदावादीद्यत्सु युगप्रधान इति सन्नाम्ना यथार्थेन व ॥ ४॥ श्रीमन्त्रीश्वरकर्मचन्द्रविहितोद्यकोटिटङ्कव्ययं, श्रीनन्धु त्सवपूर्वकं युगवरा यस्मै ददौ स्वं पदम् । श्रीमल्लाभपुरे दयादृढमति-श्रीपातिसाह्याग्रहाअन्धाच्छोजिनचन्द्रसूरिसुगुरुः सस्फीततेजोयशाः ।। ५॥ [श्रीवल्लभोपाध्याय कृत अभिधानचिन्तामणिनाममाला टीका.] । कर्मचन्द्रवंश प्रबन्ध वृत्ति सह. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वनामधन्य मन्त्रिवर श्री कर्मचन्द्रजी बच्छावत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. युगप्रधान जिनचन्द्रसरि मूर्तिः (बीकानेर ऋषभदेव मन्दिर) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर ( ११ ) सम्राट जहांगीर (जो उनको अपना गुरु मानता था ) को समझा कर इस हुक्म को रद्द करवाते हैं । * सं० १६७० में आश्विन कृष्णा द्वितीया को बिलाड़ा में आपका स्वर्गवास हुआ था । महामन्त्री कर्मचन्द्र बच्छावत और अहमदाबाद के प्रसिद्ध श्रेष्ठी संघपति श्री सोमजी शिवा आदि आपके प्रमुख उपासक थे । आपने सं० १६१७ विजयदशमी के दिवस पाटण में आचार्य प्रवर जिनबल्लभसूरि प्रणीत पौषधविधि प्रकरण पर ३५५४ श्लोक परिमाण की विशद टीका की रचना की, जो सैद्धान्तिक और वैधानिक दृष्टि से बड़ी ही उपादेय है । कवि के गुरु श्री सकलचन्द्रगरण हैं जो रोहड गोत्रीया हैं, और जो हैं युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि के आद्य शिष्य । जिनचन्द्रसूरि ने सं० १६१२ में गच्छनायक बनने पर सर्वप्रथम नन्दी 'चन्द्र' ही स्थापित की थी । अतः इनकी दीक्षा भी सं० १६१२ के अन्त में या १६१३ के प्रारंभ में ही हुई होगी। अथवा सं० १६१४ में आचार्य श्री बीकानेर पधारे, वहीं हुई हो ! क्योंकि आपकी चरणपादुका नाल में रोड़ गोत्रियों द्वारा स्थापित है । अतः शायद ये बीकानेर * येभ्यस्तीर्थकर स्तदीय नृपतेः क्रोसं परित्यक्तवान, येभ्यः साधुजनाः तुरुष्कनृपतेर्देशे विहारं व्यधुः । ६ । [ हर्षनन्दन कृत मध्याह्नव्याख्यानपद्धति-प्रशस्तिः ] इसका विशेष अध्ययन करने के लिए देखें, नाहटा बन्धु .लखित युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि पुस्तक का 'महान् शासन सेवा' नामक ग्यारहवां प्रकरण । देखें, ताजमल बोथरा लि० संघपति सोमजी शिवा । णिः सकलचन्द्राख्यो, रोहड़ान्वय भूषणम् || १० || [ कल्पलता प्रशस्तिः ] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) महोपाध्याय समयसुन्दर के निवासी हो और वहीं दीक्षा हुई हो! सं० १६२८ के सांभलि वाले पत्र में आपका नामोल्लेख है अतः सं० १६२८ से १६४० के मध्यकाल में ही आपका स्वर्गवास हुआ हो, ऐसा प्रतीत होता है। आपकी जो चरण पादुका* नाल (बीकानेर) दादावाड़ी में स्थित है जिसके निर्मापक रीहड़ गोत्रीय हैं, सभव है ये आपके ही संबंधी हों! पादुका के प्रतिष्ठा-कारक हैं आचार्य जिनचन्द्रसूरि और जिनकी उपाधि युगप्रधान सूचित की गई है जो आपको सं० १६४६ में प्राप्त हुई थी। अतः पादुका की प्रतिष्ठा इसके बाद ही हुई है। श्री देशाई ने सकलचन्द्र गणि के सम्बन्ध में अपने लेख में लिखा है।: __ "सकलचन्द्र गणि-तेश्रो विद्वान पंडित अने शिल्पशास्त्रमा कुशल हता। प्रतिष्ठाकल्प श्लोक (११०००) जिनबल्लभसूरि कृत धर्मशिक्षा पर वृत्ति (पत्र १२८), अने प्राकृ मां हिताचरण नामना औपदेशिक ग्रन्थ पर वृत्ति १२४२६ श्लोकमां सं०१६३० मां रचेल छे" जो वस्तुतः भ्रमपूर्ण है। इन ग्रन्थों के रचयिता पं० सकल* " .............. 'वर्षे ....... सुदि ३ दिने शनौ सिद्धियोगे श्री जिनचन्द्रसूरि शिष्यमुख्य पं० सकल......."चरण पादुका श्री खरतरगणाधीश्वर युगप्रधानप्रभु श्री..........श्रीजिनचन्द्र सूरिभिः प्रतिष्ठितं ....."हड़ जयवंत लूणाभ्यां कारिते ॥" . + कविवर समयसुन्दर पृ. १६ टि० १३. * जिनरत्नकोष और जैन ग्रन्थावली में यही उल्लेख है। किन्तु ___ मेरे नम्र विचारानुसार विजयचन्द्रसूरि प्रणीत धर्मशिक्षा पर वृत्ति होगी न कि जिनवल्लभीय धर्मशिक्षा पर । विशेष विचार तो प्रति सन्मुख रहने पर ही हो सकता है । अस्तु, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर (१३ ) चन्द्र गणि तपगच्छीय विजयदानसूरि के शिष्य हैं तथा भानुचन्द्र महोपाध्याय के दीक्षा गुरु हैं। नाम और समय की साम्यता वश ही देशाईजी भूल कर गये हैं। शिक्षा और पद कवि ने अपना विद्यार्जन यु० जिनचन्द्रसूरि वाचक महिमराज ( श्री जिनसिंहसूरि* ) और समयराजोपा* आचार्य जिनसिंहसूरि युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि के पट्टधर थे और साथ ही थे एक असाधारण प्रतिभाशाली विद्वान् । इनका जन्म वि० १६१५ के मार्गशीर्ष शुक्ला पूर्णिमा को खेतासर ग्राम निवासी चोपड़ा गोत्रीय शाह चांपसी की धर्मपत्नी श्री चाम्पलदेवी की रत्नकुक्षि से हुआ था। आपका जन्म नाम था मानसिंह । सं० १६२३ में जब आचार्य जिनन्चन्द्रसूरि खेतासर पधारे थे, तब आचार्यश्री के उपदेशों से प्रभावित होकर एवं वैराग्यवासित होकर आठ वर्ष की अल्पायु में ही आपने आचार्यश्री के पास ही दीक्षा ग्रहण की। दीक्षावस्था का आपका नाम रखा गया था महिमराज आचार्यश्री ने स०१६४० माघ शुक्ला५को जेसलमेर में आपको 'वाचक' पद प्रदान किया था। 'जिनचन्द्रसूरि अकबर प्रतिबोध रास' के अनुसार सम्राट अकबर के आमंत्रण को स्वीकार कर सूरिजी ने वाचक महिमराज को गणि समयसुन्दर आदि ६ साधुओं के साथ अपने से पूर्व ही लाहोर भेजा था। लाहोर में सम्राट अापसे मिलकर अत्यधिक प्रसन्न हुआ था । सम्राट् के पुत्र शाहजादा सलीम (जहांगीर) सुरत्राण के एक पुत्री मूलनक्षत्र के प्रथम चरण में उत्पन्न थो; जो अत्यंत ही अनिष्टकारी थी। इस अनिष्ट का परिहार करने के लिये सम्राट् की इच्छानुसार सं० १६४८ चैत्र शुक्ला पूर्णिमा को महिम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) महोपाध्याय समयसुन्दर ध्याय 1 के चरण कमलों में रहकर किया था। यही कारण है कि कवि अपनी सांप्रथम रचना भावशतक और अपनी विशिष्ट कृति अष्टलक्षी में इन दोनों को मेरी विद्या के एक मात्र गुरु' श्रद्धा-पूर्वाक कहता हुआ नजर आ रहा है:"श्रीमहिमराजवाचक-वाचकवर-समयराजपुण्यानाम् । मद्विद्य कगुरूणां, प्रसादतो सूत्रशतकमिदम् ।।" । [भावशतक] "श्रीजिनसिंहमुनीश्वर-वाचकवर-समयराज--गणिराजाम् । मद्विद्य कगुरूणामनुग्रहो मेऽत्र विज्ञेयः ॥" [अष्टलक्षी पृ० २८] T उपाध्याय समयराज भी आचार्य जिनचन्द्रसूरि के प्रमुख शिष्यों में से हैं। आपके सम्बन्ध में कोई ऐतिह्य वृत्त प्रान नहीं है। 'राज' नंदी को देखते हुए आपकी दीक्षा भी जिनसिंहसूरि के साथ ही या आस-पास स० १६२३ में ही हुई होगी। आपकी प्रणीत निम्न कृतियां प्राप्त हैं :-- १. धर्ममंजरी चतुष्पदी (१६६२) मेरे संग्रह में । २. पर्युषण व्याख्यान पद्धति ( नाहटा संग्रह में ) ३. जिनकुशलसूरि प्रणीत शत्रु अय ऋषजिनस्तव अवचूरि (मेरे संग्रह में ) ४. साधु-समाचारी (आगरा विजय धर्म लक्ष्मी ज्ञान मन्दिर) आदि कई संस्कृत भाषा के स्तोत्र । राजजी ने अष्टोत्तरी शान्तिस्नात्र करवाया; जिसमें लगभग एक लाख रुपया व्यय हुआ था और जिसकी पूजा की पूर्णाहुति ( आरती ) के समय शाहजादा ने १००००) रु० चढ़ाये थे। ....... काश्मीर विजय यात्रा के समय सम्राट की इच्छा को मान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर ( १५ ) - अध्येता समयसुन्दर ने इन दोनों विद्वानों के समीप किन किन ग्रन्थों का अध्ययन किया, इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता है । किन्तु कवि की जिस प्रतिभा का परिचय हमें तत्प्रणीत. द्वितीय कृति अष्टलक्षी से मिलता है; उससे अनुमान करने पर यह सिद्ध है कि आपने वाचकों से सिद्धहेमशब्दानुशासन, अनेकार्थ संग्रह, विश्वशंभुनाममाला, काव्यप्रकाश, पंच महाकाव्य आदि ग्रन्थों के साथ साथ जैन आगमिक साहित्य का और जैन दर्शन का विशेषतया अध्ययन किया था। इनके ज्ञानार्जन की योग्यता के सम्बन्ध में हम अगले प्रकरणों में विचार करेंगे । अस्तु । देते हुए आचार्यश्री ने वा० महिमराज को हर्षविशाल आदि मुनियों के साथ काश्मीर भेजा। काश्मीर के प्रवास में वा० महिमराज की अवर्णनीय उत्कृष्ट साधुता और प्रासंगिक एवं मार्मिक चर्चाओं से अकबर अत्यधिक प्रभावित हुआ। उसी का फल था कि वाचकजी की अभिलाषानुसार गजनी, गोलकुण्डा और काबुल पर्यन्त अमारि ( अभयदान) उद्घोषणा करपाई और मार्ग में आगत अनेक स्थानों ( सरोवर ) के जलचर जीवों की रक्षा कराई । काश्मीर विजय के पश्चात् श्रीनगर में सम्राट को उपदेश देकर आठ दिन की अमारी उद्घोषणा कराई थी। (देखें, जिनचन्द्रसूरि प्रतिबोध रास ) "शुभ दिनइ रिपुबल हेलि भेजी, नयर श्रीपुरि उतरि । अमारी तिहां दिन आठ पाली, देश साधी जयवरी॥" (जि० अ०प्र० रास) "श्रीपुरनगर आई, अमारि गुरु पलाई; मछरी सबई छोराइ, नीकउ भमउ भइयारी।" (कु० पृ० ३६२) __वाचकजी के चारित्रिक गुणों से भावित होकर, स० अकबर ने आचार्यश्री को निवेदन कर बड़े ही उत्सव के साथ में आपको Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) महोपाध्याय समयसुन्दर गणिपद-भावशतक (र० सं० १६४१) में सूचित 'गणि* शब्द को देखते हुये ऐसा प्रतीत होता है कि आपकी मेधावी प्रतिभा और संयमशीलता से आकर्षित होकर आचार्य श्रीजिनधन्द्रसूरि ने स्वकरकमलों से वाचक श्री महिमराज के साथ ही सं० १६४० माघ शुक्ला पंचमी को जेसलमेर में कवि को 'गणि' पद प्रदान किया होगा! * "तच्छिष्य समयसुन्दरगणिना स्वाभ्यास वृद्धिकृते ||६|| शशिसागररसभूतल (१६४१) संवति विहितं च भावशतकमिदम ॥१०॥" सं०१६४६ फाल्गुन कृष्णा १० के दिन आचार्यश्री के ही करकमलों से आचार्य पद प्रदान करवा कर जिनसिंहसूरि नाम रखवाया। (देखिये, उ० समयसुन्दर रचित 'जिनसिंहसूरि पदोत्सव काव्यं) सम्राट् जहांगीर भी आपकी प्रतिभा से काफी प्रभावित था। यही कारण है कि अपने पिता का अनुकरण कर स० जहाँगीर ने आपको युगप्रधान पद प्रदान किया था। . ( देखें, राजसमुद्र कृत 'जिनसिंहसूरि गीतम्' )। गच्छनायक बनने पश्चात् आपकी अध्यक्षता में मेड़ता निवासी चौपड़ा गोत्रीय शाह आसकरण द्वारा शत्रुञ्जय तीर्थ का सङ्घ निकाला गया था। सं० १६७४ में आपके गुणों से आकर्षित होकर, आपका सहवास एवं धर्मबोध प्राप्त करने के लिये सम्राट जहांगीर ने शाही स्वागत के साथ अपने पास बुलाया था। आचार्यश्री भी बीकानेर से विहार कर मेड़ता आये थे। दुर्भाग्यवश वहीं सं० १६७४ पोष शुक्ला त्रयोदशी को आपका स्वर्गवास हो गया। आपके जिनराजसूरि और जिनसागरसूरि आदि कई विद्वान् शिष्य थे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर ( १७ ) वाचनाचार्य पद- १६४६ फाल्गुन शुक्ला द्वितीया को लाहोर में जिस समय पाचक महिमराज को श्राचार्य श्री ने आचार्य पद प्रदान कर जिनसिंहसूरि नाम उद्घोषित किया था; उसी समय गणि पद भूषित कवि को 'वाचनाचार्यमा पद प्रदान कर सम्मानित किया था। __उपाध्याय पद-श्री राजसोम गणि प्रणीत 'समयसुन्दर गुरु गीतम्' के अनुसार यह निश्चित है कि तत्कालीन गच्छनायक श्रीजिनसिंहसूरि ने लवेर। में आपको 'उपाध्याय' पद से अलंकृत किया था, किन्तु संवत् का इस गीत में उल्लेख न होने से हमें उनके ग्रन्थों के आधार से ही निश्चित करना है । सं० १६६८ तक की आपकी कृतियों में उपाध्याय पद का कहीं भी उल्लेख नहीं है। नाहटाजी के लेखानुसार सं० १६७१ में लिखित अनुयोगद्वारसूत्र की पुष्पिका में भी वाचक पद का ही उल्लेख है। किन्तु कवि की १६७१ के पश्चात् की रचनाओं में उपाध्याय पद का उल्लेख है । देखिये:"तेषां शिष्यो मुख्यः, स्वहस्तदीक्षित सकलचन्द्रगणिः। तच्छिध्य-समयसुन्दर सुपाठकैरकृत शतकमिदम् ॥४॥" [विशेषशतक सं० १६७२] T "तेषु च गणि जयसोमा, रत्ननिधानाश्च पाठका विहिता। गुणविनय-समयसुन्दरगणिकृतौ वाचनाचार्यों ।।" कर्मचन्द्रवंश प्रबन्ध + "श्रीजिनसिंहसूरिंद, सहेर लवेरइ हो पाठक पद कीयउ” * "विक्रमसंवति लोचनमुनिदर्शनकुमुदवांधव (१६७२) प्रमिते । श्रीपार्श्वजन्मदिवसे, पुरे श्रीमेडतानगरे ॥२॥" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ( १८ ) महोपाध्याय समयसुन्दर "जयवंता गुरु राजीयारे, श्रीजिनसिंहसरि राय । समयसुन्दर तसु सानिधि करी रे, इम पभणइ उवझाय रे॥६॥" [सिंहलसुत प्रियमेलक रास | सं० १६७२] अतः यह निश्चित है कि सं० १६७१ के अंतिम भाग में या १६७२ के पोष मास के पूर्व ही आपको उपाध्याय पद प्राप्त हो गया था। महोपाध्याय पद-परवर्ती कई कवियों ने आपको 'महोपाध्याय' पद से सूचित किया है; जो वस्तुतः श्रापको परम्परानुसार प्राप्त हुआ था। सं० १६८० के पश्चात् गच्छ में आपही वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध और पर्यायवृद्ध थे। साथ ही खरतरंगच्छ की यह परम्परा रही है कि उपाध्याय पद में जो सबसे बड़ा होता है, वही महोपाध्याय कहलाता है। अतः स्वतः सिद्ध है कि आपकी महिमा और योग्यता से प्रभावित होकर यह पद लिखा गया है। यही कारण है कि वादी हर्षनन्दन उत्तराध्ययन सूत्र के प्रारम्भ में "श्रीसमयसुन्दर महोपाध्याय चरणसरोरुहाभ्यां नमः'' लिखता है। प्रवास और उपदेश कवि के स्वरचित ग्रन्थों की प्रशस्तियाँ, तीर्थमालायें और तीर्थस्तव साहित्य को देखते हुये ऐसा प्रतीत होता है कि कवि का प्रवास उत्तर भारत के क्षेत्रों में बहुत लम्बा रहा है। सिन्ध, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, सौराष्ट्र, गुजरात के प्रदेशों में विचरण अत्यधिक रहा है। प्रशस्तियाँ आदि के अनुसार वर्गीकरण किया जाय तो इस प्रकार होगा:1 "संवत सोलबहुत्तरि समइ रे, मेडतानगर मझारि।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर ( १६ ) सिन्ध-मुलतान, मरोठ, उच्च नगर, सिद्धपुर, देरावर । पंजाब-लाहोर, सरसपुर, पीरोजपुर, कसूर । उत्तरप्रदेश-उग्रसेनपुर (आगरा), अकबरपुर १, सिकंदरपुर२, बीबीपुर३ । राजस्थान-सांगानेर, चाटसू , मंडोवर, तिमरी, मेड़ता, फलवर्षी पार्श्वनाथ, डिंडवाणा, नागोर, जालोर, नाकोड़ा, बिलाड़ा, लवेरा, सेत्रावा, सांचोर, सेत्रावा, धंघाणी, वरकाणा, नडुलाइ, नलोल, राणकपुर, आबू , अचलगढ़, देलवाड़ा, जीरावला, जेसलमेर, अमरसर, लौद्रवा, वीरमपुर, बीकानेर, नाल, रिणी, लूणकरणसर, चंदवारि५ (?) सौराष्ट्र-नागदह,६ नवानगर, सौरिपुर,८ गिरनार, शत्र जय । गुजरात-आंकेट, पालनपुर, ईडर, शंखेश्वर, सैरीसर, पाटण, नारंगा, देवता,१० भड़कुल,११ भोडुआ,१२ अमदाबाद, गौडीपार्श्वनाथ, खंभात, पुरिमताल, कलिकुड, कंसारी, त्रंबावती,१३ मगलोर, अजाहरा। ___ श्री देशाई१४ तीर्थमालाओं में उल्लिखित सम्मेतशिखर, राज१. कुसुमाञ्जलि पृ० ३.६ २. वही पृ० १७१ ३. वही पृ० १७८ ४. , पृ० १७० ५. वही पृ० १७,६६, ६. , पृ० १५२ , पृ० ५८, ८. , पृ० ११२ , पृ० १७३, १०. ,, पृ० १७७ ११ , पृ० १७८, १२. , पृ० २०६ १३. ., पृ० १६०, १४. देखें, कविवर समयसुन्दर निबंध पृ० २६-२७, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) महोपाध्याय समयसुन्दर गृही के पांच पहाड़, क्षत्रियकुण्ड, चम्पानगरी, पावापुरी, अंतरीक्ष और मक्षी श्रादि प्रदेशों में विचरण का अनुमान करते हैं; जो समुचित नहीं है। क्योंकि इस बात का कोई पुष्टप्रमाण नहीं है कि कवि का इन प्रदेशों में विचरण हुआ हो! किन्तु कवि की रचनाओं और प्रवास को देखते हुये यह सिद्ध है कि कवि का इन प्रदेशों में विचरण नहीं हुआ है किन्तु, प्रसिद्ध तीर्थ-स्थान होने से स्तव रूप में नमस्कार-मात्र ही किया है। . कवि अपने प्रवास को तीर्थयात्रा और प्रचार का माध्यम बनाकर सफलता प्रदान कर रहा है। जहां जहां भी तीर्थस्थल आते हैं, वहां-वहां कवि मुक्त हृदय से भक्ति करता हुआ भक्त के रूप में दिखाई पड़ता है, नूतन स्तवन बनाकर अर्चा करता रहता है। कवि के तीर्थयात्रा सम्बन्धी कई स्तव भी ऐतिहासिक तथ्यों का उद्घाटन करते हैं। उदाहरण स्वरूप घंघाणी* और राणकपुर का स्तवन देखिये। ____ कवि विचरण करता हुआ अपने समाज में तो ज्ञान और धर्म का प्रचार करता ही रहा है। किन्तु साथ ही राजकीय अधिकारियों से भी सम्बन्ध स्थापित कर, अहिंसा-धर्म का भी मुक्तरूप से प्रचार करता रहा है। कवि अपनी वृत्ति को संकीर्ण न रखकर, केबल स्वसमुदाय में ही नहीं, अपितु सामान्य जनता और मुसल* कुसुमाञ्जलि पृ०२३२ । । वही पृ० २८ । इस स्तवन में कवि खरतरवसही का भी उल्लेख करता है:'खरतर वसही खांतीसुरे लाल,निरखंता सुख थाय मन मोहउ रे। जो कि वर्तमान में नहीं है। किन्तु सं० २००६ वैशाख शुक्ला में मैं यात्रार्थ राणकपुर गया था। वहां वेश्या का मन्दिर नाम से प्रसिद्ध मन्दिर के तज घर में पिप्पलक खरतर शाखा के प्रवतक आचार्य जिनवर्धनसूरि के पौत्र शिष्य, श्रोजिनचन्द्रसूरि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर (२१) मानों तक से अपना संपर्क स्थापित कर उपदेश देता है। यही कारण है कि वह सिद्धपुर (सिन्ध ) के कार्यवाहक ( अधिकारी) मखनूम मुहम्मद शेख काजी को अपनी वाणी से प्रभावित कर समग्र सिन्ध प्रान्त में गौमाता का, पञ्चनदी के जलचर जीव एवं अन्य सामान्य जीवों की रक्षा के लिये अभय की उद्घोषणा करवाता है। इसी प्रकार जहां जेसलमेर में मीना-समाज सांडों का के पट्टधर श्रीजिनसागरसूरि प्रतिष्ठित एक मूर्ति (जो संभवतः मूलनायक की होगी !) लगभग ५४ अंगुल की थी और १०-१२ मूर्तियां छोटी मौजूद हैं । इससे निश्चित है कि कवि वर्णित खरतरवसही का ध्वंस होने से मूर्तियें उक्त मन्दिर के तलघर में रखी गई हों। + शीतपुर माहे जिण समझावियउ, मखनूम महमद सेखोजी । जीवदया पड़इ फेरावियो, राखी चिहुँ खंड रेखोजी ।। [देवीदास कृत समयमुन्दर गीतम् ] सिंधु विहारे लाभ लियो घणो रे, रंजी मखनूम सेख। पांचे नदियां जीवदया भरी रे, वलि धेनु विशेष ।।५॥ [वादी हर्षेनन्दन कृत समयसुन्दर गीतम् ।] वादी हर्षनन्दन तो कवि के उपदेश द्वारा अकचर के हुक्म से सम्पूर्ण गुर्जर भूमि में किया हुआ अमारि पटह का भी उल्लेख करता है : "श्रमारिपटहा गैस्तु, साहिपत्रप्रमाणतः । दापयांचक्रिरे सर्व-गुर्जराधरणीतले । १० । श्रीउच्चनगरे शेष, श्रीमखतू'म जिहानीयाम्। प्रतिबोध्य गवां घातो, वारितस्तारितात्मभिः । ११ ।” [ऋषिमण्डल टीका प्र०] "मखतूंमजिहानीया, म्लेच्छगुरु प्रबोधकाः । सिन्धौ गोमरणभय-त्रातारः पापहर्तारः । १४।" उ० टी०प्र०] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) महोपाध्याय समयसुन्दर वध किया करता था, वहां ही जेसलमेर के अधिपति रावल भीमजी को बोध देकर इस हिंसा-कृत्य को बन्द करवाया था और मंडोवर२ (मंडोर, जोधपुर स्टेट ) तथा मेड़ता के अधिपतियों को ज्ञान-शिक्षा देकर शासन-सेवी बनाया था। औदार्य और गुणग्राहकता कवि सचमुच में ही भावुकता और औदार्य के कारण कवि ही था । वैसे तो कवि खरतरगच्छ का अनुयायी और महास्तंभ गीतार्थ था; किन्तु अनुयायी होने पर भी उसके हृदय में श्रुतदेवी का विलास होने कारण किंचित भी हठाग्रह या संकीर्णता नहीं थी; थी तो केवल उदारता ही। उदाहरण स्वरूप देखिये: तपागच्छ के धर्मसागरजी जहां प्रलापी की तरह खरतरगच्छ को और उसके कर्णधार महाप्रभावी प्राचार्यों को खर-तर, निह्नव, उत्सूत्रभाषी, मिथ्याप्रलापी और जार-पुत्र आदि अशिष्ट विशेषण दे रहा था वहां कवि अपने गच्छ और आचार्यों की मर्यादा तथा अपनी वैधानिक परम्पराओं को सुरक्षित रख रहा था। 'समाचारी .शतक' में कवि अभयदेवसूरि की खरतरगच्छीयता, षट्कल्याणक निर्णय, अधिकमास निर्णय, उपवास सह पौषध और खरतरगच्छ की परिभाषा एवं ऐतिहासिकता सिद्ध करता हुआ शास्त्रीयता का प्रतिपादन कर रहा है। किन्तु क्या मजाल की कहीं भी धर्मसागर का नामोल्लेख भी किया हो अथवा कहीं भी, किसी के लिये भी अशिष्ट विशेषणों का या शब्दों को प्रयोग किया हो! अपितु देखा ऐसा जाता है कि कवि, धर्मसागर जी के ही सहपाठी, गुरुभ्राता और तपागच्छनायक हीरविजयसूरि १-२-३ देखें, युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि पृ० १६७। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर ( २३ ) को अपने गणनायक के समान ही प्रभाविक और जिनशासन का सितारा मानकर स्तुति करता है: भट्टारक तीन भये बड़भागी। जिण दीपायउ श्रीजिनशासन, सबल पडूर सोभागी । भ०१।। खरतर श्रीजिनचन्द्रसूरीसर, तपा हीरविजय वैरागी। .. विधिपक्ष धरममूरति सूरीसर, मोटो गुण महात्यागी । भ०२। मत कोउ गर्व करउ गच्छनायक, पुण्य दशा हम जागी। समयसुन्दर कहइ तत्त्वविचारउ,भरम जाय जिम भागी। भ०३। कवि गुग्णों का ग्राहक और साधुता का पूजक था। न तो उसके सामने गच्छ का ही महत्त्व था और न था छोटे-मोटे का ही महत्त्व, अपितु महत्त्व था तो केवल गुणों का आदर करना । यही कारण है कि पार्श्वचन्द्रगच्छ ( लघु-समुदायी) के प्राचार्य विमलचन्द्रसूरि के शिष्य पूँजा ऋषि थे जो रातिज (गुजरात) ग्राम निवासी कडुआ पटेल गोरा और धनबाई का पुत्र था और जिसने १६७० में अहमदाबाद में दीक्षा ली थी। बड़ा ही उग्र तपस्वी था। देखा जाय तो कवि, पुञ्ज। ऋषि से अवस्था, ज्ञान, प्रतिभा और चारित्र में अधिक सम्पन्न होने पर भी पूजा ऋषि की तपस्या से अत्यधिक प्रभावित होता है और श्लाघा पूर्वक रास में वर्णन करता है :श्रीपार्श्वचन्द्र ना गच्छ मांहे, ए पुनो ऋषि आज । आप तरै नै तारिवै, जिम बढ़ सफरी जहाज । ८ । ऋषि पुजो अति रूड़ो होवइ, जिन शासन मांहे शोभ चढावइ ।१४। तेहना गुणगातां मन मांहइ, आनन्द उपजै अति उछाहे। जीभ पवित्र हुवे जस भणतां, श्रवण पवित्र थाये सांभलतां ॥१५॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) महोपाध्याय समयसुन्दर ऋषि पुजे तप कीधौ ते कई, सांभलजो सह कोई रे। आज नइ कालै करइ कुरण एहेवा, पणि अनुमोदन थाई रे ॥१६॥ पुंजराज मुनिवर वंदो, मन भाव मुनीसर सोहै रे। उग्र करइ तप आकरौ, भवियण जन मन मोहै रे ॥३२॥ श्राज तो तपसी एहयो, पुजा ऋष सरीखो न दीसइ.रे। तेहनै वांदता विहरावतां, हरखै कवि हियड़ो हीसइ रे ।३।। एक बे वैरागी एहवा, श्रीपासचन्द गच्छ मांहि सदाई रे। गरुयड वाढइ गच्छ माहि, श्रीपासचन्द्रसूरिनी पुण्याई रे ॥३६॥ इतना ही नहीं कवि के हृदय में गच्छ वाद तो दूर रहा किन्तु श्वेताम्बर-दिगम्बर जैसे विवादास्पदीय विषयों से भी वे दूर रहे। उनके तीर्थों के प्रति भी इनकी वैसे ही श्रद्धा और आदर भक्ति है, जैसे कि अपने तीर्थों के प्रति । दिगम्बर प्रसिद्ध तीर्थस्थलों में भी कवि यात्रा करने जाता है और भाव अर्चा करता है: "चन्द्रपुरी अवतार, लक्ष्मणा माता मल्हार, ___ चन्द्रमा लांछन सार, उरु अभिराम में। बदन पूनिमचंद, वचन शीतलचंद, महासेन नृपचंद, नवनिधि नाम में। तेज करइ झिव झिब, फटित रतन किंव, सांढ्यौ है............."दिगम्बर धाम में। समयसुन्दर इम, तीरथ कहइ उत्तम, चन्द्रप्रभ भेट्यो हम, चांदवारि गाम में । ८ । इस प्रकार की विशाल हृदयता और उदारता उस समय के महर्षियों में भी विरलता से प्राप्त होती है जैसे कि कवि में थी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर ( २५ ) सचमुच में कवि के जैसी गुणग्राहकता तत्कालीन मुनि-जनों में होती तो आज 'गच्छवाद' का विकृत स्वरूप हमें देखने को प्राप्त नहीं होता और न समाज की ऐसी करुणदशा ही होती। आज भी हम यदि कवि की इस गुणग्राहकता को अपना करके चलें तो निश्चय ही हम विश्व में अपना स्थान बना सकेंगे। अस्तु.. गुजरात का दुष्काल और कवि का क्रियोद्धार कवि के जीवन को करुण और दयनीय स्वरूप प्रदान करने पाला गुर्जर देश का संवत् १६८७ का भयंकर दुष्काल है। इस दुष्काल ने अन्नाभाव के कारण इस प्रकार की दुर्दशा कर दी थीकि चारों तरफ त्राहि-त्राहि की पुकार मची हुई थी: अध पान लहे अन्न भला नर थया भिखारी, मकी दीधउ मान, पेट पिण भरइ न भारी, पमाडियाना पान, केइ वगरौ नई कांटी, खावे खेजड़ छोड़, शालितूस सबला बांटी। अन्नकण चुणइ के अईठि में, पीयइ अईठि पुसली भरी। समयसुन्दर कहइ सत्यासीया, एह अवस्था तई करी ।।।। मांटी मुकी बइर, मुक्या बरै पणि मांटी, बेटे मुक्या बाप, चतुर देतां जे चांदी, भाई मुकी भइण, भइणि पिण मुक्या भाइ, प्रधिको व्हालो अन्न, गइ सहु कुटुम्ब सगाइ। घरबार मुकी माणस घणा, परदेशइ गया पाधरा, समयसुन्दर कहइ सत्यासीया. तेही न राख्या आधरा || इस दुष्काल ने अपने भयंकर वरद हस्त से समाज के रुधिर और मज्जा से यमराज को भी काफी प्रसन्न किया था: Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) महोपाध्याय समयसुन्दर मू घरणा मनुष्य, रांक गलीए रडवडिया, सोजो वल्यउ सरीर, पछई पाज मांहे पडिया; कालइ कवण क्लाइ, कुरण उपाढइ किंहा काठी, ताणी नाख्या तेह, मांडि थइ सगली माठी । दुरगंधि दशो दिसि उछली, मडा पड्या दीसइ मुआ, समयसुन्दर कहइ सत्यासीया, किरण घरइ न पड्या कुकुत्रा ||१६|| X X X ऐसी भयंकर अवस्था में, जो उपासक, देव गुरु और धर्म के परमपूजारी और श्रद्धालु थे वे भी अपने कर्त्तव्यों से पराङ्मुख हो गये थे । अतः उपासकों के भगवत्तुल्य ८४ गच्छ के साधुओं की दशा भी आहार न मिलने के कारण बड़ी विचित्र हो गई थी । देवमंदिर शून्य से हो गये थे :-- घर तेडी घरणी वार, भगवान ना पात्रा भरता, भागा ते सहु भाव, निपट थया वहिरण निरता; जिमता जडइ किमारण, कहै सवार छै केई, इ फेरा दस पांच, जती निठ जायइ लेई । श्रपइ दुखइ अछूटतां, ते दूषण सहु तुझ ताउ; समयसुन्दर कहइ सत्यासीया, विहरण नहीं विगुचरणउ |१५| X x X पडिकमा पोसाल, करण को श्रावक नावइ, देहरा सगला दीठ, गीत गंधर्व न गावइ; शिष्य भाइ नहीं शास्त्र, मुख भूखइ मचकोडइ, गुरुवंद गइ रीति, छती गीत माणस छोड़इ । वखाण खाण माठा पड्या, गच्छ चौरासी एही गति; समयसुन्दर कहई सत्य सीया, कांइ दीधी तई ए कुमति |१५| X X इस सत्यासी या भाग्यशाली ने तो कई श्राचार्यो को अपना ग्रास बनाया था। कितने गीतार्थो को अपने अधिकार में किया था; कल्पना ही नहीं :-- Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर ( २७ ) श्री ललितप्रभसूरि, पाटण पूनमिया सुगुरु, प्रभु लहुडी पोसाल, पूज्य बे पीपलिया खरतर; गुजराती गुरु बेउ, बडउ जसवंत नइ केसव, शालिवाडियउ सूरि, हूँ कितो पूरो हिसब । सिरदार घणेरा सहरया, गातारथ गिणती नहीं; समयसुन्दर कहइ सत्यासीया, तु हतियारउ सालो सही।१८। ऐसी अवस्था में कई साधुओं ने उल्टा लाभ उठाया था। श्रावकों की अनिच्छा होते हुये भी अनेकों अनाथ बच्चों को दीक्षित कर जमात बढ़ाई थी। इसी पर कवि व्यंग्य कसता हुआ कहता है: आपणा वाल्हा आंत्र, पड्या जे आपणां पेटा, नाण्यो नेह लिगार, बापइ पिण बेच्या बेटा; लाधउ जतीए लाग, मूडी नई मांहइ लीधा; हुंती जितरी हुस, तीए तितराहिज कीधा। कूकीया घणु श्रावक किता, तदि दीक्षा लाभ देखाडीया; समयसुन्दर कहइ सत्यासीया, लइं कुटुम्ब बिछोहा पाडीया।१०। कवि भी इस दुष्काल की मार से बचा नहीं। इधर तो कवि की वृद्धावस्था और इधर शिष्यों द्वारा त्याग; ऐसी अवस्था में यह ८४ गच्छ का सर्वमान्य कवि अति-दुर्बल और पीड़ित हो जाता है। फिर भी क्षीण देही कवि अपने शिष्यों के मोह में ग्रसित होकर, साधुओं के लिये अनाचरणीय, शास्त्र, पात्र और वस्त्र बेचकर कितना ही काल व्यतीत करता है। पर, हा, हतभाग्य ! कवि के वे ही शिष्य उसका त्याग कर जाते हैं: दुःखी थया दरसणी, भूख आधी न खमावइ; श्रावक न करी सार, खिए धीरज किम थायइ, चेले कीधी चाल, पूज्य परिग्रह परहउ छांडर; * यह दशा उस समय सर्ब साधारण की थी। x Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) महोपाध्याय समयसुन्दर पुस्तक पाना वेचि, जिम तिम अम्हनइ जीवाडउ। वस्त्र पात्र बेची करी, केतौक तो काल काढियउ, समयसुन्दर कहइ सत्यासीया, तुनइ निपट निरधाटीयउ॥१३॥ इस प्रकार दुर्भिक्ष से स्वस्थ होने पर कवि अनुभव करता है कि स्वसाधना और परार्थसाधना जो हमारा जीवन का लक्ष्य है, उससे हम दूर होते चले जा रहे हैं। साध्वाचार के प्रतिकूल शिथिलता में पनपते जा रहे हैं जो हमारे साध्यजीवन के लिये अत्यन्त ही घातक है । हमें पुनः उत्थान की तरफ चलकर आदर्शमय बनना होगा । इन्हीं विचारों में अग्रसर होकर कवि वृद्धावस्था में भी सं० १६६१ में शैथिल्य का त्याग कर सुविहित साधुता अपनाते हुये 'क्रियोद्धार' करता है और भावी-समाज के लिये प्रादर्श की भूमिका छोड़ जाता है। जीवन की कातरता यह जीवन का सत्य है कि भौतिकवाद की दृष्टि से मानव की सम्पूर्ण आकांक्षायें कदापि पूर्ण नहीं होती। किसी न किसी प्रकार की कमी रहती ही है और वही कमी जीवन का शल्य बनकर सम्पूर्ण भौतिक सुखों पर पानी फेर देती है तथा जीवन को दुःखी बना देती है । यही दुःखीपना कातरता का स्वरूप धारण कर मनुज्य को दीन भी बना देता है । यही जीवन की एक श्राकांक्षा कवि जैसे सक्षम व्यक्ति को भी कातर बना देती है। कवि का जीवन अत्यन्त सुखमय रहा है। क्या शारीरिक दृष्टि से, क्या अधिकार की दृष्टि से, क्या उपाधियों की दृष्टि से, क्या सन्मान की दृष्टि से और क्या शिष्य-प्रशिष्य बहल परिवार की दृष्टि से । कहा जाता है कि कवि के स्वहस्तदीक्षित | ४२ शिष्य पदीक्षा तो स्वयं आचार्य देते थे किन्तु जिनके द्वारा प्रतिवोधित होते थे, उन्हीं के शिष्य बनाया करते थे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर ( २६ ) थे, जिसमें शायद प्रशिष्यों की संख्या सम्मिलित नहीं है उन शिष्यों में से कई तो शिष्य महा विद्वान्, वादी और प्रतिभा सम्पन मेधावी भी थे। किन्तु इतना होने पर भी कवि को शिष्यों का सुख प्राप्त नहीं हुआ। जिन शिष्यों को योग्य बनाने के लिये कवि ने अपना सर्वस्व त्याग किया, गुजरात के सत्यासीया दुष्काल में भी शिष्यों को सुखी रखने के लिये जिसने कोई कसर नहीं रखी, जिसने अपनी आत्मा को पंचित कर साधु-नियमों का · लखन कर माता-पिता के समान ही शिष्यों का पुत्रवत् पालन किया था। व्याकरण, प्राचीन एवं नव्यन्याय, साहित्य और दर्शन का अध्ययन करवा कर, गणनायकों से सिफारिशें कर उपाधियां दिलवाई थी और जो समाज एवं गच्छ प्रतिष्ठित यशस्वी माने जाते थे, वे ही शिष्य कधि को वृद्धावस्था में त्याग करके चले जाते हैं, सेवा शुश्रूषा भी नहीं करते हैं और जो पास में रहते हैं वे भी कवि की भन्तपीड़ा नहीं पहचान पाते हैं; तो कवि का हृदय रो उठता है और अनिच्छा होने पर भी बलात् वाचा द्वारा अभिव्यक्त करता हुश्रा अन्य साधुओं को सचेत करता है कि शिष्य सन्तति नहीं है तो चिंता न करो । देखो, मैं अनेक शिष्यों का गुरु हाता हुआ भी दुःखी हूँ: चेला नहीं तउ म करउ चिन्ता, दीसइ घणे चेले पणि दुक्ख । संतान करंमि हुआ शिष्य बहुला, पणि समयसुन्दर न पायउ सुक्ख ॥१॥ केइ मुया गया पणि केइ, केइ जुया रहइ परदेस । पासि रहइ ते पीड न जाणइ, + देखिये, भागे का शिष्य परिवार अध्याय । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर कहियउ घणउ तउ थायइ किलेस ॥२॥ जोड़ घड़ी विस्तरी जगत मई, प्रसिद्धि थइ पातसाह पर्यन्त । पणि एकणि बात रही अरारति, न कियउ किण चेलइ निश्चिन्त ॥३॥ समयसुन्दर कहइ सांभलिज्यो, देतउ नहीं छु चेला दोस । इधर वृद्धावस्था, उधर दुष्काल से जर्जरित काय और ऐसी अवस्था में भी अपने प्राण प्यारे शिष्यों की उपेक्षा से कवि अत्यंत दुःखी हो जाता है जिसका वर्णन कवि अपने 'गुरु दुःखित वचनं' में विस्तार से प्रकट करता हुआ कहता है कि ऐसे शिष्य निरर्थक "क्लेशोपार्जितवित्तेन, गृहीत्वा अपवादतः । यदि ते न गुरोभक्ताः, शिष्यैः किं तैर्निरर्थकः ।। वंचयित्वा निजात्मानं, पोषिता मृष्टभुक्तितः । यदि ते न गुरोभक्ताः, शिष्यैः किं तैनिरर्थकैः ।२। लालिताः पोलिताः पश्चान्मातृपित्रादिवद् भृशम् । यदि ते न गुरोर्भक्ताः, शिष्यैः किं निरर्थकैः ।३। पाठिता दुःखपापेन, कर्मवन्धं विधाय च । यदि ते न गुरोभक्ताः, शिष्यैः किं तैर्निरर्थकैः ।४। गृहस्थानामुपालम्भाः, सोढा बाढं स्वमोहतः । यदि ते न गुरोभक्ताः, शिष्यैः किं तैर्निरर्थकैः ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर ( ३१ ) तपोपि वाहितं कष्टात् , कालिकोत्कालिकादिकम् । यदि ते न गुरोभक्ताः, शिष्यैः किं तैर्निरर्थकैः ।६। वाचकादि पदं प्रेम्णा, दापितं गच्छनायकात् । यदि ते न गुरोर्मक्ताः, शिष्यैः किं तैर्निरर्थकैः ।७। गीतार्थ नाम धृत्वा च, बृहत्क्षेत्रे यशोर्जितम् । यदि ते न गुरोभक्ताः, शिष्यैः किं तैनिरर्थकैः ।। तर्क-व्याकृति-काव्यादि-विद्यायां पारगामिनः । यदि ते न गुरोभक्ताः, शिष्यैः किं तैनिरर्थकः ।।। सूत्रसिद्धान्तचर्चायां, याथातथ्यप्ररूपकाः । यदि ते न गुरोभक्ताः, शिष्यैः किं तैनिरर्थकैः ॥१०॥ वादिनो भुवि विख्याता, यत्र तत्र यशस्विनः । यदि ते न गुरोभक्ताः, शिष्यैः किं तैर्निरथकः ११॥ ज्योतिर्विद्या चमत्कार, दर्शितो भूभृतां पुरः । यदि ते न गुरोभक्ताः, शिष्यैः किं तैनिरर्थकः ॥१२॥ हिन्दू-मुसलमानानां, मान्याश्च महिमा महान् । यदि तेन गुरोभक्ताः, शिष्यैः किं तैनिरर्थकः ॥१३॥ परोपकारिणः सर्वगच्छस्य स्वच्छहच्चितः । यदि ते न गुरोभक्ताः, शिष्यैः किं तैर्निरर्थकैः।१४। गच्छस्य कार्यकर्तारो, हर्तारोऽर्तेश्च भूस्पृशाम् । यदि ते न गुरोभक्ताः, शिष्यैः किं तैनिरर्थकः ॥१५॥ गुरुर्जानाति वृद्धत्वे, शिष्याः सेवाविधायिनः । यदि ते न गुरोभेक्ताः, शिष्यैः किं तैर्निरर्थकैः।१६। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) महोपाध्याय समयसुन्दर गुरुणा पालितानाऽऽज्ञाऽर्हतोऽतोऽतिदुःखभागभूव । एषामहो ! गुरुदु:खी, लोकलज्जापि चेन्नहि ।१७।* पराधीनता यह भी एक जीवन का सत्य है कि मानव अपनी तारुण्यावस्था और प्रौढ़ावस्था में अपने विशद ज्ञान, अधिकार और प्रतिभा के बल पर सर्वतन्त्र स्वतन्त्र होकर जीवित रहता है किन्तु, वही वृद्धावस्था में अपने मनको मारकर पुत्रों की इच्छानुसार चलने को बाधित हो जाता है। उसकी सारी योग्यता, प्रतिभा और स्वाभिमान का नामोनिशान भी मिट जाता है। देखिये कवि के जीवन को ही। घटना इस प्रकार है: प्राचार्य जिनसिंहसूरि के पश्चात् श्रीजिनराजसूरि । गण. नायक बने और जिनसागरसूरि आचार्य बने । जिनसागर* संभवतः यह 'दुःखित वचनं वादी हर्णनन्दन को लक्ष्य कर लिखा गया प्रतीत होता है। T आचार्य जिनराजसरि-बीकानेर निवासी बोहित्थिरा गोत्रीय श्रेष्टि धर्मसी के पुत्र थे । आपकी माता का नाम धारलदे था। आपका जन्म नाम राजसिंह था। सं० १६५६ मिगसर मुदि ३ को आपने आचार्य जिनसिहसूरि के पास दीक्षा ग्रहण की। आपका दीक्षा नाम था राजसमुद्र । आपको उपाध्याय पद स्वयं युगप्रधानजी ने सं० १६६८ में दिया था। प्रा० जिनसिंहसरि के स्वर्गवास होने पर आप सं० १६७४ वैशाख शुक्ला सप्तमी को मेड़ता में गणनायक आचार्य बने। इसका पट्टमहोत्सव मेड़ता निवासी चोपड़ा गोत्रीय सङ्घवी आसकरण ने किया था। अहमदाबाद निवासो सङ्घपति सोमजी कारित शत्रु आय की खरतर वसही में सं० १६७५ बैशाख शुक्ला १३ शुक्रवार को Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर ( ३३ ) ५०० मूतियों की आपने प्रतिष्ठा की थी। भाणवड पार्श्वनाथ तीर्थ के स्थापक भी आप ही थे। सं० १६७७ जेठ यदि ५ को चोपड़ा बासकरण कारापित शान्तिनाथ आदि मन्दिरों की आपने प्रतिष्ठा की थी; ( देखें, मेरी संपादित, प्रतिष्ठा लेख संग्रह प्रथम भाग)। जेसलमेर निवासी भणसाली गोत्रीय सङ्घपति थाहरु कारित,जैनों के प्रसिद्ध तीर्थ लौद्रवाजी की प्रतिष्टा भी सं० १६७५ गर्गशीर्ष शुक्ला द्वादशी को आपने ही की थी और आपकी ही निश्रा में सं० थाहरु ने शत्रु आय का सङ्घ निकाला था। कहा * गता है कि अंबिका देवी आपको प्रत्यक्ष थी और देवी की सहायता से ही घडाणी तीर्थ में प्रकटित मूर्तियों के लेख मापने पाचे थे। आपकी प्रतिष्ठापित सैकड़ों मूर्तियाँ आज भी उपलब्ध है। मल्पं० १६६६ आषाढ़ शुक्ला को पाटण में आपका स्वर्ग: वास हुउआ था । आप न्याय, सिद्धान्त और साहित्य के उद्भट विद्वान थे। पापकी रचित निम्न कृतियें प्राप्त हैं: १.स्थानांग सूत्र वृत्ति (अप्राप्त, उल्लेख मात्र प्राई) २. नैषध महाका जैनराजी टीका श्लो० सं० ३०० (उत्कृष्टनर पाण्डित्यपूर्ण टीका, प्रति संग्रह में) ३. धन्ना शालिभद्र रास सं० १६७६, (सचित्र प्रति संग्रह में) ४. गुणस्थान विचार पाश्वस्तवन- सं० १६ ५. पार्श्वनाथ गुणबोली स्तव. ॥ १.६ पो०व०८ ६. गज सुकुमाल रास. , १६६४ अहमदाबाद (प्रति,मेरे संग्रह में) ७. प्रश्नोत्तर रत्नमालिका बालावबोध ८. चौवीसी ६. वीसी. १०.शील बतीसी. ११. कर्म बतीसी. .१२. नवतत्त्व स्तवक.. . १३. स्तवन संग्रह. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४ ) महोपाध्याय समयसुन्दर सूरि* १२ बारह वर्ष तक प्रा० जिनराजसूरि के साथ ही रहे। संद १६८६ में कवि का प्रसिद्ध शिष्य, बहुश्रुत, प्रकाण्ड विद्वान् , नव्यन्याय देसा, यशस्वी, वादी हनन्दन के बखेड़े के कारण दोनों आचार्यों में मनोमालिन्य हुमा । फलस्वरूप अलग अलग हो गये। वादी हर्षनन्दन ने जिनसागरसूरि का पक्ष लिया था, क्योंकि उनका वह एक नेता रहा है। अतः कवि को भी प्रमुख प्रा. जिनराजसुरि . साथ छोड़कर, अपने शिष्य के हठाग्रह से पराधीन हो उसके सर व नुसार ही चलना पड़ा। यहीं से खरतरगच्छ की एक 'प्राचार शाखा' का प्रादुर्भाव हुआ। हाय रे वार्धक्य ! तेरे कारण हीर बैसे समदर्शी विद्वान् को भी एक पक्ष स्वीकार करना पड़ा। * शिवसागरसूरि-बीकानेर निवासी बोहिथिरा गोत्रीय शासन राब और मृगादे माता की कुक्षि से सं०१६५२ काकिला रवि अश्विनी नक्षत्र में इनका जन्म हुआ था। जन्म नामावोगा। सं.१६६१ माह सुदि ७ को अमरसर में जिनहिरिने आपको दीक्षा दी। दीक्षा महोत्सव श्रीमाल थानसिंह ने किया था। युगप्रधानजी ने वृहहीक्षा देकर इसका नाम सिद्धसेन रखा था। इनके विद्यागुरु थे उपाध्याय समसुन्दरजी के शिष्य वादी हर्षनन्दान । सं० १६७४ फागुण सुदि ७ को मेड़ता में संघपति आसकरण द्वारा कारित नहोत्सव पूर्वक आप आचार्य बने। जिनराज सूरि के साथ ही आप शत्रुञ्जय खरतर वसही की प्रतिष्ठा केसमय मौजूद थे। १२ वर्ष तक श्राप जिनराजसूरि के साथ ही रहे । किन्तु सं० १६८६ में किंचित् मतभेद एवं वादी हर्षनन्दन के आग्रह के कारण आप पृथक् हुये । तब से आपकी शाखा प्राचार्य शाखा के नाम से प्रसिद्ध हुई । आपने अहमदाबाद में ११ दिन का अनशन कर सं० १७२० ज्येष्ठ कृष्णा३ को स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया था। श्राप बड़े ही मनस्वी और श्रेष्ठ संयमी थे तथा आपकी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर (३४) प्रसिद्धि भी अत्यधिक फैली हुई थी। इसके सम्बन्ध में कवि स्वयं उल्लेख करता है: "बोला थोडुबइठा रहह रे, वाचई सूत्र सिद्धान्त। राति उमा काउसग्ग करइ रे, ध्यान धरई एकांत माथा" [कुसुमाञ्जलि पृ०४१३ ] "श्रीमज्जेसलमेरुदुर्गनगरे श्रीविक्रमे गुजरे, थट्टायां भटनेर-मेदिनीतटे, श्रीमेदपाटे स्फुटम् । श्रीजाबालपुरे च योधनगरे श्रीनागपुर्या पुनः, श्रीमल्लाभपुरे च वीरमपुरे, श्रीसत्यपुर्यामपि ।। मूलत्राणपुरे मरोट्टनगरे देराउरे पुग्गले, श्रीउच्चे किरहोर-सिद्धनगरे धींगोटके संबले। श्रीलाहोरपुरे महाजन-रिणी-श्रीआगराख्ये पुरे, सांगानेरपुरे सुपर्वसरसि श्रीमालपुर्या पुनः ।२। श्रीमत्पत्तननाम्नि राजनगरे श्रीस्तम्भतीर्थे तथा, द्वीपश्रीभृगुकच्छ-वृद्धनगरे सौराष्ट्र के सर्वतः । श्रीवाराणपुरे च राधनपुरे श्रीगुर्जरे मालवे, ............॥३॥ सर्वत्रप्रसरी सरोति सततं सौभाग्यामाबाल्यतः, वैराग्यं विशदा मतिः सुभगता भाग्याधिकत्वं भृशम्। नैपुण्यं च कृतज्ञता सुजनता येषां यशोवादता, सूरिश्रीजिनसागरा विजयिनो भूयासुरेते चिरम् ।४। [ कुसुमाञ्जलि पृ० ४०७] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) महोपाध्याय समयसुन्दर स्वर्गवास ____कवि वृद्धावस्था में शारीरिक क्षीणता के कारण संवत् १६६६ से ही अहमदाबाद में स्थायी निवास कर लेते हैं। वहीं रहते हुए मात्म-साधना और साहित्य-साधना करते हुए संवत् १७०३ चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को इस नश्वर देह को त्याग कर समाधि पूर्वक स्वर्ग की ओर प्रवास कर जाते हैं। इसी का उल्लेख कवि राजसोम अपने "समयसुन्दर” गीत म करता है : "अणसण करि अणगार, संवत् सतरहो सय बीड़ोत्तरे । अहमदाबाद मझार, परलोक पहुंता हो चैव सुदि तेरसै ।" किन्तु यह ज्ञात नहीं होता कि सर्वगच्छ-मान्य कवि के स्वर्गारोहण स्थान पर अहमदाबाद के उपासकों ने स्मारक बनवाया था या नहीं ? सम्भव ही नहीं निश्चित है कि कवि का स्मारक अवश्य बना होगा, किन्तु अब प्राप्त नहीं है। सम्भव है उपेक्षा एवं सारसंभाल के अभाव में नष्ट हो गया हो! यदि कहीं हो भी तो शोध होनी चाहिये। अस्तु, वादी हर्षानन्दन उत्तराध्ययन टीका में उल्लेख करता है कि गडालय (नाल, बीकानेर ) में कवि की पादुका स्थापित है:"श्रीसमयसुन्दराणां गडालये पादुके वन्दे ।" शिष्य परिवार एक प्राचीन पत्र के अनुसार ज्ञात होता है कि कवि के ४२ बयालीस शिष्य थे । कवि के ग्रन्थों की प्रशस्तियों को देखने से कुछ ही शिष्यों और प्रशिष्यों के नामोल्लेख प्राप्त होते हैं । अतः अनुमानतः आपके शिष्य-प्रशिष्यादिकों की संख्या विपुल ही थी। कौन-कौन और किस किस नाम के शिष्य थे? उल्लेख नहीं मिलता । कतिपय ग्रन्थों के आधार पर कवि की परम्परा का कुछ आभास हमें होता है : Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय भावी हवनंदन । सहजविमल मेघविजय हरिराम - हर्षकुराल जयकीर्ति दयाविजय हर्षनिधान राजसोम ज्ञानलाभ समयनिधान हर्षसागरसूरि ज्ञानतिलक पुण्यतिलक 1 बिनयचन्द्रकवि महो. पुण्यचंद्र नयणसी प्रतापसी पुण्यविलास मुरारि वा० पुण्यशील मानचंद्र भीमजी सारंगजी बोधाजी हजारीनंद *सूरदासजी से उदेचंदजी तक की परंपरा आचार्य शाखाभंडार, बीकानेरल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मेस्कोति महिमासमुद्र सुमतिकीर्ति माइदास मेघरन रामचंद विद्याविजय धर्मसिंह कीर्तिकुशल उ० काशीदास वीरपाल कीर्तिनिधान वा ठाकुरसी कीर्तिसागर वा. कीर्तिवर्धन (कुशलो) अमरविमल (आसकरण) भीमजी सूरदासजी कल्याणचन्द्र पालमचन्द भक्तिविलास माइदास जयरन जयवन्त कस्तूरचन्द्र पाणंदचन्द भवानीराम प्रतापसी हंसराज चतुर्भुज । । भगवानदास कपूरचंद धमदास लालचन्द । उदेचन्द | माणकचंद कपूरचन्द हर्षचंद गुलाबचद । | तनसुखजी मनसुख अमरचन्द जीवणजी । दौलतजी चुन्नीलाल। खेमचन्द । भागचन्द रामपाल | - चुन्नीलालजी कपत्रपर पर से दी गई है। चुन्नीलालजी कुछ वर्षों पूर्व विद्यमान थे। पित Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयमुन्दर ( ३ ) कवि की शिष्य परंपरा में अनेकों उद्भट विद्वान मौलिक साहित्य-सर्णन कर सरस्वती के भण्डार को समृद्ध करने वाले हुये हैं जिनमें से कुछ विद्वानों का संक्षिप्त उल्लेख कर देना यहाँ अप्रासंगिक न होगा। ___ १. वादी हर्धनन्दन-कवि के प्रधान शिष्यों में से है । वादीजी गीतार्थ और उद्भट विद्वानों में से हैं । कवि स्वयं इनके सम्बन्ध में बल्लेख करता है: "प्रक्रिया-हेममाष्यादि-पाठकैश्च विशोधिता। हर्णनन्दनवादीन्द्र, चिन्तामणिविशारदः॥१२॥" कल्पलता प्रशस्तिः "सुशिष्यो वाचनाचार्यस्तर्कव्याकरणादिवित् । हर्णनन्दनवादीन्द्रो, मम साहाय्यदायकः ।" [समाचारी शतक प्रशस्तिः] इसी प्रकार की योग्यता का अङ्कन कवि ने कतिपय पद्यों द्वारा 'गुरुःखित वचनम् में भी किया है । वादी ने कवि कृत कल्पलता, समाचारी शतक, सप्तस्मरण टीका, एवं द्रौपदी चतुष्पदी के संशोधन एक रचना में सहायता दी थी। कवि ने हर्णनन्दन के लिये ही 'मंगलवाद' की रचना की थी। ___ वादी प्रणीत निम्नलिखित ग्रन्थ प्राप्त है: मान में पो० सेवली. (निजामस्टेट ) में विद्यमान हैं। और " यतिबर्य उ० श्री नेमिचन्द्रजी (बाड़मेर ) के कथनानुसार ". .. समयसुन्दरजी की शाखा में अखेचन्दजी, हीराचन्दजी झाल में थे और माणकजी, बच्छराजजी, सुगनजी, भवानीदास, रूपजी, अमरचन्दजी, हेमराजजी, दौलतजी आदि कईयों को हममे देखा है। किन्तु ये किनकी शाखा में थे, ज्ञात नहीं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) महोपाध्याय समयसुन्दर (१) शत्रुञ्जय चौत्य परिपाटी स्तव र० सं० १६७१ (२) मध्याह्न व्याख्यान पद्धति र० सं० १६७३ अक्षयतृतीया, पाटण [त्रिकशब्दाप्तषडेकाब्दे ] प्र० ६००१, (३) गौडीस्तव र० सं० १६८३ (४) ऋषिमण्डल वृत्ति. र० सं० १७०४ वसंतपंचमी, बीकानेर, कर्णसिंह राज्ये, शिष्य दयाविजय पठनार्थ, (५) स्थानाङ्ग वृत्तिगत गाथा वृत्ति र० सं० १७०५ माघ, अहमदाबाद प्र० ११०००, सुमतिकल्लोल सह. (६) उत्तराध्ययन सूत्र वृत्ति २० सं० १७११ अक्षयतृतीया, अहमदावाद, ग्र. १८२६३. प्रथमादर्श लेखक शिष्य दयाविजय. (७) आदिनाथ व्याख्यान. (८) पाव-नेमि चरित्र. (१) ऋषिमण्डल बालाबोध. (१०) आचार दिनकर लेखन प्रशस्ति. (११) उद्यम कर्म संवाद (प्रति, तेरापंथी संग्रह, सरदार शहर) (१२) जिनसिंहसूरि गीत आदि. वादी की मध्याह्न व्याख्यान पद्धति, ऋषि मण्डल टीका, स्थानांग वृत्ति गत गाथा वृत्ति और उत्तराध्ययन सूत्र वृत्ति ये चारों ही ग्रन्थ बड़े ही महत्व के हैं। ... मध्याह्न व्याख्यान पद्धति अर्थात् शास्त्रीय परिपाटी के अनुसार प्रातः भागमों का वाचन होता ही है। मध्याह्न में जनता को मनोरंजन के साथ उपदेश प्राप्त हो सके-इसी लक्ष्य से इसका प्रणयन किया गया है। वादी इस ग्रन्थ के प्रति गर्वोक्ति के साथ कहता है कि प्रतिभाशाली हो या अल्पज्ञ, सुस्वर हो या दुःस्वर, गीतार्थ हो या भगीतार्थ, पुरुषार्थी हो या प्रमादी, संकोचशील हो या धृष्ट Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर ( ४१ ) हो, सौभाग्यशाली हो या दुर्भागी; वक्ता सभा के समक्ष इन प्रबन्धों को निश्चित होकर वांचन करे: सुमेधाऽल्पमेधा वा, सुस्वरो दुःस्वरोऽपि वा। अगीतार्थः सुगीतार्थः, उद्यमी अलसोऽपि वा ॥१४॥ लज्जालुष्टचित्तो वा, सुभगो दुर्भगोऽपि वा। सभाप्रबन्ध सर्वोऽपि, निधिन्तो वाचयत्विदम् ॥१॥ यह ग्रन्थ १८ विभाग-अध्यायों में विस्तार के साथ लिखा गया है। ऋषिमण्डल टीका, ४ विभागों में विभाजित है। यह टीका अत्यन्त ही विस्तार के साथ लिखी गई है। इसमें दृष्टान्तों की भरमार है जिसका अनुमान निम्नतालिका से हो जायगा । उदाहरणों की विपुलता को देखते हुये हम इसे टीका की अपेक्षा एक बृहत्कथा कोष कह दें तो कोई अत्युक्ति न होगी। कथानकों की तालिका इस प्रकार है: प्रथम विभाग:१. भरत २. बाहुबलि ३. सूर्यायशा ४. महायश ५. अतिबल ६. बलभद्र ७. बलवीर्य ८. जलवीर्य १. कार्तवीर्य १०. दण्डवीर्य ११. सिद्धिदण्डिका १२. सगर चक्रवर्ती १३. मघवा चक्रवर्ती १४. सनत्कुमार चक्र०१५. शान्ति , १६. कुन्थु , १७. अर , १८. श्री पद्म , १६ हरिषेण , २०. जय , २१. महाबल, २२. अचल बलदेव २३. विजय बलदेव २४. बलभद्र बलदेव २५ सुप्रभ , २६. सुदर्शन , २७. आनन्द , २८. नन्दन , २६ रामचन्द्र , ३०. बलदेव , Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) १. मल्लि षमित्र ३. स्कन्दकशिष्य ५. सुकोशल अक्षोभ्य ६. सागर दशाई 9. ११. अचल १३. अभिचन्द्र १५. जालिमयालि उवयालि १७. हृदनेमि - सत्यनेमि १६. गजसुकुमाल २१. थावच्चासुत २३. शैलक पुत्र मण्डक महोपाध्याय समयसुन्दर द्वितीय विभाग: "" २५. नवम नारद २७. पुत्र प्रत्येक बुद्ध २६. अंग प्रत्येक बुद्ध ३१. कुब्जवार ३३. केशिकुमार ३५ काला शर्वेसिक ३७. पुण्डरीक-कंडरीक ३६ करकण्डू ४१. नमि राजर्षि ४३. प्रसन्नचन्द राजर्षि ४५. अतिमुक्तक Jain Educationa International ४७, द्वय श्रमण भद्र ४६. सुप्रविष्ठ श्रेष्ठ २. विष्णुकुमार ४. कार्तिक शेठ ६. अक्षोभ्यादिक ८. स्तमित दशाई १०. हिमवद् दशाह १२. धरण पूर १४. रथनेमि १६. पुरुषसेन, वारिषेण १८. प्रद्युम्न - शंब अनिरुद्ध २०. ढंढ २२. शुकपरिव्राजक शैलक राज २४. सारण मुनि २६. वज्र प्रत्येक बुद्ध २८. असित बुद्ध ३०. दवदंत राजर्षि ३२. पाण्डव ३४. कालिक पुत्र ३६. कालः शर्वेसिकपुत्र ३८. ऋषभदत्त देवानंदा ४०. द्विमुख ४२. नग्गइ राजर्षि ४४. वल्कलचीरी ४६. क्षुल्लककुमार ४८. लोहार्य For Personal and Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर ( ४३ ) चतुर्थ विभाग: १. जम्बूस्वामी २. कुबेरदत्त ३. महेशदत्त ४. कोकः काक ५. वानर-वानरी ६. अंगारक ७. नूपुरपण्डित-शृङ्गाल ६. विद्युन्मालि १०. शंखधामक ११. शिलाजपुत्र वानर १२. सिद्धिबुद्धि १३. जात्यधिकिशोर १४. ग्रामकूट श्रुत १५. सोल्लक १६. मासाहस १७. त्रिमित्र १८. नामश्री १६. ललितांग २०. शयंभवसूरि २१. यशोभद्रसूरि २२. संभूतिविजय २३. भद्रबाहु २४. स्थूलिभद्र २५. चाणक्य-चन्द्रगुप्त २६. भद्रबाहु के ४ शिष्य २७. आर्य महागिरि २८. आर्य सुहस्ति २६. आये समुद्र ३०. आर्य मंगुल ३१, अयवंती सुकुमाल ३२. कालिकाचार्य ३३. कालिक गणि ३४. सिंहगिरि ३५. सिंहगिरि के ४ शिष्य ३६. ............ ३७. भद्रगुप ३८. समिताचार्य . ३६. वनस्वामी ४०. वज्रसेन ४१. आर्य रक्षित ४२. दुर्बलिका पुष्यमित्र ४३. स्कन्दिलाचार्य ४४. देवधि क्षमाश्रमण ४५. ब्राह्मी-सुन्दरी ४६. राजीमती ४७. चन्दनबाला ४८. धर्मघोष, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) महोपाध्याय समयसुन्दर तृतीय विमाग सम्मुख न होने के कारण हम नहीं कह सकते कि इसमें कौन-कौन सी और कितनी कथायें हैं। इन कथाओं के लिये भी बादी का कथन है कि 'ये कथायें विकथायें नहीं हैं; अपितु जिन महापुरुषों के नाम स्मरण से ही चिर सश्चित पापों का नाश होता है, वैसी ही सार-गर्भित कथायें हैं : चिरपापप्रणाशिन्यः, प्राज्ञनिर्ग्रन्थसत्कथा । विकथा वर्जितो वाचा, कथयामि निरन्तरम् ।४। स्थानांगवृत्तिगत गायावृत्ति, युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि के विद्वान शिष्य वाचनाचार्य सुमतिकल्लोल और वादी इस युग्म ने, आचार्य अभयदेव द्वारा स्थानांग सूत्र की टीका में 'कर्मग्रन्थादि प्रकीर्ण साहित्य, नियुक्ति एवं भाष्य साहित्य, देवेन्द्रस्तव, विशेषणवती, षट् त्रिंशिकायें, सप्ततिकायें, संग्रहणी आदि, पंचाशक, सिद्धप्राभृत, सन्मतितर्क, आदि शास्त्र और ज्योतिष, संगीत, शिक्षा, प्राकृत, कोष, एवं सूक्तियें आदि सम्बन्धित विषयों के जो उद्धरण हजार के ऊपर दिये हैं; वे अत्यन्त क्लिष्ट हैं, अतः उन पर विशिष्ट प्रकाश डालते हुये विपुल परिमाण में यह टीका र ची है : कर्मग्रन्थबहुप्रकीर्णकवृहनियक्तिभाष्योत्तराः । देवेन्द्रस्तवसद्विशेषणवती प्रज्ञप्तिकल्पा श्रेयो (?)। अङ्गोपाङ्गकमूलसूत्रमिलिताः षट्त्रिंशिका-सप्ततिः, श्लिष्यत् संग्रहणीसमप्रकरणाः पञ्चाशिका संस्थिताः।। सिद्धप्राभृतसम्मतीप्टकरणे ज्योतिक-सङ्गीतकशिक्षा-प्राकृत-कोष-सूक्तललिता गाथाः सहस्रात्पराः। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर ( ४५ ) सूत्रालापकमुद्रितार्थविवृतौ तत्साक्षिभूता धृताः, प्रायस्ताः कठिनास्तदर्थविवृतौ टीका विना दुर्घटाः ।। उत्तराध्ययन टीका भी साहित्यिक दृष्टि से काफी महत्व रखती है। इसकी प्रशस्ति में वादी स्वयं अपने को नव्यन्याय और महाभाष्य का विशारद कहता है: तच्छिष्यमुख्यदक्षण, हर्षनन्दन वादिना । चिन्तामणि-महाभाष्य-शास्त्रपारप्रश्वना ।१ इन चारों ही कृतियों की भाषा अत्यन्त प्रौढ एवं प्राञ्जल होते हुये भी सरल-सरस प्रवाह युक्त है। वादी की लेखिनी में समस्कार यह है कि पाठक स्वतः ही आकृष्ट होकर मननशील हो जाता है। (क) वादी हळुनन्दन के शिष्य वाचक जयकीर्ति गणि जैन साहित्य के साथ-साथ ज्योतिष शास्त्र के भी अच्छे निष्णात थे। कवि 'दीक्षा प्रतिष्ठा शुद्धि' में स्वयं कहता है कि 'यह ज्योतिष शास्त्र का विद्वान है और इसकी सहायता से इस ग्रन्थ की मैंने रचना की है:"ज्योतिःशास्त्र विचक्षण-वाचक-जयकीर्ति-दत्तसाहाय्यैः" इनकी प्रणीत निम्न रचनायें प्राप्त हैं (१) पृथ्वीराज वेलि बालावबोध. सं० १६८६ बीकानेर. (२) षडावश्यक बालावबोध, सं० १६६३ (३) जिनराजसूरि रास. (ख) वादी हर्षनन्दन के द्वितीय शिष्य दयाविजय भी अच्छे विद्वान थे। इन्हीं के पठनार्थ वादीजी ने ऋषिमण्डल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) महोपाध्याय समयसुन्दर टीका और उत्तराध्ययन टीका की रचना की है। उत्तराध्ययन टीका का प्रथमादर्श भी इन्हीं ने लिखा था। "दयाविजयशिष्यस्य, वाचनाय विरच्यते।" [ऋ० टी०] "प्रथमादर्शकोऽलेखि, दयाविजय साधुना।" [उ० टी०] (ग) वाचक जयकीर्ति के शिष्य राजसोम प्रणीत दो ग्रन्थ प्राप्त हैं:(१) श्रावकाराधना भाषा. सं० १७१५ जे० सु० नोखा (२) इरियावही मिथ्यादुष्कृत वालावबोध (घ) वाचक जयकीति के पौत्र शिष्य समयनिधान द्वारा सं० १७३१ अकबराबाद में रचित सुसढ चतुष्पदी प्राप्त है। २. सहजविमल और मेघविजय के पठनार्थ कवि ने रघुवंश टीका, नव तत्त्व टीका और जयतिहुअण स्त्रोत्र टीका की रचना की थी। (क) सहजविमल के शिष्य हरिराम के निमित्त कवि ने रघुवंश टोका और वाग्भटालंकार टीका की रचना की है और इसे अपना पौत्र “पाठयता पौत्र हरिराम" [रघु० टी०] बताया है। निश्चिततया नहीं कहा जा सकता कि हरिराम किसका शिष्य था, सहजविमल का या मेषविजय का? और यह भी नहीं कहा जा सकता कि हरिराम यह नाम इसका पूर्वावस्था का था या दीक्षितावस्था का? अथवा दीक्षितावस्था का नाम हर्षकुशल था ? यहां इनका नाम सहजविमल के शिष्य रूप में अनुमानतः ही लिखा गया है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर ( ४७ ) ३. मेघविजय कविका प्रिय शिष्य है। स्वयं कवि ने सं० १६८७ में 'विशेष शतक' की प्रति लिखकर इसको दी थी । कवि इस पर प्रसन्न भी अत्यधिक था। इसने दुष्काल जैसे समय में भी कवि का साथ नहीं छोड़ा था । यही कारण है कि कवि इसकी प्रशंसा करता हुआ लिखता है:“मुनि मेघविजयशिष्यो, गुरुभक्तो नित्यपार्श्ववर्ती च । तस्मै पाठनपूर्व, दत्ता प्रतिरेषा पठतु मुदा || ६ || [ विशेषशतक लेखन प्रशस्तिः ] (क) मेघविजय के शिष्य हर्षकुशल अच्छे विद्वान् थे । जैसे कवि को 'गुरुभक्त' मेघविजय अत्यन्त प्रिय थे, तो वैसे उनसे भी अत्यधिक पौत्र हर्षकुशल कवि को प्रिय थे। ऐसा मालूम होता है कि वृद्धावस्था में कवि ( दादागुरु ) की इसने प्राण-पण से सेवा की होगी । यही कारण है कि कवि वृद्धावस्था में भी स्वयं अपने जर्जर हाथों से लिखित माथकाव्य तृतीय सर्ग टीका, रूपकमाला अवचूरि आदि पचासों महत्त्व के ग्रन्थ इसको देता है; जैसा कि कवि लिखित ग्रन्थों की प्रशस्तियों जाना जाता है । इसने 'द्रौपदी चतुष्पदी' की रचना में भी कवि को पूर्ण सहायता दी थी: - वाचक हर्णनन्दन वलि, हर्णकुशलइ सानिधि कीजह रे । लिखन शोधन सहाय थकी, तिण तुरत पूरी करो दीधी रे | ६ | [ द्रौ० चौ० तृ० सं० ७ वीं डाल] इनकी स्वतंत्र रचना केवल 'वीसी' ही प्राप्त है 1 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर (ख) हर्षकुशल के पौत्र प्राचार्य हर्णसागर द्वारा सं० १७२६ कार्तिक कृष्णा नवमी को लिखित पुण्यसार चतुष्पदी (सेठिया लायब्रेरी, बीकानेर) प्राप्त है । (ग) हर्षकुशल के द्वितीय पौत्र ज्ञान तिलक रचित ३-४ स्तोत्र और स्वयं लिखित फुटकर संग्रह का एक गुटका (मेरे संग्रह में ) प्राप्त है और ज्ञान तिलक के शिष्य विनयचन्द्र गणि अच्छे कवि थे। इनकी प्रणीत निम्नलिखित कृतियाँ प्राप्त हैं: (१) उत्तमकुमार चरित्र, र० सं० १७५२ फा० शु०५ पाटण, (२) वीसी, र० सं० १७५४ राजलगढ़, (३) ग्यारह अंग सेजमाय, र०सं०१७५५, (४) शत्रञ्जय स्तव र० सं० १७५५ पो० शु० १०, १५) मदनरेखा रास (?), (६) चौवीसी, (७) रोहक कथा चौपाई (८) रथनेमि स्वाध्याय, () नेमि राजुल बारहमासा (ब) हर्षकुशल के तृतीय पौत्र पुण्यतिलक प्रणीत 'नरपति जय चर्या यन्त्रकोद्धार टिप्षनक (जिनहरिसागरसूरि भं० लोहावट ) प्राप्त है। इन्हीं पुण्यतिलक के पौत्र वाचक पुण्यशील द्वारा सं० १८१० में लिखित 'महाराजकुमार चरित्र चतुष्पदी' (चुन्नीजी का संग्रह, बीकानेर) प्राप्त है। ४. मेघकीर्ति के शिष्य रामचन्द्र प्रणीत एक वीसी प्राप्त है। भौर सं० १६८२ में लिखित लिंगानुशासन की प्रति भी (उ० जयचन्द्रजी सं० बीकानेर) प्राप्त है। इन्हीं की परम्परा में अमरविमलजी के तृतीय शिष्य पालमचन्दजी एक श्रेष्ठ कवि थे। इनकी निम्न रचनायें प्राप्त हैं: Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयमुन्दर ( ४६ (१) मौन एकादशी चौपाई, र० सं० १८१४ माघ शु०५ रवि० मकसूदावाद (मेरे संग्रह में), (२) सम्यक्त्व कौमुदी, र० सं० १८२२ मि. सु. ४ मकसूदाबाद (मेरे संग्रह में), (३) जीवविचार स्तव, र० सं० १८१५ वै० शु०५ रवि मकसुदावाद, (४) त्रैलोक्य प्रतिमा स्तव, र० सं० १८१७ प्रा० शु० २। इन्हीं अमरविलासजी के पौत्र शिष्य, काचक जयरत्न के शिष्य कस्तूरचन्द्र गणि एक प्रौढ़ विद्वानों में से थे। इनकी रची हुई केवल दो ही कृतियां प्राप्त हैं:(१) षड् दर्शन समुच्चय बालावबोध, सं० १८६४ वै० व०२ शनि, बीकानेर, (इसकी प्रति यति श्री मुकन चन्द्रजी के संग्रह, बीकानेर में प्राप्त है।) (२) ज्ञातासूत्र दीपिका, जिनहेमसूरि राज्ये, सं० १८६, प्रारम्भ जयपुर और समाप्ति इन्दोर, पं० १८००० कृति अत्यन्त विद्वतापूर्ण है। (प्रेस काँपी मेरे संग्रह में) मेधकीर्ति की परम्परा में कीर्तिनिधान के शिष्य कीर्तिसागर लिखित (१) रत्नपरीक्षा ले० सं० १७२२ (चुम्नी जी सं० वी०) और (२) स्याद्वादमंजरी ले० सं० १७२५ मेडता (अभय जैन ग्रन्थालय) प्राप्त हैं। ५. महिमासमुद्र के लिये कवि ने सं० १६६७ उच्चानगर में श्रावकाराधना की रचना की थी। (क) महिमासमुद्र के शिष्य धर्मसिंह द्वारा सं० १७०८ में लिखित थावच्चा चतुष्पदी (अभय जैन ग्रन्थालय) प्राप्त है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर (ख) महिमासमुद्र के पौत्र, श्रीविद्याविजय के शिष्य वीरपाल द्वारा सं० १६६६ में लिखित जिन चन्द्रसूरि निर्वाण रास एवं आलीजा गीत (अभय जैन प्रन्थालय) प्राप्त हैं । साहित्य-सर्जन ( ५० ) 1 कविवर सर्वतोमुखी प्रतिभा के धारक एक उद्भट विद्वान् थे । केवल वे साहित्य की चर्चा करने वाले वाचा के विद्वान् ही नहीं थे, अपितु वे थे प्रकाण्ड - पाण्डित्य के साथ लेखनी के धनी भी । कवि ने व्याकरण, अनेकार्थी साहित्य, साहित्य, लक्षण, छन्द, ज्योतिष, पादपूर्ति साहित्य, चार्चिक, सैद्धान्तिक और भाषात्मक गेय साहित्य की जो मौलिक रचनायें और ठीकायें प्रथित कर सरस्वती के भरडार को समृद्ध कर जो भारतीय वाङ्मय की सेवा की है, वह वस्तुत: अनुपमेय है और वर्तमान साधु-समाज के लिये आदर्शभूत अनुकरणीय भी है । कवि की कृतियाँ निम्न हैं । जिनकी तालिका विषय-विभाजन के अनुसार इस प्रकार है:सारस्वत वृत्ति *, सारस्वत रहस्य, लिंगानुशासन श्रवचूर्णि १, अनिकारिका, व्याकरणः * कवि, स्वयं लिखित सारस्वतीय शब्दरूपावलि में उल्लेख करता है: (-- " सारस्वतस्य रूपाणि, पूर्व वृत्तेरलीलिखत् । स्तम्भतीर्थे मधौ मासे, गणिः समयसुन्दरः ११।" कवि की यह कृति अभी तक अज्ञात ही है। शोध होनी चाहिये । कवि स्वयं लिखित पुल्लिङ्गान्त तक ही चूर्णि है । + प्रति अ० जै० ग्र० में है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर ( ५१ ) सारस्वतीय शब्द रूपावली, वेट्थपद विवेचना। नेकार्थी साहित्य:- अष्टलक्षीर, मेघदूत प्रथम श्लोक के तीन अर्थ, द्वयर्थराग गर्भित पाल्हण,पुर मण्डन चन्द्रप्रभजिन स्तवनम्र, चतुर्विंशति तीर्थाकर-गुरुनाम गर्भित श्री पार्श्वनाथ स्तवनम्३, ६ राग ३६ रागिणी नाम गर्भित श्री जिनचन्द्रसूरि गीतम्४, पूर्व कवि प्रणीत श्लोक द्वयर्थकरण अमीझरा पाश्वा स्तव५, श्री वीतराग स्तव-छन्द जातिमयम्।। साहित्य:- रघुवंश टीकार, शिशुपाल वध तृतीयसर्ग + स्वयं लिखित प्रति अ० जै० प्र० में है। • "सं.१६८४ वर्षे अक्षतृतीयायां श्रीविक्रमनगरे श्रीसमयसुन्दरोपाध्यायैव्यलेखि ।" अजै० ग्र० १ "श्रीविक्रमनृपवर्षात्, समये रसजलधिरागसोम (१६४६) मिते। श्रीमल 'लाभ' पुरेऽस्मिन् , वृत्तिरियं पूर्णतां नीता ॥३२॥" २ “संवत् १६७१ भादवा सुदि १२ कृतम्” (कुसुमाञ्जलि पृ०६६) ३ "सूर्याचाररसेन्दुसंवति नुतिं श्री स्तम्भनस्य प्रभो !' (कुसुमाञ्जलि पृष्ठ १८५) ४ "सोलसइ बावन विजयदसमी दिने सुरगुरु वार । थंभण पास पसायइ चंबावती मझार ॥” (कुसुमाञ्जलि पृ. ३८६) ५ कुसुमांजलि पृ० १६१ ६ "संवत् १६६२ खम्भात" "लोचनग्रहशृङ्गार वर्षे मासे च माधवे। स्तम्भतीर्थेषु रेखारूपावाटकप्रतिश्रये ७। xx पाठयता पौत्र हरिरामम् ।।" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) महोपाध्याय समयसुन्दर टीका। भाषा काव्यपर संस्कृत टीका:-रूपकमाला अवचूरिः । पादपूर्ति-साहित्यः- श्रीजिनसिंहसूरि पदोत्सव काव्य (रघुवंश, तृतीय सर्ग पादपूर्ति ), ऋषभ भक्तामर (भक्तामरस्तोत्र पादपूर्ति)। लक्षण: भावशतक, वाग्भट्टालङ्कार टीका१० । छन्दः वृत्तरत्नाकर वृत्ति न्याया मङ्गलवाद१२ ७ "इत्थं श्रीमाधकाव्यस्य, सर्गे किल तृतीयके। . वृत्तिः सम्पूर्णतां प्राप, कृता समयसुन्दरैः।।" स्वयं लिखित प्रति, सुराणा लायब्ररी, चूरु । ८ "संवति गुणरसदर्शनसोमप्रमिते च विक्रमद्रङ्ग। कार्तिक शुक्ल-दशम्यां विनिर्मिता स्व-पर-शिष्यकृते ।४।" है "शशिसागररसभूतलसंपति विहितं च भावशतकमिदम्" १० "अहमदावादे नगरे, करनिधिशृङ्गारसङ्ख्याब्दे ।। किन्वर्थलापनं चक्र, हरिराममुनेः कृते ।३।” ११ "संवति विधिमुख-निधि-रस-शशि ( १६९४ ) सङ्ख्ये दीप पर्व दिवसे च। 'जालोर' नामनगरे लणेया फसमाप्तिस्थाने ॥२॥" १२ 'कृता लिखिता च संवत् १६५३ वर्षे आषाढ़ सुदि १० दिने श्रीइलादुर्गे चातुर्मासस्थितेन श्री युगप्रधान श्री ५ श्रीजिनचन्द्रसूरिशिष्य मुख्यपण्डितसकलचन्द्रगणिस्तच्छिष्य वा० समयसुन्दरगणिना पं० हर्षनन्दन-मुनि-कृते ।" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर ( ५३ ) ज्योतिषः- दीक्षा प्रतिष्ठा शुद्धि१३ वैधानिक:- समाचारी शतक१५, संदेह दोलावली पर्याय१५ सैद्धान्तिक-चर्चा:- विशेष शतक१६, विचार शतक१७, विशेष संग्रह १८, विसम्बाद शतक, फुटकर प्रश्नोत्तर, प्रश्नोत्तर सार संग्रह ऐतिहासिक:- खरतरगच्छ पट्टावली२०, अनेक गीत स्तवनादि १३ "श्रीलूणकर्ण सरसि, स्मरशर-वसु षडुडुपति वर्षे ॥११॥ ज्योतिःशास्त्रविचक्षण-वाचक-जयकीर्तिदत्त-साहाय्यैः । श्री समयसुन्दरोपाध्यायैः सन्दर्भितो ग्रन्थः ॥२॥" १४ "प्रारब्धं किल सिन्धुदेशविषये श्रीसिद्धपुर्यामिदं, मूलत्राणपुरे किद्विरचितं वर्षत्रयात् प्रागमया। सम्पूर्ण विदधे पुरे सुखकरे श्रीमेडतानामके, श्रीमद्विक्रमसंवति द्वि-मुनि-षट्-मालेयरोचिर्मिते १६७२ ॥३॥" १५ "संवत् १६६३" १६ "विक्रमसंवति लोचनमुनिदर्शन कुमुबान्धवप्रमिते। (१६७२) श्री पार्श्वजन्मदिवसे पुरे श्रीमेडतानगरे ॥२॥" १७ "स्वच्छे 'खरतर' गच्छे विजयिनि जिनसिंहसूरिगुरुराजे। वेदमुनिदर्शनेन्दु (१६७४) प्रमितेऽन्दे 'मेडता' नगरे ॥१॥ १८ "तैः शिष्यादिहितार्थ ग्रन्थोऽयं प्रथितः प्रयत्नेन । नाना विशेषसंग्रह इषुवसुशृङ्गार (१६८५) मितवर्षे ॥३॥ १६ "इति श्रीसमयसुन्दरकृत प्रश्नोत्तरसारसंग्रहसमाप्तः।" प्रति, का०वि० भ० बड़ोदा। यह ग्रन्थ नामस्वरूप प्रश्नोत्तर रूप न होकर स्वयं संगृहीत शास्त्रालापकरूप है।। २० "इमं गुर्वावली ग्रन्थं गणिः समयसुन्दरः। नमो-निधि-रसेन्द्वन्दे स्तम्भतीर्थपुरेऽकरोत् ।११" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर कथा-साहित्यः- कालिकाचार्य कथा२१, कथा-कोष२२, महा वीर २७ भव, द्रोपदी संहरण, देवदुष्यबत्रा पण कथानक। संग्रह-साहित्य- गाथा सहस्री२३, जैनागम एवं प्रकरण कल्पसूत्र टीका२४, दशौकालिक टीका२५, साहित्य-नवतत्त्व शब्दार्थवृत्ति२६, दण्डक वृत्ति२% चत्तारि परमंगाणि व्याख्या२८, अल्प वहुत्वगर्भित स्तव स्वोपज्ञवृत्ति सह, चातुर्मा२१ "श्रीमद्विक्रम संपति, रस-तु-शृङ्गार-संख्यके सहसि । श्रीवीरमपुरनगरे, राउलनृपतेजसी राज्ये ॥१॥" २२ "सं० १६६७ वर्षे श्रीमशेट्टे वा० समयसु दरेण"। २३ "ऋतु-वसु-रस--शशि (१६६८) वर्षे, विनिर्मितो बिजयतां चिरं ग्रन्थः। व्याख्यानपुस्तकेषु, व्याख्याने वाच्यमानोऽसौ ॥६॥" २४: "लूणकर्णसरे ग्रामे प्रारब्धा कर्तुमादरात् । वर्णमध्ये कृता पूर्णा, मया चैषा रिणीपुरेः ।।१७।। (१६८४-८५)" २५ "संवत् १६६१ स्वम्भात" "तच्छिष्य-समयसुन्दरगणिना चक्रे च स्तम्भतीर्थपुरे दशकालिकटीका, शशिनिधिशृङ्गारमित वर्षे ।' २६ "संवत्वसुगजरसशशिमिते च दुर्भिक्ष-कार्तिके मासे । अहमदाबादे नगरे पटेल हाजाभिध प्रोल्यां ॥१॥" २७ "संवतिरसनिधिगुहमुखसोममिते नभसि कृष्णपक्षे च। अमदाबादे हाजा पटेल पोलीस्थ शालायाम् ।।३॥" २८ "नवीन शिष्यम्य पूर्व अकृत व्याख्यानस्य हितकृते। संवत १६८७ फा० शु. ८ दिने श्रीपत्तने ॥" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयमुन्दर ( ५५ ) सिक व्याख्यान२६, श्रावकाराधना२०, यति पाराधना। स्तोत्र-साहित्य:- सप्तस्मरण वृत्ति३२, भक्तामर सुबोधिनी वृत्ति३३, कल्याण मन्दिर वृत्ति३४, जयतिहुअण वृत्ति३५, दुरियर स्तोत्र वृत्ति३६, विमल स्तुति वृत्ति, ऋषिमण्डल स्तोत्र अवचूरि३७। २६ "श्रीमद्विक्रमसंघति, बाणरसभ्रमरचरणशशिसञ्जय । श्रीअमरसरसि नगरे, चैत्रदशम्यां च शुक्लायाम् ।।" ३० उच्चाभिधान नगरे........................ महिमासमुद्र-शिष्यामहेण मुनिषड्रसचन्द्रवर्षे ।" ३१ "संवत् १६८५" ३२ “संवत् १६६५" "सप्तस्मरणटीकेयं निर्मिता न च शोधिता। वृद्धावस्थावशाच्छोध्या, पर श्रीहर्षनन्दनः।६। लूणियाफसला-दत्त-वसत्यां वृत्तिरुत्तमा । श्रीजालोरपुरे वाणनिधिशृङ्गारसंवति ।।" ३३ "पत्तने नगरे सप्तबसुशृङ्गारसंवति" ३४ "श्रीमद्विक्रमतः वरेषु नवषट्वातृके (१६६५) वत्सरे, मासे फाल्गुनिके प्रपूर्णशशिनि प्रह्लादने सत्पुरे ।" ३५ "अणहिलपत्तननगरे, संवति मुन्यऽऽशृङ्गारे १६८६ ॥१॥ मुनि-सहजविमल पण्डित-मेघविजय-शिष्य पठनार्थम् ॥३॥" ३६ “संवत् १६८४ लूणकरणसर" २७ "इति श्रीसंग्रामपुरे सं० १६६२ वर्ष" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) महोपाध्याय समयसुन्दर भाषा टीका:- षडावश्यक बालावबोध३८ । भाषा रास-साहित्यः- शांब प्रद्युम्न चौपाई३६, दानादि चौढालिया, चार प्रत्येक बुद्ध रास४१, मृगावती रास.२, सिंहलसुत प्रिय मेलकरास४३, पुण्यसार३८ "श्रीमज्जेसलमेरुदुर्गनगरे, पूर्व सदा वासितश्चत्वारश्चतुरा अमीकृत चतुर्मास्यां मया पाठिताम् ।२। X X X कल्याणाभिधराउल क्षितिपतौ राज्यश्रियं शासति, श्रीमविक्रमभूपतेस्त्रिवसुषट्न्नौ संख्यके वत्सरे।" ३६ “श्री संघ सुजगीस ए, हीयडइ अ हरख अपार । थंभण पास पसाउलइ, खम्भायत सुखकार ।। सुखकार संवत् सोल एगुणसहिविजय दशमी दिनह । एक बीस ढाल रसाल ए प्रन्थ रच्यउ सुन्दर शुभ मनइ ॥" ४० "सोले सै बासठ समै रे, सांगानेर मझार । पद्मप्रभू सुपासउलै रे, एह थुण्यो अधिकारोरे। धर्म हिये धरो" ४१ "सोलसइ पांसठि समइए, जेठ पूनिम दिन सार, चउथउ खंड प्रउ थयउ ए, आगरा नयर मझार, विमलनाथ सुपसाउलइ ए, सानिधि कुशल सूरिंद, च्यारे खंड पूरा थया ए, पाम्यउ परमानन्द"। ४२ 'सोलसई अड़सठी वरषे, हुई चउपइ घणे हरषे बे, मृगावती चरण कया त्रिहुँ खण्डे, घणे आनन्द घमण्डे बे।।। सहर बड़ा मुलताण विशेषा, कान सुण्या अब देखा बे, सुमतिनाथ श्री पासजिणंद मूलनायक सुखकन्दा बे ।२।" "संवत् सोल बहुत्तरि, मेडता नगर मझारि, प्रिय मेलक तीरथ चौपइ रे, कीधी दान अधिकार ॥२५॥ कचरौ श्रावक कौतकी रे, जेसलमेरि जाणो, चतुरे जोडावी जिणि ए चोपइ रे, मूल आग्रह मूलताण ॥२६॥" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय.समयसुन्दर रास४४, नल दमयन्ती चौपाई.५, सीताराम चौपाई४६, वल्कलचीरी रास४७, शत्र जय रास४८, वस्तुपाल-तेजपाल रास४६, थावचा ४४ "संवत सोल बिहुत्तरइ, भर भादव मास । ए अधिकार पूरउ कह्यो, समयसुन्दर सुख वास ।।" ४५ "तिलकाचारज कही एहनी, टीका सात हजार । दसविकलिक मूल सूत्रनी, महाविदेह क्षेत्र मझार ।। संवत सोल बिहुत्तरे, मास वसंत आणंद । नगर मनोहर मेडतो, जिहां वासुपूज्य जिवंद ॥ ध्वझाय पभाइ समयसुन्दर, कीयो आग्रह नेतसी, घउपइ नल दवदन्ती केरी, चतुर माणस चितवसी। ४६ "त्रिणहजार में सातसे मामने सइ गन्थनुं मानो रे,१६ खरतर गच्छ मांहि दीपता श्री मेडता नगर मझारो रे. २०" (सं० १६७७ आदि) ४७ "जेसलमेरइ जिन प्रासाद जिहाँ घणा रे, सोम वसु सिणगार १६८१ वरस वखाणीये रे" ५ ४८ “भणशाली थिरु अति भलोए, दयानंत दातार, शत्रुञ्जय सङ्घ करावीयो ए, जेसलमेर मझार । 'शत्रु ञ्जय महात्म्य' ग्रन्थ थी ए, रास रच्यो सुखकार, रास भण्यो शत्रु ञ्जय तणो ए, नयर नागोर मझार." २२-२३ ४६ "संवत सोले बयांसीया वरसे, रास कीधो तिमिरीपुर हरणे, वस्तपाल तेजपाल नो रास, भणतां सुणतां परम उल्लास."४० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयमुन्दर चौपाई५०, स्थूलिभद्र रास५१, क्षुल्लक कुमार रास५२, चम्पक श्रेष्ठि चौपाई५३, गौतम पृच्छा चौपाई५४, व्यवहार शुद्धि धनदत्त चौपाई५५, साधु-वन्दना, पुजा ऋषि रास५६, केशी प्रदेशी प्रबन्ध५७, द्रौपदी चौपाई५८ । ५० "संवत सोल एकारणू वरसे, काती वदी तृज हरणे बे. १६ श्री खम्भायत खार वाडइ, चउमास रया सुदिहाडइ बे. २०" ५१ "इन्दु रस संख्याइं एह संवच्छरमान, आदिनाथ थी नेमिजिन तेतमउ वरस प्रधान । ऋतु हेमंत थूलिभद्र दीक्षामास सुचंग, पंचमी बुधवारइं रचीउ रास सुरङ्ग ॥" ५२ "संवत् १६६४ जालौर" ५३ "संवत सोल पंचाणुयइ मई, जालोर मई जोड़ी रे। चंपक सेठनि चउपइ अङ्गि, बालस नइ उघ छोड़ी रे,के-१५ "पाल्हणपुर थी पांचे कोसे, उत्तरदिशि चान्द्रेठ गामो रे। तिहाँ खरतर श्रावक वसइ, साह नींबउ जसवंत नामोरे। पु०५ तेह नइ आग्रह तिहाँ रह्या, दिन पनरहसीम त्रिठाणुरे तिहाँ कीधी ए चउपई, संवत सोल पंचाणु रे । पु०६॥" "संवत सोल छर्नु समइ ए, आसू मास मझारि। अमदावादह ए कहइ ए, धनदत्त नउ अधिकार ।" "संवत सोल अठाणुबइ, भाषण पंचमी अजुवाल इरे। रास भण्यो रलियामणो, श्री समयसुन्दर गुण गाइ ॥३०॥" "सं० १६६६ वर्षे चैत्र सुदि २ दिने कृतो लिखितश्च श्री अहमदावादनगरे श्रीहाजापटेलपोलमध्यवर्ती श्रीबृहत्खरतरो. पाश्रये भट्टारक-श्रीजिनसागरसूरि-विजयिराज्ये श्रीसमयसुन्दरोपाध्यागः, पं० हर्षकुशलगणि सहाय्यैः।" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर ( ५६ ) चौबीसी-बीसी:- चौवीसी५६, ऐरषतक्षेत्रस्थ चौवीसी६०, विहर मानवीसी६१ । बत्तीसी-साहित्य:- सत्यासीया दुष्काल वर्णन छचीसी, प्रस्ताव सवैया छत्तीसी६२, क्षमा छत्तीसी६३, ५८ “द्रुपदीनी ए चउपह, मह वृद्ध पणइ परिण कीधी रे । शिष्य तणइ आग्रह करी, मई लाभ ऊपरि मति दीधी रे ।२। अमदाबाद नगर मांहे, संवत सतरसइ वरषे रे । माह मास थइ चउपई, हुसी माणस ने हरषे रे । p०५ । वाचक हरषनन्दन वली, हरषकुशल इंसानिधि कीधइ रे। लिखण सोमण सहाय थकी, तिण तुरत पूरी करि दीधी रे।दू.६। ५६ “वसु इन्द्री रे रस रजनीकर संवच्छरें रे, (१६५६) हारे अमदावाद मझार । विजयादशमी दिने रे गुण गाया रे, तीर्थकरना शुभ मने रे । ती०२।" ६० "संवत् सोल सताणुया वरसे, जिनसागर सुपसाया । हाथी साह तणइ आग्रह कहइ, समयसुन्दर उवझाय रे । ऐ० २।" "संवत सोलह सत्राणु, माइ वहि नवमी वखाणु। अहमदावाद मझारि, श्रीखरतरगच्छ सार । वी०५।" ६२ संवत सोलनेउया वाणे, श्री खंभाइत नयर मझारि; कीया सवाया ख्याल विनोदई, मुख मंडण श्रवणे सुखकारि । ६३ नगर मांहि नागोर नगीनउ, जिहां जिनवर प्रासादजी। श्रावक लोग वसइ अति सुखिया, धर्म तणइ परसाद जी। प्रा० । ३४ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६० ) फुटकर साहित्य: महोपाध्याय समयसुन्दर कर्मछत्तीस६४, पुण्य छत्तीसी६५, सन्तोष छत्तीसी६६, आलोयणा छत्तीसी६७ । स्तोत्र, स्तव, स्वाध्याय, गीत, बेलि, भास आदि । सैद्धान्तिक - ज्ञान कवि के रचित विशेषशतक, विसंवादशतक और विशेष संग्रह आदि का आलोडन करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि कवि ने अपने अनुपमेय श्रागमिक ज्ञान का निचोड़ इन ग्रन्थों में रखकर जो जैन - साहित्य की अनिर्वचनीय सेवा की है वह सचमुच में पीढ़ियों तक चिरस्मरणीय रहेगी। क्योंकि, श्रागमसाहित्य में जो स्थल-स्थल पर पूर्वापरविरोधिनी और तर्कविरोधी वक्तव्यों का उल्लेख है, जिससे आगम साहित्य; पर एक बहुत बड़ा धब्बा सा लगता है उन लगभग ३५० विरोधी वक्तव्यों का आगमिक-प्रमाणों द्वारा समाधान करते हुये जिस प्रकार सामञ्जस्य स्थापित किया है; वह हर एक के लिये साध्य नहीं । इस प्रकार का सामञ्जस्य बहुश्रुतज्ञ और प्रवर गीतार्थ ही कर सकता है । वही कार्य कवि ने करके अपनी 'महोपाध्याय ' ६४ सकलचन्द सद्गुरु सुपसाये, सोलह सइ अड़सहजी । करम छत्तीसीए मई कीधी, माहतणी सुदी छट्टुजी | क० |३५| ६५ संवत निधि दरसण रस ससिहर, सिधपुर नयर मझारजी । शांतिनाथ सुप्रसादे कीधी, पुण्य छत्तीसी सारजी || १० ||३५|| ६६ संवत सोल चउरासी वरसइ, सर मांहे रह्या चउमास जी । अस सोभाग थय जग मांहे, सहु दीधी साबासजी । सा०|३६| ६७ संवत सोल अट्टाए, अहमदपुर मांहि । सयमसुन्दर कहइ मई करी, आलोयण उच्छाहि || पा० || ३६ || Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर और ज्ञान-वृद्ध-गीतार्थ की योग्यता समाज के सन्मुख रखकर आगम-साहित्य की प्रामाणिकता और विशदता की रक्षा की है। कवि का आगमिक ज्ञान अगाध था; जिसकी विशदता का प्रास्वादन करने के लिये हमें उपर्युक्त ग्रन्थों का अवलोकन करना चाहिये । कषि के जैन-साहित्य-ज्ञान की परिधि का अनुमान करने के लिये गाथा सहस्री, विशेषशतक और समाचारी शतक में उद्धृत ग्रन्थों की अधोलिखित तालिका से उसकी विपुल ज्ञान राशि का और अद्भुत स्मरण शक्ति का 'स्केच' हमारे सामने आ जायगा। आगम- आचारांग सूत्र नियुक्ति-चूर्णि- का सह, सूत्र कृतांग नियुक्ति-चूर्णि-टीका सह, अभयदेवीया टीका सह स्थानांग सूत्र. कलिकाल सर्वज्ञ के गुरु देवचन्द्रसूरि कृत स्थानांग टीका सह ( देखिये, स० श० पृ. ४३], समवायांग टीका सह, भगवती सूत्र लघु एवं बृहट्टीका सह, ज्ञाताधर्मकथा-उपासकदशाप्रश्नव्याकरण - विपाकसूत्र-औपपातिक सूत्र-राजप्रश्नीय-प्रज्ञापना-जीवाभिगम-जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति टीका सह, सूर्यप्रज्ञप्ति नियुक्ति-टीका सह, चन्द्रप्रज्ञप्तिनिरयावलिका टीका सह, ज्योतिषकरण्डक प्रकीर्ण टीका सह, गच्छाचार प्रकीर्ण, भक्त प्रकीर्ण, संस्ता. रक प्रकीर्ण, मरण समाधि प्रकीर्ण, तीर्थोद्गालिक प्रकीर्ण, तीर्थोद्धार प्रकीर्ण*, विवाह चूलिका । बृहत्कल्पसूत्र भाष्य-टीका सह, व्यवहार सूत्र भाष्य टीका सह, निशीथ भाष्य चूर्णि सह, महा* देखिये, स० श० पृ० ५३. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) महोपाध्याय समयसुन्दर निशीथ चूर्णि१ सह, जीतकल्प, यतिजीतकल्पसूत्र बृहवृत्ति सहर , विशेषकल्पचूर्णि३ , दशाश्रुतस्कन्ध चूर्णि-टीका सह, ओघनियुक्ति भाष्य-टीका सह, वीरर्षिकृता पिण्डनियुक्ति लघु टीका, अनुयोगद्वार सूत्र चूर्णि टीका सह, नन्दीसूत्र टीका सह, प्रवचन सारोद्धार टोका सह, दसवैकालिक नियुक्ति-टीका सह, उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णि, लघु वृत्ति, शान्त्याचार्य कृत बृहट्टीका, कमलसंयमोपाध्याय कृत सर्वार्थसिद्धि दीका सह, कल्पसूत्र, जिनप्रभीय संदेहविषौषधि टीका, पृथ्वीचन्द्रसूरि कृत कल्परिप्पनक, विनयचन्द्रसूरि कृत कल्पनिरुक्त, कुलमण्डनसूरि कृत कल्पसूत्र अव. चूरि और टिप्पनक, हेमहंससूरि कृत कल्पान्तवाच्य, आवश्यक सूत्र-चूर्णि, नियुक्ति, भाष्य सह, देवर्धिगणि कृत आवश्यक चूरिण५ , हारिभद्रीय बृहट्टीका, मलयगिरि कृता लघु टीका, तिलकाचार्य कृता लघु टीका, यशोदेवसूरि कृता पाक्षिक प्रतिक्रमण टीका, पहावश्यक-नमि साधु और देवेन्द्रसूरि कृत टीका, तरुणप्रभसूरि-मुनिसुन्दरसूरि-उ० मेरुसुन्दर और हेमन्त गणि कृत बालावबोध, जयचन्द्रसूरि कृत १. स० श० पृ०४७ २. स. श० पृ० ३३ ३. स० श० पृ. १२५ ४. स० श.पृ० ५७ ५. स.श० पृ०८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयमुन्दर (६३ ) प्रतिक्रमण हेतु, श्राद्धविधि प्रकरण सभाष्य, हरिभद्रसूरि कृत श्रावक प्रज्ञप्ति टीका सह, विजयसिंहसूरि कृत श्रावक प्रतिक्रमण चूर्णि, महाकवि धनपाल कृत श्रावकविधि , जिनवल्लभसूरि कृत श्राद्धकुलक, जिनेश्वरसूरि कृत श्रावधर्मप्रकरण, देवेन्द्रसूरिकृत श्राद्धदिन कृत्य टीका, रत्नशेखरसूरि कृत श्राद्धविधि कौमुदी, तपा कृत प्रतिक्रमण वृत्ती, समाचारी- परमानन्द - अजितसूरि-इन्द्राचार्य-तिलकाचार्य- श्री चन्द्राचार्य कृत योगविधि, श्रीदेवाचार्य कृत यतिदिनचर्या टीकासह, जिनवल्लभसूरि-जिनदत्तसूरिजिनपतिसूरि - तिलकाचार्य-देवसुन्धरसूरि-सोमसुन्दरसूरि और बृहद्गच्छीय सामाचारी, जिनप्रभ सूरि कृत विधिप्रपा। ऐतिहासिक-आमदेवसूरि और चन्द्रप्रभसूरि कृत प्रभावक चरित, कुमारपाल चरियं, भावहडा कृत गुरुपर्वप्रभावक, छापरिया पूनमीया गच्छीय-साधु पूनमीया गच्छीयतपागच्छीय-तपा लघुशाखीय पट्टावली, विजयचन्द्र सूरि कृत तपागच्छीय प्रबन्ध । प्रकरण- उपदेशमाला, उपदेश कर्णिका, उपदेशमाला विवरण, उपदेशचिन्तामणि, मलयगिरि कृत बृहत्क्षेत्रसमास और बृहत्संग्रहणी प्रकरण टीका, धनेश्वरसूरि कृत सूक्ष्मार्थविचारसार प्र० टीका, देवेन्द्रसूरि कृत षडशीति प्रकरण, कम्भपयडी, पञ्चवस्तुक टीका सह, यशोदेवसूरि कृत पश्चाशक चूर्णि, पश्चाशक टीका सह, पुष्पमाला टीका सह, सिद्धप्राभृत टीका, मुनि चन्द्रसूरि कृत धर्मविन्दु प्र० टीका, उ० धर्मकीर्ति कृत ६. गा.पृ०६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) महोपाध्याय समयसुन्दर सवाचार भाष्य, निच्छय गाथा वृत्ति, रत्नसञ्चयर, यशोदेवसूरि एवं देवगुप्तसूरि कृत नवपद प्रकरण वृत्ति, हरिभद्रसूरि कृत ज्ञानपश्चक विवरण, पञ्चलिङ्गी प्रकरण टीका सह, निर्वाण कलिका, विचारसार, कुलमंडनसूरि कृत विचारामृतसंग्रह, उमास्वाति कृत पूजा प्रकरण, आचारवल्लभ और प्रतिष्ठा कल्प, पादलिप्ताचार्य कृत प्रतिष्ठा कल्प, जिनप्रभसूरि कृत गृहपूजाविधि, जिनवल्लभसूरि कृत पौषधविधि प्रकरण, पिण्डविशुद्धि बृहट्टीका, जिनदत्तसूरि कृत उपदेश रसायन, चर्चरी, उत्सूत्रपदोद्घाटनकुलक, जिनपतिसूरि कृत प्रबोधोदय वादस्थल और सङ्घपटक टीका, देवेन्द्रसूरि कृत धर्मरत्न प्रकरण टीका, हेमचन्द्राचार्य कृत योगशास्त्र स्वोपज्ञ वृत्ति, योगशास्त्र अवचूरि और सोमसुन्दरसूरि कृत बालावबोध, नवतत्त्व बृहदालावबोध, उपदेश सत्तरी, चैत्यवन्दन भाष्य, प्रत्याख्यान भाष्य, प्रत्याख्यान भाष्य नागपुरीय तपागच्छका३, अभयदेवसूरि कृत वन्दनक भाष्य, जीवानुशासन टीका, पीपलिया उदयरत्न कृत जीवानुशासन, चैत्यवन्दनकुलक टीका, आचारप्रदीप, उ० जिनपाल कृत संदेह दोलावृली बृहवृत्ति (?), और द्वादशकुलक टीका, संबोधप्रकरण, कायस्थिति सूत्र, संघतिलकसूरि कृत सम्यक्त्व सप्तति वृत्ति, देवेन्द्रसूरि कृत प्रश्नोत्तर रत्नमाला टीका, मुनिचन्द्रसूरि कृत उपदेश (पद) वृत्ति, सोमधर्मकृत उपदेशसप्ततिका, Vमुनिसुन्दरसूरि कृत उपदेश तरङ्गिणी, उ० श्रीतिलक कृत गौतमपृच्छा प्र० टीका, वनस्पति सप्ततिका, १ गा. पृ० ३४। २ गा० पृ० ३५। ३ स० श० पृ० १२७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर (६५ ) दर्शन सप्ततिका, आराधना पताका, नमस्कार पञ्जिका, भावना कुलक, मानदेवसूरि कृत कुलकर, उ• मेरुसुन्दर कृत प्रश्नोत्तर ग्रन्थ, हीरप्रश्न । जिनवल्लभसूरि कृत नन्दीश्वर स्तोत्र टीका सह, हेमचन्द्रसूरि कृत महादेवस्तोत्र और वीतराग स्तोत्र प्रभाचन्द्रसूरि कृत टीका सह, जिनप्रभसूरि कृत सिद्धान्त स्तब, देवेन्द्रसूरि कृत समवसरण स्तोत्र, ऋषि मण्डल स्तव, देवेन्द्रस्तव । चरित्र- संघदासगणि कृत वसुदेवहिण्डी, पउम चरियं, जिने. श्वरसूरि कृत कथाकोष प्रकरण, देवभद्राचार्य कृत पार्श्वनाथ चरित और महावीर चरित, वर्धमानसूरि कृत कथाकोषर और आदिनाथ चरित, हेमचन्द्राचार्य कृत, आदिनाथ-नेमिनाथ-महावीर चरित, शान्तिनाथ चरित, चित्रावलीय देवेन्द्रसूरि कृत सुदर्शन कथा, देवधर प्रबन्ध३. जयतिलकसूरि कृत सुलसा चरित महाकाव्य, पद्मप्रभसूरि कृत मुनिसुव्रत चरित, अभयदेवसूरि कृत जयन्तविजय काव्य, भावदेवसूरि एवं धर्मप्रभसूरि कृत कालिकाचार्य कथा, पूर्णभद्रगणि कृत कृतपुण्यक चरित, सिंहासन द्वात्रिंशिका। लेख- आबू वस्तुपाल मंदिर-देवकुलिका प्रशस्ति४, ऊनानगर प्रतिमालेख५, बीजापुर शिलालेख६ । इन उल्लेखनीय ग्रन्थों में छोटे-मोटे प्रचलित प्रकरणों आदि का समावेश नहीं किया गया है। साथ ही इस सूची में आगत भी देवचन्द्रसूरि कृत स्थानाङ्ग टीका, तीर्थोद्धार प्रकीर्ण, महानिशीथ १ स० श० पृ०६७, ७१। २ स० श.पृ० ४। ३ स० श.पृ.७। ४-५-६ स० श० पृ. २४ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर चूर्णि, यतिजीत कल्पपूत्र बृहद्वृत्ति, विशेष कल्पचूर्णि, देवधिकृता आवश्यक चूर्णि, श्राद्धविधि प्रकरण भाष्य, बामदेवसूरि कृत प्रमावक चरित, विजयचन्द्रसूरि कृत तपागच्छ प्रबन्ध, भावहडा गुरुपर्वक्रम, छापरीया पूनमीया-साधुपूनमीया गच्छ की पट्टालिये, देवसुन्दरसूरि कृत समाचारी, बृहद्गच्छी समाचारी, उमास्वाति कृत आचारवल्लभ और प्रतिष्ठा-कल्प, पादलिप्ताचार्य कृत प्रतिष्ठा कल्प, नागपुरीय तपागच्छ का प्रत्याख्यान भाष्य, पीपलिया उदयरत्न कृत जीवानुशासन, मानदेवसूरि कृत कुलक, वधेमानसरि कृत कथाकोष, देवधर प्रबन्ध आदि ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं है। अतः मनीषियों का कर्तव्य है कि इन अप्राप्त ग्रन्थों का अनुसंधान करें। वैधानिकता जिस चैत्यवास का खण्डन कर आचार्य जिनेश्वर ने सुविहित-विधिपक्ष-खरतर गच्छ का निर्माण किया था और जिसकी नींव दृढ़ करने के लिये आचार्य जिनवल्लभ, प्राचार्य जिनदत्त, आचार्य मणिधारी जिनचन्द्र और आचार्य जिनपति ने वैधानिक ग्रन्थ निर्माण किये थे। आचार्य जिनप्रभ ने विधि प्रपा और रुद्रपल्लीय आचार्य वर्धमान ने आचार दिनकर रचकर जिसके अनुष्ठानों की वैधानिकता स्थापित की थी। वही गच्छ ४-५ शताब्दियों पश्चात् पुनः शैथिल्य के पन्जे में फंस चुका था जिसका उद्धार युगप्रधान प्राचार्य जिनचन्द्रसूरि ने किया था, किन्तु जिसकी वैधानिक शास्त्रीय परम्परा पुनः स्थापित न कर पाये थे और इधर अन्य गच्छीयों ने ( जिसमें विशेषकर तपागच्छ वालों ने) इस गच्छ की मान्य परम्पराओं पर कुठाराघात करना प्रारम्भ किया था। उसकी रक्षा के लिये तथा मर्यादा अक्षुण्ण और प्रतिष्ठित रखने के लिये १ पद-व्यवस्था कुलक। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर (६७ ) कवि ने अभूतपूर्व साहस कर इस गच्छ की रक्षा की थी। उसी का फला था समाचारी शतक का निर्माण । समाचारी शतक में 'महावीर के षट् कल्याणक थे, अभयदेवसूरि खरतरगच्छ के थे, पर्व दिवस में ही पौषध करना चाहिये, सामायिक में पहले 'करेमिभंते' के पश्चात् इर्यापथि की आलोचना करनी चाहिये, 'आयरिय उवज्झाय' श्रावकों को ही पढ़ना चाहिये, साध्वी को व्याख्यान देने का अधिकार है, देवपूजा शास्त्रीय है, तरुण स्त्रियों के लिये मूलनायक का स्नात्र-विलेपन निषिद्ध है, प्रासुक जल ग्रहण करना चाहिये, ५० वें दिन संवत्सरी पर्व मानना चाहिये, तिथियों की क्षय-वृद्धि में लौकिक पञ्चांगों को मान्यता देनी चाहिये, पौषध में भोजन नहीं करना चाहिये और साधु को पानी ग्रहण करने के लिये मिट्टी का घड़ा रखना चाहिये' आदि चार्चिक प्रश्नों का समाधान करते हुये शिष्टता के साथ शास्त्रीय-प्रमाणों को सन्मुख रखकर गच्छ की परम्परा को वैधानिक स्वरूप प्रदान किया है तथा अनुष्ठानीय कर्मकाण्ड-उपधान, दीक्षा-शन्ति-स्नात्र, प्रतिक्रमण, लुम्चन, देवपूजन आदि का विधान निर्मित कर कवि ने स्थायित्व प्रदान किया है। इस भगीरथ प्रयत्न में कहीं भी कवि ने अन्य विद्वानों की तरह कि 'मेरा सत्य है, तेरी मान्यता झूठी और अशास्त्रीय है' श्रादि अशिष्ट वाक्यों का प्रयोग कर, अन्य गच्छीयों का खण्डन कर; स्व मत के मण्डन का कहीं भी प्रयत्न नहीं किया है। किन्तु सैद्धान्तिक परम्परा को सन्मुख रखकर सभी जगह यह दिखाया है कि यह शास्त्रसिद्ध और सत्य है । इस प्रकार कवि को हम व्यावहारिक जीवन और प्ररूपक जीवन में देखते हैं तो वह विधानकार के रूप में दिखता हुआ 'वैधानिक' अनुष्ठानों का मूर्तिमान स्वरूप ही दिखाई पड़ता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर व्याकरण यह सत्य है कि कवि ने अपनी कृतियों में अन्य विद्वानों की तरह पण्डिताउपन दिखाने के लिये स्थल-स्थल पर, शब्द-शब्द पर व्याकरण का उपयोग नहीं किया है। किन्तु यह नहीं कि कवि का व्याकरण ज्ञान शून्य हो! कवि की समग्र देववाणीमय रचनाओं को देख जाइये; कहीं भी व्याकरण ज्ञान की क्षति प्राप्त नहीं होगी। कवि को 'सिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासन, पाणिनीय व्याकरण, कलापव्याकरण, सारस्वत व्याकरण और विष्णुवार्तिक* आदि व्याकरण ग्रन्थों का भी विशद ज्ञान था । कवि की प्रकृति को देखते हुये ऐसा प्रतीत होता है कि उनका विचार था कि ऐसी वाणी का प्रयोग किया जाय जो सर्वग्राह्य हो सके और संस्कृत भाषा का सामान्य छात्र भी उसको समझ सके। यदि स्थल-स्थल पर व्याकरण का उपयोग किया गया तो वह कति केवल विद्वद्भोग्या ही बनकर रह जायगी। यदि उस विद्वभोग्या कति का सामान्य विद्यार्थी अध्ययन करेगा तो व्याकरण के दल-दल में फंसकर, सम्भव है देवगिरा के अध्ययन से पराङ्मुख हो जाय । अतः जहां विशेष मार्मिक-स्थल या अनेकार्थी या असिद्धाभास से स्थल हो, वहीं व्याकरण से सिद्ध करने की चेष्टा की जाय । इसी भावना को रखते हुये, व्याकरण के दल-दल में न फंसकर, कृति को निर्दोष रखते हुये जिस सरलता को अपनाया है; वह व्याकरण के सामान्य-अभ्यासी के अधिकार के बाहर की बात है। इस प्रकार का प्रयत्न पूर्ण वैयाकरणी ही कर सकता है और वह प्रतिभा इस कवि में विद्यमान है। * अने० पृ०५६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर ( ६६ ) अनेकार्थ और कोष कहा जाता है कि एक समय सम्राट अकबर की विद्वरसभा में किसी दार्शनिक विद्वान ने जैनों के आगम सम्बन्ध की 'एगस्स मुत्तम्स अनंतो अत्थो' 'एक सूत्र के अनन्त अर्थ होते हैं। पर व्यांग कसा ।। उससे तिलमिलाकर, कवि ने अपने शासन की सुरक्षा और प्रभावना, सर्वज्ञ के सवेज्ञता और आगम साहित्य की अक्षुण्णता रखने के लिये सम्राट से कुछ समय प्राप्त किया। इसी समय में कवि ने "राजा नो द द ते सौ रूयम्' इन आठ अक्षरों पर आठ लाख अर्थों की रचना की। इस ग्रन्थ का नाम कवि ने 'अर्थरत्नावली' रखा और सं० १६४६ श्रावण शुक्ला १३ की सांय को जिस समय अकबर ने काश्मीर विजय के लिये श्रीराज श्री. रामदासजी की वाटिका में प्रथम-प्रवास किया था, वहीं समस्त 1 उ० रूपचन्द्र ( रत्नविजय ) लिखित एक पत्रानुसार । + मूलतः अर्थ १० लाख किये थे किन्तु पुनरुक्ति आदि का परि मार्जन कर ८ लाख ही अर्थ सुरक्षित माने गये हैं। + "संवति १६४६ प्रमिते श्रावण मुदि १३ दिनसन्ध्यायां 'कश्मीर' देशविजयमुद्दिश्य श्रीराज-श्रीरामदासवाटिकायां कृत प्रथमप्रयाणेन श्रीअकबरपातिसाहिना जलालुद्दीनेन अभिजातसाहिजातश्रीसलेमसुरत्राणसामन्तमण्डलिकराजराजितराजसभायां अनेकविधयाकरणतार्किकविद्वत्तमभटसमक्षं अस्मद्गुरुवरान युगप्रधानखरतरभट्टार कश्रीजिनचंद्रसूरीश्वरान आचार्यश्रीजिनसिंहसरिप्रमुखकृतमुखसुमुखशिष्यवातसपरिकरान् असमानसन्मानबहुमानदानपूर्व समाहूय अयमष्टलक्षार्थी ग्रन्थो मत्पााद् वाचयाचक्रे ऽवकेण चेतसा। ततस्तदर्थश्रवणसमुत्पन्नप्रभूतनूतनामोदातिरेकेण सजातचित्तचमत्कारेण बहुप्रकारेण श्रीसाहिना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७० ) महोपाध्याय समयसुन्दर राजाओं, सामन्तों और विद्वानों की परिषदा में कवि ने अपना यह नूतन ग्रन्थ सुनाकर सबके सन्मुख यह सिद्ध कर दिखाया कि मेरे जैसा एक अदना व्यक्ति भी एक अक्षर का एक लाख अर्थ कर सकता है तो सर्वश की वाणी के अनन्ते अर्थ कैसे न होंगे ? यह ग्रन्थ सुनकर सब चमत्कृत हुये और विद्वानों के सन्मुख ही सम्राट ने इस ग्रन्थ को प्रामाणिक ठहराया । वस्तुतः कवि की यह कृति जैन साहित्य ही क्या, अपितु समग्र भारतीय वाङ्मय में ही अद्वितीय है । क्योंकि, वैसे अनेकार्थी कृतियें अनेकों प्राप्त हैं किन्तु एक अक्षर के हजार अर्थ के ऊपर किसी ने भी अर्थ कर रचना की हो, साहित्य-संसार को ज्ञात नहीं । अतः इस अनेकार्थी रचना पर ही कवि का नाम साहित्य जगत में सर्वदा के लिये अमर रहेगा । इस कृति को देखने से ऐसा मालूम होता है कि कवि का व्याकरण, अनेकार्थी कोष, एकाक्षरी कोष और कोषों पर एकाधिपत्य था और एकाक्षरी तथा अनेकार्थी कोषों को तो कवि मानो घोट-घोट कर पी गया हो । अन्यथा इस रचना को कदापि सफलता के साथ पूर्ण नहीं कर पाता । कवि इस कृति में निम्न कोषों का उल्लेख करता है: अभिधान चिन्तामणि नाममाला कोष, धनञ्जय नाममाला, हेमचन्द्राचार्य कृत अनेकार्थ संग्रह, तिलकानेकार्थ, अमर एकाक्षरी नाममाला, विश्वशम्भु एकाक्षरी नाममाला, सुधाकलश बहुप्रशंसापूर्ण 'पठतां पाठ्यतां सर्वत्र विस्तार्यतां सिद्धरस्तु ।' इत्युक्त्वा च स्वहस्तेन गृहीत्वा एतत् पुस्तकं मम हस्ते दत्वा प्रमाणीकृतोऽयं ग्रन्थः । [ अने० पृ० ६५ ] हीरालाल १० कापडिया लिखित 'अनेकार्थरत्नमंजुषा - प्रस्तावना' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर ( ७१ ) एकाक्षरी नाममाला, वररुचि एकाक्षरी निघंटु नाममाला जयसुन्दरसूरि कृत एकाक्षरी नाममाला + (?) और इस प्रकार की अनेकार्थी तो नहीं किंतु द्वयर्थी कृतियें स्तोत्र और गीत रूप में कवि को और भी प्राप्त हैं; जो 'साहित्य-सर्जन' अध्याय में अनेकार्थी - साहित्य की तालिका में उल्लिखित हैं । छन्द " कवि प्रणीत 'भावशतक' और 'विविधछन्द जातिमय वोतरास्तव' को देखने से स्पष्ट है कि कवि का 'छन्द' साहित्य पर भी पूर्ण अधिकार था । अन्यथा स्तोत्रों में छन्दनाम सह द्वयर्थी रचना करना सामान्य ही नहीं, अपितु अत्यन्त दुष्कर कार्य है । कवि ने जिन जिन छन्दों का प्रयोग किया है उनमें से कतिपय तो साहित्य में अयुक्त ही हैं, हैं तो भी कचित हो । कवि प्रयुक्त छन्द निम्न हैं: आर्या, गीतिका, पथ्यावक्त्रा, वैतालीय, पुष्पितामा, अनुष्टुब्, उपजाति, इन्द्रवज्रा इन्द्रवंशा, सोमराजी, मधुमती, हंसमाला, चूडामणि, विद्युत्माला, भद्रिका, चम्पकमाला, मत्ताक्रीडा, दोधक, तोटक, मणिनिकर, मृदङ्गक, रथोद्धता, अश्विनी, शालिनी, स्रग्विणी, द्रुतविलम्बित, प्रमाणिका, वसन्ततिलका, मालिनी, हरिणी, मन्दाक्रान्ता, शिखरिणी, शार्दूलविक्रीडित, स्रग्धरा । अलङ्कारः - रस कवि की खण्डकाव्य अथवा महाकाव्य के रूप में रचनायें प्राप्त नहीं हैं, हैं तो भी केवल पादपूर्ति रूप 'जिनसिंहसूरि पद * अने० पृ० ५४ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर महोत्सव काव्य' और ऋषभ भक्तामर काव्य । इस काव्य में कवि ने शब्दालङ्कारों के साथ अर्थालङ्कारों में उपमा, रूपक, प्रतीप, वक्रोक्ति, अतिशयोक्ति, अन्योक्ति, स्वभावोक्ति, विभावना, निदर्शन, दृष्टान्त, संदेह और सङ्कर तथा संसृष्टि अलङ्कारों का सन्निवेश रसपरिपाक को दृष्टि से बहुत ही सुन्दर किया है। स्तोत्र साहित्य में श्लेष और यमकालङ्कारों की प्रधानता कवि की शब्दालङ्कार प्रियता को प्रकट करती है।* मानन्दवर्धनाचार्य ने काव्यस्यात्मा धनिः' कहकर ध्वनि को काव्य की आत्मा स्वीकार की है। प्राचार्य मम्मट ने अपने काव्यप्रकाश नामक लक्षणप्रन्थ में इसी ध्वनि को आश्रित करके वाच्यातिशायी व्यङ्ग के पूर्णकाव्य को उत्तम काव्य स्वीकार किया है। उसी उत्तम काव्य के कतिपय भेदों पर कवि ने 'भावशतक' में विशदता से विचार किया है और इसके द्वारा ही रस-परिपुष्टि सिद्ध करता हुआ उत्तम काव्य की महत्ता पर विशद प्रकाश डाला है। ./ चित्रकाव्य साहित्यशास्त्र की दृष्टि से चित्रकाव्य अधम काव्य माना गया है। परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि चित्रकाव्य की रचना में छन्दशास्त्र, व्याकरण, निर्वचन तथा कोष आदि पर पूर्ण अधिकार होना आवश्यक है। कवि ने भी अपने कतिपय स्तोत्रों में ऐसे ही पाण्डित्य का परिचय दिया है। इन चित्रकाव्यमय स्तोत्रों को भावाभिव्यक्ति या रसनिष्पत्ति की दृष्टि से चाहे उत्कृष्ट काव्य न मानें, किन्तु विचार वैदग्ध्य और रचना-कौशल की दृष्टि से इन स्तोत्रों को उत्कृष्ट काव्य मानना ही होगा। कवि प्रणीत चित्रकाव्यमय स्तोत्र निम्न हैं:* कु.पृ० १८७, १८८, १९२। । भावशतक पद्य २ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर ( ७३ ) १. पाश्वनाथ शृङ्खलामय लघुस्तव, २.जिनचन्द्रसूरि कपाटलोह शृङ्खलाष्टक, ३. पार्श्वनाथ हारबन्धचलच्छङ्खलागर्भित स्तोत्र , ४. पार्श्वनाथशृङ्गाटकबन्धस्तव* । कवि का रचना-चातुर्य देखिये:"निखिल-निवृत-निश्वन-नर्दितं, नतजनं सम-नर्मद-दम्भमम्। दमपदं विमदं धन-नव्यभं, नभवनं हससं शिवसंभवम् ।२। सतत-सजन-नंदित-नव्यभं, नयधनं वरलब्धिधरं समम् । रदन-नक्रमन-श्चलन-प्रियं, नलिन-नव्यय-नष्टवनं कलम् ।३।" [पार्श्वनाथ-शृङ्गाटक-बन्धस्तब ] "श्रीजिनचन्द्रसरीणां, जयकुञ्जरशृङ्खला । शृङ्खला-धर्मशालायां, चतुरे किमसौ स्थिता ।। शृङ्खला-धर्मशालायां, वासितां पापनाशिनाम् । शिवसमसमारोहे, किमु सोपानसन्तति ।२।" [जिनचन्द्रसूरि-कपाटलोहशृङ्खलाष्टक ] कवि के उत्तम चित्रकाव्य के द्वारा पाठकों का रसास्वादन और मनोरंजन करने के लिये हारबन्ध स्तोत्र का उदाहरण पर्याप्त है। पादपूर्ति और काव्य कषि कृत ग्रन्थों में उद्धृत काव्यग्रन्थों की तालिका देखते हुये यह तो निश्चित है कि कवि साहित्य-शास्त्र के पूर्ण ज्ञाता थे। कु०पृ० १८६ । कु० पृ० ३५६। । कु० पृ० १६४। * कु० पृ० १९३ x देखिये, सामने पृष्ठ पर । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४ ) महोपाध्याय समयसुन्दर पञ्चमहाकाव्य, खण्डप्रशस्ति, चम्पू , मेघदूत, महाभारत आदि ग्रन्थों के अध्येता और अध्यापक भी थे। निष्णात होने के कारण ही ऐसे पादपूर्तिरूप और स्तोत्रात्मक स्वतन्त्र काव्यों की वे रचना कर सके । इनके काव्यों में शब्दमाधुर्य, लालित्य और ओज के साथ अलङ्कारों का पुट आदि सब ही गुण प्राप्त हैं। इनके काव्य रसाभिव्यक्ति के साथ ही अन्तस्तलस्पर्शी भी हैं। इनकी आश्चर्यकारी रचनाकौशल को देखिये: "भक्त्या जे. 'हं जरागणमदानन्दादयध्वंसकं, लक्षमीदीप्रतन दयोगुणभुवं तातां सतां देव रम् । कृष्णस्फीतरुचिं नरा नमत भो जीवामतीति क्षिपं, त्यागश्रेष्ठयशोरस कृतनति नेमि मुदा त्रायक हो" देखिये, कवि इसी पद्य के अक्षरों को ग्रहण कर अनुष्टुब का नया श्लोक निर्माण करता है: "भजेऽहं जगदानन्दं, सकलप्रभुतावरम् ।। कृत राजीमतीत्यागं, श्रेयः सन्ततिदायकम् ।।" [ नेमिनाथस्तव० कु० पृ० ६१६ ] अनेकविध श्लेष और भङ्गश्लेष तथा यमकमय काव्य होते हुये भी इनकी स्वाभाविक सरलता और माधुर्य देखिये: "केवलागममाश्रित्य, युष्मद्व्याकरणे स्थिताः। सिद्धि प्रकृतयः प्रापुः, पार्श्व ! चित्रमिदं महत् ।४।" [चिन्ता० पार्श्व स्तोत्र श्लेष, कु. पृ० १८८] "जय प्रभो ! कैतवचक्रहारी, यस्य स्मृतेस्त्वं तव चक्रहारी । मायामहीदारहलोभवामं, स्वर्गाधिपामार हलो भवाम ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर ( ७५ ) त्वां नुवे यस्य तं शंकरे मे मते, देवपादाम्बुजेशं करे मे मते । मन्मन(?)चञ्चरीकोपसंतापते, नाभिभूपाङ्गभूः को-पसंतापते।१३।" [ श्लेषमय आदिनाथस्तोत्र कु० पृ० ६१४] "ततान धर्म जगनाह तार, मदीदह दुःखतती-हतार । अचीकरच्छम सतां जनानां, जहार दीप्तारशितांजनानाम् ।। बेगाद्व्यनीषी दरिकाममाद, श्रियापि नो यो भविकाममादम् । नुत प्रभु ते च नता रराज, शिवे यशः कैरवतारराज ।४।" [यमकबद्ध पार्श्वस्तोत्र, कु० पृ० १८७] "अमर-सत्कल-सत्कलसत्कलं, सुपदयाऽमलया मलयामलम् । प्रबलसादर-सादरसादरं, शमदमाकर-माकर-माकरम् ।२।" यमकबद्ध पाश्वस्तोत्र कु० पृ०१९२] एक ही स्वरसंयुक्त पद्य का रसास्वादन करिये:" पदकजनत सदमरशरण, वरकमलवदनवरकरचरण ! । शमदमधर नरदरहरण ! जय जलज-धरपमरकरकरण! ॥११"। प्राच्य कवि के रचित काव्य के एक चरण को ग्रहण कर तीन नये चरणों का निर्माण-पादपूर्ति कहलाता है । यह कार्य अतिदुष्कर है। क्योंकि इसमें कवि को प्राच्य कवि के भाव, भाषा, शब्दयोजना को अक्षण्ण रखते हुये, अपने भाव और विचारों का सन्निवेश करना होता है। यह कार्य प्रतिभा, पटुता और शब्दयोजना सम्पन्न कवि ही कर सकता है। इसीलिये कहा जाता है कि 'नवीन काव्य का निमोण करना, पादपूर्ति साहित्य की अपेक्षा अत्यन्त सरल है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) महोपाध्याय समयसुन्दर कवि की लेखिनी इस साहित्य पर भी स्वाभाविक गति से अविराम चलती हुई दिखाई पड़ती है। कवि प्रणीत दो ग्रन्थ प्राप्त हैं : १. जिनसिंहसूरि पदोत्सव काव्य, २. ऋषभ भक्ताभर, इसमें प्रथम काव्य महाकवि कालिदास कृत रघुवंश महाकाव्य के तीसरे सर्ग के चतुर्थ चरण की पादपूर्ति रूप में है । इस काव्य में कवि अपने गणनायक, काकागुरु महिमराज के प्राचार्य पदोत्सव का वर्णन करता है । यह पद सम्राट अकबर के आग्रह पर यु० जिनचन्द्रसूरि ने दिया था और इसका महामहोत्सव महामन्त्री स्वनामधन्य श्री कर्मचन्द्र वच्छावत ने किया था। इस प्रसङ्ग का वर्णन कवि ने बड़ी कुशलता के साथ, कालिदास की पंक्ति के सौन्दर्य को अक्षुण्ण रखते हुए किया है। उदाहरण स्वरूप देखिये:“य रेखाभिधमहिपङ्कजे, भवान्ततः पूज्यपदं प्रलब्धवान् । प्रभो ! महामात्यवितीर्णकोटिशः-सुदक्षिणाऽदो हद ! लक्षणं दधौ ।। अकबरोक्त्या सचिवेशसद्गुरु, गणाधिपं कुर्विति मानसिंहकम् । गुरोर्यकः मरिपदं यतिव्रतिप्रियाऽऽप्रपेदे प्रकृतिप्रियं वद ।२। X रलेष का चमत्कार देखिये, "अरे! महाम्लेच्छनृपाः पलाशिनः, पशुव्रजां मां हत चेद्धितैषिणः । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर 1 माच्छमैवं निशितान् भृशं गुरो ! नवावतारं कमला- दिवोत्परम् | ३८ | " दूसरी कृति, आचार्य मानतुङ्गसूरि प्रणीत भक्तामर स्तोत्र के चतुर्थ चरण पादपूर्ति रूप है। इसमें कवि ने आचार्य मानतुन के समान ही भगवान आदिनाथ को नायक मानकर स्तवना की है । यह कृति भी अत्यन्त ही प्रोज्ज्वल और सरस-माधुर्य संयुक्त है । कबि का स्तव के समय भावुक स्वरूप देखिये और साथ ही देखिये शब्द योजना: "नमेन्द्रचन्द्र ! कृतभद्र ! जिनेन्द्रचन्द्र ! ज्ञानात्मदर्श-परिहृष्ट-विशिष्ट ! विश्व ! । त्वन्मूर्तिरर्तिहरणी तरणी मनोशे ( ७७ ) वालम्बनं भवजले पततां जनानाम् |१| " कवि की उपमा सह उत्प्रेक्षा देखिये:"केशच्छटां स्फुटतरां दधदङ्गदेशे, श्रीतीर्थराजविबुधावलिसंश्रितस्त्वम् । मूर्धस्थ कृष्ण लतिका - सहितं च शृङ्गमुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम् ||३०|" न्याय कवि ने अपने प्रमुख शिष्य वादी हर्षनन्दन को नव्यन्याय का मौलिक एवं प्रमुख ग्रन्थ 'तत्त्वचिन्तामणि' का अध्ययन करवा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८ ) कर हर्षनन्दन को 'चिन्तामणिविशारदैः' बनाया था। इससे स्पष्ट है कि कवि का ' न्यायशास्त्र' के प्रति उत्कट प्रेम था। इतना ही नहीं, कवि ने हर्षनन्दन के प्रारम्भिक अध्ययन के लिये सं० १६५३ आषाढ शुक्ला १० को इलादुर्ग ( ईडर ) में 'मङ्गलवाद' की रचना भी की थी। होपाध्याय म समयसुन्दर 'मङ्गलवाद' का विषय है - केशव मिश्र ने 'तर्कभाषा' में शास्त्रीय परम्परा के अनुसार मङ्गलाचरण क्यों नहीं किया ? इसी प्रश्न को चर्चात्मक, अनुमान, फल- प्रभाव, कार्य-कारण, विघ्नसमाप्ति, शिष्टाचार-पद्धति से बढ़ाकर नैयायिक ढङ्ग से ही उत्तर दिया है और सिद्ध कर दिखाया है कि मिश्र ने हार्दिक मङ्गल किया है । Jain Educationa International 'मङ्गलवार' न्याय का विषय और उत्तर देने की नैयायिकों की प्रणाली होने पर भी कवि ने इसको अत्यन्त ही सरल बनाया है । इससे यह सिद्ध है कि कवि न्यायशास्त्र के भी प्रकाण्ड पण्डित थे I ज्योतिष जैन साधुओं के जीवन में दीक्षा और प्रतिष्ठा ऐसे संबंधित विषय हैं जिनका की अध्ययन अत्यावश्यक है। क्योंकि व्यावहारिक ज्योतिष से जैन - ज्योतिष में तनिक अन्तर सा है । अतः इनका ज्ञान होने पर ही इस सम्बन्ध के मुहूर्त आदि निकाले जा सकते हैं । इसी दृष्टि को ध्यान में रखकर कवि ने अपने पौत्र- शिष्य जयकीर्ति को इस ज्योतिष शास्त्र का अच्छा विद्वान बनाया था । कवि स्वयं कहता है कि 'ज्योतिःशास्त्र - विचक्षण-वाचकजयकीर्ति' और भविष्य में परम्परा के श्रमण भी ज्ञान पूर्वक इस कार्य को सफलता से कर सकें, इसलिये 'नारचन्द्र, रत्नकोष, रत्नमाला, विवाह For Personal and Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समय सुन्दर ( ७ह ) पटल, शीघ्रबोध और सारंगधर आदि ग्रन्थों के आधार पर कवि ने 'दीक्षा-प्रतिष्ठा शुद्धि' नामक ज्योतिष ग्रन्थ की रचना अत्यन्त ही सरल भाषा में की है। साथ ही कल्पसूत्र टीका, गाथा सहस्री आदि ग्रन्थों में कई वर्ण्य-स्थलों पर इस सम्बन्ध का अच्छा विशदविवेचन किया है और वह भी पृथक-पृथक भेदों के साथ | अतः यह स्पष्ट सत्य है कि कवि ज्योतिष शास्त्र के भी विशारद और निष्णात थे । टीकाकार के रूप में काव्य, अलङ्कार, छन्द, आगम, स्तोत्र आदि प्रत्येक साहित्य पर कवि ने टीकाओं की रचना की है। जिसकी सूची हम 'साहित्य-सर्जन' में दे आये हैं; अतः यहां पुनरुक्ति नहीं करेंगे। इन टीका ग्रन्थों को देखने से यह तो निर्विवाद है कि टीकाकार का जिस प्रकार पाण्डित्य, बहुश्रुतज्ञता और योग्यता होनी चाहिये, वह सब कवि में मौजूद है । कवि का ज्ञान-विशद और भाषा प्राञ्जल होते हुये भी आश्चर्य यह है कि कहीं भी 'मूले इन्द्र बिडौजा टीका' उक्ति के अनुसार अपने पाण्डित्य का प्रदर्शन करता या बघारता हुआ नहीं चलता है। अपितु शिष्यों के हितार्थ तिसरल होते हुये भी वैदग्ध्यपूर्ण प्राञ्जल भाषा में लिखता हुआ नजर आता है । कवि, प्रसिद्ध टीकाकार मल्लिनाथ की अपेक्षा भी मूल काव्यकार के भावों को, अर्थगांभीर्य को सरस रसप्रवाह युक्त प्रकट करने में अधिक सफल हुआ है । कवि की शैली खण्डान्वय है । खण्डान्वय होते हुये भी, अतिप्रचलित प्रत्येक वाक्यों की व्याख्या नहीं करता है। जहां मूल अति सरल होता है वहां कवि सारांश ( भावार्थ ) कह देता है और अन्य वाक्यों की व्याख्या । अप्रचलित विषयों पर विशदता से भी लिखता है जिससे विषय का प्रतिपादन कहीं Jain Educationa International - For Personal and Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 50 ) महोपाध्याय समयसुन्दर अस्पष्ट न रह जाय । सामान्यतः इस सम्बन्ध के एक दो उद्धरण ही देकर हम सन्तोष करेंगे । देखिये : I 'थ' अधुना 'प्रजानामधिपः' दिलीपो राजा 'ऋषेः' वशिष्ठस्य 'धेनु' गां प्रभाते बनाय मुमोच । किंविशिष्टां धेनु' ? 'जायाप्रतिप्राहितगन्धमाल्याम्' गन्धश्च माल्यं च गन्धमाल्ये यस्याः सा, कोऽर्थः ? राजा स्वयं गन्धमाल्ये गृह्णाति राज्ञीं च प्राहति । पुनः किंविशिष्टां धेनुम् ? 'पीतप्रतिबद्धवत्सा' पूर्व पीतः पश्चात् प्रतिवद्धो वत्सो यस्यां सा पीत इति, कोऽर्थः ? पायितः पूर्व, पश्चात् प्रतिबद्धो वत्सो यस्यां सा तां पी० । अथवा अयमपि अर्थः पीतः - शंकुरदाहृत इत्युक्तत्वात् पीति शंको प्रतिबद्धो वत्सो यस्याः सा पी० ताम् । किंविशिष्ट प्रजानामधिपः ? 'यशोधनः ' यशः एव धनं यस्य स यशोधनः |१| [ रघुवंश टीका, द्वि. स. प्र. लो. ] " हे अधीश ! - हे स्वामिन्! श्रस्मादृशा मन्दमतयः तव स्वरूपं वर्णयितु सामान्यतोऽपि, आस्तां विशेषतः, प्रतिपादयितुं कथं अधीशाः - समर्था भवन्ति ? अपि तु न । अत्र दृष्टान्तमाह - 'यदि वा' इति दृष्टान्ते । कौशिकशिशुः - घूकस्य बालो दिवसे अन्धः सन् 'किं घर्मरश्मेः' सूर्यस्य रूपं भास्कर बिम्ब स्वरूपं 'फिल' इति प्रसिद्धवार्तायां किं प्ररूपयति-यथावस्थितं कथयति ? अपितु नेत्यर्थः । किंविशिष्टः कौशिकशिशुः ? घृष्टोऽपि दृढहृदयतया प्रगल्भोऽपि |३|" [ कल्याणमन्दिर स्तोत्र श्लो. ३ टीका ] इसी स्तोत्र के पांचवे पद्य की व्याख्या के पूर्व भूमिका की विशदता देखिये: "ननु यदि भगवतो गुणान् प्रति स्तोतुं शक्तिर्नास्ति तदा स्तबं कर्त्तुं कथमारब्धवान् ? न चैवं वक्तव्यम् । यत एकान्तेन एवं नास्ति - यदुत सम्पूर्णशक्तावेव सत्यां कार्यं कर्त्तुमारभ्यते, यतो गरुडवदा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर (८१) काशे उडयितुमसमर्थोपि कीटिका किं स्वकीयेन चारेण न चरति ? चरन्त्येव, चरन्ती न केनापि वार्येत । अतो जिमयोग्यस्य सद्भूतस्य सम्पूर्णस्य स्तवस्य करणशक्त रभावेऽपि भक्तिभरप्रेरितस्य मम स्वकीयशक्तरनुसारेण स्तोत्रकरणे प्रवृत्तस्य दोषो नाशङ्कनीयस्तदेवाऽऽह-" व्याख्या का चातुर्य देखना हो तो देखें, मेघदूत प्रथम श्लोक की व्याख्या। कवि ने केवल संस्कृत-प्राकृत भाषा-प्रथित ग्रन्थों पर ही टीका नहीं की है अपितु 'रूपकमाला' जैसे भाषा काव्य पर भी संस्कृत में अवचूरि की रचना की है। वस्तुतः कवि कृत अवचूरि पठन योग्य है। औपदेशिक और कथासाहित्य कवि स्वयं तो सफल प्रचारक और उपदेशक थे ही । 'अन्य श्रमण भी प्रचार और उपदेश में सफलता प्राप्त करें' इसी विचारधारा से कवि ने औपदेशिक और कथा साहित्य की सृष्टि की। व्याख्याता का 'जनरञ्जन' करना सर्वप्रथम कर्तव्य है और जनरञ्जन तब ही संभव है जबकि उपदेश के बीच-बीच में प्रासंगिक और प्रौपदेशिक श्लोकों की छटा बिखेरी जाय और चुलबुले चुटकले या कहानियों का जाल बिखेरा जाय । गाथा-सहस्री इसी ओदेपशिक और प्रासंगिक श्लोकों की पूर्ति-स्वरूप ही बना है इसमें अनेकों ग्रन्थों के चुने हुये फूलों के समान सौगन्ध्य बिखेरते हुये उत्तम-उत्तम पद्यों का चयन किया गया है; और वे भी सब ही विषयों के हैं। इससे कवि की भ्रमर की तरह चयन शक्ति का श्रेष्ठ परिचय प्राप्त होता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८२ ) महोपाध्याय समयसुन्दर कथा-साहित्य के भण्डार को समृद्ध करने की दृष्टि से 'कथाकोष' रचा गया। इसमें छोटे-मोटे, रसपूर्ण, अनेकों आख्यायिकायें हैं जो श्रोता को मुग्ध करने में अपनी सानी नहीं रखती हैं। किन्तु अफसोस है कि यह चुटकलों और आख्यायिकाओं भण्डार आज हमें प्राप्त नहीं है; है तो भी अपूर्ण रूप में । अतः तज्ज्ञों का कर्त्तव्य है कि इसकी प्राप्ति के लिये अनुसन्धान करें। संस्कृत भाषा सर्वग्राह्य न थी, क्योंकि सामान्य उपदेशक भी इससे अनभिज्ञ थे। अतः कवि ने सर्वग्राह्य दृष्टि से प्रान्तीय भाषाओं में 'रासक और चतुष्पदियों' की रचना की है। जिसकी तालिका हम ऊपर दे आये हैं। ये 'रास ' संस्कृत के काव्यों की तरह ही काव्य शास्त्रों के लक्षणों से युक्त प्रान्तीय भाषा के कलेवर से सुसज्जित किये गये हैं। कवि के रासक साहित्य में सोताराम चतुष्पदी' और 'द्रौपदी चतुष्पदी' महाकाव्यों की तरह ही विशद और अनुपम सौन्दर्य को धारण किये हुये हैं। इनके रासक जनरखन के साथ विद्वजनों के हृदय को आह्लादित कर रसाभिव्यक्ति करने में भी समर्थ हैं । कवि ने 'कथा' के साथ प्रसङ्ग-प्रसङ्ग पर जो धार्मिक अनुष्ठानों की, उपदेशों की बहार दिखाई है, उससे रसाभिव्यक्ति के साथ जीवन की उत्कट श्रद्धा और विश्व-प्रेम का भी अभ्युदय होता दिखाई देता है। कई संस्कृतनिष्ठ विद्वान भाषा-साहित्य की उपहास किया करते हैं, वे यदि कवि के रासक-साहित्य का अध्ययन करें तो उन्हें अपनी विचार-सरणि अवश्य बदलनी पड़ेगी। भाषा-विज्ञान की दृष्टि से तो ये 'रास' बड़े ही उपयुक्त हैं। १७ वीं शती के भाषा के स्वरूप को स्थिर करने के लिये इन रासों में काफी सामर्थ्य है । आवश्यकता है केवल वैज्ञानिक दृष्टि से अनुसंधान करने की। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर ( ८३ ) सङ्गीत-शास्त्र विश्व को आकर्षित और अभिभूत करने का जितना सामर्थ्य संगीत-शास्त्र में है उतना सामर्थ्य और किसी साहित्य में नहीं। यही कारण है कि महाकवियों ने अपने काव्यग्रन्थों को 'छन्दस्यूत' किये हैं। पद्य में छन्नों का निर्माण संगीतशास्त्र की नैसर्गिकता और अनिर्वचनीयता प्रगट करता है । ताल, लय, गण, गति और और यति आदि संगीत के ही प्रमुख अंग हैं और ये ही छन्दज्ञों ने स्वीकार किये हैं। इसी कारण पद्य काव्य श्रव्य काव्य कहलाते हैं। भाषा-साहित्यकारों ने जनता को आकृष्ट करने के लिये गेय पद्धति अपनाई। प्रसिद्ध-प्रसिद्ध देशीयें, ख्याल, तर्जे आदि का प्रमुखता से अपनी रचनाओं में स्थान दिया । यह अनुभव सिद्ध है कि जनता ने अपने हृदय में जितना स्थान इन 'गेयात्मक' काव्यों को दिया, उतना और किसी को नहीं। संगीत में प्रमुख ६ राग और छत्तीस रागिनियाँ हैं और इन्हीं के भेदानुभेद, मिश्रभाव और प्रान्तीय आदि से सैंकड़ों नयी रागिनियों का निर्माण माना गया है। ___ कवि भी संगीत की प्रभावशालिता को पहिचान कर इसका आश्रय ग्रहण करता है और स्वछन्दता के साथ गंगा-प्रवाह के समान मुक्त रूप से गेय गीतों और काव्यों की रचना करता है। कवि का गेय साहित्य इतना प्रवाहशील और व्यापी है कि परवर्ती कवियों को यह कहना पड़ा कि "समयसुन्दर रा गीतड़ा, कुम्भे राणे रा भीतड़ा।" ___ कवि का वर्चस्व इस साहित्य पर भी फैला हुआ है। कहीं तो कवि गुरुवर्णन करता हुआ ६ राग और छत्तीस रागिणी के * कु. पृ. ३६५. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर के नाम देता है, तो कहीं भगवान की स्तुति करता हुचा द्वयर्थ रूप ४४ रागों के नाम गिनाता है, तो कहीं एक ही स्तव १७ रागों : में बनाकर अपनी योग्यता प्रकट करता है, कहीं प्रत्येक पृथक् पृथक रागों में मुक्तक-काव्यों की रचना करता दिखाई दे रहा है। कवि ने अपने गीत और रासक साहित्य में प्रायः प्रत्येक राग-रागिनियों समावेश किया है। केवल राग-रागिनिये ही नहीं, सिन्ध, गुजरात, दूंढाड़, मारवाड़, मेड़ती, मालवी आदि देशों की प्रसिद्ध देशियों का समावेश कर अपने ग्रन्थों को कोष' का रूप प्रदान किया है। कवि के द्वारा गृहीत व निर्मापित देशियों की टेक पंक्तियों को आनन्दघन,कवि ऋषभदास, नयसुन्दर आदि अनेक परवर्ती कवियों ने उपयोग किया है। कवि की राग-रागिनियों की विशदता का आस्वादन करने के लिये देखिये, सीताराम चौपाई आदि रासक और तत्संबंधीय उल्लेख, जैन गुर्जर कविओ भाग १ । अनेक भाषा-ज्ञान प्राकृत, संस्कृत, सिन्धी, मारवाड़ी, राजस्थानी हिन्दी, गुजराती आदि भाषाओं पर कवि का अच्छा अधिकार था। कवि ने इन प्रत्येक भाषाओं में अपनी रचनायें की हैं । इन प्रत्येक भाषाओं के ज्ञान का महत्व भाषा-विज्ञान की दृष्टि से अत्यधिक है । भाषा पर अधिकार होने के पश्चात् रचना करना सरल है किन्तु दो भाषाओं में संयुक्त रूप में रचना करना अत्यन्त ही दुष्कर है। समसंस्कृत और प्राकृत भाषा में रचना करना वैदग्ध्य का सूचक है। कवि इन दोनों ही भाषाओं में समान रूप से अपनी पटुता दिखलाता है:| कु० पृ०६३। ० पृ० १४६। । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर ( ८५ ) "लसरणाण-विनाण-सन्नाण-मेहं, कलाभिः कलाभिर्युतात्मीयदेहम् । मणुगणं कलाकेलिरुवाणुगारं, स्तुवे पार्श्वनाथं गुणश्रेणिसारम् ।१। सुत्रा जेण तुम्हाण वाणी सहेां, गतं तस्य मिथ्तात्वमात्मीयमेयम् । कहं चंद ममिल्ल पीउसपाणं, विषापोहकृत्ये भवेन्न प्रमाणम् ।२। लुहप्पायपंके रुहे जे अ भत्ता, लभे ते सुखं नित्यमेकाग्रचित्ताः । कहं निष्फला कप्परुक्खस्स सेवा, भवेत्प्राणिनां भक्तिभाजां सदेवा ।३। [पार्श्वनाथाष्टक कु० पृ० १८२] समसंस्कृत-प्राकृत की रचनायें साहित्य में नहीं के समान ही है। इस प्रकार की रचनाओं का प्रादुर्भाव आचार्य हरिभद्र की 'संसार दावा' स्तुति से होता है और विस्तार प्राचार्य जिनवल्लभ के 'भावारिवारण स्तोत्र' और 'प्रश्नोत्तर षष्ठिशतक' काव्य में । इस प्रकार की कवि की यह एक ही रचना है। केवल संस्कृत-प्राकृत मिश्र ही नहीं, हिन्दी और संस्कृत मिश्र कृति का भी चमत्कार देखिये: "भलूँ आज भेट्यु, प्रभोः पादपद्म, फली आस मोरी, नितान्तं विपद्मम् । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर गयूँ दुःखनासी, पुनः सौम्यदृष्ट्या, थयुं सुक्ख झा, यथा मेघवृष्ट्या |१| जिके पार्श्व केरी, करिष्यन्ति भक्ति, तिके धन्य वारु, मनुष्या प्रशक्तिम् । भली आज वेला, मया वीतरागाः, खुशी मांहि भेट्या, नमद्ददेवनागाः | २| तुमे विश्वमांहे, महाकल्पवृक्षा, तुमे भव्य लोकां, मनोऽभीष्टदक्षा | तुमे माय बाप, प्रियाः स्वामिरूपाः, तुमे देव मोटा, स्वयंभू स्वरूपाः | ३| आदि. [ पार्श्वनाथाष्टक, कु० पृ० १६६ ( =६ ) ( कवि जन्मतः राजस्थानी होता हुआ भी 'सिन्धी' भाषा पर अच्छा अधिकार रखता है । देखिये कवि को पटुताः "मरुदेवी माता वै खर, इद्धर उद्धर कितनुं भाखड़ आउ आषाढ कोल ऋषभजी, आउ साढइ कोल | १| X X X मिट्ठा वे मेवा तैकु देवां, उ इकट्ठ े जेमण जेमां । लावां खूब चमेल ऋषभजी, आउ असाढ कोल |२| X X X वो मेरे बेटा दूध पिलावां, बही बेड़ा गोदी में सुख पावां । मन असाड़ा बोल ऋषभजी, आउ असादा कोल |७| Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर ( ८७ ) तुं जगजीवन प्राण आधारा, तूं मेरा पुत्चा बहुत पियारा । तेथें वंजा घोल ऋषभजी, आउ असाड़ा कोल ।" [कु० पृ० ११] "साहिब मइडा चंगी सूरति, आ रथ चढीय आवंदा हे भइणा। नेमि मइकुं भावंदा हे । भावंदा हे मइकुं भावंदो हे, नेमि असाढ़े भावंदा हे ।। आया तोरण लाल असाड़ा, पसुय देखि पछिताउंदा हे भइणा ।२। ए दुनिया सब खोटो यारों, धरमउ ते दिलु धाउंदा हे भइणा।३। कूडी गल्ल जीवां दई कारणि, जादु कितर्फ जावंदा हे भइणा।४। घोटु असाइइ संयम गिद्धा, सच्चा राह सुणावंदा हे भइणा ।६। ईवै राजुल राणी आखै, संयम मइकु सुहावंदा हे भइणा ७/ [ नेमिस्तव कु० पृ० १३२] इसी प्रकार मृगावती चतुष्पदी तृतीय खण्ड नवमी ढाल, सिन्धी भाषा में ही प्रथित है। कवि ने सर्व प्रथम राजस्थानी में ही लेखनी उठाई, किन्तु ज्यों ज्यों उसके भ्रमण का क्षेत्र विस्तृत होता गया त्यों-त्यों उसका भाषा-ज्ञान भी विस्तृत होता गया और वह प्राचीन हिन्दी, गुजराती सिन्धी आदि में भी साहित्य के भण्डार को भरता गया। प्राचीन हिन्दी, राजस्थानी और गुजराती सम्मिश्रित तो प्रस्तुत ग्रन्थ है ही। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८८ ) महोपाध्याय समयसुन्दर प्रस्तुत-संग्रह प्रस्तुत संग्रह क्या भक्त की दृष्टि से, क्या उपदेशक की दृष्टि से, क्या उपदेश-पदों की दृष्टि से, क्या क्रियावादियों की दृष्टि से, क्या वर्णनात्मक दृष्टि से, क्या लोकोक्तियों की दृष्टि से, क्या ऐतिहासिकों की दृष्टि से, क्या संस्कृत-प्राकृत के विद्वानों की दृष्टि से अर्थात् सर्वांग दृष्टि से अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है। भक्त की दृष्टि से देखिये तो चावीसी, वीसी, तीर्थंकरों के स्तव, तीर्थ-स्तव, प्राचीन महर्षियों के गीत, सद्गुरुओं के गीत आदि की सामग्री इतनी भरी पड़ी है कि भक्त इसी गंगा की पावन-धरा में डुबकियां लगाता चल जाय, आराध्यों और सद्गुरुओं को प्रसन्न करता चला जाय अर्थात इस संग्रह में इतनी सामग्री है कि सबका अध्ययन कर, हृदयंगम करने में भक्त असमर्थ ही रहेगा। भक्त की भक्ति के लिये संग्रह के कुछ गीत और स्तवन ही पर्याप्त हैं । उदाहरण स्वरूप सुविधिनाय का स्तवन ही देखिये : प्रभु तेरे गुण अनन्त अपार । सहस रसना करत सुरगुरु, कहत न आवे पार ।प्र० ॥१॥ कोण अम्बर गिणे तारो, मेरु गिरी को भार । चरम सागर लहरि माला, करत कोण विचार प्र०॥२॥ भगति गुण लवलेश भाखं, सुविध जिन सुखकार । समयसुन्दर कहत हमकुं, स्वामी तुम आधार । प्र०३। (सुविधि जिन स्तवन, राग-केदार, पृ०७) प्रभु के सौन्दर्य का वर्णन करते हुये कवि की लेखनी का श्रास्वादन कीजिये : Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर ( 5 ) पूरण चन्द जिसौ मुख तेरो, दंत पंक्ति मचकुंद कली हो । सुन्दर नयन तारिका शोभत, मानु कमल दल मध्य अली हो | २| ( अजितजिन स्तवन ) भक्त कवि के कोमल हृदय का अवलोकन कीजिये:तुम मेँ बिच अन्तरघउ, किम करूँ तोरी सेव । देव न दीधी पांखड़ी, पण दिल में तूं इक देव || २ || ( सीमन्धर गीत ) विद्या पांख बिना किम वांद, पणि माहरू मन त्यांह रे ॥२॥ ( बाहुजिन गीत ) पणि मुझ नई संभारज्यो, तुम्ह सेती हो घणी जाण पिळाख । तुमे नीरागी निसप्रीही, पणि म्हारइ तो तुमे जीवन प्रोण ॥ ( अजितवीर्य जिन गीतम् ) अहो मेरे जिन कुँ कुणमा कहूं । काष्ठकलप चिन्तामणि पाथर, कामगवी पशु दोष ग्रहुँ । श्र० । १ । चन्द्र कलंकी समुद्र जल खारउ, सूरज ताप न सहूं । जल दाता परिण श्याम वदन घन, मेरु कृपण तउ हुं किम सदहुं |२| कमल कोमल पणि नाल कंटक नित, संख कुटिलता बहु । समय सुंदर कह अनंत तीर्थंकर, तुम मई दोष न लहुँ । आ० | ३ | ( अनन्तजिन गीतम् ) प्रभु-दर्शन से कवि का मन-मयूर नाच उठता है:तुम दरसण हो मुझ प्राणंद पूर कि, जिम जगि चन्द चकोरड़ा । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर तुम दरमण हो मुझ मन उछरंग कि, मेह आगम जिम मोरड़ा । मो०:१२ । तुम नामइ हो मोरा पाप पुलाइ कि, जिम दिन ऊगह चोरड़ा | तुम नामइ हो सुख संपति थाय कि, मन वंछित फलइ मोरड़ा । मो०. १३। हुँ मांगू हो हिव विहड़ प्रेम कि, नित नित करूय निहोरड़ा । मुक देख्यो हो सामी भव भव सेव कि (६०) चरण न छोडूं तोरड़ा । मो० | १४ | ( शीतलनाथ स्तवन ) कवि अपने को वीतराग के पथ पर चल सकने के प्रयोग्य अनुभव करते हुए भी, जो आत्म विश्वास प्रकट करता है वस्तुतः वह स्तुत्य है : धउ संजम नवि पलइ, नहिं तेहवउ हो मुज दरसण नाय । पण आधार छह एतलउ, एक तोरउ हो धरूँ निश्चल ध्यान । वी. १६ । ( वीर स्तवन ) तूं गति तूं मति तूं धणी जी, तूं साहिब तूं देव । श्रण धरु सिर ताहरी जी, भव भव ताहरी सेव | ३१ | कृ० | (आदिनाथ स्तव ) कवि केवल भगवद् स्वरूप को ही भक्ति का आधार मानकर नहीं चल रहा है, अपितु बाल्यक्रीड़ा को भी भक्ति का एक अङ्ग स्वीकार कर वात्सल्य भावना में रस विभोर हो जाता है : Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर ( ६१ ) पालणडइ पउदयउ रमइ म्हारउ बालुयड़उ, हींडोलइ अचिरा माय म्हारउ नान्हड़ियउ ॥१॥ पग घूधरड़ी घमघमइ म्हारउ बालुयड़ा, ठम ठम मेल्हइ पाय म्हारउ नान्हड़ियउ । (शान्तिनाथ हुलगमणा गीतम् ) मिट्ठा बे मेवा ते कॅ देवा, आउ इकट्ठ जेमण जेमां । लावां खूब चमेल ऋषभजी, आउ असाड़ो कोल ।२। कसबी चीरा पै बांधू तेरे, पहिरण चोला मोहन मेरे। कमर पिछेवड़ा लाल ऋषभजी, भाउ असाड़ा कोल ।३। काने केवटिया पैरेकड़िया, हाथे बंगा जवहर जड़िया। गल मोतियन की माल ऋषभजी, पाउ असाड़ा कोल।४। बांगा लाटू चकरी चंगी, अजब उस्तादां वहिकर रङ्गी। प्रांगण असाड़े खेल ऋषभजी, आउ असाड़ा कोल ।। नयण वे तेंडे कजल पावां, मन भावड़दां तिलक लगावां। रूढड़ा कैदे कोल ऋषभजी, आउ असाड़ा कोल ।६। श्रावो मेरे बेटा दूध पिलावां, वही बेड़ागोदी में सुख पावाँ । मन्न असाड़ा बोल ऋषभजी, आउ असाड़ा कोल ।। (आदि स्तव ) भक्ति की तन्मयता में कवि जीवन का अनुराग पक्ष भी नहीं भूलता है। राजीमति के शब्दों में अनुराग को किस खूबी से प्रकट करता है। देखिये: Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) महोपाध्याय समय सुन्दर दीप पतंग तह परि सुपियारा हो, एक पखो मारो नेह; नेम सुपियारा हो । हुं अत्यन्त तोरी रागिणी सुपियारा हो । तु कोइ द्य मुझ छेह; नेम सुपियारा हो । १ । संगत तेसुं कीजिये, सु० जल सरिखा हुवे जेह; ने• सु० आव आणि सहै, सु० दूध न दाभण देय; ने० सु० |२| ते गिरुया गुणवंतजी, सु० चंदन अगर कपूर ने० सु० । पीडंता परिमल करें, सु० आपड़ आणंद पूर; ने० सु०|३| मिलतां सुं मिलीयै सही, सु० जिम बापीयड़ो मेह; ने० सु० । पिउ पिउ शब्द सुखी करी, सु० श्राम मिले सुसनेह; ने०सु०|४| हुं सोना नी मूँदड़ी, सु० तु हिव हीरो होय; ने० सु० । सरिखइ सरिखइ जउ मिलइ,सु. तर ते सुंदर होय; ने० सु०|५| ( ने मिस्तत्र ) X X X अनुराग के साथ साथ कवि राजीमती एव गौतम के शब्दों द्वारा जिस सरण से वियोग एवं विछोह का वर्णन करता है; वह सचमुच में साहित्य - निधि में एक अनमोल रत्न है । वियोग सम्बन्धित अनेकों गीत इस संग्रह में संग्रहीत हैं। पाठकों को अवलोकन कर रसास्वादन कर लेना चाहिये । कवि के हृदय में गुरु भक्ति और गच्छनायक के प्रति अटूट श्रद्धा थी । कवि ने दादा साहब श्री जिनदत्तसूरि और श्री जिनकुशलसूरि जी के बहुत से स्तवन बनाए हैं। श्री जिनकुशलसूरि जी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर ( ६३ ) के परचों का चमत्कारी * उल्लेख भी अपनी कृतियों में किया है। श्री जिनचन्द्रसूरि जी के बहुत से गीत, ष्टक आदि मैं ऐतिहा सिक सामग्री के साथ-साथ गुरु-भक्ति भी प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होती है। इसी प्रकार श्री जिनसिंहसूरि, श्री जिनराजसूरि और श्रीजिनसागरसूरि के पद अष्टकादिक भी बनाये हैं । श्री जिनचन्द्रसूरि अष्टक व अलजा गीत आदि अनेक गीत भावपूर्ण व धारावाही मुक्तकों में बद्ध हैं । श्री जिनसिंहरि के प्रति अगाध भक्ति पूर्ण पंक्तियाँ उदाहरण स्वरूप देखिये: मुझ मन मोह्यो रे गुरुजी, तुम्ह गुणे जिम बाबीहड़उ मेहो जी । मधुकर मोह्यो रे सुन्दर मालती, चन्द चकोर सनेहो जी । मु.। १ । मान सरोवर मोघो हंसलउ, कोयल जिम सहकारो जी । मयगल मोयो रेजिम रेवा नदी, सतिय मोही भरतारो जी । मु.। २ । गुरु चरणे रंग लागउ माहरउ, जेहवउ चोल मजीठो जी । दूर थकी पिग खिण नवि बीसरइ, वचन अमीरस मीठो जी । मु.। ३ । सकल सोभागी सह गुरु राजियउ, श्री जिनसिंघ सूरीसो जी । समय सुंदर कहइ गुरु गुण गावतां, पूजइ मनह जगीसो जी । मु. । ४ । ( कुसुमाञ्जति पृष्ठ ३८७ ) गुरु दीवउ गुरु चन्द्रमा रे, गुरु देखाड़ गुरु उपगारी गुरु बड़ा रे, गुरु उत्तार बाट । घाट ॥२॥ ( जिनसिंहसूरि गीत ) X X X उपदेशक की दृष्टि से देखिये, तो पृष्ठ ४२० से ४६३ तक पदेशिक गीत ही गीत मिलेंगे । पृष्ठ २४७ से पृष्ठ ३४३ तक पूर्व * "आयो आयो जी समरंता दादौ आयो ” कुसुमाञ्जलि पृष्ठ ३५० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४ ) महोपाध्याय समयसुन्दर के महा महर्षि और महासतियों के स्वाध्याय और गीत प्राप्त होंगे। इन दोनों के आधार पर ही उपदेशक यदि चाहे, तो कुछ दिन या मास तो क्या, वर्षों व्यतीत कर सकता है और सफलता सह उपदेशों के साथ अपने धर्मों का प्रचार भी कर सकता है। उपदेशक-पदों की दृष्टि से-मुमुक्षुओं के त्याग-वैराग्य में वृद्धि हो एवं प्रसंग आने पर वे क्रोध-कषाय अदि शत्र भों से दूर रहकर आत्मगुण प्राप्ति के भिन्न-भिन्न साधनों द्वारा आत्मोन्नति कर सकें, इसके लिये कविवर ने पद-रचना कर पर्याप्त उपकार किया है। इस प्रकार के पदों का स्वाध्याय करने वाले की आत्मा कुव्यापारों से बचकर सदाचार की ओर अग्रसर होती है। इस प्रकार के गीतों में भिन्न-भिन्न राग-रागनियों के चमत्कार के साथ-साथ बोध देने बाली चेतावनी भी दी गई है । क्रोध, मान, माया, लोभ, निन्दा, स्वार्थ, मात्सर्य इत्यादि नाना विषयों के परिहार के साथ-साथ जीव प्रतिबोध, पारकी होड़ निवारण, घड़ी लाखीणी, उद्यम, भाग्य, घड़ियाली, जीवदया, मरण-भय सन्देह, वीतराग-सत्यवचन, पठनप्रेरणा, क्रिया-प्रेरणा, दान, शील, तप, भावना, स्वर्ग प्राप्ति, नरक प्राप्ति आदि नाना प्रकार के विषयों पर पदों की रचना कर कवि ने सुन्दरतम भाव व्यक्त किये हैं। क्रियावादियों की दृष्टि से-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि आप ज्ञान के प्रबल पक्षपाती और उपासक थे आपकी दीर्घायु ज्ञानोपार्जन, ग्रन्थप्रणयन, स्वाध्याय, पठन-पाठन व धर्मोपदेश में व्यतीत हुई । आप ज्ञान के साथ-साथ क्रिया को भी बड़े आदर पूर्वक करते रहने का मनोभाव सर्वत्र व्यक्त करते रहे हैं । तपश्चर्या, पाराधन आदि स्तवनों से यह स्पष्ट है । पञ्चमी स्तवन में "क्रिया सहित जो ज्ञान, हुवइ तो अति परधान । सोनो ने सुरो ए, सङ्घ दूधे भरथो ए" कहकर क्रिया की महत्ता स्वीकार की है। क्रिया प्रेरक स्वाध्याय में क्रिया की सजीवता देखिये : Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर ( ६५ ) क्रिया करउ, चेला क्रिया करउ, क्रिया करउ जिम तुम्ह निस्तरउ । क्रि०।१। पडिलेहउ उपग्रण पातरउ, जयणा सं काजउ ऊधरउ । क्रि०।२। पडिकमा पाठ सुध उचरउ, _ सहु अधिकार गमा सांभरउ । क्रि० ।३। काउसग्ग करता मन पांतरउ, चार प्रांगुल पग नउ आंतरउ । क्रि०।४। परमाद नइ आलस परिहरउ, तिरिय निगोद पड़ण थी डरउ । क्रि० ।। क्रियावंत दीसइ फूटरउ, क्रिया उपाय करम छूटरउ । क्रि०।६। पांगलर ज्ञान किस्यउ कामरउ, ज्ञान सहित क्रिया आदरउ । क्रि०१७ समयसुन्दर द्यइ उपदेश खरउ, मुगति तण उ मारग पाधरउ । क्रि० ।। ज्ञान क्रिया के सम्बन्ध में आपके उपरोक्त विचार आज भी समाज के लिये मार्ग दर्शक हैं। वर्णनात्मक दृष्टि से-कवि ने पौराणिक चरित्रों के वर्णन में भी अपने युग की छाप अङ्कित की है, जिससे व्याख्यानादि में बड़ी ही सजीवता और रोचकता आ जाती है। मृगावती चौपाई में चित्रकार का वर्णन करते हुए अपने युग के भित्ति चित्रों का सुन्दर चित्रण किया है। राम, सीता, गणेश, काबुली, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर फिरङ्गी आदि की वेशभूषा का भी सुन्दर निदर्शन किया है। इसी प्रकार स्त्रियों को आभूषण की कितनी चाह होती है, इस पर गौरीरीय नारियों की मनोवृत्ति का दिग्दर्शन भी कराया है । कवि द्वारा प्राकृतिक सुषमा का चित्रण, प्रतिहारी का चित्रण, पूजारी, ब्राह्मणादि का और ज्योतिषी का चित्रण तो अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखता है। अन्तरङ्ग शृङ्गार गीत, नेमि शृङ्गार वैराग्य और चारित्र्य चूनड़ी आदि गीतों में तो उस युग के आभूषणों का भी उल्लेख किया है। उदाहरण स्वरूप देखिये: सिर राखड़ी, काने उगणियाँ, चुनी, कुण्डल, चूड़ा, हार, पमारड़उ, लोलणउ, चन्दलउ, नख फूल, बिन्दली, बीटी, काटमेखला, वेडणी, काजल, महंदी, बिछिया, पुणछिया, गलइ दुलड़ी, चूनड़ी, नेउरी, तिलक आदि । मुहावरों की दृष्टि से--कवि ने अपने युग में प्रचलित लोकोक्तियों का भी अपनी कृतियों में स्थान-स्थान पर, सुन्दर पद्धति से समावेश किया है. इससे उन कहावतों की प्राचीनता पर भी अच्छा प्रकाश पड़ता है । उदाहरण स्वरूप देखिये: आपणी करणी पार उतरणी, आप मुयाँ बिन सरग न जाइयइ, बातें पापड़ किमही न थाइ, सूता तेह विगूता सही जांगतां काऊ उर भय नाहि, सतारी पाडा जिणइ एह बात जग जाणे रे, आप डूबे सारी डूब नई दुनियां, दाहिनी आँख सखीमोरी फरकी "रंगमें भंग जणावह हो" संगीत-शास्त्र की दृष्टि से केवल छः राग और छत्तीस रागिनियों का ही इसमें समावेश नहीं है, प्रत्युत इसके Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर ( ६७ ) साथ ही सिन्ध, मारवाड़, मेड़ता, मालव, गुजरात आदि के प्रान्तों की प्रसिद्ध-प्रसिद्ध देशीयें, रागिनियाँ, ख्याल आदि सभी इसमें प्राप्त हो जायंगे।गेय-प्रेमी इस सङ्गीत-पद्धति से अत्यन्त ही प्रसन्न हो उठेगा, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। उदाहरण स्वरूप जैसलमेर मण्डन पार्श्वनाथ का स्तवन ही देखिये, जो सत्रह रागों में खचित है--(पृ० १४६)। __ऐतिहासिकों की दृष्टि से-तीर्थमालाएँ (पृष्ठ ५४ से ६०) और तीर्थों के 'भास', तीर्थों के स्तवन', घंघाणी पार्श्वनाथ स्तवन, सेत्रावा स्तवन, राणकपुर स्तव, युग प्रधान जिनचन्द्रसूरिजिनसिंहसूरि-जिनराजसूरि-जिनसागरसूरि गीत और संघपति सोमजी वेलि मादि कृतियाँ बहुत ही महत्व रखती हैं । यदि अनुसन्धान किया जाय, तो हमें बहुत कुछ नये तथ्य और नई सामग्री प्राप्त हो सकती है। भाषा-विज्ञान की दृष्टि से तो यह संग्रह महत्व का है ही। १७वीं शताब्दी को प्राचीन-हिन्दी, मारवाड़ी, गुजराती, सिन्धी आदि भाषाओं के स्वरूप को समझने के लिये और शब्दों के वर्गीकरण के लिये यह अत्यन्त सहायक होगा। संस्कृत और प्राकृत के विद्वानों को भी उनके काल को मनोविनोद में व्यतीत करने के लिये इसमें प्रचुर सामग्री प्राप्त होगी। पहले-प्राकृत भाषा के काव्यों को ही लीजिये___स्तम्भन पाश्वनाथ स्तोत्र (पृ. १५५), नेमिनाथ स्तव (पृ० ६१५), पाश्वनाथ लघुस्तव (पृ० १८५), यमकबद्ध पार्श्वनाथ लघुस्तव (पृ०६१८), समसंस्कृत-प्राकृत भाषा में-पार्श्वनाथाष्टक (पृ. १६६)। सम हिन्दी-संस्कृतभाषा में पार्श्वनाथाष्टक (पृ. १८६)। संस्कृत भाषा में-शान्तिनाथ स्तव (पृ० १०३), चतुर्विशति तीर्थकर गुरुनाम गर्भित पार्श्वनाथ स्तव (पृ० १८४), पार्श्वनाथ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय समयसुन्दर यमकबद्ध-श्लेषवद्ध-शृङ्गाटकबद्ध-चलित शृङ्खलाबन्ध-कपाटशृङ्खलाबन्ध स्तवन-द्विअर्थीयुक्तस्तव (पृष्ट १८६ से १६६, ३५७, ६१४)। नानाविध श्लेषमय आदिनाथ स्तोत्र (पृ.६१५), नानाविध काव्य जातिमय नेमिनाथ स्तव (पृ० ६१६), समस्यामय पार्श्वनाथ बृहस्तव (पृ० ६१६ ), यमकमय पार्श्वनाथ लघुस्तष (पृ० ६२१), यमकमय महावीर बृहत्तव ( पृ० ६२२)। अष्टक और पादपूर्ति साहित्य भी देखने योग्य है : तृष्णाष्टक, रजोष्टक, उदच्छत्सूर्यविम्बाष्टक, समस्याष्टक, समस्या-पूति (पृष्ठ ४६४ से ५०० तक), पादपूर्ति रूप ऋषभ भक्तामर काव्य (पृष्ठ ६०३ ) समस्या-पूर्ति में कवि-कल्पना की उड़ान तो देखिये:प्रभुस्नात्रकृते देवा नीयमानान् नभे घटान् । रौप्यान् दृष्ट्वा नराः प्रोचुः शतचन्द्रनभस्तलम् ॥१॥ रामया रममाणेन कामोद्दीपनमिच्छता । प्रोक्तं तच्चारु यद्यवं शतचन्द्रनभस्तलम् ॥२॥ हस्त्यारोहशिरस्त्राणश्रेणिमालोक्य संगरे। पतितो विह्वलोऽवादीत् शतचन्द्रनभस्तलम् ॥४॥ भुक्तधत्त रपूरत्वाभ्रान्तदृष्टिरितस्ततः । अपश्यत्कोऽपि सर्वत्र शतचन्द्रनमस्तलम् ॥६॥ इस प्रकार अनेक विध दृष्टियों से देखने के पश्चात् हम निर्विवाद कह सकते हैं कषि असाधारण मेधा-सम्पन्न सर्वतोरखी प्रतिभावान था और था एक साहित्य-यज्ञ का महास्रष्टा भी। इस स्रष्टा की न जाने कितनी कृतियाँ इस साहित्य-संसार से विदा हो चुकी होंगी और न जाने श्राज जो प्राप्त हैं, वे भी सरस्वती Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महपाध्याय समयसुन्दर ( ६ ) भरदारों में किस रूप में पड़ी पड़ी बिलख रही होंगी ! नाहटा बन्धुओं ने कवि के फुटकर संग्रह को संगृहीत करने का और परिश्रम उठाकर प्रकाश में लाने का जो प्रयत्न किया है एतदर्थ वे साहित्य-समाज की ओर से अभिनन्दनीय हैं । उपसंहार अन्त में मैं कवि की प्रतिभा के सम्बन्ध में वादीन्द्र हर्षनन्दन, कवि ऋषभदास और पंडित विनयचन्द्र कृत स्तुति द्वारा पुष्पाञ्जलि अर्पित करता हुआ अपनी भूमिका समाप्त करता हूँ: "तच्छिष्य- मुख्यदक्षाः, विद्वद्वर - समयसुन्दराह्वयः । कलिकालकालिदासाः, गीतार्था ये उपाध्यायाः । प्राग्वाटशुद्धवंशाः, षड्भाषागीतिकाव्यकर्त्तारः । सिद्धान्त काव्यटीका करणादज्ञानहर्तारः । ( उत्तराध्ययन टीका ) X x X वचनकला-काव्यकला, रूपकला - भाग्यरञ्जजनकलानाम् । निस्सीमावधिभूयान् सदुपाध्यायान् श्रुताध्यायान् । X X X तेषां शिष्या मुख्या, वचन - कला कविकलासु निष्णाताः । तर्क-व्याकृति - साहित्य - ज्योतिः समयतत्रविदः । प्रज्ञाप्रकर्षः प्राग्वाटे, इति सत्यं व्यधायि यः । येषां हस्तात् सिद्धिः, सन्ताने शिष्य - शिष्यादौ । ष्ट लक्षानर्थानेकपदे प्राप्य ये तु निर्ग्रन्थाः । संसारः सक सुभगाः, विशेषतः सर्वराजानाम् । ( मध्याह्नव्याख्यान पद्धति ) X X Jain Educationa International X For Personal and Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) महोपाध्याय समयसुन्दर येषां वाणिविलासानां, गीतकाव्यादियोजना। प्रकाशते कवीशत्वं, स्वगच्छ-परगच्छभिः। तेषां मुख्या शिष्याः, चतुर्थपरमेष्ठिनः कलाचतुराः। कलिकालकालिदासा; उच्चाल सरस्वतीरूपाः। सुसाधु हंस समयो सुरचन्द, शीतल वचन जिम शारद चन्द। ए कवि मोटा, बुद्धि विशाल, ते आगलि हुँ मूरख बाल । ( कवि ऋषभदास) ज्ञानपयोधि प्रबोधि वारे, अभिनव शशिहर प्राय, कुमुद चन्द्र उपमान वहेरे, समयसुन्दर कविराय । ततपर शास्त्र समरथिवारे, सार अनेक विचार, वलि कलिन्दिको कमलिनी रे, उल्लास दिनकार । __ (पं० विनयचन्द्र ) श्री नाहटा जी ने महोपाध्याय समयसुन्दर के सम्बन्ध में लिखने का आग्रह कर, मुझे कवि के यशोगान का अवसर प्रदान किया, इसके लिये मैं नाहटा बन्धु को हार्दिक साधुवाद देता हूँ। ३१-८-१९५५ विवेक वर्धन सेवाश्रम श्यामासूनुमहोपाध्याय विनयसागर महासमुन्द (म०प्र०) ) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका सं० १ __ कृति माम आदि-पद पृष्ठाक १. श्रीवर्तमान चौवीसी स्त. गा.३ जीव जपि जपि जिनवर० १ २. श्रीअनागत चौवीसी स्त. गा.६ए अनागत तीर्थकर० ३. श्री अतीत चौवीसी स्त. गा.५ केवलज्ञानी नइ निर्वाणी चौवीसी ४. ऋषभजिन स्तवन गा.३ ऋषभदेव मोरा हो ऋ० ३ ५. अजितजिन स्तवन , अजित तुअतुल बली० ६. संभवजिन स्तवन , आहे रूप सुन्दर सोहई० ७. अभिनंदनजिन स्तवन ,, मेरे मन तू अभिनंदन० ८.सुमतिजिन स्तवन जिनजी तारो हो तारो ६.पद्मप्रभजिन स्तवन मेरो मन मोह्यो मूरतियां ५ १०. सुपार्श्वजिन स्तवन वीतराग तोरापाय शरणं ११. चन्द्रप्रभजिन स्तवन ,, चंद्रानगरीतुम्ह अवतार जी १२. सुविधिजिन स्तवन , प्रभुतेरे गुण अनंत अपार ७ १३. शीतलजिन स्तवन ,, हमारे हो साहिब शीतल० ७ १४. श्रेयांसजिन स्तवन , सुरतरु सुन्दर श्री श्रेयांस ८ १५ वासुपूज्यजिन स्तवन , भविका तुमे वासुपूज्य नमो ८ १६. विमलजिन स्तवन ,, जिनजी कुदेखि मेरउ मन.. १७. अनन्तजिन स्तवन गा.४ अनंत तेरे गुण अनंत १८. धमेजिन स्तवन गा.३ अलख अगोचर तू परमे० १० संकेत-स्त. स्तवन, गी.-गीत, गा.-गाथा, ग. गर्भित, मं.-मंडण. rm.xxr Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि १६. शान्तिजिन स्त. गा०४ शांतिनाथ सुणहु तू साहिब १० २०. कुन्थुजिन स्तवन गा०४ कुन्थुनाथ कुकरू प्रणाम ११ २१. अरजिन स्तवन गा०३ अरनाथ अरियण गंजणं ११ २२. मल्लिजिन स्त० , मल्लिजिन मिल्यउरी १२ २३. मुनि सुव्रत स्त०, सखि सुन्दर रे पूजा सतर० १२ २४. नमिजिन स्त० ,, नमुनमुनमि जिन चरण० १२ २५. नेमिजिन स्त० ,, यादवराय जीवे तूकोडि० १३ २६. पावजिन स्त० गा०४ माई आज हमारइ आणंदा १३ २७. वीरजिन स्तवत गा०३ ए महावीर मोकछु देहि दानं १४ २८. कलश , तीर्थंकर रे चौवीसे मैं संस्त० १४ (१० सं०१६५८ अहमदाबाद) २६. चौवीसजिन सवैया २५ नाभिराय मरुदेवी नंदन १५ ऐरवत क्षेत्र चतुर्विशति गीतानि (प्रथम के स्त० प्राप्त नहीं) ३०. जुत्तसेणजिन गीतम् गा०३ जुत्तसेण तीर्थकर सेती २२ ३१. अजित सेणजिन गी०, आवइ चौसठ इंदा २२ ३२ शिवसेनजिन गीतम् , दसमउ तीर्थंकर शिवसेन २३ ३३. देवसेनजिन गीतम् , साहिब तू है सांभलउ २३ ३४. नक्खत्त सत्थजिन गी.,, नमू अरिहतदेव नक्खत्त० २३ ३५. अस्संजलजिन गीतम् ,, तेरमउ अस्संजल तीर्थकर २४ ३६. अनन्तजिन गीतम् , अहो मेरे जिन कुकुण उप० २४ ३७. उपशान्तजिन गीतम् , बार परषदा बइठी आगलि २५ ३८.गुत्तिसेणजिन गीतम् ,, सोलमा श्री गुत्तिसेण २५ ३६. अतिपासजिन गीतम् ,, सतरमउ भी अतियास तीथं० २६ ४०. सुपासजिन गीतम् ,, सुपास तीथंकर साचउ सही री २६ ४१. मरुदेबजिन गीतम् ,, ओगणीसमउ मरु० अरिहंत २७ ४२. श्री सीधरजिन गीतम् गा०२ हिव हूँ वांदूरी वीसमउसी० २७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका ४३. सामकोठजिन गीतम् , श्रीसामकोठ तीथंकर देवा २८ ४४. अग्गिसेणजिन गीतम् , अग्गिसेण तीथंकर उपदिसइ २८ ४५. अग्गपुत्तजिन गीतम् ,, वीतराग वांदस्यु रे हिव हूँ २८ ४६. वारिसेणजिन गीतम ,, वारसेण तीथंकर ए चउवी० २६ ४७. कलश गा० २ (र. सं. १६६७) गाया गायारी ऐरवत तीर्थ गाया २६ विहरमान वीसी स्तवनाः ४८. सीमंधर जिन गी० गा० ३ सीमंधर सांभलउ ३० ४६. युगमंधरजिन गी० गा० ४ तू साहिब हूँ सेवक तोरउ ३० ५०. बाहुजिन गीतम् गा०३ बाहनाम तीथकर द्यउ मुझ ३१ ५१. सुबाहुजिन गीतम् , सामि सुबाहु तू अरिहत देवा ३१ ५२. सुजातजिन गीतम् ,, सुजात तीथंकर ताहरी ३२ ५३. स्वयंप्रभ गीतम् , स्वयंप्रभ तीथकर सुन्दरु ए ३२ ५४. ऋषभानन गीतम् , एउ २ ऋषभानन अरिहंत नमो ३२ ५५. अनन्तवीर्य गीतम् . , अनतवीरिज आठमउ तीर्थकर ३३ ५६. सूरिप्रभजिन गीतम् , श्री सूरिप्रभ सेवा करिस्यु ३३ ५७. विशालजिन गीतम् , जिनजी वीनति सुणउ तुम्हे ३४ ५८. वज्रधरजिन गीतम् गा०२ वज्रधर तीर्थोकर वांदू पाय ३४ ५६. चन्द्राननजिन गी० गा०३ चन्द्रानन जिणचन्द ६०. चन्द्रबाहुजिनगीतम् ,, चन्द्रबाहु चरण कमल ६१. भुजङ्गजिन गीतम् , भुजङ्ग तीर्थङ्कर भेटियइजी ३६ ६२. ईसरजिन गीतम् , ईसर तीर्थंकर आगइ ३६ ६३. नेमिजिन गीतम् , विहरमान सोलमउ तू ३७ ६४. वीरसेनजिन गीतम् , वीरसेन जिन नी सेवा कीजइ ३७ ६५. महाभद्रजिन गीतम् , महाभद्र अढारमउ अरिहंत ३७ ६६. देवयशा जिन गीतम् ,, देवजसा जगि चिरजयउ ३८ ६७. अजितवीर्यजिन गी०, हां मेरी माई हो अजितवीरज. ३८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ७५. " OG ६८. कलश गा०७ वीस विहरमान गाया (अहमदाबाद १६६७ सं०) ६६. वीस विहरमान स्त० गा०२३ प्रणमिय शारद माय (४ बोल गर्मित) ७०. , ,गा०४ वीस विहरमान जिनवर रायाजी४३ ७१. श्री सीमंधर स्वामि स्त० ,, ५ पूर्व सुविदेह पुष्कल विजय० ४५ (संस्कृत) गा०६ धन धन क्षेत्र महाविदेहजी ४६ गा०६ विहरमान सीमंधर स्वामी ४७ गा०३ चंदालाइ एक करु अरदास ४७ गा०३ सीमंधर जिन सांभलउ गा०७ स्वामि तारि नइ रे मुझ गा०६ पूरब महाविदेह रे । ४६ ७८. सीमंधर स्वामि गी० गा०३ सामि सीमंधरा तुम्ह मिल० ५० ७६. युगमंधरजिन गी० गा०५ तू साहिब हूँ तोरउ ८०.शास्वतजिन चैत्य प्रतिमा । स्तवन गा० १८ ऋषभानन वधमान ८१. तीर्थमाला वृहत्स्त. श्लोक १६ श्री शत्रुञ्जय शिखरे (संस्कृत) ५४ गा०१६ सेत्रुब्जे ऋषभ समोसरच! ५६ ८३. , गा०१० श्री सेत्र ञ्जि गिरि शिखर ५८ ८४. तीरथ भास गा०६ सखि चालउ हे (२)चतुर सु. ६० ८५. अष्टापद तीर्थ भास गा०६ मोसमन अष्टापद सँ मोहउँ ६१ (सं० १६५८ अहमदाबाद) ८६. अष्टापद तीर्थ मास गा०५ मनहुँअष्टापद मोहाँ माहरे ६३ ८७. , मंडन (शांतिजिन) गीतम् गा०४ सो जिनवर प्रियु कहउ मोहि० ६४ ८२. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका ८. श्री शत्रुञ्जय आदि०भास गा०४ चालउ रे सखि शत्र जय० ६५ ८. गा.११ (स. १६४८) सकल तीरथ मांहि सुदरु ६७ ,गा.६ (स. १६५८) मुझ मन उलट अति घणउ ६८ ,,(आलोयणा ग.) स्त. गा० ३२ बेकर जोड़ी वीनवू' जी ७० भास गा०५ सामी विमलाचल सिणगार०७३ , म्हारी बहिनी हे० सुरिण एक. ७४ ', गीतम् गा० ३ इया मो जनम की सफल० ७६ ६५. , , ,, ३ ऋषभ की मेरे मन भगति० ७६ , , गा. ४ क्यों न भये हम मोर, विमल० ७७ १७. श्री बाबू तीर्थ स्त० गा० ७ आबू तीरथ भेटियउ (र० सं० १६५७) ६८. श्री बाबू आदीश्वर भास आबू पर्वत रूयडउ आदोसर ७८ गा०७ (स० १६७८) LE. श्री अर्बुदाचल युगा० गो० सफल नर जन्म मनु आज० ८० १००. पुरिमताल आदि० भास ,,४ भरत नइ द्यइ अोलंभड़ारे ८१ १०१. आदि देवचंद गीतम् गा०२ नाभि रायां कुलचंद १०२. राणपुर आदिजिन स्त०,७ राणपुरइरलियामणउरे लाल ८२ (सं० १६७२) १०३. बीकानेर (चौवीसटा) स्त. भाव भगति मन आणी घणी ८३ गा०१५ (सं०१६-३) १०४. श्री विक्रमपुर आदिनाथ स्त. श्री आदीसर भेटियउ ८५ गा.११ १०५. गणधरवसही , स्त. प्रथम तीर्थंकर प्रणमिये हुँ० ८६ गा.१२ (सं.१६८० जैसलमेर) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि १०६. सेत्रावा मं० आदि० स्तवन मूरति मोहन वेलड़ी गा० १६ (सं० १६५५) १०७. ऋषभ हुलरामणा गी. गा.४ रूड़ा ऋषभजी घर आवउ रे ६० १०८. सिन्धी भाषा आदिजिन स्त. मरू देवी माता इबइ आखइ ११ गा०१० १०६.सुमतिनाथ वृहत्त० गा १३ प्रह ऊठी नइ प्रणमुपाय ६२ ११०. पाल्हणपुर मं०४४ सेवउ श्री चंद्रप्रभ स्वामी ६३ रागद्वयार्थ स्तवन गा० १२ १११. चंद्रवारि मंडन चन्द्रप्रभ चंद्र भेट्यउ मई चदवारि ६६ भास गा०२ ११२. श्री शीतलनाथ० स्त० गा०३ मुख नीको शीतलनाथ को ६६ ११३. , गूढार्थ गीत गा०३ कहर सखि कउरण कहीजइ ६७ ११४. श्री अमरसर म.शीतलजिन मोरा साहिब हो श्री शीतल० १७ स्तवन गा० १५ ११५. मेड़ता मं० विमल० स्तवन विमलनाथ सुणौ वीनति १०० गा०१५ ११६. आगरामं० विमलनाथ भास देव जुहारण देहरइ चाली १०२ गा०४ ११७. श्री शांतिनाथ गीतम् गा० ३ शांतिनाथ भजे (संस्कृत) १०३ ११८. पाटण शांतिनाथ पञ्चकल्या एक गर्भित देवगृह वर्णन युक्त दीर्घ स्तवनम् गा० २५ (प्रारम्भिक १६गाथा अप्राप्त) १०४ ११६. जेसलमेर मं० शान्तिजिन अष्टापद हो ऊपरलो प्रासा० १०६ स्तवन गा०७ १२०. श्री शांतिजिन स्तवनम् गा.६ सुन्दारूप सुहामणो १२१. श्री शांतिनाथ हुल.गी.गा.४ शांतिकुंयर सोहामणो १०८ १२२. श्री शांतिजिन स्तवनम् गा.५ सुखदाई रे सुखदाई रे १०६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका १२३. , गा.३ श्रांगण कल्प फल्यउरी ११० १२४. श्री गिरनारतीरथ भा० गा.८ श्री नेमिसर गुनिलउ ११० १२५. श्री गिरनार नेमिनाथ उलभा दूरि थकी मोरी वन्दणा १११ भास गा०४ १२६. श्री गिरनार नेमिनाथ उलंभा परतिख प्रभु मोरी वंदणा ११२ उतारण भास गा०४ १२७. श्री सौरीपुर मंडन नेमि भास सौरीपुर जात्र करी प्रभु तेरी ११२ गा.४ १२८. नडुलाइम. नेमि भा. गा.२ नडु इनिरख्यउ जादवउ ११३ १२६. श्री नेमिराजुल गी० गा.६ चांपा ते रूपइ रूयड़ा ११३ १३०, गा.६ दीप पतंग तणी परइ सुपि __ यारा हो ११४ १३१. , गा.५ नेमजी रे सामलियर __ सोभागी रे ११५ , १३२. श्री नेमिनाथ गीतम् गा. ५ नेमजी सु जाउ रे साची प्रीतड़ी ११६ १३३. श्री नेमिनाथ फाग गा.८ मास वसंत फाग खेलत प्रभ ११७ १३४. श्री नेमि. सोहला गी. गा. ८ नेमि परणेवा चालिया ११७ १३५. श्री नेमि. , गा.५ मुगति धूतारी म्हारउ १३६. नेमिनाथ फाग गा.१३ आहे सुन्दर रूप सुहामणउ ११६ १३७. , बारहमासा गा.१४ सखि आयउ श्रावण मास १२० १३८. , गीतम् गा.३ कांइ प्रीति तोड़इ १२२ गा.३ देखउ सखि नेमि कत आवइ १२२ ,, ३ तोरण थी रथ फेरि चले १२३ ,, ३ मोकू पिउ बिन क्यु सखि १२३ १४२. , , २ एक वीनती सुणो मेरे मीत हो१२४ १४३. , , ३ यादव वंश खाणि जोवतां जी १२४ १४१. , Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि १४६. " १४८. " १४४. गिरनार मंडन नेमि गी.,, ३ औ देखत उँचउ गिरनारि १२५ १४५. नेमिनाथ गीतम् ,, ४ छपनकोड़ि यादव मिलि आए १२५ , ३ उग्रसेन की अंगजा १२६ १४७. ,, ,, ४ चन्दइ कीधउ चानणउ रे १२६ , ३ नेमजी मन जाणइ के सर जण हारा १२० १४६. , ,, ६ सामलियउ नेमि सुहावइ रे सखियां १२७ १५०. , गूढा गीतम् , ३ सखि मोऊ मोहन लाल मिलावई १२८ १५१. , गीतम् अपूर्ण नेमि नेमि नेमि नेमि १२८ १५२. ,, शृङ्गार वैरा.गीत ,, ४ कृपा अमूलिक कांचली रे १२६ १५३. , चारित्र चूनड़ी , २ तीन गुपति ताण तण्यउ रे १३० १५४. , गूढा गीतम् , ३ लालण को लयु री समझाइ १३० १५५. , गीतम् , ३ एतनी बात मेरे जीउ खटकइरी १३० १५६ नेमिनाथ गीतम् गा. ५ सखि यादव कोड़ि सुं परवरे १३१ १५७ , , गा. ३ विण अपराध तजी मुनइ बालम १३२ १५८.सिंधी भाषामय नेमिस्त.गा.४ साहिब मइडा चंगी सूरति १३२ १५६. नेमि. राजी. सवै. (त्रुटित)... (प्रारंभ के ८॥ कम व अन्त के त्रुटित) १३३ १६०.पार्श्वनाथ अनेकतीर्थ स्त.गा.४हो जग मईपास जिणंदजागइ१४३ १६१.जेसलमेर पार्श्व.गी.गा. ३ जेसलमेर पास जुहारउ १४४ १६२. फलवर्द्धि पार्श्व स्तवन गा.१० फलवधि मण्डण पास १४४ १६३. " , गा.४ प्रभु फलवधी पास परभाति पूजउ १४५ १६४. सप्तदश राग गर्भित जेसल. पार्श्वस्त. गा.४७ (सं.१६५६) पुरिसादानी परगढ़उ १४६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका १६५. लौद्रवपुर सहसफणा पार्श्व - स्त०६ (सं.१६८१) लौद्रपुरइ आज महिमा घणी १५३ १६६. , , स्त. गा. २ चालउ नौद्रवपुरे १६७.श्रीस्तंभन पाव. स्त्रो. गा. ८ (प्राकृत) नमिर सुरासुर खयर राय० १५४ १६८. , , स्त. गा. ७ सदा सयल सुख संपदा हेतु जाणी १५७ १६६. , , गा. ५ सफल भयउ नर जन्म १५८ १७०. , गा.५ बेकर जोड़ी बीन रे १५६ २७१. . गा.३ भले भेट्यउरे पास जिणेसर. १५९ १७२. कंसारी-त्रंबावतीमंडन भीड़ भंजन पार्श्व. स्त. गा. ४ चालउ सखी चित चाह सू, १६० १७३. ,, , ,, ४ भीड़ भंजण तु श्री अरिहंत १६१ १७४. , , ,, ३ भीड़ भंजन तुम पर वारी हो.१६१ १७५. , , ,, ,, भीड़ भजन रे दुख गंजन रे १६१ १७६. नाकोड़ा पार्श्वनाथ स्त. गा. आपणे घर बइठा लील करो १६२ १७७. संखेश्वर पार्श्व स्तवन ,, ५ परचा पूरइ पृथ्वी तणा १६३ १७८, , ,,३ सकलाप पाश्व संखेश्वरउ १६४ १७६. , , ३ संखेश्वरउ रे जागतउ तीरथ० १६४ ,, ५ साच उ देव तउ संखेश्वरउ १६५ १८१. श्री गौड़ी पार्श्वना. स्त.,, ७ गौड़ी गाजइरे गिरुयउपारस. १६५ १८२. ., ७ ठाम ठाम नासंघ श्रावइयात्रा१६६ ,, ३ परतिख पारसनाथ तू गौड़ी १६७ १८४. , ३ तीरथ भेटन गइ सखि हुं० १६७ , ३ गउड़ी पारसनाथ तु वारू १६८ ,, ३ गउड़ी पारसनाथ तूं गाजइ १६८ १८७. भाभा पार्श्वनाथ स्त०, ३ भाभउ पारसनाथ मई भेट्यउ १६८ १८०. १८३. १८५. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) "" "9 १८८. १८६. श्री सेरीसा पार्श्व .,, १६०. श्री नलोल पार्श्व. १६१. श्री चिन्ता. पार्श्व १६२. 97 १६३. सिकन्दरपुर १४. अजाहरा पार्श्व. १६५. १६७. "" १६६. श्री नारंगा पार्श्व. स्त. गा. ६ पारस. कृपा पर, पाप राउ. ३ पाटण मांहिं नारंग पुरउरी ४ पाटण में परसिद्ध धरणी ३ चउमुख वाड़ी पास जी "" "" १६८० १६६. वाड़ी पार्श्वनाथ भास २००. मङ्गलोर नव पल्लव पार्श्व 19 93 35 समय सुन्दर कृति कुसुमाञ्जलि 39 Jain Educationa International "" "" - 23 " 33 99 75 "" भास ३ भाभा पारसनाथ भलु करइ १६६ 39 ३ सकलाप मूरति सेरीसइ १६६ ३ पद्मावती सिर उपरि १७० ७ आणी मन सूधी आसता १७० " ३ चिन्तामणि म्हारी चिंता चूरि १७१ " ४ स्यामल वरण सुहामणी रे १७१ " ४ श्रव देव जुहारउ अजा 37 ܕ "" 33 ४ आवड जुहारउ र अजाह रे भास 13 २०१. देवका पाटण दादा पार्श्व० भास ४ २०२. श्रमीकरा पार्श्व. गीतम्, ३ २०३. शामला पार्श्व. गीतम्,, ३ २०४. अन्तरीक्ष पार्श्व. गीतम्,, ३ २०५. बीबीपुर चिंतामणि पार्श्व हरउ पास १७२ रउ पास १७२ ५ नवपल्लव प्रभु नयणे निरख्यउ १७६ 39 १७३ १७४ १७५ १७५ देवकइ पाटण दादउ पास १७७ भले भेट्यउ पास अमीरउ १७७ साचउ देव तउ ए सामलउ १७७ पार्श्वनाथ परतिख अंतरीख १७८ गीतम् २०६. भड़कुल पार्श्व. गीतम् २०७. तिमरीपुर पार्श्व गीतम्, २ तिमरीपुर भेट्या पास 29 ३ चिंताम० चालउ देव जुहारण १७८ ३ भड़कुल भेटियउ हो १७८ "3 For Personal and Private Use Only जिणेसर १७६ २०८. वरकाणा पार्श्व गीतम्,, ३ जागतउ तीरथ तूं वरकारणा १७६ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका ( ११ ) - - २०६. नागौर पावं. स्तवनम् ,, (सं० १६६१ चै.व. ५) पुरिसादानी पास, १८० २१०. पार्श्व. लघु स्तवन ,४ देव जुहारण देहरइ चाली० १८१ २११. संस्कृत प्राकृत मय पार्श्व स्तो० गा. लसरणाण-विन्नाण सन्नाण मोहं१८२ २१२. तीर्थकर (२४) गुरू नाम गर्भित पार्श्व स्त. गा.. (सं. १६५१ खंभात) वृषभ धुरंधर उद्योतन वर १८४ २१३. इर्यापथिकी वि, गर्भित पार्श्व स्त० गा. ४ मणुया ति सय तिडुत्तर १८५ २१४. पार्श्वनाथ लघु स्त. गा.६सं. प्रकृत्यापि बिना नाथ १८६ २१५. , यमकबद्ध स्तवनम् गा.पार्श्वप्रभु केवल भासमानं १८७ २१६. श्लेषमय चिंतामणि पार्श्व उपोपेत तपो लक्ष्म्या स्तवन गा.५सं० २१७. शृङ्खजामय पार्श्वनाथ स्तवन प्रणमामि जिनं कमला सदनं १८६ गा.६स० २१८. श्री संखेश्वर पार्श्व लघु स्त० श्री संखेश्वर मण्डन हीरं १६० गा. ५सं० २१६. अमीझरा पाव० पूर्व कवि अस्त्युत्तरास्यादिशि देवतात्मा१६१ प्रणीत द्वयर्थ स्त० गा.७ २२०. पार्श्वनाथ यमक मय स्तोत्र प्रणत मानव मानव मानवं १६२ गा.५ २२१. पार्श्वनाथ शृङ्गाटक बंध कमनकंद निकंदन कर्मदं १९३ स्तवनम् गा.१० २२२. , हारबद्ध शृङ्गाटक बंदामहे वरमतं कृत सातजातं १६४ स्तवनम् गा.८ २२३. संस्कृत प्राकृत भाषामय भलू आज भेट्यप्रभोः पाश्वनाथाष्टक गा. पाद पद्मम् १६६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि २२४. अष्ट प्रातिहार्य ग. पार्श्व स्त. कनक सिंहासन सुर रचिय १६% गाह २२५. पार्श्व पञ्च कल्याणक स्त० श्री पास जिनेसर सुख करणो १६६ गा. २२६. पार्श्वजिन (प्रतिमा स्था०) श्री जिन प्रतिमा हो जिन स्त० गा.७ सारखी कही २०० २२७. पार्वजिन (दृष्टान्तमय) हरख धरि हियडइ मांहि स्त० गा. अति घणउ २०० २२८. महावीर जिन (जेसलमेर) वीर सुणो मोरी वीनती २०२ वीनति स्त० गा.१६ २२६. , (साचोर) स्त. गा.१४ धन्य दिवस मई आज जुहा(सं० १६७७) रथ २०५ २३०. महावीरजिन (भोडुया ग्राम) महावीर मेरउ ठाकुर: २०६ स्त० गा.३ २३१. श्री महावीर देव गीतम् गा.४ स्वामी मुं नइ तारो भव पार उतारउ २०७ २३२. , ,, गा.३ नाचति सुरिआभ सुर २०७ २३३. , , गा. ६हां हमारे वीरजी कुण रमणी एह२०८ २३४. ,, मुरिआम नाटक नाटक सुरविरचिति सुरि० २०६ गीत गा.२ २३५. श्रेणिक विज्ञप्ति महावीर कृपानाथ तई कुरण हू नुगीतम् गा.४ धर्यउरी २०६ २३६. महावीर सुरिश्राम नाटक) रचति वेष करि विशेष जिन गीतम् गा. २ २३७. श्री महावीर षट् कल्याणक परम रमणीय गुण रयण स्त० गा. २३ गण सायरं २११ २१० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका २३८. छन्द जातिमय बीतराग श्री सर्वज्ञं जिन स्तोष्ये २१५ स्तव गा. २२ सं० २३६. शास्वत तीर्थकर स्त० गा.५ शास्वता तीर्थकर च्यार २१८ २४०. सामान्य जिन स्तवनम् गा.३ प्रभु तेरो रूप बण्यो अति नीको २१६ २४१. , , , ३ शरण ग्रही प्रभु तारी २१९ २४२. अरिहन्त पद स्तवनम् ,, ३ हां हो एक तिल दिल में . आवि तु २१६ २४३. गिन प्रतिमा पूजा गी. , ६ प्र० पूजा भगति भाखि रे २२० २४४. पञ्च परमेष्ठि गीतम् , ६जपउ पञ्चपरमेट्ठि परभाति जापं २२१ २४५. सामान्य जिन गतिम् ,, २ हरखिला सुरनर किन्नर सुन्दर २२१ २४६. सामान्य जिन गीतम् ,, ३ जगगुरु तारि परम दयाल २२२ २४७. सा० जिन प्रांगी गी० ,, ४ नीकी प्रभु आंगी वणी जो २२२ २४८. तीर्था समवशरण गी.,,१० विहरन्ता जिनराय २४६. चत्तारि अट्ठ दस दोय जिनवर भत्ति समुल्लसिय २२४ गर्भित स्त० गा. १७ २५०. अल्पाबहुत्व गर्भित स्त.गा.२२ अरिहन्त केवल ज्ञान अनंत २२६ २५१. चौवीस दण्डक स्त. गा. १३ श्री महावीर न कर जोदि २३० २५२. श्री घंघाणी तीर्थ स्तवन पाय प्रणमूरे पद पंकज गा. २४ (सं० १६६२) प्रभु पासना २३२ २५३. ज्ञान पञ्चमी वृहत्स्तवन प्रणमूं श्री गुरु पाय २३६ गा. २० (सं० १६६६) २५४. ज्ञानपञ्चमी लघु स्त० गा.५ पञ्चमी तप तुम करोरे प्राणी २३६ २५५. मौनेकादशी स्तवन गा. १३ समवसरण बैठा भगवन्त २४० (सं०१६८१ जेसल.) २५६. पर्युषण पर्व गीतम् गा.३ पजूसण पर्वरी भलइ आये २४१ २५७.रोहिणी तप स्तवन गा.५ रोहि. तप भविश्रादरोरेलाल २४२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि २४७ २५८, उपधान (गुरु वाणी) गीतम् वाणि करावउ गुरुजी वाणि गा. करावउ २४३ २५६. उपधान तप स्तवन गा १८ श्री महावीर धरम परकासइ २४४ साधु गीतानि २६०. अइमत्ता ऋषि गी० गा.२ बेड़ली मेरी री २६१. , गा.३ अपूर्ण श्री पोलास पुराविप विजइ २४७ २६२. अनाथी मुनि गीतम् गा. श्रेणिक रयवाड़ी चढ्यउ २४८ २६३. अयवन्ती सुकुमाल गी. ,, ५ नयरी उज्जयिनी मांहि वसइ २४६ २६४. अरहन्नक मुनि गी० गा. विहरण वेला पांगुस्थउ हाँ २४६ २६५. , , गा.७ विहरण वेला ऋषि पांगुस्थउ २५० २६६. , , मा. ८ अरणिक मुनिवर चाल्या गोचरी २५१ २६७. श्रादीश्वर ६८ पुत्र प्रतिबोध शांतिनाथ जिन सोलमउ २५३ गा. ३२ २६८. आदित्ययशादि ८ साधु भावना मनि शुद्ध भावउ २५७ गीतम् गा. ४ २६६. इलापुत्र गीतम् गा. १८ इलावरध होनगरी नुं नामकि २५७ २७०. , गा. नाम इलापुत्र जाणियइ २६१ २७१. उदयनराजर्षि गीतम् गा. २० सिंधु सौवीरइ वीतभउ रे २६२ २७२. खंदक शिष्य गीतम् गा.५ खंदक सूरि समोसरथा रे २६४ २७३. गजसुकुमाल मुनि गी.,, ५ नयरी द्वारामती जाणियइ जी २६६ २७४. थावच्चा ऋषि गीतम् ,, ५ नगरी द्वारिका निरखियइ २६६ चार प्रत्येक बुद्ध गीत:२७५. करकण्डू प्रत्येक बुद्ध गीतम् गा.५ चंपानगरी अति भली हुँ वारी २६७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६. दुमुह प्रत्येक बुद्ध गी. २७७. नमि प्रत्येक बुद्ध गी. २७८. 33 27 २८१. विलाती पुत्र गीत २८२. जम्बू स्वामी गीत २७६. नग्गई प्रत्येक बुद्ध गी. २८०. चार प्रत्येकबुद्ध संलग्न 31 19 २८७. २८. प्रसन्नचंद्र राजर्षि गी. 19 95 २८६. २६०. बाहुबलि गीतम् अनुक्रमणिका " "" २६१. २६२. भवदत्त नागिला गी. २६३. मेतार्य ऋषि गीत Jain Educationa International ( १५ ) ७ नगरी कंपिला नउ धरणीरे २६८ 23 ६ नयर सुदरसण राय होजी २६६ " 19 ७ जी हो मिथिला नगरी नउ राजियउ २७१ २७२ "" 19 २८३. २८४. ढंढरण ऋषि गीतम् २१ "" २७८ (सं. १६६२ ईदलपुर) नगरी अनोपम द्वारिका २८५. दशार्णभद्र गीतम् ६ मुगध जन वचन सुखि राय २८१ २८६. धन्ना (काकंदी) अणगार गीत "3 59 १५ सरसती सामण वीनवु २८३ ६ वीर जिणंद समोसरचाजी २८५ "" ५ मारग महं मुझ नइ मिल्यउ २८६ " २७५ गा. ५ चिहुं दिशि थी चारे आवियारे २७४ गा. ६ पुत्री सेठ धन्ना तणी गा १२ नगरी राजगृह मांहि वसइरे २७६ ५ जाऊँ बलिहारी जंबूस्वामिनी रे२७७ 39 99 गी. ६ पुण्ड्रवर्द्धन पुर राजियउ ६ प्रसन्नचद्र प्रणमूँ तुम्हारा पाय २८७ "" ४ तखिसिला नगरी रिषभ मोर्या रे 37 ७ राज ता श्रति लोभिया २८६ ८ भवदत्त भाई बरि आवियउरे २६० 93 39 99 ७ नगर राजगृह मांहि वसउजी २६१ ७ सुग्रीव नगर सोहामगु रे २६२ दसमइ भव श्री शांति जी २६३ 99 २६४. मृगापुत्र गीतम २६५. मेघरथ (शांतिजिन १० म भव) गीतम् गा. २१ २६६. मेघकुमार गीतम गा. ५ धारणी मनावइ रे मेघकुमार For Personal and Private Use Only नइ रे २६७ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ३०६. २६७. रामचन्द्र गीतम् ,, ५ प्रियु मोरा तइ आदरघउ वइराग २६८ २६८. राम सीता गीतम् , ४ सीता नइ सन्देसो रामजी मोकल्यउ रे २६४ २६. धन्ना शालिभद्र समाय,,३६ प्रथम गोपाल तणइ भवइजी ३०० ३००. शालिभद्र गीतम् गा. ८ धन्नउ शालिभद्र बेइं ३०४ ३०१. , , , ५ शालिभद्र आज तुम्हानइ ३०५ ३०२. , ,१० राजगृही नउ व्यवहारियउ रे ३०६ ३०३. श्रेणिक राय गीतम् ,, ४ प्रभु नरक पडन्तउ राखियइ ३०७ ३०४. स्थूलभद्र , ,, ६ मनड़उ ते मोह्यउ मुनिवर माहरू रे ३०८ ३०५. , , , ५ प्रियुद्दउ आव्यउरेमाशाफली३०६ , ४ प्रीतड़ी प्रीतड़ी न कीजइहे नारि ३१० , ७ प्रीतड़िया न कीजइ हो नारि परदेसियां रे ३११ , ३ श्रावत मुनि के भेखि ३१३ ५ थूलभद्र आव्यउरे आसा फली ३१४ , ७ तुम्हे बाट जोवन्तां पाव्या ३१४ , ५ मुझ दन्त जिसा मचकुंद कली ३१५ , ४ व्हाला स्थूलभद्र हो स्थूलभद्र वाल्हा ३१६ ३१३. , , , ६ पिउड़ा मानउ बोल हमारउ रे ३१७ ३१४. सनत्कुमार चक्र. गी. , ७ सांभलि सनत्कुमार हो ३१८ ३१५. , , , ५ जोवा श्राव्या रे देवता ३१६ ३१६. सुकोशल साधु गी. , ६ साकेत नगर सुखकन्द रे ३२० ३१७. संयती साधु , ,११ कम्पिल्ला नगरी धणी ३२१ ३०७. mmmmmm ३१२. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका ( १७ ) सती गीतानि ३१८. अञ्जना सुन्दरी गी० गा.११ अञ्जनासुन्दरी शील वखाणि ३२२ ३१६. नर्मदा सुन्दरी ,, ,, ८ नर्मदा सुन्दरी सतिय शिरो. ३२३ ३२०. ऋषिदत्ता , ,, १७ रुक्मणी नइ परणवा चाल्यउ ३२५ ३२१. दवदन्ती सती भास , ११ हो सायर सुत सुहामणा ३२८ ३२२. दवदन्ती सती भास , ६ नल दवदन्तो नीसरया ३३१ ३२३. चुलणी भास , ५ नयरी कम्पिला नउ धणी ३३२ ३२४. कलावती सती गी०, ७ बांधव मूक्या बहरखा रे ३३३ ३२५. मरुदेवी माता ,, , १४ मरुदेवी माताजी इम भणइ ३३३ ३२६. मृगावती सती ,, ४ चन्द सूरज वीर वांदण आव्या ३३६ ३२७. चेलणा सती ,,, ७ वीर वांदी वलतां थकां जी ३३७ ३२८. राजुल रहनेमि ,, , ८ राजमती मनरङ्ग ३३६ ३२६. , , , २ रूड़ा रहनेमि म करिस्यउ - म्हारी आलि ३४० ३३०. , , , ५ यदुपति वांदण जांवतां रे ३४० ,, ,,, ५ राजुल चाली रङ्गासू रे लाल ३४१ ३३२. सुभद्रा सती ,, ५ मुनिवर अाव्या विहरताजी ३४२ ३३३. द्रौपदी सती भास ,, ५ पांच भरतारी नारी द्रुपदी रे ३४२ गुरु गीतानि ३३४. गौतम स्वामी अष्टक गा. = प्रह ऊठी गौतम प्रणमीजइ ३४३ ३३५. , गी० ,, ७ मुगति समय आणी करी ३४४ ३३६. , , ,, ३ गौतम नाम जपउ परभाते ३४५ ३३७. एकादश गणधर गी० गा.४ प्रात समइ उठि प्रणमियइ ३४६ ३३८. गहूंली गीतम् , प्रभु समरथ साहिव देवा रे ३४६ ३३६. खरतर गुरु पट्टावली ,, ८ प्रणमी वीर जिणेसर देव ३४७ ३३१. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ३४० गुर्वावली गोतम् , ३ उद्योतन वर्द्धमान जिनेसर ३४८ ३४१. दादा जिनदत्तसूरि गी., ३ दादाजी बीनती अवधारो ३४६ ३४२ दादा जिनकुशलसूरि अष्टकम् नत नरेश्वर मौलि मणि प्रभा ३४६ गा. ६ (सं० १६५१ गडालय) ३४३, दादा जिनकुशलसूरि आयो आयोजी समरन्ता गीतम् गा.३ दादौ पायौ ३५० ३४४ देरावर , गी. गा. ४ देरावर दादो दीपतउ रे ३५१ ३४५ ,, ,, ,, ३ आज आणंदाहो आज आर.३५२ ३४६. अमरसर ,, ,, ,, ४ दाखि हो मुझ रसण दादा ३५२ ३४७. उग्रसेनपुर ,, , ,४ पन्थी नइ पूछू वाटड़ी रे ३५३ ३४८. नागौर , ,, ,, ४ उल्लद धरि अमे आविया दादा ३५३ ३४६. दादा श्रीजिनकु० गीत ,, ३ पाणी पाणी नदी रे नदी ३५४ ३५०. पाटण ,, ,, ,, ६ उद उ करौ सङ्घ उदउ करौ ३५४ ३५१. अहम० , , ,, ७ दादो तो दरिसण दाखद ३५५ ३५२ दादा श्रीजिनकु० गी० ,, २ दादाजी दीजइ दोय चेला ३५६ ३५३. भट्टारक त्रय गीतम् ,, ३ भट्टारक तीन हुए बड़ भागी ३५७ ३५४. श्रीजिनचन्द्रसूरि कपाट लौह श्री जिनचन्द्रसूरीणां ३५७ शृङ्खलाष्टक गा. ३५५. युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि गो. पणमिय पास जिणंद ३५६ गाथा १६ ३५६. , अष्टकम् गा.८ एजी संतन के मुख वाणि सुणी ३६१ ३५७. , (६ राग ३६ रागिणी कीजइ ओच्छव संता० ३६५ नाम) गीत गा. १५ (सं.१६५२ खंभात) '३५८. युगप्र० चन्द्राउला गी. गा.४ श्री खरतरगच्छ राजियउ रे ३६८ ३५६, , स्वप्न गीलम् , ६ सुपन लमु साहेलड़ी रे ३७० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका ( १६ ) ३६२. " " ३६०. , छन्द ,, ४ अवलियउ अकबर तास० ३७० ३६१. , गीतम् ,, ३ भलइ री माई श्रीजिनचन्द्र सूरि आये ३७१ ,, ३ सुगुरु चिर प्रतपेतू कोड़ि वरीस ३७२ ३६३. , , , ३ पूज्य जी तुम चरणे मेरउ मन लीणउ ३७२ ३६४. ,, छन्द , ७ सुगुरु जिणचन्द सोभाग_ ___ सखरो लियो ३७३ ३६५. , आलिजा गीत ,, ११ पासू मास वलि आवियउ पूजजी ३७४ ३६६. ,, ,, गा. १० अपूर्ण थिर अकबर । थापियउ ३७७ ३६७. श्री जिनसिंहसूरि (वेली) श्री गौतम गुरु पाय नमो ३७८ गी.गा.५ ३६८. श्रीजिन. (हिंडो.) ,, ,, ५ सरसति सामिणो वीनवू ३८० ,,, ६ चालउ सहेली सहगुरुवादिवा ३८० ३७०. ,, (प्रा० पद),, , ३ आज मेरे मन की आस फली ३८२ ३७१. , , , ३ श्राजकु धन दिन मेरउ ३८३ ३७२. , (बधाना) ,, , ६ आज रङ्ग बधामणा ३८३ ३७३. ,, (बधाई) ,, ,, २ अरी मोकु देहु बधाइ ३८४ ३७४. श्री जिनसिंह सूरि (चौमासा) गीतम् गा. ४ श्रावण मास सोहामणो ३८४ . ,,, ५ आचारिज तुमे मन मोहियउ ३८५ ३७६. ,, ,, ६ चिहुँ खंडि चावा चोपड़ा ३८६ ३७७. ,,, ६ ग्रह उठी प्रणमू सदा रे ३८७ , ४ मुझ मन मोह्यो रे गुरुजी ३८७ ३७६. ,, ,, ३ अमरसर अब कह उ केती देर ३८८ ३६६. " ३७५. . " ३७८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) ३८०. ३८१. ३८२. ३८३. ३८४. ३८५. ३८६. ३८७. ३८८. ३८६. ३६०. ३६१. ३६६. " 35 ४००. ४०१. 36 35 "" "" C 59 99 33 19 "1 "" "" : "5 "" ११ در समयसुन्दर कृति कुसुमाञ्जलि "" 55 Jain Educationa International "3 23 सवैयाष्टक चर्चरी 22 33 93 गीतम् " 35 तरसइ ३६७ "" "" ३६२. ३ तुम चलाउ सखि गुरु वंदण ३६८ ३ आज सखी मोहि धन्य जोयारी ३६८ ३ श्रीजिनसिंघ सुरिंह जयउरी ३६६ ३ जिनसिंह सूरि की बलिहारी ३६६ ३ पंथियरा कहिओ एक संदेश ४०० "3 ३६३. 99 55 ३६४. श्रीजिन सिंहसूरि गी. 19 ३६५. ३६६. ३६७. ३६८. 37 33 " , तिथि वि. 35 35 39 " 33 ०. श्रीजिनराजसूरि गी. "" 59 ५ सुन्दर रूप सुहामरणो रे ३८८ ३ सुउरी सुरण मेरे सदगुरु 99 २ सदगुरु से ८ एजु लाहोर नगर वर, पातसाह 33 99 " 39 ५ वे मेरे काहेरी सेवरे ५ श्री श्राचारज कइयइ श्रावस्य३३६५ ५ सूयटा सोभागी, कहि किहाँ "" वयणा ३८६ हो शुभ मतियां ३६० ४ मारग जोवंतां गुरुजी तुम्हें "" 39 35 32 अकबर ३६० ३६३ "" २ भीर भयउ भविक जीव ३ गुरु के दरस अंखियां मोहि 77 91 39 सुगुरु दीठा ३६५ ३ ललित वयण गुरु ललित नय ४०० "" ३ बलिहारी गुरु वदनचंद बलि . ४०१ 33 ३ व सुगुण साहेलड़ी ४०१ ५ पड़िवा जिम मुनि वड़उ ,, भलइ० ३६६ ३६७ ४०२ ५ चतुर लोक राजइ गुणे रे ४०३ " ३ भट्टारक तुझ भाग नमो ३ भट्टारक तेरी बड़ी ठकुराई For Personal and Private Use Only ४०३ ४०४ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका ( २१ ) ४०६. ४११. , ,, ५ तूं तूठउ द्यइ संपदा ४०४ ४०३. , , , ३ श्री पूज्य सोम निजर करो ४०५ ४०४. ,, (वियोग),, , ४ श्री पूज्य तुम्ह नइंबांदि चलता ४०५ ४०५. श्रीजिनसागरसूरि ,८ श्रीमज्जेसलमेरुदुर्गनगरे ४०६ अष्टकम् ( संत्र.) ४०६. गी.,, ३ सखि जिनसागरसूरि साचउ ४०८. ४०७. , ३ धन दिन जिनसागर सूरि ४०८ ४०८. ,, ३ जिनसाग० गच्छपति गिरुयउ ४०६ ३ जिनसाग० गच्छपति गिरुयउ ४०६ ४१०. ,, ३ अइओ नंद नंदना ४१० , ३ गुरु कुरण जिनसा. सरिखउरी ४१० ४१२. ३ वंदउ वंदउ जिनसा बदउरी ४११ ४१३. ,, ,, ५ बहिनी आवउ मिली वेलडोजी ४११ ४१४. श्रीजिनसागरसूरि ,, ,, ४ जिनसागरसूरि गुरु भला ए ४१२ ४१५. पुण्य संजोगइ अम्हे सदगुरु पाया ४१२ ४१६. ,, ,, ५ मनडु मोह्य रे माहरु ४१२ ,, ,, ५ न्याति चउरासी निरखतां रे ४१३ ४१८. सवया १ सोल शृङ्गार करइ सुन्दरी ४१४ ४१६. गी. गा.४ साहेली हे सागरसूरि वांदियइ ४१४ ४२०. ,, ,, ५ सिणगार करउ साहेलड़ी रे ४१५ ४२१. संघपति सोमजी वेलि ,,१० संघपति सोम तणउ जस सगले ४१५ ४२२. गुरु दुःखित वचनम् ,१६ क्लेशोपार्जितवित्तेन ४१७ (स०१६६६ राजधान्यां) ४२३. गुरु दुःखित वचनम् गा.५ चेला नहीं त उ मकरउ चिन्ता ४१६ औपदेशिक गीतानि ४२४. जीव प्रतिबोध गी. गा.२ जागि जागि जंतुया तु ४२० ४१७. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ४२५. ,,,, ३ रे जीव वखत लिख्या सुख लहियइ ४२१ ४२६. , ,, ,, ७ जिबड़ा जाणे जिन धर्म सार ४२१ ४२७. , ,, ,,११ जिवड़ा रे जिन ध्रम कीजियइ ४२२ ४२८. ,, ,, ,, ४ ए संसार असार छइ ४२३ ४२६. , ,, ,,१० अ सारा जाण असार संसार ४२४ ४३०.धम महिमा गीतम् गा. ६ रे जीया जिन धर्म कीजियइ ४२४ ४३१. जीव नटावा गीतम गा. ४ देखि देखि जीव नटावइ ४२५ ४३२. आत्म प्रबोध ,, गा. ७ बूझि रे तू बूझि प्राणी ४२५ ४३३. वैराग्य शिक्षा , गा. ५ म करि रे जीउड़ा मूढ ४२६ ४३४. घड़ी लाखीणी , गा. ५ घड़ी लाखीणी जाइ बे ४२७ ४३५. सूता जगावण , गा. ४ जागि जागि जागि भाई ४२७ ४३६, प्रमाद त्याग , गा. ५ प्रातः भयउ प्रात भयउ प्राणी ४२८ ४३७. , , गा. ५ जागौ रे (२) भाई प्रभात थयउ ४२८ ४३८. मन सज्झाय , ७ मना तने कई रीते समझाऊँ ४२६ ४३६. मन धोबी गीतम् ,, ६ धोबीड़ा तू धोजे रे मन केरा धोतिया ४३० ४४०. माया निवा० सज्झाय ,, ७ माया कारमी रे ४३० ४४१. , , , ४ इहु मेरा इहु मेरा (२) ४३१ ४४२. लोभ निवारण ,, ,, ३ रामा रामा धनं धनं ४३१ ४४३. पारकी होड नि० गी. , ३ पारकी होड तुंम कररे प्राणिया ४३२ ४४४. मरण भय निवा. ,, ,, २ मरण तण उभयम करि मूरख ४३३ ४४५. आरति निवारण ,, , ३ मेरी जीयु प्रारति कांइधरइ ४३३ ४४६. मन शुद्ध गीतम् , ३ एक मन शुद्धि बिन ४३४ ४४७ कामिनी विश्वास निरा करण गा. ३ कामिनी का कहि कुण ४३४ ४४८. स्वार्थ गीतम् , ६ स्वारथ की सब ह३ रे सगाई ४३५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ अंतरङ्ग बाह्य निद्रा निवारण ४५०. निद्रा गीतम् ४५१. पठन प्रेरणा गीतम् ४३.२ क्रिया प्रेरणा ४५३. जीव व्यापारी ४५४. घड़ियाली गीतम् गा. ४ नीद्रड़ी निवारो रहो जागता ४३५ ३ सोइ सोइ सारी रयरिण गुमाइ ४३६ ५ भगउरे चेला भाई भराउ रे. ४३६ ८ क्रिया करउ चेला क्रिया करउ ४३७ " "" ") Jain Educationa International अनुक्रमणिका ४५७ कर्म गीतम् ४५८. नावी गीतम् ४५६. जीव काया गीतम् ४६०. काया जीव गीतम् ४६१. जीव कर्म संबंध गी. در رد " ار "" ४५५. उद्यम भाग्य "" " ४५६ सर्वभेष मुक्तिगमनगी गा. ३ हां माई हर कोड भेख मुगति पावै ४३६ गा. ३ हां माई करमथो को छूटई नहीं ४४० २ नावा नीकीरी चलइ नीरमभार ४४० ६ जीव प्रति काया कहइ ४४१ ४ रूड़ा पंखीड़ा, मुन्छे मेल्ही म "9 " 39 ( २३ ) " ३ आये तीन जणे व्यापारी ४३८ ३ चतुर सुगउ चित लाइ के ४३८ ३ उद्यम भाग्य बिना न फलइ ४३६ " जाय ४४१ २ जीव नइ करम मांहों मांहि ४६२ सन्देह गीतम् ४६३. जग सृष्टिकर्त्ता परमेश्वर पृच्छा गीतम् गा. ३ " ४६४. करतार गीतम् ४३५. दुषमा काले संयम पालन गीतम् गा. २ पलइ ४४४ ४६६. परमेश्वर भेद गीतम्, १७ एक तू ही तूं ही, नाम जुदा मुहि० ४४४ ४६७. परमेश्वर स्वरूप दुर्लभ गी. कुण परमेसर सरूप कहइ री ४४५ गा. ३ संबन्ध ४४२ ३ करम अचेतन किम हुयउ करता ४४२ पूछू पंडित कहउ का हकीकत ४४३ For Personal and Private Use Only ५ कबहु मिलइ मुझ जो करतारा ४४३ हां हो कहो संयम पथ किम Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ४६८. निरंजन ध्यान गीतम् गा. २ हां हमारइ पर ब्रह्म ज्ञानं ४४६ ४६६. परब्रह्म गीतम् , ३ हुँ हमारे पर ब्रह्म ज्ञानं ४४६ ४७२. जीषदया गीतम् , ३ हां हो जीवदया धरम वेलड़ी ४४७ ४७१.वीतरागसत्यषचन गी ,, ३ हां हो जिनधर्म जिनध्रम सहु कहइ ४४७ ४७२. कर्म निर्जरा गीतम् ,, ५ कर्म तणी कही निर्जरा ४४७ ४७३. वैराग्य सज्झाय , ५ मोक्ष नगर मारु सासरूँ ४४८ ४७४ क्रोध निवारण गी. , ३ जियुरातू म करि किण रोस ४४६ ४७५. हुंकार परिहार गी , २ जहां तहां ठउर ठ र हूँ हूँ हूँ ४४६ ४७६. मान निवारण गी. ,, ३ मूरख नर काहे कुकरतगुमान४४६ ४७७ , गी. , ३ किसी के सब दिन सरिखे न . होइ ४५० ४७८. यति लोभ निवा. गी. , २ चेला चेला पदं पदं ४५० ४७६. विषय निवारण , , ३ रे जीव विषय थी मन वालि ४५१ ४८०. निन्दा परिहार , ,. ४ निन्दा न कीजई जीव पराई ४५१ ४८१. निन्दा वारक ,, ,, ५ निन्दा म करजो कोई नी. पारकीरे४५१ ४८२. दान गीतम , ४ जिनवर जे मुगतइ गामी ४५२ ४८३.शील गीतम , ३ सीलव्रत पालउ परम सोहा मणउ रे ४५३ ४८४. तप गीतम् ,, ३ तप तप्या काया हुई निरमल ४५३ ४८५. भावना गीतम् , ३ भावना भावज्यो रे भवियां ४५४ ४८६. दान-शील-तप-भाव गूढा ग्रहपति पुत्र ऋतूत करउ ४५४ गीतम् गा. ३ ४८७. तुर्य वीसामा , २ भार वाहक नइ कहा ४५५ ४८८ प्रीति दोहा , ४ कागद थोड़ो हेत घणउ ४५५ ४८६. अंतरंग शृङ्गार गीतम् ,, १३ हे बहिनी महारउ जोयउ सिणगार ४५६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका ( २५ ) १० फुटकर सवैया , ३ दीक्षा ले सूधी पाली जइ ४५७ ४६१. नब वाड़ शील गी. ,, १३ नवबाड़ सेती शील पालउ ४५८ (सं० (१६७० अह.) ४६२. बारह भावना गी. गा.१५ भावना मन बार भावउ ४५६ ४६३. देवगति प्राप्ति , , ६ बारे भेद तप तपइ गति । पामइ जी ४६१ ४६४. नरकगति प्राप्ति ,, ,, १० जीव तणी हिंसा करइ ४६२ ४६५ व्रत पञ्चक्खाण ,, ,, ११ बूढा ते पिण कहियइ बाल ४६३ ४६६. सामायक ,, ५ सामायक मन सुद्ध करउ ४६५ ४६७. गुरु वंदन गीतम् , २ हां मित्र म्हारा रे ४६८. श्रावक १२ व्रत कुलकम् श्रावक ना व्रत सुणजो बार ४६५ (सं.१६८६ बीकानेर)गा.१५ । ४६६. श्रावक दिन कृत्य कुछ ,, १४ श्रावक नी करणी सांभलउ ४६७ ५००. शुद्ध श्रावक दुष्कर मिलन कइयइ मिलस्यइ श्रावक एहवा ४६९ (२१ गुण गर्भित) गीत गा २१ ५०१. अंतरङ्ग विचार गी. गा. ४ कहउ किम तिण घरि हुयइ भली बार ४७३ ५०२. ऋषि महत्त्व गीतम् गा.२ बइठि तखत्त हुकम्म करइ ४७३ ५०३. पर प्रशंसा , , ७ हुं बलिहारी जाऊँ तेहनी ४७४ ५०४. साधु गुण ,, ,, ३ तिण साधु के जाऊँ बलिहारे ४७४ ५०५. ,, ,, , ३ धन्य साधु सजम धरइ सूधो ४७५ ५०६. हित शिक्षा गीतम् ,,१० पुण्य नमू कइ विनय न चूकउ ४७५ ५०७. श्री संघ गुण गीतम् , ३ संघ गिरुयउ रे ५०८. सिद्धांत श्रद्धा सज्झाय,,६ आज आधार छह सूत्र नउ ४७७ ५०६. अध्यात्म सज्झाय , ८ इण योगी ने आसन दृढ कीना ४७७ ५१०. श्रावक मनोरथ गी. , ६ श्रीजिनशासन होमोटउ ए सह४७५ ५११. मनोरथ गीतम , ८ ते दिन क्यारे आवसे ४७६ ४७६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) समयमुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ५२२. ५१२. ,, , , ३ धनरते दिनमुझकदि होसइ४८० ५१३. , . ,, ८ अरिहंत देहरइ आविनइ , आरहत १९९२ ४८० ५१४. चार मङ्गल गीतम् , ५ अम्हार हे आज वधामणा ४८१ ५१५. चार मङ्गल गीतम् ,५ श्री संघ नइ मंगल करउ ४८२ ५१६. चार शरणा ,, , ३ मुझ नइ चार शरणा होजो ४८३ ५१७. अठारह पापस्थानक परिहार पाप अठारह जीव परिहरउ ४८३ गीतम् गा.३ ५१८. जीवायोनिक्षामणागी गा.३ लख चउरासी जीव खमावइ ४८३ ५१६ अंत समये निर्जरा ,, ,,१० इण अवसरि करि रे जीव शरणा४.४ ५२०. आहार ४७ दूषण सज्झाय साध निमित्त छज्जीव निकाय ४८५ (सं०१६६१खभात) गा.५२ ५२१. हीयाली गीतम् गा.४ काहज्यो पंडित एह हियाली ४६१ ।, ५ पंखि एक वनि ऊपनउ ४६१ ५२३. , , , ४ एक नारी वन मांहि उपन्नी ४६२ ५२४. सांझी , , ४ सांझिरे गाई सांझी रे ४६३ ५२५. राती जागा गीतम् , ४ गाय 3 गायउरी राती जगउ ४६३ ५२६. तृणाष्टकं श्लो.(सं.विक्रम०) अच्छन्दक विवादे त्व ४६४ ५२७. रजोष्टकं श्लो. (सं.विक्रम०) देवगुर्योरिव शेषां । ४६५ ५२८. उद्गच्छत्सूर्यबिम्बाष्टक श्लो. चतुर्यामेषु शीतार्ता ४६६ ५२६. समस्याष्टकम् श्लो. १० प्रभु स्नात्र कृते देवा ४६७ ५३०. समस्या श्लोकादि फुटकर ४८ छत्तीसी५३१. सत्यासीया दुष्काल वर्णन गरूइ श्री गूजरात देश ५१ छत्तीसी ५३२. सत्या.(चंपक चौ.से.) गा. १६ तिण देसइ हिव एकदा रे ५१३ ५३३. , (विशेष श.प्र.) श्लो.७ मुनि वसु षोडश वर्षे , " Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका ( २७ ) ५३४. प्रस्ताव सवैया छत्तीसी सवै परमेसर पर मेसर सहु करइ ५१५ या ३७ (सं. १६६० खभात) ५३५. क्षमा छत्तीसी (नागोर ) आदर जीव क्षमा गुण आदर ५२३ ५३६. कर्म,, (सं. १६६८ मुल्तान) कर्म थी को छूटई नहीं प्राणी ५२६ (सं. १६६६ सिधपुर) पुण्य तरणा फल परतिख देखो ५३२ ५२८ सन्तोष छत्तीसी ( स. १६८४ साहमी सु संतोष करीजइ ५४० ५३७ पुण्य, लूणकर्णसर) ५३६. आत्तोयणा छत्तीसी ( स. १६६६ अहमदपुर ) ५४७ ५४० पद्मावती आराधना गा. ३५ हिव राणी पदमावती ५४१. वस्तुपाल तेजपाल राम, ४० सरसति सामिणि मन धरूँ ५५१ (सं. १६८२ तिमरी) ५४२. पुञ्जरत्न ऋषि रास गा. ३७ श्री महावीर ना पाय नमेँ ( स. १६६८) ५४३. केशी प्रदेशी प्रबंध गा. ५७ श्री सावत्थी समोसर्या (सं. १६६६ अहमदाबाद ) ५४४. क्षुल्लक ऋषि रास गा ५४ पारसनाथ प्रणमी करी (सं. १६६४ जालोर) पाप आलोय तु आपणां ५४४ ५४६. ऋषभ भक्तामर स्तोत्रम् Jain Educationa International ५४५. शत्रुञ्जय राम गाथा १०८ श्री रिसहेसर पय नमी (सं. १६८२ नागोर) ५४६. दानशील तप भाव संवाद शतक प्रथम जिनेसर पय नमी ५८३ (सं. १६६६ सांगा.) गा. १०१ ५४७ पौषधविधि गर्भित पार्श्वस्त. जेसलमेर नगर भलो (सं. १६६७ मरोठ ) ५४८ मुनिसुख पक्षोपवास स्तवन जंबू दीप सोहामणु गा. १४ श्लोक ४५ ५५५ ५५६ For Personal and Private Use Only ५६४ ५७५ ५६४ ६०१ नरेंद्रचंद्र कृतभद्र जिनेन्द्रचंद्र ६०३ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ५५०. आदिनाथ स्तोत्र (नानाविध विनोति यो नो सकला श्लेष मय) श्लोक १४ निकेतनं ६१५ ५५१. नेमिनाथ स्तवनम् (नानाविध (प्रारंभिक ६ गाथाएँ त्र टित) ६१६ काव्यजाति मयं श्लो. १४ ५५२. नेमिनाथ गीत गा ३ जादवराय जीवे तु कोडि वरीस ६१८ ५५३. पार्श्वनाथ लघु स्तवनम् परमपासपहू महिमालयं ६१८ (प्राकृत)गा. ५५४. पार्श्व बृहत्स्तवनम् (समस्या त्वद्भामंडल भास्करे स्फुटतरे ६१६ मयं) श्लोक १३ ५५५. पाव० लघु स्तवनम् (यमक विज्ञान विज्ञान नुवंति के त्वां ६२१ मय) श्लोक ८ ५५६. महावीर वृहत्स्तवनम् (यमक जयति वीर जिनो जगतांगज ६२२ मयं) श्लोक १४ ५५७. महावीर बृहत्स्तवनम् (जेण परुविथ मेयं) ६२४ (अल्पाबहुत्व गर्भित ) गा.१३ ५५८. मणिधारी जिनचंद्रसूरि प्रारभ खंडित ६२५ गोत गा. ३ ५५६. जिन कुशलसूरि गीतं गा. ३ , ६२५ ५६०. दादा जिन कुशलसूरि देराउर उचउ गढ गीतं गा. ३ ५६१. मुलताण मंडन जिनदत्तसरि जिणदत्त जि०२ ६२६ जिन कुशलसूरि गीतं गा. ५ ५६२. अजमेरु मंडन जिनदत्तसूरि पूजिजी अ. गीतं गा.४ ५६३. प्रबोध गीतम् गा. ५ साझा थकां सहु ध्रम करउ ६२८ ६२६ ६२७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ terary.org [Eb Beek 1% ALS LED E22 opp 5338 oa ] de pe siteyle20b2RU PER D ICES DE 143 Sue d e ceweergesme , Reikincense app@ petz Buseresby se Seeeexeba de a gua 104. 210ka Bela hebbe-blue Jain E Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education कविवर-लेखनदर्शनम्-(४) E tional For Personal and Private Use Only का उसमकतावकरकटवानहोगदापरदेशविरमाशिमंडमधाच ऊना म कमळगावलीकाकारकानमMaiकारमा परनयनकाहनधामणगारेममापनककाna मझानामामाचार120-मऊगावामीलनमागाटामा विदामामालनलनतिदिनानिमिठायम वानराम25ोटलमालमसनविकारानाहानुकशाजना टिविनायठालामालमतोमानामhिaalकालमा [सं० १६६६ लि. केशी प्रदेशी प्रबन्ध का अन्तिम पत्र] viationality.org Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि -xs[0]*xश्री वर्तमान चौवीसी स्तवन जीव जपि जपि जिनवर अंतरयामी । जी० । ऋषभ अजित संभव अभिनन्दन, सुमति पदमप्रभु शिवपुर गामी॥१॥जी॥ सुविधि शीतल श्रेयांस वासुपूज्य, विमल अनंत धरम हितकामी । शांति कुन्थु अर मल्लि मुनिसवत, नमि नेमि पार्श्व महावीर स्वामी ॥२॥जी॥ चौवीस तीर्थंकर त्रिभुवन दिनकर, नाम जपत जाके नवनिधि पामी। मन वंछित सुख पूरण सुरतरु, प्रणमत समयसुन्दर सिर नामी ॥३॥जी॥ श्री अनागत चौवीसी स्तवन राग-प्रभाती ए अनागत तीर्थंकर चौवीस जिन, ___ प्रह उठी नई नाम लेतां सफल दिन ॥११॥ ए.॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जाल पद्मनाभ सूरदेव सुपास, स्वयंप्रभ सर्वानुभूति लील विलास ॥२॥ए०॥ देवश्रत उदय पेढाल पोट्टिल स्वामी, सत्कीर्ति सुव्रत अमम नामी ॥३॥ए॥ निःकषाय निःपुलाक निर्मम जिण, चित्रगुप्त श्रीसमाधि अनंत गुण ॥४॥ए०॥ संवर यशोधर विजय मल्लि देव, अनंतवीरज भद्रकृत भव भव सेव ॥शाए॥ ए तीर्थकर आगै होस्यै गुण अभिराम, समयसुन्दर तेह अवस्था करे प्रणाम ॥६॥ए०॥ श्री अतीत चौवीसी स्तवन राग-प्रभाती केवलज्ञानी नई निर्वाणी, सागर महायश विमल वखाणी ॥ के० ॥१॥ सर्वानुभूति श्रीधर दत्त नामी, दामोदर श्री सुतेज स्वामी ॥ के० ॥२॥ मुनिसुव्रत सुमति शिवगति वर, अस्ताग नमीश्वर अनिल यशोधर । के० ॥३॥ कृतार्थ जिनेश्वर शुद्धमति शिवकर, स्पंदन संप्रति चौवीसे तीर्थकर ॥ के० ॥४ अतीत चौवीसी जग विख्याती, समयसुन्दर प्रणमत प्रभाती ॥ के० ॥५ [कृतम् श्री सिद्धपुरे, स्वयं लिखित पत्र से] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ( ३ ) चौकीसी ऋषभ जिन स्तवन राग-मारू ऋषभदेव मेरा हो ऋषभदेव मेरा हो। पुन्य संयोगइ पामीया मई, दरिसण तोरा हो ॥१॥ ऋ०॥ चउरासी लक्ष हूँ भम्यउ, भव का फेरा हो। दुख अनन्ता मई सद्या, स्वामी तिहां बहुतेरा हो ॥२॥ ऋ०॥ चरण न छोडू ताहरा, सामी अब की वेरा हो। 'समयसुन्दर' कहइ तुम्ह थइ, स्वामी कउण भलेरा हो ।३।ऋ०॥ अजित जिन स्तवन राग-गउड़ी अजित तुअतुल वली हो, मेरा प्रभु-अजित० । मोह महाबल हेलइ जीतउ, ___ मदन महीपति फौज दली हो ॥११॥ अ०॥ पूरणचन्द जिसउ मुख तेरउ, दंत पंक्ति मचकुन्द कली हो । सुन्दर नयन तारिका शोभित, मानू कमल दल मध्य अली हो ॥२॥ अ०॥ गज लांछन विजया कउ अंगज, भेटत भव दुख भ्रांति टली हो। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयमुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि समयसुन्दर कहइ तेरे अजित जिन. गुण गावा मोकुरंगरली हो ॥३॥०॥ संभव जिन स्तवन राग-काफी आ हे रूप सुन्दर सोहइ, सखि सम्भवनाथ । रूप० । गुण अनन्त मन मोहन मूरति, सुर नर के मन मोहइ ॥१॥ समोसरण सामी दयइ देशण, भविक जीव पडिबोहइ । केवलज्ञानी धर्म प्रकासइ, वयर विरोध विपोहइ ॥२।। स०॥ भवदधि पार उतार भगत कू, मुगति--पुरी आरोहइ । समयसुन्दर कहइ तीन भुवन मई, जिन सरिखउ नहि को हइ॥३॥ अभिनंदन जिन स्तवन __राग-मालवी गौड़ी मेरे मन तूं अभिनन्दन देवा । सौंस करी मैं तेरे आगे, हरि हरि आन वहेवा ॥१॥ मे० ॥ मूरख कोण भखै नींब फल कुं, जो लहै वंछित मेवा। तूं भगवंत वस्यौ चित भीतर, ज्युगज के मन रेवा ।।२।। मे० ॥ तूं समरथ साहिब मैं सेव्यो, भव दुख भ्रांति हरेवा । समयसुन्दर मांगत अब इतनो, भव भव तुम्ह पाय सेवा ॥३ मे०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि सुमति जिन स्तवन राग-कांनडौ जिन जी तारो हो तारो। मेरा जिनराज जि०, विनती करूं कर जोड़ी। असरण सरण भगत साधारण, भवोदधि पार उतारो ॥ जि० ॥१॥ पर उपगारी परम करुणा पर', सेवक अपणो संभारो । भगत अनेक भवोदधि तारे, हम विरियां क्यं विचारो॥ जि० ॥२॥ मेघ मल्हार मात-मंगला सुत, वीनती ए अवधारो ।.. समयसुन्दर कहै सुमति जिणेसर, ... सेवक हुँ छु तुम्हारो । जि० ॥३॥ पद्मप्रभ जिन स्तवन राग-वेलाउल मेरो मन मोह्यो मूरतियां। अति सुन्दर मुख की छबि पेखत, विकसत होत मेरो छतियां ॥१॥ मे०॥ १ रस । २ हरषित Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसमाञ्जलि केसर चंदन मृगंमद भेली', भगति करूँ बहु भतियां । आद्र कुमार सज्जंभव की परि, बोध बीज प्रापतियां ॥२॥ मे०॥ पदम लांछन पदमप्रभु सामी, इतनी करूँ वीनतियां । समयसुन्दर कहै यो मेरे साहिब, सकल कुशल संपतियां ॥३॥ मे०॥ सुपार्श्व जिन स्तवन राग-श्रीराग वीतराग तोरा पाय सरणं । दीनदयाल सुपास जिणेसर, जोनी संकट दुख हरणं ।१।वी। कासी जनम मात पृथिवी सुत, तीन भुवन तिलकाभरणं। पर उपगारी तु परमेसर, भव समुद्र तारण तरणं ।। वी० । अष्ट करम मल पंक पयोधर, सेवक सुख संपति करणं। सुर-नर-किनर-कोट निसेवित, समयसुदर प्रणमति चरणं ।३वी. चन्द्रप्रभ जिन स्तवन राग-रामगिरि चंद्रानगरी तुम्ह अवतार जी, महसेन नरिंद मल्हार जो । भगवंत (तु) कृपा भंडार जी, इक वीनतड़ी अवधार जी। चन्द्रप्रभस्वामी तार जी ॥१॥ स्वामी तारि जी। १ मेली। २ कोडि निषेवित। ३ चंद । - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयमुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ( ७ ) स्वामी ए संसार असार जी, बहु दुख अनंत अपार जी। मुझ आवागमन निवार जी ॥२॥ सा०॥ मुझ नै हिव तुंआधार जी, सरणागत नै संभार२ जी। तुझ सम कोइ नहीं संसार जी,समयसुन्दर नै सुखकार जी।३ सा० सुविधि जिन स्तवन राग-केदारू प्रभु तेरे गुण अनंत अपार । सहस रसना करत सुरगुरू, कहत न आवै पार प्र०।१। कोण अंबर गिणे तारा, मेरु गिर को भार । चरम सागर लहरि माला, करत कोण विचार प्र०॥२॥ भगति गुण लवलेश भाखु, सुविध जिन सुखकार । समयसुन्दर कहत हमकु, स्वामी तुम आधार प्र०।३। शीतल जिन स्तवन राग-केदारो हमारे हो साहिब शीतलनाथ । दीनदयाल भविक कुं मेले, मुगतपुरी को साथ । १०।१ । भव दुख भंजण स्वामी निरंजण, संकट कोट प्रमाथ। दृढरथ वंश विभूषण दिनमणि, संजम रमणी सनाथ। ह०१२। १ हुँ भम्यउ अनंती वारजी। २ आधार । ३ धरइ । ४ नावइ। ५तू। ६ भगत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 5 ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि सकल सुरासुर वंदित पदकज, पुण्यलता धन पाथ । समयसुन्दर कहइ तेरी कृपा ते, होत मुगत सुख हाथ । ह०।३। श्रेयांस जिन स्तवन राग-ललित सरतरु सुन्दर श्री श्रेयांस । सुमनस श्रेणि सदा प्रभु शोभित, साधु साख की नीकी प्रशंस । सु०।१॥ मन वंछित सुख संपति पूरति, आरति१ विधन करत विध्वंश । इंद चंद किन्नर अप्सर गण, गावत गुण वावतिर मुखि वंश । स० ॥२॥ खड़ग लंछन तप तेज अखंडित, अरिहंत तीन भुवन अवतंस । समयसन्दर कहै मेरो मन लीनौ, जिन चरणे जिम मानस हंस । सु० ॥३॥ वासुपूज्य जिन स्तवन राग-गोड़ी केदारो भविका तुमे वासुपूज्य नमोरी। सुखदायक त्रिभुवन को नायक, तीर्थंकर बारमोरी।१।भ०। १ अरति । २ वावत सुख । ३ तुम्हें। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि भाव भगति भगवंत भजोरी, चंचल इंद्री दमोरी । निवल जाप जपो जिनजी को, दुर्गति दुख गमोरी । २ ॥ भ० । मेरो मन मधुकर प्रभु के पदांबुज, हिनिस रंग रमोरी । समयसुन्दर कहै कोण कहुं जग, श्री जिनराज समो री । ३ । म० । विमल जिन स्तवन राग - मारुवरणी धन्यासिरी, जइतसिरी जिनजी कु देखि मेरउ मन झड़ री । तीन छत्र सिर ऊपर सोहड़, आप इन्द्र चामर बींझहरी । जि० |१| कणक सिंहास स्वामी वइसण, चैत्य वृक्ष शोभित कीजह री । भामंडल झलकै प्रभु पूठिं, देखत' मिथ्यामति खीजड़ री। जि०२ | दिव्य नाद सुर दुन्दुभि वाजई, पुष्प वृष्टि सुर विरचीज री । समयसुन्दर कहइ तेरे विमल जिन, प्रातीहारज पेखीजइ री। जि०३ | (६) अनन्त जिन स्तवन राग - सारंग Jain Educationa International अनंत तेरे गुण अनंत, तेज प्रताप तप अनंत । दरसण चारित अनंत, अनंत केवल ज्ञान री | ११ अ० । अनंत सकति कउ निवास, अनंत मुक्ति-सुख विलास । अनंत वीरज अनंत धीरज, अनंत सुकल ध्यान री | २| अ० । १. पेखत । २. छीजई री For Personal and Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) समय सुन्दरकृतिकुसमाञ्जलि अनंत जीवक तूं आधार, अनंत दुख कउ छेदणहार | हमकु ं स्वामी पार उतार, तूं तो कृपा निधान री | ३ | ० | समयसुन्दर तेरे जिणंद, प्रणमति चरणारविंद । गावति परमाणंद सारंग, राग तान मान री |४ | ० | धर्म जिन स्तवन राग - आसाउरी खगोचर तूं परमेसर, अजर अमर तूं अरिहंत जी । अकल अचल अकलंक अतुल बल, केवलज्ञान अनंतजी | १० | निराकार निरंजन निरुपम, ज्योतिरूप निरखंत जी । तेरा सरूप तु ही प्रभु जाणइ के जोगींद्र लहंत जी | २० | त्रिभुवन स्वामी तु अंतरजामी, भय भंजण भगवंत जी । समयसुन्दर क है तेरे धरम जिन, गुण मेरे हृदय वसंत जी । ३ अ० । Jain Educationa International शान्ति जिन स्तवन राग - मारुणी शांतिनाथ सुखहु तूं साहिब, सरणागत प्रतिपालो जी । ति हूँ तोरइ सराइ आयउ, स्वामी नयण निहालो जी । १ । दयाल राय तारउ जी, मुने आवागमण निवारउ जी । हूँ सेवक सामी तुमारोजी, तूं साहिब शांति हमारउ जी | २ | ५० | १ सुणयउ For Personal and Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय सुन्दरकृति कुसुमाञ्जलि ( ११ ) पूरव भव राख्यो पारेवो, तिम मुझनै सरह राखि जी । दीनदयाल कृपा करि स्वामी, मुझ में दरसण दाखि जी । ३ । ५० | शांतिनाथ सोलमउ तीर्थंकर, सेवे सुरनर कोडि जी । पाय कमल प्रभु ना नित प्रणमइ, समयसुन्दर कर जोड़िजी ।४ ६० । कुन्थु जिन स्तवन राग भैरव • कुंथुनाथ कुं करू' प्रणाम, मन वंछित पूरवइ सुख काम | कुं० १। अंतरजामीण अभिराम अहिनिस समरू अरिहंत नाम | कु०२ | वीनति एक करू मोरा स्वाम, द्यो मोहि मुगति पुरी कौ धाम | कु०३ | किसके हरि हर किसके राम, समयसुन्दर करे जिनगुण ग्राम | कु०४ | 1 अर जिन स्तवन Jain Educationa International राग- नट्टनारायण अनाथ र गंजणं । य० । मोह महीपति मान विहंडण, भवियण के दुख भंजणं । अ० | १ | मालवकौसिक राग मधुर धुनि, सुरनर को मन रंजणं । सुन्दर रूप वदन चंद सोभित, लोचन निरंजन खंजनं । ०|२| हरि हर देव प्रमुख व्यासंगी, तूं सब सुख को मंजर । समयसुन्दर है देव' तू साचो, जो निराकार निरंजणं । श्र० ३ | १ खंडण । २ दोष । ३ भंजरण | ४ सो देव सांचउ । For Personal and Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) समय सुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि मल्लि जिन स्तवन राग सारंग मल्हार मल्लि जिन मिल्यउ री मुगति दातार । फिरत फिरत प्रापति मई पायउ, अरिहंत नुं आधार | १ | म ० | तुम्ह दरसण विन दुख सह्या बहुला', ते कुण जाणइ पार। काल अनंत भयो भवसागर, अब मोहि पार उतार | २ | म० । सामल वरण मनोहर मूरति, कलस लांछण सुखकार । समयसुन्दर कहै ध्यान एक तेरउ, मेरे चित्तर मझार | ३ | म० । मुनिसुव्रत जिन स्तवन | राग - रामगिरी सखि सुन्दर रे पूजा सतर प्रकार । 1 श्री मुनिसुव्रत सांमी केरउ रे, रूप बण्यो जगिर सार | स०|१| मस्तक मुकट हीरे जड़घउ रे, भालइ तिलक उदार । बांहिं मनोहर बहिरखा रे, उर मोतिन कउ हार | स०|२| सामल वरण सोहामणो रे, पदमा मात मल्हार । समयसुन्दर कहइ सेवतां रे, सफल मानव अवतार | स०|३| I नाम जिन स्तवन राग - आसाउरी नमु नमु नमि जिन चरण तोरा, हूँ सेवक तूं साहिब मोरा । न० । १ । १ बहु । २ हृदय । ३ अति । ४ पहिर्या । ५ पामीजइ भव पार । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ( १३ ) जउ तू जलधर तउ हूँ मोरा, जउ तूं चंद तउ हूँ भी चकोरा । न० । २ । सरणइ राखि करइ क्रम जोरा, समयसुन्दर कहइ' इतना निहोरा । न० । ३ । नेमि जिन स्तवन राग--गूजरी यादव राय जीवे तूं कोडि वरीस । गगन मंडल उडत प्रमुदित चित, पंखीयां देतु आसीस । या०।१॥ हम ऊपरि करुणा तई कीनी, जग जीवन जगदीस । तोरण थी रथ फेरि सिधारे, जोग ग्रह्यो सुजगीस ।या०।२। समुद्र विजय राजा कउ अंगज, सुर नर नामइ सीस। समयसुन्दर कहै नेमि जिणंद कट, नाम जपूनिसदीस।या०।३। पाव जिन स्तवन राग-देवगंधार माई आज हमारइ आणंदा। पास कुमार जिणंद के श्रागइ, भगति करति धरणिंदा। मा०।११ तता तताइ थेइ पद ठमकावति, गावत मुख गुणवृन्दा।मा०।२। शास्त्र संगीत भेद पदमावति, नृत्यति नव नव छंदा ।मा०।३। सफल करत अपनी सुर पदवी, प्रणमत पाय अरविंदा । मा०।४। समयसुन्दर प्रभु पर उपगारी, जय जय पास जिणंदा। मा०॥५॥ १ करइ।२ सिधाये।३थेइथेइथेइ तत थेइ पद ठावति।४ श्री जिणचंदा. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि वीर जिन स्तवन रापरजयो ए महावीर मो कछु देहि दानं, हूँ द्विज मीत तूं दाता प्रधानं । ए० | १| ए वृठो तूं कनक की धार अष्ट लक्ष कोटि मानं । ए मैं कछु न पायो ताम, प्रापति पुण्य विनानं । ए० |२| ए तब देवदूष्य को अर्द्ध, दीनो कृपा निधानं । ए गुण समयसुन्दर गाया को नहीं प्रभु समानं । ए० | ३ | ( १४ ) कलश राग - धन्याश्री• तीर्थंकर रे चोवीसे मैं संस्तव्या रे । हां रे ऋषभादिक जिनराय, इणि परि वीनव्या रे । ती० |१| वसु इन्द्री रे रस रजनीकर बच्चों रे, हारे अहमदाबाद मकार । विजयादसमी दिनें रे गुण गाया रे, तीर्थंकर ना शुभ भनें रे । ती ०२ | खरतरगच्छ रे श्रीजिनचंद्रसूरीसरू रे, हां रे श्रीजिनसिंघसरीस । सकल चंद मुनिवरू रे खुपसायें रे, समयसुन्दर आणंद करू रे । ती ० इति श्री चतुर्विंशति तीर्थंकर गीतम् । [ इति श्री चतुर्विंशतितीर्थंकराणां गीतानि संपूर्णानि समाप्तानि । संवत् १७९४ वर्षे अहम्मदाबादे लिः । श्री पोकरण नगरे सं० १६ वर्षे श्रवण वदि दिने । ] १ कछु मोहि देहु दान | Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ( १५ ) श्री चौधीस जिन सवैया नाभिराय मरुदेवी नंदन, युगलाधर्म निवारण हार । सउ बेटां नै राज सौंपि करि, आप लियौ संयम वृत भार ॥ समौसरया स्वामी सेज गिरि, जिनवर पूर्व निवाणुवार । समयसुन्दर कहै प्रथम तीर्थंकर, आदिनाथ सेवो सुखकार ॥१॥ पंचास कोड़ी लाख सयरोपम, आदिनाथ थकी गया जाम। वंस इखाग मात विजया कुखि, जनम अयोध्या नगरी ठाम ॥ तारंगे मूरति अति सुन्दर, गज लंछन स्वामी अभिराम । समयसुन्दर कहै अजितनाथ नै, यह ऊठो नै करू प्रणाम ॥२॥ सेना मात कूखि मानस सर, राजहंस लीला राजेसर । प्रगट रूप पणि तू परमेसर, अलख रूप पणि तूं अलवेसर।। हय लंछण अति रूप मनोहर, वंश इक्खाग समुद्र शशिहर । समयसुन्दर कहै ते तीर्थंकर, संभवनाथ अनाथ को पीहर ।।३।। सुरगुरु सहस करइ मुखि रसना, तउ पणि कहितां नावइ अंत । गुण गिरणा परमेश्वर केरा, प्रकट रूप त्रिभुवन पसरंत ।। भव समुद्र तारण त्रिभुवन पति, भय भंजण स्वामी भगवंत । समयसुन्दर कहै श्री अभिनंदन, चौथउ तीर्थंकर अरिहंत ॥४॥ शौक बिहुं झगड़ो समझाव्यउ, सुमति दोध माता नै सार । सुमति सहु वांछडू नर नारी, सुमति दो हे मुझ सरजनहार ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) समयसुन्दर कृति कुसुमाञ्जलि सुमति थकी सीजइ मन वंचित, इह लोक नै परलोक अपार । समयसुन्दर कहइ सुमति तीर्थंकर, सेवउ सुमति त उ दातार | ५ | चढ्न पदम सम, कनक पद्म क्रम, पदम पाणि उपम, पदम हइ पाय जु । पदम लंछन धर, पदम बांधव कर चरण पदम चर, पदम की छाय जु || सुसीमा माता सुहाय, पदम सय्या विछाय, पद्म प्रभु कहाय, नामै जिनराय जु। पदमनिधान पायउ, पदमसरसि न्हायउ, समयसुन्दर गायउ, सुगुरु पसाय जु || ६ || "थयउ आकाश, इन्द्र सेवा जास, करें अरदास जु । पाप कौ करौ प्रणास, तोड़ कर्म बंध पास, टालो भव केरउ त्रास, पूरो मन आस जु || माता के रह कर फास, पिता का थया सुपास, Jain Educationa International सुकुमाल सुविलास, अधिक उल्हास जु । समयसुन्दर तास, चरण वासानुदास, जपति सुजस वास, साहिव सुपास जु ||७|| चंद्रपुरी अवतार, लक्ष्मणा माता मल्हार, चंद्रमा लांछन सार, उरु अभिराम में । वदन पुनिमचंद, वचन शीतलचंद, महासेन नृपचंद, नव निधि नाम में | For Personal and Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ( १७ ) तेज करइ भित्र झिब, फटिक रतन बिंब, मांड्यौ है......"दिगम्बर धाम में । समयसुन्दर इम, तीरथ कहइ उतम, __ चंद्रप्रभ भेट्यो हम, चंदवारि गाम में ॥८॥ काकंदी पुरी कहाय, राजा श्री सुग्रीव राय, रमणीक रामा माय, उरे अवतार जू । मकर लंछन पाय, एकसौ धनुष कहाय, प्रभु को दीक्षा पर्याय, वरस हजार जू ।। निरमम निरमाय, कर्म आठ खपाय, बि पूर्व लाख आयु, पाम्यौ भव पारजू । समयसुन्दर ध्याय, साचो इक तु सखाय, सुविधि जिणंदराय, मुगति दातार जू ॥॥ नगर भदिलपुर, दृढरथ नरवर, नंदा कूखि सरवर, लीला राजहंस जू । श्रीवच्छ लांछनधर, धन राशि मनोहर, त्रणसै नइ साठि कर, तनु परसंसू जू ॥ एक असी गणधर, इक लाख मुनिवर, . मुगति समेतगिर, इक्ष्वाकु है वंस जू । प्रणमै समयसुन्दर, दसमौ ए तीर्थंकर, ___श्री शीतल सुरतर, कुल अवतंस जू ॥१०॥ कोउ ब्रह्मा भजौ कोई कृष्ण भजी, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) समयसुन्दरकृतिकुसमाञ्जलि कोई ईरान को दुख डारक हूइ । रागर द्वष जिते जिणदेव, सोउ देव सुख कउ कास्क हा॥ श्री वीतराग निरंजन देव, दया गुण धर्म को धारक हह । समयसुन्दर कहइ भविका भजउ इक, श्रेयांस तीर्थंकर तारक हइ ॥११॥ जम वाहण कहइ जाण नीर, पणि बहु निरंतर । सुपन दीठ शुभ हागि अशुभ, मारग अभ्यन्तर। दसराहै बहु दुख हणइ, राजा हथियारे । दूध न धावण देइ, महिष नहीं सुख जमारे ।। कवि एम समयसुन्दर कहै, लाखीणौ अवसर लह्यो । वासुपूज्य शरण आव्यउ वही,लांछन मिशि लागी रह्यौ।१२। विमल जाति कुल वंश, विमल सुर चवण विमानं । विमल पिता कृतवर्म, विमल श्यामी सुवखानं ॥ विमल कांपेलावास, विमल तिहां दीक्षा महोत्सव । विमल नाण निर्माण, विमल सर्व गुण संस्तक। बलि चढ्यौ विमलगिरि विचरतो, पणि सीधौ समेतगिरि । कर जोड़ि समयसुन्दर कहइ, ते विमल नाथ नै तूं समरि॥१३॥ बल भी तेरो अनंत दल भी तेरो अनंत, पुण्य को फल अनंत साधै पट खंड जु । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ( १६ ) भोग भी तेरो अनंत जोग भी तेरो अनंत, प्रयोग तेरो अनंत प्रताप प्रचण्ड जु ।। झान भी तेरो अनंत दर्शन भी तेरो अनंत, चरित्र भी तेरो अनंत आज्ञा अखण्ड जु । सुन्दर कहइ सत्यमेव (सुन्दर) सुरनर करइ सेव, अनंत तीर्थकर देव तारण तरण्ड जु ॥१४॥ श्रेयांस नी परै दान तुम्हे घउ, जिम संसार समुद्र तरौ । पालउ शील सती सीता जिम, तप सुन्दरि सरिखौ आदरौ।। भरत नाम चक्रवर्ती तणी परि, भवियण मन भावना धरौ । समयसुन्दर कहइ समवशरण मांहि धर्मनाथ कहै धर्म करो।१५॥ विश्वसेन पिता माता अचिरा, मृग लांछन सोवन तनु कांति । चउसठ इन्द्र मिलोन्हवराव्यो, मेरि उपरि मनि प्राणी खांति ।। मरकी गई प्रजा सुख पाम्यौ, देश मांहि थई सुख शान्ति । समयसुन्दर कहै मात पिताए, पुत्र तणौदीधौ नाम शांति॥१६॥ तीन छत्र सिर ऊपर सोहइ, सुर चामर ढालइ सविहाण । दिव्यनाद सरदुन्दुभि वाजइ, पुष्पवृष्टि पणि जानु प्रमाण । कनक सिंहासण चारु चेइतरु, भामंडल झलकै जिम भाण । समयासुन्दर कहइ समोसरण में, कुन्थुनाथ इम करइ वखाण।१७) चुलसी लाख अश्व रथ हाथी, छन्नू कोड़ि पायक परिवार । बालीस साहस मुकुट-बद्ध राजा, चौसठ सहस अंतेउर मार ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि पचवीस सहस करइ यक्ष सेवा, चउदै रत्न नव निधि विस्तार । समयसन्दर कहइ अर तीर्थकर, चक्रवर्ती पण पदवी सार॥१८॥ पूरब भव ना मित्र महीपति, प्रतिबोध्या पूतलि वइराग । स्त्री पणइ तीर्थ वरताव्यौ, स्त्री आगै बैठी लहि लाग ।। निराकार निरंजन स्वामी, उगणीसमौ ए श्री वीतराग । समयसुन्दर कहइ भव मांहें भमतां, मल्लिनाथ मिल्यो मुझ भाग।१६ हरि हर ब्रह्मा देव तणे रे, देहरइ भूला काय भमौ । समकित सूधो धरउ मन मांहे, मिथ्या मारग दूर गमौ।। आठ करम बंधन थी छूटौ, अरिहंत देव नै प्राय नमौ । समयसुन्दर कहइ श्री मुनिसुव्रत, वांदउ तीर्थंकर वीसमौ ॥२०॥ गुरु मुख शुद्ध क्रिया विधि साचवी, सामायक नै पोसउ करौ। दृढ आसन बैसी मन निश्चल, ध्यान एक अरिहंत धरौ ॥ जरा मरण दुख जल पूरण, भविक जेम संसार तरौ । समयसुन्दर कहै लय लगाड़ि नइ, नमि नमि नमि नमि मुख उच्चरौ ॥२१॥ वे बब्बीहा भाई अरे काहे री राजुल बाई, अरी तें कहां देखे नेमि मैं तो विरह न खमाई। विरह कोकिल सहकार विरह गज रेवा होइ, विरह बब्बीहा मेह विरह सर हंस विधोई ॥ चक्रवाक चकवी विरहा, विरह सहु व्यापी रह्यो । म करि दुख राजुल मुधा कि,समयसुन्दर साचौ कयौ ॥२२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ( २१ ) बे बब्बीह भाई, आयउ री वसंत मास, सब जन पूगी प्रास, . रमत खेल रास, उडत अबीर जू । ऊछले गुलाल लाल, लपटाणौ दोउ गाल, वाहइ पिचरके विचाल, भीजे चोली चीर जू। अति भलौ श्राम बाग, छैल छबीला लाग, सुन्दर गीत सराग, सुन्दर सरीर जु ॥ समयसुन्दर गावै, परम पाणंद पावै, . वसंत की तान भाव, गुहिर गंभीर जु ॥२३॥ पंच दिन करि ऊण, छमासी पारणा दिन, झटकि पड़या बंधन पग का जंजीर जू । दुन्दुभि बाजी आकास, प्रगट्यौ पुण्य प्रकास, चन्दना की पूगी आस, पाम्यौ भवतीर जू॥ साध तौ चवदे हजार, साधवी छत्तीस सार, वीरजी को परिवार, गौतम वजीर जु । समयसुन्दर वर, ध्यान धर निरंतर, चौवीसमौ तीर्थकर, वांदयौ महावीर जु ॥२४॥ आदिनाथ दे आदि स्तव्या, चौवीस तीर्थंकर । पवित्र जीभ पण कोध, शुद्ध थयौ समकित सुन्दर ॥ सणौ भणौ सहु कोइ, श्रवण रसना करौ सफला। इहु लोक नै पर लोक, सफल करौ पणि सगला ॥ चौवीस सवैया चतुर नर, कहजो कर मुख नी कला। समयसुन्दर कहइ सांभलो, ए मीठा मिश्री नाडला।२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ऐषत क्षेत्र चतुर्विशक्ति गीतानि (८) जुत्तसेण जिन गीतम राग-केदारउ, ताल एकताली जुत्तसेण तीर्थंकर सेती, मोहि रह्या मन मोरा रे । मालति समधुकर जिम मोह्या, मेघ घटा जिम मोरारे। जु०॥१॥ मयगल जिम रेवा संमोद्या, हंस मानस संसदोरारे। मीन मोया जिम जलनिधि मांहे,चंद सुजेम चकोरारे। जुलास पूरव पुण्य संजोगे पाया, दुर्लभ दरसन तोरा रे। समयसुन्दर मांगई तुझ सेवा, नमि नमि करत निहोसरे। जु०॥३॥ (९) अजितसेण जिन गौतम राग--शुद्ध नट चर्चरी ताल संगीत आवइ चौसठ इन्दा, मन में रंगइ ए । आ० । भगवंत नी भगति करइ, सर गिरि शृङ्गइ । श्रा०।१। थप मप धौं मादल बाजइ, मुङ्गल भेरि ए । प्रा० । तत थे तत थे नटुया नाचइ, फरंगट फेरि । प्रा० ॥२॥ अजितसेन अरिहंत नइ, चरणे लागइ ए । आ० । समयसन्दर संगीत गावइ, शुद्ध नट राइ । आ० ॥३॥ * इस चौवीसी के प्रारंभिक ७ गीत अप्राप्त हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ( २३ ) (१०)शिवसेन जिन गीतम् राग-काफी अठताला दसमउ तीर्थकर शिवसेन नामा साचउ ।द। निराकार निरंजन निरुपम, मोह नहीं तिहां माचउ । द०१॥ हरि हर ब्रह्मा देव देखी नइ, नर नारी मत नाचउ । आप तरइ अवरां नइ तारइ, देव तिको तिहां राचउ । द०२। कल्पवृक्ष समउ प्रभु कहियइ, जो जोइयइ ते जाचउ । समयसुन्दर कहि शिवसेन नाम तउ, समवायांग सूत्र मईबांचउ। (११) देवसेन जिन गीतम् राग-मारूणी एकताली देसी नी साहिब तु है सांभलउ, हूँ वीनति करु आप बीत । सा। चउरासी लख हूँ भम्यउ, तिहां वेदन सही विपरीत । सा०।१। देवसेन देव तु सुण्यउ, परम कृपाल कहीत । तिण तुझशरणइ हुँआवियउ, हिवतुदेव तु गुरुमीत । सा०२। ध्यान इक तोरउ धरूँ, चरणइ लाउँ चीत। समयसुन्दर कहइ माहरइ, हिव परमेसर सुप्रीत । सा०।३। (१२) नक्खत्तसत्थ जिन गीतम राग-वसन्त नमु अरिहंत देव नक्खत्त सत्थ । न० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि मुगति जातां थकां मेलइ सत्थ । न०।१। पालउ जीव दया इह धरम पत्थ । भगवंत भाखइ सवत्थ सत्थ । न०।२। दुर्गति पड़तां आडउ दिइ हत्थ । समयसुन्दर कहइ प्रभु छइ समत्थ । न०।३। (१३) अस्संजल जिन गीतम् राग-भूपाल अठतालउ तेरमउ अस्संजल तीर्थंकर, तिण देशन ए दीधी रे। छ जीवनी रक्षा तुम करजो, मुगति तणी वाट सीधीरे। ते॥१ वीतराग नी वाणी मीठी, प्रेम करी जिण दीधी रे। भव समुद्र मांहे ते भवियण, नहीं भमइ बात प्रसिद्धी रे।ते०।२। अाज्ञा सहित क्रिया सहु कीधी, दीक्षा पणि फलइ लीधी रे। समयसुन्दर कहइ मन शुद्ध करजो,धर्मथकीराज रिद्धीरे। ते०३। (१४) अनन्त जिन गीतम् राग-वेलावल इकताला अहो मेरे जिन कुंकुण अोपमा कहूँ। काष्ठ कलप चिन्तामणि पाथर, कामगवी पशु दोष ग्रहुँ। अ०१॥ चन्द्र कलंकी समुद्र जल खारउ, सूरज ताप न सहूँ। जल दाता पणि श्याम वदन धन, मेरु कृपण तउ हुँ किम सदहुँ।२। कमल कोमल पणि नाल कंटक नित, संख कुटिलता बहुँ। समयसुन्दर कहइ अनंत तीर्थंकर, तुम मई दोषन लहुँ। अ०१३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ( १५ ) उपशान्त जिन गीतम् राग - मारुणी एकताली बार परखदा बइठो आागलि, आप आपण ऊलासह रे । पनरमउ श्री उपशांत तीर्थंकर, चउविधि धर्म प्रकाशइ रे । १ । धन जीव्यु रे २ धन जीव्यु आज म्हारु । रंज्या लोक कहह नरनारी, वचन सुख्य जे तुम्हारु रे । धन जीव्य रे २ ॥ पंइतालीस धनुष नी उंची, कंचन वरणी काया रे । सुन्दर रूप मनोहर मूरति, प्रणमइ सुरनर पाया रे | २६० । दस लाख बरस नुं ऊखु, सुप्रतिष्ठ गिरि (वर) सीधारे । समयसुन्दर कहह जीभ पवित्र थइ, जिन गुण ग्राम मई कीधा रे | ३ | करणो ॥ ( २५ ) ( १६ ) गुत्तिसेण जिन गीतम् राग --- मिश्र विहागड़ केदारऊ । एकताला सोलमा श्री गुत्तिसेण तीर्थंकर सांभलउ, श्री शांतिनाथ समान २ तुम्हे तर ते सांभलउ । पणि तिख तउ पारेवर शरणे राखियउ, तिम मुझ शरणे राखि मिलइ जिम भाखियउ । १ । चालिस धनुस शरीर सोवन मह-सोहतउ, उखु लाख वरस लांछन मृग मोहतउ | २ | अशुद्ध- १ अनंतसेन - गजसेन । २ सरिखु । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि राशि मेल मन मेल विसापण लाहणा, साहिब सेवक जोड़ सेव॒ पय तुम तणा ।३। भवि भवि देज्यौ सेव म करिस्यउ वेगलउ, समयसुन्दर कहि एम ए प्रेम पूरउ मलउ।४। ( १७ ) अतिपास जिन गीतम राग-वेलावल सतरमउ श्री अतिपास तीथंकर, मन वंछित फल नउ दातार। बे बोल मांगुबे कर जोड़ी, भवि भवि व्रत के समकित सार।१। भव्य अछुपणि भारी करमउ, दुषम काल भरत अवतार । पणि समरथ साहिब तु सेव्यउ, पहुंचाडिसी जाणु छुपार ।। सिद्धि गमन परिपाक जे जिम छइ, ते तिम छइ तिम तउ निरधार। समयसुन्दर कहइ जांछुछदमस्थ,तां सीम धरम करिसी श्रीकार। (१८) सुपास जिन गीतम् राग-तोड़ी सुपास तीर्थंकर साचउ सही री । सु० । अलख अगोचर अकल सरूपी, राग द्वेष लवलेश नहीं रो। सु०। मीन लांछन तीस धनुष मनोहर, काया कंचनवरण कहीरी। श्री अरनाथ समउए अरिहंत,सुप्रतिष्ठ गिरि मुगति लहीरी।सु०॥ गुण ग्राम कीधा गिरुयाना, दुर्गति नी बात दूरी रही री। समयसुन्दर कहइ सफल जनम थयउ,वीतराग देवनी प्राण वहीरी, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृति कुसुमाञ्जलि ( १९ ) मरुदेव जिन गीतम् राग - मालवी गउड़उ गणीसम मरुदेव अरिहंत, मल्लिनाथ समान रे । नील चरणी तनु विराजइ, पुरुष रूप प्रधान रे | १ | ओ० | जिण दिन जिन चारित्र लीधु, ति दिन केवल ज्ञान रे । इन्द्र चउसठि मिली आवई, गायई गीत नई गान रे | २ | ओ० | तुझ विना हुं भम्य भूलउ, जिम पड़चउ मृग रान रे । समयसुन्दर कहर हिव हुं, धरिस तोरु ध्यान रे | ३ | ० | ( २० ) श्री सधिर जिन गीतम् राग- श्रडाएउ कनड़उ हिव हुँ चांदुरी वीसमउ सीधर । सामि नित ऊठी ल्युं नाम । हिव० | हुं करूं गुण ग्राम, केवल मुगति काम । प्रभु सो अभिराम ऐरवरत ठाम | हिव० | १ | " हरिवंश कुल भारण, उपनु केवल नाय | सरस करइ वखाण, अमृत वाणि । जीवदया पालउ जाण, आप समा पर प्राण । ( २७ ) १ स्वामि । Jain Educationa International समयसुन्दर करइ, वचन प्रमाणि | वि० | २ | For Personal and Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि (२१) सामकोठ जिन गीतम् __ राग-केदारा गउड़ी श्रीसामकोठ' तीथंकर देवा, एकवीसमा हिव नाम कहेवा ।।श्री सा० । जउ जाणउ भव समुद्र तरेवा, तउ वीतराग नइ वचने रहेवा ।२।श्री सा०। मुझ मन भागुभव मइभमेवा, समयसुन्दर कहइ हुं करिस्युसेवा।३। श्री सा०। ( २२ ) अग्गिसेण जिन गीतम ___ राग-उड़ी अग्गिसेन तीथंकर उपदिसइ, एह संसार असार रे। पुण्य करउ रे तुम्हे प्राणिया, सफल करउ अवतार रे ।। आ०। हरिवंश सामवरण तरणू , संख लाछन छइ श्रीसार रे। चित्रकूट परबत ऊपर, पामीय शिव सख सार रे ।। आ० एह अरिहंत बावीसमउ, ऐरवरत क्षेत्र मझार रे। श्री नेमिनाथ ना सारिखउ, समयसुन्दर सुखकार रे ।३। प्रा०। ( २३ ) अग्गपुत्त जिन गीतम राग-अधरस वीतराग वांदिस्युरे हिव हुँ, अग्गपुत्त अरिहंत। १ समकोटि । २ अतिसेन । ३ सरिखु सवि उपम । ४ हुउ पवित्र ! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ( * ) संसार समुद्र नइ पारि उतारइ, भय भंजण भगवंत | १ | वी० | नील वरण महिमा लिउ रे, सरप लांछग सोभंत । तीथंकर तेवीसमउ रे, नव हथ तनु निरखंत |२| वी० | पारसनाथ सरिखु सहुरे, एहना गुण छइ अनंत । समयसुन्दर कहइ जउ मिलइ इन्द्र, तर पिए कहि न सकंत । वी० | ( २४ ) वारिसेण जिन गीतम् राग - विहागड़ उ वारसे तीर्थंकर ए चउवीसमउ, सगली परि श्री महावीर समउ | १| वा० । खरउ वीतराग देव खंति खमउ, भजउ भगवंत जिम भवन भमउ |२| वा० । चरणे चित्त लगाइ नमउ, समयसुन्दर कहइ मुगति रमउ | ३| वा० । [ कलश ] राग - धन्याश्री गाया गाया री ऐरवरत तीर्थंकर गाया । चवीसांना नाम चीतार्या समवायांग सूत्र मई पाया री । १ ऐ०। संवत सोल सताणुया वरसे, जिनसागर सुपसाया । हाथी साह त ग्रह कह, समयसुन्दर उवझाया रे । २ ऐ० । इति ऐरवरत क्षेत्र २४ तीर्थंकर गीतानि समाप्तानि । १ भाग । २ समयसुन्दर कहि ए चुवीसमु, श्री जिन वांदी भव मउ मुं । ( पाठान्तर भद्रमुनि, बुद्धिमुनि प्रेषित कापी से ) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि चन्द्रानन १ सुचन्द्र २ अग्गिसेण ३ नंदसेण ४ इसिदिन ५ वयधारि ६ सामचंद ७ जुत्तसेन = अजितसेन : शिवसेन १० देवसेन ११ नक्खत्तसत्थ १२ अस्सिजल १३ अनंत १४ उपसंत १५ गुत्तिसेण १६ अतिपास १७ सुपास १८ मरुदेव १६ सीधर २० सामकोठ २१ अग्गसेण २२ अग्गिपुत्त २३ वारिसेण २४ । इति श्रीसमवायांगसूत्रोक्त ऐरवरतक्षेत्र २४ तीर्थकरनामानि । [ स्वयं लिखित प्रति से] विहरमान-धीसी-स्तवनाः १. सीमंधर जिन गीतम - राग-मारूणी सीमंधर सांभलउ, हुं वीनति करूँ कर जोड़ि । सी। तूं समरथ त्रिभुवन धणी, मुनइ भव बंधण थी छोड़ि । सी०।१। तुम मूविचि अंतर घणउ, किम करूँ तोरी सेव । देव न दीधि पांखड़ी, पणि दिल मई तुइक देव । सी०।२। चंद चकोर तणी परिं, तूं वस्यउ मोरइ चीति । समयसुन्दर कहइ ते खरी, पे परमेश्वर स्युप्रीति ।सी०३। २. युगमंधर जिन गीतम् ___ राग-गौड़ी तूं साहिब हूँ सेवक तोरउ, वीनतड़ी अवधारि जी। हुं प्रभु तोरइ सरणै आयउ, तुमुझ नंइ साधारि जी।१। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय सुन्दरकृति कुसुमाञ्जलि ( ३१ ) श्री युगमंधर करुणा सागर, विहरमाण जिणंद जी । सेवक नी प्रभु सार करीजर, दीजइ परमाणंद जी |२| श्री यु० । जनम जरादिक दुख थी बोहतउ, हुं व्यउ तुम्ह पासि जी । मुझ ऊपरि प्रभु मया करी नइ, दीजइ निरभय वास जो । ३ श्री यु० । वीनतड़ी प्रभु सफल करेज्यो, श्री युगमंधरदेव जी । समयसुन्दर कर जोड़ी वीनवइ, भवि भवि तुम पय सेव जी । ४ श्री ० ३. बाहु जिन गीतम राग - आसाउरी । बाहु नाम तोथंकर घउ मुझ, दुरगति पडतां बांह रे । हुं तपत व्यउ तुम्ह पासे, तुम्हे करउ टाढी छांह रे | १| बा० | पच्छिम महाविदेह रहउ तुम्हे, हूँ तउ भरत खेत्र मांहि रे विद्या पांख बिना किम वांदू, पण माहरू मन त्यांह रे | २ | वा० | चउरासी लख मांहि भम्यउ हूँ, पणि सुख न लह्यउ क्यांह रे । समयसुन्दर कहइ सुखि अउ राखज्यो, सासता सुख छइ ज्यांह रे । Jain Educationa International ४. सुबाहु जिन गीतम् राग आसावरी सामि सुबाहु तूं अरिहंत देवा, चउसठि इंद्र करइ तुझ सेवा । सुरनर व धरम सुरोवा, मीठी वाण अमृत रस मेवा । १ सा० । पूछई प्रसन संदेह हरेवा, अपणउ समकित सुद्ध करेवा । २ सा०| तुझ समरू भव समुद्र तरेवा, समयसुन्दर कहइ गज जिम रेवा | ३ | For Personal and Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ५. सुजात जिन गीतम् ___ राग-गुट सुजात तीथंकर ताहरी, हुयइ देव किण होडि रे। देव बीजे तउ दूषण घणां, तुमइ नहीं तिल खोडि रे ।।सु० पूरव लाख त्र्यांसी पछी, छती राज ऋद्धि छोड़ि रे । संयम मारग आदय उ, महा मोह दल मोड़ि रे ।।सु०॥ तुझ वीतराग नइ समरतां, तूटह करम नी कोडि रे। समयसुन्दर कहइ ते भणी, तूंनइ नमूकर जोडि रे ।३। सु०। ६. स्वयंप्रभ जिन गीतम् राग-प्रभाती सयंप्रभ तीथंकर सुन्दरु ए, मित्रभूतिरायांचा कुंअरुए।१ स०। सुमंगला राणी माता उरि धरू ए, वीरसेना राणी कंत सुखकरु ए। चंद लांछन देव दया परू ए, समयसुदर चा परमेसरूए।३ स०। ७. ऋषभानन जिन गीतम राग--श्रीराग (ढाल :-ऐउ २ चंद्रानन जिणचंद नमो, ए चदनी जाति।। ऐउ २ रिषभानन अरिहंत नमो, भय भंजण श्री भगवंत नमो।१। धातकीखंड जिणिंद नमो, केवलज्ञान दिणिंद नमो।२रि। सिंह लांछन अभिराम नमो, समयसुन्दर चा सामि नमो।३रि० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ( ३३ ) ८ अनन्तवीर्य जिन गीतम् राग-कल्याण (ढाल :-कृपानाथ तइ कूप नू उधर्यउरी । कृ०। एहनी जाति ) अनंतवीरिज आठमउ तीर्थकर । अ०। राग द्वष रहित कुण बीजउ, देव कहुं हरि ब्रह्मा संकर ।१। अ०। त्रिभुवन नाथ अनाथ कउ पीहर, - गुण अनंत अतिसय अतिसुन्दर। सर नर कोडि करइ तुम्ह सेवा, चउसठि इंद्र तिके पणि किंकर ।२।१०। धातकीखंड मइ धरम प्रकासइ, अरिहंत भगवंत तु अलवेसर । समयसुन्दर कहइ मनसुधि माहरइ, इहभवि परभवि तु परमेसर । ३। अ० । ९ सृरिप्रभ जिन गीतम ____गग-उड़ी ( ढालः-छइ मोटु पणि पदम सरोवर । एहनी जाति ) श्री सरिप्रभ सेवा करस्य, ___ ध्यान एह भगवंत नु धरिस्य। श्री। पाय कमल प्रभु ना अनुसरस्यु, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि संसार समुद्र हुँ हेला हरिस्यु। श्री०॥१॥ पंच प्रमाद दूरि परिहरस्यु, वीतराग देव ना वचन समरस्यु । श्री०॥२॥ अरिहंत अरिहंत नाम ऊचरिस्य, समयसुन्दर कहइ हूँ इम तरिस्यु। श्री०॥३॥ १० विशाल जिन गीतम् राग-सुघडउ (ढालः-मन जाणइ के सिरजणहार । एहनी जाति ) जिनजी वीनति सुणउ तुम्हे स्वामि विसाला, तुम्हनइ सुण्या मंद दीनदयाला । जिलाश मिली न सकुँ आया समुद्र विचाला, पणि तुझ नाम जपु जपमाला । जि०।। भगत ऊधरतां मत करउ टाला, समयसुन्दर चा तुम्हे प्रतिपाला । जि०३। ११ वज्रधर जिन गौतम राग-वसंत (ढाला-चंद्रप्रभ भेट्यउ मइ चंदवारि । एहनी जाति) वज्रधर तीर्थकर वांदु पाय, जिहां छइ तिहां जाय । पणि पूरव विदेह मइ ते कहाय । १।०। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ( ३५ ) मिलवानी मुझ नहि संगति काय, दरसण दीठां विण दुख थाय । समयसुन्दर कहइ मुझ करि पसाय, सुपनंतरि पणि दरसण दिखाय । २।३०। १२ चन्द्रानन जिन गीतम् राग-ललित (ढालः-मेरउ गुरु जिणचंद सूरि । एहनी जाति) चंद्रानन जिणचंद, दरसण दीठां आणंद । धातकी खंड मंडाण, वीतराग हिरमाण । भविक कमल भाण, दरि करइ इंद ।। । वृषभ लांछन पाय, पदमावती राणी माय । पिता वालमीक राय, नमइ नर वृन्द ।२। । दक्षिण भरत वर, अयोध्या नामइ नगर । प्रणमइ समयसुन्दर, पाय अरविन्द ।३।०। . १३ चन्द्रबाहु जिन गीतम् राग-मारुणी (ढालः-देखि २ जीव नटावइअइसउ नाटक मंडणउ री।दे० एहनी जाति) चंद्रबाहु चरण कमल, मधुकर मन मेरउ हो । चं०॥ अवर देव तिके वणराइ, नावइ कदि नेरउ हो। चं० ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि तुझ समरण थकी मुझ, करम मूकइ केरउ । सहस किरण सरिज ऊग्यां, किम रहइ अंधेरउ हो। चं० ॥२॥ वीतराग देव विना हुं, देव न मार्नु अनेरउ । समयसुन्दर कहत मुझ, सरणउ एक तेरउ हो। चं० ॥३॥ १४ भुजंग जिन गीतम् राग-मारुणी भुजंग तीथंकर भेटियइ जी, त्रिभुवन केरउ ताय। ऊंची पांचसइ धनुषनी जी, कंचन वरणी काय ।भु०॥१॥ पुष्करार्ध मांहे परगड़उ जी, केवलज्ञानी कहाय । विहरमान विचरइ तिहांजी, चउरासी पूरव लाख आय। भु०॥२॥ समोसरण मांहे बइसि नई जी, देसणा द्यइ जिनराय। समयसुन्दर कहइ हूँ दूरि थीजी, प्रणमुप्रभु ना पाय।मु०॥३॥ १५ ईसर जिन गीतम .. राग-शुद्ध नट ईसर तीथंकर आगइ आवइ इंदा । ए आ । बत्रीस बद्ध नाटक करई, नव नव नव छंदा । ए आ। ई० ॥१॥ भवनपती देव व्यंतर, सरिज चंदा । ए आ। देवलोक ना इन्द्र आवइ, गावइ गुण वृन्दा । ए आ । ई० ॥२॥ भगवंत नी भगति जुगति, मुगति आणंदा । ए आ। समयसुन्दर · वंदण चाह, चरणारविन्दा । ए आ। ई० ३। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ( ३७ ) १६ नेमि जिन गीतम् राग-उड़ी विहरमान सोलमउ तुनेमि नाम । दक्षिण विदेह नलिनावती विजए, पुंडरीकिणी पुरीठाम।१ वि० वीरराज सेना कउ नंदन, इन्द्र नमै सिर नामि । सुरतरु चिन्तामणि सरिखउ तूं,पूरवई वंछित काम ।२ वि० केवल ज्ञान अनंत गुणे करी, अरिहंत तूं अभिराम । समयसुन्दर कहइ तिण करू तोरा, रात दिवस गुण ग्राम ३ वि०। १७ वीरसेन जिन गीतम् राग-सबीब वीरसेन जिन नी सेवा कीजई, पवित्र वचन अमृत रस पीजइ ।। वीर। पुखरारध माहे दुरि कहीजइ, तउ पणि अरिहंत ध्यान धरीजइ ।२। वीर। जनम जीवित नउ लाहउ लीजइ, समयसुन्दर नइ दरसण दीजइ ।३। वीर। १८ महाभद्र जिन गीतम् राग-केदारउ महाभद्र अढारमउ अरिहंत । गज लांछन देवराज नंदन, सूरिज कान्ता कंत ।१॥ महा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) समयसुन्दर कृति कुसुमाञ्जलि कृपानाथ अनाथ पीहर भय भंजण भगवंत । पच्छिम महा विदेह विजया, नगरी मंइ विचरंत |२| महा०| उमादेवी मात अंगज, सकल गुण सोमंत । समयसुन्दर चरण तेरे, ग्रह ऊठी प्रणमंत | ३ | महा० | १९ देवयशा जिन गीतम् राग - मारुणी देवजसा जगि चिर जयउ तीथंकर, देव पुष्करद्वीप मकार रे । ती ० | भव्य जीव प्रतिबोधता ती ०, क्रमि क्रमि करइ विहार रे । ती ० | १ | सर्वभूति नामहं पिता ती०, गंगा मात मल्हार रे । ती ० । अरिहंत उगणीसमउ ती०, त्रिभुवन नउ आधार रे । ती ० |२| राजऋद्धि किसी वस्तु नी ती०, लालचि न करु' लिगार रे । ती ० । समयसुन्दर इम वीनवर ती०, आवागमण निवारि रे । ती ०|३| २० अजितवीर्य जिन गीतम् राग - मारुणी हां मेरी माई हो, अजित वीरज जिन वीसमउ, मोटुं मांड्य हो समवसरण मंडाण । सुरनर कोड़ि सेवा करइ, वीतराग नुं सुराइ सरस वखाण । श्र० १। व्रत थी लाख पूरव वडले, स्वामी तुम्हे तर पहुचिस्यउ निरवारण | पणि मुझ नइ संभारज्यो, तुम्ह सेती हो घणी जाण पिछाण । श्र० । तुमे नीरागी निसप्रीही, पण म्हारइ तो तुमे जीवन प्राण । समयसुन्दर कहइ शिव पामु, तां सीम तर करज्यो कल्याण । श्र० ३ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ( ३६ ) ॥ कलश॥ राग-धन्याश्री धवल वीस विहरमान गाया, परमाणंद सुख पाया । जीभ पवित्र पिण कीधी, मिश्री दूधस्यु पीधी ।१। वी० । समकित पणि थयु निरमल, पुण्य थयुमुझ परिघल। सुणस्यइ ते पणि तरस्यइ, कान पवित्र पण करस्यइ ।२। वी० । जंबू द्वीप मंइ च्यार, महा विदेह मझार । धातकी पुष्कर जेथि, आठ आठ अरिहंत तेथि ।३। वी० । मसकति नुफल मांगू, वीतराग नई पाए लागू। जिहां हुयइ जिणधर्म सार, तिहां देज्यो अवतार ।४। वी० । संवत सोलह सइंत्राणु, माह वदि नवमी वखाणु। अहमदावादि मझारि, श्री खरतरगच्छ सार वी० । श्री जिनसागर सूरि, प्रतपइ तेज पडूरि ।। हाथी साह नी हूँसे, तीथंकर स्तव्या वीसे ।६। वी० । श्री जिनचंद सरीस, सकलचंद तसु सीस। वेह तणइ सुपसायइ, समयसुन्दर गुण गायइ ७ वी० । इति श्रीविद्यमानविंशति तीर्थङ्कराणां गेयपदानि (लिखितानि वा० हर्षकुशल-गणिना १७१७) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि वीस विहरमान जिन स्तवन [निजनाम १ मातृ २ पितृ ३ लांछन ४ सहितम् ] प्रणमिय शारद माय' समरिये सद्गुरु, धर्म बुद्धि हियड़े धरी ए । विहरमान जिन वीस थुणिसुमन थिरै, ___माय ताय लंछण करी ए ॥१॥ श्री सीमंधर स्वामि सत्यकि नंदनो, मन मोहन महिमा निलो ए । जास पिता श्रेयांस वृषभ लांछन वर, श्री जिनवर त्रिभुवन तिलो ए ॥२॥ - श्री युगमंधर देव सेव करुनित, मात सुतारा नंदनो ए । सुदृढ़ पिता सुखकार गज लांछनवर, वचन सुधारस चंदनो ए ॥३॥ बाहु नाम जिनराज विजया अंगज, सुग्रीव वंश निसाकरु ए । अंके हरिण उदार रूप मनोहर, वंछित पूरण सुरतरु ए ॥४॥ ॥ ढाल ॥ श्री सुबाहु सुविख्यात, भु(व)नंदा अंग जात । तात निसढ वरु ए, कपि अंके धरु ए ॥५॥ १ पाय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ( ४१ ) समरूं स्वामी सुजात, देवसेना जसु मात । देवसेन अंगजु ए, रवि चिन्ह पदकजु ए॥६॥ श्री स्वयंप्रभ स्वामि, मात सुमंगला नाम । मित्रभूति कुलतिलो ए, चन्द्र लंछन भलो ए॥७॥ ऋषभानन जिणचंद, श्री वीरसेना नंद । कीर्तिराय कुयरू ए, सिंह अंक सुदरु ए॥८॥ ॥ ढाल । अनंतवीर्य अरिहंतु ए, मंगलावती सुत गुणवंतु ए। मेघराया घर अवतर्या ए, चंद लंछन गुणरयणे भरथाए । श्री सूरप्रभ वंदिये ए, विजया माता चिर नंदिये ए। विजयराज तसु तातु ए, ससिहर लंछन अवदातु ए ॥१०॥ श्री विमल' सुप्रशंसु ए, भद्रा माता उर हंसु ए। जासु पिता श्रीनागु ए, सुरिज लंछन सोभागु ए॥११॥ श्रीवज्रधर जगजाणिये ए,श्रीसरस्वती मात वखाणिये ए। जनक पद्मरथ जासु ए, संख२ लांछन जासु प्रकाशु ए ॥१२॥ || ढाल ॥ चन्द्रानन जिनवर, त्रिभुवन जन आधार । माता पद्मावती, राणी उर अवतार ।। वाल्मीक पिता जसु, लांछन वृषभ उदार । १ विशाल २ अंकइ संख पूरइ आसु ए। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि प्रभुना पद पंकज, प्रणमंतां जयकार ॥१३॥ भव भय दुख भंजन, चंद्रबाहु भगवंत । रेणुका राणी सुत, महियल महिमावंत ॥ देवानंद नरवर, वश विभूषण हंस । अद्भुत पद पंकज, लांछन जग अवतंस ॥१४॥ भवियण जण भेट्यो, श्रीभुजंग जिनराय । महिमा माता वलि, तातु महाबल राय ॥ अंके अति सन्दर, सोहे जस अरविंद । समरंतां सेवक, पामे परमाणंद ॥१५॥ ईश्वर परमेश्वर, प्रणमुपरम उल्लास । जयवंत जिणेसर, मात जशोजला जास ॥ गलसेन पिता गुण, माणिक रयण भंडार। शशि लंछन शोभित, सेवक जन(म) साधार॥१६॥ ॥ ढाल ॥ जगगुरु नेमि जिनेसरु, सेना मात मल्हारो जी । जीवयश नृप नंदनो, सूरज अंक उदारो जी ॥१७॥ वीरसेन प्रभु वंदिये, भानुमती सुत सारो जी। भूमिपाल भूपति पिता, लांछन वृषभ अपारो जी ॥१८॥ स्वामी महाभद्र समरिये, ऊमा देवी नंदो जी। देवराज कुल चंदलो, गज लंछन जिनचंदो जी ॥१६॥ १ वीरराज Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयमुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ( ४३ ) देश यशा जगि चिरजयो, गंगा देवी मायो जी। सर्वभूति नामे पिता, शशिहर चिन्ह सुहायो जी ॥२०॥ अजितवीर्य जिन वीसमो,मात कनीनिका जासोजी। . राजपाल सुत राजियो, स्वस्तिक अंक विलासोजी।।२१।। प्रह उगमते प्रणमिये, विहरमान जिन वीसो जी। नामे नवनिधि संपजे, पूरे मनह जगीसो जी ॥२२॥ ॥ कलश ॥ इह वीस जिनवर भुवन दिनकर, विहरमान जिनेसरा । निय नाम माय सुताय लांछन, सहित हित परमेसरा ।। जिनचंद सूरि विनेय पंडित, सकलचंद महामुणी । तसु सीस वाचक समयसुन्दर, संथुण्या त्रिभुवन धणी ॥२३॥ वीस विरहरमान जिन स्तवन वीस विहरमान जिनवर राया जी। प्रह ऊठी नित प्रणमुपाया जी॥ प्रह ऊठी नित प्रमणु पाय प्रभुना, सीमंधर युगमंधरो। बाहू सुबाहु सुजात स्वयंप्रभ, श्री ऋषभानन जिनवरो॥ श्री अनंतवीर्य श्री सूरिप्रभ के, चरण से चित लाया। प्रह ऊठी प्रणमै समयसुन्दर, विहरमान जिनराया ॥१॥ १ पावइ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जल विशाल तीर्थकर वां, त्रिकालो जी। वज्रधर चंद्रानन प्रतिपालो जी ॥ प्रतिपाल चंद्रबाहु भुजंग ईश्वर, नेमि चरण कमल नमु। वीरसेन महाभद्र देवयशा श्री अजितवीरिज वीसमु॥ ए वर्तमान जिणंद विचरै, अढीय द्वीप विचालो। प्रह ऊठी प्रणमै समयसुन्दर, तीर्थंकर त्रिकालो ॥२॥ वीसे जिनवर ज्ञान दिणंदा जी। चौमुख सोहै पूनमचंदा जी ॥ पूनमचंद तणी परे, प्रभु समवसरण विराज ए। देशना अमृतधार वरसै, भविय संशय भाज ए॥ पांचसइ धनुष प्रमाण काया, नमइ इंद्र नरिंदा। प्रह ऊठी प्रणमै समयसुन्दर, जिनवर ज्ञान दिणंदा ॥३॥ भवि भवि देज्यो तुम पाय सेवा जी। मिलन उमाह्यो गज जिम रेखा जी ॥ गज जेम रेवा मिलन उमयो, दैव न दीधी पांखड़ी। सो सफल दिवस गिणीस अपनौ, जिण दिन देखिस आंखड़ी। दुरि थी मोरी वंदना हिव, जाणजो नित मेवा । प्रण ऊठि प्रणमै समयसुन्दर, भव भव तुम पय सेवा ॥४॥ --xox-- Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ( ४५ ) श्रीसीमन्धरस्वामिस्तवनम् पूर्वसुविदेहपुष्कलविजयमण्डनं, मोहमिथ्यात्वमतितिमिरभरखण्डनम् । वर्तमानं जिनाधीश-तीर्थङ्करं, भव्य भक्त्या भजे स्वामि-सीमन्धरम् ॥१॥ असुर-सुर-खचर-नरवृन्दकृतवन्दनं, रूपसुररमणिसम-सत्यकिनन्दनम्। वृषभलाञ्छनधरं ज्ञातगुणसुन्दरं, भव्य भक्त्या भजे स्वामि-सीमन्धरम् ॥२॥ परमकरुणापरं जगति हितकारकं, भीमभवजलधिजलपारउत्तारकम् । धर्म धारिमधरा धरणधरमन्दरं, भव्य भक्त्या भजे स्वामि-सीमन्धरम् ॥३॥ ऋद्धिवर-सिद्धिवर-बुद्धिवर-दायकं, त्रिदशपति-भवनपति-मनुजपतिनायकम् । भविकजननयनकैरववने शशिकर, भव्य भक्त्या भजे स्वामि-सीमन्धरम् ॥४॥ स्वर्णसमवर्णवरमूर्तिशोभाधरं, सुगुरुजिनचंद्र-जितसिंहगुणसागरम् । समयसुन्दर-सदानन्द-मङ्गलकर, भव्य भक्त्या भजे स्वामि-सीमन्धरम् ॥४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि श्री सीमंधर जिन स्तवन धन धन क्षेत्र महाविदेह जी, धन पुण्डरंगिणी गाम । धन्य तेहना मानवी जी, नित उठ करै रे प्रणाम ।। सीमंधर स्वामी, कइये रे हूँ महाविदेह आवीस । जयवंता जिनवर, कइये रे हूँ तुमनै वांदीस । प्रा०। चांदलिया संदेसड़ो जी, कहजे सीमंधर स्वाम । भरतक्षेत्र ना मानवी जी, नित उठ करइ रे प्रणाम ।।सी। समवसरण देवे रच्यो तिहां, चौसठ इन्द्र नरेश । सोना तणे सिंहासण बैठा, चामर छत्र धरेश ॥३॥ सी०। इंद्राणी काढ गूहली जी, मोती ना चौक पूरेश । ललि ललि लीयै लूँछणा जी, जिनवर दिये उपदेश।४।सी। एहवइ समइ मंइ सांभल्यूंजी, हवे करवा पञ्चक्खाण । पोथी ठवणी तिहां कणे जी, अमृत वाणी वखाण ।।सी। राय नै व्हाला घोडला जी, वेपारी नै व्हाला छैदाम । अम्ह ने वाल्हा सीमंधर स्वामी, जिम सीता ने राम ।६।सी। नहीं मांगूप्रभु राज ऋद्धि जी,नहीं मांगू ग्रंथ भंडार। हूँ मांगू प्रभु एतलो जी, तुम पासे अवतार ७ सी०) दैव न दीधी पांखड़ी जी, किम करि अावु हजूर । मुजरो म्हारो मानजो जी, प्रह उगमते सूर ।।सी। समयसुन्दर नी वीनति जी, मानजो वारं वार । बेकर जोड़ी वीनवु जी, बीनतड़ी अवधार ।।।सी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ( ४७ ) सीमंधर जिन स्तवन विहरमान सीमंधर सामी, प्रह ऊठी प्रणमुसिरनामी।११ वि०। सत्यकी माता उरि सर हंसि, लांछन वृषभ पिता श्रेयंसि ।२। वि०। पूरव महाविदेह मझारी, पुखलावती विजयो अवतारी।३। वि०॥ कंचन वरणी कोमल काया, चउरासी लख पूरब आया।४। वि०। पांचसय धनुष शरीर प्रमाणा, अमृत वाणी करत वखाणा । वि०। सकल लोक संदेह हरंता, समयसुन्दर वांदइ विहरंता।६।वि। इति श्रीपुष्कलावतीविजयमण्डणश्रीसीमधरसामिभास ॥२६॥ सीमंधर जिन स्तवन चंदालाइ एक करू. अरदास चंदा, चंदालाइ सीमंधर सामी नै कहे मोरी वंदना रे लो। चंदालाइ मूरति मोहन वेल चंदा,. चंदालाइ सूरति तो अति सुन्दर शीतल चंदना रेलो।१०। चंदालाइ मो मन मिलन उमेद चंदा, ___ चंदालाइ देवडले न दीधी मुझने पांखड़ी रे लो। चंदालाइ सकल दिवस मुझ सोइ चंदा, चंदालाइ आपणड़ा वाल्हेसर देखिस प्रांखड़ी रे लो।२ चं०। चंदालाइ मन मान्या मेलाप चंदा, चंदालाइ पूरबलै सरजै बिण क्युकरि पाइये रेलो। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि चंदालाइ समयसुन्दर कहे एम चंदा, चंदालाइ एकरसउ सुपनंतर साहिब आइये रे लो | ३ चं० । सीमंधर जिन स्तवन सीमंधर जिन सांभलउ, वीनति करू' कर जोड़ । तूं समरथ त्रिभुवन धणी, मुने भव संकट थी छोड़ | १ | सी० । तुम मृ' बिचि अंतर घणो, किम करू तोरी सेव । पांख बिना किउं मिलूं, पण दिल में तूं एक देव | २ | सी० । जिम चकोर मन चंद्रमा, तिम तूं मोरे चित | सयमसुन्दर कहइ ते खरी, जे परमेसर सु प्रीत | ३ | सो १ | सीमंधर जिन गीतम् राग - मारुणी स्वामि तारि नइ रे मुझ परम दयाल, सीमंधर भगवंत रे । सरणागत सेवक जन वच्छल, श्री जिनवर जयवंत रे | १ | स्वा०| पुख लावती विजय प्रभु विहरह, महाविदेह मकारि रे | हूँ दूरि थकां प्रभु तोरी, सेवा करु किम सार रे | २ | स्वा० । हे है देव काय नवि दीधी, पांखड़ली मुझ दोय रे । जिम हूँ जइ नइ जगगुरु वांदू, हीयड़लु हरखित होय रे । ३ | स्वा०| समवसरण सिंहासण स्वामी, बइठा करइ वखाण रे । धन ते सुर किन्नर विद्याधर, वाणी सुखइ सुविहाण रे | ४ | स्वा० | Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि (४६ ) धन ते गाम नयर पुर मंदिर, जिहां विहरइ जिनराय रे। विहरमाण सीमंधर स्वामी, सुरनर सेवइ पाय रेशस्वा०। तुम दरसण बिण चत्रगति मांहि, हूँभम्यउ अनंतीवाररे। हवइ प्रभुतोरइ सरणे आव्यउ, आवागमण निवारि रे।६।स्वा०। सेवक नी प्रभु सार करी नइ, सारउ वंछित काज रे। समयसुन्दर कर जोड़ीवीनवइ,आपउ अविचल राजरे।७।स्वा०। राग-गउड़ी पूरव माह विदेह रे, पुखलावतो विजय जेह रे। पुंडरीकणी पुरी नामि रे, विहरइ सीमंधर स्वामि रे ॥१॥ वृषभ लांछन सुखकार रे, श्री श्रेयांस मल्हार रे। सत्यकी उरि अवतार रे, रुकमणि नउ भरतार रे ॥२॥ पांच सइ धनुष नी काय रे, सेवइ सुरनर पाय रे । सोवन वरण शरीर रे, सायर जेम गंभीर रे ॥३॥ कनक कमल पद ठावइ रे, सुर किन्नर गुण गावइ रे। भवियण जण नइ साधारइ रे, भवजल पार उतारइ रे ॥४॥ धन धन ते पुरगाम रे, विहरइ सीमंधर स्वामि रे। धन धन ते नर नारी रे, भगति करइ प्रभु सारी रे ॥५॥ श्री सीमंधर स्वामी रे, चरण नमु सिर नामी रे। समयसुन्दर गुण गावइ रे, मन वंछित फल पावइ रे ॥६॥ * पाठान्तर-सांभलइ देसणा सार रे, हियड़इ हरख अपार रे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५. ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि मीमधर स्वामी गीतम् राग-कड़खा सामि सीमंधरा तुम्ह मिलवा भणी, हियडलु राति नइ दिवस होस । ध्यान धरतां सुपन मांहि आवी मिलइ, झनकि जागु तब काइ न दीसै ।। सा। नउ तंइ रे देव दीधी कुंती पांखड़ी, तउ हूं ऊडी प्रभु जांत पासे । सामि सेवा भणी अति घणउअलजयउ, देवतइ को दिउ दरि पासे ।२। सा० । ध्यान समरण प्रभु ताहरू नित धरू, तूं पणि मुझ ने मत वीसारे । समयसुन्दर कर जोड़ि इम वीनवइ, सामि मुंनइ भव समुद्र तारे ।३। सा०। युगमंधर जिन गीतम् बाल-उपशम तरु छाया रस लीजइ, एहनी तूं साहिन हूँ तोरउ, वीनतही अवधारि जी। इंप्रभु तोरई शरणह अाव्यउ, तूं मुझ नइ साधारि जी।। श्री जुगमंधर करुणा सागर, विहरमाण जिणिंद जी। सेवक नी प्रभु सार करीजइ, दीजइ परमाणंद जी ।२ श्री०। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाललि ( ५१ ) जन्म जरादिक दुख थी बीहतउ, हूँ भाव्यउ तुम्ह पासिजी। मुझ ऊपरि प्रभु महिर करी नइ, मापउ निरभय बास जी।भी। पूरव पुण्य संजोगइ पाम्यउ, तू त्रिभुवन नउ नाह जी। एक वार मुझ नयण निहालउ, टालउ भव दुह दाह जी ।४ श्री०। वीनतड़ी प्रभु सफल करेज्यो, श्री जुगमंधर देव जी। समयसुन्दर कर जोड़ी मांगइ, भव भवि तुम्ह पय सेव जी।५ भी। इति श्रीयुगमंधरस्वामिगीतम् सं० १३ ॥ शाइवतजिनचैत्यप्रतिमाबृहत्स्तवनम् रिषभानन बधमान, चन्द्रानन जिन, वारिषेण नामइ जिणा ए। तेह तणा प्रासाद, त्रिभुवनि सासतां, प्रणमु बिंब सोहामणा ए ॥१॥ चेइहर सगकोड़ि लाख बहुत्तरि, __चेइ चेइ प्रतिमा सउ असी ए । तेरसइ नव्यासी कोडि साठि लाख सुदर, ___ भवनपती मांहि मनि वसी ए ॥२॥ बार देवलोक प्रासाद चउरासी लख, ___ सहस छन्नू नइ सातसइ ए । एक सउ असी गुण बिंब बावन सउ कोड़ि, चउराणु लख सहस छइ ए॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) . समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ॥ ढाल ॥ हवइ नवग्र वेकह पंचाणुत्तर सार, चेइहर त्रणसइ वीसा सुविचार । प्रत्येक प्रतिमा वीसा सउ तिहां जाणि, अठत्रीस सहस सत साठ साठिगुण खाणि ।४। नंदीसर बावन कुंडल रुचक वखाणि, चउ चउ चेईहर साठि सवे त्रिहुं ठाणि । एकसउ चउवीस गुणी प्रतिमाचिहुं नामि, च्यार सइच्यालीसा सात सहस प्रणमामि।। नंदीसर बिदसइ सोलस कुलगिरि तीस, . मेरु वणि अइसी दस कुरु गजदंते वीस। मानुषोत्तर पर्वति च्यार च्यार इषुकारि, अइसा अति सुन्दर वृक्षसकारि मझारि॥३॥ 1. ढाल ।। दिग्गज गिरि च्यालीस असिय द्रहे सुजगीस, __ कंचण गिरि वरइ ए, एक सहस धर ए ॥७॥ वृत्त दीरघ वेताढ्य, वीस सतरि सउ श्राद्य, सत्तरि महा नदी ए, पंच चूला सदी ए॥८॥ जंबू प्रमुख दस रुक्ख, इग्यारइ सत्तरि सुक्ख, कुंड त्रण सइ असी ए, वीस जमग वसी ए |६| Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ( ५३ ) ॥ ढाल ।। त्रण सहस सउ एक नवाणुरे, जिणवर प्रासाद वखाणु रे। बीसा सउ ए अंक गुणीयइ रे, तीर्थंकर प्रतिमा सुणियइ रे ॥१०॥ त्रिण लाख सहस वलि आसी रे, प्रतिमा आठसइ नइ अइसी रे । सिर वालइ सवि मेलिजइ, त्रिभुवन प्रासाद नमिजइ रे ॥१०॥ आठ कोड़ि सतावन लक्खा रे, दुय सत ब्यासी कय रक्खा रे। हिवइ प्रतिमा गान कहीजइ रे, जिणवर नी आण वहीजइ रे ॥१२॥ पनर सई बड़तालीस कोड़ी रे, अडवन लख अधिका जोड़ी रे । छत्रीस सहस असि कहियइ रे, प्रतिमा सगली सरदहियइ रे ॥१३॥ ॥ ढाल । जोइसवंतर प्रतिमा सासती, असंख्यात वलि जेहोजी। पाय कमल तेहना नित प्रणयियइ, सोवन वरण सुदेहोजी॥१४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि विनय करी जिन प्रतिमा वांदियइ, सुन्दर सकल सरुपोजी। पूजइ प्रतिमा चउविह देवता, वलिय विद्याधर भूपो जी॥१५॥ जिन प्रतिमाबोली जिन सारखो, हितसुख मोक्ष निदानो जी। भवियण नइ भवसागर तारिवा, प्रवहण जेम प्रधानोजी॥१६॥ जीवाभिगम प्रमुख मांहि भाखियउ,ए सहु अरथ विचारोजी। सांभलतां भणतां सुख संपदा, हियडइ हरख अपारो जी॥१७॥ || कलश ॥ इम सासता प्रासाद प्रतिमा संथुण्या जिणवर तणा, चिहुं नाम जिनचंद तणे त्रिभुवन सकलचंद सुहामणा । वाचनाचारिज समयसुन्दर गुण भणइ अभिराम ए, त्रिहुं कालि त्रिकरण सुद्ध हुइज्यो सदा मुझपरणाम ए॥१८॥ तीर्थमाला बृहत्स्तवनम श्रीशत्रुजयशिखरे, मरुदेव स्वामिनीह गजचटिता। पुत्रनमस्कृति चलिता, सिद्धा बुद्धा नमस्तस्म्यै ।।१।। श्रीशत्रुज्जयशृङ्गार-कारिणे दुःखहारिणे । प्रलम्बतरबिम्बाय, अर्बुदस्वामिने नमः ॥२॥ श्रीमत्खरतरवसति-प्रौढप्रासादमूलबिम्बाय । श्रीशान्तिनाथजिनवर ! सुखकर! सततं नमस्तुभ्यम् ॥३॥ श्रीशत्रुञ्जयमण्डन ! मरुदेवाकुक्षिराजहंससम ! । प्रणमामि मूलनायक चरणं तब नाथ ! मम शरणम् ॥४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ( ५५ ) युगादिगणधाराय, पञ्चकोटिसुसाधवे । श्रीशत्रु ञ्जयसिद्धाय, पुण्डरीक नमोस्तु ते ॥५॥ श्रीयादवकुलतिलकं, योगीन्द्रब्रह्मचारिमुकुटमणिम् । गिरिनारनामतीर्थे, नमाम्यहं नेमिनाथजिनम् ॥६॥ श्रीवस्तुपालचैत्ये, मन्त्रिश्रीविमलवसतिजिनभवने। श्रीअर्बुदगिरिशिखरे, जिनवरबिम्बानि जू कुर्वे ।।७।। श्रीअष्टापदतीर्थे, चक्रि-श्रीभरतकारिते चैत्ये। चतुरष्ट-दश-द्विमितान् चतुर्दिशं नौमि जिनराजान्॥८॥ सम्मेतशिखरतीर्थे, विंशतितीर्थङ्करा गताः सिद्धिम् । प्रणमामि तत्र तेषां, सद्भक्त्या स्तूपरूपाणि ॥६॥ श्रीमज्जेसलमेरो, श्रीपाचप्रमुखसप्तचैत्येषु । वन्दे वारं वारं, सहस्रशो जैनबिम्बानि ॥१०॥ राणपुरे जिनमन्दिर-मतिरम्यं न यते सदा मयका। धन्यं मम जन्म तदा, यदा करिष्यामि तद् यात्राम् ॥११॥ विद्या-पक्ष-विहीनो, गन्तुमशक्तः करोमि कि हा! हा! नन्दीश्वरादिदेवान्, दूरस्थस्तेन वन्दामि ॥१२॥ श्रीस्तम्भतीर्थनगरे, पार्श्वजिनसकलविश्वविख्यातः। श्रीअभयदेवसरिप्रकटितमूर्तिर्जिनो जीयात् ॥१३॥ श्रीशङ्खश्वर-गउड़ी-मगसी-फलवर्द्धिकादिचैत्येषु । या या अहत्प्रतिमा-स्तासां नित्यं प्रणामोस्तु ॥१४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि स्वर्गे च मर्त्यलोके, पाताले ज्योतिषां च जिनभवने। शाश्वतरूपाः प्रतिमाः वन्दे श्रीवीतरागाणाम् ॥११॥ इति जिनेश्वरतीर्थपरम्परा, सकलचंद्र-सुबिम्बमनोहरा । सुरनरादिनुता भुवि विश्रुता, समयसुन्दर सन्मुनिना स्तुता। १६ इति श्रीशत्रुञ्जयादितीर्थबृहत्स्तवनं समाप्तम् * तीर्थमाला स्तवन सेवजे ऋषभ समोसरथा, भला गुण भरया रे । सीधा साधु अनंत, तीरथ ते नमु रे ॥१॥ तीन कल्याणक जिहां थया, मुगते गया रे। नेमीश्वर गिरनार, , तीरथ ते नमु रे ॥२॥ अष्टापद इक देहरउ, गिरि सेहरउ रे। भरते भराव्या बिंब, तीरथ ते नमुरे॥३॥ आबू चौमुख अति भलो, त्रिभुवन तिलो रे। विमल वसही वस्तुपाल, तीरथ ते नमुरे ॥४॥ समेत शिखर सोहामणो, रलियामणो रे। सीधा तीर्थकर वीस, तीरथ ते नमु रे ॥५॥ *स्वयं शोधित प्रति से । रचनाकाल सं० १६७२ से पूर्व सुनिश्चित है क्योंकि राणकपुर की यात्रा से पूर्व इसकी रचना हुई। सं०१६६६ के पश्चात् की कृति में लिखी मिलने से अनुमानतः इसकी रचना सं० १६६६ पश्चात् हुई होगी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ( ५७ ) नयरी चंपा निरखिये, हियै हरखियै रे। सीधा श्री वासुपूज्य”, तीरथ ते नमु रे॥६॥ पूरब दिसि पावापुरी, ऋद्ध भरी रे। मुगति गया महावीर, तीरथ ते नमु रे॥७॥ जेसलमेरि जुहारियइ, दुख वारियइ रे। अरिहंत बिंब अनेक, तीरथ ते नमु रे॥८॥ बीकानेर ज वंदियइ, चिर नंदिये रे। .. अरिहंत देहरा आठ, तीरथ ते नमु रे ॥३॥ सैरीसरउ संखेसरउ, पंचासरउ रे। फलोधी थंभण पास, तीरथ ते नमु रे ॥१०॥ अंतरीक अनार, अभीझरल रे : जीरावलउ जगनाथ, तीरथ ते ज रे ॥११॥ त्रैलोक्य दीपक देहरउ, जात्रा करो रे। राणपुरे रिसहेस, तीरथ ते नमु रे॥१२॥ श्री नाडलाई जादवो, गौड़ी स्तवो रे। श्री वरकाणा पास, तीरथ ते नमु रे ॥१३॥ [क्षत्रियकुण्ड सोहामणउ, रलियामणो रे। . जनम्यां श्री महावीर, तीरथ ते नमुरे ॥१४॥ राजगृही रलियामणी, सोहामणी रे। फिरस्यु पहाड़ा पंच, तीरथ ते नमुरे ॥१५॥ ' । * प्रणमुपगलाचारि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि शत्रञ्जय नी कोरणी, नवा नगर में रे। श्री राजसी भराया बिंब, तीरथ ते नमुरे॥१६॥] नंदीसर ना देहरा, बावन वरा रे। रुचक कुण्डल च्यार च्यार, तीरथ ते नमुरे॥१७॥ शासती नई असासती, प्रतिमा छती रे। स्वर्ग मर्त्य पाताल, तीरथ ते नमु रे॥१८॥ तीरथ यात्रा फल तिहां, होजो मुझ इहां रे। समयसुन्दर कहै एम, तीरथ ते नमुरे ॥१४॥ तीर्थमाला स्तवन श्री सेत्रुञ्जि गिरि शिखर समोसरया, वीस तीर्थंकर श्री अरिहंत । आठ करम नउ अंत करी नइ, सीधा मुनिवर कोड़ि अनंत ।।प्र। मह ऊठी ने नित प्रणमीजइ, तीरथ सेत्तु जि प्रमुख प्रधान । हियडइ ध्यान धरतां आपइ', - अष्ट महासिद्धि नवे रे निधान ।।प्र। श्री गिरनार नमु नेमीसर, श्री जिनवर जादव कुल भाण । १ हुई Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ( ५ ) जिहां प्रभु त्रिएह कल्याणक हूयउ, दीक्षा ग्यान अनइ निरवाण ।३।प्र। अष्टापदि प्रणमु चउवीसे, : भरत कराव्या जिन प्रासाद । गौतम सामि चड्यां जिहां लबधि, प्रतिबोध्या तापस सुप्रसाद ४।प्र। श्री सम्मेत शिखर समरीजइ, अजित प्रमुख तीर्थकर वीस । सुकल ध्यान धरी शिव पहुंता, जगबंधव जगगुरु जगदीश शप्र० नंदीसर वर दीपि . नमीजइ, सासता तीर्थकर च्यार । ऋषभानन वधमान जिणेसर, वारिपेण चन्द्रानन सार ।।प्र०) अभयदेव सूरि खरतर गच्छ पति, प्रगट कियउ प्रभु वित्र उलास । तेहनउ रोग हरयउ तिहां ततखिण, प्रणमु श्री थंभणपुर पास ।।प्र० जरासिंधु विद्या बल गंजण, हरिसेना मनि कियो रे आणंद ।। जय जय जादव वंश जीवाडण, श्री संखेसर पास जिणंद ।।म० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६० ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि आबू आदीसर वरकाणइ, जीराउलि गउड़ी प्रभु पास । साचउरउ वर्धमान जिणेसर, प्रणमंता पूरइ मन श्रास ।।प्र। भुवनपति व्यंतर नइ ज्योतिषि, वेमाणिक नरलोक मझारि । जे जिणवर तीर्थकर प्रतिमा, प्रणमति समयसुन्दर सुखकार ।१०प्र०। इति श्री तीर्थमाला भास १३। [प्रसिद्धतीर्थस्थिततीर्थकरप्रतिमागीतम् ] तीरथभास सखि चालउ हे, सखि चालउ हे चतुर सुजाण, भावइ हे, आपे भावइ हे तीरथ भेटस्यां। सखि करस्यां हे, सखि करस्यां हे जनम प्रमाण, दुरगति हे, आपे दुरगति ना दुख मेटस्यां ॥१॥ लि से अ है, सति सेञ्ज नीरच सार, हिलु हे, आये लुहिएर जुहारस्य । अखि पछइ हे, सखि पछइ हे करिय प्रणाम, बीजा है, आपे बीजा बिंब संभारिस्यां ॥२॥ सखि वारू हे, सखि वारु हे गढ गिरनारि, ऊँचा है, आपे ऊँचा हे टूक निहालस्यां! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ( ६१ ) सखी नमिस्यां हे, सखि नमिस्यां नेमि जिणंद, पगि पगि हे, आपे पगि पगि पाप पखालस्यां ॥३॥ सखि आबू हे, सखि आबू अचलगढ आवि, चौमुख' हे, आपे चौमुख मूरति चरचस्यां । सखि प्रणमी हे, सखि प्रणमी हे विमल प्रासाद, घरमइ हे, आपे धरमइ हे निज धन खरचस्यां ॥४॥ सखि जास्यां हे, सखि जास्यां हे राणकपुत्र जात्र, देहरउ हे, आपे देहरउ देखी आणंदस्यां । सखि नमिस्यां हे, सखि नमिस्यां आदि जिणंद, दोहग है, आपे दोहग दुख निकंदस्यां ॥५॥ सखि फलवधि हे, सखि फलवधि हे जेसलमेरि, जास्यां हे, आपे जास्यां जात्रा - करण भणी । सखि लहिस्यां हे, सखि लहिस्यां हे लील विलास, बोलइ हे, मइ बोलइ हे समयसुन्दर गणी ॥६॥ ____ इति श्री तीरथ भास। .. अष्टापद तीर्थ भास मोरू मन अष्टापद सु मोह्य, फटित रतन अभिराम मेरे लाल । भरतेसर जिहां भवन कराव्य उ, कीधु उत्तम काम मेरे लाल । मो०।१। १ केसर हे, आपे केसर चंदन चरचस्यां Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि सगर तणे मुत खाई खणावी, भगति दिखाड़ी भूरि मेरे लाल । इण गिरि गंग भागीरथ प्राणी, पाखलि जल भरपूर मेरे लाल । मो०।२। रिषभदेव तिहां मुगति पहुंता, भरत कराव्या धुंभ मेरे लाल। सुरनर किन्नर नई विद्याधर, सेवा सारइ ऊभ मेरे लाल । मो०।३। जोयण जोयण पावड शाला, आठ जोयण ऊंचाति मेरे लाल । गौतम सामि चढ्या जिहां लवधि, अवलंबि रवि कांति मेरे लाल । मो०।४। संवत सोल अठावना वरसे, अहमदावाद मझारि मेरे लाल । सुणि सखी अष्टापद मंडाव्यउ, मनजी साह अपार मेरे लाल । मो०। ५। ते अष्टापद नयणे निरख्यउ, सीधा वांछित काज मेरे लाल । समयसुन्दर कहे धन्न दिवस ते, तिहां भेटू जिनराज मेरे लाल । मो०।६। इति श्री अष्टापद तीरथ भास ॥१०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ( ६३ ) (२) मनडु अष्टापद मोयु माहरु रे, हूँ नाम जp निशदीस रे। चत्तारि अठ दस दोय नमुरे, चिहुं दिशि जिन चउवीस रे ।१।म। जोयण जोयण आंतरइ रे, __पावड़सालां आठ रे।। आठ जोयण ऊँचो देखतां रे, दुःख दोहग जायइ नाठि रे ।। म भरत कराव्यउ भलउ देहरउ रे, सउं भाई ना धुंभ रे। आप मूरति सेवा करइ रे, जाणे जोइयइ ऊभ रे।३।म। गौतम स्वामि चढ्या इहां रे, आणी भागीरथ गंग रे। गोत्र तीर्थकर बांधव्यउ रे, रावण नाटक रंग रे।४।म०! दैव न दीधी मुनई पांखड़ी रे, कहउ किम जाउं तिण ठाम रे। समयसुन्दर कहै माहरउ रे, दूरि थकी परणाम रेशम० इति श्रीअष्टापद तीरथ भास ॥११॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि अष्टापदमण्डनशान्तिनाथगीतम् राग-मालवी गउड़उ सो जिनवर प्रियु कहउ मोहि कत री। रावण वेणु बजावत मधुरी, नृत्य करत मंदोवरी पूछत री ।१। सो०। शरणागत राख्यउ पारेवउ, पूरव भव अइसउ चरित सुणत री। जाकउ जनम भयउ सब जग मंइ, शांति भई दुख दूरि गमत री ।२।सो। पांचमउ चक्रवर्ती सोलमउ जिनपति, साधत रो पट खंड भरत री। चउसठि सहस अंतेउरि मनोहरी, तृण ज्युतजी करि संयम गहत री।३। सो०। तब लंकेश हसी प्रिया कर ग्रही, देखावति अहो इनु न जानत री । इया सो जिन मृग लांछन शोभित, तीन भुवन जाकी प्राण मानत री।४।सो०। ऋति तांति नसा सांधत री, रावण तीर्थकर गोत्र बांधत री। अष्टापद गिरि शांति जिनेसर, समयसुन्दर पाय प्रणमत री।श सो। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि श्री शत्रुजय आदिनाथ भास चालउ रे सखि शेत्रञ्ज जइयइ रे तिहां भेटीई रिषभ जिणंद रे। नरग तृयंच गति रुधीयइ रे, मुझ मनि अति परमाणंद रे । चा०॥१॥ पालीताणइ पेखियइ रे, रूड़ी ललित सरोवर पालि रे। सेत्रुञ्ज पाज चडीजियइ रे, विमला नयण निहालि रे।चा०।२। जगगुरु आदि जिणेसरू रे, मरुदेवी मात मल्हार रे। रायण रूख समोसरया रे, प्रभु पूरब निवाणु वार रे । चा०॥३॥ त्रेवीस तीर्थकर समोसर्या रे, इण मुगति निलइ निरकंख रे। पांच पांडव शिव गया रे, इम मुनिवर कोड़ि असंख रे।चा०।४। देखू चिहुं दिस देहरी रे, रायण तलि पगलां जुहारि रे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि पुंडरीक प्रतिमा नमु रे, चउमुखि प्रभु प्रतिमा चारि रे । चा०॥ खरतर वसही वांदियइ रे, श्री शांति जिनेसर राय रे। अदबुद आदि जुहारियइ रे, नित चरण नमु चित लाय रे ।चा०।६। घडता चउ गति भव टलइ, प्रणमतां पातक जाय रे। समरतां सुख संपजइ रे, निरखंता नव निधि थाइ रे । चा०।७। संवत सोल चिमालमइ रे, चैत्र मासि वदि चउथि बुधवार रे। जिनचंद्रसरि जात्रा करी रे, चतुर्विध संघ परिवार रे । चा०।। श्री आदीसर राजियउ रे, श्री शत्रुञ्ज गिरि सिणगार रे। समयसुन्दर इम वीनवह रे, हुज्यो मन वंछित दातार रे । चाई। इति श्री शत्रु जय आदिनाथ भास ॥१॥ -x Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि (६० ) श्री शत्रुजय तीर्थ भास राग-मारुणी-धन्याश्री । जाति धमालनी सकल तीरथ मांहि सुन्दरु, सोरठ देश शृङ्गार । सुरनर कोड़ि सेवा करइ, सेञ्ज तीरथ सार।१। चालउ चालउ विमल गिरि जाइयइ रे, भेटउ श्री ऋषभ जिणंद ।चा०। आंकणी। ए गिरि नी महिमा घणी, पामइ को नहिं पार । तउ पण भगति भोलम भणु, सेत्रअ जग सुखकार । २।चा ऋषभ जिणंद समोसरचा, पूरब निवाणु वार । पांच कोड़ि सुपरिवरया, श्री पुण्डरीक गणधार । ३ । चा० सेत्रज शिखरि समोसरचा, तीर्थकर तेवीस । पांचे पांडव शिव गया, चरण नमुनिशदीश । ४ । चा। मुगति निलउ जाणी करी, मुनिवर कोड़ि अनंत । इण गिरि आवो समोसरचा, सिद्ध गया भगवंत । ५। चा० धन धन आज दिवस घड़ी, धन धन मुझ अवतार । सेत्तञ्ज शिखर ऊपर चडी, भेट्यउ श्री नामि मल्हार । ६ । चा०। चंद चकोर ती परइ, निरखंता सुख थाय । हीयड हेजइ उल्हसइ, आणंद अंगि न माय । ७ । चा० दुख दावानल उपसम्यो, वूठउ अमिय मइ मेह। . मुझ गणि सुरतरु फल्यउ,भागउ भव भ्रमण संदेह । ८। चा०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि धन धन जोगी सोम जी, धन धन तुम्ह अवतार । सेत्रुञ्ज संघ करावियउ, पुण्य भरचउ भण्डार । ६ । चा०। संवत सोल चिमालमइ, मास सु चैत्र मझार । श्री जिनचंद्र सूरीसरू, जात्र करी सपरिवार ।१०। चा०। श्री सेत्रुञ्ज गुण गावतां, हियडइ हरख अपार । समयसुन्दर सेवक भणइ, रिषभ जिणंद सुखकार ।११। चा० इति श्री सेत्तु ञ्ज तीरथ भास ॥२॥ शत्रुजय आदिनाथ भास मुझ मन उलट अति घणउ मन मोबउ रे,... सेञ्ज भेटण काज लाल मन मोबउ रे । चैत्री पूनम दिन चढू मन मोह्यउ रे, पालीताणा पाजि लाल मन मोबउ रे॥१॥ संघ करइ वधामणा मन मोबउ रे, तीरथ नयण निहालि लाल मन मोह्यउ रे । सेत्त ज नदीय सोहामणी मन मोबउ रे, . . ललित सरोवर पालि लाल मन मोह्यउ रे ॥२॥ केसर भरिय कचोलड़ी मन मोहउ रे, पूज्या प्रथम जिणंद लाल मन मोघउ रे । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि (६६ ) देव जुहारी देहरी मन मोबउ रे, प्रगट्यउ परमाणंद लाल मन मोघउ रे ॥३॥ खरतर वसही वांदिया मन मोबउ रे, संतीसर सुखकंद लाल मन मोबउ रे। राइणि. तल पगला नम्या मन मोह्यउ रे, अदबुद आदि जिणंद लाल मन मोबउ रे ॥४॥ पांचे पांडव पूजिया मन मोबउ रे, सोलमउ जिनवर राय लाल मन मोबउ रे । सकल बिंब प्रणम्या मुदा मन मोह्यउ रे, गज चढि मरुदेवी माय लाल मन मोबउ रे ॥५॥ चेलण तलाइ सिद्ध सिला मन मोबउ रे, अति भलउ उलखा झोल लाल मन मोबउ रे। सिद्ध वड़ कुंड सोहामणा मन मोघउ रे, निरखंता रंगरोल लाल मन मोहउ रे॥६॥ इण गिरि रिषभ समोसरचा मन मोह्यउ रे, पूरब निवाणु वार लाल मन मोबउ रे । मुनिवर जे मुगति गया मन मोह्यउ रे, ते कुण जाणइ पार लाल मन मोह्यउ रे ॥७॥ संवत सोल अठावनइ मन मोघउ रे, __ चैत्री पूनम सार लाल मन मोबउ रे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि आज सफल दिन माहरउ मन मोह्यउ रे, जात्रा करी सुखकार लाल मन मोबउ रे ॥८॥ दुरगति ना भय दुख टल्या मन मोह्यउ रे, . पूगी मन नी आस लाल मन मोह्यउ रे । समयसुन्दर प्रणमइ सदा मन मोह्यउ रे, सेत्रुञ्ज लील विलास लाल मन मोह्यउ रे ॥६॥ इति श्री सेत्त तीरथ आदिनाथ भास ॥५॥ आलोयणा गर्भित श्री शत्रुञ्जय मण्डन आदिनाथ स्तवन बेकर जोड़ी वीनवू जी, सुणि स्वामी सुविदीत । कूड कपट मूकी करी जी, बात कहूँ आप वीति । १। कृपानाथ मुझ वीनति अवधार ॥ आंकणी ॥ तू समरथ त्रिभुवन धणीजी, मुझ नई दुत्तर तार । २।०। भवसागर भमतां थकां जी, दीठा दुख अनंत । भाग संजोगे भेटिया जी, भय भंजण भगवंत । ३ । कृ०। जे दुख भांजइ आपणा जी, तेहनइ कहियइ दुःख । पर दुख भंजण तूसुण्यउ जी, सेवक नइ यो सुख । ४ । कृ०। आलोयण लीधां पखइ जी, जीव रुलै संसार । रूपी लक्ष्मणा महासती जी, एह सुण्यउ अधिकार । ५ । कृ०। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दर कृतिकुसुमाञ्जलि ( ७१ ) दूसम काले दोहिलउ जी, सुधउ गुरु संयोग । परमारथ प्रीछ नहीं जी, गडर प्रवाही लोग । ६ । कृ० । तिण तुझ आगल आपणा जी, पाप आलोवु आज । माय बाप आगल बोलतां जी, बालक केही लाज । ७ । कृ० । जिनधर्म जिनधर्म सहु करइ जी, थापर आपणी जी बात । समाचारी जुड़ जुइ जी, संसय पड्यां मिथ्यात | ८ | कृ० | जाण अजाणपण करी जी, बोल्या उत्सूत्र बोल । रतनइ काग उडावतां जी, हारयउ जनम निटोल | ६ | कु० । भगवंत भाख्यउ ते किहांजी, किहां मुझ करणी एह । गज पाखर खर किम सहइ जी, सबल विमासा एह | १० | कु० । आप परूप्यु आकरउ जी, जागइ लोक तहंत । पण न करूं परमादियउ जी, मासाहस दृष्टांत | ११ | कु० । काल अनंते मंद लह्या जी, तीन रतन श्रीकार । पण परमादे पाड़िया जी, किहां जड़ करु पुकार | १२ | कृ० । जाणू उत्कृष्टी करूँ जी, उद्यत करुय विहार | धीरज जीव धरह नहीं जी, पोतह बहु संसार | १३ | कृ० । सहज पड्यउ मुझ आकरउ जी, न गमइ भूडी बात । परनिंदा करतां थकां जी, जायई दिन नइ रात | १४ | कृ० | किरिया करतां दोहिली जी, आलस आणइ जीव । धरम पar धंधs पड्यो जी, नरकइ करस्यइ रीव | १५ | कु० । हूंता गुण को कह जी, तो हरखू' निसदीस । को हित सीख भली कहइ जी, तो मन आणू रीस | १६ | कु० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि वाद भणी विद्या भणी जी, पर रंजण उपदेस। मन संवेग धरचउ नहीं जी, किम संसार तरेस ।१७।०। सूत्र सिद्धांत वखाणतां जी, सुणतां करम विपाक । खिण इक मन मांहि ऊपजइ जी, मुझ मरकट वइराग।१८।१०। त्रिविध त्रिविध करि उच्चरंजी, भगवंत तुम्ह हजूर। वार वार भांजू वली जी, छूटक वारउ दूर ।१६। कृ०। आप काज सुख राचनइ जी, कीधा आरंभ कोड़। ...... जयणा न करी जीवनी जी, देव दया पर छोड़ ।२०। कु० । वचन दोष व्यापक कह्या जी, दाख्या अनरथ दंड । कूड कपट बहु केलवी जी, व्रत कीधा सत खंड २१शक० अण दीधउ लाजइ तृणो जी, तोहि अदत्तादान । ते दृषण लागा घणा जी, गिणतां नावै ज्ञान ।२२।१०। चंचल जीव रहइ नहीं जी, राचइ रमणी रूप । काम विटंबन सी कहूं जी, ते तूं जाणइ सरूप ।२३।१०। माया ममता मंइ पड्यउ जी, कीघो अधिकउ लोभ । . परिग्रह मेल्यउ कारमउ जी, न चढी संयम शोभ ।२४। कृ०। लागा मुझ नइ लालचइ जी, रात्रि भोजन दोष । मैं मनमक्यउ मोकलोजी, नधरयउधरम संतोष ।२५।०। इण भवपर भव दूहव्या जी, जीव चउरासी लाख । ते मुझ मिच्छामि दुकडं जी, भगवंत ताहरी साख ।२६।क। करमादान पनर कडा जी, प्रगट अठारै जी पाप । जे मंइ सेव्या ते हवह जी, बगस बगस माइ बाप ।२७०। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ( ७३ ) मुझ आधार छइ एतलउ जी, सद्दहणा छइ शुद्ध । जिनध्रम मीठउ मनगमइ जी, जिम साकर नइ दूध।२८।०। ऋषभदेव तूं राजियउ जी, शेत्रज गिरि सिणगार। पाप आलोया आपणा जी, कर प्रभु मोरी सार ।२६। क०। मरम एह जिन धरम नउजी, पाप आलोयां जाय। मनसुमिच्छामि दुक्कडं जी, देतां दूर पुलाय ।३०।०। तूं गति तूंमति तू धणी जी, तूं साहिब तूं देव । प्राण धरु सिर ताहरी जी, भव भव ताहरी सेव ।३२॥ क०। ॥ कलश ॥ इम चडिय सेत्रुजि चरण भेट्या, नाभिनंदन जिनतणा। कर जोडि आदि जिणंद पागल, पाप आलोया आपणा। श्री पूज्य जिनचंद्रसरि सद्गुरु, प्रथम शिष्य सुजस घणइ । गणि सकलचंद सुशीस वाचक, समयसुन्दर गुण भणइ ॥३२॥ शत्रुञ्जय मण्डन आदिनाथ भास सामी विमलाचल सिणगारजी, एक वीनतडी अवधार जी। सरणागत नइ साधार जी, मुझ आवागमण निवारि जी ॥ सा० ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४ ) समयमुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि सामी ए संसार असार जी, .. . बहु दुख तणउ भंडार जी। तिण मइ नहीं सुख लगार जी, भम्यउ अनंती वार जी ॥ सा ॥२॥ चिंतामणि जेम उदार जी, मानव भव पाम्यउ सार जी। न धरयउ जिन धर्म विचारजी, गयउ आलिं तेण प्रकार जी ॥ सा० ॥३॥ मुझ नइ हिव तूं आधार जी, तुझ समउ नहिं कोय संसार जी। तोरी जाऊँ हुँ बलिहार जी, करुणा करि पार उतारि जी ।। सा०॥४॥ आज सफल थयउ अवतार जी, भेट्यउ प्रभु हरख अपार जी। मरुदेवी मात मल्हार जी, समयसुन्दर नइ सुखकार जी ॥ सा०॥शा इति सेत्तु जमंडन श्री आदिनाथ भास ॥४॥ गया श्री शत्रुजय तीर्थ भास म्हारी बहिनी है, बहिनी म्हारी सुणि एक मोरी बात हे, __ के सेतु ञ्ज तीरथ चडी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ( ७५ ) म्हारी बहिनी है, बहिनी म्हारी पूज्या प्रथम जिणंद के, मइ केसर भरिय कचोलड़ी। १। म्हारी बहिनी है, बहिनी म्हारी प्रणम्या श्री पुंडरीक हे, देहरइ मांहि बिंब सोहामणा। म्हारी बहिनी हे, बहिनी म्हारी गज चढि मरुदेवी माय हे, रायण तलि पगला प्रभु तणा ।२। म्हारी बहिनी हे, बहिनी म्हारी खरतर वसही खांति हे, ___ मंई चउमुख नयणे निरखिउ । म्हारी बहिनी है, बहिनी म्हारी चउरी लागउ चित्त हे, देखतां हियड़उ हरखियउ । ३ । म्हारी बहिनी है, बहिनी म्हारी अदबुद आदि जिणंद हे, लाखीणो तोडर चाडीउ । म्हारी बहिनी हे, बहिनी म्हारी सिद्धसिला सिद्ध ठाम है, मुनइ सिद्धवड़ सुगुरु देखाड़ीउ । ४ । म्हारी बहिनी हे, बहिनी म्हारी धन धन श्री गुरुराज* हे, मंइ देव जुहारचा जुगति स्यु। म्हारी बहिनी हे, बहिनी म्हारी सफल कियउ अवतार हे, भणइ समयसुन्दर इम भगति स्यु। ५। इति श्रीशत्रुञ्जयतीरथभास । * गुजराति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि शत्रुजय मण्डन युगादिदेव गीतम राग-केदारा गउड़ी इया मो जनम की सफल घरी री। शत्रञ्जय शिखरि ऋषभ जिन भेटे, पालीताना की पाज चरी री ।इया० ॥१॥ प्रभु के दरस पाप गये सब, ___नरग त्रिजंच की भीति टरी री। इया सिद्ध क्षेत्र ऊपरि शुभ भाव धरि, . मुनिवर कोरि मुगति कु वरी री ।इया०।२। अद्भुत चैत्य मनोहर मूरति, करु हुँ प्रणाम प्रभु पाय परी रो। समयसुन्दर कहै आज श्राणंद भयउ, श्री शत्रुञ्जगिरि जात्र करी री ।इया०।३। विमलाचल मण्डन आदि जिन स्तवन राग-तोड़ी ऋषभ की मेरे मन भगति वसीरी। ऋ० । मालती मेघ मृगांक मनोहर, मधुकर मोर चकोर जिसी री । ऋ० ११॥ प्रथम नरेसर प्रथम भिक्षाचर, प्रथम केवलघर प्रथम ऋषी री। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ( ७७ ) प्रथम तीर्थकर प्रथम भुवनगुरु, नाभिराय कुल कमल ससी री । ऋ०।२। अंश ऊपर अलिकावलि अोपत, कंचन कसक्ट रेख कसी री। श्री विमलाचल मंडन साहित्र, समयसुन्दर प्रणमत उलसी री । ऋ०।३। विमलाचल मण्डन आदि जिन स्तवन क्यों न भये हम मोर विमल गिरि, क्यों न भये हम मोर। क्यों न भये हम शीतल पानी, सींचत तस्वर छोर । अहनिश जिनजी के अंग पखालत, तोड़त करम कठोर। वि०१॥ क्यों न भये हम बावन चंदन, और केसर की छोर। क्यों न भये हम मोगरा मालती, रहते जिनजी के मौर। वि०२। क्यों न भये हम मृदंग झालरिया,करत मधुर ध्वनि घोर। जिनजी के आगल नृत्य सुहावत, पावत शिवपुर ठौर । वि०३। जग मंडल साचौ ए जिनजी, और न देखा राचत मोर। समयसुन्दर कहै ये प्रभु सेवो, जन्म जरा नहीं और। वि०४। श्री आबू तीर्थ स्तवन आबू तीरथ भेटियउ, प्रगव्यउ पुण्य पडूर मेरे लाल । सफल जन्म थयउ माहरउ, दुख दोहग गया दूर मेरे लाल।१। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि विमल विहार प्रणमी जिन पूज्या, केशर चंदन कपूर मेरे लाल। देव जुहारया रूड़ी देहरी, भाव भगति भरपूर मेरे लाल।२। वस्तग तेजल वसही बंदया, राजुलवर जिनराय मेरे लाल। मंडप मोह्यो मन माहरउ, जोता तृप्ति न थाय मेरे लाल ।३। भाव सुभीमग वसही भेट्या, आदीसर उल्हास मेरे लाल। मंडलीक वसही मुख मंडण, चउमुख चरच्या पास मेरे लाल।४। अचलगढे आदीसर अरच्या, चौमुख प्रतिमा च्यार मेरे लाल। शांति कुंथुप्रतिमा अति सुदर, प्रणमी अवर विहार मेरे लाल ।। संवत सोल सत्तावन वरसे, चैत्र वदि चौथ उदार मेरे लाल । यात्रा करी जिनसिंहमूरि सेती, चतुर्विध संघ परिवार मेरे लाल।६। आबू तीरथ बिंब अनुपम, काउसग्गिया अभिराम मेरे लाल । समयसुन्दर कहइ नित २ माहरो,त्रिकरण शुद्ध प्रणाम मेरे लाल ७ श्री आबू आदीश्वर भास आबू परवत रूयडउ आदीसर, उंचउ गाऊ सात रे आदीसर देव । पाजइ चढतां दोहिलउ आदीसर, पणि पुण्य नी घणी बात रे आदीसर देव ॥१॥ आबू नी जात्रा करी आदीसर, सफल कियउ अवतार रे आदीसर देव ।आंकणी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ( ६ ) पहिला आदीसर पूजिया आदीसर, विमल वसही सुजगीस रे आदीसर देव। देव जुहारया देहरी आदीसर, अस चरथा विमल मंत्रीशरे आदीसर देव ॥२॥ श्री नेमीसर निरखिया आदीसर, सोम मूरति सुकुमाल रे आदीसर देव । अान्द कुण मंडती' कोरणी आदीसर, धन वस्तपाल तेजपाल रे आदीसर देव ॥३॥ भीम लूणग वसही भली आदीसर, खरतर वसही जिणंद रे आदीसर देव । सगला बिंब जुहारिया आदीसर, दूरि गयउ दुख दंद रे आदीसर देव ॥४॥ अचलगढइ पछई आवियां आदीसर, चौमुख प्रतिमा चार रे आदीसर देव । श्री शांतिनाथ कुंथुनाथ नी अादीसर, प्रतिमा पूजी अपार रे आदीसर देव ॥शा आबू नी यात्रा करी आदीसर, श्राव्या सिरोही उलास रे आदीसर देव । देव अनइ गुरु वांदया तिहां आदीसर, सहु नी पूगी आस रे आदीसर देव ॥६॥ १ कुंण मंडप नी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८० ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जल जात्रा करी पाठ्योतरह आदीसर, श्री संघ पूजा सनात्र रे आदीसर देव । समयसुन्दर कहइ सासती आदीसर, भास भण्या हुयइ जात्र रे आदीसर देव ।।७।। इति श्री बाबू तीरथ भास ॥६॥ अर्बुदाचलमण्डन-युगादिदेवगीतम राग-गुड सफल नर जन्म मनु आज मेरउ । श्री अर्बुदगिरि श्री युगादीसर, देखियउ दरसण सामि तेरउ ।। स०॥१॥ जिनजी ताहरा गुण अपणइ मुखि गावत, पावत परम सुख नव नवेरउ ।। तूं जगन्नाथ जग मांहि सुरतरु समउ, .. अउर सब देव मानू बहेरउ ॥स०॥२॥ जिनजी राज नवि मांगत ऋद्धि नवि मांगत, मांगत ही नहीं कछु अनेरउ ! समयसुन्दर कर जोड़ि इहु मांगत, भांजि भगवंत भव भ्रमण फेरउ ॥ स०॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि (८१ ) श्री पुरिमताल मंडण आदिनाथ भास दाल-राती कांबलडी नी। भरत नइ यह ओलंमड़ा रे । मरुदेवी अनेक प्रकार रे, म्हारउ बालूयड़उ । बालुयडउ नयणि दिखाडि रे, म्हारउ नान्हडियउ । किणी। तूं सुख लीला भोगवइ रे, ऋषभ नीन करइ सार रे। म्हा० ॥१॥ पुरिमताल समोसरचा रे, ऋषभ जी त्रिभुवन राय रे। म्हा० । भरत कुयर सुपरिवरी रे, मरुदेवी वांदण जाय रे। म्हा० ।। ऋद्धि देखी मन चीतवइ रे, एक पखउ म्हारउ रागरे। म्हा० । राति दिवस हूँ भूरती रे, ऋषभ नुमन नीरागरे। म्हा० ॥३॥ पुत्र पहिली मुगतिं गयी रे, शिव वधूजोवा काज रे। म्हा० । समयसुन्दर सुप्रसन्न सदारे, आदीसर जिनराज रे। म्हा०॥४॥ श्री आदिदेवचंदगीतम राग-श्रीराग नाभिरायां कुलचंद आदि जिणंद, मरुदेवी नंदन विश्वगुरो । त्रिभुवन दिनकर जिनवर सुखकर, वांछित पूरण कलपतरो ॥१॥ ना०॥ जण मण रंजणो दुख गंजणो, प्रणमति समयसुन्दर चरणो ॥२॥ ना०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि श्री राणपुर आदिजिन स्तवन ढाल-रिषभ जिनेसर भेटिवा रे लाल राणपुरइ रलिग्रामणउ रे लाल, श्री आदीसर देव मन मोबउ रे। उत्तंग तोरण देहरउ रे लाल, निरखीजह नितमेव मन मोबउ रे ।शरा०। चउवीस मंडप चिहुं दिसइ रे लाल, चउमुख प्रतिमा च्यार मन मोबउ रे। त्रैलोक्य दीपक देहरउ रे लाल, समवडि नहिं को संसार मन मोबउ रेशरा। दीठी बावन देहरी रे. लाल, मांड्यउ अष्टापद मेर मन मोबउ रे। भलु रे जुहारचउ मुंहरउ रे लाल, सूतां उठि सबेर मन मोघउ रे।३। रा० । देश जिणइ ए देहरउ रे लाल, मोटउ देस मेवाड़ मन मोह्यउ रे। लाख निवाणु लगाविया रे लाल, धन धरणउ पोरवाड़ मन मोघउ रे।४। रा०॥ आज कृतारथ हुं हुयउ रे लाल, ___ आज भयउ आणंद मन मोबउ रे। मात्र करी जिनवर तणी रे लाल, दुरि गयउ दुख दंद मन मोबउ रे।शरा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ( ८३ ) खरतर वसही खांत सुरे लाल, निरखंता सुख थाय मन मोघउ रे। पांच प्रासाद बीजा वली रे लाल, जोतां पातक जाय मन मोघउ रे ।।रा। संवत सोल बिहुतरइ रे लाल, मगसिर मास मझारि मन मोह्यउ रे। राणपुरइ जात्रा करी रे लाल, समयसुन्दर सुखकार मन मोबउ रे ।७। रा०। इति श्री राणपुर तीरथ भास ।।३।। बीकानेर चौवीसटा चिन्तामाण आदिनाथ स्तवन भाव भगति मन पाणी घणी,समकित निरमल करवा भणी। बीकानेर तणइ चउहट, देव जुहारू चउवीसट।१। पावड़ शाला पूंजी चढू, हिव हुँ नरक गति नवि पडू। दीठा पुण्य दशा परगटै, देव जुहारू चवीसट। २। निसही तीन कहूं तिरह ठोडि, जेहवइ सूरज काढई मोडि। पाप व्यापार न करवो घटै, देव जुहारू चउवीसटै।३। भमती माहे भमूमन रली, तिरह प्रदिक्षणा देऊ वली। देखे अजयणो नो अोहट, देव जुहारूँ चउवीसटै।४। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८४ ) समय सुन्दर कृतिकुसुमाञ्जलि पंचाभिगम विधि सु करू, शक्रस्तव सूधो उच्चरू । जयवीयराय कहता कर्म कटै, देव जुहारू गउवीसटै । ५ । प्रभु आागल भावु भावना, केवल मुगति तणी कामना । अंग अंग आणंद ऊलटै देव जुहारू चउवीसटै । ६ । श्रावक स्नान पूजा करै, भगवंत ना भगते भव तरै । नृत्य करै नाचै फिरगटै, देव जुहारू चउवीसटै | ७ | पाषाण नै वलि पीतल तणी, गुंभारै प्रतिमा अति घणी । मै सहु ए को पि भटइ, देव जुहारू चउवीसटै । ८ । मातर मांडी डावै पास, मां हुलरावै पुत्र उलासि । तप पहुँचाड़ भव नै तटै, देव जुहारू चउवीसटै । ६ । जिनदत्तसूरि कुशलसूरि तणी, सुंदर मूरति सुहामणी । दुख जायै प्रणम्यां दहवटै, देव जुहारू चउवीसटै | १० | संख शब्द झालर भणकार, घणावली घंटा रणकार । कानि सुणि रूकटै, देव जुहारू चउवीसटै । ११ । ate पंत देहर नहीं भींति, राजै कांगरा रूड़ी रीति । सखर समारचा सेलावटे, देव जुहारू चौवीसटै | १२ | दंड कलश ध्वज लहकै वली, कहै मुगति थई सोहली । मिथ्यामति दूरे श्राछटै देव जुहारू चौवीसटे | १३ | श्री बीकानेर समौ नीपनौ, सोहइ जिम मोती सीपनौ । पूरब रात न का पालटै, देव जुहारू' चौवीसटै | १४ | Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ( ५ ) - - - - ॥ कलश ॥ इम चैत्य चौवीसटौ अविचल, श्री बीकानेर विराज ए। श्री संघ आणंद उदयकारी, भव तणा दुख भाज ए॥ संवत सोलइ त्रेयासीया, तवन कीधउ मगसिरै . कहइ समयसुन्दर भणइ तेहना, मन वंछित (कारज) सरह ।१५। श्री विक्रमपुर आदिनाथ स्तवन श्री श्रादीसर भेटियउ, प्रह ऊगमतइ सरो जी। दुख दोहग दुरि टल्या, प्रगव्यउ पुण्य पडूरो जी ॥१॥ श्री। अदबुद मूरति अति भली, जोतां त्रिपति न थायो जी। सेव॒ञ्ज तीरथ सांभरइ, आदीसर जिणरायो जी ।२। श्री। जिम सेवञ्जगिरि जागतउ,मूलनायक श्रादिनाथो जी। जिम गिरनारइ गाजतउ, अदबुद शिवपुर साथोजी ।।श्री। गणधर वसही गुण निलउ, जिम प्रभु जेसलमेरो जी। नगरकोट प्रभु निरखंता, आणंद हुय अधिकेरो जी।४।श्री०। अष्टापद जिम अरचियइ, भरत भराया बिंबो जी। ग्वालेरइ गरुयडि निलउ, बावन गज परलंबो जी शनी आबू आदीसर नमू, विमल मंत्रि प्रासादो जी। माणिकदेव दक्षिण मांहे, समर पछइ प्रभु सादो जी।६। श्री। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८६ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि जिम ए तीरथ जागता, तिम ए तीरथ सारो जी। मारुयाडि मांहे बड़उ, सेत्रुञ्ज नउ अवतारो जी ७श्री०। संवत सोल बासठि समइ, चैत्र सातमि वदि जेहो जी। युग प्रधान जिणचंद जी, बिंब प्रतिष्ठ्या हो जी।।श्री०। मूलनायक प्रतिमा नमू, आदीसर निसदीसो जी। सुंदर रूप सोहामणा, बीजा बिंब चालीसो जी।।श्री। नाभिराया कुल चंदलउ, मरुदेवी मात मल्हारो जी। वृषभ लांछन प्रभु वांदियइ, मन वंछित दातारो जी ।१०। श्री०। एहवा आदि जिणेसरू, विक्रमपुर सिणगारो जी। समयसुन्दर इम वीनवइ, संघ उदय सुखकारो जी ।११। श्री। इति श्री विक्रमपुर मंडण अदबुद आदिनाथ स्तवनम् । गणधर वसही ( जेसलमेर ) आदिजिन स्तवन १ ढाल-गलियारे साजन मिल्या प्रथम तीर्थकर प्रणमियै हुँ वारी, आदिनाथ अरिहंत रेहुं वारी लाल। गणधर वसही गुण निलो हुं वारी, भय भंजण भगवंत रे हुं वारी लाल । प्र० ॥१॥ २ ढाल-अलबेला नी सच्चू गणधर शुभमती रे लाल, जयवंत भवीज जास मन मान्या रे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम समयमुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ( ८७ ) मिलि प्रासाद मंडावियो रे लाल, आणी मन उल्लास मन मान्या रे । प्र०।२। ३ ढाल-श्रोलगड़ी ध्रमसी जिनदत्त देवसी, भीमसी मन उच्छाहोजी। सुत चारे सञ्च तणा, ल्यै लक्ष्मी नो लाहो जी।प्र०।३। ४ ढाल-योगनारी फागुण सुदि पांचम दिने रे, पनरै सै छत्तीस। जिनचंद्रसरि प्रतिष्ठियारे, जगनायक जगदीश। प्र०।४। ५ ढालभरत बाहूबलि अति भला जिनजी, काउसग्गिया बिहुं पास । मरुदेवी माता गज चढी जिनजी, शिखर मंडप सुप्रकाश ।प० ६ ढाल-वेगवती ते बांभणी बिहुँ भमती बिंबावली,कोरणी अति श्रीकारोरे। समौशरण सोहामणी, विहरमान विस्तारो जी। प्र०।६। ७ ढाल-जलालिया नी जिम जिम जिन मुख देखिये रे, तिम तिम आनंद थाय म्हारा जिन जी। पाप पुलावन पाछला रे, जन्म तणा दुख जाय म्हारा जिन जी। प्र०१७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 2 ) समयमुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि . ८ ढाल-वीर पखाणी राणी चेलणा जिन प्रतिमा जिन सारखी जी, ए काउ मुगति उपाय । नयणे मूरति निरखर्ता जी, समकित निरमल थाय । प्र०।। ६ ढाल-करम परीक्षा करण कुमर चाल्यो आद्रकुमार तणी परै जी, सज्यंभव गणधार । प्रतिमा प्रतिबूझा थकी रे, पाम्या भव नो पार। प्र० ।। १० ढाल-चरणाली चामुडा रण चदइ नाभिराय कुल सिर तिलो, मरुदेवीमात मल्हारो रे। लंछन वृषभ सोहामणो, युगला धरम निवारो रे।प्र०।१०१ ११ ढाल-कर जोड़ी आगल रही । आज सफल दिन माहरो, भेट्या श्री भगवंतरे। पाप सहु पराभव गया, हियड़ो अति हरखंतरे। प्र०।११॥ १२ ढाल-राग धन्याश्री इण परि वीनव्यो जेसलमेर मझार । गणधर वसही मुख मंडण जिन सुखकार ।। संवत सोलह सइ एव असी नम मास । कहइ समयसुन्दर कर जोडि ए अरदास । प्र०।१२। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि (८ ) सेत्राबा मंडन श्री आदिनाथ जिन स्तवनम मूरति मोहन वेलड़ी, प्रगटी पुण्य पडूर। ऋषभ तणी रलियामणी, प्रणमंता सुख पूर । मू०।१। संवत सोल पंचावनइ, फागुण सुदि रविवार । प्रगट थई प्रतिमा घणी, सेत्रावा सिणगार । मू०।२। ऋषभ शीतल शांति वीरजी, श्री वासुपूज्य अनूप। सकल सुकोमल शोभती, प्रतिमा पांचे सरूप ।मू०।३। श्री संघ रंग वधामणा, आणंद अंग न माय । भाव भगति करि भेटियो, प्रथम जिणेसर राय । मू०।४। सुंदर मूरति स्वामि नी, ज्योति जग्गमति थाय । जोतां तृपति न पामियइ, पातक दूर पुलाय । मू०।५। रूप अनुपम जिन तणो, रसना वरण्यो न जाय । भगति भणी गुण भाखतां, सफल मानव भव थाय।मू०।६। प्रतिमानो मुख चन्द्रमा, लोचन अमिय कचोल। दीप सिखा जिसी नासिका, कंचण द्रपण कचोल।मु०॥७॥ कुद कली रदनावली, अद्भुत अधर प्रवाल । सोवन देह सुहामणी, निर्मल शशि दल भाल । मू०।८। जिन प्रतिमा जिन सारखी, बोली सूत्र मझार । भवियण नै भव तारिवा, त्रिभुवन नै हितकार । मू०।। जिनवर दरसण देखतां, लहिये समकित सार। आद्र कुमार तणी परइ, शय्यंभव गणधार । मू०१० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि तूंप्रभु त्रिभुवन राजियो, वीनतड़ी अवधार । पूरि मनोरथ माहरा, आवागमन निवार ।मू०॥११॥ तूं गति तूंमति तूंधणी, तूं भवतारण हार । तूं त्रिभुवन पति तूं गुरु, तूंमुझ प्राण आधार । मू०।१२। मुझ मन मधुकर मोहियो, तुझ पद पंकज लीन । सेव करूनित ताहरी, जिम सागर जल मीन । मू०।१३। तुम दर्शन सुख संपजे, तुम दरशन दुख जाय । तुम दरसन संघ गहगहै, तुम दरसन सुपसाय । मू०१४। भगति भली परे केलवी, मीठी अमिय समान। भक्ति वच्छल भगवंत जी, यो मुझ केवल ज्ञान । मू०।१५॥ । कलश ।। इय नाभिनंदन जगत वंदन, सेत्रावापुर मण्डणो। वीनव्यो जिनवर संघ सुखकर, दुरिय दोहग खंडणो।। गच्छराज युग प्रधान जिनचंद सूरि शिष्य शिरोमणि । गणि सकलचंद विनेय वाचक, समयसुन्दर सुख भणी।१६। श्री ऋषभदेव हुलरामणा गीतम राग-परजीयउ रूड़ा ऋषभ जी घरि श्रावउ रे, हालरियु गाऊं रे गाउं।रू०। मरुदेवी माता इण परि बोला, जीवन तोरी बलि जाउं रे।रू०१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृति कुसुमाञ्जलि ( at ) पगि घूघरड़ी घमतां करतउ, इक दिन आणि यावर रे । मरुदेवी माता हियड़ भीड़ी, श्राणंद अंगि न भावइ रे । रू०|२| खोइ मोर तूं कदे न खेलइ, सुर रमणी संग भावइ रे । पुत्र मो दूध कदे न पीयइ, तोरी मावड़ी किम सुख पावइ रे | ३ | सोभागी सहु नइ तूं वाल्हर, हरखइ मां हुलरावर रे । रिषभदेव तथा मन रंग, समयसुन्दर गुण गावइ रे । रू०|४| सिन्धी भाषामय श्री आदि जिन स्तवनम् मरुदेवी माता इवें ख, इद्धर उद्धर कितनुं भाखइ । आउ साइकोल ऋषभ जी, श्रउ असाढ कोल । १ । मिट्ठा बे मेवा तै कु देवा, श्राउ इकट्ठे जेमण जेमां । लावां खूब चमेल ऋषभ जी, आउ साड़ा कोल । २ । कसबी चीरा बांधू' तेरे, पहिरण चोला मोहन मेरे । कमर पिछेवड़ा लाल ऋषभ जी, घाउ असाड़ा कोल । ३ । काने केवटिया पैरे कड़िया, हाथे बंगा जवहर जड़िया । गल मोतियन की माल ऋषभ जी, आउ साड़ा कोल । ४ । बांगा लाटू चकरी चंगी, अजब उस्तादां बहिकर रंगी । श्रांगण असा खेल ऋषभ जी, आउ असाड़ा कोल । ५ । नयण वे तैंडै कजल पावां, मन भावदंडा तिलक लगावां । रुठड़ा कैदे कोल ऋषभ जी, आउ असाड़ा कोल । ६ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि आवो मेरे बेटा दूध पिलावां, वही बेड़ा गोदी में सुख पावां। मम असाड़ा बोल ऋषभ जी, आउ असाड़ा कोल । ७। तुजगजीवन प्राण आधारा, तूं मेरा पुत्ता बहुत पियारा। तैथु वंजा घोल ऋषभ जी, आउ असाड़ा कोल । ८ । ऋषभदेव कुमाय बुलावै, खुसिया करेदाप्रापे श्रापे पावै । आणंद अम्मा अंग ऋषभ जी, आउ असाड़ा कोल।।। सच्चा बेसाहिब तू ध्रम धोरी, शिवपुर सुख दे मैकुंभोरी। समयसुन्दर मन रंग ऋषभ जी, आउ असाड़ा कोल ।१० भी सुमतिनाथ बृहत्स्तवनम् प्रह ऊठी नइ प्रणमु पाय, सेवंता सुख संपति थाय । अरिहंत मुझवीनति अवधार, जय जय सुमतिनाथ सुखकार ।। पुण्य संजोगइ तुपामियउ, चरण कमल मस्तक नामियउ। सफल थयउ मानव अवतार, जय जय सुमतिनाथ सुखकार ।२। प्रभु पूजा ना लाभ अनंत, हित सुख मोक्ष कह्या भगवंत । ज्ञाता भगवती अंग मझार, जय जय सुमतिनाथ सुखकार ।३। प्रथम करू प्रभु अंग पखाल, पाप करम जाया तत्काल । उत्तम अंग लूहण अधिकार, जय जय सुमतिनाथ सुखकार।४। कनक कचोली केशर भरू, नव अंगि प्रभु नी पूजा करूं। कुंडल मुकुट मनोहर हार, जय जय सुमतिनाथ सुखकार ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि (६३ ) पंचवरण फूला नी माल, प्रतिमा कंठि ठवुसुविशाल । मृदमद अगर धूप घनसार, जय जय सुमतिनाथ सुखकार।६। एगसाडि करि उत्तरासंग, शक्रस्तव पभरणू मन रंगि। गीत गान गुण गाऊँ सार, जय जय सुमतिनाथ सुखकार। ७ । प्रभु भजतां पुण्य पडूर, दुख दोहग नासइ सवि दूरि । पुत्र कलत्र वाघ परिवार, जय जय सुमतिनाथ सुखकार । ८ । आरति चिन्ता अलगी टलइ, मन चिंतव्या मनोरथ फलइ। राज तेज दीपइ दरबार, जय जय सुमतिनाथ सुखकार ।। आज मनोरथ सगला फल्या, सुमतिनाथ तीर्थंकर मिल्या। अरिहंतदेव जगत आधार, जय जय सुमतिनाथ सुखकार ।१०। सुमतिनाथ जिनवर पांचमउ, कल्पवृक्ष चिंतामणि समउ। मंगला राणी मेघ मल्हार, जय जय सुमतिनाथ सुखकार ।११। प्रतिमा अष्टकमलदल तणी, देहरासरि पूजू सुख भणी। अष्ट महानिधि रिधि दातार, जय जय सुमतिनाथ सुखकार।१२। सुमतिनाथ साचउ तू देव, भवि भवि हुइज्यो तोरी सेव। समयसुन्दर पभणइ सुविचार,जय जय सुमतिनाथ सुखकार ।१३। पाल्हणपुरमण्डन-४४ द्वयर्थरागगर्भित-चन्द्रप्रभजिनस्तवनम् सेवो श्री चन्द्रप्रभ स्वामी, ___मविक उठी परभाति१ रे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि रिद्धि वृद्धि हुयइ रान वेलाउल२, त इ-सारंग३ दिन राति रे।से। १ । भवसंतति४ ना भय दुख भंजण, पंचम५ गति दातार रे। त्रिभुवननाथ ललित गुण तोरा, गावइ देवगंधारण रेसे०।२। के सेवइ गउरीवर- शंकर, के भजे कृष्ण भूपाल रे। के भयरव१० पणि हुँ भजु तुम्ह नइ, करि कल्याण११ कृपाल रे।से०। ३ । नट१२ विकट बहु कूड़ कपट केलवी, परजीउ१३ रंज्या कोड़ि रे। पर सिरि१४ राग धरयो मंइ पापी, परदउ१५ राखि नइ छोड़ि रे।से०। ४। गउड़१६ बंगाल१७ तिलंग१८ नइ सोरठ१६, __ मत भम्यउ देस प्रदेस रे । चंद्र प्रभ सामी घर बइठां, अासा२० पूरसि एस रे।से०। ५। भव सिंधुडो२१ दूरि गमाड, क्षमारू२२-प तुझ ध्यान रे। पुण्य दिसा-मेरी२३ अब प्रगटी, तुझ गुण धार२४-णि गान रे । से०।६। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय सुन्दर कृतिकुसुमाञ्जलि सगली दिसि बाब २५-ति नी, हुयइ सगले देकार २६ रे । जइतसिरि २७ पामइ तुझ सेवका, तुम्हे प्रभु दुख केदार रे | से० | ७ | पूरवि २६ तु मनोरथ मोरङ, दुख तु-मेवारउ३० देव रे । सेव मरण जरा भय भीम - पलासी ३१, करतां तोरी३२ सुंदर वयराडी ३३ ललही करह, सुद्ध नाटक २४ सुध भाख रे । तुझ उलगूजरी ५ दुखि न हुबै, मनमथ मधु माधव ३७ सगला लोक दे-साख २६ रे | से०|६| चंद्रप्रभ, लखमणा मात मल्हार३८ रे । पुण्यलता आ रामगिरि ३६ धीर लो-कनर ४० कर अलगुड४१ - र पाप समीरण, शंकराभरण४२ ए तुझ प्रासाद हु-सेनी ४३ की मुझ, सब, आधार रे | से० | १० | रे | से० | ८ | । Jain Educationa International काम रे इण परि श्री चन्द्रप्रभ स्वामी, पाल्हापुर ( ६५ ) धन्या सिरि४४ सुख ठाम रे | से० | ११ | 1 सिणगार रे । For Personal and Private Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि रंगे चौमालीसे चौपाली . रागै, समयसुन्दर · सुखकार रे । से०।१२। इति श्रीपाल्हणपुरमण्डन ४४ द्वयर्थरागगर्भित श्रीचंद्रप्रभस्वामि बृहत्स्तवनम् । संवत् १६७१ भादवा सुदि १२ कृतम् । चन्द्रवारि मण्डन श्री चन्द्रप्रभ भास राग-वसंत चन्द्रप्रभ भेट्यउ मंइ चंदवारि, जमुना कइ पारि ॥ चन्द्र०॥ सुन्दर मूरति अइसी नहीं संसारि । चन्द्र०।१। निरमलदल फटिक रतन उदार, दीपइ अति दीप शिखा प्रकार । चित हरख्यउ चंद्रप्रभ जुहारि, समयसुन्दर नइ भव समुद्र तारि । चन्द्र०।१। इति श्री चन्द्रवारि मंडण चन्द्रप्रभ भास ॥२७॥ श्री शीतलनाथ जिन स्तवनम् मुख नीको, शीतलनाथ को मुख नीको । उठि प्रभात जिके मुख देखत, जन्म सफल ताही को।मु०॥१॥ नयन कमल नीकी मधतारा, उपमा ताहि अली को। सुन्दर रूप मनोहर मूरति, भाल ऊपर भल टीको ।मु०॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीतलजिनगीतम् शीतलनाथ सदा सुखदायक, नायक सकल दुनी को। समयसुन्दर कहै जनम जनम लग, मैं सेवक जिन जी को।मु०॥३॥ श्री शीतल जिन गीतम् राग-देशाख काहट सखि कउण कहीजइ, तुम कुंअवधि बरस की दीजइ । क० । सुत हरि वाचि सबद प्रथमावर, जणणी जास भणीजह । क० ॥१॥ आदि विना जलनिधि नवि दीसइ, मध्य विना सलहीजइ । अंत विना सब कु दुखकारी, सब मिली नाम सुणीजइ । क. १२। . हरि सोदर रमणी सुरभी सिसु, दो मिली चिन्ह धरीजइ । समयसुन्दर कहह अहनिशि उनके, पद पंकज प्रणमीजइ । क. १३ श्री अमरसर मण्डण श्री शीतलनाथ बृहत्स्तवनम् पूजीजइहे सखि फलवधि पास कि पासा पूरइ सुरमणी । एहनी ढाल । मोरा साहिब हो श्री शीतलनाथ कि, वीनति सुणि एक मोरड़ी । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि दुख भांजइ हो तुदीनदयाल कि, वात सुणी मई तोरडी । मो०१॥ तिण तोरइ हो हुँ आयउ पासि कि, मुझि मन आसा छइ घणी । कर जोड़ी हो कहुँ मननी बात कि, तूं सुणिजे त्रिभुवन धणी । मो०।२। हूँ भमियउ हो भव समुद्र मझारि कि, दुखु अनंता मई सद्या । ते जाणइ हो तूंहिज जिनराय कि, मई किम जायइ ते कया । मो०३। भाग जोगइ हो तारेउ श्री भगवंत कि, दरसण नयणे निरखियउ । मन मान्यउ हो मोरइ अरिहंत कि, हीयडउ हेजइ हरखियउ । मो०४। एक निश्चय हो मंइ कीधउ अाज कि, तुझ विण देव वीजउ नहीं। चिंतामणि हो जउ पायउ रतन, तउ काच ग्रहई नहीं को सही ।मो०१५॥ पंचामृत हो जउ भोजन कीध, तउ खलि खावा किम मन थियइ । कंठ तांइ हो जउ अमृत पीध, तउ खारउ जल कहउ कुण पीयइ । मो०।६। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीतलनाथस्तवनम् ( ) मोती कउ हो जउ पहिरउ हार, तउ चिरमठि कुण पहिरइ हियइ । जसु गांठि हो लाख कोड़ि गरथ, ते व्याज काढी दाम किम लीयइ । मो०१७॥ घर माहे हो जउ प्रगट्यउ निधान, तउ देसंतरि कहउ कुण भमइ । सोना कउ हो जउ पुरुसउ सीध, तउ धातुवादि नइ कुण धमइ । मो०।। जिण कीधा हो जवहर व्यापार, तउ मणिहारी मनि किम गमइ । जिण कीधउ हो सदा हाल हुकम्म, तउ वे तूंकारचउ किम खमइ ।मो018। तू साहिब हो मोरउ जीवन प्राण कि, हूं सेवक प्रभु ताहरउ । मोरउ जीवित हो आज जन्म प्रमा कि, भव दुख भागउ माहरउ । मो०।१०। तुझ मूरति हो देखतां प्राय कि, . समोवसरण मुझ सांभरइ । जिन प्रतिमा हो जिन सारिखी जाण कि, मूरिख जे सांसउ करइ । मो०।११॥ तुम दरसण हो मुझ आणंद पूर कि, जिम जगि चंद चकोरड़ा । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) समयमुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि तुम दरसण हो मुझ मन उछरंग कि, मेह आगम जिम मोरड़ा ।मो० ॥१२॥ तुम नामइ हो मोरा पाप पुलाइ कि, जिम दिन ऊगइ चोरड़ा । तुम नामइ हो सुख संपति थाय कि, मन पंछित फलइ मोरडा । मो०११३॥ हुं मांगू हो हिव अविहड़ प्रेम कि, नित नित करूय निहोरड़ा । मुझ देज्यो हो सामी भव भवि सेव कि, चरण न छोडू तोरड़ा । मो०।१४॥ ॥ कलश ।।। इम अमरसर पुर संघ सुखकर, मात नंदा नंदणो, सकलाप शीतलनाथ सामी, सकल जाण आणंदणो। श्रीवच्छ लंछण वरण कंचण, रूप सुंदर सोह ए। एतवन कीधउ समयसुन्दर, सुणत जण मण मोहए।१५। इति श्रीअमरसरमंडनश्रीशीतलनाथबृहत्स्तवनं संपूर्ण कृतं लिखितञ्च। श्री मेडता मंडण विमलनाथ पंचकल्याणक स्तवनम् विमलनाथ सुणो वीनति, हूँ छु तोरउ दासो जी। तूं समरथ त्रिभुवन घणी, पूरि हमारी आसो जी। वि०॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ fararted कल्याणकस्तवन तुम दरसन मिन हैं भम्यउ, काल अनादि अनंतो जी। नाना विधि मंह दुख सह्या कहतां नावें तो जी। वि० । २ । पुण्य पसाये पामियउ, अरिहंत तूं आधारो जी । मन वंछित फल्या माहरा, आणंद अंग अपारो जी । षि० । ३ | नगर कपिल नरेसरू, राजा श्री कृतवरमो जी । अद्भुत तासु अंतेउरी, श्यामा नाम सुधरमो जी | वि० | ४ | तासु उयरि प्रभु अवतर्या, सुदि बारस वैसाखगे जी । चवद स्वम राणी लह्या, सुपन पठिक सुत दाखो जी । वि० | ५ | जन्म कल्याणक जिन तणो, माह तणी सुदि त्रीजो जी | दिन दिन बाधइ दीपता, चंद कला जिम बीजो जी । वि० । ६ । कंचन वरण कोमल तनु, क्रोड लांछन सुकुमालो जी । साठि धनुष प्रभु शोभता, सुन्दर रूप रसालो जी । वि० । ७ । विमल थई मति मात नी, विमलनाथ तिख नामो जी । 1 वंछित कामो जी । वि० | ८ | जंपे जयकारो जी । राजलीला सुख भोगवे, पूरवे नव लोकान्तिक देवता, जस माह तण चौथ चांदणी, संयम ल्यै प्रभु सारो जी । वि० । ६ । च्यार कर्म प्रभु चूरिया, धरिय अनुपम ध्यानो जी | 1 पौष शुक्ल छठि परगड़ा, पाम्यो केवल ज्ञानो जी । वि० | १० | समवशरण प्रभु देशना, बैठी परषदा बारो जी। संघ चतुर्विध थापना, सत्तावन गणधारो जी । वि० | ११ | Jain Educationa International ( १०१ ) For Personal and Private Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि साठ लाख वरसां लगी, पाली सगली आयो जी। सप्तमी वदि श्रापाड़ नी, सिद्ध थया जिनरायो जी। वि०।१२। सुन्दर मूरति प्रभु तणी, निरखंतां सुख थायो जी। हियडो हीसंइ माहरो, पातिक दूर पुलायो जी । वि०१३। प्रभु दर्शन सुख संपदा, प्रभु दरशन दुख दूरो जी। प्रभु दरसन दौलति सदा, प्रभु दरसन सुख पूरो जी। वि०१४। । कलश ।। इम पंच कल्याणक परंपर, मेदनी तट मंडणो, . श्रीविमल जिनवर संघ सुखकर, दुरिय दोहग खंडणो। जिनचंद्रसूरि सुशिष्य पंडित, सकलचंद मुनीश ए, तसु शिष्य वाचक समयसुन्दर, संथुण्योसु जगीश ए।१५॥ श्री आगरा मंडण श्री विमलनाथ भास देव जुहारण देहरइ चाली, सहिय ससमाणी साथि री माई। केसर चंदण भरिय कचोलड़ी, कुसुम की माला हाथि री माई ।१। विमलनाथ मेरउ मन लागउ, श्यामा कउ नंदन लाल री माई ।। प्रांकणी ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलनाथ भास ( १०३ ) पग पूजी च पावड़ साले, अरिहंत देव दुवारि री माई । निसही तीन करे तिहुँ ठामे, पांचे निगमन सार री माई ।२। वि०॥ त्रिएह प्रदक्षिण भमती देऊ त्रिएह करू परणाम री माई । चैत्य वंदन करि देव जुहारु, गुण गाऊं अभिराम री माई ।३। वि० भमती मांहि भमवि जे भवियण, ते न भमइ संसार री माई । समयसुन्दर कहइ मन बंछित सुख, ते पामइ भव पार री माई ।४। वि० इति श्री आगरामण्डन श्री विमलनाथ भाल !॥२५॥ श्री शान्तिनाथ गीतम् राग-केदारउ शान्तिनाथं भजे शांतिसुखदायकं, नायकं केवलज्ञानगेहम् ।। कर्ममलपङ्ककादम्बिनीसमभं, मगनसागरधनुर्मानदेहम् ।शां०११ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि कनकपङ्कज कदम्बेषु कारिणं सञ्चारिणं, सम्पदां भागधेयम् । अत्रिसुत वाहनेनाङ्कितं जिनवरं, पापकु' भीनसे वैनतेयम् विकटसंकटपयोराशिवटसंभव, विश्वसेनाङ्गजं सौख्य सन्तानवल्ली विताने Jain Educationa International विश्वभूपम् । घनं, | शा० २रा समय सुन्दरसदानन्दरूपम् श्री पाटण - शांतिनाथपंचकल्याणकगर्भित देवगृहवर्णर्नयुक्तदीर्घस्तवनम् मूरत सोवन वान । मन मोहती ए ॥ १७॥ अधिक उलासि । | शां०|३| सूरत सोहती ए जन पीतल पड़िमा पासि, भेव्य संतीसर तणी ए, तिहुण प्रभु तोरण मारि, सुन्दरि पूतलि च्यारि । प्रभु सेवा करि ए, दोइ दीवी घरी ए || १६ | जण घणो ए ॥ १८ ॥ पंच वरण वर पाट, रचिय रसाल सुघाट । चिहुँ दिसि चंदुआ ए, ऊपरि बांधिया ए ||२०|| जोवर जर सब कोई, पीतल घंटा दोह । रग रग रगगइ ए, जिस जय जय भगइ ए ॥ २१॥ For Personal and Private Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्तिनाथपंचकल्याणकस्तवन (१०५) ॥हाल ॥ जसु मंडप चिहुं पासि नित नाटक करइ, मिलि चउवीसे पूतली ए। दोय वजावइ ताल दोय वीणा वंसी, दोय वजावइ वांसली ए॥ दोइ करि धरि बात्र तांत बजावए, गीत गान जिन ना करई ए। दोय वजावइ सार धो धो मद्दला, दोय करियलि चामर धरइ ए ॥२२॥ दोय करि पूरण कुंभ जाणे जिणवर, स्नान भणी पाणी भर्या ए। एक वजावइ भेरि तिय मुहि करि, धरि जोतां जिण जण मण हा ए॥ नव पूतलि नव वेष करिय नवे पदे, नाचइ सोचइ मनि करी ए। जाणे शांति जिणंद आगलि अहनिशि, नृत्य करइ सुर सुन्दरी ए ॥२३॥ चउदंती चउपासि रूप मणोहर, पूर्ण कुंभ निय करि धरइ ए। जाणे चउ दिगदंती सामि सेवा थकी, भवसागर लीला तरइ ए ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि नान्हा मोटा थंभ छोह पंक्ति भीति, चारु चित्र वलि चिहुं दिसइ ए। एहवउ जिणहर गेह अहनिशि निरखंता, _भवियण जण मण उल्हसइ ए ॥२४॥ इम थुण्यउ जिणवर संति दिणयर, भरिय तिमिर विहंडणो। अणहिल्ल पाटण मांहि श्री, त्रंबाड़वाड़ा मंडणो । गच्छराय जिनचंद सरि सीसय, सकलचंद्र मुणीसरो। तसु सीस पभणइ समयसुन्दर, हवउ जिन मुह सुह करो॥२५ इति श्रीशांतिनाथपंचकल्याणकगर्भितदेवगृहवर्णनयुक्तदीर्घ स्तषनम् समाप्तम् ।* जेसलमेर मण्डन श्री शांति जिन स्तवनम् अष्टापद हो ऊपरलो प्रासादक, बींदे जी संघवी करावियउ। जिण लीधो हो लक्ष्मी नो लाहक, पुण्य भंडार भरावियउ॥१॥ मोरा साहिब हो श्री शांतिजिणंदक, मनोहर प्रतिमा सुदरू। निरखता हो थाये नयणानंदक, वंछित पूरण सुरतरु ।।२।। देहरइ में हो पेसंता दुवार क, सेत्रुजे पाट सु देखियइ । भमती मंइ हो बहु जिनवर बिंबक, नयण देखि आणंदियइ ॥३॥ * जेसलमेर बड़ा झान भण्डार-द्वितीय पत्र से Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्तिजिन स्तवन ( १०७ ) सतरह से हो तीर्थंकर देवक, बिहु पासे नमु वारणै । गज ऊपर हो चढिया माय ने वापक, मूरति सेवा कारणै ॥ ४ ॥ अति ऊँचा हो सो है श्रीकारक, दंड कलश ध्वज लहल है । धन्य जीव्यो हो तसु तो परमाणक, यात्रा करी मन गहग है ॥ ५ ॥ जेसलमेर हो पनरै छत्तीसक, फागुण सुदि तीज जस लियो । खरतर गच्छ हो जिन समुद्र सुरिन्दक, मूल नायक प्रतिष्ठियो । ६ । हित जाण्यो हो श्री शांति जिणंदक, तूं साहिब छह माहरउ । समयसुंदर हो कहै बेकर जोड़क, हूं सेवक छु ताहरउ ॥ ७ ॥ श्री शान्ति जिन स्तवनम् सुंदर रूप सुहामणो, श्री शान्ति जिणेसर सोहइ रे । त्रिभुवन र राजियउ, प्रभु सुरनर ना मन मोहइ रे ॥ १ ॥ समवसरण सुरवर रच्यउ, तिहां बैठा श्री अरिहंतो रे । भविण नै देखा, भय भंजण भगवंतो रे || २ || त्रिve छत्र सुरवर धर, चिह्न दिशि सुर चामर ढालइ रे । मोहन मूरति निरखतां, प्रभु दुरगति नां दुख टालइ रे ॥ ३ ॥ आज सफल दिन माहरउ, श्राजपाम्यर त्रिभुवन राजो रे । आज मनोरथ सवि फल्या, जउ भेट्या श्री जिनराजो रे ॥ ४ ॥ बेकर जोड़ी बीनवु, प्रभु वीनतड़ी अवधारो रे । मुझ ऊपर करुणा करो, आवागमन निवारो रे ॥ ५ ॥ चिन्तामणि सुरतरु समउ, जगजीवन शांति जिणंदो रे । समयसुंदर सेवक भइ, मुझ आप परमाणंदो रे ॥ ६ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०८ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि भी शान्तिनाथ हुलरामणा गीतम ढाल-१ गुण वेलड़ी नी २ गुजराती सहेलड़ी नी शांति कुंयर सोहामणउ म्हारउ बालुयड़उ, त्रिभुवन केरो राय म्हारउ नान्हड़ियउ । पालणडइ पउढ्यउ रमइ म्हारउ बालुयड़उ, __ हीडोलइ अचिरा माय म्हारउ नान्हडियउ ॥१॥ सोभागी सहु ने वालहउ म्हारउ बालुयड़उ, सुरनर नामइ सीस म्हारउ नान्हडियउ । हुलरावइ हरखे घणइ म्हारउ बालुयड़उ, जीवउ कोड़ि वरीस म्हारउ नान्हडियउ ॥२॥ पग घूघरड़ी घमघमइ म्हारउ बालुयडउ, ठम ठम मेल्हइ पाय म्हारउ नान्हडियउ । हेजइ मां हियडइ भीड़इ म्हारउ बालुयडउ, आणंद अंगि न माय म्हारउ नान्हडियउ ॥३॥ बलिहारी पुत्र ताहरी म्हारउ बालुयड़उ, तूं मुझ प्राण आधार म्हारउ नान्हड़ियउ । शांति कुंयर हुलरामणु म्हारउ बालुयड़उ, समयसुन्दर सुखकार म्हारउ नान्हड़ियउ ॥४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्तिजिनगीतम् (१०६ ) भी शान्ति जिन स्तवनम् सुखदाई रे सुखदाई रे, सेवो शांति जिणंद चित लाई रे । सु०। प्रभुनी भगति करू मन भावइ रे, म्हारा अशुभ करम जावइ रे। एहवा भवियण भावना भावइ रे, मन पंछित ते सुख पावह रे । सु०।१। चारू केसर चंदन लीजइ रे, प्रभु नी नव अंग पूजा रचीजइ रे। पुष्पमाल कंठे ठवीजइ रे, मानव भव सफल करीजइ रे। सु० १२१ प्रभु मंइ काल अनंत गमायउ रे, हिवणांतू पुण्य संयोगइ पायउरे। तारे चरण कमल चित्त लायउ रे, सामी हूँ तुम शरणइ श्रायड रे। मु० ३। हिव वीनतडी एक अवधारउ रे, प्रभु शरणागत साधारउ रे । दुरगति ना दुख निवारउ रे, भव सागर पारि उतारउ रे । सु०१४।। श्री शांति जिणेसर सामी रे, नित चरण न सिरनामी रे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११० ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि समयसुन्दर अंतरयामी रे, प्रभु नामइ नव निधि पामी रे। सु० ॥ श्री शान्ति जिन गीतम प्रांगण कल्प फल्यो री हमारे माई, आंगण कल्प फल्यो री। ऋद्धि सिद्धि वृद्धि सुख संपति दायक, श्री शांतिनाथ मिल्यो री ॥०॥१॥ केशर चंदन मृगमद मेली, मांहि बरास मिल्यो री ।ह। पूंजत शांतिनाथ की प्रतिमा, अलग उद्वग टल्यो री ।। ह॥२॥ शरणे राख कृपा करि साहित्र, ज्यू पारेवो पल्यो री । ह० ॥ समयसुन्दर कहइ तुम्हरी कृपा ते, हिव रहिस्यू सोहिलो री ॥ह०॥३॥ श्री गिरनार तीरथ भास श्री नेमीसर गुण निलउ, त्रिभुवन तिलउ रे। चरण विहार पवित्त, जय जय गिरनार गिरे॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीगिारनारतीरथमास ( १११ ) त्रण कल्याण जिन तया, उच्छव घणा रे। दीक्षा ज्ञान निर्वाण, जय जय गिरनार गिरे ॥२॥ अंच कदंब केली घने, सहसावने रे । समोसरचा श्री नेमि, जय जय गिरनार गिरे ॥३॥ जदुपति वंदन जावती, राजीमति रे। प्रतिबोध्या रहनेमि, जय जय गिरनार गिरे॥४॥ संव प्रजुन्न कुमर वरा, विद्याधरा रे। क्रीड़ा गिरि अभिराम, जय जय गिरनार गिरे।।शा संघपति भरतेसरू, जात्रा करू रे। थाप्या प्रथम प्रासाद, जय जय गिरनार गिरे॥६॥ फल अनंत सेव॒ञ्ज कया, शिव सुख लद्या रे।। तेह तणउ ए शृङ्ग, जय जय गिरनार गिरे ॥७॥ समुद्र विजय नृप नंदना, कृत वंदना रे । समयसुन्दर सुखकार, जय जय गिरनार गिरे॥८॥ इति भी गिरनार तीरथ भास ॥ ८ ॥ श्री गिरनार तीर्थ नेमिनाथ उलंभा भास दरि थकी मोरी बंदणा, जाणे ज्यो जिनराय । नेनिजी। उमाहउ करि आवियउ, पणि कोई अंतराय । ने०।०१। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि का गिरनार गढइ चढूं, जपतउ अहनिशि जाप। प्रापति बिण किम पामिइं, मन मान्या मेलाप । नेद।२। तुम सुमांड्यउ नेहलउ, पूरउ नवि निरवाह। आगे पणि राजिमती, नारी करी निरुच्छाह । ने। दू०३। तूं समरथ त्रिभुवन धणी, अंतराय सवि मेटि। समयसुन्दर कहइ नेमिजी, वेगी देज्यो भेटिं । ने। दू०।४। इति श्री गिरनार तीरथ नेमिनाथ उलंभा भास ।।६।। (२) परतिख प्रभु मोरी वंदना, आज चडी परमाण । नेमिजी। भाग संजोगउ तू भेटियउ,जादव प्रीति सुजाण । नेमिजी।१०प०। परम प्रीति खरो प्रभु ताहरी,निरवाहइ निरवाण । नेमिजी। नव भव नारि राजिमती, तारी आप समाण । नेमिजी।२।१० अंतरजामी आपणउ, तेसू केही काणि । नेमिजी। अोलंभा पिण श्रापीयइ, कीजइ कोडि वखाण । नेमिजी।३।१०। उलंभउ उतरावियउ, आपणउ सेवक जाणि । नेमिजी। श्री गिरनार यात्रा करी, समयसुन्दर सुविहाण। नेमिजी।४।१०। इति श्री नेमिनाथ उलंभा उतारण गिरनार भास ॥७॥ श्री सौरीपुर मंडन नेमिनाथ भास राग-गूजरी सौरीपुर जात्र करी प्रभु तेरी । जन्म कल्याणक भूमिका फरसी,मन आस्या फली मेरी। सौ०।१। * श्री गिरनार जुहारियो जगजीवन जग भाण । ने० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथ भास ( ११३ ) धन ध्यावर नेमि जिइ जनमे, धन खेलण की सेरी । जरासंध विरताव वसावी, द्वारिका नगरी नवेरी | सौ० | २ | मिश्र रहनेमि सहोदर, मूरति राजुल केरी । भाव भगति रिकरी मांहि भेटी, जिन प्रतिमा बहुतेरी | सौ० | ३ | जात्र जावतात हम बइठे, जमुना जल की बेरी । समयसुन्दर कहइ ठ नेमीसर, राखि संसार की फेरी । सौ० |४| इति श्री सौरीपुर मंडन नेमिनाथ भास । 1 श्री नडुलाई मंडण नेमिनाथ भास राग - सारंग नडलाई निरख्यउ, जादवड न० ऊंचउ परवत उपरि उनयउ, मन मोरउ चातक हरख्यउ | १ | न० | साम मूरति तेज बीजलि राजित, वसुधा जल वरख्यउ । समयसु दर कहइ समुद्र विजय सुत, प्रभु जलधर समउ परख्यउ |२| इति श्री नडुलाई मंडण नेमिनाथ भास ॥ १८ ॥ श्री नेमिराजुल गीतम् ढाल - मेरी बहिनी सेतुज भेटू गी- आदिनाथ नी बहिनी नी । चांपा " ते रूपड़ रूपड़ा *, परिमल सुगंध सरूप । भमरा मनि मान्या नहीं, गुण जागइ न अनूप |१| चांपलउ * सूयड़उ + मानइ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि मेरी बहिनी मन मान्या नी बात, मकरउ को केहनी तात । मे। सहुनी एहीज धात । मे० | आंकणो । आक तणा अक डोडिया, खावंता खारा होय । ईसर देव नइ ते चडइ, मन मानी बात जोय । मे०।२। रयणायर रयणे भरचउ, गंभीर सुंदर रीति । राजहंसा राचइ नहीं, मान सरोवर प्रीति । मे०।३। प्रांबलउ उंठइ परिहर यउ, नींब सुनेह सुचंग । कुमुदिनी सूरज परिहरचउ, चंद्र कलंकी मुसंग । मे०४। राजमती कहइ हुं सखी, गुणवंत रूप निधान । तउ ही नेमि परिहरी, निरगुण मुगति बहु मान । मे।। जउ पणि नीरागी नेमि जी, तउ पणि न मूकुतास। ऊनल गिरि राजुल मिली, समयसुन्दर प्रभु पास । मे०।६। इति श्री नेमिनाथ गीतम् ॥ १५॥ श्री नेमि जिन स्तवनम् दीप पतंग तणी परइ सुपियारा हो, एक पखो मारो नेह; नेम सुपियारा हो। हूं अत्यंत तोरी रागिणी सुपियारा हो, तूंकाइ छ मुझ छेह; नेम सुपियारा हो॥१॥ संगल तेसुकीजिये सुपियारा हो, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिजिन स्तवन (११५) जल सरिखा हुवे जेहा नेम सुपियारा हो। आपटणु आपणि सहै सुपियारा हो, दूध न दाभण देय नेम सुपियारा हो॥२॥ ते गिल्या गुणवंत जी सुपियारा हो, चंदन अगर कपूर नेम सुपियारा हो । पीड़ता परिमल करै सुपियारा हो, ____ आपइ आणंद पूर; नेम सुपियारा हो ॥३॥ मिलतां सुमिलीयै सही सुपियारा हो, जिम बापीयड़ो मेहा नेम सुपियारा हो। पिउ पिउ शब्द सुणी करी सुपियारा हो, __आय मिले सुसनेह; नेम सुपियारा हो ॥४॥ हूँ सोनी नी मुंदड़ी सुपियोरा हो, तूं हिव हीरो होय; नेम सुपियारा हो। सरिखइ सरिखउ जउ मिलइ सुपियारा हो, तउ ते सुंदर होय; नेम सुपियारा हो ।। ५ ।। नव भव न गिण्यउ नेहलउ सुपियारा हो, धिक धिक् ए संसार नेम सुपियारा हो। समयसुन्दर प्रेभु कू मिली सुपियारा हो, राजुल ल्यै व्रत सार; नेम सुपियारा हो ॥६॥ श्री नेमिनाथ राजिमती गीतम राग-परजियउ नेम जी रे सामलियउ सोभागी रे, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि नेमजी वान नियउ वयरागी रे | ने० | १ | हूँ भव भव की दासी रे ने० हूँ०, नेमजी क्युं करत उदासी रे | ने० |२| तू भोगी त हूँ भोगिणी रे ने० तूं ०, मी तू योगी तर हूं योगिणी रे | ने० | ३ | तूं छोड़ तर हूँ छोड़ रे ने० तू०, नेमजी कतुयारी ज्यु' हूँ जोडूं रे | ने० |४| नेमि राजीमती तारी रे ने० ने०, नेमजी समयसुन्दर कहइ हूँ वारी रे | ने० |५| ( ११६ ) नेमिनाथ गीतम नेमिजी सुजउ रे साची प्रीतड़ी, तउ सुरौं अवरां प्रीतो रे । गुणवंत माणस सेती गोड़ी तउ सुं' निरगुण रीतो रे | १| ने० | भाग संजोग रे अमृत पीजियइ, तर कुण पीवड़ नीरो रे । धावल कांबल धुंस को नहीं, जउ पामीजइ चीरो रे | २ | ने० | मीठी द्राख चारोली चाखवी, नींबोली कुण खायो रे । रतन अमूलख चिंतामणी लही, काच ग्रहण कुण जायो रे | ३ | ने० | राजुल कहइ सखि नेम सुहामराउ, मुझ मन मान्यो एहो रे । हनिशि रहना गुण मन मांहि वस्या, अवरां केहउ नेहो रे | ४ | ने० | राजुल उज्जल गिरि संयम लियउ, जपतां पिउ पिउ नेमो रे । समयसुन्दर कहइ साचउ एहत, अविहड़ बिहुं नउ प्रेमो रे || ने० | Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथ फाग ( ११७ ) नेमिनाथ फाग राग वसंत-जाति फाग नी ढाल मास वसंत फाग खेलतप्रभु, उडत अवल अबीरा हो। गावत गीत मिली सब गोपी, सुन्दर रूप शरीरा हो।शमा०) एक गोपी पकरइ प्रभु अंचल, लाल गुलाल लपेटइ हो। केशर भरी पिचरके छांटत, राजुल हइ अति सारी हो ।२६ मा० रुकमणी कहइ परणउ इकनारी, राजुल हइ अतिसारी हो। जउ निर्वाह न होइ गउ तुम तइ तउ,करिस्य कृष्ण मुरारी हो।३मा० नेमि हंसइ गोपी सब हरखी, नेमि विवाह मनाया हो। छपन कोड़ यादव सुयदुपति, उग्रसेन तोरण आया हो।४। मा०। गोख चढी राजुल पिउ देखत, नव भव नेह जगावइ हो। दाहिनी प्रांखि सखी मोरी फरुकी,रंगमंइ भंग जणावइ हो।।मा० पशुय पुकार सुणी रथ फेर्यउ, राजल करत विलापा हो। सरज्यां बिन सखी क्युकर पाइयइ, मन मान्या मेलापा हो।६मा०। हुँ रागिणी पण नेमि निरागी, जोरइ प्रीति न होइ हो। एक हथि ताली पिण न पड़इ मुझ, मन तरसइ तोइ हो ।७ मा०। राजुल नेमि मिले ऊजल गिरि, दुरि गए दुःख दंदा हो । नेमि कुमार फाग गावत सुख, समयसुन्दर अानंदा हो ।८।मा०। नेमिनाथ सोहला गीतम् नेमि परणेवा चालिया,म्हारी सहियर रूयडि जादव जान है। छप्पन कोड़ि यादव मिल्या म्हां०,अति घणाअादर मान है।१ने। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११८ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि गज चढ्या श्री जिनराज हे, चांवर ढोलइ देवता म्हां० । मस्तक छत्र विराज हे ॥म्हां० ॥२॥ ने०॥ सन्दर सेहरो सोहइ ए, सामल रूप सुहामणउ म्हां० । सुरनर ना मन मोहइ ए ॥म्हां ॥३॥ ने० ॥ इन्द्राणी गायइ गीत हे, बाजा वाजइ अति घणा म्हां । रूयडी सगली रीत हे ॥म्हां ॥४॥ने॥ श्राविया उग्रसेन बारि रे, तोरण थी पाछा वल्या म्हां । पशुय सुनी पुकारि हे ॥म्हां० ॥ ५॥ ने०॥ राजुल करत विलाप हे, प्रापति बिन किम पामियइ म्हां० । मन मान्या मेलाप हे ॥म्हां ॥६॥ने०॥ जइ चढ्या गढ गिरनारि हो, संयम केवल शिवसिरी। तिएह वरी तिहां नारी हो ॥ म्हां ॥७॥ ने० ॥ साचउ सोहलउ एह हे, समयसुन्दर कहइ मुझ हुज्योम्हा० । नेमि वरी नारि तेह हे ॥म्हां ॥८॥ ने०॥ नेमिनाथ गीतम् ढाल (भलु थयु म्हारइ पूज जी पधार्या ) मुगति धूतारी म्हारउ उतार्यउइ, धूतार्यउ, मुझ थी राग लहियइ ।१। बाई जोयउ रे मु०॥ प्रांकणी ॥ कर्म कथा कहउ केहनइ कहियइ, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथ फाग ( ११६ ) सुख दुख सयं लहियइ ।३। बा० । इणरे धूतारी बाई अनंत धूतार्या, बीजा सु बोलता निवार्या ।३। बा० । मुझ पिउड़उ बाई नहीं म्हारइ हाथि, हुँ नहीं जाउं पिउ साथि ।४। बा। राजुल पिउथी पहिली गइ मुगति, समयसुन्दर कहइ जुगति ।। बा० । नेमिनाथ फाग आहे सुन्दर रूप सुहामणउ, शिवादेवो मात मल्हार । सु०॥ आहे नव योक्न भर आवियउ,लाडिलउ नेमकुमार।शनवयो। आहे निरमल नीर खंडोखलि, खेलण नेमि सराग। निः । आहे हाव भाव विभ्रम करइ, गोपी गावइ फाग ।।हाव। आहे लाल गुलाल चिहुं दिसइ, उडत अवल अबीर। ला०। . आहे केसर भरि भरि पिचरका, छांटत सामि शरीर।३। के। आहे एक बजावइ बांसली, एक करइ गोपी नृत्त । ए०। आहे एक देउर हासा करइ, एक हरइ प्रभु चित्त ।४। ए.। आहे एक अंचल प्रभु गहि रही, एक कहइ परणउ नारि। ए० । आहे जउ निरवाह न होइ तउ, करिस्यइ कंत मुरारिश ज०। आहे नेम हंस्या गोपि भणइ, देवर मान्यउ विवाह । ने। आहेरमलि करि घर आविया,शिवा देवि मात उछाह।६। र । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि आहे प्रभु परणेवा चालिया, रूयडि यादव जान । प्र०। आहे छप्पन कोड़ि यादव मिल्या,सुरनर नउ नहीं गान छ। आहे नेमिजी तोरण आविया, सांभल्यउ पशुय पुकार । ने० । आहे तोरण थी रथ फेरियउ, जइ चड्या गढ गिरनार ।। तो आहे राजुल रोयइरस बडइ, भूहि पडइ करइ रे पिलाप । रा०। 'आहे नाह बिहूणी किम रहुँ, किम सहुं विरह संताप हाना। आहे मैं अपराध न को कियउ, किम गय कंत रिसाय । मैं| आहे मुगति वधु मन मोहियउ, दोष पशु दे जाय ।१०।मु०। आहे नव भव केरर नेहलउ, छेहलउ दीधउ केम । न०। आहे नयण सलूणउ नाहलउ, नयणे न देखु नेम।११। न० । आहे वैरागे मन वालियउ, राजुल गइ गढ गिरनार । वैः । आहे पिउ पासइ संयम लियउ, पहुँता मुगति मंझार।१२। पि० । आहे जे नरनारी रंग सु गास्यइ नेमजी फाग जे। आहे ते मन वांछित पामस्यइ, समयसुन्दर सोभाग।१३। ते । नेमिनाथ बारहमासा सखि आयउ श्रावण मास, पिउ नहीं मांहरइ पासि । कंत बिना हु करतार, कीधी किसा भणी नारि ॥१॥ भाद्रवइ वरसइ मेह, विरहणी धृजइ देह । गयउ नेमि गढ गिरनारि, निरवही न सकी नारि ॥२॥ आसू अमीझरइ चंद, संयोगिनी सुखकंद । निरमल थया सर नोर, नेमि बिना हुं दिलगीर ॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथ भास (१२१ ) कातियइ कामिनी टोल, रमइ रोसड़इ रंग रोलि । हुँ घरि बइसी रहि एथि, मन माहरउ पिउ जेथि ॥४॥ मगसरह वाजइ वाय, विरहणी केम खमाय । मंड किया के अंतराय, ते केवली कहिवाय ॥शा पापियउ आव्यउ पोष, स्यउ जीविवा नउ सोस। दिन घट्या बाधी राति, ते गमु केण संघाति ।।६।। मोह मास विरही मार, शीत पड़इ सबल ठठार । भोगी रहइ तन मेलि, मुझ नइ पियु मन मेल ॥७॥ फूटरा फागुण बाग, नर नारी खेलइ फाग । नेमि मिलइ नहीं जो सीम, तां सीम रमिवा नीम ॥८॥ चैत्र आम मां चंग, कोयली मिली मन रंग। बाई माहरउ भरतार, की मेलस्यइ करतार ॥६॥ वैशाख वारु मास, नहीं ताढि तड़कउ तास । उंची चढि आघास, वइसयइ केहनइ पास ॥१०॥ जेठ मासि लू नउ जोर, मेहनइ चितारइ मोर। . हूं पिण चितारु नेम, पगि नेमि नाणई प्रेम ॥११॥ आषाढ उमट्या मेह, गया पंथि आपणि गेह । हुँ पणि जोउं प्रियु वाट, खांति वछाउं खाट ॥१२॥ बार मास विरह विलाप, कीधा ते पोतइ पाप।। मन वालिङ वैराग, साचउ कर सोभाग ॥१३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२२ ) समयमुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि राजुलाई पियु पास, सं.ल लियु सुविलास । इम फसउ साहुनी श्रास, भण्इ समयसुन्दर भास ॥१४॥ श्री. नेमिनाथ गीत राग-केदारउ काइ, प्रीति तोड़इ.:हां नेमि जी हु तोरी रागिणी। अष्ट भवन कउ तूं. मेरऊ साहिब, बिन, अपराध कहां अब छोरइ । हां।।ने। मेरे मनि तुही तेरे मनि कछु नहीं, तउ कीजइ कहां प्रीति जोरइ । समयसुन्दर प्रभु आणि मिलावउ, जउ मानइ कब कीनइ निहोरइ ।हां ।।ने। श्री नोमनाथ गीतम राग-देसाख देखउ सखि नेमि कत आवइ, चिहुं दिशि चामर दुलावइ । दे। नील कमल दल सामल मूरति, सूरति सबहि सुहावइ । देश जय जयकार जपति सुरासुर, हरि रमणी गुण गावइ । सीस समारि पुहप कउ सेहरउ, शिवादेवि भामण भावइ । दे०।२। राधा रुकमणी:पसि बसि नंदन, चंदन अंगि लगावइ । समयासुन्दरकहर जो लिन ध्यावई; सो शिव पदवी पाबइ। दे०१३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नोमनाथ-गीत ( १२३). श्री नेमिनाथ-गीता राग--मुलतानी धन्याश्री तोरण थी रथ फेरि चले, रथ फेरि चले दोष पशु दे जात। प्यारउ लेहु मनाई, मुगति वधू मन मई वसी, मन मईवशी हमर्हि रहे विललात । प्या०।१॥ हा जादव तंइ कहा किया तइ कहा किया, नव भवः तोर्यउ नेहा । प्या। लाल मोहन बिन क्युरहुं बिन क्यु रहे। विरह संतापद देहग प्या।। राजुल पिउ संग प्रावि मिली हां आई मिली, ऊजला गढः गिरनार । प्या। . समयसुन्दर गणि इम भणइ गणि इम भणह, नेमि सुदा सुखकार । प्या० ॥३॥ श्री नेमिनाथ गीत राग-केदारा गौडी मोकु पिउ विन क्यु सखि रयणि विहाह । मोर किशोर बप्पीहा बोलत, खिणं खिण विरह जगाई।१।मो गुनह नहीं सीख कोउन मेरा, यदुपति गए क्यों रिसाई। जाण्यउरी मरम मुगति वधु मोहइ, दाप पशु दे जाईरामो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि दउरउ सखि पियु पाय परउतुम, मोहन लाल मनाई। समयसुन्दर प्रभु प्रेम उदक करि, अंतर ताप बुझाई ।३।मो० श्री नेमिनाथ गौतम - राग-परजियउ। एक वीनति सुणउ मेरे मीत हो ललना रे, मेरा नेमि सु मोह्यां चीत हो ।ल०। अपराध बिना तोरी प्रीति हो ल, इह नहीं सज्जन की रीति हो।ल०१॥ नेमि बिन क्युरहुं बोलइ राजुल रे । अांकणी ॥ मोरइ नेमि जी प्राण आधार हो ल०, अब जाउंगी गढ गिरनारी हो ।ल। नीकउ लेउंगी संयम भोर हो ल०, समयसुन्दर प्रभु सुखकार हो । ल०१२। नेमिनाथ गीतम् . राग-मारुणी यादव वंश खाणि जोवतां जी,लाधुएक रतन नेमिजी हो। जाति उत्तम कांति दीपतउ जी, करिस्यु कोडि जतन्नाशने नेम नगीनउ मंइ पायउ सखिजी, एह अमूलिक नग्ग ! गुण गुंफी प्रेमकुन्दन जड़ी जी, राखिसि हियडलइ रंग ।।ने. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथ गीत (१२५ ) मन गमतउ माणक मंइ लाजी, कहि राजुल कुल नारि। समयसुन्दर भगते भणई जी, शीलाभरण सुखकारि ने श्री गिरनार मंडन नेमिनाथ गीतम् ___ राग-जयतश्री औ देखत उंचउ गिरनारि । औला जिण गिरि आय रहे जोगीसर, नेमि निरंजन बाल ब्रह्मचारी । औ०।१। शाम्प प्रज्जुन कुमर क्रीड़ा गिरि, अंबिका टुक प्रमुख विस्तारी । औ०। समवशरण शोभित सहसावन, राजिमती रहनेमि विचारी । औला। नेमिनाथ मूरति अति मनोहर, धन्य दिवस मंइ आज जुहारी । औ०। समयसुन्दर प्रभु समुद्र विजय सुत, जात करत सुखकारी ।औ०।३। श्री नेमिनाथ गौतम राग-रामगिरि छपन कोड़ि यादव मिलि आए, नयणे नेमि निहाल्यउरे। पशुय पुकार सुणी यदु नंदन, तोरण थीरथ वाल्यउ रे।शरा० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि राजुल नारि कहइ मृगनयणी, मृग कउ काउ म मानउरे। नयण विरोध हमारइ इण सु, जादव ए मर्म जाणउ रे।।रा। आगे पिण सीता नइ इण मृग, राम विछोहउ पाइयउ रे। रोहिणी कउ मनरंग गमाइयउ,चंद कलंक दिखाड्यउरे।३ रा०। दोषी हुयह ते देखि न सखइ, घात विचालह घालइ रे। समयसुन्दर प्रभु साजन सरिखा, पडिवन्तउ पालइ रे।४। रा०। नेमिनाथ गीत राग-मारुणी उग्रसेन की अंगजो, बोलति गदा गज वाणि । किण सुताणि न तोडियइ, जगजीवन चतुर सुजाणि ।। ह०। हमारे मोहन विन अपराधि न छाड़ि ॥ अांकणी ॥ अष्ट भवन की प्रीतडी, नवौताणा ताणि । जल बिन मछली किउं रहइ, कछु महरि हमारी आणि ।२। ह। नेमिनाथ नाकी करी, तारी आप समानि । समयसुन्दर कहइ आपणि, प्रीत चाढी नेमि प्रमाणि ।३। ह०। नेमिनाथ गीतम् राग-मारुणी चंदई कीधउ चानणउ रे, दोठउ मृग दुःख दाय । तुदधि सुत तिण दाखवु, भलउ समुद्रविजय सुत भाइ।१। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथ गीत ( १२७ ) चंदलिया चित्त विचारइ रे,तुतउ मृग नइ घर मंइ म राखि ।च०। एतउ सीखलड़ो सयणा, एतउ बातलड़ी वयणा। चं० आँकणी। पापी विछोहउ पाडियउ, माहरउ भंभेरयड भरतार। सीता दुःख दिखाड़ियउ, चंदा हिव छइ ताहरी वार । चं०।२। रोहिणी रंग गमाडिस्यइ, कहिस्यइ लोक कलंक । राजुल कहइ बात रूयडि, पछइ मानि म मानि मृगांक । चं०।३। वइरागइ मन वालिङ रे, गई राजुल गिरनार । समयसुन्दर कहइ सांभलउ ए, सतियां मांहि सिरदार। चं०१४॥ श्री नेमिनाथ गीतम ___राग-सुघड़ाइ नेमि जी मन जाणइ के सरजण हारा, तुरे प्रीतम मुझ लागत प्यारा ।। नव भव नेह न मुक्या जावई, मुगति मुगति तुझ सेतो भावइ । २ । राजुल नेमि मिले गिरनारी, समयसुन्दर कहई बाल ब्रह्मचारी । ३। श्री नेमिनाथ गीत राग - आसावरी सामलियउ नेमि सुहावइ रे सखियां, कालउ पणि गुण भरियउ रे लखियां ।। सान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२८ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि प्रांखि सोहइ नहीं अंजण पारवइ, कालउ मरिच कपूर नइ राखइ ।२। सा। काली कीकी करइ अजुवालउ, रक्षा करइ रूड़उ चंदलउ कालउ । सा०। कालउ कृष्ण वृन्दावनि सोहइ, सोल सहस गोपी मन मोहइ ।४। सान नर नारी सहुको घणु तरसइ, ___कालउ मेह घटा करि वरसइ ।। सा०। राजुल कहइ सखि स्यु करुं गोरइ, समयसुन्दर प्रभु मन मान्यउ मोरइ ।६। सा०। श्री नोमनाथ गूढा गीतम् राग--आसावरी सखि मोऊ मोहन लाल मिलावइ । स० । दधि सुत बन्धु सामि तसु सोदर, तासु नंदन संतावइ ।।स०॥ वृष पति सुत वाहन तसु वालिंभ, मण्डन मोहि डरावइ । अगनि सखारिपु तसु रिपु खिणु खिणु,रवि सुत शब्द सुणावइ ।स। हिमगिरितनया सुत तसु वाहन, तास भक्षण मोहि भावइ । समयसुदर प्रभु कुमिलि राजुल,नेमि जिणंद गुण गावइ ।।स। - श्री नोमिनाथ गीतम राग-श्राशावरी नेमि नेमि नेमि नेमि, जपत राजुल नारि हो।ने। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मगर वैराग्य ( १२६ ) नव भव कउ नेह न मूक्यउ, चालि गड़ गिरनारी हो । ने० |१| नेमि शृंगार वैराग्य कृपा अमूलिक कांचली रे, नेमिजी तउ सखर महाव्रत साड़ी रे लाल । मुन नेमि प्रीतम पहिरावी । चूनड़ी रे ने०, सील सुरंगी चूनंड़ी आणी मुंनइ श्रोढाड़ी रे | लाल ० | १ | जिन थाज्ञा सिर राखड़ी रे ने०, तर काने डल जिनवाणी रे । लाल० । जिन गुण गान गलइ दूलड़ी रे ने०, तर मुझ मन अधिक सुहाणी रे | लाल०|२| भाले तिलक सो भाग नौ रे ने०, तउ जीव जतन कर चूड़ी रे | लाल ० | हार हियै वैराग नो रे ने०, तउ राजुल कहह हुं रूड़ी रे | लाल ० | ३ | जोग मारग में वे मिल्या रे ने०, तउ नेम राजुल सुख पावउ रे । लाल ० | शृङ्गार ने वैराग नो के ने०, तर समयसुन्दर गुण गावउ रे । लाल ०|४| Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृति कुसुमाञ्जलि चारित्र चूनड़ी तीन गुपति ताणो तण्यो रे, वीणो रे वरण्यो गुण वृंद रे । रंग लागो वैराग नो रे, विच में वण्यो चारित चंद | १ | लाखीणी चूनड़ी रे लाल, मोलवि सखि केताउ मूल । चूनड़ी चितमानी अमूल, मूनें नेम उढाड़ी रे विहड़ रंग ए चुनड़ी रे, भल भल विच में समयसुन्दर कहर सेवतां रे, खरी पूगी राजुल खांति |२| । ० । रांति । ( १३० ) | गूढा गीत लाल को लयुं री सखि समझाइ | ला●| नि भखी प्रियजनक तणो सुत, आणि मिलावो भाइ । ला०|१| ईस भूषण क्ष क्ष सुत सामि रिपु, बंधु प्रीया महरा साइ | ला ० | भोजन इन्द्र सहोदर सुत रिपु, कंठाभरण सुहाई । ला०|२| अभिमानी पंखी भाषा विणु, खिरा इक में न रहाड़ | ला०| राजुल नेमि मिले उज्वल गिरि, समयसुन्दर सुखदाई | ला ० | ३ | नेमिनाथ गीतम् राग - मारुणी ( धन्याश्री जयश्री मिश्र ) एतनी बात मेरे जीउ खटक री । विण अपराध छोरि गये जादु, Jain Educationa International तोरी श्रीति तातय त्रटक री ॥ १॥ ९० ॥ For Personal and Private Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथ गीत ( १३१) गिरिधर रामराय उग्रसेन हड़, एसउ नहीं कोई प्रियु हटकइ री । तोर तिहार दोर सब राजुल, नाह विना कहा कीयइ भटकइ री ॥२॥ए। इन्द्र चन्द्र नागेन्द्र बहुत हइ, अउर ठौर मेरउ जीउ न टकहरी । समयसुन्दर प्रभु कोउ मिलावउ, पाय पर नीकइ लटकह री ॥३॥ ए०। .. नेमिनाथ गीत सखी यादव कोडिसुपरवरे, प्रीयु आए तोरण बारिरे। रथ फेरि सीधारे, पशु की सुणि पुकारि रे।। मन मोहनगारो, कोइ प्राणी मिलावउ नेमि रे। मोहि विरह संतावइ, सखी पूरव भव कउ प्रेम रे । मन। आं०। सखी मइ अपराध न को कियउ, यदुराय रीसणे केम रे। हां हां मरम पिछाण्यउ, सिव नारि धृतारे नेमि रे।२। मन। सखी नयण न देखुनेमजी,मोहि चित पटि लागी चीतरे। पर पीर न जाणइ नहि को, मेरइ एइसउ मीत रे।३। मन सखी अबहु मौन करूंगी, मोहि लागी मोटी सीख रे। गिरनारि चढुंगी, प्रभु पासि लेऊंगी दीख रे।४। मन। सखी राजुल संयम आदयों, मन माहि वस्यो वइराग रे। परमाणंद पायउ, समयसुन्दर कउ सोभाग रे ।। मन। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि श्री नेमिनाथ गीतम राग-रामगिरी बिण अपराध तजि मुंनइ वालंम, नेमि गयउ गिरनारी रे बहिनी । सामलियउ सुहावइ रे बहिनी, बीजउ कोट दाय नावइ रे बहिनी ॥ आं० ॥ प्रियु छोड़ी पिण ₹ नवि छोडु, मइ आगमी इक त्यारी रे बहिनी ॥१॥ पदक प्रियु तउ हूँ मोतिन माला, हीरउ तउ हूँ मूंदरड़ी रे बहिनी। चंद्र प्रियु तउ हूं रोहिणी थाऊं, चंदन मलय गरड़ी रे बहिनी ॥ २ ॥ प्रियु पासइ संयम लियउ राजुल, पहिली मुगति सिधाई रे बहिनी। . मूलगी परि मत मूकी जायइ ए, समयसुन्दर मनि भाई रे बहिनी ॥ ३ ॥ सिन्धी भाषामय श्रीनमिजिनस्तवनम् साहिब मइडा चंगी सूरति, आ रथ चढीय आवंदा हे भइणा। नेमि मइकुंभावंदा हे । भावंदा हे मइकु भावंदा है, नेमि असोड़े भावंदा हे ।१। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथ सवैया ( १३३ ) आया तोरण लाल असाढा, पसुय देखि पछिताउदा हे भइणा ।२। ए दुनिया सब खोटी यारो, धरमउ ते दिलु धाउंदा हे भइणा।३। कूड़ी गल्ल जीवां दइ कारणि, जादु कितकुंजावंदा हे भइणा।४। मीनति कोनी नेमुन मण, माधउ बहुय मनावंदा हे भइणा ।। घोटु असाढइ संयम गिद्धा, सना राह सुणावंदा हे भइणा।६, इंव राजुल राणी आखै, संयम मइकु सुहावंदा हे भइणा ।। नेमि राजीमति नेह निवाडा, प्रीति मुक्ति सुख पावंदा हे भइणा। समयसुन्दर सच्चा दिल सेती, गुण तेडइ नितु गावंदा हे भइणा।।। नेमिनाथ राजीमती सवैया ....... 'प्रभु मुझ पियुड़ा नउ, नवउ कोइ दीसइ छइ जोग ॥६॥ एजु राजुल नारि गई गिरनारि, कहई हित वात हकीकत की । नेमिनाथ कु ठाम म देजे इहां, समझात नहीं इणके चित्त की। छोड़ी जिम मुंनइ तुंनइ छोडस्यइ, पछइ लोक में हांसी हुस्यै नित की । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि समयसुंदर के प्रभु मइ ओलखे, सिवनारि सँ बात कीनी हित की ॥१०॥ सुणि राजुल नारि कहइ गिरनार, जिका बात तइ कही ते तउ खरी । पणि ए नेमिनाथ त्रिलोक कउ नाथ, ताऊँ कहि ना कहुँ केण परी ।। इण थी अधिकी महिमा वाधस्यइ, गिरनार तीरथ हुँ होस्य गिरी । समयसंदर कउ प्रभु दीक्षा नइ ज्ञान, मुगति त्रिरहे परिस्यइ सुंदरी ॥११॥ एजु ईसर सेती राची ऊमया, पणि ते तउ धतूरउ नइ भागि भखी । अरु क्लष्ट सेती तउ राची कामला, पणि ते न रहइ महियारी पखी ॥ कहइ राजिमती रलियात थकी, मुझ भाग वड़उ महिला मइ सखी । समयसुन्दर कउ प्रभु मइ वर पायउ, ते तउ ब्रह्मचारी आचार रखी ।।१२।। एजु कीकी काली अजुयालउ करइ, कसतूरी काली पणि महा महकइ । कालउ कृष्ण गोपांगना मन मोहइ... Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथ सवैया . काली कोयलि आंब बइठी टहुकइ ।। कहइ राजुल मोरइ मुं काम नहीं, नेमि नाम राखीसि लांबइ लहकइ । समयसुन्दर कउ प्रभु नेमि नोकउ, गुणवंत भणी हियडइ गहकई ॥१३॥ एजु गोरी कउ रूप रूडउ तबही, ___जबही अणियाली अंजी अंखियां । बलभद्र महाबली कृष्ण करी, आभला किसा मेघ घटा पखियां ।। कपूर गोरउ कुंपलइ मांहि तर, जउ मिरची माहि हुयइ रखियां । समयसुन्दर क.उ प्रभु गोरां थकी, अधिकउ मुझ कंत सोहइ सखियां ॥१४॥ कोकिल कुल मधुर ध्वनि कूजति, बोलति बप्पियारा प्रियु प्रियु रे । मलय वात वाति मयणंगणि, गजति मेघ घटा कियु कियु रे॥ रतिपति रयणि दिवस संतापति, व्यापति बिरह दुक्ख दियु दियु रे । राजुल कहइ सखि सामि सुन्दर विणु, कइसइ ठौर रहइ जियुः जियु रे॥१४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ऊनई गगनि घटा वरषति मेध छटा, रयणि भई विकटा चित्त ही उदास रे । जोवन ऊलट्यउ जाइ पियु विण क्युं रहाइ, जादव गयउ रिसाइ, अब कैसी आस रे॥ जपति राजुल नारि जाऊंगी हूँ गिरनारि, लेउंगी संजमभार सुन्दर कहके पास रे ॥१६॥ गोपांगना मनावही आणंद अंगि पावही, सुरिंद गुण गावही तोरण ताइ पाउरी । पसु पोकार वीनती सुणी भिया जदुपति, छोड़ाइ मोहि बंधती फेराइ रत्थ द्वारती कृपाल काहे जाउ री॥ ऋटकि हार तोड़ती मटकि अंग मोड़ती, छटकि वीण छोड़ती लटकि भुहि लोडति जपत्ति राजु वाउरी । गुनह हम न को किया मुगति चित्त मोहिया, - सुजोग पंथ तें लोया मोठउर क्यु रहइ हिया सोमि सुन्दर कुसमझाउरी॥१७॥ कोकिल कल कठ हंस गति हील्यां, सुक नासा ग हरिण चकोर । केसरि कटि लंक सुयालिम सिसलउ, मंगल चाप' वेणी दंड मोर ॥ १ ऋफ प्रातिख्य में चाष को एक मात्रा स्वर वाला पक्षी लिखा है Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथ सवैया जदुपति मई सगला सगला ए जीता, सहु दुसमिण मिलि करइ ति सोर । समयसुन्दर प्रभु मुझ मुकउ मां, राजुल नारी करइ राजा उग्रसेन समुद्र विजय हरि, कृष्ण गोपी भी मिली एकठी । कर जोड़ि करइ वीनति वार वार, म मानव का वात हीया मंद गठी । सब राजन रिद्धि छोड़ी नीसर्यउ, कुरण जाइ देखां हिव जोइ कठी || समयसुन्दर कउ प्रभु देखि सखी, कहइ राजुल नेमि निपट्ट हठी ॥ १६ ॥ मन मान्या सेती एक वार की प्रीति, जुड़ो जिका ते पि न जात लोपी । मेरे तर प्रीति नवां भव कीन, छोडावि सकड़ नर नारि कोपी ।। नेमिनाथ विना तुम्हे कां नाम ल्यउ, सखि उप्पर राजमती कहह कोपी । समयसुन्दर के प्रभु नेमि विना, न वरु वर हूं रही पग्ग रोपी ||२०|| धनपति राय पिया तसु धनवति १, Jain Educationa International ( १३७ ) निहोर ॥ १८ ॥ For Personal and Private Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३८ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि देवमित्र २ चित्र हुँ रत्नक्ती ३ । देवमित्र ४ अपराजित राजा, प्रेम पात्र नारी प्रियमती ५ ॥ पारण सखा ६ तुसंख जसोमति ७, सुरमित्र ८ हुं नारी तु पती । समयसुन्दर प्रभु नवमइ मवि तई, किम मूकी कहइ राजीमती ॥२१॥ चउसट्टि कला चतुराई धरु, संजि सोल शृङ्गार रहुं सुधरी । भरतार क्रतार मिणु सरिखउ, हुँ मना रीसायइ तउ पायु परी ॥ एक नेमि मेरइ एक नेमि मेरइ, अरु बीजउ नहीं मइ तउ सूस करी । समयसुन्दर के प्रभु कु न ममी, पणि मुं सरिखी कुण छइ सुन्दरी ॥२२॥ मद मत्त गंडस्थल मद्द करइ, भमरा भमरी चिहुँ पासि भमई । सिर लाल सिन्दूर कीयउ सिणगार, सुडा दंड उंचउ उलालइ नमई ॥ घणणु घणणु गल घंट वगई, ___गज गर्ज करइ जाणे मेघ घुमई। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथ सवैया ( १३६ ) समयसुन्दर के प्रभु नेमि की जान, हाथी हम देखे सबइ कु गमइ ॥२३॥ नीलड़े पीलड़े कालुए धउलुए, रातड़े चतुराई हुती चेतड़े । कसबी मुख मल्ल मोती मणि माणिक, कंचणः सेती पलाण जड़े । हांसले वासले . धूसरे दूसरे, ही ही हींसते प्रभु पास खड़े । समयसुन्दर के प्रभु प्रभु की जान में, हम तौ सखि देखि हराण पड़े ॥२४॥ मणिः माणक रत्न प्रवाल जड्यउ, सिर उप्पर पंच रंगो सेहरउ । काने कुडल ते झबकई बीजुरी, बग पंकति हार मोती तेहरउ । गाजतइ. गजराज उंचइ चढयउ श्रावइ, जगावह नवा भव कउ नेहरउ । समयसुन्दर कउ प्रभु नेमि देखउ, जाणे स्याम घटो उमट्यउ मेहरउ ॥२॥ चली चतुरंग सेना सबली रज, ऊडी जे जाइ लागी अरकह । इन्द्र चामर ढालइ धरइ सिर छत्र. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४० ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि मोती मणि माला लांबी लरकई ॥ मेरइ तउ नेइ नवां भव कर्ड, तिण अंग उपांग सबइ थरकइ । समयसुन्दर कउ प्रभु ओ सखि आवइ, नीके पचरंगी नेजे फरकइ ॥२६॥ दादुर मोर करई अति सोर, प्रीयु प्रीयु बोलइ ए बप्पीउ रउ । मेहरउ टबका विजुरी झवकइ, कहउ क्यूं करि ठउर रहइ हियरउ ।। गिरिनारि गए ओ जोगीन्द्र भए, ___अब हूं भी हठक्कि राखु जीउरउ । समयसुन्दर के प्रभु नेमि छोरी, पणि हुतउ न छोरं मेरउ पीयरउ ॥२७॥ अथ अमोला बे, काली कोयल काहे री गोरी राजुल । देख्या कहां, नेमि सरीर हइ जाका सामल ॥ वः हम देख्या गिरिनार, जोग मारग पणि लिया । करइ तपस्या कष्ट, देह सुख छारी दीया ।। पाया केवल न्यान, इन्द्र करइ आवी सेवा । समयसुन्दर का सामि, देख्या ओ अरिहंत देवा ॥२८॥ बे बप्पीया भाई काहेरी, राजुल बाई तुप्रीयु कही केम सुणाई वः । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथ सवैया . ( १४१ ) मेरा पिऊ तउ मेह हुँ तिण कुं, पोकारूँ मास आठ थया मुझ पाणी पीधा विण सारूँ। मन मान्या की बात हई, लोक प्रेमइ लपटाणा, समयसुन्दर प्रभु पासि जा, तेरा मन तिहां लोभाणा ॥२६॥ वे मोर काहे री राजुल करइ जोर, अरे मइ तउ करती हु निहोर वः । कहि तेरा कसै काम जहां मूकइ तहां जाउं, प्रीयु कउ काम कियां पछी,वेगि वधाइ पाउं॥ गिरिनार गुफा मई नेमि, हइ देखि केही तेरी दया । समयसुन्दर प्रभु का सामि, मुझ गुनह विगरि छोरी गया ॥३०॥ अरे कारे कउया कहिरी राजुल मयुया, वीर कछु बोलि नइ वधुया वः । . सहु बोलुहुसाच जाण को भाषा जाणइ, कुशल क्षेम छइ कंत आरति मत काइ आणइ ।। पणि तु जा प्रियु पासि, चारित लीयां दुखत्त किस्यइ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४२ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि समयसुन्दर प्रभु तुज्ज नह, मुगति पहिली मूकिस्यइ ॥३१॥ जादव भला भलेरा द्वारिका वसई अनेरा, तेवर करिस्यां तेरा सखि कहउ के मेरे। राजमती कहइ एम मइ ओ कीधा सात नेम, बीजां सुन बांधू प्रेम मेरे इक नेमि रे।। बब्बीहा के एक मेह बीजां सुनहीं सनेह, एक तारी भली एह मेरइ मनि तेम रे। समयसुन्दर सामी संजम रमणी पामी, मेरइ तउ अंतर जामी जिम हीरउ हेम रे ॥३२।। धन ते मृगला पोकारू ते तउंहूया उपगारू, तिण की अतिवारू छोडाव्या जीवाकरे। धन नेमिनाथ सामि मुगति मानिनी पामि, मदन हरामी जिण हण्यउ मारी हाक रे।। धन राजिमती नार सती में बड़ी सिरदार, मन मंइ कीधउ विचार काम भोग खाकरे। धन ते समयसुन्दर स्तवे नेमि तीर्थंकर, समकित सुद्ध धर दिल पणि पाक रे ॥३३॥ नगरी मइ भली द्वारिका नगरी, नेमिनाथ जहां धरती फरसे ॥ अरु वंश में जादव वंश भलो, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ अनेक तीर्थनाम स्तवन श्री पार्श्वनाथ अनेक तीर्थ नाम स्तवन राग - सोरठ हो जग मंह पास निणंद जागर । साच देव प्रगट जिन शासन, भेटतां दुख भाजइ । हो जग० । पास सेवक थिर थापड़, अजाहरउ नाम चंछित पड़, कलिकुंड दुख कापड़, अमीर अप्सर आलापड़ | जावड़ पाष जीराउल रह जापड़, पंचासरउ पास प्रकट प्रखापड़, वाड़ीपुर जस व्यापड़ || हो जग मंह पास जिणंद जागइ | १ | महिमा घणी मुलताई, जेसलमेर जगत सहु जागर, चारू वरकाrs, जागती ज्योति नगर जोधाण | अंतरीख अचरज चित राह, परतिख गउड़ी पुण्य प्रमाणइ, पालपुर पहिचाes || हो जग मई पास जिणंद जागइ |२| हमीरपुर रावण करहेड़, नागद्रह नरन्याय निमेड़, फलवर्द्धि दुख फेड़इ, तिमरीपुर सुख संपति ते । नवखण्ड मुक्ति पंथकर नेइ, आरास आरति उथे, षट् खंड जस खेड़इ ॥ हो जग मई पास जिणंद जागर | ३ | कलि मांहि पास कुशल वेलिका छौ तेवीस नाम जपत दुख पाछौ, पाप गमउ पाछौ अरिहंत देव ध्यान धरउ छौ । वामदेवी मात तउ वाउ मन सूधे प्रभु सेवा जल माछाउ, कहइ समयसुन्दर काछउ || हो जग मंत्र पास जिणंद जागर | ४ | Jain Educationa International ( १४३ ) For Personal and Private Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि श्री जेसलमेर मण्डण पार्वजिन गौतम जेसलमेर पास जुहारउ। कुशलमरि प्रतिमा प्रतिष्ठी, मांडि जेथि गुभारउ । जे०।१। धन्य जिके नर नारि निरंतर, प्रतिमा देखइ सवारउ । बेकर जोड़ी आगइ बइठी, शक्रस्तव करइ सारउ । जे०।२। तूं साहिब हूँ सेवक तोरउ, दुर्गति दुख निवारउ । समयसुन्दर कहइ इण भव परभव,मुझ आधार तिहारउ। जे०।३। श्री फलवार्द्ध पार्श्वनाथ स्तवनम् फलवधि मंडण पास, एक करू अरदास । कर जोड़ी करि ए, हरख हियड़उ धरि ए ॥१॥ मई मन धरिय उमेद, यात्रा करूं (९) ध्र वेद । पोष दसमी तणी ए, उत्कण्ठा घणी ए ॥२॥ आज चडी परमाण, भेट्या श्री जग भाण । मन वंछित फल्या ए, दुख दोहग टल्या ए॥३॥ एकल मल्ल अरिहंत, भय भंजण भगवंत । मूरति सामली ए, सपत फणावली ए॥४॥ लोक मिलइ लख कोडि, प्रणमइ बेकर जोडि । महिमा अति घणी ए, पास जिणंद तणी ए ॥५॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फलवद्धि पार्श्वनाथ स्तवनम् (१४५ ) परता पूरइ पास, सामी लील विलास । तीरथ जागतउ ए, भव दुख भागतउ ए ॥६॥ आससेण कुल चंद, वामा राणी नंद । अहि लांछण भलउ ए, तू त्रिभुवन तिलउ ए॥७॥ समस्यउ देजे साद, टाले मन विषवाद । सानिध सर्वदा ए, करजो संपदा ए॥८॥ पास जिनेसर देव, भव भव देज्यो सेव । मुझ सेवक भणी ए, तू त्रिभुवन धणी ए ॥६॥ कलश फलवधी मंडण पासनाह, वीनवियउ जिनवर मन उच्छाह। पोष मास जन्म कल्याणक जाण, गणि समयसुन्दर जात्रा प्रमाण ॥१०॥ (२) राग-परभातो प्रभु फलवधी पास परभाति पूजउ, दुनी मंइ नहीं को इसउ देव दूजउ ॥१॥ वडउ तीरथ एकलमल विराजइ, नित आपणां सेवकां नइ निवाजइ ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि सदा सामलउ रूप सकलाय सोहइ, मुख देखतां माहरु मन मोहइ ।।३।। कृपानाथ सेवक तणा कष्ट कापइ, अरिहंत जी अष्ट महासिद्धि आपइ ॥४॥ प्रमो प्रणमतां परम आणंद पावइ, गुण समयसुन्दर जोड़ि गावइ ॥४॥ इति श्री फलवधि पार्श्वनाथ भास ॥१४॥ सप्तदश राग गर्भित श्री जेसलमेर मण्डण पार्वजिन स्तवनम् पुरिसादानी परगड़उ, जेसलमेर जिणंद । पंच कल्याणक तेहना, पभणिसु परमाणंद ॥१॥ जिनवर ना गुण गातां, लहियइ समकित सार। गोत्र तीर्थंकर बांधियउ, लहु तरियइ संसार ॥२॥ राग भेद रलियामणा, जाणइ चतुर सुजाण । भाव भगति गुण भाषतां, जीवित जन्म प्रमाण ३॥ १ राग-रामगिरि जंबूदीप माहइ भलू भरतक्षेत्र, नयरी बणारसी रिद्धि विचित्र ॥ ज०॥४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जेसलमेर मंडण पार्श्वजिन स्तवनम् (१४७ , नरपति अश्वसेन न्याय पवित्र, रामगिरी मनोहरी वामा कलत्र ॥ ॥॥ २ राग-देसाख दसम सुरलोक चवि भूरि सुख भोगवी । चैत्र वदि चउथ निशि गुण भरचउ ए ॥ स्वामी गुण०॥६॥ अश्वसेन राया धरइ माता वामा उरइ । हंस मानस सरह, अवतरचउ ए ॥ स्वामी अब० ॥७॥ चवद सुपन लह्या, कंत आगलि कह्या । राय तिहां फल कह्या, मति विचारी ॥अइयो मति०॥८॥ अम्ह कुल गुण निलउ, पुत्र होसइ भलउ। दस दिशा-खग ज्यु उद्योत कारी ॥ अ.यो उद्योत०॥६॥ ३ राग-सारङ्ग सुत जायउ अश्वसेन राय के, अश्वसेन राय के सुत जायउ । छप्पन दिशिकुमरो मिल गायउ, नारकियइ सुख पायउ ॥अश्व०॥१०॥ पोष पढम दसमी दिन सामी, बंश. इक्ष्वाग सुहायउ । चउसठ इन्द्र मिली मन रंगइ, __ मेरु शिखरि न्हवरायउ ॥अश्व०॥११॥ - र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४८ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि शुभ अनुकूल समीरण वायउ, आनंद अंग न मायउ । थाल विशाल भरी मुक्ताफल, सारंग वदनी वधायउ ॥अश्व०॥१२॥ ४ राग-वसंत सुपन पन्नग पेख्यउ, जननियइ सार । तिण प्रभु नाम दीधु, पार्श्व कुमार ॥१३॥ स्वामी नवकर तनु, नील वरण सोहइ । भुजंग लांछन रूपइ, जगत्र मोहइ ॥१४॥ प्रभावती राणी वर, गुण अनंत । सुर नर नारी चित्त, मांहे वसन्त ॥१५॥ ५ राग-वैराड़ी कमठ कठिन तप करति कानन, मठ पंचाग्नि साधइ चित्त वहइ अभिमान । कुमति देखाइइ बहु जन कमिथ्याच्च पाडइ, तब प्रभु गज चढे आए री उद्यान ॥क०॥१६॥ जलतउ भुजंग लीधउ परमेष्ठि मंत्र दीधउ, धरणेन्द्र कीधउ कृपानिधि शुभ ध्यान ॥०॥१७॥ मिथ्यात्व मारग टाल्यउ कमठ कउ मानगाल्यउ, लोक देवइ राड़ी तेरउ तप अज्ञान ।क०॥१८॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जेसलमेर मंडण पार्श्वजिन स्तवनम् ( १४६ ) ६ राग- श्री लोकान्तिक सुद आये, जंपर जयकार, जिन नइ जरणावर, दीक्षा तउ अधिकार | लो० ॥ १६ ॥ इग्यारस वदि पोष तणी, त्रिभुवन धणी, 1 करम छेदन भणी, तजति संसार | लो० ॥२० पंच मुष्टि लोच करि, प्रभु अणगार हुया, संजम सिरी रा, गुणवंत भरतार || लो० ॥२१॥ ७ राग - कान्हरउ अम माय मोह मच्छर, नहीं लवलेश लोभ मानरौ । अप्रतिबंध अकिंचन श्रमदन, दायक सकल अभय दातरौ ||२२|| सुमति गुपति शोभित मुनि नायक, उपयोग एक धरम ध्यान रौ । पंचेन्द्रिय विषया रस जीते, फरसन रसन घाण चक्षु कान रौ ||२३|| = राग- आसाउरी पार्श्व जिन स्वामी हो तेरी अनंत क्षमा । सगति थकी तू सहह ततखिण तोड़इ करम बंधन Jain Educationa International उपसर्गा, वर्गा ॥ प० ॥ २४ ॥ For Personal and Private Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५० ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि कमठ चयउ कोपइ प्रभु ऊपरि, मेघ घटा जल वरसइ वहु परि ।। पा० ॥२५॥ धरणेन्द्र आवी कमठ धिक्कारयउ, जिन आशातन करत निवारयउ ॥ पा० ॥२६॥ ६ राग-गुड चैत्र ठढम चउथी वासरइ, जिनवर अष्टम तप आदरइ । प्रभु पास रे, पूरइ अास रे ॥२७॥ चार कर्म नउ क्षय करी, पामो निरमल केवल सिरी। सुर आवइ रे, गुण गावइ रे ॥२८॥ माणिक हेम रूपा तणउ, विरचइ त्रिगड़उ सुर जिन तणउ। प्रभु सोहइ रे, मन मोहइ रे ॥२६॥ कुसुम वृष्टि वासंतिया, भागू डर देख हसंतिया । प्रभु संगी रे, मन रंगी रे ॥३०॥ १० राग-मारु धन धन ते नर जी, तेहनउ जन्म प्रमाण ॥ध०॥ बारह परपदा मांहि वइसी नइ, श्रवण सुणइ तोरी वाण ॥३१॥ त्रिण छत्र सिर उपरि सोहइ, चामर ढोलइ इन्द्र जी । गयणंगण सुर दुदुभि वाजइ. पेखत परमाणंद ॥३०॥३२॥ मालवकोशिक राग आलापति, अमृत वचन अनूप जी। ध०। केवलज्ञानी धर्म प्रकासइ, जीव दया क्षमा रूप जी॥ध० ॥३३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जेसलमेर मंडण पार्श्वजिन स्तवनम् (१५१ । - ११ राग-उरी मोह मिथ्यात्व निद्रा तजउ, जीव जागउरी । परिहरउ पंच प्रमाद, भविक जीव जागउ री॥ राग द्वेष फल पाडुया, जीव जागउ री । मति करजो विषवाद, भविक जीव जागउ री ॥३४॥ द्यइ जिनवर उपदेस, धर्मध्यान लागउ री॥आंकणी ।। दाभ अणी जल बिन्दुयौ, जीव जागउ री । पड़त न लागह वार, धर्म ध्यान लागउ री॥ इण परे चंचल आउखो, जीव जागउ री । सकल कुटुंब परिवार, धर्म ध्यान लागउरी ॥३६॥ __१२ राग-केदारउ सउ वरस पाली आउखउ, तेत्रीस मुनि परिवार । वग्धारीपाणी प्रभु रह्या, मास संलेखण सार ॥३६॥ जिणंद राय चट्यउ रे, समेत गिरिंद । तिहां पाम्यउ रे, परमाणंद || जि० ॥ प्रभु श्रावण सुदिपाठम दिनइ, श्री पार्श्व शिवपुर गामि। निज कर्म ततखिण चूरिया, जिके दारुण परिणामि । जि०॥३७॥ १३ राग--परदउ तूं अरिहंत अकल अलख सरूपी, तूं निराकार निरंजन ज्योति रूपी । तूं ॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५२ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ए पिंडस्थ पद रूपस्थ रूपातीत ध्यान हर री, ए मन भृङ्ग भजि भगवंत बहु पर दउर धारी। तूं०॥३६॥ १४ राग-सृहव संसार सागर दुख जल, निडवंत नर बोहित्थ । शुभ भाव समकित वासना, शिव सुख करण समस्थ॥४०॥ जिन प्रतिमा जिन सरीखी वंदनीक, भक्ति करउ निर्भीक । जि०। भगवती ज्ञाता प्रमुख मंइ, उपदिशि प्रतिमा एह । तो पण जे मानइ नहीं, मूढ पसु हवइ तेह ॥ जि० ॥४१॥ १५ राग--खंभायति जेसलमेरु जीराउलइ रे, नागद्रह करहेडइ रे । सइरोसइ संखेश्वरइ रे, गउड़ी दुख फेडरे ॥४२॥ तोरी जागती जगनायक, महिमा जगि घणी रे । तूं तो सुख संपति पूरण, सुरमणि रे॥४३॥ कलिकुड आबू अमीझरई रे, फलवधि पुर जोधाणइ रे । नारंगपुर पंचासरइ रे, खंभायति बरकाणइ रे ॥४४॥ १६ राग-कल्याण जिनजी मेरउ मानव भव आज प्रमाण रे मेरो।मा०। दुत्रिभुवन पति थुव्यउ, जग भाण रे, भाव भमति आणंद, मन आण रे॥ मे० ॥४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेलसमेर मण्डण पार्श्वजिन स्तवनम् (१५३ ) च्यवन जन्म दीक्षा ज्ञान निर्वाण रे, इण परि पंच कल्याणक जाण रे ॥मे॥४६॥ १७ राग-धन्याश्री इम थुण्यउ जेसलमेरु मंडण, दुरित खंडण शुभ मनइ । रस कर्ण दर्शन तरणि वरसइ, अादि जिन पारण दिनइ । जिनचंद-सूरति सकलचंदन, मृगमदा केसर करी । प्रह समइ-सुंदर पार्श्व पूजइ, तेहनी धन्यासिरी ॥४७॥ श्री लौद्रवपुर सहसफणा पार्श्वनाथ स्तवनम् लोद्रपुरइ आज महिमा घणी, यात्रा करउ श्री जिनवर तणी। प्रणमंतां पूरइ मन पास, सहसफरणा चिंतामणि पास ॥१॥ जूनो नगर हुंतर लोबो, सुन्दर पोल सरवर चउहटउ । सगर राय ना सखर आवास, सहसफरणा चितामणि पास ।२। उगणीसम पाटइ जेहनइ, सीहमल साह थयउ तेहनइ । जेसलमेरु नगर जस वास, सहसफणा चिंतामणि पास ।३। सीहमल नई सत थाहरू साह, धरम धुरधर अधिक उच्छाह । जीर्ण उद्धार करायो जास, सहसफणा चिंतामणि पास ।४। दंड कलस धज सोहामणा, रूड़ा नइ वलि रलियामणा। निरखंता थायइ पाप नो नास, सहफसणा चिंतामणि पास ॥५॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५४ ) समयसुन्दरकृतकुसुमाञ्जलि नयणां दीठां नित आणंद, सेवंतां सुरतरु ना कंद । लहियइ लक्ष्मी लील विलास, सहसफणा चिंतामणि पास ।६। द्राविड वारिखेल मुन्नीपति, सत्र जे सीधा दसक्रोड जती। काती पूनम पुण्य प्रकाश, सहसफणा चिंतामणि पास ७/ संवत सोल इक्यासी समइ, यात्रा कीधी काती पूनमें । तीरथ महिमा प्रगटी जास, सहसफणा चिंतामणि पास ।। भवना संकट भांजो साम, प्रह ऊठी नइ करू प्रणाम । समयसुन्दर कहइ ए अरदास, सहसफणा चिंतामणि पास है। (२) राग-कल्याण चालउ लोद्रवपुरे। सहसफणा चिंतामणि स्वामी, भेटउ भाव धरे। चा० ॥१॥ भणसाली थिरु बिंब भराया, जेसलमेरु गिरे। समयसुन्दर सेवक कहइ हमकु, प्रभु सानिध करे। चा० ॥२॥ श्रीस्तंभन-पार्श्वनाथ-स्तोत्रम् नमिरसुरासुरखयररायकिन्नरविजाहर! । महुयराइविरायमाणपयपंकयसदर !! महिअलमहिमामेयमणवंछिअदायक !! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीस्तंभनपार्श्वनाथस्तोत्रम् (१५५) जय जय थंभण पासनाह ! भुवणचयनायग ।। परुवयारपायवपवरसिंचणमुइरसमाण । पुरिसादाणिअ पासजिण, गुणगणरयणनिहाण ॥१॥ आससेणनररायवंशमाणससरहंसं : नायरलोअपलोअराइपडिबोहणहंसं ॥ वम्महकाणणदलणदंतिसनिहमचिरेण । पणमह पासजिणिंदेवमेगग्गमणेण ।। कलाकेलिवररूववर करुणाकरवचंद । चरणिकमलसुदरभमरपउमावइधरणिंद ॥२॥ वामादेवीउअरसुत्तिमंजुलमुत्ताहल ! । सयलकलावलिकलियकाय कलिमलिवसहाहल! ॥ . मोहमहाबलनरपंकनिफेडणदिणयर !। देहि दयापर परमदेव सेवं मह सुहयर ! ।। अरिकरिनिअरिनिरागरणपंचाणण ! जय देव !। थंभ(ण)पुरमंडणमउड सुरनरवंछिअसेव ।।३॥ कवडकडप्पकुडीरकुंठकमठासुरगंजण !। सुललिअययणसुहाछइल्लरिछोलोरंजण ! ॥ पावसरासर पुंडरीअ रमणीअगुणालय । कलिजंबालबलाहोह पहुमं पडिवालय ॥ भवसमुदतारणतरण ! तिहुअणजणाधार !। पास जिणेसर ! गरिमगुरु गंभीरिमगुणसार ! ॥४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि नवकरसुदरझज्झरीअ भन्झरिसमलंकित्र । ससिदलविमलविसालमालमंजुलअयलंकिय ॥ तुह मुहचंदविलोअणेण मह नाह सुहंकर ! । केरववणमिव लोप्रणाणि विसति विअंबर ।। जगबंधव ! जगमाइपित्र ! जगजीवण ! जिणराय !। जगवच्छल ! जगपरमगुरु ! जय जय बंदिअपाय ! ॥१॥ धवलकमलकल कित्तिपूरधवलीकयमहिअल! । पक्लपमायकलावकुभभंजणवणअविश्रल ।। दुखदावानलसलिलवाह ! दोहागविहंडण ! । जय जय पास जिणंद ! देव ! थंभणपुरमंडण ! ॥ चउगइभयभंजणपवर, उपसामिश्र दुहदाह । रोगसोगसंतावहर, जय जिण ! तिहुनाह ! ॥६॥ हिअयसरोवरसोहमाणगुणमुत्तिमुत्ती । गल्लजुअलविलहिजमाणकुडलकयादित्ती॥ कयदाणवमाणवनरिंदकिन्नरपय भती। पुरिसादाणिय ! पासनाह ! रेहइ तुह मुची ।। केवलकमलासहसकर, सिवरमणोउरहार । सिद्ध ! बुद्ध ! निस्संग ! जिण ! सयलजीव सहकार !॥७॥ इय पास जिणवर भुवणदिणयर,थंभतित्थपुरडियो, संथुप्रो सामी सिद्धिगामी सिद्धिसोहपट्टियो । जिणचंदररिसरिंदाकिन्नरसयलचंदनमंसियो। मह देहि सिद्धिं सुहसमिद्धि समयसुन्दर संसियो॥८॥ इति श्रीस्तंभनकपार्श्वनाथस्य लघुस्तोत्रं प्राकृतभाषामयम् । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री स्तंभन पार्श्वनाथ सपना श्री स्तंभन पार्श्वनाथ स्तवनम् सदा सयल सुख संपदा हेतु जाणी, हिये परम आगद कल्लोल आणी । कर जोडि करि वीनवु शीस नामी, प्रभु पाच श्री स्थंभगो मुक्ति गामी ॥१॥ जसु नयरी बाणारसी जन्म सार, अश्वसेन नरराय वाना मल्हार । अरिहंत अति सुन्दर रूप सोहइ, प्रभु पास श्री स्थंभयो चित्त मोहइ ॥२॥ जिणे कमठ अज्ञान करतो निवारयउ, कृषा करी अहि अग्नि बलतो उगारयउ । कियउ पवर धरणिंद सुरपति समृद्ध, प्रभु पास श्री स्थंभणो जग प्रसिद्ध ॥३॥ श्री खरतर गच्छ शृङ्गार सार, अभयदेवमूरि नवांगी वृत्तिकार । तिणे प्रगटियउ सेढिका नदीय तीरे, प्रभु पास श्री स्थंभनो घन सरीरे ॥४॥ धन्य आज मुझ दीह भगवंत भेट्यउ, चिरकाल नो संचित पाप मेट्यउ । नव हत्थ तनु मान महिमा निधान, प्रभु पास श्री स्थंभणो गुण प्रधान ॥५॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि जगि जागती ज्योति तीरथ उदार, करै सुरनर कोड़ि प्रभु नइ जुहार | सदा सेवकां लोक सानिध्यकारी, प्रभु पास स्तंभनो विघ्न वारी || ६ || इम श्रोजिनचंद्र गुरु सकलचंद्र, सुपसाउलै समयसन्दर मुदि । थुण्यो त्रिभुवनाधीश संताप चूरइ, प्रभु पास स्थंभणो आस पूरइ ||७|| इति श्रीस्थंभणक पार्श्वनाथलघुस्तवनं । श्रीस्तंभतीर्थीयसंघ समभ्यर्थनया कृता संपूर्ण । ( १५८ ) श्रा स्तंभन पार्श्वनाथ स्तवनम् राग - गुड सफल भयउ नर जन्म, जो भेट्यउ थंभणो रे । उपजत परमानंद, मेरे मन अति घणो रे || १॥ साहिब के सेो चरणा, घनाघन सरीखे वरणा । दुनीमं दुख के हरणा, सेवक कु सुख के करणा ।। राखि संसार के किरणा, भये अब स्वामि के शरणा । श्रकरणो || श्री खरतर गच्छ नायक, सुखदायक यति रे । अभयदेवसूरीश्वर प्रकटित Jain Educationa International मूरति रे ||२|| सा० ॥ For Personal and Private Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री स्तंभन पार्श्वनाथ स्तवनम् ( १५६ ) तुझ मुख जिनवर देखि, नयण मेरे उल्लसइ रे । चंद चकोर तणी परि, तू मेरे मन वसई रे ॥ ३॥ सा० ॥ जन मन मोहति सोहति, रूप अनोपमइ रे । कमल रमइ रे || ४ || सा० ॥ पास जी रे । सुरपति नरपति गृहपति, पाय समयसुन्दर हूँ मांगत, थंभ साहिब पूरो मेरे मन की आस जी रे || शामा० ॥ श्री स्तंभन पार्श्वनाथ स्तवनम् बेकर जोड़ी वीनवु रे, सुणिजो थंभ पास । प्रभु परदेस चालतां रे, एक करू अरदास ॥१॥ जीवन जी वेगी देज्यो भेट || यांकणी ॥ ध्यान भलु छइताहरु रे, निरख्यां आणंद नेटि ||२|| जी० ॥ पंखेरू परदेसियां रे, नवि सरज्यउ नित वास । तनु छ साथी माहर रे, मनु छइ तोरइ पास || ३ || जी० ॥ वीड़ियां मन माहरु रे, दुख धरइ दिन दिन्न । के तूं जाइ केवली रे, के वलि मोरु मन्न ||४|| जी० || दर्शन व हि दाखिज्यो रे, सामी लील विलास । समयसुन्दर इम वीनवइ रे, पूरउ मन नी आस ||५|| जी० ॥ श्री स्तंभन पार्श्वनाथ गोसम् ढाल - नारिंग पुरवर पास जी ए० भलइ भेट्यउ रे, पास जिसेसर थंभाउ रे । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६० ) समय पुदर ऋतिकुसुमाञ्जलि सामी सीधा वंछित काज, पाणंद अति घणरे ॥ भ०॥१॥ सामी तु तउ त्रिभुवन कैरउ राजियउ रे । सामी हूँ छू तोरउ दास, करुणा करउ रे॥ सामी माहरां रे, अलिय विधन दूरइ हरउ रे ॥भ०॥२॥ सामी तुम नई रे, बेकर जोड़ी बीनवु रे। सामी देज्यो भनि भवि सेव, तुम्हे यापणी रे ॥ . इम बोलइ रे, वाचक समयसुन्दर गणी रे ॥ भ०॥३॥ इति श्रीस्थंभण पार्श्वनाथ गीत संपूर्णम् ।। १६ ।। श्रीकंसारी-उंचावती मंडन भीडभंजन पार्श्वनाथ भास चालउ सखी चित्त चाह सु, बावती नगरी तेथि रे। कंसारी केरउ जागतउ, तीरथ छइ जेथि रे॥११॥ भीडभंजन सामी भेटियउ, सखी प्रह उगमतह सूरि रे । पारसनाथ भेटियइ, दुख दोहग जायइ दूरि रे॥२॥भी०॥ सखि प्रारति चिंता अपहरइ, विछरचा वाल्हेसर मेलइ रे। रोग सोग गमाडइ, कीनर' दुसमिण नइ ठेलइ रे ॥३॥ भी०॥ सखि स्नात्र कीयां सुख संपजइ,गुण गातां लाभ अनंत रे। समयसुन्दर कहइ सुणउ, भय भंजण श्री भगवंत रे॥४॥भी०॥ इति श्री कंसारीमंडण भीड़भंजण पार्श्वनाथ भास ॥२३॥ १ ठांभर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कंसारी-बावती मंडन भीड़भंजन पार्श्वनाथ भास ( १६१ ) ( २ ) राग-सबाब भीड़ भंजण तूं श्री अरिहंत, * अलिय विधन टालइ अरिहंत ।। भी० ॥१॥ सुन्दर मूरति कलाए सोहइ, मोहन रूप जगत मन मोहइ ।। भी० ॥२॥ भविजन भक्ति में भावना भावइ, परमाणंद लीला सुख पावइ ।। भी० ॥३॥ पास कंसारी प्रगट प्रभावइ, । समयसुन्दर सबाबति गावइ ।। भी० ॥४॥ (३) राग-काफी भीडभंजन तुम पर वारि हो जिणंदा । सुन्दर रूप मनोहर मूरति, देखत परमाणंदा ॥१॥ तुम पर वारि हो जिणंदा । मस्तक ऊपर मुकुट विराजइ, काने कुण्डल रवि चंदा। तेज प्रताप अधिक प्रभु तेरउ, मोहि रहे नर वृन्दा ॥२॥तु०॥ पाश्वनाथ प्रकट परमेसर, वामा राणी नंदा । समयसुन्दर कर जोड़ी तेरे, प्रणमत पाय अरविंदा ॥३॥ तु०॥ (४) राग-मारुणी भीड़ भंजण रे दुखगंजण रे। रूडी मूरति जन मन रंजण रे, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि निरखीजइ पास निरंजण रे॥१॥भी०॥ हरसई मन वंछित दाता रे, प्रणमीजइ उठि परभाता रे। कंसारी नाम कहाता रे, खंभायत मांहि विख्याता रे॥२॥भी०॥ ईति चिंता आरति सवि चूरइ रे, प्रभु सहुना परता पूरइ रे। दुख दोहिला टालइ दूरइ रे, __ समयसुन्दर पुण्य पङ्करइ रे ॥३॥ भी०॥ इति श्री खंभात मंडण भीड़भंजन पार्श्वनाथ भास ॥२६॥ श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ स्तवनम आपणे घर बेइठा लील करउ,निज पुत्र कलत्र सुप्रेम धरउ। तुम्हे देस देसंतर कां द्रउडउ, नित नाम जपउ श्री नाकउड़उ ।। मन वंछित सगली आस फलई, सिर ऊपर चामर छत्र ढलइ । आगलि चालइ जुलमति घोड़उ, नित नाम जपउ श्री नाकउड़उ ।। भूत प्रेत पिशाच वेताल वली, शाकिणी डाकिणी जाइ टली। छल छिद्र न लागइ को झउड़उ, नित नाम जपउ श्री नाकउड़उ ।३। कण्ठमाला गड़ गुंबड़ सबला, ब्रण कुरम रोग टलई सगला । पीडान करइ कुण गलि फोडउ, नित नाम जपउ श्री नाकउड़उ ।४। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संखेश्वर पार्श्वजिन स्तवनम् (१६३ ) एकंतर ताप सीयउ दाह, उखध विण जायइ थइ माहू । दूखइ नहीं माथउ पग गोड़उ, नित नाम जपउ श्री नाकउड़उ ।। न पड़इ दुरभिक्ष दुकाल कदा, शुभ वृष्टि सुभिक्ष सुगाल सदा। ततखिन तुम्हें अशुभ करम तोड़उ,नितनाम जपउ श्री नाकउड़उ ।६। तू' जागतउ तीरथ पास पहू, जाणइ ए वात जगत्र सहू । मुझ नइ भव दुखु थकी छोड़उ, नितनाम जपउ श्री नाकउड़उ । श्रीपास महेवापुर नगरे, मंइ भेट्यउ जिनवर हरख भरे। इम समयसुन्दर कहइ गुण जोड़उ, नितनाम जपउश्री नाकउड़उ।। इति श्री महेवा मंडण श्री नाकउड़ा पार्श्वनाथ लघु स्तवनं सम्पूर्णम् । श्री संखेश्वर पार्श्वजिन स्तवन् (१) राग-मल्हार मिश्र परचा पूरइ पृथ्वी तणा, यात्रा भणी लोक आवइ घणा । अति सुन्दर सोहइ देहरउ, साचउ देवत संखेश्वरउ ॥१॥ आराधे जे नर इकमना, एह लोक नी कामना । तुरत फले वंछित तेहरउ, साचउ देवत संखेश्वरउ ॥२॥ सुन्दर मूरति सोहामणी, रूड़ी नइ बलि रलियामणी। काने कुंडल सिर सेहरउ, साचउ देवत संखेश्वरउ ॥३॥ केसर चंदन पूजा करउ, ध्यान एक भगवंत नउ धरउ। संकट कष्ट नहीं केहरउ, साचउ देवत संखेश्वरउ ॥४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि संखेश्वरउ जायउ छउ तुम्हे, शक्ति नहीं किम आयु अमें। समयसुन्दर नी जयति करउ, साचउ देवत संखेश्वरउ ॥५॥ (२) सकलाप पा संखेसरउ । भाग संयोग भले परि भेट्यउ, देख्यो सुन्दर देहरउ ।शस० वरण अठारै यात्रा करण कु, आवै मूस ले आकरउ। तूंतिण की मन कामना पूरइ, अब कपाल मोहे उद्धरउ।२।स०) जागतउ तीरथ तुजगनायक, संकट विपति सबै हरउ। पाटण संघ सहित बच्छराज साह, समयसुंदर कहइआणंद करउ । (३) राग-धन्यासिरी संखेसरउ रे जागतउ तीरथ जाणियइ रे, __ हां रे जी जात्रा करइ सहु कोय । आणंद अति घणउ रे, तु तेहनउ रे, संकट विकट सबे हरइ रे ॥१॥ सं०॥ सामी तु तउ रे, परतिख परता पूरवइ रे, ___ हां रे मन वंछित दातार । सुरतरु सारिखउ रे, पृथ्वी माहे रे, लोके लीधउ पारखउ रे ॥२॥ सं०॥ स्वामी तूंतउ रे, त्रिभुवन केरउ राजियउरे, हां रे वामा कूखि मल्हार । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गौड़ी पार्श्वनाथ स्तवनम् (१६५ ) रतन शोभा धरू रे, इम बोलइ रे, समयसुन्दर सानिध करु रे ॥३॥ सं०॥ (४) राग-भयरव साचउ देव तउ संखेसरउ , ध्यान एक भगवंत नउ धरउ ।। कां तुम्हे भारत चिन्ता करउ, संखेसरउ मुखि उचरउ ।२। वादि विवाद न थायव उरउ, उपरि बोल आवइ आपरउ ।३। आणंद लील करउ मत डरउ, दूनीए दीठउ पतउ खरउ ।४। पारसनाथ पाय अणुसरउ, समयसुन्दर कहइ जिम निस्तरउ।। इति श्रीसंखेश्वर पार्श्वनाथ भास ॥ ३० ॥ श्री गोड़ी पार्श्वनाथ स्तवनम गौड़ी गाजइ रे, गिरुयउ पारसनाथ । भव दुख भांजइ रे, मेल्हई मुगति नउ साथ ॥१॥ जागतउ तीरथ रे, लोक आवइ छइ जात्र । भावना भावइ रे, करइ पूजा नइ स्नात्र ॥२॥ परचा पूरइ रे, पारसनाथ प्रत्यक्ष । चिन्ता चूरइ रे, जेहनउ जागतउ यक्ष ॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जति नीलड़इ घोड़इ रे, चढि आवइ असवार । संघ नी रक्षा रे, करै मारग मझार ॥४॥ विषमी ठामइ रे, जइ रह्या पारकर नइ पास। हुँ किम आधु रे, नहीं म्हारे गोडा नो वेसास ॥५॥ दूर थकी पण रे, तुमे जाणेज्यो देवा । मोरा स्वामी रे, मो मन सूधी सेवा ॥६॥ रंगे गायउ रे, रूड़उ गौड़ीचउ राया। भाव भगति सुरे, प्रणमै समयसुन्दर पाया ॥७॥ ( २ ) राग-गौड़ी मिश्र ठाम ठाम ना संघ आवै यात्रा, सतर भेद करइ पूजा सनात्रा ॥१॥ गौड़ी जागतउ पारसनाथ प्रत्यक्ष गौ०॥आंकणी॥ केसर चंदन भरिय कचोल, प्रतिमा पूजइ मन रंग रोल ॥२॥ गौ०।। भावना भावइ बेकर जोड़, स्वामी भव बंधन थी छोड़ ॥३॥ गौ०॥ नटवा नाचइ शास्त्र संगीत, गंधर्व गावइ सखरा गीत ॥४॥ गौ०॥ निरखंतां धरइ नव नवा रूप, स्वामी मूगति सकल स्वरूप ॥शागौ० ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गौड़ी पार्श्वनाथ स्तवनम् (१६७ ) नोलड़े घोड़इ चढि असवार, रक्षा करइ संघ नी यक्ष सार ॥६॥ गौ०॥ गरुयडि गाजइ गोड़ी पास, समयसुन्दर कहइ पूरउ आस ॥७॥ गौ०॥ (३) सग-गउड़ी परतिख पारसनाथ तु गउड़ी । प० । लोक मिलइ यात्रा लख कउड़ी, चरण कमल प्रणमे कर जोड़ी॥५०॥१॥ हुये इण देव तणी किण होड़ी, और देव इण आगइ कौड़ी ॥ १० ॥२॥ दरशन दउलति आवइ दउड़ी, समयसुन्दर गुण गावइ गौड़ी ॥५०॥३॥ (४) राग-श्री तीरथ भेटन गई, सखि हुँ हरषित भई। परतिख गउड़ी पास पूठउ, पूरवइ मन आस । सेवक ल्यउरी सेवक ल्यउ। नीलड़े घोड़े चढी आवइ, पूरवइ मन आस ॥से० ॥१॥ अपुत्रियां पुत्र आपू, दुखिया को दुख कापू, अड़वड्यां आधार । निर्धनियां नइ धन आपू, भलै धन भण्डार ॥ से० ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६८ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि इसो मंइ अचरज दीठ, जागतो जिणंद पीठ, प्रबल पडूर । समयसुन्दर करो, स्वामी हाजरउ हजूर । से० ॥३॥ (५) राग-आसावरी गउड़ी पारसनाथ तु वारु,एकलमल्ल विराजइ ॥ ग०॥१॥ दसो दिसथी संघ आवइ दिवाजइ, ए प्रभुता प्रभु ताहरइ छाजइ ॥ ग०॥२॥ पूजा स्नात्र करइ प्रभु काजइ, समयसन्दर कहइ सहु नइ निवाजइ ।। ग०॥२॥ (६) गउड़ी पारसनाथ तूं गाजइ, वारु एकलमल्ल विराजई ॥१॥ दिसो दिस थी संघ आवइ दयाल, भय संकट मारग भांजइ ॥२॥ वाजिब ढोल दमामा वाजइ, ए प्रभुता प्रभु ताहरी छाजइ ॥३॥ इति श्री गउड़ी मंडण पार्श्वनाथ भास । श्री भाभा पार्श्वनाथ स्तवनम् (१) राग आसाउरी भाभउ पारसनाथ मंइ भेट्यउ, आसाउलि मांहि आज रे। दुख दोहग दूरि गयां सगलां, सीध्या वेछित काज रे । भा०।१। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भाभा सोरीसा-पार्श्वनाथ स्तवनम् ( १६६ ) श्रावक पूजा स्नात्र करे सहू, सपूरव ताल पखाज रे। भगवंत आगल भावन भावइ, भय संकट जावइ अाजरे । भा०२। अश्वसेन राजा कउ अंगज, तेवीसम जिनराज रे। समयसन्दर कहइ सेवक तोरउ, तू मोरा सरताज रे । भा०।३। (२) राग-भयरव भाभा पारसनाथ भलु करे, भलू करे भाभा भलू करे।भा०। अलिय विधन म्हारां अलगां हरे ।भा०।।. कुशल क्षेम करे मुझ घरे, ऋद्धि वृद्धि वाधे बहु परे । भा०।२। समयसुंदर कहइ मत किहां डरे,ध्यान एक भगवंत धरे।भा०।३। इति श्री तीरथ भास छत्तीसी समाप्ता । संवत् १७०० वर्षे अाषाढ बदि १ दिने लिखितं ॥ छः॥३६॥ श्री सेरीसा पार्श्वनाथ स्तवनम् सकलाप मूरति सेरीसइ, पोस दसमी पारसनाथ भेट्यउ, देव नीमी देहरउ दीसइ । स०१॥ प्रतिमा लोडति जाइ पातालइ, धरणि आधीरइ सीसइ । भाव भगति भगवंत नी करतां, हरख घणइ हीयउ हींसइ। स०२। पटणी पारिख सूरजी संघ सँ, जात्र करी लाभ सुजगीसइ। समयसुंदर कहइ साचउ मंइ जाण्यउ, वीतराग देव विसवा वीसइ। इति श्री सेरीसा मंडन पार्श्वनाथ भास ॥ ३१ ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि श्री नलोल पाश्र्वनाथ भास राग-धन्यासिरी पद्मावती सिर उपरि, पारसनाथ प्रतिमा सोहइ रे । नगर नलोलइ निरखतां, नर नारी ना मन मोहइ रे॥शाप०॥ भुहरां मांहि अति भली, महावीर प्रतिमा मांडी रे। भगति करउ भगवंत नी, मोक्ष मारग नी ए दांडी रे॥२॥१०॥ लोक जायइ यात्रा घणा, पद्मावती परतां पूरइ रे। समयसुन्दर कहइ जिन बेउ ते, आरति चिंता चूरइ रे ॥३॥१०॥ श्री चिन्तामणि पार्वजिन स्तवन आणी मन सूधी आसता, देव जुहारूँ सासता। पार्श्वनाथ मुझ वंछित पूरि, चिंतामणि म्हारी चिंता चूरि ॥१॥ को केहनइ को केहनइ नमइ, माहरइ मन मंइ तूं हिज गमइ । सदा जुहारू ऊगमते सूरि, चिंतामणि म्हारी चिंता चूरि ।।२।। अणियाली तोरी प्रांखड़ी, जोण कमल तणी पांखड़ी। मुख दीठां दुख जायइ दूरि, चिंतामणि म्हारी चिंता चूरि ॥३॥ वीछडिया वाल्हेसर मेल, वहरी दुसमण पाछा ठेल । तूंछइ माहरउ हाजरउ हजूरि, चिंतामणि म्हारी चिंता चूरि॥४॥ मुझ मन लागी तुम स्प्रीत, बीजउ कोइ न आवइ चीत । करउ मुझ तेज प्रताप पडूरि, चिंतामणि म्हारी चिंता चूरि ॥शा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चिन्तामणि पार्श्वजिन स्तवनम् ( १७१ ) एह स्तोत्र जगत मन धरइ, तेहना काज सदाइ सरह । आधि व्याधि दुख जावइ दरि, चिंतामणि म्हारी चिंता चूरि॥६॥ भव भव देज्यो तुम पय सेव, श्री चिंतामणि अरिहंत देव । समयसुंदर कहइ सुख भरपूरि, चिंतामणि म्हारी चिंता चूरि ॥७॥ श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ भास राग-भयरव चिंतामणि म्हारी चिंता चूरि, पारसनाथ मुझ वंछित पूरि ।। जागतउ देव तू हाजर हजूरि, दुख दोहग अलगां करि दूरि।२। सदा जुहारू उगंतइ सरि, समयसुंदर कहइ करि तू पडूरि।३। इति श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ भास ॥३५॥ -*श्री सिकन्दरपुर चिन्तामणि पाश्र्वनाथ स्तवन राग-धमाल, फागनी जाति स्यामल वरण सहामणी रे, मूरति मोहन वेल । जोतां तृप्ति न पामियइ रे, नयण अमी रस रेल ।१॥ चिंतामणि पास जुहारियइ रे, सिकंदरपुर सिणगार । चिं.। अांकणी तूं प्रभु त्रिभुवन गजियउ रे, हूँ प्रभु तोरउ दास । तिण पर शरणै हूँ आवियउ रे, साहिब सुणि अरदास ।२. चिं०। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७२ ) समयसुन्दरकृप्तिकुसुमाञ्जलि प्रणमंतां पातिक टलइ रे, दरसण दउलति होय । गीत गान गरुयडि चढइ रे, सेवा करइ सहु कोय ।३। चिं०। वामा राणी उरि धरचउरे, अश्वसेन कुलचंद । पार्श्व चिंतामणि प्रणमतां रे, समयसुन्दर आणंद ।४। चि०। ___xxxx श्री अजाहरा पार्श्वनाथ भास (१) राग-केदारउ आवउ देव जुहारउ अजोहर उपास, पूरइ मन नी प्रास। तीरथ मांहि मोटउ रे त्रिभुवन माहि,जागती महिमा जास।प्रा०१॥ आदि न जाणइ रे एहनी कोई, अरिहंत अकल सरूप । सती सीता रे प्रतिमा पूजी एह, भक्ति करइ सुर भूप । प्रा०।२। परता पूरइ परतिख एह, समरयां दै प्रभु साद। चिंता चूरइ रे चित्त नी, वेग हरइ विषवाद ।आ०१३॥ भगवंत भेट्यउ रे अजाहरउ पास, सफल थयउ अवतार। तीरथ जूनउ रे जागतउ एह, समयसुंदर सुखकार ।प्रा०।४। आवउ जुहारउ रे अजाहरउ पास, सहू नी पूरइ आस । आवउ०। त्रिभुवन मोहउ रे तोरथ एह, जागति महिमा जेह ॥१॥ आदि न जाणइ रे एहनी कोय, भगवंत भेट्यउ सोय । सीता पूजी रे प्रतिमा रंगि, भगति करी बहु भंगि ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नारंगा पार्श्वनाथ स्तवनम् ( १७३ ) परता पूरइ रे पास जिणंद, दूरि करइ दुख दंद | चिंता चूरह रे चित नी एह, वेलू मय छह देह || ३ || तीरथ भेट्य म्हे आज, सीधा बंछित काज । तीरथ जूनउ रे अजाहरड़ जाणि, समयसुंदर मुख पाणि ॥ ४ ॥ श्री नारंगा पार्श्वनाथ स्तवनम् I पारसनाथ कृपों पर, पाप राउ मुज दूरि । निरखता तुझ मूरति मूं रति थाई भरपूरि ||१|| यति सुन्दर तुझ सरति, सूर तिमिर हरइ जेम | ति सकलाप सुकोमल, को मल नहिं नहिं प्रेम ||२|| सुन्दर वदन विलोकन, लोकनई तू हितकार । वामा देवी नंदन, नंद नलिन पद चार ||३|| कुल कजल नीलक, नील कमल सम देह | भव समुद्र तूं तारक, तार कला गुण गेह ||४|| भाव सेवइ भुजंगम, जंगम परिण थिर थाय । न परइ भगत वैतरणी, तरणी लाधु उपाय ||५|| जग बांधव जग वत्सल, वत्स लघु जिम पालि । श्री जगगुरु जगजीवन, जीव नउ तूं दुख टालि ॥ ६ ॥ वंश इखाग निशाकर, साकर सम तुझ वाणि । भव भव हूँ तुझ सेवक, सेव करू तें झाणि ||७|| Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि यह दरिसण रलिश्रामणु, श्रमरं दम जाई । जिम मुझ पहुँच आखड़ि, खड़ियां न उसाई ||८|| नारिंगपुर मंडण मणि, नमणि करइ नर नारि । समयसुन्दर एहवी नति, विनति करइ वार वार ॥६॥ ( १७४ ) 3 ( २ ) राग - कल्याण पाटण मांहि नारंगपुरउ री । पा० । चैत्यवंदन करि देव जुहारउ, जिम संसार समुद्र तरउ री ॥ पा० ॥ १ ॥ आधि व्याधि चिंता सहु चूरइ, वरी कर न सकइ को बुरउरी । सुन्दर रूप मनोहर मूरति, Jain Educationa International हार दिइ मस्तकि सेहरउ री ॥ प० ॥ २ ॥ वीतराग तथा गुण गावउ, अरिहंत अरिहंत ध्यान धरउरी । समयसुदर कहइ पास पसायई, कुशल कल्याण आणंद करउरी ॥ पा०|| ३ || श्री नारंगा पार्श्वनाथ स्तवनम् पाटण मई परसिद्ध धणी, नारंगपुर पारसनाथ तणी । आज जागतउ तीरथ एह खरउ, नित समरउ श्री नारंगपुरउ | १ | For Personal and Private Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नारंग पार्श्वनाथ स्तवनम् ( १७५ ) हाटे घर बइठा धन खाउ, सखरइ व्यापार तराउ साटउ । दरिय देसांतर कांड फिरउ, नित समरउ श्री नारंगपुरउ |२| राजा कर तेहिज अंग घाउ, उपर सही बोल हुवइ आपणउ । झगड़इ कांटइ तुम कांइ डरउ, नित समरउ श्री नारंगपुरउ | ३ | तुम दड़ देवालय मति जावउ, मिथ्यात्त्व देव नइ मतिध्यावउ । पुत्र रत्न ल हिस्यति सफरउ, नित समरउ श्री नारंगपुरउ | ४ | नख यख नइ मुख कूख तणी, स्वास खास नई ज्वर रोग घणी । जाय ते भाज तुरत अरउ, नित समरउ श्री नारंगपुरउ | ५ | भील कोली मणा मीर तथा मारग में भय अत्यंत घणा । मत बीउ धीरज नित्य धरउ, नित समरउ श्री नारंगपुरउ | ६ | व्यंतर नइ राक्षस वैताला, भूत प्रेत भ्रमइ हग हग वेला । साकण डाकण डर कांइ डरउ, नित समरउ श्री नारंगपुरउ |७| परिवार कुटुम्ब सहु को मानइ, सौभाग्य सुजस बघते वानर । वलिन हुवइ बैंक किसी बातरउ, नित समरउ श्री नारंगपुरउ | ८ | आणंद घुरउ तुम इह लोकह, शिव सुख पिण करइ परलोक । भौ समय सुंदर भव समुद्र तरउ, नित समरउ श्री नारंगपुर 1६1 - श्री वाडी पार्श्वनाथ भास चउमुख बाड़ी पास जी, सुन्दर मूरति सोहइ मेरे लाल । नित नित नयणे निरखतां, Jain Educationa International भविण ना मन मोहइ मेरे लाल |१| च० | For Personal and Private Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि सोम चिंतामणि संपति आपइ, अचिंत चिंतामणि आस पूरइ मेरे लाल । विश्व चिंतामणि विघ्न विडारइ, चउगति ना दुख चूरइ मेरे लाल ।२।०॥ मोह तिमिर भर दूर निवारइ, निरमल करइ प्रकाश मेरे लाल । समयसुंदर कहइ सेवक जन नइ, परतिख तूठा वाड़ी पास मेरे लाल ।३। च०। इति श्री वाड़ी पार्श्वनाथ भास २० ।। श्री मंगलोर मंडण नवपल्लव पार्श्वनाथ भास ढाल-राजमती राणी इण परि वोलइ, नेम बिना कुण घूघट खोलइ नवपल्लव प्रभु नयणे निरख्यउ, प्रगट्यउ पुण्य नई हियड़उ हरख्यउ॥१॥ वल्लभी भंगे मूरति प्राणी, मारगि वे अंगुल विलंबाणी ॥२॥ वलीय नवी आवी ते जाणउ, नवपल्लव ते नाम कहाणउ ॥३॥ मंगलोर गढ मूरति सोहइ, भवियण लोक तणा मन मोहइ ॥४॥ जात्र करी श्रीसंघ संघाति, ___ समयसुन्दर प्रणमइ परभाति ॥५॥ इति श्री मंगलोर मंडण श्री नवपल्लव पार्श्वनाथ भास ॥१६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री देवकापाटण दादा पार्श्वनाथ भासादि (१७७ ) श्री देवका पाटण दादा पाश्र्वनाथ भास देवकइ पाटण दादउ पास,सखी मई जुहारउ म्हारी पूरी आस । दे..१॥ चंदन केसर चंपक कली, प्रतिमा पूजी मन नी रली । दे.।२। जात्र करण संघ आवइ घणा, सनात्र करइ जिनवर तणा : दे.।३। दउलित आपइ दादउ पास, सयमसुन्दर प्रभु लील विलास । दे.।४। इति श्री देवका पाटयण मण्डण दादा पार्श्वनाथ भास ॥२२॥ श्री अमीझरा पार्श्वनाथ गीतम् राग-सारंग भले भेट्यउ पास अमीझरउ ।। नयर वडाली मांहि, देख्यउ प्रभु देहरउ जी ।१पा० । नव नव अंग पूज रचो मन रंगे, निर्मल ध्यान धरउ। भगवंत नी भावना मन भावउ, जिम संसार तरउ जी।। पा० । ईडर संघ सहित यात्रा, हरख्यउ मो हियरउ । समयसुंदर कहइ पास पसायइ, वंछित काज सस्थउ ।३। पा० । श्री शामला पार्श्वनाथ गीतम् राग-भयरव साचउ देव तउ ए सामलउ, अलगउ टालइ जपलउ । सा.।१ पूजा स्नात्र करउसब मिलउ, जन्म मरण ना दुख थी टलउ। सा.।। समयसँदर कहइ गुण सांभलउ, जिम समकित थायइ निरमलउ।३। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७८ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि श्री अंतरीक्ष पार्श्वनाथ गीतम् ___राग-बसंत पार्श्वनाथ परतिख अंतरीख, सकलाप सामी कुण ए सरीख । पा० ॥१॥ श्रीपाल राजा कीधी परीख, कोढ रोग गयो हुँतो बहु बरीक । पा० ॥२॥ निरधार मूरति नयणे निरीख, समयसुन्दर गुण गावइ हरीख । पा० ॥३॥ श्री बीबीपुर मण्डन चिन्तामाणि पार्श्वनाथ स्तवन राग-काफी चिन्तामणि चालउ देव जुहारण जावां । चि०। बीबीपुर मांहइ प्रभु बइठउ, दरसणि दउलति पावां । चि०१॥ केसर चंदन भरिय कचोली, प्रतिमा पूज रचावां । स्यामल मूरति सुन्दर सोहइ, मस्तक मुकुट धरावां । चि०१२। शक्रस्तव आगइ करां साचउ, गुण वीतराग ना गावां। समयसुन्दर कहइ भाव भगति सँ, भावना आपाभावां । चि०।३। श्री भडकुल पार्श्वनाथ गीतम् राग-वेलाउल भड़कुल भेटियउ हो, पारसनाथ पडूर । भ० । परतिख रूप धरणिंद पद्मावती, परता पूरइ हाजरा हजूर । म०।१। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तिमरीपुर-वरकाण!-पार्श्वनाथ गीतम् ( १७६ ) समस्या साद दियइ मेरउ साहिब, आरति चिंता करइ चकचूर । आसा सफल करत सेवक की, यात्रा प्रावइ सब लोक जरूर । भ०।२। पोष दसमी दिन जन्म कल्याणक, यात्रा करी में ऊगमते सूर । समयसुन्दर कहइ तेरी कृपा ते, राग वेलाउल आणंद पूर । भ०।३। श्री तिमरीपुर पार्श्वनाथ गीतम राग-काफी तिमरीपुर भेट्या पास जिनेसर बेई । ति० । देश प्रदेश थकी नर नारी, जात्रा आवइ सू स लेई । ति०।१। सतर भेद पूजा करइ श्रावक, नृत्य करइ तता थेइ । समयसंदर कहइ सूरियाभनो परि, मुक्ति तणा फल लेइ। ति०।२। श्री वरकाणा पार्श्वनाथ स्तवनम् राग-सारंग जागतउ तीरथ तूं वरकाणा । जा० । जात्रा करण को जग सब आवत, सेव करइ सर नर राय राणा । जा० ॥१॥ सकल सुन्दर मूरति प्रभु तेरी, पेखत चित्त लुभाणा । मन वंछित कमना मुख पूरति, कामिक तीरथ निकु कहाणा । जा० ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (850) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि तूं गति तूं मति तूं त्रिभुवन पति, तू शरणागत त्राणा । समयसुन्दर कहइ इह भव पर भव, पारसनाथ तूं देव श्री नागौर मण्डन पार्श्वनाथ स्तवनम् Jain Educationa International प्रमाणा । जा० पुरिसादानी पास एक करू अरदास | मुझ सेवक तणी ए, तूं त्रिभुवन वणी ए ॥१॥ दीठां अवरज देव कीधी तेहनी सेव । काज न को सरउ ए, भवसागर फिर उ ए ॥ २ ॥ हिव मुझ फलियउ भाग, मिलीयो तूं वीतराग । अशुभ करम गयउ ए, जन्म सफल थयउ ए ॥ ३ ॥ ज्ञाता भगवती सार, सूरी अधिकार | जिन प्रतिमा सही ए, जिन सारखी कही ए ||४|| अश्वसेन कुलचन्द वामा राणी नन्द | तूं त्रिभुवन तिलउ ए, भांजइ भव किलउ ए ॥ ५॥ अजरामर अरिहंत, भेट्यउ तूं भगवंत । दुख दोहग टल्या ए, मन वंछित फल्या ए ॥ ६ ॥ पास जिणेसर देव, भव भव तुम पय सेव । पास जिणेसरू ए, वंछित सुरतरू ए ॥ ७॥ For Personal and Private Use Only |३| Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पार्श्वनाथ लघु स्तवनम् (१८१ ) ॥ कलश ॥ इम नगर श्री नागौर मण्डण, पास जिणवर शुभ मनइ । मंइ थुण्यउ संवत सोल इकसठ्ठ, चैत्र वदि पंचमि दिनइ ॥ जिन चन्द्र रवि नक्षत्र तारा, सकल चन्द्र सुरी सुरा । कर जोड़ि प्रभु नी करह सेवा, समयसुन्दर सादरा ॥८॥ श्री पार्श्वनाथ लघु स्तवनम् देव जुहारण देहरइ चाली, सखिय सहेली' साथि री माई । केसर चन्दन भरिय कचोलडी, ___ कुसुम की माला हाथि री माई ॥१॥ पारसनाथ मेरउ मन लीणउ२, वामा कउ नन्दन लाल री माई ॥ांकणी।। पग पूजी चढू पावड़ सालइ, भगवंत धरम दुवार री माई। निस्सही तीन करू तिहुं ठउड़े, पंचाभिगमण सार री माई ॥२॥ पा० ॥ तीन प्रदिक्षणा भमती देसु, तीन करू परणाम री माई ॥ चैत्यवंदण करू देव जुहारू, १-सहिल समाणी। २-मान्यउ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८२) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि गुण गाऊं अभिराम री माई॥३॥ पा० ॥ भमती मांहि भमइ जे भवियण, ते न भमस्यै संसार री माई । समय सुन्दर कइइ मनवंछित सुख, ते पामइ भव पार री माई ॥४॥ पा० ॥ संस्कृतप्राकृतभाषामयं पार्श्वनाथलघुस्तवनम लसण्णाण-विनाण-सन्नाण-मेहं, कलाभिः कलाभियुतात्मीय देहम् । मणुगणं कला-केलि-रूवाणुगारं, स्तुवे पार्श्वनाथं गुण-श्रोणि-सारं ॥१॥ सुया जेण तुम्हाण' वाणी सहेवं, गतं तस्य मिथ्यात्व-मात्मीय-मेवम् । कहं चंद ममिल्ल- पीऊस-पाणं, विषापोह-कृत्ये भवेन्न प्रमाणम् ॥ २ ॥ तुहप्पाय-के-रुहे जे भत्ता, लभे ते सुखं नित्य-मेकाग्र-चित्ताः । कहं निष्फला कप्परुक्खस्स सेवा, भवेत्प्राणिनां भक्तिभाजां सदेवा ॥ ३ ॥ तुहद्दसणं जे पिक्खंति लोगा, लसत्तोष-पोष लभंते सभोगाः । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत प्राकृत भाषामय पाश्व नाथ लघु स्तवनम् (१८३ ) जहा मेह-रेहं पदट्ठ ण मोरा, यथा वा विधो दर्शनं सच्चकोराः ॥ ४ ॥ हवे जत्थ दिट्ठा जिणाणं पसन्ना, गता तेभ्य आपनितान्तं निखिन्ना । पगासो सिया जत्थ सूरस्स सारं कथं तत्र तिष्ठेत्कदाप्यन्धकारम् ॥ ५ ॥ तुमं नाम चिंतामणि जस्स चित्ते, विभो कामितिस्तस्य संपत्ति-वित्त । जो पुप्फकालंमि पत्तणणेया, वणस्सेणि पुष्पान-माला-प्रमेया ॥ ६ ॥ मए बंदिया अज तुम्हाण पाया, नितान्त गता मेऽद्य सर्वेप्यपाया । जहा सुट्ठ दट्टण दुटुंच मोरा, भुजङ्गा व्रजेयुर्भियात्यंत-घोरा ॥ ७ ॥ अहो अज मे वंछिअत्थस्समाला, फलत्पाश्व नाथ-प्रसादा-द्विशाला । जहा मेह--धाराभि-सित्ताण वीणा, समद्धा भवेतिक न वल्ली न रीणा ॥ ८ ॥ इय पागय-भासाए संस्कृत-वाण्या च संस्तुतः पावः। भत्तस्स समयसुदर-गणेमनो-बांछितं देयात् ॥६॥ ॥ इति अर्धप्राकृत-अर्द्ध संस्कृतमयं श्रीपार्श्वनाथलघुस्तवनम् ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि अथ चतुर्विंशति तीर्थङ्कर-गुरु नाम गर्भित श्री पार्श्वनाथ स्तवनम् वृषभ धुरन्धर उद्योतन वर, अजित विभो भुवि भुवन दिनेश्वर, बद्धमान गुणसार । वामा सम्भव पार्श्वजिनेश्वर, सुजन दशा-ममिनन्दन शशिकर, चन्द्र कमल पद चार ॥१॥ जय सुमति लता घन अभयदेव सूरीन्द्र । पद्म प्रभु कर नत वल्लभ भक्ति मुनीन्द्र ॥ वसु पाच विगत मद दत्त भविक जन भन्द्र । चन्द्र प्रभु यशसा सुन्दर तर जिन चन्द्र ॥२॥ सुविधिनाथ जिनपति मुदार मति शीतल वचनं । नौमि जिनेश्वर सूरि साधु कृत संस्तव रचनम् ॥ श्रेयासं भविक प्रतिबोध निपुणं निस्तन्द्र । श्री पार्श्व दे वासुपूज्य मानं जिनचन्द्रम् ॥३॥ बिमलभं कुशलाम्बुज-भास्कर प्रशमनं तत्पद्म दृशावरम् ॥ नमत धर्म-सुलब्धि-विराजितं जिनमशान्ति मुचंद्रविणोज्झितम् ॥४॥ कुंथुरक्षाकरं विहितवृजिनोदयं, अरतिचिताहरं राजमांनासयम् । मल्लिका सहितभद्रासनस्थायिनं, स्मरत मुनिसुव्रतं चंद्रहृदयं जिनम् ॥५॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पार्श्वनाथ स्तवनम् ( १८५) जय नमित सुरासुर गुण समुद्र । जय नेमि भवापह हंस मुद्र। जय पाच कला माणिक्य गेह । जय वीर मनोहर चन्द्र देह ॥६॥ इत्थं नीरधिनेत्रतीर्थपगुरुस्पष्टाभिधागर्भितं । सूर्याचाररसेन्दुसंवति नुतिं श्रीस्तम्भनस्य प्रभो!। चक्र श्रीजिनचन्द्रसरिसुगुरुश्रीसिंहरिप्रभो !, शिष्योऽयं समयादिसुन्दर गणिः सम्पूर्णचन्द्रा तेः ॥७॥ इति श्री चतुर्विंशति तीर्थकर चतुर्विंशति गुरु नाम गर्भितं श्री पार्श्वनाथ स्तवनं समाप्तम् । इरियापथिकी मिथ्यादुःकृतविचारगर्भित श्री पार्श्वनाथ लघु स्तवनम् मणुयातिसय तिडुत्तर (३०३), नारय चउदसय (१४) तिरिय अडयाला (४८)। देव अड़नवइसयं (१९८), पणसयतेसहि (५६३) जियं भेया।१। अभिहय-पमुह-पएहिं, दस गुणिया (५६३०) राग-दोस-कय दुगुणा (११२६०)। जोगे (३३७८०) त्रिगुणा करणे (१०१३४०), काले त्रिगुणा (३०४०२०) छः गुणायसखिछगे (१८२४१२०) ।२। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८६ ) समयसुन्दरकृतिक सुमाञ्जलि ते सच्चे संजाया, लक्खा अठार सहस चौवीसं 1 हग सय वीसा मिच्छा, दुक्कड़या इरियपडिक्कमणे | ३ | इय परमत्थो एसो, परूवियं जेण भविय बोहत्थं । पणमामि समयसुंदर, पणयंतं पास जिणचंद |४| इति इरियापथिकीमिथ्यादुः कृतविचारगर्भित श्री पार्श्वनाथल घुस्तवनम् श्री जेसलमेरु संघाभ्यर्थनयाकृतं सम्पूर्णम् ॥ XXXX श्री पार्श्वनाथ लघु स्तवनम् प्रकृत्यापि विना नाथ, विग्रहं दूरतस्त्यजन् । केवल प्रत्यये नैव, सिद्धिं साधितवान् भवान् ॥ १ ॥ निर्जितो वारिवाहोऽर्हन्, गम्भीरध्वनिना त्वया । वहत्यद्यापि पानीयं प्रतिसद्मा सितानन ||२|| तव मित्र वदादेश, तथा शत्रु - रिवागमः । समीहित-कृते रोति, संहृते शब्द - वारिधे ||२|| नित्यं प्रकृति-मत्त्वेऽपि, नाना - विग्रह - वर्त्तिनि । भव्ये व्यभिचारित्वात्सर्व- सिद्धि-करं कथम् ||४|| निर्दयं दलयामास शक्त्या सवर - मङ्गजं । तद्भवं तं कथं नाथ, कृपालु कथयाम्यहम् ॥ ५॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पार्श्वनाथ यमक बद्ध लघु स्तवनम् ( १८७ ) एवं श्रीजिनचन्द्रस्य, पाश्वनाथस्य संस्तवम् । चक्रे हर्ष-प्रकर्षण, समयादिम सुन्दरः ॥६॥ इति श्री पार्श्वनाथ लघु स्तवनं श्लेषादिभावमयं सम्पूर्णम् ।। सं० १६६० वर्षे चैत्र सुदि १ दिने श्री अहमदावाद नगरे लिखितम् । [जेसलमेर-खरतराचार्यगच्छोपाश्रये यति चुन्नीलाल संग्रहे स्वयं लिखित पत्रात् ] - -- श्री पार्श्वनाथ यमक बद्ध लघु स्तवनम् पाचप्रभु केवलभासमानं, भव्याम्बुजे हंसविभासमानम् । कैवल्यकान्तैकविलासनाथं, भक्त्या भजेहं कमला सनाथम् ।। विघ्नावलीवल्लिमतंगभीर, दिश प्रभो मेऽभिमतं गभीर । जगन्मनः कैरवराजराज, नताङ्गिना शान्तिकराज राज ।२। ततान धर्म जगनाहतार, मदीदह दुःखतती हतार । अचीकरच्छर्म सतां जनानां, जहार दीप्तारशितां जनानाम् ।३। वेगाद्वयनीषी दरिका ममादं, श्रियापि नो यो भविकाममादम्। नुत प्रभु ते च नता रराज, शिवे यशः कैरवतारराज ।४। यमलम् ।। उवष्टयेषामिह सेवकानां, त्वं मानसे पुष्टरसेवकानाम् । सद्यो लभंते कमलां जिनेश, ते देव कान्ता कमला जिनेश ।। यन्नाम मन्दोपि तदा मुदारं, वदन् पदं याति विदा मुदारम् । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८८) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि - पोता पदंभस्तरणेऽवदातः, श्रियो जगद्दव मणेवदातः ।। चिन्तामणि मे चटिता ममाद्य, जिनेश हस्ते फलिता ममाघ । गृहांगणे कल्पलता सदैव, दृष्टे तवास्ये ललिता सदैव १७/ एवं स्तुतौ यमकबद्धनवीन काव्यैः,पार्श्व प्रभुर्ललित "वितानभव्यैः करी : करोतु कुलकैरवपूर्णचंद्रः, सिद्धांतसुंदररति विनमत्सुरेंद्रः।८] इति श्री यमकबद्ध श्री पार्श्वनाथ लघु स्तवनम् ॥ श्री चिंतामणि पाश्र्वनाथ श्लेषमय लघु स्तवनम् उपोपेत तपो लक्ष्म्या , उदुज्ज्वल यशोभर । प्रप्रकृष्ट-गुण-श्रोणि, सं संश्रित जय प्रभो ॥१॥ दूरस्थमपि पावं त्वां, यन्मे हृदभिधावति । यस्य येनाभिसम्बोधो, दूरस्थस्यापि तेन सः ॥२॥ एकधातोरनेकानि, रूपाणि किल तत्कथम् । एकमेवाऽभवद्र प-मथिते सप्तधातुभिः ॥३॥ केवलागममाश्रित्य, युष्मद्वयाकरणे स्थिताः । सिद्धि प्रकृतयः प्रापुः, पार्श्व चित्रमिदं महत् ॥४॥ एवं देव दयापर, चिन्तामणिनामधेय पार्श्वत्वाम्। गणि समयसुंदरेण, प्रसंस्तुतः देहि मुक्तिपदम्॥५॥ इति श्लेषमयं चिन्तामष्टि पार्श्वनाथ लघु स्तवनम् । सं० १७०० वर्षे मार्गशीर्ष व दि ५ दिने श्री अहमदावादे हाजा पटेल पोलिमध्ये वृद्धोपाश्रये। उ० श्री समयसुन्दरलिखितं स्वस्य शिष्यार्थ च पठनार्थम् ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वी पार्श्वनाथस्य शृंखलामय लघु स्तवनम् ( १८६ ) श्री पार्श्वनाथस्य श्रृंखलामय लघु स्तवनम् प्रणमामि जिनं कमलासदनं, सदनंतगुणं कुलहारसमम् । रस मंदमदंभसुधानयनं, नयनंदित वैश्वजनं शमिनम् ॥१॥ युवनोन्मुखकेशरिशावरवं, वरवंशपदा न तदा सहितम् । सहितं समया रमया मदना, मदनाभि तिरस्कृतनीररुहम् ।।२।। वदनरवि बोधितानेकजनपंकज, पंकजं बालपाथोदसमसंचरम् । संचरंतं सरोजेषु सुतमोहरं, मोहरंभा गजे पार्श्वनाथं मुदा ॥३॥ ___ त्रिभिः कुलकम् ॥ विहितमंगल मंगल सद्रवि नुत जिनं सदयं सदयं जनाः । विगत देव न देवनरोचितं, गतकजामरचामरराजितम् ॥४॥ जिन यस्य मनो भ्रमरो रमते, रमते पदपमयुगं सततम् । सततं नववामकरंदमिना, दमिनावनिपीयमुदं दमिनः ॥१॥ महोदये वाम जिनं वसंतं, जिनं वसंतं शुभवल्लिकंदे । सस्मार पार्श्व सुमनो विमानं, मनोविमानं स जगाम यस्य ॥६॥ कल्याणकंदे कमलं हरतं, जिने जनानेकमलं हरंतम् । सतां महानंदमहं स पद्म, पार्थ ददौ यो दमहंस पद्म ॥७॥ कल्पकल्पोपमं पूर्णसोमोदयं, मोदयंतं जनान् वंशहंसप्रभम् । सप्रभं पार्श्वनाथं वहे मानसे, मानसेवालवातूलमेनं जिनम् ॥८॥ एवं स्तुतो मम जिनाधिपपार्श्वनाथः, कल्याणकंदजिनचंद्ररसा सनाथः । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९०) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ज्ञानांबुधो सकलचंद्रसमः प्रसद्यः सिद्धान्तमुदररति वितनोतु सद्यः ॥ ६ ॥ श्री संखेश्वर पार्श्वनाथ लघु स्तवनम् श्रीसंखेश्वरमण्डनहीरं, नीलकमलकमनीयशरीरं, गौरवगुणगंभीरम् । शिवसहकारमनोहरकीरं, दूरीकृतदुःकृतशारीरं, इन्द्रियदमनकुलीरम् ॥१॥ मदनमहीपतिमर्दनहीरं, भीतिसमीरणभक्षणहीर, मरणजरावनजीरम् । संसृतितप्तिगुडाश्रितजीरं, वचननिरस्तसिता गोक्षीरं, गुणमणिराशिकुटीरम् ॥२॥ समतारसवनसिंचननीरं, विशदयशोनिर्जित डिण्डीरं, त्रिभुवनतारणधीरम् । धोरिमगुणधरणीधरधीरं, सेवकजनसरसीरुहसीरं, रागरसातलसीरम् ॥३॥ दुरितरजोभरहरणसमीरं, गजमिव भग्नकषायकरीरं, करुणानीरकरीरम् । सुरपतिअंसनिवेशितचीरं नखमयूषविधुरितकाश्मोरं, प्राप्तभवोदधितीरम् ॥४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पार्श्वनाथ लघु स्तवनम् ( १६१ ) अश्वसेननृपकुलकोटीरं, निर्मलकेवलकमलावीरं, श्रीजिनचंद्ररतीरम् । सकलचंद्रमुखमनुपमहीरं, प्रणमत समयसुदर गणि धीरं, वन्देपा मभीरम् ॥५॥ इति श्री संखेश्वर पार्श्वनाथ लघु स्तवनम् ।। २२ ।। श्रीअमीझरापार्श्वनाथस्य पूर्वकविप्रणीतकाव्य - द्वयर्थ करणमयं लघुस्तवनम् अस्त्युत्तरास्यां दिशि देवतात्मा, हिमालयो नाम नगाधिराजः । पूर्वापरौ तोय निधीवगाह्य, स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः ।। [कुमारसंभवे] कश्चित् कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारात्प्रमत्तः । शापेनास्तंगमितमहिमा वर्षभोग्येण भर्तुः ।। यक्षश्चक्र जनकतनयास्नोनपुण्योदकेषु । स्निग्धच्छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु ।। [ मेघदूत काव्ये ] श्रियः पतिः श्रीमति शाशितु जगजगन्निवासो वसुदेवसमनि। वसन् ददर्शाऽवतरं तमम्बरात्, हिरण्यगर्भाङ्गभुवं मुनि हरिः।३। [ माघ काव्ये ] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि बालोपि यो न्यायनये प्रवेश-मल्पेन वांछत्यलसः श्रुतेन । संक्षिप्तयुक्तान्त्रिततर्कभाषा, प्रकाश्यते तस्य कृते मयैषा ।४। [तर्क भाषा] -मित भाषिण्याम् हेतवे जगतामेव, संसारार्णव सेतवे। प्रभवे सर्वविद्यानां, शंभवे गुरवे नमः ।। [ सप्त पदार्थी ] सुखसन्तानसिद्धयर्थ, नत्वा ब्रह्माच्युतार्चितम् । गौरीविनायकोपेतं, शंकरं लोकशंकरम् ।६। [वृत्तरत्नाकरे ] एवं पूर्वकविप्रणीतविलसत्काव्यैनवीनार्थतः ।। आनंदेन अमीझराभिधविभु श्रीपार्श्वनाथस्तुतिम् ।। श्रीमच्छीजिनचंद्रसूरिसुगुरोः शिष्याणुशिष्यो व्यधात् । सोल्लासं समयादिसुन्दरगणिश्चेतश्चमत्कारिणीम् । श्री पार्श्वनाथ यमकबन्ध स्तोत्रम् प्रणत मानव मानव-मानवं, गतपराभव--राभव-राभवम् । दुरितवारण वारण-वारणं, सुजन-तारण तारण--तारणम् ।१। अमर-सत्कल-सत्कल-सत्कलं, सुपदया मलया मलयामलम् । प्रबल-सादर सादर-सादरं, शम-दमाकर-माकर-माकरम् ।२। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पार्श्वनाथशृंगाटक बन्ध स्तवनम् (१६३ ) भुवननायक-नायक-नायकं, प्रणितु नावज नावज-नावजम् । जिन भवंत-मवंत-मवंतमं, स शिव-मापरमा-परमा-परम् ।३। [त्रिभिः कुलकम् ] रक्सिमोदय-मोदय मोदय, क्रमण-नीरज-नीरज-नीरज । लसदु' मामय-मामय-मामय, व्यय कृपालय पालय पालयः।४। इति मया प्रभुपार्श्वजिनेश्वरः, समयसुन्दरपनदिनेश्वरः । यमकबन्धकवित्वभरैः स्तुतः, सकलऋद्धिसमृद्धिकरोस्त्वतः।। इति यमकबन्धं श्री पार्श्वनाथ स्तोत्रम् । श्रीपार्श्वनाथशृंगाटकबन्धस्तवनम् . कमन-कंद-निकंदन-कर्मदं, कठिन-कक्ष-ममा नमति समम् । मदन-मंदर-मर्दन-नंदिरं, नयन-नंदन-नंदनि निर्द्धनम् ॥१॥ निखिल- नित-निश्वन-नर्दितं, नत जनं सम-नर्मद-दंभमम् । दम-पदं विमदं घन-नव्यभं, नभ-वनं हससं शिवसंभवम् ॥२॥ सतत-सजन-नंदित-नव्यभ, नयधनं वरलब्धिधरं समम् । रदन-नक्रमन-श्चलन-प्रियं, नलिन-नव्यय-नष्ट-वनं कलम् ॥३॥ ललवलं सकलं शम-लक्षितं, ततमतं सततं निज जन्मतम् । जगदजं विरजं दम-मंदिरं, महित-मंगप पण्डित-पर्षदम् ॥४॥ १ स्फुर दुमामयमा मय मामय। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि पटुलपं शम-मञ्जुल-मण्डनं, मधव-नंदन-वर्यरवं ध्रुवम् । वदन-नर्जितम-प्रभु-धर्मतं, मदन-लब्ध-जयं गुण-बन्धुरम् ॥५॥ कपट-मंदिर-तक्षण-दर्पहं, रतत-तद्र म-दंति-करं नुवे । नयवरं च भवंत-महं मुदा, त्रिभुवनाधिप पार्श्व-जिनेश्वरम् ॥६॥ सुजन-संस्तुत-विष्टप-सोदरं, मुख-विनिर्जित-वैधव-सम्पदम् । विगत-विड्वर-धीरम-मंदिरं, कज विलोचनयामल सद्गुणम् ॥७॥ संसार-रक्षक-कजानन-भाल-लष्टं, सोल्लास-संहनन-बीततमोककष्टम् । निःकोप-पंक ललनं विधारिरिक्त, संताप-कत्यभिदं ललवंश-शक्तम् ॥ ८ ॥ विश्वेश-शस्त-ममता-ममथं विविद्यम्, __ मंदार-रंग-ददयौघ-धनाव-वद्यम् । रोगाववर्य गगनाय यशोविविक्तम्, . सन्नार-रंजन-कलंक-करंभ-भक्तम् ॥ ६ ॥ इति पार्श्व-जिनेश्वर-मीश्वर-नुतमचिरेण, शृंगाटक-बंध-नवीन-कवित्व-भरेण । गणपति-जिनचंद्र-विनेय-सकल-विधु-शिष्य, गणि-समयसुन्दर इममस्तावीत् सुविशिष्य ॥१०॥ ॥ इति श्रीपार्श्वनाथशृंगाटकबन्धमय लघुस्तवनं समाप्तम् ॥ श्रीपार्श्वनाथ-हारबन्धचलच्छंखला-गर्भितस्त्रोतम् वन्दामहे वरमतं कृत-सात-जातं, तं मान-कान्त-मनघं विपरौघ-कोपम् । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पार्श्वनाथ हारबंधचलछुच्छला गर्भित स्तोत्रम् ( १६५) पद्मामलं परम-मंग-कराऽमदाऽकं, कष्टावली-कलिवनद्विप-हीन-पापम् ॥१॥ पमाननं पवन-भक्षवरं भवाऽवं, वन्दारु-देव-मरुजं जिनराज-मानम् । नव्याजमान-मजरं धर सार-धीरं, रम्याम्बकं रणवधं सुमनो-धरोमम् ॥२॥ मन्दार-काम-मरमं समधाम-रोम मर्हन्तमाऽमयतमस्तति सोमकान्तिम् । तिग्मो सतान्ति तरु-पशु-समं परासम्, संतीति हास-मऽति-मर्दननाम-मानम् ॥३॥ गर्वाऽऽर-राग-हरमङ्गज भीमराज, जन्त्वाऽऽनतंजयिन-मंग सदाऽऽमदासम् । नष्टाऽशिवं नत शिवप्रद-मेव साद, दंभाऽयुतं दम-युतं सुगताऽन्तरङ्गम् ॥४॥ संसार-वासधर-शम्ब-समं शवासं, सद्देव-दास-शिव-शर्म-करं शमैकम् । कम्र कलाऽऽकर-कलं गल-भाल-शालं, लब्धोदयं लसदनन्तमतिं नमामः ॥५॥ मञ्जूदयं मत-दयं शुभ-गेय शोभं, ___ भव्यं विदंभ-कवि-वन्द्य-पदाऽवजापम् । पत्कंज-रूप-विजयं वर-काय-मारं, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि रक्षाकरं रतिकरं नत सूर-जातम् ॥६॥ तुष्टः प्रभो गुण-गणान्तर-वृत्त वृत्त मुक्तावली-अथित-माशु शिवैक-दानम् । देहीह मे त्वदभिधा स्फुट-नायकाय, ___दृष्ट्वा-भवत्स्तवन-हार-मुदार-मेनम् ॥७॥ इति हारबन्ध-काव्यैर्मनोमतं मेऽद्य संस्तुतः पावः। विदधातु पूर्णचन्द्रस्सकल-समयसुन्दराम्भोधौ ॥८॥ संस्कृत-प्राकृत-भाषामयं श्रीपार्श्वनाथाष्टकम् भलू आज भेट्य प्रभोः पादपद्मम् , फली आस मोरी नितान्तं विपद्मम् । गयूं दुःख नासी पुनः सौम्यदृष्ट्या, थयु सुख झामु यथा मेघवृष्टया ॥१॥ जिके पार्ख केरी करिष्यन्ति भक्ति, तिके धन्य वारु मनुष्या प्रशक्तिम् । भली आज वेला मया वीतरागाः, खुशी मांहिं भेव्या नमद्देवनागाः ॥२॥ तुम्हे विश्व मांहे महा-कल्प-वृक्षा, तुमे भव्य लोकां मनोभीष्ट-दक्षा । तुमे माय बाप प्रियाः स्वामि-रूपाः, तुमे देव मोटा स्वयंभू स्वरूपाः ॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-प्राकृत-भाषामय श्री पार्श्वनाथाष्टकम् ( १९७) तुमार सदाई पदाम्भोज-देशं, नमइ राय राणा यथा भानि भेशम् । रली रंग हा सतां पूरितेहं, तुम्हा देव दीठा सुरोमाञ्च-देहम् ॥४॥ इसी वाणि मीठी तवातीव-मिष्टा, घणी ठाम जोई मयानैव दृष्टा ।। सही बात साची बिना चंद्र-बिंब, कदे होइ नाही सुधायाः कदम्बम् ॥॥ तुम्हारा गुणा री तुलां यो दधानः, निको हूँ न देखू जगत्यां प्रधानः । डरै डूंगरे किं गुणः सुन्दराणां, धरी अोपमा एकदा मंदराणाम् ॥६॥ तुम्हारी बड़ाई नु को वक्त -मीश, कलिकाल माहे कविगिरीशः । कही एतली ए मया भूरि भक्त्या, सदा पाय सेवू तवातीव-शक्त्या ॥७॥ इति स्तुति सजन-संस्कृताभ्यां, तव प्रभो वार्तिक-संस्कृताभ्याम् । त्वत्पादपद्मः प्रणमत्पुरन्दरः, श्री पार्श्व चक्र समयादि सुन्दरः ॥८॥ १ तात्यन्त । २ प्राकृत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६८ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि अष्ट महाप्रातिहार्य गर्भित पार्श्वनाथ स्तवनम् कनक सिंहासन सुर रचिय, प्रभु बसण अतिसार । धरम प्रकासह पास जिरा, बइठी परषदा बार || १ || सीस उपर अति सोहितउए, छत्र त्रय सुविशाल । तिण प्रभु त्रिभुवन राजियउए, न्याय धरम प्रतिपाल ||२|| बिहुँ पासे उज्वल विमल, गंग प्रवाह चामर वीजत' देवता ए, वपु वपु पुण्य अष्टोत्तर सउ कर रुचिर, ऊंचउ वृक्ष नव पल्लव छाया बहुल, टालइ सुरनर शोक ||४|| मोह तिमिर भर संहरण, भामंडल प्रभु पूठि । तेजक उए, जिम रवि जलधर बूठि ||५|| जानु प्रमाणइ जिन aणइए, जल थल भासर जाति । अशोक । कुसुम वृष्टि विरचंति सुर, पंच वरण बहु भांति || ६ || वीणा वेणु मृदंग वर, सुर दुंदुभि दिव्यनाद जिनवर तणउए, अमृत सम गुहिर गंभीर मधुर गगने, वाजइ तीर्थकर पदवी तणउए प्रकट्यौ पुण्य वाजित्र १ ढालइ Jain Educationa International समान । प्रमाण || ३ || For Personal and Private Use Only संवाद | स्वाद ||७|| ॥ क ल श ॥ इम पास जिनेसर परमेसर सुखकंद | आठ प्रतिहारज शोभित श्री जिनचंद || सेवे सुरनर किन्नर सकलचंद मुनि वृंद | नित समयसुंदर सुख पूरउ परमाणंद ॥ ६ ॥ तूर । पडूर ||८|| Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पवजिन पञ्चकल्याणक लघु स्तवनम् ( १६६ ) श्री पाश्वजिन पंचकल्याणक लघु स्तवनम् श्री पास जिणेसर सुख करणो, प्रणमीजइ सुरपति नत चरणो। नील कमल सामल वरणो, निज सेवक सवि संकट हरणो ।। चैत्र मास वदि चउथि दिनइ, प्राणत सुरलोक थकी चवि नइ । आससेण नरपति भवनइ, अवतरियउ जिन चउदस सुपनह।२। पोष मास बदि दसमी तणइ, दिन जायउ जिण सुपुण्ण दिनइ । जय जयकार मुखई पभणइ, सेवइ दिशि कुमरी हरखि घणइ ।३। इग्यारस वदि पोष तणइ, तिहुयण जण नई उपकार भणइ । पामी शुभ संयम रमणी, सेवउ भवियण जण जगत घणी।४। वदि चउथि जिन मधुमासइ, निरमल केवल थानइ भासइ । पाप पडल टाली पासइ, जिम सूर करी तम भर नासइ ।। सावण सुदि अट्ठमी दिवसइ, निज जन्म थकी सउ मई वरसइ । पामी शिव रमणी हरसइ, जसु जस विस्तरियउ दिश विदशइ।६। मुझआंगणि सुरतरु वेलि फली,चिन्तामणि करियल आवि मिली। जसु समरणि सुर धेनु मिली, सो सेवउ जिनवर रंग रली ।। कलश इय पण कल्याणक नाम भणि श्री पास । संथुण्यउ जिनवर निरुपम महिम निवास ।। जिणचंद पसायइ लाभइ लील विलास । मुनि' समयसुन्दर नी पूरउमन नी पास ॥८॥ १ गणि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०० ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि श्री पार्श्वजिन (प्रतिमा स्थापन) स्तवन श्री जिन प्रतिमा हो जिन सारखी कही, ए दीठां आणंद । समकित बिगड़इ हो संका कीजता, जिम अमृत विष बिंद । श्री.१॥ आज नहीं कोई तीर्थकर इहां, नहीं कोई अतिशय वंत । जिन प्रतिमा हो एक आधार छइ, आपै मुगति एकांत । श्री.२॥ सूत्र सिद्धान्त हो तर्क व्याकरण भण्या, पण्डित कहइ पण लोक। जिन प्रतिमा नइ हो जे मानइ नहीं,तेहनउ सगलो ही फोक । श्री.३। जिन प्रतिमा हो आगइ णमुत्थुणं कहइ, पूजा सतर प्रकार । फल पिण बोल्या हो हित सुख मोक्षना,द्रोपदी नइ अधिकार ।श्री.४। रायपसेणी हो ज्ञाता भगवती, जीवाभिगम नइ मांझ। ए सूत्र मानइ हो प्रतिमा मानै नहीं, महारी मां नइ बांझाश्री.॥ साधुनइ बोल्या हो भावस्तव भला, श्रावक नइ द्रव्य भाव । ए बिहुकरणी हो करतां निस्तरइ, जिन प्रतिमा सुप्रभाव । श्री.६। पार्श्वनाथ हो तुझ प्रसाद थी, सदहणा मुझ एह । भव भव होजो हो समयसुन्दर कहइ, जिन प्रतिमा सुनेह । श्री.७। श्री पाश्वजिन दृष्टान्तमय लघु स्तवन हरख धरि हियडइ मांहि अति घणउ, ___ तुह पसाय लही तुह गुण भणु। जलधि पारइ प्रवहण उतरइ, तिहां समीरण सहि सानिध करइ ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पायजिन दृष्टान्तमय लघु स्तवनम् (२०१ ) अहपवत्ति करण करि हूँ चल्यउ, - कर्मग्रन्थि थकी पाछउ वल्यउ । मयण निम्मिय दंत करी घणा, किम. चबायइ लोह तणा चणा ॥२॥ प्रभु तुम्हारी सेव समाचारी, सयल सजन नंइ शिव सुह करो। तिस्यउ स्वाति नक्षत्रे जलहरू, .. वरसतउ सवि मुक्ताफल करउ ॥३॥ हरि हरादिक देव तणी घणो । - भगति कीधी मुक्ति गमन भणी । नवि फलइ जिम जल सिंचावियउ, उखर खेत्रइ अोदन वावियउ ॥४॥ सगुरु संगे समकित पामियउ, पणि कुदेव भणी सिर नामियउ । जिस्यो दूध संघाति एलियउ, .... अहव अमृत सु विष भेलियउ ॥शा प्रभु तुम्हारउ : धर्म लही करी, ....... वलि गमाड़यउ मद मच्छर करी। , . . . भुवन नायक सुह दायक सही,, .. रयण रांक तणइ छाजह नहीं ॥६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०२) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि प्रभु चतुर्गति भमि बहु दुह सही, हुयउ निर्भय तुह सरपउ लही। भमिय बिहु खूणइ बिचि मई गबठ, . जिसउ सोगाठ प्रभु निर्भय थयरउ ॥७॥ हिब अमीमय दृष्टि निहालियइ, निम चिरंगत पाप पखालियइ । दुरिय दोहग दुख निवारियइ, भव पयोनिधि पार उतारियड 1८॥ इम थुण्यउ प्रभु पास जिणेसरू, भविय लोय प्रयोय दिनेसरू । सफल चीनतड़ी हिव कीजियइ, समयसुन्दरि शिव सुह दीजियइ ।।६।। इति श्रीपार्श्वनाथस्य दृष्टान्तमयं मधुस्तवनं सम्पूर्णम् । भी जेसलमेर मण्डन महावीर जिन विज्ञप्ति स्तवन वीर सुणउ मोरी बीनती, कर जोड़ी हो कहुं मननी बात । बालक नी परि वीनधु, मोरा सामी हो त्रिभुवन तात।वी.१॥ तुम दरिसण विन हुंभम्यउ, भव माहि हो सामी समुद्र मझार । . दुख अनंता मई सबा, ते कहिता हो किम आवइ पार । वी.२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेसलमेर मण्डल महावीर जिन विज्ञ से स्तवन ( २०३ ) I पर उपगारी तूं प्रभु, दुख भंजन हो जग दीन दयाल | तिय तोरउ चरणे हूँ आवियउ, सामी मुझ नई हो निज नयण निहाल अपराधी vिe ऊधरचा, तंड कीधी हो करुणा मोरा साम । हूँ तो परम भक्त लाहरउ, तिख तारउ हो नवि ढोल नउ काम । वो. ४। सूलपाणि प्रति बूझन्या, जिय कीधा हो तुझ नई उपसर्ग । डंक दियउ खंड को सियइ, तंत्र दीधउ हो तसु आठमउ स्वर्ग । वी. ५ गोसालो गुण हीन घराउ, जिरा बोल्या हो तोरा श्रवरण वाद | ते बलतउतई राखियउ, शीतल लेश्या हो मूकी सुप्रसाद | वी. ६ । ए कुल छह इंद्र जालियङ, इम कहितां हो आयउ तुम तीर ते गौतम नई तंद किवउ, पोतानी हो प्रभुता नउ बजीर । वी. ५। वचन उथाप्या ताहरा, जे झगड़चऊ हो तुझ साथि जमाल । तेहनइ पणि परइ भने, शिवगामी हो तई कीधो कृपाल । वी. ७/ अइम उ रिसी जे रम्य, जल मांहे हो बांधी माटी नी पाल । तिरती मूकी काछली, तं तारया हो तेहनइ तत्काल | वी. ६ मेघकुमर रिषी दूव्यउ, चित चूक्यउ हो चारित थी अपार । एकावतारी तेहनड़, तें कीघउ हो करुणा भंडार | बी. १०। बारे बरस वेश्या घरs, राउ मूकी हो संयम नउ भार । नंदिषेण पण ऊधरच, सुर पदवी हो दोधी श्रति सार । वी. ११ । पंच महावृत परिहरी, गृहवासे हो वसिया वरस चौबीस I ते पण आर्द्र कुमार नइ, तई तारथउ हो तोरी एह जगीश । वी. १२ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि राय श्रेणिक राणी चेलणा, रूप देखि हो चित चूका जेह | समवशरण साधु साधवी, तई कीधा हो आराधक तेह । वी.१३॥ व्रत नहीं नहीं आखड़ी, नहीं पोसौ हो नहीं आदरी दीख । ते पिण श्रेणिक राय नइ, तई कीधा हो स्वामी आप सरीख ।वी.१४॥ इम अनेक तई ऊपरया, कहुं तोरा हो केता अवदात । सार करउ हिव माहरी,मन आणउ हो सामी माहरी वात।वी.१४ सूधउ संजम नवि पलइ, नहिं तेहवउ हो मुज दरसण नाण । पण आधार छइ एतलउ, एक तोरउ हो धरुनिश्चल ध्यान। वी.१६। मेह महीतल वरसतउ, नवि जोवइ हो सम विसमी ठाम । गिरुया सहिजे गुण करइ,सामी सारउ हो मोरावंछित काम । वी.१७। तुम नामई सुख संपदा, तुम नामई हो दुख जावई' दूर। तुम नामवंछित फलइ, तुम नामइ हो मुझ आणंद पूर। वी.१८॥ ॥ कलश ॥ इम नगर जेसलमेर मंडण तीर्थकर चउवीसमउ शासनाधीश्वर सिंह लंछन सेवतां सुरतरु समउ । जिनचंद्र त्रिशलामात नंदन, सकलचंद कलानिलउ वाचनाचारज समयसुंदर संथुण्यउ त्रिभुवन विलउ ॥१६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री साचोरतीथे महावीरजिन स्तवनम् ( २०५ ) श्री साचोर तीर्थ महावीर जिन स्तवनम् धन्य दिवस मइं आज जुहारचउ, साचोरउ महावीर जी। मूलनायक अति सुंदर मूरति, सोवन वरण सरीर जी ध.१। जूनउ तीरथ जगि जाणीजइ, आगम ग्रंथइ साख जी जिन प्रतिमा जिन सारखी जाणउ, भगवंत इण परि भाखजी घ.२। सजइ जिम श्री आदीसर, गिरनारे नेमिनाथ जी । मुनिसुव्रत स्वामी जिम भरु अच्छइ, मुक्तिनउ मेलइ साथ जी ।ध.३॥ मूलनायक जिम मथुरा नगरी, पार्श्वनाथ प्रसिद्ध जी। तिम साचोर नगर मंइ सोहइ, श्री महावीर समृद्ध जी ।ध.४। तीर्थकर नउ दर्शन देख्यउ, प्रह ऊगमते सूर जी। निज समकित निर्मल थावइ, मिथ्यात्व जावइ दूर जी ध.५॥ आर्द्र कुमारे समकित पाम्यउ, जिनवर प्रतिमा देख जी। चउद पूरबधर भद्रबाहु स्वामी, तेहना वचन विशेष जी ।ध.६। सज्यंभव गणधर प्रतिबूभयउ, प्रतिमा कारण तेथ जी। परभव मुक्ति ना सुख पामीजई, हित सुख संपति एथ जी ।ध.७। चित्र लिखित नारी देखी नइ, उपजइ चित्त विकार जी। तिम जिन प्रतिमा देखी जागइ, भक्ति राग अति सार जी ध. जिन प्रतिमा नई जुहारवा जाता, पग थयउ मुझ सुपवित्त जी। मस्तक पण प्रणमंतां माहरउ, सफल थयउ सुविचित जी ध.६। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०६ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि नयन कृतारथ आज थया मुझ, मूरति देखतां प्राय जी। जीभ पवित्र थई वली माहरी, थुणतां श्री जिनराय जी ।ध.१०॥ आज श्रवण सफल थया माहरा, सुगतां जिन गुण ग्राम जी। मन निर्मल थयउ ध्यान घरंता, अरिहंत नउ अभिराम जीध.११॥ श्री अरिहंत कृपा करउ सामी,. मांगू बेकर जोड़ि जी। आवागमन निवार अतुल बल, भवः संकट थी छोडिजी ।ध.१२॥ शासनाधीश्वर तूं मुझ साहिब, चउवीसमऊ जिणचंद जी। इकवीस सहस करस सीम वरते, तीरथ तुम आणंद जीध.१३॥ ॥ क ल श ॥ इस नगर श्री साचोर मंडण, सिंह लंछण सुख करउ । सकलाप सूरति सकल मूरति, मात त्रिशला उरधरउ । संवत सोलह सही सत्योतरइ, मास माह मनोहरउ । वीनबउ पाठक समय सुंदर, प्रकट तूं परमेसरउ ॥१४॥ श्री भोडया ग्राम मण्डन वीरजिन गौतम राग-नट्ट नारायण महावीर मेरुउ ठाकुर । म०। भोड्या ग्रामः भली परइ भेट्यउ, तेज प्रताप प्रभाकर शम सुन्दर रूपा मनोहर मूरति, निरखित हरखित नागर । सिद्धास्थ राय मात त्रिशला सुत,सिंह लांछन सुख सागर ।२। म० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री महावीरदेव श्रीतम् ( २०७ ) तारि तारि तीर्थंकर मोकू, पर उपगारी कृपा कर । समयसुंदर कह तू मेरउ साहिब, हूँ तेरह चरण कउ चाकर । ३ | म० ] श्री महावीर देव गीतम ढाल - १ भलउ रे थयउ म्हारह पूज्य जी पधारया २ भलु रे कीधु सामी नेम कुमार। सामी मुनइ तारउ भव पार उतारउ । साहिब आवागमरण निवारउ, महावीर जी सा० ॥ १॥ श्रांकणी ॥ सामी तुम्हे त्रिभुवन जनना आधार । सेवक नी करउ हिंव सार || महा०|| २ || सामी मोरइ एक तुम्हे अरिहंत देवा । भवि भवि देज्यो पाय सेवा || महा० || ३ || श्री वर्धमान नमु सिर नामी । समयसुन्दर चा स्वामी || महा०||४|| इति श्रीमहावीर देव गीतं सम्पूर्णम् ॥ १७ ॥ -X- श्री महावीर गोतम राम श्रीराग नाचति सुरिश्रम सुर वीर कह भागह कुमरिय कुमर अडोतर सउ रचि भगति जगति प्रभु चरण लागइ ||१ ना०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ताल रवाप मृदंग सब वाजित्र, घृण घृणण पाय घूघरी वागड़ || ( २०८ ) तत् तत् थे थेईथेई पद ठावत, भमरी भमत निज मन के रागइ ||२ ना० ॥ जिन के गुण गावत सुख पावत, भविक लोक समकित जागइ || समयसुन्दर कहह धन सुरियाभ सुर, नाटक कउ फल मुगति मा गइ ||३ ना० ॥ -X:X— श्री महावीर गीतम् हां हमारे वीर जी कुण रमणि एह । पूछति गौतम सामि जी, हमकुं एह सन्देह | १ | हां० । पुलकित तनु मोही रही, आणंद अंगि न माय । दूध पाहुउ झरि रही, सम्मुख ऊभी आय |२| हां० | चित्र लिखित पूतली, न कसइ मेष ललित कमल लोयणी, देखि रही वदति वीर गोयमा, ए हमारी ब्यासी दिवस उरि घरे, त्रिशला के देवादा ब्राह्मणी, ब्राह्मण ऋषभदत । मात पिता मुगति गए, वीर के वचन रत |५| हां० | निमेष । तुम एष | ३ | हां० | Jain Educationa International अम्म । घरि जम्म |४| हां० | For Personal and Private Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री महावीर जिन सुरियाम • टिक गीतम् ( २०६ ) वीर के वचन सुगत ही, हरखे गौतम सामि । समयसुन्दर गुण भाइ, वीर त अभिराम | ६ | हां० | इति श्री ऋषदत्त देवाणंद गीतम् ॥ ४२ ॥ [ लींबड़ी प्रति ] श्री महावीर जिन सुरियाभ नाटक गीतम् नाटक सुर विरचति सुरियाभ । कुमर कुमरी भमरी देवत, वीर कड़ गइ || ईई ईई त थेइ थेई, शब्द भाव भेद उचरति । धृर्मिक टिमक धीधी कटता दों मृदंग वागइ |१| ना० । अद्भुत रचि सोल भृङ्गार उरि, मनोहर मोतिहार । गीत गान कंठि मधुर आलापति चरणि लागइ || इया इया इया सुर की शक्ति, समयसुन्दर प्रभु की भक्ति । स्वर ग्रामे तान मूर्च्छना, स्वर मंडल भान नट गुँड राग | २ | ना० । श्री श्रेणिक विज्ञप्ति गर्भितं श्री महावीर गीतम् राग-कल्याण कृपानाथ तई कुहू नृधर्यउ री । कृ० । श्रेणिक राय वदति महावीर कुं, हमारी वेर क्युं अरज कर्यउ री ॥१॥ क० ॥ प्रतिबोध्यउ, जो तुम्ह कु उरि आइ लर्यो री । ars कोसि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१० ) समयमुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि मेधकुमार नन्दिषेण मुनीसर, आद्रकुमार संजम आदरवउ रा ॥२॥ क०॥ ऋषभदत्त खंधक परिव्राजक, अइमुत्तउ ऋषि मुगतिवर्यउ री। श्री शिवराज महाबल. धनउ, राय उदायन दुक्ख हर्यउ री ॥३॥०॥ पदमनाम तीर्थकर हउगे, वीर कहई तुम्ह काज सर्यउरी । समयसुन्दर प्रभु तुम्हारी भगति तइ, ___ इहु संसार समुद्र तर्यउ री ॥४॥०॥ श्री सुरियाभसुर नाटक दर्शन महावीर गीतम् · राग-सारंग रचति वेप करि विशेष, नयण अंजण नीकि रेख, . ..... नाचति तत तत थेइ थेइ, थोगिणिं थोगिणिं सुन्दरी । २० । कुमर कुमरी अति अनूप, इक शत अठ रचत रूप । वाजति वाजिन सरूप, घृणण घृणण घूघरी । २०१॥ थेइ थेइ थेइ ठवति पाय, वेणु वीणा करि बजाय । .... में में झंझरिय लाय, रणण रणण नेउरी । सुरियाभ सुर करि प्रणाम, मांगति अब मुक्तिधाम । .. समयसुन्दर सुजस नाम, जय जय जय सांमरी । र०।२। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HIN श्री महावीरदेव षट् कल्याणक गर्भित स्तवनम् ( २११ ) श्री महावीर देव षट् कल्याणक गर्भित स्तवनम परम रमणीय गुण रयण गण सायरं, चरण चिंतामणी धरण जण सायरं । सयल संसयहरं सामियं सायरं, ___चरम तीथंकरं थुणिसु हुँ सायरं ॥ १ ॥ दसम सुरलोय थी चविय परमेसरी, मास आसाढ़ सिय छठि गुण सुन्दरो । अवतरचउ उसमदत्तस्स रमणी तणइ, उयरि वरि सरुवरे हंस जिम सवि सुणइ ॥ २ ॥ तत्थ समयंमि सुरराय “आसण चलइ __अवहि नाणेण तसु सव्य संसय टलइ । निरखए भरह खेतंमि तीथंकरो, : अवतरयउ अज्ज माहण कुले जिणवरो ॥ ३ ॥ तयणु सुरराय आएस बसि लसी, ___ संहरइ गम्भ हरिणेगमेसी वसी । . मास आसू कसिण तेरसी निसभरे, अवतरचउ मात त्रिसला तणइ उरवरे ॥ ४ ॥ चैत्र सुदी तेरसी जिणवर जाइउ, राय सिद्धत्थ पाणंद मनि पाइयो । छपन दिस कुंयरी मिलि आवि नृप मंदिरे, . स्नान मजन करइ स्वामि ने बहुपरे ॥ ५ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१२ ) सपयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ॥ ढाल ॥ अवहि नाणि जाणी जिण जम्म, १ ततखिण करिवा निय निय कम्म । आवई सुरपति मनि गह गही, सुर नर लोकां अंतर नहीं ॥ ६ ॥ द्यइ अोसोवणि त्रिसला पासि, जिण पडिबिंब ठवी उलासि । . लेई जायई सुर गिर नइ ,गि, ____ पांडु कंबला नइ उच्छंगि ॥ ७ ॥ आणी नव नव तीरथ तोय, कनक कँभ भरइ सवि कोय । तिम वलि दूध तणा श्रृंगार, स्नान भणी सुर झालइ सार ॥ ८ ॥ कनक कुंभ सुर ढालइ जस्यइ, हरि संसय ऊपन्नउ तस्यइ । अति लहुड़उ ए जिणवर वीर, किम सहस्यइ कलसा ना नीर ॥ ६ ॥ प्रभु हरि संसय भंजन भणी, पग अंगुली चांपई निज तणी । थरहर कांप भूधर राय, महावीर तिहां नाम कहाय ॥ १० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री महावीरदेवषट्कल्याणकगर्भितस्तवनम् ( २१३ ) स्नान करावी विधि नव नवी, जणणी नइ पासइ प्रभु ठवी । सवि सुर जायइ. निय नियठामी, हरख घणउ हियड़ई मांहि पामि ॥११॥ . धण कण कंचण करि अतिघणु, घर वाधइ सिद्धारथ तणु । तिण कारण जिणवर नु नाम, वर्द्धमान प्राप्यु अभिराम ॥१२॥ पालणडइ पउढइ जिणराय, हीडोलइ हरसइ निय माय । गावइ गीत सुरलियामणा, __जिणवर ना लीजइ भामणा ॥१३॥ पगि गूघरड़ी घमका करइ, ठमि ठमि प्रांगणि पगला भरइ । रूपइ जगत्र तणा मण हरइ, पेखंतां पातिक परिहरइ ॥१४॥ ॥ ढाल ॥ जोवन वय जब जिणवर आयउ, नारि जसोदा तब परणायउ; गायउ गुणह उदार । रूप अनोपम जिणवर सोहइ, भवियण लोक तणा मण मोहइ; ओ हइ जगि आधार ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१४ ) समयसुन्दरकृति कुसुमाञ्जलि aisa नी प्रभु अनुमति लेई, दान दयाल संत्रच्छर देई; हे सयल सनेह | मगसिर बदि दसमी दिन सामि, चरण रमणि मनि रंगड़ पामि; चांमीकर सम देह ||१६|| ॥ ढाल ॥ तिहाँ थी करिय विहार, पड़िवोही अहि चंड कोसिय जिणवरू ए । सामि सहइ उवसग्ग, निय सगतिं थकी धरणीधर धीरिम धरू ए ॥ १७॥ शुभ जोगड़ वयसाख, सुदि दशमी दिनह मोह तिमिर भ नासतउ ए । पाम्यउ केवल नाण भाग समोपमः लोयालोय प्रकाशतउ ए ॥ १८ ॥ समवशरण सुरकोड़ि, रच अनोपमाः सामी वइसइ तसु परी ए । सुर नर तिरिय समक्खि, धड़ जिरण देसण; सयल लोय संसय हरी ए ॥ १६ ॥ संचार सुरसार, सरसिज सुन्दर; पाय कमल तलि प्रभु तराइ ए । "सुरवर नी इग कोड़ि, जघन्य तराइ लेखर; सेव करइ हरख घण्उ ए ॥ २० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री महावीर देवषत् कल्याणकगर्भित स्तवनम् ( २१५ ) जिणवर काती मास, वदिहि अमावसी; सिव रमणी रंगड़ वरी ए । गयरांगण सुरसार, वज्ञ्जिय दुन्दुभी; महियलि महिमा विस्तरी ए ॥ २१ ॥ ते नर नारी धन्न, नाम जपइ नित; सामि तथा वलि गुण कहड़ ए । पाम परमाणंद, नव निधि नह सिधि; मन बंछित फल ते लहड़ ए ॥ २२ ॥ ॥ कलश ॥ इय षट् कल्याणक नाम आणी वर्द्धमान जिणेसरो । संधु सामी सिद्धि गामी, पवर गुण रयणायरो ॥ जिचंद पय अरविंद सुन्दर, सार सेवा महुयरो | गणि सकलचंद सुसीस जंप, समयसुन्दर सुहकरो ॥२३॥ इति श्री महावीर देवपटू कल्याणक गर्भित बृहत्स्तवनम् । -0):0:(•— श्रीवीतरागस्तव - छन्दजातिमयम् श्रीसर्वज्ञ जिनं स्तोष्ये, छंदसां जातिभिः स्फुटम् यतो जिव्हा पवित्रा स्यात्, सुकोकोपि भवेद्भुवि ॥ १ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१६ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि - - - - श्रीभगवन्तं भक्त्या, सुरनिर्मितसमवशरणमध्यथम् । देवा देव्यो मनुजा, आर्या मुनयश्च सेवन्ते ॥ २ ॥ कथं नौम्यऽहं तं जिनस्तोतुमीशाः । सभामा सोमराजीव युक्तानेसेन्द्राः (१) ॥ ३ ॥ प्रमुदित-हृदहं स्तुति-गुण-निकरे । मधुकर इव ते मधुमति कुसुमे ॥ ४ ॥ भ्रमति भ्राजमान सुतरां सर्व-लोके ।। तव कीर्ति-विशाला धवला हंस माला ॥ ५ ॥ दृष्टो मया-ऽर्तिहतोभाग्याद्भवं भ्रमता । श्रीवीतराग-जग-च्चूडामणि स्वमहो ॥६॥ शुक्लध्यान-श्रेणी वार्हन्, शुभ्रा दा प्रौढस्फुर्ने । त्वन्मूर्चे का वा पुष्पाणां, रेजे रम्या विद्युत्माला ॥ ७ ॥ भव्यजीवकतभावुकं, पापवृक्षवनपावकम् । साभजित जनत जिन, भद्रिका भवतिया भृशम् ॥ ८ ॥ नायिति त्वां सद्गुणवन्तं, वञ्चित एवासौ गुणवृन्दा। या मधुकत प्राणी भगवन्तं, चम्पकमालायामृतवन्तम् ॥ ६ ॥ क्षोभं नो प्रापयति कदाचित्सान्ते स्वाश्तव गिरिधीर (१)। स्वर्गस्य स्त्री मदमदनेनोत्मचा क्रीड़ा करण विदग्धा ॥१०॥ लोकप्रदीपो किन (१) लोका, पापावलीपंकपयोदनाथ । जीयाअगजन्तुहितप्रदाता, नमेन्द्रवंशाभरण प्रभो त्वं ॥ ११ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वीतरागस्तव छन्दजातिमयम् ( २१७ ) रूप्य-सुवर्ण-सुरत्न मयोच्च ः, वप्र-सुमध्य-चतुर्मुख-मृतः। त्वं जन राजसि मानव-तिर्यग् , दिवस-दोधकर-प्रतिबोधेः ।। १२ ।। मम चेतसि तीर्थकरोस्ति तमो, बद-हप्पति बिम्ब-रुचि-रुदये । अघ-पातक दतरं दयाया (१) सहितोटकरः सुमतेः सुगतेः।१३॥ अहिकुलं गरुडा-गमने यथा, तब जिनेश्वरसंस्तवने तथा । अरिकरिज्वलनानल संभव, द्रत विलवित-मुग्र-भयं भवेत् ।१४। भव-भय-कानन-भेद-कुठारं, रतिपद सुन्दर-रूप-मुदारम् । प्रणमत तीर्थकरं सुखकारं, चरण नभर (१) संतति-सारं ॥१५॥ देवत्वदीय शरणं समुपागतं मां, संसार-सागर-भयादथ रक्ष रक्ष । स्नात भवेषु बहुशः सुख-वृक्ष-लक्ष-वल्ली वसंततिलकात्मकुले कृपालो ॥१६॥ त्रिभुवनहितकर्ता दुःखदावाग्निहर्ता, विषम-विषय-गर्ता संपतत्प्राणिधर्ता। जिनवर जयताचां देहि मे मोक्षतत्त्वं, कलि-गह ? न कृशानो मालिनीहारमानो ॥१७॥ अशरण-शरण-मरण-भय-हरण । सुरपति-नरपति-शिवसुख-करण । जय जिनवर भव-जल-निधि-तरण । गुणमणि-निकर-चरण-मय-धरण॥१८॥ तिमिर-निकर-ध्वंश-सूर्य भवोदधि-तारणम् । हित-सुखकर-भव्य-प्राणि-व्रजा-सुख-वारणम् ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१८ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि तब सववन पीयूषाभं करिष्यति नान्यथा । नरकगतितो नश्येत् प्राणी यथा हरिणी हरेः ॥१६॥ दुःखोत्यादि परिथाति (?) सहने नोत्साहभाजो भृशं । सत्सांसारिक-सौख्य-लक्ष-विषये व्यासक्तिमच्चेतसः॥ संसाराम्बुधि-मजदंगिनिकरोत्तारे समर्थस्तबंतः (१) । साहाय्यं मम देहि संयमविधौ शार्दूलविक्रीडितम् ॥२०॥ ब्रह्माणं केपि देवं पुनरपि गिरिशं केपि नारायणं च । केचिच्छक्तिस्वरूपं पुनरपि सुगतं केचि दल्लाभिधानम् ।। मुग्धाध्यायंत्यहं सद्गुणमणिजलधिं वीतरागं स्मरामि । को वांछेत्काचमाला यदि मिलति माहकांचिनी स्रग्धरायां।२१॥ एवं छंदो जातिभिरभिष्टुतो वीतराग-गुण-लेश । इति वदति समयसन्दरं, इह-पर-जन्मेस्तु जिनधर्मः।२२। श्री शाश्वत तीर्थंकर स्तवनम् शाश्वता तीर्थकर च्यार, समरंतां संपति सुखकार ।१। शा०। वांदू ऋषभानन वर्द्धमान, चन्द्रानन वारिषेण प्रधान ।२। शा०। स्वर्ग मर्त्य अनइ पाताल, त्रिभुवन प्रतिमा नमुँ त्रिकाल।३। शा०। पांचसउ धनुष छइ देह प्रमाण, कंचन वरणी कायाजाण ।४। शा०। अनादि अनंत सहिज नाम ठाम,समयसुन्दर करइ नित परणाम ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसामान्यजिन स्तवनम् ( २१६ ) श्री सामान्य जिन स्तवनम् प्रभु तेरो रूप बण्यौ अति नीको । प्र० । पञ्च वरण के पाट पटम्बर, पेच वण्यो कसत्री को। प्र०।१। मस्तक मुकुट काने दोय कुंडल, हार हियइ सिर टीको। समकित निर्मल होत सकल जन, देख दरस जिनजीको । प्र०१२। समवशरण बिच स्वामी विराजित, साहिब तीन दुनी को। समयसुन्दर कहइ ये प्रभु भेटे, जन्म सफल ताही को । प्र०।३। श्री सामान्य जिन स्तवनम् राग-पूरवी सरण ग्रही प्रभु तारी, अब मंइ सरण । मोह मिथ्यामत दूर करण कँ, प्रभु देख्या उपगारी । अ. स.।१॥ मोह सङ्कट से बौत उबारथा, अब की बेर हमारी । अ. स. २। समयसुन्दर की यही अरज है,चरण कमल बलिहारी। अ.स.।३। श्री अरिहंत पद स्तवनम् . राग-भूगल हां हो एक तिल दिल में आवि तु, करइ करम नउ नाश । अनन्त शक्ति छइ ताहरी. जिम वनहिं दहइ घास ॥ ए.॥१॥ हां हो नाम जपइ हियइ तु, नहीं तउ सिद्धि न होय । साद कीजइ ऊँचइ स्वरे, पण धरइ नहीं कोय ॥ ए० ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२०) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि हां हो एक तूं एक तू दिल धरूँ, नाम पण जपू महि । समयसुन्दर कहइ माहरइ, एक अरिहंत तूंहि ॥ ए० ॥३॥ श्री जिन प्रतिमा पूजा गतिम् राग-केदारा प्रतिमा पूजा भगवंति भाखी रे, मकरउ संका गणधर साखी रे ॥प्र. १॥ द्र पदि न ऊठि नारद देखी रे, - जिन प्रतिमा पूज्यां हरखीरे ॥प्र. २ ॥ प्रतिमा पूजी सुर सुरियाभहरे, रायपसेणीइ अक्षर लाभइरे ॥प्र. ३ ॥ आणंद श्रावक पूजा कीधी रे, गणधर देवे साख ते दीधी रे ॥ प्र. ४ ॥ सोहम सामी भगवती अंगइरे, अक्षर लिपि नइ प्रथमइ रंगहरे ॥प्र० ५ ॥ भद्रबाहु स्वामी कल्प सिद्धान्तहरे, द्रव्य थिवर वंदइ खंतह रे ॥ प्र. ६॥ चमरेन्द्र चित्त मई उपयोग प्राण्यउरे, ___अरिहंत चेइ शरणउ जाण्यउ रे ॥ प्र. ७ ॥ प्रतिमा पूजा श्रावक करणी रे, भवदुख हरणी पार उतरणी रे ॥ प्र. ८॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चपरमेष्ठिगीतम् ( २२१ ) समयसुदर कहइ जोज्यो विचारी रे, प्रतिमा पूजा छइ सुखकारी रे ॥ प्र० ६॥ श्री पंच परमेष्ठि गीतम् राग-परभाती जपउ पंच परमेट्टि परभाति जापं, हरइ दुरि शोक संताप पापं ॥ १ ज० ॥ अठसट्टि अक्षर गुरु सप्तमानं, ... सुख संपदा अष्ट नव पद निधानं ॥२ ज० ॥ महामंत्र ए चउद पूरब निधारं, भण्यउ भगवती सूत्र धुरि तच सारं ।। ३ ज०॥ जपइ लाख नवकार जे एक चित्रं, ___ लहइ ते तीर्थंकर पद पवितं ॥ ४ ज० ॥ कहुँ ए नवकार केतु वखाण, __गमइ पाप संताप पांच सार प्रमाणं (१)।। ५ ज०॥ सदा समरतां संपजइ सर्व कामं, भणइ समयसुंदर भगवंत नामं ॥ ६ ज० ॥ ___ श्री सामान्य जिन गीतम __राग-गुड मल्हार हरखिला सुरनर किन्नर सुन्दर, ... माइ रूप पेखि जिनजी कउ ।११चालि० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२२ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि जिणिंद गुण गनि मन मोयु, जि. समयसुन्दर प्रभुध्याने मन मोयु।म० । सामान्य जिन विज्ञप्ति गीतम् राग-केदारउ जगगुरु तारि परम दयाल । जन्म मरण जरादि दुख जल, भव समुद्र भयाल ।११ ज०। हां हुँ दीन अत्राण अशरण, तूं हि त्रिभुवन भुवाल । स्वामि तेरइ शरणि पायउ, कपा नयण निहालि ।२।बा०। कपानाथ अनाथ पीहर, भव भ्रमण भय टालि । समयसुन्दर कहति सेवक, सरणागत प्रतिपालि ३॥ ज० । श्री सामान्य जिन आंगी गीतम् राग-मारुणी नीकी प्रभु आंगी वणी जो, तांता हो हीयइ हरख न माय। मणि मोतिण हीरे जड़ी, तेजइ हो आंगी झगमगि थाय ।। नी.। बांहि अलिक बहिरखा, काने काने दोय कुण्डल सार । मस्तकि मुगट रयण जड़यउ, हीयडइ हो मोतिण को हार।रानी.। ससि दल भाल तिलक मलउ, नयणे हो नीके कनक कचोल । प्रभु मुख पूनिम चंद्रमा दीपइ, दीपइ हो दरपण कपोल ।३। नी.। मोहन मूरति निरखतां, भागे भागे हो दुख दोहग दूर। समयसुन्दर भगति भणइ, प्रगटे हो मेरे पुण्य पडूर ।४।नी.। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तीर्थकर समवसरण गीतम् ( २२३ ) : श्री तीर्थकर समवशरण गीतम् विहरंता जिनराय, आव्या त्रिभुवन ताय । मिलिया चतुर्विध देवा, प्रभु नी भगति करेवा ॥१॥ विरचइ समवसरणा, भव भय दुख हरणा । त्रिगढउ विविध प्रकार, रूप सोवन वसुसार ॥२॥ च्यार धरम चक्र दीपइ, गगन मंडलि रवि जीपइ अद्भुत वक्ष अशोक, निरखइ भवियण लोक ॥३॥ छत्र त्रय सिरि छाजइ, विहुँ दिसि चामर राजइ । देव दुदुमी प्रभु वाजइ, नादइ अंबर गाजइ ।।४।। जानु प्रमाण पुष्प वष्टि, विरचइ समकित दृष्टि । ऊंची इन्द्रधज लहकइ, प्रभु जस परिमल महकइ ॥५॥ सिंहासनि प्रभु सोहइ, त्रिभुवन ना मन मोहह। भामंडल प्रभु भासइ, चिहुँ मुखि धर्म प्रकासइ ।। ६॥ बइठी परषद बार, सांभलइ धरम विचार । निज भव सफल करंति, हियइ हरख धरति ॥७॥ धन ते श्रावक जाण, तेहन जीव्यु प्रमाण । समवसरण जे मंडावइ, पुण्य भंडार भरावा ॥८॥ एहवं जिनवर रूप, सुंदर अतिहि सरूप । जोवंतां दख जायइ, आणंद अंगि नः माय ।।६॥ चिंता आरति चूरः, श्री संघ वांछित पूरइ । जिनवर जगत्र आधार, समयसुन्दर सुखकार ॥१०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि चत्तारि-अह-दस-दोयपदविचारगर्भितस्तवनम् जिनवर भत्ति समुल्लसिय, रोमंचियनिय अंग । नाना विधि करि वरणयु, आणी मनि उछरंग ॥१॥ चार अट्ठ दस दोय जिन, वर्तमान चउवीस । अष्टापद प्रतिमा नमू, पूरूँ मनह जगीस ॥२॥ च्यार करीजइ अष्ट गुण, दस वलि दुगुणा हुति । नंदीसर बावन भुवन, सुरवर खयर नमंति ॥ ३ ॥ चत्त-अरि चत्तारि तिके, अट्ठ अनइ दस दोय । विहरमान जिन वीस इम, समरंतां सुख होय ॥४॥ अरि गंजण चचारि तिम, दस गुण कीजइ अष्ट । ते वलि दुगुणा सहि सम, वन्दं विजय विशिष्ट ॥ ५॥ चार अनइ अठ बार जिन, दस गुण दुगुणा सार। विसय चालीस नमूसयल, भर हैरवय मझार ॥ ६॥ चार अनुत्तर गेविज, कप्पिय जोइस जाणि । अठ वलि व्यंतर प्रतिमा, दस भुवणेसर ठाणि ॥७॥ दो सासय पडिमा, महियलि जिन चौवीस । त्रिभुवन माहि प्रशंसिय, नाम जपू निशदीस ॥८॥ अठ अनइ दस दोय मिलिय, हुन्ति अठारह तेह। चार गुणा बहुतरि सयल, त्रण चउवीसी एह ॥६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्तारि-अटु-दस-दोय पद विचार गर्भित स्तवनम ( २२५ ) चउ चउगुणिये सोलहुय, अठ अठ गुणि चउसहि। दस दस गुणिया एकसउ, अद्विसयं परमहि ॥१०॥ दो उकिट्ट जहन्न पय, सत्तरि सय दस दिट्ट । पायकमल सवि प्रणमतां, दुख दोहग सवि नट्ठ ॥११॥ पूर्व विधि सहु एक सय, दुगुणा तिण सयसहि । पंच भरत जिन प्रणमियइ, त्रिण चउवीसि इगट्ठ ॥१२॥ चार गणा दस अंक किय,अठ सय चालीस आणि । पंच विदेहे खय दुग, तिरह काल जिन जाणि ॥१३॥ चार नाम जिन सासताए,अठ चउ अरय दु वंदि । दस ठवणारिय नरय सुर, गइ आगय दुय भेदि ॥१४॥ चउ अठ दस बावीस इम, वंश इक्खाग जिणंद । जग गुरु जग उद्योत कर, दो हरि वंश दिणंद ॥१५॥ अष्टापद गिरनार गिरे, पावा चंप चत्तारि । अठ दस दोय समेत शिखर सिद्ध नमूसुखकार ॥१६॥ ॥ कलश ॥ इम थुण्या अरिहंत शास्त्र सम्मत, करिय तेरइ प्रकार ए। चत्तारि अठ दस दोय वंदिय, पद तणइ विस्तार ए। जिनचंद बंदन सकल चंदन, परम आणंद पाम ए। कर जोड़ि वाचक समयसुंदर, करइ नित परणाम ए॥१७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ०२६ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि इति श्रीचत्तारिअहदसदोयवदिया- इति पदविचारगर्भित सर्वतीर्थंकरबृहत्स्तवनम् ॥ श्रीजेसलमेरसंघसमभ्यथेनया कृत संपूर्णम् ॥ १७ प्रकार जीव अल्प बहुत्व गार्भत स्तवनम् अरिहंत केवल ज्ञान अनन्त, भव दुख भंजण श्री भगवंत । प्रणमुबेकर जोड़ी पाय, जनम जनम ना पातक नाय ॥१॥ मेरु मध्य आकाश प्रदेश, गोस्तनाकार रुचक समदेश । तिहां थी चारे दिशि नीसरी, शकट ऊधि सरिखी विसतरी॥२॥ सूक्षम जीव पांचा ना भेद, ते चिहुँ दिशि सरिखा ध्र वेद । अल्प बहत्त्व कहुँ बादर तणा,किण दिशिथोड़ा किण दिश घणा ।। जिहां बहु पाणी तिहां जीव बहु, वनस्पति विंगलादिक सह । कृष्ण पक्षि बहु दक्षिण दिशे, एहयु तीर्थकर उपदिशे ॥४॥ ढाल दूसरी-श्राव्यउ तिहां न(हर एहनी. सामान्य पणे पश्चिम दिशि थोड़ा जीव, । पूर्व दिशि अधिका तिहां, नहीं गौतम दीव ॥ दक्षिण अधिका नहीं, शशि रवि गौतमकोइ । उत्तर दिशि अधिका, मान सरोवर होई ॥५॥ मान सरोवर तिहां छइ मोटउ, तिण तिहां अधिकउ पाणी । जिहां पाणी तिहां वनस्पति, बहु विगल सख्यादिक जाणी ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ प्रकार जीव अल्प बहुत्व गर्भित स्तवनम् ( २२७ ) संख कलेवर कीटी बहुली, कमले भमर भमंत । जलचर जीव मच्छ पिण बहुला, अरिहंत इम कहत॥६॥ दक्षिण नै उत्तर थोड़ा माणस सिद्ध । तेउ पिण थोड़ा, केवल निश्चय किद्ध ॥ पूरब दिशि अधिका, मोटो महाविदेह । पश्चिम दिशि अधिका, अधो ग्राम छै एह ॥७॥ अधोग्राम अधिका तिण त्रिरहे, अधिका जीव कहीजै सिद्ध आकाश प्रदेश सीझै, तिण प्रदेश रहीजै ।। सिद्ध शिला उपरि जोयण नै, चौवीसमंइ ते भागे। सिद्ध रहइ तिण ठाम अनंता, अलोक छइ ते आगै ॥८॥ वाउ काय तिणो हिवइ, अल्प बहुत्व कहिनाय । जिहां घन तिहां थोड़ो सुखिर तिहां बह वाय ॥ पूरब थोडी वाय नहीं पोलाड़ि प्रदेश । पश्चिम दिशि अधिकउ, अधो ग्राम सुविशेष ॥३॥ अधोग्राम सुविशेषइ, अधिकउ तेहथी उत्तर जाण । नारक भवन तणा आवास तिहां छइ बहु परिणाम ॥ तिहां थी दक्षिण दिशि ते अधिका तिण बहु वायु कहीजे । पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण,अनुक्रम अधिक लहीजै ॥१०॥ हिव अल्प बहत्त्व कहुँ नारक जीव नउ एह । पूरब पश्चिम उत्तर दिशि सरिखउ तेह ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२८ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि दक्षिण दिक्षि अधिका, असंख्यात गुण एह । तिहां पुष्फावकीरण, नारिक ना बहु गेह ॥११॥ नारकी ना बहु गेह तिहां छइ,असंख्यात गुण पहुला। दक्षिण दिशिभगवन्तइ भाख्या,कृष्ण पक्षी पिण बहला ॥ कुण जाणे एजीव घणा किहां, थोड़ा पणि किण ठामइ । वीतराग ना वचन तहत्ति करि, मानीजइ हित कामइ ॥१२॥ ढाल ३ बेकर जोड़ी ताम-एड्नी पृथ्वीकाय ना जीव दक्षिण दिशि, थोड़ा नरकावास भवन घणा ए। भवन नइ नरकावास ते थोड़ा तिणइ, अधिका उत्तर दिशि तणाए ॥१३॥ लवण मंइ शशि रवि द्वीप तिण पूरब दिशि, पृथ्वी जीव अधिक कह्या ए। अधिकउ गोतम द्वीप पश्चिम दिशि काउ, तिण अधिका जीव सद्दह्या ए॥१४॥ पूरब पश्चिम जाण भुवन पति देव थोड़ा, ___ भवन थोड़ा तिहां ए। उत्तर अधिक असंख दक्षिण ते थकी, बहु बहु भवन अछइ इहाए ॥१५॥ पूरब नहीं पोलाड़ि थोड़ा व्यंतर अधिक, अधोग्राम पश्चिमइ ए । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ प्रकार जीव अल्प बहुत्व गर्भित स्तवनम ( २२६ ) - ऊत्तर दक्षिण एम अधिक अधिक कह्या, नगर अधिक छइ अनुक्रमइ ए॥१६॥ पूरब पश्चिम सम बेउ ज्योतिषी, देवता थोड़ा ते दीपइ रहइ ए । दक्षिण अधिक विमान कृष्ण पक्षी बहु, ___ अधिक तिण अरिहंत कहइ ए ॥१७॥ उत्तर अधिक विशेष मान सरोवर, . क्रीड़ा करण आवइ इहां ए। देखी मच्छ विमान जाति स्मरण, नियाणउ करि हुइ तिहां ए ॥१८॥ प्रथम चार देवलोक ते थोड़ा कह्या, पूर्व पच्छिम सरखा सह ए। उत्तर अधिक विमान पुष्पावकीरण, दक्षिण कृष्ण पक्षी . बह ए ॥१६॥ पांचमा थी आठ सीम थोड़ा तिहुँ दिशे, तिहां विमान सरिखा कह्या ए। दक्षिण अधिका देव कृष्ण पक्षी बहु, समकित धारी सद्दह्या ए ॥२०॥ ऊपरलै देवलोक सर्वार्थ सिद्ध सीम, चिहुँ दिशि सरखा देवता ए। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३०) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि उपजइ एथ मनुष्य तप संयम करी, सुख भोग वै ध्रम बेवता ए ॥२१॥ ॥ कलश ॥ इम अल्प बहुत्व विचार चिहुँ दिशि, सतर भेद जीवां तणउ । श्री पनवणा सूत्र पदे तीजे, तिहां विस्तार छइ घणउ ॥ मंइ तुम्ह वचने स्तवन कीधौ, समयसुंदर इम भणइ । मुझ कृपा करि वीतराग देव तु, जिम देखू परतिख पणइ ॥२२॥ - - गति आगति २४ दण्डक विचार स्तवनम् श्री महावीर नमूकर जोड़ि, दण्डक मांहिं फेरा छोड़ि । चउचीसी दण्डक ना ए नाम, गति आगति करवाना ए ठाम ॥१॥ नारिक साते दंडक एक, असुरादिक ना दस प्रत्येक । पृथ्वी पाणी अग्नि नइ वायु, वनस्पति बलि पांचमी काय ॥२॥ ति चउरिन्द्री गर्भज वली, नर तिर्यंच कहा केवली। भवण जोतिष वैमानिक देव, चउवीस दंडक ए नित मेव ॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गति आगति २४ दण्डक विचार स्तवनम् ( २३१ ) नारक मरि नइ तिथंच थाई, नरक गति नर तिथंच जाइ । असुरादिक दसनी गति एह, भू पाणी प्रत्येक वनस्पति जेह ॥४॥ तियंच मनुष्य मंइ उत्पत्ति जोइ, आगति मनुष्य तिर्यच नी होई। भूजल अग्नि पवन वण पंच, विति चउरिन्द्री नर तिरजच ॥॥ ए दश पृथ्वी ना गति नादीश, आगति नारकि विण ते वीस । जिम पृथ्वी तिम पाणी तणी, गति आगति बोले जग धणी ॥६॥ नर विण अग्नि नी गति नवपदे, आगति दस विघटै नवि कदे। जिम अग्नि तिम जाणउ वायु, गति आगति बेहुँ कहिवाय ॥७॥ पृथ्वी प्रमुख दसे दंड के, वनस्पति नी गति छइ तिके । आगति नारक विण तेवीस, दंडक बोल्या श्री जगदीश ॥८॥ बे ते चउरिन्द्री दंडक त्रिहुं, गति आगति दस बोलनी कहुँ। गति आगति गर्भज तिर्यच, चउवीस दंडक सगले संच ॥६॥ गर्भज मनुष्य चउवीस नइ सिद्धि, अगनि वाय आगति प्रतिषिद्धि । वण ज्योतिष वैमानिक तणी, गति गर्भज नर तिर्यच भणी।१०। वली भूदग वण प्रत्येक सही, आवै नर नइ तिथंच वही। जीव तणी गति आगति कही, भगवंत भाखै संदेह नहीं ।११, चौवीस दंडक नगर मझार, हूँ भम्यउ देव अनंती वार । दुख सहिया त्या अनेक प्रकार, ते कहितां किम आवै पार ॥१२॥ वीनति करू ए वारंवार, स्वामी आवागमण निवार । भगवती सूत्र तणइ अनुसार, समयसुन्दर कहै एह विचार ।१३। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३२ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि श्री घंघाणी तीर्थ स्तवनम ढाल १-प्रभु प्रणमुरे पास जिणेसर थंभयो पाय प्रणमूरे पद पंकज प्रभु पासना, गुण गाइस रे मुझ सन सूधी आसना । घंघाणी रे प्रतिमा प्रगट थई घणी, तसु उत्पत्ति रे सुणजो भविक सुहामणी ॥ सुहामणी ए वात सुणजो, कुमति शंका भांजस्यै। निर्मलोथास्यै शुद्ध समकित, श्री जिन शासन गाजस्यै॥ ध्रम देश मण्डोवर महा, बल सूर राजा सोहए। तिहां गाम एक अनेक थानक, घंधाणी मन मोहए ॥१॥ दुधेला रे नाम तलाव छै जेहरउ, तसु पूठइ रे खोखर नामइ देहरउ । तसु पाछै रे खिणंता प्रगव्यउ मुंहरौ, परियागत रे जाण निधान प्रगट्यो खरउ ।। प्रगट्यउ खरउ भूहरउ, तिण मांहि प्रतिमा अति भली। जेठ सुदी इग्यारस सोल बासठ, बिंब प्रगट्यउ मन रली। केतली प्रतिमा केहनी वलि, किण भराव्यउ भावसँ । ए कउण नगरी किण प्रतिष्ठी, ते कहुँ प्रस्ताव सँ ॥२॥ - ते सगली रे पैंसठ प्रतिमा जाणियइ, जिन शिवनी रे सगली विगत वखाणियह। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री घंधाणी तीर्थ स्तवनम् (२३३ ) मूलनायक रे श्री पद्म प्रभू पासजी, इक चौमुख रे चौवीसटउ सुविलास जी ।। सुविलास प्रतिमा पास केरी, बीजी पणी ते वीस ए। ते मांहि काउसग्गिया बिहुं दिशि, बेउ सुन्दर दीसए । वीतरागनी चउवीस प्रतिमा, वली बीजी सुन्दरु । सगली मिली नै जैन प्रतिमा, संतालीस मनोहरु ॥३॥ इन्द्र ब्रह्मा रे ईसर रूप चक्रेश्वरी, इक अंबिका रे कालिका अर्द्ध नाटेश्वरी । विन्यायक रे जोगणी शासनदेवता, पासे रहइ रे श्री जिनवर पाय सेवता ॥ सेरिता प्रतिमा जिण भरावी, पांच पृथ्वी पाल ए। चन्द्रगुप्त संप्रति बिन्दुसार, अशोकचन्द्र कुणाल ए॥ कंसाल जोड़ी धूप धाणौ, दीप संख भृगार ए। त्रिसठिया मोटा तदा काल ना, एह परिकर सार ए ॥४॥ .. ढाल-दूसरी मूलनायक प्रतिमा भली, परिकर अभिराम ।। सुन्दर रूप सुहामणउ, श्री पद्म प्रभु स्वाम ॥१॥ श्री पदम प्रभु सेवियइ, पातक दूरी पुलावइ । नयणे मूरति निरखतां, समकित निर्मल थावह ॥२॥ आर्य सुहस्ती सूरीश्वरू, आगम सुत विवहार । भोजन रंक भणी दियउ, लीधउ संयम भार ॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३४ ) समयसुन्दरकृतिकसुमाञ्जलि उज्जनी नगरी धनी, ते थयउ संप्रति राय। जातिस्मरण जाणियउ, ए रिद्धि पुण्य पसाय ॥४॥ पुण्य उदय प्रगट्यउ घणउ, साध्या भरत त्रिखण्ड । जिण पृथ्वी जिन मंदिरे, मण्डित कीधी अखण्ड ॥शा वलि तिण गुरु प्रतियोधियो, थयउ श्रावक सुविचार । मुनिवर रूप करावियउ, अनार्य देश विहार ॥६॥ बेसै तिड़ौत्तर वीर थी, संवत प्रबल पडूर । पद्म प्रभु प्रतिष्ठिया, आर्य सुहस्ती सूरि ॥७॥ माह तणी सुदि आठमी, शुभ मुहूरत विचार । ए लिपि प्रतिमा पूठे लिखी, ते वांची सुविचार ॥८॥ ढाल-तीजी मूलनायक प्रतिमा वली, सकल सुकोमल देहो जी। प्रतिमा श्वेत सोना तणी, मोटो अचरज एहो जी ॥१॥ अर्जुन पास जुहारिया, अर्जुन पुरि सिणगोरो जी । तीर्थकर तेवीसमउ, मुक्ति तणउ दातारो जी ॥२॥ १० ॥ चन्द्रगुप्त राजा थयउ, चाणिक्यइ दीधउ राजो जी। तिण ए विंब भरावियउ, सारचा उत्तम काजो जी ॥३॥०॥ महावीर संवत थकी वरस, सतर सउ वीतो जी। तिण समै चवद पूरव धरू, श्रुत केवलि सुविदीतो जी ॥४॥०॥ भद्रबाहु सामी थया, तिण कीधी प्रतिष्ठो जी। आज सफल दिन माहरउ, ते प्रतिमा मंइ दीठो जी ॥शा अ०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री घाणी तीर्थ ढाल - चौथी मोरो मन तीरथ मोहियउ, मंह भेट्यउ हो पदम प्रभु पास । मूलनायक प्रतिमा भली, प्रणमंता हो पूरे मननी आस । १ मो. । जूना बिंब तीरथ नवौ ए, प्रगट्या हो मारवाड़ मकार | धंघाणी अजुन पुरी, नाम जाणौ हो सगलउ संसार | २ मो. संघ आवै ठाम ठाम ना, वलि आवै हो इहां वर्ष अठार | . स्तवनम् ( २३५ ) यात्रा करइ जिनवर तणी, तिण प्रगट्या हो तीरथ अतिसार । ३ मो. । Jain Educationa International श्री पद्म प्रभु पास जो, ए बेहूँ हो मूरति सकलाप । स्वम देखाड़े समरतां, तिरण बध्या हो तसु तेज प्रताप | ४ मो. | महावीर वारां तणी ए, प्रगटी हो प्रतिमा अतिसार । जिन प्रतिमा जिन सारखी, को संका हो मत करजो लगार । ५ मो. । संवत सोल बासठ समई, जात कीधी हो मंह माह मकार । जन्म सफल थयउ माहरउ, हिव मुझ नई हो सामि पार उतार | ६ मो. ॥ कलश ॥ हम श्री पदमप्रभु पास सामी, धुण्या सुगुरु प्रसाद ए । मूलगी अजुनपुरी नगरी, वद्धमान प्रसाद ए ॥ गच्छराज श्री जिन चंद्र सूरि, श्री जिन सिंह सूरीसरो । गणि सकलचंद्र विनेय वाचक, समयसुन्दर सुखकरो ॥७॥ इति श्रीषंभाणी तीर्थ स्तोत्र स्तवनम् For Personal and Private Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दर कृति कुसुमाञ्जलि श्री ज्ञान पंचमी बृहत्स्तवनम् ढाल १-- गौड़ी मंडण पास एहनी प्रणम् श्री गुरु पाय, निरमल न्यान उपाय | पांचमि तप भणु ए, जनम सफल गणु ए ॥ १ ॥ चवीसमउ जिण चंद, केवल न्यान दिद । त्रिगटर गह गहह ए, भवियण नइ कहइ ए ॥ २ ॥ न्यान बड़उ संसार, न्यान मुगति दातार । न्यान दीवउ काउ ए साचउ सरदह्यो ए ॥ ३ ॥ न्यान लोचन सुविलास, लोकालोक प्रकास । न्यान बिना पसू ए नर जागs किस ए ॥ ४ ॥ afts राधक जाणि, भगवती सूत्र प्रमाण । ज्ञानी सर्व तह ए, किरिया देस तइ ए ॥ ५ ॥ न्यानी सासो सास, करम करइ जे नास । नारकि नह सही ए, कोड़ि वरस कही ए ॥ ६ ॥ ( २३३ ) अधिकार, बोल्यउ सूत्र मकार । न्यान त किरिया छह सही ए, पणि पछह कही ए ॥ ७ ॥ किरिया सहित जउ न्यान, हुयइ तर अति प्रधान । सोनउ नइ सुहृत ए, सांख दूधइ भरघउ ए ॥ ८ ॥ महानिशीथ मकार, पांचमि अक्षर सार । भगवंत भाखिया ए, गरणवर साखिया ए ॥ ६ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ज्ञान पंचमी बृहत्स्तवनम् (२३७ ) ढाल २--- काजहरा नी, बे बांधव बंदण चल्या, एहनी पांचमि तप विधि सांभलउ, पामउ जिम भव पारो रे। श्री अरिहंत इम उपदिसइ, भवियण नइ हित कारो रे । पा.१० मगशिर माह फागुण भला, जेठ आसाढ़ वइसाखो रे । इण पट मासे लीजियइ, सुभ दिन सद गुरु साखो रे । पा.११॥ देव जुहारी देहरइ, गीतारथ गुरु वांदी रे। पोथी पूजइ न्यान नी, सकति हुबइ तउ नांदी रे। पा.१२॥ बे कर जोड़ी भाव सु, गुरु मुखि करइ उपवासो रे। पांचमि पड़िकमणु करइ, पढइ पंडित गुरु पासो रे । पा.१३॥ जिणि दिन पांचमि तप करइ,तिण दिन प्रारंभ टालइ रे। पांचमि तवन थुइ कहइ, ब्रह्मचरिज पणि पालइ रे । पां.।१४। पांच मास लघु पंचमी, जाव जीव उत्कृष्टी रे।। पांच वरस पांच मास नी, पांचमी करइ सुभ दृष्टी रे। पां.१५॥ ढाल ३----पाय पणमी रे जिणवर नइ सुपसाउलइ, एहनी हिव भवियण रे पांचमि उजमणउ सुणउ, . घर सारू रे वारु धन खरचउ घणउ । ए अवसर रे आता वली दोहिलउ, पुण्य योगइ रे धन पामंता सोहिलउ । सोहिलउ धन वलि पामतां, पणि धरम काज किहां क्ली । पंचमी दिन गुरु पासि अवि, कीजियइ कारसग रली॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३८) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि - त्रिण ज्ञान दरसण चरण टीकी, देई पुस्तक पूजियइ । थापना. पहिली पूजि केसर, सुगुरु सेवा कीजियइ ॥१६॥ सिद्धांत नी रे पांच परति वीटांगणा, पाँच पूठा रे मुखमल सूत्र प्रमुख तणा। पांच दोरा रे लेखणि पांच मसीजणा, वास कँपी रे कांबी वारू वरतणा।। वरतणा वारू बलिय कमली, पांच झलमलि अति भली। थापनाचारिज पांच ठवणी, मुंहपती पुड़ पाटली ॥ पट सूत्र पाटी पांच कोथलि, पांच नउकरवालि ए। इण परि श्रावक करइ पांचमि, उजमणुं उजुयालिए ॥१७॥ वलि देहरइ रे स्नात्र महोछव कीजियइ, वित सारू रे दान वलि तिहाँ दीजियइ । प्रतिमा नह रे आगलि ढोणउ ढोइयइ, पूजा नां रे जे जे उपग्रण जोइयइ ।। जोइयह उपग्रण देव पूजा, काजि कलस भिंगार ए। . आरती मंगल थाल दीवउ, धूप धाणउ सार ए ॥ घनसार केसर अगर सूकड़ि, अंगलूहण दीस ए। पांच पांच सगली वस्तु ढोवइ, सगति सहु पंचवीस ए ॥१८॥ पांचमिता रे साहमी सवि जीमाड़ियइ, राती जागइ रे गीत रसाल गवाड़ियइ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ज्ञान पंचमी वृहत्स्तवनम् (२३६ ) इण करणी रे करतां न्यान आराधियइ, न्यान दरसण रे उत्तम मारग साधियह ॥ साधियह मारग एणि करणी, न्यान लहियइ निरमलउ । सुरलोक नइ नर लोक माहइ, न्यानवंत ते आगलउ ।। अनुक्रमइ केवल न्यान पामी, सासतां सुख ते लहह । जे करइ पांचमि तप अखंडित, वीर जिणवर इम कहइ ॥१६॥ ॥ कलश ॥ गउड़ी राग-- इम पंचमी तप फल प्ररूपक, वर्द्धमान जिणेसरो । मई थुण्यउ श्री भगवंत अरिहंत अतुलबल अलवेसरो ।। जयवंत श्री जिण चंद सूरज, सकलचंद नमंसिउ । वाचनाचारिज समय सुन्दर, भगति भाव प्रसंसिउ ॥२०॥ इति श्री ज्ञानपंचमीतपोविचारगर्भितं श्रीमहावीरदेववृहत्स्तवन सम्पूर्ण कृतं लिखितं च संवत १६६६ वर्षे ज्येष्टे ज्ञानपंचम्यां ॥ ज्ञान पंचमी लघु स्तवनम् पांचमि तप तुमे करो रे प्राणी, निरमल पामो ज्ञान रे। पहिलु ज्ञान नइ पाछह किरिया, नहिं कोई ज्ञान समान रे पां०१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४०) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि नंदी सूत्र मई ज्ञान वखाण्यउ, ज्ञान ना पांच प्रकार रे। मति श्रुति अवधि अनइ मन पर्यव, केवल ज्ञान श्रीकार रे ।पां० २। मति अठावीस श्रुति चउदे वीस, अवधि छह असंख्य प्रकार रे । दोय भेद मन पर्यव दाख्यउं, केवल एक प्रकार रेप०३। चंद सूरज ग्रह नक्षत्र तारा, तेसू तेज आकास रे।। केवल ज्ञान समउ नहीं कोई, लोकालोक प्रकास रे पां.४। पारसनाथ प्रसाद करी नइ, माहरी पूरउ उमेद रे। समयसुंदर कहइ हूँ पण पामू, ज्ञान नो पांचमउ भेद रे पां.॥ .. मौन एकादशी स्तवनम् समवसरण बइठा भगवंत, धरम प्रकासइ श्री अरिहंत । बारे परषदा बइठी जुड़ी, मगसिर सुदि इग्यारस बड़ी ॥१॥ मल्लिनाथ ना तीन कल्याण, जनम दीक्षा नइ केवल ज्ञान । अर दीक्षा लोधी रूबड़ी, मिगसर सुदि इग्यारस बड़ी ॥२॥ नमि नइ उपनू केवन ज्ञान,पांच कल्याणक अति परधान । ए तिथिनी महिमा एवड़ी, मिगसर सुदी ग्यारस बड़ी ॥३॥ पांच भरत ऐरवत इम हीज, पांच कल्याजक हुवे तिम हीज। पंचास नी संख्या परगड़ी, मिगसर सुदी ग्यारस बड़ी ॥ ४ ॥ अतीत अनागत गिणतां एम, दोढ सै कल्याणकथाये तेम। कुण तिथि छह ए तिथि जेवड़ी, मिगसर सुदी ग्यारस बड़ी ॥५॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौन एकादशी स्तवनम् ( २४१ ) अनंत चौवीसी इण परिगियो, लाभ अनंत उपवासां ताउ । ए तिथि सहु तिथि सिर राखड़ी, मिगसर सुदी ग्यारस बड़ी ॥ ६ ॥ Ata yes रह्या श्री मल्लिनाथ, एक दिवस संजम व्रत साथ । मौन ती परिव्रत इम पड़ी, मिगसर सुदी इग्यारस बड़ी ॥ ७ ॥ ठहरी पोसउ लीजियह, चउ विहार विधि सँ कीजियइ । पण परमाद न कीज घड़ी, मिगसर सुदी इग्यारस बड़ी ॥ ८ ॥ वरस इग्यार कीजइ उपवास, जाव जीव पणि अधिक उलास । ए तिथि मोक्ष तणी पावड़ी, मिगसर सुदी इग्यारस बड़ी ॥ ६ ॥ उजमरणू' कीजइ श्रीकार, ज्ञान ना उपगरण इग्यार इग्यार । करो काउसम्म गुरु पाये पड़ी, मिगसर सुदी इग्यारस बड़ी ॥ १० ॥ देहरे स्नात्र करीजे वली, पोथी पूजीजइ मन रली । मुगति पुरी कीजह दूकड़ी, मिगसर सुदी इग्यारस बड़ी ॥११॥ मौन इग्यारस म्होटो पर्व, श्राराध्यां सुख लहिया सर्व । व्रत पचखाण करो आखड़ी, मिगसर सुदी इग्यारस बड़ी || १२ || जेसल सोल इक्यासी समइ, की स्तवन सहू मन गमइ । समय सुन्दर कहह करउ घ्याहड़ी, मिगसर सुदि इग्यारस बड़ी ॥ १३ ॥ श्री पर्यूषण पर्व गीतम् राग - सारंग भल आये, पर्युषण पर्व री भलइ आये । जिन मंदिर मादल धौंकार, पूजा स्नात्र मंडाए । प० । १ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४२ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि सामायक पोसह पडिकमणा, धर्म विशेष कराए। साहमी भोजन भगति महोच्छव, दिन दिन होत सवाए । प०१२। गीतारथ गुरु गुहिर गंभीर सरि, कल्प सिद्धांत सुणाए। नर भव सफल किए नर-नारी, समयसुन्दर गुण गाए । प०३। श्री गेहिणी-तप स्तवनम् रोहिणी तप भवि अादरो रे लाल, भव भमतां विश्राम हितकारी रे । तष विण किम निज प्रातमा रे लाल, . शुद्ध न थाय मन काम हितकारीरे। रो०१॥ दुरगंधा भव आदरयो रे लाल, - जपियो वलि नवकार हितकारी रे। तिहां थी रोहिणी ऊपनी रे लाल, मघवा कुल जयकार हितकारी रे । रो०२। चित्रसेन मन भावती रे लाल, सुख गमता निसदीस हितकारी रे । वासपज्य जिन बारमउ रे लाल, समवसरथा जगदीस हितकारी रे। रो०३। चित्रसेन वलि रोहिणी रे लाल, आठ पुत्र सुखकार हितकारी रे । दीक्षा जिन हाथ मुंलइ रे लाल, संयम झू चितधार हितकारी रे । रो०।४। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपधान गीतम् ( ०४३ ) करम खपाय मुगते गया रे लाल, धन धन रोहिणी नार हितकारी रे। समयसुन्दर प्रभु वीनवे रे लाल, ___ तप थी शिव सुखसार हितकारी रे। रो। उपधान ( गुरु वाणो ) गीतम वाणि करावउ गरु जी वाणि करावउ, पूज जी अम्हे आया तुम्ह पासि । म्हारा।१। कपूर कस्तूरी परिमल जास, सखर सुगंध आए घउ वास । म्हारा ।२। आपणइ मुखि मुझ वाचना देयउ,, . मान तणउ लाभ लेयउ । म्हारा ।३। गुरु पग पूजू ज्ञान लिखा, गीत मधुर. सरि गाऊं । म्हारा ।।। बिहु वीसड़ नी बेबे वाणि, छकड़ चउकड़ नी एक जाणि । म्हारा।। पांत्रीसड़े अठावीसड़ बिहुतप केरी, . त्रिण . नवाणि करउ मेरी ।म्हारा ।६। श्रीपूज्य जी नइ वांदूं कर जोडि, ... माल पहिरवानउं मुंनइ कोड़ि ।म्हारा ।७। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४४) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जाल माल पहिरयां मुझ किरिया सूझड़, चतुर हुयह ते प्रतिबूझह ।म्हारा ।। समयसुन्दर कहइ उपधान वहियइ, मुगति तणा मुख लहियइ । म्हारा ।।। उपधान तप स्तवनम् ढाल-एक पुरुष सामल सुकलीणउ, एहनी. श्री महावीर धरम पर कासइ, बइठी परखद बारजी । अमृत वचन सुनइ अति मीठा, पामइ हरख अपार जी ॥१॥ सुणो सुणो रे श्रावक उपधान वूहां, बिन किम सूझइ नवकारजी। उत्तराध्ययन बहुश्रुत अध्ययन, एह भण्यउ अधिकार जी ।२। सु.। महानिशीथ सिद्धांत मांहे पणि, उपधान तय विस्तार जी। अनुक्रमि सुद्ध परंपरा दीसइ, सुविहित गच्छ आचार जी।३। सु.। तप उपधान वहां विण किरिया, तुच्छ अल्प फल जाण जो। जे उपधान वहइ नर नारी, तेहनउ जनम प्रमाण जी।४।सु.। सूत्र सिद्धांत तणा तप उपधान, जोग न मानइ जेह जी। अरिहंत देव नी आण विराधइ, भमस्यइ बहु भव तेह जी।। सु.। अघड्या घाट समा नर नारी, विण उपधानह होइ जी। किरिया करतां श्रादेस निरदेस, काम सरइ नहीं कोइ जी।६। सु.। एक घेवर वलि खांड सु भरियउ,अति घणउ मीठउ थाय जो ७। सु.। एक श्रावक नइ उपधान वहइ तउ, धन धन ते कहिवाय जी।। सु.। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल २ उपधान तप स्तवनम् ( २४५ ) हे पोस पढम पखि दसमी निसि जिए जायउ, एहनी. न उकार त उ तप पहिलउ वीसड़ जाणि, इरियावही नउ तप बीजउ वीस आणि । इण बिहुं उपधाने निलय नांदि मंडारा, बारे उपवासे गुरु मुखी बेबे वाणि || ८ || पांत्रीसड़ त्रीजउ गमुत्थूणं उपधान, त्रि एह वायण उगणीस तप उपधान | प्रधान अरिहंत चेइत चउथउ कटु एह, उपवास अढाई वाणि एक गुण गेह ॥ ६ ॥ पांचमउ लोगस वय अट्ठावीस नाम, साढा पनरह उपवास वायण त्रिण ठाम । पुक्खर वरदी तप छट्ठउ छकड़ सार, साठा त्रि उपवास वाण एक सुविचार ||१०|| सिद्धाणं बुद्धाणं सातमउ उपधान माल, " उपवास करइ एक चउविहार ततकाल । एक वाणी कर वलि गुरु मुखि सरल रसाल, गच्छ नायक पासइ पहिरइ माल विसाल || ११ | माल पहिरण अवसर आणी मन उछरंग, घर सारू खरच धन बहु भंगि । राती जगह आप ताजा तुरत तंबोल, Jain Educationa International गीत गान गवावर पावर अति रंग रोल ||१२|| For Personal and Private Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४६ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जनि ढाल ३-चउवीसमउ जिणराय रंगे पणमियएक साते उपधान विधिसुं जे वहइ,ते सूधी किरिया करइ ए। खिण न करइ परमाद जीव जतन करइ,पजी पूजी पगला भरइए।१३। न करइ क्रोध कषाय हडसइ नहीं,मरम केहनउ नवि कहइए । नाणइ घर नउ मोह, उत्कृष्टी करइ,साधु तणी रहणी रहइए ।१४। पहर सीम सझाय करिय पोरसी भणी,उंबइ सरि बोलइ नहीं। मन माहे भावई एम,धन २ ए दिन,नर भव मांहि सफल सहीए।१५। जे साते उपधान, विधी सेती वहइ,पहिरइ माल सोहामणी ए। तेहनी किरिया सुद्ध,बहु फल दायक,करम निर्जरा अति घणीए ।१६। परभवि पामइ रिद्धि,देवतणा सुख,छत्रीस बुद्ध नाटक पड़इ ए। लाभइ लोल विलास अनुक्रमि सिव सुख,चढती पदवो ते चड़इए।१७ इम वीर जिनवर भुवन दिणयर, मात तिसला नंदणो, उपधान ना फल कहइ उत्तम, भविय जण आणंदणो । जिणचंद जुगपरधान सदगुरु, सकलचंद मुणीसरो, तसु सीस पाचक समयसुंदर, भणइ वंछित सुख करो ॥१८॥ इति सप्तोपधानविचारगर्भितश्रीमहावीरदेवस्यवृहत्स्तवनं संपूर्णम् कृतं श्री माहिम नगरे शुभं भवतु ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अइमत्ता ऋषि गीतम् ( २४७ ) साधु-गीतानि श्री अइमत्ता ऋषि गौतम राग-कानरउ बेड़ली मेरी री, तरइ नीर विचाल अइमचउ रमइ बाल । बे० । मुनि बांधी माटी पाल । जल थंभ्यउ ततकाल, काचली मूकी विचाल, रिषी रामति याल ।१।। साधु करइ निंदा हीला, अइमत्ता पड्या हइ ढीला । प्रभुतुभ सीख देयउ व्रत नोकड पाल । महावीर कहइ सामी; अइमनउ मुगति गामी, समयसुन्दइ करइ वंदना त्रिकाल ।२।। श्री अइमत्ता मुनि गीतम् श्री पोलास पुराधिप विजई, विजय नरिंद प्रचण्ड रे। श्री इण नामइ तसु पटराणी, निरमल नौर अखण्डी रे।। धन धन मुनिवर लघु वह तप लीणउ, अइमत्तउ सुकुमाल रे। तेहना गुण ना पार न सहियइ, वंदउ चरण विसाल रे।।ध०। तासु उयरि सर सीह समोपम, अइमनउ सुकलीणउ रे । यह गीत श्री मो० द. देसाई संग्रहस्थित प्रति पत्र ४६) से अपूर्ण मिला है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१८ ) समयसुन्दरकृतिकुप्लुमाञ्जलि श्री अनाथी मुनि गीतम् ढाल-१ मालीयड़ा नी . २ चांदलिया नी श्रेणिक रयवाड़ी चढ्यउ, पेखियउ मुनि एकांत । वर रूप कांति मोहियउ, राय पूछइ कहउ रे विरतंत ॥१॥ श्रेणिक राय हूँ रे अनाथि निग्रंथ। तिण मइं लीघउ रे साध नउ पंथ ॥श्रे०॥ आंकणी॥ इणि कोसंबी नगरी वसइ, मुझ पिता परिघल धन्न । परिवार पूरइ परवर यउ, हुँ छूतेहनउ रे पुत्र रतन । श्रे.२। एक दिवस मुझ वेदना, ऊपनी मंइ न खमाय । मात पिता सह भूरी रह्या, पणि केणइ रे ते न लेवाय । श्रे.३ । गोरड़ी गुण मणि ओरड़ी, मोरड़ी अबला नारि । कोरड़ी पीड़ा मई सही, न किणइ कीधी रे मोरड़ी सार। श्रे.४ । बहु राजवैद्य बोलाविया, कीधला कोड़ि उपाय । बावना चंदन लावीया,पणि तउ ई रे समाधि न थाय । श्रे.५। जग मांहि को केह नहीं, ते भणी हुँ रे अनाथ । वीतराग ना भ्रम वाहिरउ,कोई नहीं रे मुगति नउ साथ । श्रे.६ । वेदना जउ मुझ उपसमइ, तउ हूं लेॐ संजम भार । इम चीतवंतां वेदन गई, व्रत लीघउ रे हरष अपार । श्रे.७ । कर जोड़ि राजा गुण स्तवइ, धन धन ए अणगार । श्रेणिक समकित तिहां लहइ,वांदी पहुँचहरेनयर मंझारि। । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जयवंती सुकुमार गीतम् - ((282) मुनिवर अनाथी गावतां, करम नी शूटर कोडि।। गणि समयसुंदर तेहना पाय, बांदर रे मे कर ' जोडि । भे. ६ । श्री अयवंती सुकुमाल गीतम् + ई , नयरि उज्जयिनी मांहि वसर, परिषल जेहनउ भाथो जी । भद्रा सुत सुख भोगवइ, बतीस अंतेउर साथो जी ॥१॥ धन धनवंती सुकुमाल नह, न चाम्पु जेहतु ध्यानो जी। एक रात्रे पामियउ नलिनि गुल्म विमानों जी | २राध | सद्गुरु आवी समोसरचा, समिति नलगि अझवलो जी । जाति समरण पामियउ, संजम परम रथबो जी |३|ष. १ गुरु पूछी रे वन मांहि गयउ, काउसम्म रहाउ समसानोरे जी । स्यालणी सरीर विलूरियड, वेदना सही असमानो जी |४|५. । ततखिण सुर पद पामियड, एहवा अयवंती सुकुमालो जी । समयसुन्दर कहह वंदना, ते मुनिवर नह त्रिकाली जी शिष भी अरहनक मुनि गीतम्: दास-काची कली अनार की रे हां सूचदारा रे लोभाय मेरे ढोलणा । ए गीवनी. बिहरण वेला पांगुर चड़ हां, धूप तपर असराल, मेरे अरहनाः। भूख त्रिखा पीचर णुं हां, मुनिवर व्यति सुकुमाल मेरे रहना | १ | माता करह रे विलाप, भद्रो करइ रे विसार 1 मे. ॥ मरुवी ॥" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि धरती बलि ऊठी घणु रे हां, मारग मांहि बईठ मेरे अरहना । गउखिचड़ी किण विरहणी रे हों,नारी नयणे. दोठ मेरे अरहना।२। बोलावी ऊंचउंलीयउ रे हां, प्राण्यउ निज आवासि मेरे अरहना। हाव भाव विभ्रम करी रे हां,पदमनी पाइचउ पासि मेरे अरहना।। मूक्यड़ ओघउ मुंहपती रे हां, भोगवइ भोग सदीव मेरे अरहना। करम थी को छूटइ नहीं रेहां, काम तणइ वसि जीव मेरे अरहना।।। गउख ऊपरि बइठइ थकह रे हां, दीठी अपणी मात मेरे अरहना। गलियां मांहि ग़हिली भमइ रे हां, पूछह अरहन बात मेरे अरहना।। विहरण वेलाटलि गयी रे हां, आवउ म्हारा अरहन पूत मेरे अरहना। चारित थी चित चुकीयउ रे हां, मोहनी मांहे खूत मेरे अरहना।६। मई माता दुखिणी करी रे हां, धिग धिग मुझ अवतार मेरे अरहना। नारि तजी रिषि नीसरय रे हां,आयउ गुरु पासि अपार मेरे अर.७/ माता पणि आवी मिली रे हां, आणंद अंगि न माय मेरे अरहना। पाप आलोया आपणा रे हां, पणि चरित न पलाय मेरे अरहना।। ताती सिला अणसण लियउ रेहां, चडते मन परिणाम मेरे अरहना। समयसुंदर कहइ माहरउ रे हां,त्रिकरण सुद्धप्रणाम मेरे अरहना ।।। इति अरहनक गीतम् ॥ ४५ ॥ श्री अरहन्ना साधु गीतम् विहरण वेला रिषि पांगुरयो, तड़. तड़तइ तावड़ि सांचरचा । सेरो, माहि भमतउ पांतर चउ, भूख तरस लागी तात सांभर चल।१।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अरहन्ना साधु गीतम् (२५१ ) म म्हारउ अरहनउ, किहां.दीठउरे म्हारउ अरहनाांकगी।। गउखइ चढि दीठउ गोरडी, आवउ आ.मंदिरः शोरडी । . काया कां सोखउ कोरडी, मन आशा पूरउ मोरड़ी ॥२ म्हां०॥ ऋषि चूकउ चारित थी पड़ यउ,ऊंचो आवास जइ चड्मट । भोगवह काम भोग नारि नड्यउ,विघटइ किम घाट दैव घडमड ... म्हां०३॥ भद्रा माता इम सांभलि, गहिली थई जोयइ गलिय गली । आवउ विहरण वेला टली, हा हा मोहनी करम महाबली ।म्हां०४॥ गउखइ बइठइ मां ओलखी, धिग धिग सरस्यई सुख पखी । मई मूढइ मात कीधी दुखी, नव मास वस्यउ जेहनी कूखी ॥म्हां. ॥ नारी तजि नीचउ उतरचउ, संवेग मारग सूधउ धरचउ' सिला ऊपरि संथारउ करचउ, वेगइ सुरसँदरि नई वरम्हां४६।। धन धन ए मुनिवर अरहन्नउ, अणसण ऊपरि थयउ इक मन्नउ । अधिकार भण्यउ मंइएहनउ,समयसुंदर नइ ध्यान तेहननाम्ही.७॥ .श्री अरहनक मुनि गीतम् अरणिक मुनिवर चाल्या गोचरी, तडकई दाभइ सींसो जी। पाय उवराणइ रे वेलु परि जलइ, ... तन सुकुमोल मुनीसो जी ।। अर० ॥१॥ मुख कमलाणउ रे मालती फूल ज्यु, ऊभउ गोख नइ हेठो जी । खरइ दुपहरइ दीठउ एकलउ, मोही मानिनी मीठो जी ॥ अर० ॥२॥ .. . .. . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२४२) समयदरकृतिकुसुमाञ्जलि मागीली रेनयमे वेषियउ, रिषिथंभ्यउ तिण वारो जी। दासी भइहाइ आय उतावली, मो मुनि तेड़ी माणो जी ॥ अर० ॥२॥ पावना कीजाइसिकि घर मांगबउ, पहिरउ मोदक सारो जी। नका यौवन रस काया कई दहउ, सफल करउ अवतारो जी ॥ अर० ॥४॥ चंद्रा बदनी रे पारित चूकव्यउ,सुख विलसइ दिन रातो जी। इक दिन गोखइ रमतउ सौगठइ, तब दीठउ निज 'मातो जी ॥ अर० ॥शा भरहनक भाहनकारती मां फिरह,गलियहगलिया मझारोजी। कहो किवा दीठउ रे म्हारउ अरणलो, लइ लोक हजारो जी ॥ अर० ॥६॥ उत्तर विहांधी रे जननीपाय नमह मन मइलाज्यो तिवारो जी। धिक धिक पापी म्हारा रे जीवनइ, एह मंड अकारज धारयो जी ॥ अर० ॥७॥ अगन पंती रे सिला ऊपरह, भरसक अणसण-लीयो जी । समयसुंदर कहा धन्य ते मुनिवरु, मन चितः फल सीघोजी ॥ अर० ॥८॥ इति मरहनक मुनि गीतम् Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आदीश्वर १८ पुत्र प्रतिबोध गीतम् (२५३ ) श्री आदीश्वर ९८ पुत्र प्रतिबोध गीतम् शांतिनाथ जिन सोलमउ, प्रणमुं तेहना पाय । दरसन जेहनु देखतां, पातक दूरि पुलाय ॥१॥ सूगडांग सूत्रइ कह्या, ए बीजइ अझयण । वैताली नामइ वली, वीतराग ना वयण ॥२॥ एहु तणि उतपति कहुं, नियुक्ति नई अणुसार । भद्रबाहु सामी भणइ, चउद पूरबधर सार ॥३॥ श्री भ्रष्टापद आविया, आदीसर अरिहन्त । साध संघाति परिवरचा, केवल ज्ञान अनन्त ॥४॥ "इण अवसरि पाव्या तिहां, अट्ठारए सउ पुत्र । वांदी नइ करइ वीनति, तात सुणउ घर सूत्र ॥५॥ भरत थयउ अति लोभियउ, न गिण्यउ बांधव प्रेम । राज उदाल्या अम्ह तणा, हिव कहउ कीजइ केम ॥६॥ "राज काज महिलां घणं, यह दुर्गति ना दुख । ते भणी ते उपदेस दय, जिम ए पामइ सुख ॥७॥ पुत्र भणी प्रतिबोधिवा, ए अध्ययन कहति । अट्ठाएँ सुत सांभलइ, उगारी अरिहन्त ॥८॥ ढाल-धन धन अयवंती सुकुमल नाइ, एहनी ढाल । आदीसर इम उपदिसई, ए संसार असारो जी। अंगार दाहक नी परि, तृपति न पामइ लगारो जी॥१॥सं.॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि . संबुज्झह किं बुज्झह, नहिं छइ राज नउ लागोजी। वयर विरोध वारु नहीं, वालउ मन वयरागो जी ॥२॥ सं.॥ ए अवसर वलि दोहिलउ, माणस नई अवतारो जी। आरिज देस उत्तम कुल, पडवडी इंद्री अपारो जी॥३॥ सं.।। धरम सांभलिवू दोहिल, सरदहणा वलि तेमो जी। कां वांछउ राज कारिमउ, प्रतिबूझउ नहिं केमो जी ॥४॥ सं.॥ पुण्य कियां विण प्राणिया, परभवि पहुँचस्यइ जेहोजी। बोधि जलहिस्यई नहीं, भमस्यइंभव मांहि तेहोजी ॥५॥.॥ राति दिवस जे जायई छई, पाछा नावइ तेहो जी। खिण ख्रिण त्रूटई आउखु, खीण पडइ वलि देहो जी ॥६॥सं.।। राज ना काज रूड़ा नहीं, तुच्छ छइ जेहना सुक्खो जी। भेदन छेदन ताड़ना, नर तणां, बहु दुखो जी ॥७॥ सं.। गरभ रह्यां माणस गलइ, बालक वृद्ध जुवाणो जी। सींचाणउ झड़पइ चिड़ी, पणि चालइ नहीं प्राणोजी | ८ |सं०। अथिर जाणी इम आउखू, किम कीजइ परमादो जी। . नरकां न राज्य न वांछियइ,ते मांहि नहिं को सवादो जी।।सं। कुटुंब सह को कारिम, पुत्र कलत्र परिवारो जी। स्वारथ विण विहड़इ सहु, कुण केहनउ आधारो जो ।१०।सं। भवनपती व्यंतर वली, जोतषी वैमानिक देवो जी।... चक्रवर्ती राणा राजवी, बलदेव नइ वासुदेवो जी ।११०सं०। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आदीश्वर ८ पुत्र प्रतिबोध गीतम् ( २५५ ) ते पणि प्रभुता आपणी, छोडइ पामता दुक्खो जी। भय मोटउ मरिवा तणउ,संसार मांहि नहि सुक्खो जी ।१२।सं। काम भोग घणा भोगवां, त्रिपति पूरी जिम थायो जी। ते मूरिख निज छांहड़ी, अापड़िवा नइ उजायो जी ।१३।सं। बंधण थी ताल फल पडयउ,तेहनइ को नहीं त्राणोजी । तिम जीवित त्रूटइ थकइ,केहनइ न चालइ प्रायो जी ।१४।सं। परिगृह आरंभ पाडुया, पाडुया पाप ना कर्मो जी । पाडीजइ परभवि गयां, ते किम कीजइ अधर्मो जी ।१॥२०॥ ज्ञान दरसण चारित बिना,मुगति न पामइ कोयो जी। कष्ट करइ अन्य तीरथी, मुगति न पामइ सोयो जी ।१६।सं। विरमउ पाप थकी तुम्हे, जउ पूरब कोडि आयो जी । धरम विना धंध ते सह, सफल संजम सुथायो जी ।१७।सं। जे ख़ता काम भोगवइ, राग बंधण पास बंधो जी । ते भमिस्यइ संसार मंइ. दुख भोगवता अबुद्धो जी ।१८।सं। पृथिवी जीव समाकुली, तेहनइ न दीजइ दुक्खो जी । समिति गुपति व्रत पालियइ, जिम पामीजइ सुखो जी ।१६।सं। जे हिंसादिक पाप थी, विरम्यां श्री महावीरो जी। तिण ए धरम प्रकासियउ, पहुँचाडइ भव तीरो जी ।२०।सं। गृहस्थावास मूकी करी, जे ल्यइ संजम भारो जी। बावीस परिसा जे सहइ, चालइ सुद्ध आचारो जी ।२१।सं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५६ ) समय सुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि % क्षण क्षण करम नो क्षय करी, संवेग शुद्ध धरंतो जी । भव सायर बोहामणउ, ते नर तुरत तरंतो जो । २२ सं० ॥ लेपी भीति धसी जती, अनुक्रमि निर्लेप थायो जी। आकर तप करतां थकां निरमल थायह कायो जी | २३ | सं०| श्रावितुं पुत्र उतावलउ, अम्ह नह तँ माधारो जी तुझ विणकुण वूढापण, करिस्यइ अम्हारी सारो जी | २४|०| विरह विलाप घणा करी, कुटंब चुकावइ साघो जी । पणि चूक नहीं साधु जी, जिण परमारथ लाखो जी | २५ | सं०| मोहनी करम लीधां थकां जे चूक अविकारो जी | ते संसार मांहे भमई, देखई दुक्ख अपारो जी | २६ सं०| ए संसार असार छ, छोड़उ राज नह रिद्धो जी । तप संजम तुम्हें आदरउ, शीघ्र लहउ जिम सिद्धो जी | २७/सं० | तात नी देसणा सांभली, वारू कीधउ विचारो जी । राज नह रिद्धि छोड़ी करी, लोधउ संजम भारो जी |२८|०| कीधा तप जप करा, उपसर्ग परीसा अपारो जी । अष्टापद ऊपरि चड्या, महाणुं अणगारो जी | २६| ० | श्री आदीसर सूँ सहु, सीधा करम खपावो जी । पाम्याँ शिव सुख सासता, सुध संजम परभावो जी | ३० सं०/ सुगडांग सूत्र उपरि कीयउ, ए संबंध प्रधानो जी । वयराग आणी वांचज्यो, धरिज्यो साथ नुं ध्यानो जी ॥३१ । सं० १ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आदित्ययशादि ८ साधु गीतम् ( २५७ ) हाथी साह उद्यम हूयउ, तिण ए करावी ढालो जी।। समयसुन्दर करइ वंदणा, ते साधजी नइ त्रिकालो जी।३।सं। इति श्रीआदीश्वरप्रतिबोधितनिज १८ पुत्रसाधुगीतम् ॥ ३६॥ श्री आदित्ययशादि ८ साधु गौतम राग-भूपाल, प्रहरात् कालहरा गेवा । भावना मनि सुद्ध भावउ, धरम मांहि प्रधान रे। भरत प्रारीसा भवन मई, ला, केलव ज्ञान रे ।भा० आदित्य नइ महाजसा अतिबल वलभद्र नइ बलवीर्य। दंडवीरिज जलवीरिज राज कीरतिवीरिज धीर्य रे ।२।भा०। आठ राजा एण अनुक्रमि, इन्द्र थाप्या जाणि रे। रिषभदेव ना मुकुटधारी, अरध भरत मई आणि रे ।३।भा०। भरत नी परि भवन मांहि, पाम्यं केवल ज्ञान रे । समयसुन्दर तेह साधु नु, घरइ निर्मल ध्यान रे।४।भा०। इति श्री आदित्ययशादि ८ साधु गीतम् ॥ ३७॥ श्री इला पुत्र गीतम् राग-मल्हार ढाल-मोरा साहिब हो श्री शीतलनाथ कि वीनति सुणउ एक मोरड़ी। एह गीतनी. इलावरध हो नगरी नुं नाम कि, सारथवाहि तिहां वसइ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५८ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि तेहनउ पुत्र हो इलापुत्र प्रधान कि, माल घणउ मन ऊलसइ ।१। वंस उपरि हो चड्यां केवल न्यान कि, इला पुत्र नइ ऊपनउ । संसार नउ हो नाटक निरखंत कि, संवेग सह नइ संपनउ ।।। वंस ऊपरि हो चड़ी खेलइ जेह कि, ते नटुया तिहां आविया । भली रामति हो रमइ नगरी मांहि कि, नर नारि मनि भाविया ।३।। नाडुया नइ हो महा रूप निधान कि, सोल वरस नी सुन्दरी । गीत गायइ हो वायइ डमरू हाथि कि, जाण प्रवीण जोवन भरि ।४।। इला पुत्र नउ हो मन लागउ तेथि कि, कहइ कन्या दयउ मुझ नइ । कन्या समउ हो सोनउ दय तोलि कि, तुरत नायक हुं तुझ नइ शिवं नायक कहइ हो आपूँ नहीं एह कि, कुटुम्ब आधार छइ कुंयरी । अम्हा मांहे हो आवि कला सीखि कि, पछडू परणाविस सुंदरी । ६ ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री इला पुत्र गीतम ( २५६ ) बात मानी हो इलापुत्रइ एह कि, ऐ ऐ काम विटम्बणा। अस्त्री डोलइ हो अक्षर नइ भोलइ कि, आगइ पणि चूका घणा । ७।०। मूंकी नइ हो कुटुम्ब परिवार कि, विवहारियउ नटुए भिल्यउ । वित्त लेवा हो वीवाह निमिच कि, , राजा रंजवा नीकल्यउ । ८ ।। वंस मांड्यउ हो ऊंचउ आकाश कि, ते परि खेलइ कला । राय राणी हो सगला मिल्या लोक कि, देखइ ते रहइ वेगला।।। । ते नटुइ हो करि सोल शृंगार कि, गीत गायइ रलियामणा । वलि वायइ हो डमरू ले हाथि कि, विरुद बोलइ नटुया तणा ।१०।। जिण वेला हो नटुयउ रमइ घात कि, राजा ते जोया नहीं। जोयइ नटुइ हो साम्ही दे दृष्टि कि, नदुई पणि जोयई रही ।११।०। इम जाणई हो कामातुर राय कि. नटुयउ पड़ि नई जउ मरई । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६० ) समयमुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि - - तउ नहुइ हो हूँ लेउं एह कि, ध्यान भुंडं मन मई धरइ ।१२। वं० । इण अत्रसरि हो ऊंचइ चड चइ कोइ कि, साध नइ नयणे निरखियउ। ए धन धन हो ए कृत पुण्य साध कि, हियउ दरसण हरखियउ ।१३॥ वं० । मंइ कीधू हो ए अधम नुं काम कि, इम पातमा समझावतां । इलापुत्र हो ला केवल न्यान कि, अनित भावना मनि भावतां ।१४।०। इम राजा हो राणी पणि जाणि कि, नटुइ पणि केवल लघु। पोतानउ हो अवगुण मनि आणि कि, समकित सधं सरदा ।१॥ ० । सोना नउ हो थयउ कमल ते बंस कि, देवता आवि सानिधि करी । सोध दीधउ हो ध्रम नउ उपदेस कि, परषदा ते पणि निस्तरी ।१६। । इलापुत्र तउ हो गयउ मुगति मझारि कि, सासती पामी संपदा । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर जोड़ी हो करूं चरण प्रणाम कि, श्री इला पुत्र गीतम् · साध नुं ध्यान धरू सदा | १७ | ० | कियां । समयसुन्दर गीत करि दीयउ | १८|०| इति इलापुत्र गीतम् ॥ ११॥ ( २ ) श्री इलापुत्र सझाय नाम इलापुत्र जाणिय, धनदत्त सेठ नउ पूत । नटवी देखी रे मोहियउ ते राखड़ घर सूत ॥ १ ॥ करम न छूटइ रे प्राणिया, पूरव नेह विकार । निज कुल छोड़ी रे नट थयउ, नाणी सरम लगार कि० | २ | इक पुर आयउ रे नाचवा, उंचउ वंस विवेक । तिहां राय जोवा रे आवियउ, मिलिया लोक अनेक |क० | ३ | दोय पग पहिरी रे पावड़ी, वंश चड्यो गज गेलि । निरधारा ऊपरि नाचतंउ, खेलइ नव नवा खेलि |क० | ४ | ढोल बजावर रे नाटकी, गावइ किन्नर साद 1. पाय तलि घूघरा घम घमइ, गाजइ अंबर नाद कि० | ५ | कयामती हो भलउ रायसंघ साह कि, थिरादरइ आग्रह श्रमदाबाद हो ईदलपुर मांहि कि, १ आदर Jain Educationa International ( २६१ ) For Personal and Private Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६२ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि तिहां राय चिंतइ रे राजियउ, लुब्धो नटवी रे साथ । जो पड़इ नटवो रे नाचतउ, तो नटवी मुझ होथ । क०।६। दान न आपइ रे भूपति, नट जाणइ नृप बात । हूँ धन वंछूरे राय नउ, राय वंछइ मुझ घात । क०।७। तिहां थी मुनिवर पेखियउ, धन धन साधु नीराग । धिक् धिक विषया रे जीवडा,मनि आण्यउ वइराग ।क०।८। संवर भावइ रे केवली, तत्खिण करम खपाय । केवलि महिमा रे सुर करइ समयसुंदर गुण गाय । क०।।। श्री उदयन राजर्षि गीतम् सिंधु सोवीरइ वीतभउ रे,पाटण रिद्धि समृद्धो रे । राज करइ तिहां राजियउ रे, उदायन सुप्रसिद्धो रे ॥१॥ मोरे कोडड महावीर पधारइ वीतभइरे, तउ हूँ सेवँ पाय ॥०॥ मुगट बद्ध राजा दसे रे, सेवइ बेकर जोड़ो रे।। कुमर अभीचि कला निलउ रे, पूरइ वंछित कोडो रे । २ मो.। एक दिन पोसउ ऊचरचउ रे,वीर जिणंद वखाण्यउ रे। धरम जागरिया जागतां रे, एह मनोरथ पाण्यउरे । ३ मो.। धन धन गाम नगर जिहां रे,विहरइ वीर जिणिंदोरे। धन धन नर नारी तिके रे, वाणि सुणई आणंदो रे । ४ ।मो.। भाग संजोगइ आवइ इहां रे,जिणवर जग आधारो रे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उदयन राजर्षि गीतम् (२६३ ) जउ इहां आवि समोसरह रे*,सफल करू अवतारो रेशमो.। एह मनोरथ जाणिनइ रे, जगगुरु करइ विहारो रे । चंपा नयरी थी चल्या रे, उदायन उपगारो रे । ६।मो.। वीतभय नगरि समोसो रे, मृगवन नाम उद्यानोरे। समवसरण देवइ रच्यु रे, बइठा श्री ब्रधमानो रे । ७।मो.। राजा वांदण आवियउ रे, हय गय रथ परिवारो रे। पंचाभिगम साचवी रे, धरम सुणइ सुविचारो रे मो.। प्रतिबृधउ प्रभु देसणा रे,जाण्यउ अथिर संसारो रे । बे कर जोड़ी वीनवइ रे, भवसायर थी तारउ रे । मो०। देई राज अभीचि नइ रे, संजम सुद्ध घरेसो रे। प्रभु कहइ देवाणुप्पिया रे, मा पडिबंध करसो रे ।१.मो दूहाः वीर वांदि घर आवियउ, वलि करइ एह विचार । इट्ठ कंत पिय माहरइ, अंगज अभीचि कुमार ॥११॥ राज काज मइलां धणुं, मत ए नरकड जाय । पाटि भाणेजउ थापियउ, केसी नाम कहाय ॥१२॥ कुमर अभीचि रीसाइ करि, पहुतउ कोणिक पास । सुरनर पदवी भोगवी, लहिस्यइ शिवपुर वास ॥१३॥ * पाय कमल सेवा कर रे ( पाठान्तर लींवडी प्रति ) रिण माहे रिखि मातरइ रे, भूख तृषा पीडाणारे। काल करी सुगति गया रे, विवहार मारग जाणो रे ॥७॥ [लीबड़ी वाली प्रति में अधिक ] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ढाल-मधुकरनी आडंबर मोटइ करी, राजा लीधी दीख, मुनिवर । श्री वीर सई हथि दीखियउ, सूधी पालइ सीख मुनिवर ॥१४॥ चरम राज ऋषि चिर जयउ,नाम उदायन राय, मुनिवर । गिरुयां ना गुण गावतां, पातक दूरि पुलाय, मुनिवर ॥१५॥ तप करि काया सोखवी, लीधा अरस आहार, मुनिवर । रोग सरीरइ ऊपनउ, साधजी न करइ सार, मुनिवर ॥१६॥ औषध वैद्य वतावियउ,दधि लेज्यउ रिषि राय, मुनिवर। वीतभय पाटणि आविया,गोचरि गोयलि जाय, मुनिवर ॥१७॥ राज लेवा रिषि आवियउ, पिशुन उपाड़ी बात, मुनिवर। केसी विष दिवरावियउ, कीधउ साध नउ घात,मुनिवर ॥१८॥ साधु परीसउ ते सह्यउ, अाव्यउ उत्तम ध्यान, मुनिवर । कीधी मास संलेखना, पाम्यउ केवल न्यान, मुनिवर ॥१६॥ मुगति पहुँता मुनिवरु, भगवती अंग विचार, मुनिवर । समयसुंदर कहइ प्रणमता, पामीजइ भवपार, मुनिवर ॥२०॥ ॥ इति श्री उदयन राजर्षि गीतम् ॥२८।। श्री खंदक शिष्य गीतम् ढाल-अरध मंडित नारी नागिला, एहनी. खंदक सूरि समोसरचा रे, पांच सइ मुनि परिवार रे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री खंदक शिष्य गीतम् ( २६४ ) पालक पापी घाणी पीलिया रे, पूरब वहर संभार रे ॥१॥खं०॥ खंदग सीस नमुं सदा रे, जिण सारया प्रातम काज रे । सबल परिसहउ जिण सह्यउ रे,. पामियउ मुगति नउ राज रे ॥२॥ खं०॥ अनित्य भावना मनि भावतां रे, साधु क्षमा भण्डार रे। . मुनिवर अंतगड़ केवली रे, पहुंता मुगति मझारि रे ॥३॥ खं०॥ रुधिर भर चउ अोघउ लियउ रे, समली जाण्यउ हाथ रे । बहिनी आंगण पड्यउ अलोख्यउ रे, श्रादरचो अरिहंत साथ रे ॥४॥ खं०॥ श्री मुनिसुव्रत सामिना रे, जीव दया प्रतिपाल रे। समयसुन्दर कहइ एहवा रे, वा, वा, साधु त्रिकाल रे ॥५॥ खं०॥ इति श्री खंदग शिष्य गीतम् Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६६ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि श्री गजसुकुमाल मुनि गीतम . ___ ढाल-गजरा नीनयरि द्वारामती जाणियइ जी, कृष्ण नरेसर राय । नेमीसर तिहां विहरता जी, आव्या त्रिभुवन ताय ॥१॥ फॅयर जी तुम्ह विन घड़िय न जाय । बोलइ माता देवकी जी, तुम्ह दीठां सुख थाय ॥॥आंकणी।। प्रतिबूधउ प्रभु देसणा जी, जाण्यउ अथिर संसार । गयसुकुमाल मुनिसरू जी, लीधउ संजम भोर कुँ०१२॥ राति देवकी चीतवइ जी, जउ किम ऊगइ रे सूर । तउ हूँ वांदू वालहउ जी, गयसुकुमाल सनूर ।।कुं०॥३॥ प्रभु वांदी नइ पूछियू जी, किहां म्हारउ गयसुकुमाल । आतमारथ निज साधियउ जी, तिण मुनिवर ततकाल ॥०॥४॥ समसाणइ उपसर्ग सही जी, पाम्यं केवल ज्ञान । मुगति पहुँता मुनिवरू जी, समयसुन्दर तसु ध्यान ।कु०॥५॥ इति श्री गजसुकुमाल गीतम् ।।३।। श्री थावच्चा ऋषि गौतम . ढाल-जननी मन आशा घणी, एड्नी. नगरी द्वारिकां निरखियइ, देवलोक समानो । थावच्चा सुत तिहां वसइ, पुण्यवंत प्रधानो ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री थावचा ऋषि गीतम् (२६७ ) रिषि थावचउ ख्यड़उ, उत्तम अणगारो। गिरुया ना गुण गावतां, हियडइ हरप अपारो ॥२॥रि०॥ बत्तीस अंतेउर परिवरयउ, भोगवइ सुख सारो। नेमि समीपइ संजम लियउ, जाण्यउ अथिर संसारो॥३ रि०॥ बत्तीस अंतेउर परिहरी, लीधउ संजम भारो । तप जप कठिण क्रिया करइ, साथइ साधु हजारो ॥४।रि०॥ सेजा ऊपरि चढी, संथारा कीधा । समयसुन्दर कहइ साधु जी, वांद सहु सीधा ॥॥रि०॥ चार प्रत्येक बुद्ध श्री करकण्डू प्रत्येक बुध गीतम् . ढाल-गलियारे साजण मिल्या हुं वारी । चंपा नगरी अति भलि हं वारी, दधिवाहन भूपाल रे हं वारी लाल । पद्मावती कूखि अपनउ हुँ वारी, करमइ कीधउ चंडाल रे हुँवारी लाल ॥१॥ करकंडू नइ करू वंदना हुवारी, __ पहिलउ प्रत्येक बुद्ध रे हुं वारी लाल । प्रांकणी। गिरुया नां गुण गावतां हुं वारी, समकित थायइ सुद्ध रे हुँवारी लाल ।।क०।२॥ १ से जइ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६८ ) लाघी वांस नी लाकड़ी हूं वारी, थयउ कंचणपुर राय रे हुं बारी लाल । बाप सु संग्राम मांडियउ हुंवारी, समय सुन्दर कृति कुसुमाञ्जलि साधवी लियउ समझाय रे हुं बारी लाल || ० | ३ || वृषभ सरूप देखी करी हुं वारी, प्रतिबोध पाम्पउ नरेस रे हु' वारी लाल | उत्तम संजम आदरच हु वारी, देवता दीधर वेस रे ह वारी लाल || ४ || करम खपाषी मुगति गयउ हु वारी, करकंडू रिषि राय रे ही वारी लाल । समयसुंदर कहइ ए साधनइ हुंवारी, प्रणम्यां पाप पुलाय रे हुंवारी लाल |०|५|| इति श्री करकंडू प्रत्येक बुद्ध गीतम् ||४०|| श्री दुमुह प्रत्येक बुद्ध गीतम ढाल - फिट जीव्यु थारू रामला रे । नगरी कंपिला नउ धणी रे, जय राजा गुण जाण । न्याय नीति पालह प्रजा रे, गुणमाला पटराणि रे ॥ १ ॥ दुमुह राय बीजउ प्रत्येक बुद्ध । वयरागह मन वालियउ रे, संयम पलह सुद्ध रे ॥दु०आंकणी॥ धरती खणतां नीसरचड रे, मुगट एक अभिराम । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दुमुह प्रत्येक बुद्ध गीतम् (२६६ ) बीजउ मुख प्रति बिंबियउ रे, दुमुह थयउ तिम नाम रे॥२। दु०॥ मुगट लेवा भणी मांडियउ रे, चण्डप्रद्योत संग्राम । पणि अन्याय कुशीलियउ रे, किम सरइ तेहनउ काम रे ॥३॥ दु०॥ इंद्रधज अति सिणगारीयउ रे, जोतां तृप्ति न थाय । खलक लोक खेलइ रमइ रे, महुछव मांड्यउ राय रे ॥४। दु०॥ तेहीज इंद्रधन देखीयउ रे, पड़यउ मल मूत्र मझार । हा! हा! शोभा कारिमी रे, ए सहु अथिर संसार रे॥१०॥ वयरागइ मन वालियुं रे, लीधउ संयम भार । तप जप कीधा आकरा रे, पाम्यउ भव नउ पार रे ॥६॥दु०॥ बीजउ प्रत्येक बुद्ध ए रे, दुमुह नाम रिषिराय । समयसँदर कहइ साधना रे, नित नित प्रणमं पाय रे ।।७। दु०॥ इति दुमुह नाम द्वितीय प्रत्येक बुद्ध गीतम् ।।४।। ___ श्री नाम प्रत्येक बुद्ध गतिम ढाल-नल राजा रइ देसि हो जी पूगल हुती पलाणिया नयर सुदरसण राय हो जी, मणिरथ राज करइ तिहां । कीधउ सबल अन्याय हो जी, __जुगबाहु बंधव मारियउ लाल ॥जु०॥१॥ मयणरेहा गई नासि होजी, जायउ पुत्र उजाडिमइ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७० ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि पड़ीय विधाधर पासि हो जी पणि सीलराख्यउ सावतउ लाल ॥१०॥२॥ पद्मरथ भूपाल हो जी, घोड़इ अपहरयउ आवियउ । तिण ते लीधउ बाल हो जी, पुत्र पाली पोढउ कियउ लाल पु०॥३॥ शत्र नम्यां सहु आय हो जी, नमि एहवउ नाम आपियउ । थयउ मिथिला नउ राय होजी, सहस अंतेउरि सु रमइ लाल ||स०॥४॥ दाह ज्वर चड्यउ देह हो जी, करम थी को छूटइ नहीं।। अथिर सहु रिधि एह हो जी, नमि राजा संजम लीयउ लाल ॥न०॥॥ इंद्र परीख्यउ आय हो जी, चडते परिणामे चड्यउ । प्रणम्यां जायइ पाप हो जी, समयसुंदर कहइ साधनइ न०॥६॥ इति श्री तृतीय प्रत्येक बुद्ध नमि गीत ॥४२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नमि राजर्षि गीतम् (२७१) श्री नाम राजर्षि गीतम् जी हो मिथिला नगरी नउ राजियउ, जी हो हय गय रथ परिवार । जी हो राज लीला सुख भोगवइ, जी हो सहस रमणी भरतार ॥१॥ नमि राय धन धन तुम अणगार । इन्द्र प्रशंसा इम करी जी हो, पाय प्रणमइ वार वार ॥ नमि०॥ प्रकरणी जी हो एक दिवस तिहां ऊपनउ, ____जी हो पूरब करम संयोग । जी हो अगनि तणी परि आकरो, जी हो सबल दाह ज्वर रोग निमि०॥२॥ जी हो चंदन भरिय कचोलड़ी, जी हो कामिनो लगावइ काय । जी हो खलकह चूड़ी सोना तणी, जी हो शब्द काने न सुहाइ नमि०॥३॥ जी हो एक वलय मंगल भणी, जी हो राख्या रमणी बांहि । जी हो इम एकाकी पणउ भलउ, जी हो दुख मिल्यां जग मांहि ॥नमि०॥४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७२ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि जी हो जाति समरण पामियउ, जी हो लीधउ संजम भार । जी हो राज रमणी सवि परिहरी, जी हो मणि माणिक भंडार ॥नमि०॥५॥ जी हो रूप करी ब्राह्मण तणउ, जी हो इन्द्र परीख्यउ सोय । जी हो चढते परिणामे चढ्यउ, जी हो सोनउ श्याम न होय ॥नमि०॥६॥ जी हो उत्तराध्ययनइ एह छइ, जी हो नमि राजा अधिकार । जी हो समय सुंदर कहइ वांदतां, ___जी हो पामीजइ भव पार नमि०॥७॥ श्री नग्गइ चतुर्थ प्रत्येक बुद्ध गीतम् ढाल-लाल्हरे नी पुंडबधन पुर राजियउ म्हांकी सहियर, सिंहरथ नाम नरिंद है। एक दिन घोड़इ अपहर चउम्हांकी सहियर, पड्यउ अटवी दुख दंद हे ॥१॥ परवत उपरि पेखियउ म्हांकी सहियर, सोत भूमियउ आवास है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नग्गइ चतुर्थ प्रत्येक बुद्ध गीतम् ( २७३ ) कनकमाला विद्याधरी म्हांकी सहियर, परणी प्रेम उल्लास हे ॥२॥ नगर भणि राजा नीसरयउ म्हांकी सहियर, नग्गई नामि कहाय है। मारग मंइ आंबउ मिल्यउ म्हांकी सहियर, मांजरि रही महकाय हे ॥३॥ कोहल करइ टहूकड़ा म्हांकी सहियर, सुंदर फल फूल पान हे। राजा एक मांजरी ग्रही म्हांकी सहियर, तिम मंत्री परधान हे ॥४॥ वलतइ राजा ते वली म्हांकी सहियर, वृक्ष दीठउ ते वीछाय है। सोमा सगली कारिमी म्हांकी सहियर, खिरण मांहे खेरु थाय हे ॥५॥ जाती समरण पामियउ म्हांकी सहियर, संजम पालइ सुद्ध हे । समयसुंदर कहह साध जी म्हांकी सहियर, चउथउ परतेक बुद्ध हे ॥६॥ इति नग्गई चतुर्थ प्रत्येक बुद्ध गीतम् ॥ ४३ ॥ -:: Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि चार प्रत्येक बुद्ध संलग्न गीतम् ढाल-साहेली हे आंवलउ मउरीयउ, एह गीतनी । चिहुं दिशि थी चारे आवीया, समकालइ हे यक्ष देहरा मांहि । सहेली हे वांदउ रूड़ा साधजी, जिण वांदया हे जायइ जनमना पाप ॥ सहे०॥ यक्ष चउमुख थयउ जाणि नइ, मत आवइ हे मुझ पूठि के बांहि । करकंडु तिरणउ काढीयउ, काना थी हे खाजि खणवा काजि । स । दुमुख कहइ माया अजी, राखी कां हो छोड यउ सगलउ राज ।।स०।२।। नमि कहइ निंदा कां करइ, निंदा ना हो बोल्या मोटा दोष । नग्गई कहइ निंदा नहीं, हित कहितां हो हुवइ परम संतोष ।।स०।३॥ समकाले च्यारे चव्या, समकाले हे थया कुल सिणगार ॥ स.॥ समकालइ संयम लीयउ, समकाले हे गया मुगति मझार स०४॥ निदा ना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिलातीपुत्र गीतम् ( २७५ ) उत्तराध्ययने ए काउ,, सूत्र मांहे हे च्यारे प्रत्येक बुद्ध । सः । समयसुन्दर कहइ मइ साधना, गुण गाया हे पाटण पर सिद्ध ।स।५॥ श्री चिलातीपुत्र गीतम् पुत्रो सेठ धन्ना तणी, सुसुमा सुन्दर रूपो रे । चिलातीपुत्र करइ कामना, जाण्यउ सेठ सरूपो रे ॥१॥ चिलातीपुत्र चित मांहि वस्य उ, उपसम रस भंडारोरे यां। निश्चल मेरु तणी परइ, सूर धीर सुविचारो रे ॥राचि०॥ सेठ नगर थी काढियउ, पल्लीपति थयउ चोरो रे । पांचसइ चोरां सँ परिवरय उ,करम करइ कठोरो रे ॥३॥चि०॥ एक दिवस मारी सुसुमा, मस्तक हाथ मां लीधउ रे। साधु समीपे धर्म सुणी, मस्तक नांखी दीधउ रे ॥४॥चि०॥ उपसम विवेक संवर धरयउ,काउसग माहे कीड़ी परोल्यउ रे। काया कीधों चालणो, तो पण मन नवि डोल्यउ रे ॥५चि०॥ दिवस अढी वेदना सही, आठमउ देवलोक पावइ रे । चिलातिपुत्र जगि चिर जीवउ, समयसुंदर गुण गावइ रे॥६॥चि०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७६ ) समयमुन्दरकृतिकसुमाञ्जलि श्री जम्बू स्वामी गीतम् नगरीराजगृह माहि वसइ रे, सेठ ऋषभदत्त सार । धारणी माता जनमियउ रे, जंबू नाम कुमार ॥१॥ जीवन जी अमनइ तूं आधार ।। बेकर जोड़ी वीनवइ रे, अबला आठे वार ।। जी.। आंकणी ।। यौवन भर मांहि आवियु रे, मेल्यु वेवीसाल । आठ कन्या अति रूयड़ी रे, पूरवौ प्रेम रसाल || जी.॥ २ ॥ तिण अवसर तिहां आविया रे, गणधर सोहम साम। चतुर चौघुव्रत श्रादरचउरे,कीधउ उत्तम काम।। जी.॥३॥ गुरु वांदी घर आवियउ रे, मांगइ व्रत आदेश। मात पिता परणावियउ रे, जोरे करिय किलेस ॥ जी.॥४॥ आठ कन्या ले पापणी रे, श्राव्यउ निशि आवास । हाव भाव विभ्रम करइ रे, बोलइ वचन विलास ॥ जी.॥५॥ आ जोवन आ संपदा रे, आ अम अद्भुत देह । भोग पनोता भोगवउ रे, निपट न दीजइ छेह ।। जी.॥ ६॥ तन धन यौवन कारमुरे, क्षण मा खेरू थाय । काम भोग फल पाडया रे, दुर्गति ना दुख दाय ॥ जी.॥७॥ प्रश्नोत्तर करि परगड़उ रे, प्रतिबोधी निज नार। प्रभवो चोर प्रतिबूझव्यउ रे, पांच सयां परिवार ।। जी.॥८॥ * दुक्कर । जखि मांहि विणसी जाय। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जम्बू स्वामी गीतम् (२७७) आठ अंतेउर परिहरि रे, कनक निवाणु कोड़। संयम मारग आदस्यउ रे, माया बंधन छोड़ ॥ जी.॥३॥ मात पिता कन्या मिली रे, प्रभवो आप जगीस । दीक्षा लीधी सामठी रे, पांच सउ अठावीस ॥ जी.॥१०॥ जंबू सामि नी जोडली रे, को नइ इण संसार । ब्रह्मचारी चूड़ामणि रे, नाम तणइ बलिहार ।। जी.॥११॥ जंबू केवल पामियउ रे, पाम्यउ अविचल ठाम । समयसुन्दर कहइ हूँ सदारे, नित नित करुय प्रणाम ॥जी.।१२॥ श्री जम्ब स्वामी गीतम जाऊं बलिहारी जंबू स्वामिनी रे, जिण तजी कनक नी कोड़ि रे। आठ अंतेउरी परिहरी रे, चरण नमु कर जोड़ि रे । जा. १। यौवन भर जिण जाणियउ रे, एह संसार असार रे।। संयम रमणी आदरी रे, मुनिवर बाल ब्रह्मचारि रे । जा.।२। जिण प्रभवो प्रतिबूझियउ रे, पांचसई चोर परिवार रे। केवल ज्ञान पामी करी रे, पहुंतइ भव तणउ पार रे । जा.३। जंबू सौभागी जोयउ तुम्हे रे, मुगति नारी वर यउ जोय रे। मन गमतउ वर पामियउ रे,अवर न वांछइ बीजउ कोय रे।जा.।४। धारिणी माता कुयरू रे, सुधरम स्वामि नो सीस रे। समयसुन्दर कहइ साधुना रे, हुं नाम जपूनिशदीस रे। जा. १५॥ - इति श्री जंबू स्वामी गीतम् ॥ ३५॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७८ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि श्री ढंढण ऋषि गीतम् ढाल-धन धन अयवंती सुकुमाल नइ-ए गीतनी. नगरी अनोपम द्वारिका, लांबी जोयण बारो जी। देव नीमी अति दीपति, सरगपुरी अवतारो जी।१। धन धन श्री ढंढण रिषि, नेमि प्रशंस्यउ जेहो जी। अलाभ परिसउ जिण सह्यउ, दुरवल कीधी देहोजी।२।। राज करइ तिहां राजियउ, नवमउ श्री वासुदेवो जी। बत्तीस सहस अंतेउरी, सुख भोगवइ नित मेवो जी। ३ । ध.। ढंढणा राणी जनमियउ, नामइ ढंढण कुमारो जी। राजलीला सुख भोगवइ, देवकुंयर अवतारो जी । ४ । ध.। नेमि जिणिंद समोसरया,वांदिवो गयउ वासुदेवो जी। ढंढण कुमर साथिं गयउ, सहु वांदी करइ सेवो जी । ५ । ध.। घइ नेमीसर देसणा, ए संसार असारो जी। जनम मरण वेदन जरा, दुखु तणउ भंडारो जी"।६। थ.। ढंढण कुमर हलूक्रमउ, प्रतिबूधउ ततकालो जी। नेमि समीपि संजमलीयउ,जिन ओज्ञा प्रतिपालोजी । ७। ध.। नगरी मांहि विहरण गयउ, पणि न मिल्यउ आहारो जी। बेकर जोड़ी वीनवइ, कहउ सामी कुण प्रकारो जी। ८।ध.। नकुटुम्ब सहु को कारिमु, एक छइ धरम आधारो जी (पाठां०). Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ऋषि गीतम् ( २७ ) मुझनइ प्रहार मिलइ नहीं, द्वारिका रिद्धि समृद्धो जी । साधना भगत जादव सहू, मुझ गुरु बाप प्रसिद्धो जी । ६ । ध. । सुणि ढंढण रिषि साधतु, भाखड़ श्री भगवंतो जी । कीधा करम न छूटिय, विण भोगव्यां नहीं तो जी । १० । ध. । पाछिल भवितु बांभण हुतउ, अधिकारी दुख दायो जी। पांचसइ हाली नह तई कीय, अन्न पाणी अंतरायो जी । ११ । ध. । ढंढण रिषि भइ हुँ हिब, पारकी लबधि आहारो जी। सु नहीं भमस्यु सदा, करमनउ करिस्यु संहारो जी | १२ | ध. । (२) ढाल बीजी - नेमि समीपइ रे संजम आदरचउ, एहनी. नरेसरू, इस अवसर श्री कृष्ण प्रसन करइ कर जोड़ो जी । द्वारह सहस मई कुण अधिक जती, जेहनी नहिं कोई जोड़ो जी ॥ १ ॥ अढारह सहस मांहि अधिक ढंढण जती, भाखइ श्री भगवंतो जी । सबल लाभ परीसउ जिरा साउ, करिव करम नो तो जी || २ || अढा० ॥ बासुदेव प्रभु वांदि नइ चल्यउ, द्वारिका नगरी मारो जी । मारग मई ढंढरा मुनिवर मिल्यउ, Jain Educationa International गोचरी गयउ अणगारो जी || ३ || अढा ॥ For Personal and Private Use Only Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८०) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि हरि बांधउ हाथी थी ऊतरी, त्रिएह प्रदिक्षण दीधो जी । कृष्ण महाराज परसंसा करी, जन्म सफल तई कीधो जी ॥४॥ अढा०॥ त्रैलोक्यनाथ तीर्थकर ताहरू, श्री मुख करइ वखाणो जी । तूं धन्य तू कृतपुण्य मोटो जती, जीवित जन्म प्रमाणो जी ॥शा अढा० ॥ कृष्ण नी मनियावट देखि करी, भद्रक नइ थयो भावो जी। सिंह केसरिया मोदक सूझता, पडिलाभ्या प्रस्तावो जी ॥६॥ अढा० ॥ ढंढण रिषि पूछयु भगवंत नइ, __ अभिग्रह पूगउ मुझो जी। कृष्ण तणी ए लब्धि कहीजियइ, लब्धि नहीं ए तुज्झो जी ॥७॥ अढा०॥ पारकी लवधि न लेऊ लाडया, परिठवतां धरयउ ध्यानो जी । चूरतां च्यारे क्रम चूरियां, पाम्यु केवल न्यानो जी ॥८॥ अढा०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ढंडा ऋषि गीतम् (२८१ ) मुगति पहुँता अनुक्रमि मुनिवर, श्री ढंढण रिषि रायो जी। समयसुन्दर कहइ हुँ ए साधना, प्रतिदिन* प्रणमें पायो जी ॥६॥ अढा०॥ इति श्री ढंढण ऋषि गीतम् ॥ ६॥ सर्वगाथा २१ श्री श्रमदावाद पार्श्ववर्तिनि ईदलपुरे नगरेमध्ये चतुर्मासी कृत्त्वा मासकल्पस्थितैः श्रीसमयमुदरोपाध्यायैः कृतं लिखितं च सं० १६६२ वर्षे मार्गशीर्ष सुदि १ दिने ॥४५॥ । श्री दशारण भद्र गीतम राग-रामगिरी; जाति-कड़खानी । मुगध जन वचन सुणि राय चित चमकियउ, अहो अहो देव नउ राग देखउ । हूँ महावीर नइ तेम वांदीसि जिम, किण न वांद या तिका परठि पेखउ ॥१॥ धन्य हो धन्य हो राजा दसणभद्द तू, आपणउ बोल परमाण चाड्यउ । *नित नित । (लींवड़ी भंडार प्रति) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८२ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि लोच करि आप सूर वीर संजम लीयउ, . इंद्र नइ आणि पाये लगाड्यउ ॥२॥१०॥ नगर सिणगार चतुरंग सेना सजो, पांच सइ महुल परिवार सेती । आप आगइ बतीस बद्ध नाटक पड़इ, तूर वाजइ कहूं वात केती ॥३॥ध०॥ आवियउ इंद्र अभिमान उतारिवा, अनंत गुण श्री अरिहंत एहइ । इन्द्र चउसट्टि एकठा मिली संस्तवइ, पार न लहइं तउ गान केहइ ॥४॥ध०॥ एक हाथी तणइ आठ दंतूसला, दंत दंत आठ आठ वावि सोहइ । वाविवावि आठ आठ कमल तिहाँ, आठ आठ पांखड़ी पेखतां मन मोहइ ॥शाध०॥ पत्र पत्रइ बतीस बद्ध नाटक पड़इ, कमल बिचि इंद्र बइठउ आणन्दइ । आठ वलि आगलिं अग्र महिषी खड़ी, वीर नई एण विधि इंद्र वांदइ ॥६॥ध०॥ इन्द्र नी रिद्धि देखी करी एहनी, हूँ किसइ गोनि राजा विचार यउ । राज नइ रिद्धि सहु छोड़ि संजम लीयउ, इन्द्र महाराज आगइ न हार चउ ॥७॥ध०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दशारण भद्र गीतम् एहवी, इन्द्र वादी प्रसंसा करी धन्य कृतपुण्य तूं साध मोटउ । पण जन्म जीवितव्य सफलउ कीयउ, यांगम्पउ बोल कीधउ न कोटउ ||८||०|| दसणभद करम क्षय करिय मुगति गयउ, एह अभिमान साचउ कहीजs : समयसुन्दर कहइ उत्तराध्ययन मई, साधना नाम थी निस्तरीजइ || ६ ||६० ॥ श्री धन्ना ( काकंदी ) अणगार गीतम सरसति सामण वीनवु, मागू एकज सार । एक जीभे हुं किम कहूँ, एहना तप नो नहीं पार ॥ १ ॥ गुणवंत ना हूँ गुण स्तव, धन धन्न अणगार ॥ श्रकणी ॥ निरदोष नांखीजतो लीइं, पट काया आधार ॥ गु० ॥ २ ॥ सुख संयम बीजो नहीं, जग मांहि तच्च सार | संजम भार ॥ गु०॥ ३ ॥ यौवन बेस । जन्म मरण दुख टालवा, लीधउ बचीस रंभा तजी, जीत्यउ विकट as दोय वश कर्या, श्री जिनवर उपदेश || गु० ॥ ४ ॥ मयण दंत लोह ना चणा, किम चावस्यै कंत । मेरु माथ करी चालवू, खड़गधार हो पंथ ॥ गु०॥ ५ ॥ Jain Educationa International ( २८३ ) For Personal and Private Use Only Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुम अलि शरीर सुश्रुषा नवि करइ, वाध्या नख नइ केस । मुनिवर आठे मद गालिया, विषय नहीं लवलेस ॥ गु०॥६॥ हाड हीडतां खड़ खड़इ, काया काग नी जंघ । सरीर संतोषे सूक, न कीधउ व्रत भंग ।। गु०॥७॥ नसा जाल सवि जूजुई, सूक्यउ लोही नइ मांस । भावीस परिसह जीपवा, रहवं वन वास ।।गु०॥८॥ आंखि ऊंडी तारा जगमगइ, सुरतरु सुरुमां कान। सूकी आंगली मग नी फली, पग जिम सूकू पान ।।गु०॥६॥ श्रेणिक श्री जिन वांद नइ, प्रश्न पूछइ जे एह । कुण तपसी तप आगला, मुझ नइ कहउ तेह ।। गु०॥१०॥ साधु शिरोमणि जाणस्यउ, धन धनउ अणगार । आठ खाण करमे भरी, काढी नांखइ छइ बाहर ॥ गु०॥११॥ श्रोणिक हीडइ वन सोझतो, देखू भूलों रूप । सूकु खोखु जेहवु सर्प नु, तेहईं दीठ सरूप ।। गु०॥१२॥ ऊठ कोड़ी रोम ऊलस्या, हुई सफल ते यात्र । त्रिण प्रदिक्षणा देइ करी, भावे वंदं हो पात्र ।। गु०॥१३॥ मास एक अणसण करी, ध्यवउ शुक्ल ते ध्यान । नव मासे कर्म खपेवो, पाम्थु अनुत्तर विमान ।।गु०॥१४॥ करि काउसग्ग कर्म खपेवी, यति तारण हो तरण। समयसुंदर कहइ एतलं, मुझ नइ साधु जी नउ शरण ।गु०१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन्ना (काकंदी ) अरणगार गीतम् ( २८५) धन्ना ( काकंदी ) अणगार गीतम् वीर जिणंद समोसरचा जी, राजगृही उद्यान । समवशरण सुरवर रच्यउ जी, बइठा श्री बधमान ॥१॥ जग जीवन वीरजो, कउण तुमारउ सीस । आप तरइ अउर तारवइ जी, उग्र तप धरइ निशदीस । आ.ज.! प्रभु श्रागमन सुणी करी जी, श्रेणिक हरष अपार । प्रभु पय वंदन आवियउ जी, हय गय रथ परिवार ॥२॥ ज०॥ श्रोणिक प्रभु देसना सुणीजी, प्रसन करइ सुविचार । चउद सहस अणगार मंद जी, कउण अधिक अणगार ॥३॥ ज०॥ काकंदी नगरी वसइ जी, भद्रा मात मन्हार । संयम रमणी आदरी जी, जाणी अथिर संसार ॥४॥ ज०॥ छठ तप आंबिल पारणइ जी, उज्झित लियइ अाहार । माया ममता परिहरि जी, देह दीधइ आधार ॥शा ज०॥ सीख दुविध पालइ भली जी, शम दम संयम सार । तपजप प्रमुख गुणे करीजी,अधिक धनउ अणगार ॥६॥ज०॥ धनउ नाम सुणी करी जी, हरख्यउ श्रोणिक राय । त्रिण प्रदिक्षणा देई करी जी, वांदइ मुनिवर पाय ॥७॥ ज०॥ नवमंइ अंगइ ए अछइ जी, धन्ना नउ अधिकार । सोहम सामी उपदिस्यउ जी, जंबू नइ हितकार ॥८॥०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८६ ) समयसुन्दरकृतिधुसुमाञ्जलि एहवा मुनिवर वांदियइ जी, चरण कमल चित्त लाय । समयसुंदर गरुइ' भणइ जी, निरुपम शिव सुख थाय ॥६॥ ज०॥ इति धन्ना अणगार गीतं संपूर्ण । श्री प्रसन्न चंद्र राजर्षि गीतम् ढाल-तपोधन रूड़ा रे, भमरा ना गीतनी । मारग मई मुझनइ मिल्यउ रिषि रूड़उ रे, सूधउ साधु निग्रंथ रिषीसर रूड़उ रे। उत्कृष्टी रहणी रहइ रिषि रूड़उ रे, ___ साधतउ मुगति नउ पंथ रिपीसर रूड़उ रे ॥१॥ एकइ पग ऊभउ रह्यउ रिषि रूड़उ रे, सरिज सामी दृष्टि रिपीसर रूड़उ रे। बोलायउ बोलइ नहीं रिषि रूड़उ रे, __ ध्यान धरइ परमेष्टि रिषीसर रूड़उ रे ॥२॥ कहइ श्रेणिक सामी कहउ रिषि रूड़उ रे, जउ मरइ तउ जाइ केथि रिषीसर रूड़उ रे । सामी कहइ जाइ सातभी रिषि रूड़उ रे, तीव्र वेदना छइ तेथि रिषीसर रूड़उ रे ॥३॥ देव की वागी दुदुभि रिषि रूड़उ रे, उप केवल ज्ञान रिषीसर रूड़उ रे । १ भगति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रसन्नचंद्र राजर्षि गीतम् (२८७ ) श्रेणिक नइ समझावियउ रिषी रूड़उ रे, अशुभ मनइ शुभ ध्यान रिषीसर रूड़उ रे ॥४॥ प्रसन्नचंद्र सरिखउ मिलइ रिषी रूड़उ रे, तउ हूँ तरू ततकाल रिषीसर रूड़उ रे । दूसम कालइ दोहिलउ रिषी रूड़उ रे, समय सुंदर मन वालि रिषीसर रूड़उ रे ॥ ५॥ इति श्री प्रसन्न चंद्र रिषीसर गीतम् ॥ ४ ॥ भी प्रसन्न चंद्र राजर्षि गीतम् ढाल-वेगि विहरण श्राव्यो घरे। प्रसन्न चंद प्रणमुं तुम्हारा पाय, तुम्हे अति मोटा रिषीराय । ॥०॥ आंकणी॥ राज छोड्यउ रलियामणो तुम जाण्यउ अथिर संसार । वयरागे मन वालियें तुमे लीधउ संयम भार ॥प्र.॥१॥ वन माहे काउसग्ग रह्या पग ऊपर पग चाढ़ई । बांह बेऊ ऊंची करी सूरिज सामी दृष्टि देह ॥प्र.॥२॥ दुरमुख दूत वचन सुणी तुम कोप चढ्या तत्काल । मन सुं संग्राम मांडियउ तुम जीव पड़यउ जंजाल |प्र.॥३॥ श्रोणिक प्रश्न करयं तिसे स्वामी एहनइ कुण गति थाइ । भगवंत कहइ हिवणां मरइ तउ सातमी नरके जाइ ॥प्र.॥४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि क्षण इक अंतर पूछियउ सर्वार्थ सिद्ध बागी देव की दुंदुभी ए पाम्यउ केवल प्रसन्न चंद्र मुगते गयो श्री महावीर नउ समयसुंदर कहइ धन्य ते जिस दीठा श्री बाहुबलि गीतम् तखिसिला नगरी रिषभ समोसरया रे, सांझ समझ वन वनपालक दीधी वद्धामणी वदूँ वा रिषभजी रिद्धि विस्तार सुं रे, मांहि । रे, बाहुबलि अधिक उच्छाहि ॥ १ ॥ ग्रह उगमतइ बाहुबलि रयणी इम चितवs रे, सूर । अति घणउ आणंद पूर ॥ २ ॥ वां० ॥ पवन तणी परि प्रतिबंध को नहीं रे, आदि जिन विचरचा अनेथि । बाहुबलि अव्यउ श्राडंवर करी रे, समयसुन्दर कहइ तीरथ तिहां थयुं रे, बोबा अदिम Jain Educationa International विमान । ज्ञान || प्र ॥ ५॥ शिष्य । प्रत्यक्ष || प्र. ॥६॥ नय‍ न देखइ केथि ॥ ३ ॥ वां० ॥ मणिमय पीठ मनोहर कर्यु रे, तात भगति अभिराम । नाम ॥ ४ ॥ वां० ॥ इति श्री बाहुबलि गीतं ॥ २६ ॥ For Personal and Private Use Only Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) श्री बाहूबलि गीतम् (२८६ ) (२) श्री बाहुबलि गौतम राग-कालहरउ राज तणा अति लोभिया, भरत बाहुबलि जूझ रे। मुंठि उपाड़ी मारिवा, बाहुबलि प्रतिबूझइ रे ॥१॥ बांधव गज थी उतरउ, ब्राह्मी सुन्दरी भासह रे। रिषभदेव ते मोकली, बाहूचलि नइ पासइ रे ॥रावा.श्रांकणी।। [वीरा म्हारा गज थकी ऊतरउ, गज चढ्यां केवल न होइ रे वी.] लोचकरी संजम लीयउ, आयउ वलि अभिमानो रे। लघु बांधव वांदू नहीं, काउसग्ग रह्यउ शुभध्यानो रे ॥३॥बां.॥ वरस सीम कारसग राउ, वेलडिए वीटाणउ रे। पंखी माला मांडिया, सीत तावड़ सोखाणउ रे ॥४॥बां.॥ साधवी वचन सुणीकरी, चमक्यउ चित्त विचारइरे। हयगय रथ सविपरिहर या,पणि चड यउ हूँ अहंकारोरे॥४॥बां.॥ वय रागइ मन वालियर, मूंकचउ निज अभिमानोरे। पग उपाड यइ वांदिवा, पाम्यउ केवल न्यानो रे ॥६॥बां.॥ पहुता केवलि परषदा, बाहूबलि रिषिराया रे। अजरामर पदवी लही, समयसुन्दर वांदइ पाया रे ॥७॥बां.॥ इति भरत वाहूबलि गीतम् ॥ २७ ॥ - - - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६८ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि श्री भवदत्त-नागिला गीत ढाल-साधु नइ वहिराव्यु कडवुतुबड़ा रे । भवदत्त भाई घरि आवियउ रे, प्रतिबोधिवा मुनिराय रे। . नव परणी मूकी नागिला रे, . भवदेव वांदइ मुनि पाय रे ॥१॥ अरध मंडित नारी नागिला रे, __ खटकइ म्हारा हियडला वारि रे । भवदत्त भाइयइ मुंनइ भोलव्यउ, लाजइ लीधउ संजम भार रे॥२॥ अ०॥ हाथे दीधं घी न पातरु, मुझनइ आधेरउ बउलावि रे। इम करि गुरु पासि लेई गयउ, गुरुजी पूछयु संजम नउ छइ भाव रे॥२॥१०॥ लाजइ नाकारउ नवि कर्यउ, दीक्षा लीधी भाई बहु मानि रे। बार वरस व्रत मांहि रघउ, हीयडइ धरतउ नागिला नउ ध्यान रे॥४०॥ हा ! हा! मूरिख मई स्युं करचु, काय पड्यउ कष्ट मझारि रे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भवदत्त नागिला गीत ( २६१ ) चंद बदनी मृग लोयणी रे, विल विलती मुकी नारि रे॥। अ०॥ भवदेव भागइ चित आवियउ, विण अोलख्यां पूछइ वात रे। कहउ कोई जाणइ नारि नागिला रे, किहां वसइ केही छइ धात रे॥६॥०॥ नारि कहइ सुणि साध जी, वम्यउ न लेयइ कोई आहार रे । गज चढी खर कोई नवि चडइ, तिम व्रत छोड़ी नइ नारि रे ॥७॥ अ०॥ नागिला नारि प्रति बूझव्यउ, वयराग धरयउ मुनिराय रे । भवदेव देवलोक पामियउ, समयसुंदर वांदइ पाय रे ॥८॥०॥ इति भदेव गीतम् संपूर्णम् ।। २८ ।। श्री मेतार्य ऋषि गीतम् नगर राजगृह मांहि वसउ जी, मुनिवर उग्र विहार । ऊंच नीच कुल गोचरी जी, सुमति गुपति पण सार ॥११॥ मेतारज मुनिवर बलिहारी हूँ तोरइ नामि । उत्तम करणी तई करी जी, त्रिकरण करू रे प्रणाम ।मे.प्रकरणी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६२ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि सोवनकार घर आंगणइ जी, मुनिवर पहुंतउ जाम । आहार भणी ते मांहि गयउ जी, क्रौंच गल्या जव ताम। मे. ॥२॥ सोवनकार कोपइ चढ्यउ जी, यह मुनिवर नइ दोष । नाना विध उपसर्ग करइ जी, ऋषि मनि नाणइ रोष ॥मे. ॥३॥ वाध्र सँ मस्तक बीटीयउ जी, निविड बंधने भड़ भीड़। घटकि अांख त्रूटी पड़ी जी, प्रबल प्रकट थई पीड़ ।।मे. ॥४॥ क्रौंच जीव करुणा भणी जी, उपशम धर यउ शुभ ध्यान। अनित्य भावना भावतां जी, पाम्यउ केवल ज्ञान ॥मे ॥५॥ अंतगड़ पाली आउखउ जी, पाम्यउ भव नउ पार । अजरामर पदवी लही जी, सासता सुक्ख अपार । मे. ॥६॥ श्री मेतारज मुनिवरू जी, साध गुणे अभिराम । समयसुन्दर कहह माहरो जी, त्रिकरण सुद्ध प्रणाम ॥ मे. ॥७॥ इति मेतार्य ऋषि गीतम् , पं० जयमुदर लि० श्राविका माता पठ. ___ श्री मृगापुत्र गीतम् सुग्रीव नगर सोहामणुं रे, बलभद्र राजा बाप । मिरगां माता जनमियउ रे, मगापुत्र सुप्रताप ॥१॥ कुंयर कहइ कर जोडिं नह रे, हूँ हिव दीक्षा लेस ॥मा. ॥.॥ गउख उपरि बइठइ थकह रे, एक दीठउ अणगार । जाती समरण जाणियु रे, ए संसार असार ॥ मा. ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री मृगापुत्र गीतम् ( २६३ ) जीवित हाथ मई जाइ ॥ मा. ॥३॥ अति सुकुमाज़ | अबला बाल || मा. ॥४॥ तन धन जोवन कारिमुं रे, खि मांहि खेरू थाइ | कुटुंब सहु को कारिमुं रे, दीक्षा छह पुत्र दोहिली रे, तँ त किम करिस्यइ ए कामिनी रे, बापड़ी कारिमि ए छह कामिनी रे, हं शिव रमणी वरीसि । सूर वीर नह सोहिल रे, हुं मृग चरिजा वरीसि ॥ मा. ॥ ६ ॥ माता नउ आदेस ले रे, लीघउ संजम भार । तप जप कीधा करा रे, पाम्यउ भव नउ पार || मा. ||६|| मृगापुत्र मुगति गयउ रे, उतराध्ययन मकार | समयसुन्दर कहइ हूँ नमुं रे, ए मोटउ अणगार ॥ मा. ॥७॥ इति मृगापुत्र गीतम् ॥ ४६ ॥ मेघरथ (शांतिनाथ दसम भव) राजा गीतम् दसमह भव श्री शांति जी, मेघरथ जिवड़ा राय, रूड़ा राजा । पोसहशाला मंद एकला, पोसह लियउ मन भाय, रूड़ा राजा ॥१॥ धन धन मेघरथ राय जो, जीय दया सुख खाण, धर्मी राजा || कणो ।। ईशानाधिप इन्द्र जी, वखाण्यउ मेघरथ राय, रूड़ा राजा । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि धरमे चलायउ नवि चलइ, मासुर देवता आय रूड़ा राजा ॥ २॥१०॥ पारेवउ सींचाणा मुखे अवतरी, ... पड़ियं पारेवउ खोलामांय रूड़ा राजा । राख राख मुझ राजवी, मुझनइ सींचाणउ खाय रूड़ा राजा ॥ ३ ॥१०॥ सींचाणउ कहइ सुणि राजिया, ए छह माहरउ आहार रूड़ा राजा । मेघरथ कहइ सुण पंखिया, हिंसा थी नरक अवतार रूड़ााखी ॥ ४ ॥१०॥ सरणइ अाव्यु रे पारेवड़उ, नहीं आप निरधार रूड़ा पंखी। माटी मंगावी तुज्झ नइ देवु, तेहनउ तूं कर आहार रूड़ा पंखी ॥५॥१०॥ माटी खपइ मुझ एहनी, कां वली ताहरी देह रूड़ा राजा। जीव दया मेघरथ वसी, सत्य न मेले धरमी तेह रूड़ा राजा ॥६॥१०॥ काती लेई पिण्ड कापी नइ, ले मांस तू सींचाण रूड़ा पंखी।। त्राजुए तोलाबी मुझ नई दियउ, एह पारिवा प्रमाण रूड़ा राजा ।। ७ ॥१०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेथरथ (शांतिनाथ दसम भव ) राजा गीतम् ( २६५ ) त्राजू मंगावी मेघरथ राय जी, कापी कापी मइ मूकइ मांस रूड़ा राजा । देव माया धारण. समी, नावइ एकण अंस रूड़ा राजा ॥ ८॥१०॥ भाई सुत राणी विल-विलइ, हाथ झाली कहइ तेह गहिला राजा । एक पारेवइ नइ कारणइ, स्यूंकापउ छउ देह गहिला राजा ॥६॥३०॥ महाजन लोक वारइ सहु, मकरउ एवड़ी बात रूड़ा राजा । मेघरथ कहइ धरम फल मला, जीव दया मुझ घात रूड़ा राजा ॥१०॥१०॥ तराजुए बइठउ राजवी, जे भावइ ते खाय रूड़ा पंखी । जीव थी पारेवउ अधिकउ गिण्यउ, धन्य पिता तुझ माय रूड़ा राजा ॥११॥ध०॥ चढते परिणामे राजवी, सुर प्रगट्यउ तिहां आय रूड़ा राजा । समावइ बहु विधे करी, ललि ललि लागइ छइ पाय रूड़ा राजा ॥१२॥ध.।। इन्द्र प्रशंसा ताहरी करी, जेहवउ तूं छइ राये रूडा राजा । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६६ ) समयसुन्दर कृति कुसुमाञ्जलि मेघरथ काया साझी करी, सुर पहुंतो निज ठाय रूड़ा राजा || १३ || ६० ॥ संयम लियउ मेघरथ राय जी, लाख पूरब नउ आयु रूड़ा राजा । वीस स्थानक वीसे सेविया, तीर्थंकर गोत्र बंधाय रूड़ा राजा ॥ १४ ॥ ६० ॥ ग्यारहं भव मंह श्री शांति जी, पहुँता सरवारथ सिद्ध रूड़ा राजा । तेतीस सागर नउ आउखउ, सुख बिलसइ सुर रिद्धि रूड़ा राजा ॥ १५॥ घ० ॥ एक पारेवा दया थकी, बे पदवी पाम्या नरिंद रूड़ा राजा । पंचम चक्रवर्त्ती चक्रवर्त्ती जाणियह, सोलमां शांति जिणंद रूड़ा राजा ॥ १६ ॥ ६० ॥ बारमइ भवे श्री शांति जी, Jain Educationa International चिराकुख अवतार रूड़ा राजा । दीक्षा लई नइ केवल वरचा, पहुँता मुगति मकार रूड़ा राजा ॥ १७ ॥ ६० ॥ तीजइ भव शिव सुख लाउ, तीर्थंकर पाम्या अनंतो नाग रूड़ा राजा । पदवी लाख वरस लही, यु जाग रूड़ा राजा ॥ १८ ॥ ६० ॥ For Personal and Private Use Only Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघरथ (शांतिनाथ दसम भव) राजा गीतम् ( २६७ ) दया थकी नव निधि हुवइ, दया ए सुखनी खाग रूड़ा राजा । भव अनंत नी ए सगी, दया ते माता जाण रूड़ा राजा ॥ १६ ॥थि ० ॥ गज भव ससलउ राखियउ, मेघकुमार गुण जाग रूड़ा राजा । श्रेणिक राय सुत सुख लाउ, पहुँता अनुचर विमान रूड़ा राजा ||२०||१०|| इम जाणी दया पालजो, मन मई करुणा आण रूड़ा राजा । समयसुंदर इम वीनवइ, दया थी सुख निर्वाण रूड़ा राजा ॥२१॥ ६० ॥ श्री मेघकुमार गीतम् धारणी मनावह रे, मेघकुमार नह रे; तु तउ मुझ एक ज पूत । तुझ बिन जावा रे, दिनड़ा किम गमँ रे; राखउ राखउ घर तया तुझ नह परखावि रे, आठ कुमारिका रे ते बहू अति सुकुमाल । मलपती वह रे, जिम वन हाथणी रे; मयणा वयण सूत ॥ धा० |१| Jain Educationa International सुविसाल || धा० |२| For Personal and Private Use Only Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६८ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि बहुली संपद हूँती छांडि नइ रे, कहो . किम कीजइ वीर । स्त्री धन रे, भोला भोगवी रे . . पछइ व्रत लेज्यो तुमे धीर ॥धा० ॥३॥ मुझ नइ आशा रे, पुत्र हुंती घणी रे रमाडिस बहुअर तणा बाल । देव अवटारउ रे, देखी नवि सकइ रे; ...... . ऊपायउ जंजाल ॥धा०।४। मेघकुमरइ रे, माता प्रति बूझवी रे; दीक्षा लीधी वीर नइ पास । समयसुंदर कहइ धन्य ते मुनिवरू रे; छूटे छूटे भव तणा पास ॥धा०॥ श्री रामचंद्र गीतम : राग-मारुणी प्रियु मोरा तई आदरयउ वइराग, प्रियु मोरा कोटि शिला काउसग रह्यउ हो। प्रियु मोरा कहइ सीता वचन सराग, प्रियु मोरा देवलोक थी आवी करी हो ॥१॥ प्रियु मोरा तंह कीधी वे पास, प्रियु मोरा धीज कीधा पछी अति घणी हो। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रामचंद्र गीतम् ( २६L ) प्रियु मोरा मुझ नइ. पड्यउ वरांस, : प्रियु मोरा अवसर चूकउ आवइ नहीं हो ॥२॥ प्रियु मोरा करि लै नियाणउ कंत, प्रियु मोरा प्रावि अम्हां सु करि साहिबी हो। प्रियु मोरा आणंद करिस्यां अत्यंत, प्रियु मोरा प्रीति पारेवा पालिस्यां हो ॥३॥ प्रियु मोरा अचरिज पोम्यउ राम, .. पियु मोरा अहो अहो काम विटंबणा हो । प्रियु मोरा हिव हुँ सारू काम, - प्रियु मोरा ध्यान सुकल हियडइ धरचउ हो॥४॥ प्रियु मोरा पाम्यउ केवल ज्ञान, प्रियु मोरा सेज शिव सुख पावियउ हो । प्रियु मोरा समयसुन्दर धरइ ध्यान, प्रियु मोरा राम रिषीसर साधनउ हो ॥५इति श्री रामचन्द्र गीतम् ।। ३६ ।। श्री राम सीता गीतम् सीता नइ संदेसउ राम जी मोकल्यउ रे, ... कांइ मुंदरड़ी दे मक्यउ हनुमंत वीर रे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०० ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि जइ नइ संदेसउ कहिज्यो माहरउ रे, तुम्हे हियडइ हुइज्यो साहस धीर रे॥१॥ सी०॥ मत तुम्हे जाणउ अम्हनइ वीसरचा रे, तुम्हे छउ माहरा हीयडला मांहि रे। तुम्ह नइ संभारू सास तणी परि रे, तुम्ह नइ मिलवा तणउ मन उच्छाहि रे॥२॥ सी०॥ जे जेहनइ मन मांहि वस्या रे, ते तउ दरि थकां पणि पास रे। किहां कुमुदिनी किहां चंद्रमा रे, पणि दरि थी करइ परकास रे ॥३॥ सो०॥ सीता नइ संदेसउ हनुमंत जइ काउ रे, वलतुं सीता पणि मोकल्युं सहिनाण रे । समयसुन्दर कहा राम जी रे, जयत पाम्यं सीता शील प्रमाणि रे॥४॥ सी०। इति श्री राम सीता गीतम् ।। २५॥ ॥ धन्ना शालिभद्र सझाय ॥ प्रथम गोवाल तणइ भवे जी, मुनिवर दीधुं रे दान । नगर राजगृह अवतर या जी, रूपे मयण समान ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ धन्ना शालिभद्र सझाय ॥ ॥२॥ ॥३॥ सोभागी शालिभद्र भोगी रह्यो । करणी || बत्तीस लक्षण गुण भरचो जी, परण्यउ बत्तीस नार । मानव नइ भव देवना जी, सुख विलसह संसार || सो. गोभद्र सेठ तिहां पूरवइ जी, नित नित नवला रे भोग । करइ सुभद्रा उवारणा जी, सेव करइ बहु लोग ॥ सो. इक दिन श्रेणिक राजियउ जी जोवा श्राव्यउ रूप । देखी अंग सुकोमला जी, हर्ष थयउ बहु भूप ॥ सो. ॥४॥ वच्छ वैरागी चिन्तवह जी, मुझ सिर श्रेणिक राय । पूर पुण्य महं नवि कर या जी, तप आदरस्युं माय ॥ सो. ॥५॥ इ अवसर श्री जिनवरू जी, आव्या नगर उद्यान । शालिभद्र मन ऊजभ्यउ जी, वांद या वीर जी ने ताम ॥ सो. ॥६॥ वीर तणी वाणी सुखी जी. बृठो मेह अकाल । एकाकी दिन परिहरड़ जी, जिम जल छंडइ पाल ॥ सो. ॥७॥ माता देखी टलवलइ जी, माछलड़ी विनंं नीर । नारी सगली पाय पड़ी जी, मत छंडो साहस धीर ॥ सो. ॥८॥ बहुर सगली वीनवइ जी, सांभलि जिणसुं विचार । सर छंडी पाल चढ्यउ जी, हंसलउ उडण हार ॥ सो. ॥६॥ अवसर तिहां न्हावतां जी, धन्ना सिर आंसू पड़त । कउण दुख तुझ सांभर चउ जी, ऊंचउ जोइ नह कहंत ॥ सो. ॥१० चंद्रमुखी मृग लोचनी जी, बोलावी भरतार | बंधव बात कही तिसह जी, नारी नउ परिहार ॥ सो. ॥११॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ( ३०१ ) Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०२) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि धनो कहइ सुण गहेलड़ी जी, शालिभद्र पूरउ गमार। जोमन आशा छांडिवाजी, तो विलंब न कीजइ लगार। सो.॥१२॥ कर जोड़ी कहई कामिनी जी, बंधव सम नहीं कोइ । कहिता बात सोहिली जी, करतां दोहिली होय ॥ सो. ॥१३॥ जारे तो तई इम का जी, तो मई छोड़ि रे आठ । पिउड़ा मई हंसतां का जी, कुणसं करस्युं बात ।। सो. ॥१४॥ इण वचने धनउ नीसर यो जी, जाणे पंचानन सींह। साला नइ जइ साद कर यउ जी, गहेला उठ अबीह ॥ सो. ॥१॥ काल आहेड़ी नित भमइ जी, पूठ म जोइस जाय । नारी बंधन दोरड़ी जी, धव धव छंडइ निरास ॥ सो. ॥१६॥ जिम धीवर तिम माछलो जी, धीवरे नांख्यो जाल । पुरुष पड़ी जिम माछलो जी, तिम अचिंत्यो काल ॥ सो. ॥१७॥ जोवन भर बिहुँ नीसर चा जी, पहुँता वीर जी पास । दीक्षा लीधी स्वड़ा जी, पालइ मन उल्हास ॥सो. । १८॥ मासखमण नइ पारणइ जी, पूछइ श्री जिनराज । अमनइ शुद्ध गोचरी जी, लाभ देस्यइ कुण आज । सो. ॥१६॥ माता हाथइ पारणउ जी, थास्यइ तुम्ह नइ आहार । वीर वचन निश्चय करी जी, आव्या नगरी मझार ॥ सो. ॥२०॥ घराव्या नहीं ओलख्या जी, फिर आव्या ऋषि राय।। मारग मिलतां महियारडीजी, सामी मिली तिण ठाय॥ सो. ॥२१॥ मुनि देखी मन उल्लसइ जी, विकशित थइ तनु देह । मस्तक गोरस सूझतंउ जी, पडिलाभ्यउ धरि नेह ॥सो. ॥२२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ धना शालिभद्र सझाय ॥ (३०३ ) मुनिवर विहरी चालिया जी, आव्या श्री जिन पास । मुनि संसय जइ पूछयउ जी, माय न दीधुं दान ॥ सो. ॥२३॥ वीर कहइ ऋषि सांभलउ जी, गोरस वहेर चउ रे जेह । मारग मिली महियारड़ी जी, पूर्व जनम नी माय तेह ॥ सो. ॥२४॥ पूरब भव जिन मुख लही जी, एकच भावइ रे दोय । आहार करी मन धारियउ जी, अणसण योग ते होय॥ सो. ॥२५॥ जिन आदेश लें। करी जो, चढिया मुनि गिरि वैभार। शिल उपरी जइ करी जी, दोय मुनि अणसण लीधउ सार ।सो. २६॥ माता भद्रा संचरचा जी, साथइ बहु परिवार । अंतेउर पुत्र ज तणउ जी, लीधउ सगलउ साथ ॥ सो.॥२७॥ समोसरण आवी करी जी, वांद या वीर जग तात । सकल साधु वांदी करी जी, पुत्र नइ जोवइ निज मात ॥ सो. ॥२८॥ जोह सगली परषदा जी, नवि दीठा दोय अणगार । कर जोडी नइ वीनवइ जी, तब भाखड़ श्री जिनराज ॥ सो. ॥२६॥ वैभार गिरि जइ चडचा जी, मुनिवर दर्शन उमंग।। सहु परिवारइ परिवरी जी, पहुँती गिरिवर शृंग ॥ सो. ॥३०॥ दोय मुनि अणसण उच्चरइ जी, झीलइ ध्यान मझार। मुनि देखी विलखी जी, नयणे नीर अपार ॥ सो. ॥३१॥ गद गद शब्द जो बोलतां जी, मिली छइ वत्तीसेनार। पिउड़ा बोलउ बोलड़ा जी, जिम सुख पामें अपार ।। सो. ॥३२॥ अमे तो अवगुण भर चा जी, तुम छउ गुण ना भंडार। मुनिवर ध्यान चूक्या नहीं जी,तेह नह विलंब न लगार॥ सो. ॥३३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०४ ) समयमुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि वीरा नयण निहाल जो जी, ज्यूँ मन थाय प्रमोद । नयण उघाडि जोवउ सही जी, माता पामइ मोद । सो. ॥३४॥ शालिभद्र माता मोहिनी जी, पहुंता अमर विमान । महाविदेहे सीझस्यइ जी, पामी केवल ज्ञान ॥ सो.॥३५॥ धनउ घरमी मुक्ति गयउ जी. पामी शुक्ल ध्यान । जे नर नारी गावस्यइ जी, समयसुन्दर नी वाण ।। सो. ॥३६॥ ___ श्री शालिभद्र गीत ढाल-लाखा फूलाणी नी. धनउ सालिभद्र बेई, भगवंत नउ आदेस ले जी हो ।हो मुनिवर ध.। संवेग सुद्ध धरेइ, वैभार गिरि उपरि चढ्या जी हो ।हो मुनि. सं.२॥ अणसण करि अणगार,सूना सिलातल उपरइ जी हो । हो मुनि.अ.। ए संसार असार,ध्यान भलउ हियडइ घरचउजी हो। होमुनि. ए.॥२॥ आणी मनि उछरंग, आवी सुभद्रा वांदिवा जी हो। हो मुनिवर आ.। पेखी पुत्र निसंग, रोवा लागी हबके जी हो । हो मुनिवर पेखी.।३। सालिभद्र तुं सुकुमाल, एह परीसा पुत्र आकरा जी हो। हो मुनि. सा.। बतीस अंतेउरी बाल, निरधारी तजि नीसरचउजी हो।हो मुनि.व.।४। मंदिर महुल मझार, सेज तलाई मई पउढतउ जी हो।हो मुनि. मं.। कठिन सिला संघारि,सबल परीसा पुत्र तँ सहइ जी हो।हो मुनि.का। साम्हउ जो इकवार, मन वालइ थारी मावड़ी जी हो । हो मुनि.सा.। . नाण्यउ नेह लगार,सालिभद्र साम्हउ जोयउ नहीं जो हो। हो मु.ना.। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... श्री शालिभद्र गीत (३०५ ) चडते मन परिणाम, कीधी मास संलेखणा जी हो। हो मुनि. च.। सारथा आतम काज, सर्वारथ सिद्धि गया जी हो । हो मुनि.सा. महाविदेह मझारि', मुगतिं जास्यइ मुनिवरु जी हो । हो मुनि.महा.। वंदना करूं वार वार, समयसुंदर कहइ हुँ सदा जी हो। हो मुनि.वं.।। __ इति श्री धन्ना शालिभद्र गीतम् ।।४६।। सं.१६६५ वर्षे मगसिरस्यामावास्यां जोङवाड़ाग्रामे पं.हरिराम लिखितम्। श्री शालिभद्र गीतम् राग-भूपाल शालिभद्र आज तुम्हानइ अपणी माता, पडिलाभस्यइ सु सनेहा रे । श्री महावीर कहइ सुणि शालिभद्र, मत मनि धरई संदेहा रे ॥ सा. ॥१॥ वीर वचन सुणि विहरण चाल्यउ, सालिभद्र मन संतोषी रे। आयउ घरि अोलख्यउ नहीं माता, तप करि काया सोषी रे ॥सा.॥२॥ विन विहर यइ पाछउ वल्यउ मुनिवर, मन मांहि संदेह प्रायरे। १ उत्तम लहि अवतार . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०६ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि मारग मांहि मिला महिारा तिण गोरस विहरायउ रे ॥सा. ॥३॥ बेकर जोड़ी सालिभद्र बोला, प्रश्न करू स्वामी तुझ नइ रे । विरहण बात तो दूरो रही पणि, मां ओलख्यउ नहीं मुझनइ रे ।। सा. ॥४॥ पूरब भव माता पडिलाभ्यउ, भगवंत संदेह भाजउ रे । समयसुंदर कहइ धन धन सालिभद्र, वीर चरणे जाइ लागउ रे ॥ सा. ॥शा इति श्री सालिभद्र गीतम् ।। ४७ ॥ श्री शालिभद्र गीतम् ढाल- कपूर हुयइ अति ऊजलुरे, वली अनोपम गंध । ए गीतनी राजगृही नउ विवहारियउ रे, गोभद्र तणउ रे मल्हार । भद्रा माता कूयरु रे, सालिभद्र गुण भण्डार ॥१॥ मुनीसर धन सालिभद्र अवतार, जिण लीघउ संजम भार। मुनीसर धन• जिण पाम्यउ भव नउ पार ।मु० ध०॥ोंकणी!! वत्रीस अंतेउरि परिवर-घउ रे, भोगवा लील विलास । मन वंछित सुख पूरवइ रे, गोभद्र सगली आस । मु०॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शालिभद्र गीतम् .. ( ३०७ ) रतन कंबल अाव्यां घणां रे, पणि श्रेणिक न लेवाय । सालिभद्र नी अंतेउरी रे, लूही नाख्यां पाय ।मु०॥३॥ श्रेणिक श्राव्यउ आंगणइ रे, पुत्र सुरणउ सुविचार । श्रेणिक क्रियाणु मेलवी रे, मात जी मेल्हउ वखारि ॥१०॥ ४॥ श्रेणिक ठाकुर आपणउ रे, जेहनी वसियइ छत्र छांय । चमक यउ सालिभद्र चिंतषइ रे,मुझ माथइ पखि राय ।। मु०॥५॥ तण जिम रमणी परिहरी रे, जाण्यउ अथिर संसार । महावीर पासि मुनीसरू रे, लीधउ संजम भार ।मु०॥६॥ तुम नई मां पडिलाभयइ रे, इम बोलइ महावीर । घरि आव्यउ नवि ओलख्यो रे,तप करी मोख्यु सरीर ।मु०॥७॥ पडिलाभ्यउ गोवालणी रे, पूरव भवनी माय । वीर वचन साचां थया रे, धन धन श्री जिनराय ॥ मु०॥८॥ वैभार परबत ऊपरी रे, ले अणसण शुभ ध्यान । मास संलेखण पामियु रे, सरवारथ सिद्धि विमान । मु०॥६॥ सालिभद्र ना गुण गावतां रे, सीझइ वंछित काम । समयसुंदर कहइ माहरउ रे, त्रिकरण शुद्ध प्रणाम । मु०॥१०॥ इति श्री शालिभद्र गीतम् ।।१०।। श्री श्रेणिक राय गीतम् प्रभु नरक पडतउ राखियई, तउ तँ पर उपगारी रे । श्रेणिक राय वदति वीर तेरउ, हूं तउ खिजमति कारी रे ।प्र.।१। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०८ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि कालकसरियउ महिष न मारइ, कपिला दान दिराय रे। वीर कहइ सुण श्रोणिक राया, तउ तूं नरक न जाय रे ।प्र.।२। कालकमरियंउ किम ही न रहइ,कपिला भगति न आई रे। कीधउ हो करम न छूटइ कोइ, हिंसा दुरगति जाइ रे ।प्र.३। दुख न करि महावीर कहइ तोरी, प्रकट हुसी पुण्याई रे। पदमनाभ तीर्थकर होस्यइ, समयसुंदर गुण गाई रे । प्र.।४। -* श्री स्थूलिभद्र गीतम् मनड़उ ते मोह्यउ मुनिवर माहरू रे, कहइ इम कोश्या ते नारि रे। आठे ते पहुर उपांपलउ रे, चट पट चित्त मझार रे । मन०१। ० पांजरडउं ते भूलउ भमइ रे, . जीव तमारे पास रे । तमस्यं बोल्यई विण माहरइ रे, पनरह दिन छमासि रे। मन०१२। पर दुक्ख जाणइ नहीं पापिया रे, दुसमण घलइ विचइ घात रे । जीव लागउ जेहनउ जेहस्युं रे, किम सरइ कीधां विण वात रे । म०३। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री स्थूलिभद्र गीतम् ( ३०६ ) घोड़ी नवि प्रीति त्र टइ नहीं रे, त्रोटतां ते त्र टइ माहरा प्राण रे। कहउ केही परि कीजीयइ रे, तुम्हे जउ चतुर सुजाण रे । म०।४। संवत सोल नव्यासीयइ रे, मीर मोजा नु राज रे । अकबरपुर मांहि रही रे, भाद्रवइ जोड़ी छइ भास रे । म०।। स्थूलिभद्र कोश्या प्रति बूझवइ रे, धरम ऊपरि धरउ राग रे । प्रेम बंधन नेटि पाडुयो रे, समयसुंदर सुखकार रे ।म०।६। श्री स्थूलिभद्र गीतम् प्रियुड़उ अाव्यउ रे आसा फली, बोलइ कोसा नारी । प्रोति पनउता पालियइ, हुँ छ दासि तुम्हारी ।१ । प्रि० । हुं प्रियुडा तुझ रागिणी, तूं का हृदय कठोर रे । चंद चकोर तणो परि, मान्यउ तूं मन मोर रे । २ । प्रि० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१० ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि साजण सरसी' प्रीतड़ी. कीजइ धुरि थकी जोय रे। कीजीयइ तउ नवि छोड़ियइ, कंठइ प्राण जां होय रे। ३ । प्रि० । चउमासु चित्रसालीयइ, रह्या मुनिवर राय रे । नयण अणीयाले निरखती, गोरी गीत गुण गाय रे । ५ । प्रि० । कोसा वचन सुणी करी, मुनिवर नवि डोला रे । समयसुन्दर कहइ कलियुगइ, थूलिभद्र न को तोलइ रे । ५ । प्रि० । इति श्री स्थूलिभद्र गीतम् श्री स्थूलिभद्र गीतम प्रीतड़ी प्रीतड़ी न कीजइ हे नारि परदेसियां रे, खिण खिण दामइ देह । बीछड़ियां बोछड़ियां वाल्हेसर मेलउ दोहिलउ रे, सालइ अधिक सनेह पी.।१। आजनइ आजनइ आव्या रे काल्हि चालस्यइ रे, १ सेती Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री स्थूलिभद्र गीतम् ( ३११ , . भमर भमंता जोइ । साजणिया साजणिया वउलावी वलता चालतां रे, धरती भारणि होय ॥प्री.।२। कागलियउ कागलियउ लिखतां भीजइ आंसुए रे, आवइ दोषी हाथि । मनका मनका मनोरथ मन माहे रहइ रे, __ कहियइ केहनइ साथि ॥त्री.३। इण परि इण परि कोसा थूलभद्र बूझवी रे, पाली पूरव प्रोति । सीयल सोयल सुरंगी अोढाड़ी चूनड़ी रे, समयसुदर प्रभु रीति ॥पी.॥४॥ इति श्री स्थूलिभद्र गीतम् ।। ४३ ॥ श्री स्थूलिभद्र गौतम राग-सारंग प्रीतड़िया न की जइ हो नारि परदेसियां रे, खिण खिण दाझइ देह । वीछड़िया वाल्हेसर मलवो दोहिलउ रे । सालइ सालइ अधिक सनेह ।प्री.।१॥ आज नइ तउ आव्या काल उठि चालवु रे, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१२ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि भमर भमंतां जोई । साजनिया बोलावि पाछा वलतां थकां रे, धरती · भारणि होइ पी.२। राति नइ तउ नावइ वाल्हा नींदड़ो रे, दिवस न लागइ भूख । अन्न नइ पाणी मुझ नइ नवि रुचइ रे, दिन दिन सबलो दुख ।प्री.।३। मन ना मनोरथ सवि मन मां रह्या रे, ___ कहियइ केहनइ रे साथि । कागलिया तो लिखतां भीजइ प्रांसुत्रां रे, आवइ दोखी हाथि प्री.।४। नदियां तणा व्हाला रेला वालहा रे, अोछा तणा सनेह । वहता वहइ वालह उतावला रे, झटकि दिखावइ छेह प्री.।। सारसड़ी चिड़िया मोती चुगइ रे, चुगे तो निगले कांइ । साचा सद्गुरु जो आवी मिलइ रे, मिले तो बिछुडइ काई प्री.।६। इण परि स्थूलिभद्र कोशा प्रतिबूझवी रे, पाली पाली पूरब प्रीति सनेह । .. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री स्थूलिभद्र गीतम् (३१३ ) शील सुरंगी दोधी चूनड़ी रे, समयसुदर कहइ एह ।पी./७/ इति स्थूलिभद्र गीतं ॥ २७॥ श्री स्थूलिभद्र गीतम राग-जयतश्री-धन्या श्री मिश्र आवत मुनि के भेखि देखि दासी सासीनी । कोशि वेशि कुंआइ इसी जु बधाई दीनी ॥ पियु आये सखि आपुने सुनि हर्षित भई नारि । तबहि उतारी अंग हो दीनउ मोतिण हार ॥१॥ स्थूलिभद्र आये भलइ ए माइ जोवत जोवत माग के। आंकणी॥ चित्रशालि चउमास रहे लहे गुरु आदेसा । कोशि कामिनी नृत्य करइ सुरसुंदरी जैसा ॥ हाव भाव विभ्रम करइ कुंभये निठुर निटोल । पूरब प्रेम संभाल प्रियु तूं मान हमारो बोल के ॥२॥ काम भोग संयोग सबइ किंपाक समाने।। पेखत कूपइ कुण पड़इ सुणि कोश सयाने ॥ मेरु अडिग मुनिवर रहे ध्यान धरम चित लाय । समयसुंदर कहइ साध जी हो धन धन स्थूलिभद्र रिषिराय ॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दर कृतिक सुमाञ्जलि स्थूलभद्र गीतम् थूलभद्र व्यउ रे आसा फली, बोलह कोश्या नारि । प्रीति पनउता पालियड़, हूँ छं दासि तुमारि || १ | धू. । हूं प्रीयुड़ा तुझ रागिणी, तू का हृदय कठोर । चंद चकोर तणी परि मान्यउ तूं मन मोर || २|धू. । साजण सेती प्रीतड़ी, कीजइ धुरि थकी जोइ । कीजियइ त नवि छोड़ियह, कंठ प्राण जां होड़ || ३ | धू. | चउमासुं चित्र सालियर, रह्या मुनिवर राय | नयण गियाले निरखती, कोश्या गीत गुण गाय ॥४॥ थू. । कोश्या वचन सुखी करी, मुनिवर न डोलह । समयसुंदर कहइ कलिजुगर, धूलिभद्र न को | तोज़ह ॥ ५ धू. । ( ३१४ ) -03 Jain Educationa International स्थूलभद्र गतिम् राग - केदारउ गउड़ी तुम्हे वाट जोवंतां श्राव्या, हूँ जाऊं बलिहारी रे। कहउ मुझनड़ कांइ तुम लाग्यां, हूँ जाऊं बलिहारी रे ॥ १ ॥ इम बोलह कोश्या नारि हुँ जाऊं बलिहारी । एतला दिन क्युं वीसारी, हूं जाऊ बलिहारी ॥ श्र० ॥ वडुं वखत म्हारु जे संभारी, हूँ जाऊ बलिहारी । रहउ चित्रशाली छह तुम्हारी, हु जाऊ बलिहारी रे ॥ २ ॥ For Personal and Private Use Only Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री थूलिभद्र गीतम् ( ३१५ ) तुम्हे पूरउ पास अम्हारी, हु जाऊ बलिहारी। अम्हे साध निग्रंथ कहावु, तू सुंदरि सांभलि रे ॥ ३ ॥ अम्हे धरम मारग संभलावु, सुंदरि सांभलि रे । तू भोलु बोलि मां भांभलि,तूंसु दरि सांभलि रे ॥ ४ ॥ अम्हे मुगति रमणि सुंरा,तू सुंदरि सांभलि रे । जिहां सासतं सुख छइ साचूँ, तुं संदरि सांभलि रे ।। ५ ।। रिषि ना वचन सुणि प्रतिबूधा, त सुंदरि सांभलि रे । एतो श्राविका थई अति सूधीत संदरि सांभलि रे ॥६॥ साबाश कोशा शील पाल्युं, तू सुंदरि सांभलि रे । समयसुंदर कहइ दुख टाल्यंत संदरि सांभलि रे ॥ ७॥ __इति श्री स्थूलिभद्र गीतम् ।। ४४॥ श्री स्थालेभद्र गीतम् मुझ दंत जिसा मचकुंद कली, केसरी कटी लंक जिसी पतली । काया केलि गरभ जिसी कुयली, ___ सुसनेही हूँ कोसा आई मिली ॥१॥ रमउ रमउ रे स्थूलिभद्र रंग रली ।। रम० ॥अांकणी ॥ नीकी कस बंधी कसी कंचुली, चंचल लोचन झबका बीजली । कंचन तनु गोरी हुँ नहीं सांमली भामिनी मुझ थी नहिं काइ भलि ॥२॥२०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१६ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि जा कतला, कंता विण नारि किसी एकली, थोडइ पाणी छीजइ मछली । कहउ बात कहुँ प्रियुड़ा केतली, प्रीतड़ी संभारउ प्रियु पिछली ॥३॥ २०॥ विलसी धन कोड़ी ते बात टली, तजी नारी तणी संगति सगली । परभव दुरगति वेदन दुहिली, बोलइ मत कोसा ते बात वलि ॥४॥र०॥ प्रतिवोधी कोश्या प्रीति पली, मनमथ तई जीतउ अतुल बली । थूलभद्र मुनिवर तेरी जाऊं बली, समयसुन्दर कहइ मेरी आस फली ॥१॥र०॥ स्थूलिभद्र गीतम व्हाला स्थूलिभद्र हो स्थूलिभद्र व्हाला, एक करू अरदास हो हां. प्रीति संभालउ पाछली । तुम्ह बिण खिण न रहाय हो,हां. क्यू जीवइ जल विण माछली ॥१॥वा.यू.।। मिलतां सुं मिलियइ सही हो,हां० चित अंतर जेम चकोरड़ा । वा० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री स्थूलिभद्र गीतम् ( ३१७) म करिस खांचा तोणि हो, हां. तू पूरि मनोरथ मोरड़ा ॥रावा.थू.॥ लाख टका नी प्रीति हो, हां. मन मान्या स किम तोडियइ । वा। कीजइ प्रीत न होइ हो, हां. बेटी पिण सांधी जोड़ियइ ॥३॥वा.थू.।। जोरइ प्रीत न होइ हो, हां. दे शील सं रंगी चूनडी । वा। साचउ धर्म सनेह हो, हां० आपे करस्यां सुंदर बातडी ॥४ावा.थू.।। ___ श्री स्थूलिभद्र गौतम ढाल-सुण मेरी सजनी रजनी जानइ, एहनी । पिउड़ा मानउ बोल हमारउ रे, आपणी पूरब प्रीति संभारउ रे ॥१॥ श्रा चित्रशाला आ सुख सेज्यां रे, मान मानइ तउ केही लज्या रे॥२॥ वरसइ मेहा भीजइ देहा रे, ___ मत दउ छेहा नवल सनेहा रे॥३॥ कहइ मुनि म करि वेश्या आदेशा रे, सुण उपदेसा अमृत जैसा रे ॥४॥ १अंदेशा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१%) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि पाल तू निर्मल शील सुरंगा रे, पामसी परभव शिवसुख अभंगा रे ॥ ५ ॥ धन धन थूलभद्र तुरिषिराया रे, समयसुन्दर कहै प्राणमुं पाया रे ॥६॥ - - श्री सनत्कुमार चक्रवर्ती गतिम् सांभलि सनतकुमार हो राजेश्वर जी, अबला किम मेल्ही हो राजेन्द्र एकली जी। अम्हनइ कवण आधार हो राजेश्वर जी, राखइ किम धीरज राजन राणियों जी ॥१॥ ए संसार असार हो राजेश्वर जी, काया ते दीठी हो रोजन कारमी जी । लीधो संजम भार हो राजेश्वर जी, छांडी राजरिद्धि तण जिम ते छती जी ॥२॥ मन वसियो वइराग हो राजेश्वर जी, मूकी हो माया ममता मोहनी जी। तिं कोधउ षट खंड त्याग हो राजेश्वर जी, इम किम निठुर हुआ नाहला जी ॥३॥ एकरस्यउ पियु पेखि हो राजेश्वर जी, अम्हनइ मन वाल्हो राजन आपणु जी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सननकुमार चक्रवर्ती गीतम् । ३१६ ) राखी ऋषि नी रेखा हो राजेश्वर जी, योगीन्द्र फिरि पाछउ जोयउ नहीं जी ॥४॥ वरस सातसह सीम हो राजेश्वर जी, बहुली हो वेदन सही साध जी। निरवाह्या व्रत ताम हो राजेश्वर जी, देवलोक तीजइ हुवउ देवता जी ॥४॥ साधु जी सनतकुमार हो राजेश्वर जी, चक्रवर्ती चौथउ तिहां थी चवी जी। उत्तम लहि अवतार हो राजेश्वर जी, शिव सुख लेस्यइ मुनिवर सास्वता जी ॥६॥ इंद्र परीक्ष्या आय हो राजेश्वर जी, हुँ बलिहारी जाऊं एहनी जी। प्रणम्यां जायइ पाप हो राजेश्वर जी, समयसुन्दर कहइ सुख सदा जी ॥७॥ श्री सनत्कुमार चक्रवर्ती गीतम् जोवा आव्यो रे देवता, रूप अनोपम सार । गरब थकी विणसी गयउ, चक्रवर्ति सनतकुमार ॥१॥ नयण निहालउ रे नाहला, अबला करइ अरदास । एकरस्यउ अवलोइयइ, नारी न मूकउ नीरास ॥रान०॥ काया दीठी रे कारिमी, जाण्यउ अथिर संसार । राज रमणि सवि परिहरी, लीधउ संजम भार ॥३शान०॥ १ मणि माणिक भंडार - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२०) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि अम्हे अपराध न को कियउ, सांभलि त भरतार । निपट न दीजइ रे छेहलउ, अबला कुण आधार ॥४॥न०॥ सनतकुमार मुनिसरू, नाण्यउ नेह लगार । काज समार यउ रे आपणउ, समयसुन्दर कहइ सार ॥शान। इति श्री सनतकुमार चक्रवर्ती गीतम् ॥ २४ ॥ श्री सुकोशल साधु गीतम् साकेत नगर सुखकंद रे, सहदेवी माता नंद रे। गढ़ माहे कीघउ फंदरे, सुकोसलउ बाल नरिंद रे ॥१॥ साधु सकोसलउ रे, उपसम रस नउ भंडार । जिण लीधउ संजम भार,जिण पाम्यो भव नउ पार ।। आं०॥ कीर्तिधर नउ कियउ घात रे, सहदेवी पापिणी मात रे । सुकोसलइ जाणी बात रे,मुझ नइ भलउ तात संघात रे॥शासा.॥ व्रत लीधउ तात नइ पास रे,चितउड़ रह्यउ चउमासि रे। तप संजमलील विलास रे, तोड़इ क्रम बंधण पास रे॥३॥सा.।। बागणि आवी विकराल रे,सविलूरचंतनु सुकुमाल रे। मुनि वेदन सही असराल रे,केवल पाम्यउ ततकाल रे ॥४॥सा.।। सोना ना दीठा दांत रे, जाण्यउ पूरब विरतांत रे । अणसण लीधउ एकांत रे, बाघण पण थइ उपसांत रे ॥शासा.।। सुकोशलउ कर्म खपाय रे, मुगति पहुँतउ मुनिरायरे । नाम लेतां नवनिधि थाय रे, समयसुंदर वांदइ पाय रे ॥६॥सा.॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संयती मधु गीतम् (३२१ ) श्री संयती साधु गीतम् ढाल-बे बांधव वांदण चल्या, एहनी कंपिल्ला नगरी धणी, संजती राजा नामो रे। चतुरंग सेना परिवर यउ, गयउ मृगचरिजा कामो रे ॥१॥ संजती नइ क्षत्री मिल्यउ,दृष्टान्त कही दृढ़ कीधउ रे। राज रिधि छोड़ी करी, इए राजा व्रत लीघउ रे ॥२॥ मृग देखि सर मकियउ, ते पड़ यउ साध नइ पासो रे। हा मन साध हण्यउ हुवइ,तिण उपनउ मुनित्रासउरे ॥३॥ साध कहइ मत बीहजे, मुझ थी अभया दानों रे । अभय दान हिव आपितु, सुख दुख सहु नइ समानोरे ॥४॥ प्रतिबूधउ रिधि परिहरी, आण्यउ मनि उल्लासो रे। संजम मारग आदर यउ, गद्द भिलि गुरु पासो रे ॥ ५॥ मारग मई खत्री मिल्यउ, सुणि संजत सुविचारोरे।। हूं मोटउ रिधि मई तजी, मत करइ तु अहंकारो रे ॥६॥ बीजे पण बहु राजवी, छोड़ी रिधि अपारो रे । तप संजम करी आकरा पाम्यउ भव नउ पारो रे ॥ ७॥ भरत सगर मघवा भला, चक्रवर्ती सनत कुमारो रे । शांति कुंथु अरनाथ ए, तीर्थकर अवतारो रे ॥८॥ महा पदम हरिषेण जय, दसारणभद्द करकंडू रे । दुमुह नमी नइ नग्गई, उदायन राय अखण्डू रे ॥६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२२ ) समय सुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ए सेऊ. कासी नउ राजवी, विजय महाबल रायो रे । मुनीसरे, राज छोड्या कहिवायो रे || १०|| ए सहु साध संबन्ध छ, उत्तराध्ययन मझारो रे । समयसुंदर कहइ साधनइ, नाम थी हुयइ निस्तारो रे ॥११॥ इति संयती साधु गीतं ॥ ५० ॥ [ पत्र १४ फूलचंद जी भावक सं० ] श्री अंजना सुन्दरी सती गीतम् ढाल - राजिमती राणी इस परि बोलइ एहनी । Jain Educationa International अंजना सुन्दरी शील वखाणी, पवनंजय राजा नी राणी । पाछिल भव जिन प्रतिमा सांति, करम उदय आव्या बहु भांति | | ० || १ | बार वरस भरतार न बोल्यउ, तो परिण तेहनउ मन नवि डोल्यउ || ० ||२॥ रावण सुं कटकी प्रियु चाल्यउ, चकवी शब्द सुणी दुख साल्यउ || ० ||४|| राति छानउ पाछउ आयउ, अंजना सुंदरी सुं सुख पायउ || ० ||५|| गर्भ नो भ्रांति पड़ी अति गाढी, सासू कलंक दे बाहिर काढी || श्रं० ॥६॥ For Personal and Private Use Only Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अंजना सुन्दरी सती गीनम् (३२३) वन माहे हनुमंत बेटउ जायउ, मामउ मिल्यउ घर तेडि सिधोयउ॥अं० ॥७॥ पवनंजय आयउ अपणइ घरि, दुख करि अंजना नउ बहु परि ।। अं० ॥८॥ काष्ट भक्षण करिवा ते लागउ, मित्र मेली अंजणा दुख भागउ ।। अं० ॥६॥ सुख भोगवि संजम पणि लीधउ, ___ अंजगा सुंदरि वंछित सीधउ ।। अं०।१०॥ अंजणा संदरि सती रे शिरोमणि, गुण गायउ श्री समयसुन्दर गणि ॥ अं११॥ श्री नरमदा सुंदरी सती गीतम् ढाल-साधजी न जाए रे पर घर एकलउ । नरमदा सुदरी सतिय सिरोमणि, चाली समुद्र मझारि । गीत गायन ना अंग लक्षण कह्या, भरम पड़ यउ भरतारि ॥१॥न०॥ राक्षस दोपड़ मकी एकली, कीधा विरह विलाप । बधर कूलइ काउ ले गयउ, प्रगट्या तिहां वलि पाप ॥शन०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि वेश्या नइ राजा नइ वसि पड़ी , मुहकम दीधी मारि । गहिली काली थइ गलिए भमइ, पणि राख्यउ सील नारी ॥३॥०॥ भरुयच्छ वासी जिणदास श्रावकइ, पीहर मकी आणि । धरम सुणी नइ संजम आदर चउ, कठिन क्रिया गुण खाणि ॥४॥न०॥ अवधी न्यान साधवी नइ ऊपनँ, पहुँती सासू पासि । रिषिदत्ता दीधउ उपासरउ, द्यइ उपदेस उलासी ॥शान०॥ स्वर लक्षण नउ भेद सुणावियउ, प्रियउ करइ पश्चाताप । निरपराध मकी मई नरमदा, मइ कीधउ महापाप ॥६॥न०॥ दुक्ख म करि तुं देवाणुप्पिया, तुझ दूषण नहीं तेह । तेहनइ करमे ते दुखिणी थई, तेहू नरमद एह ॥७न०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नरमदा सुन्दरी सती गीतम् प्रियु प्रतिबोधउ नरमदासुंदरी, पहुँती सरग मारि । समयसुंदर कहइ सील वखायतां, पामीजइ भव इति नरमदा सुन्दरी सती गीतं ॥६॥ श्री ऋषिदत्ता गीतम् ढाल - जिणवर सु मेरउ मन लीगड, ए गीतनी रुक्मणी नइ परणवा चाल्यउ, कुमर कनकरथ नाम रे । रिसिदत्ता तापस नी पुत्री, रिसिदचा रूप अति रूयड़ी, सील सुरंगी नारि नित उठी नइ नाम दीठी अति अभिराम रे ॥ १ ॥ जयंता, पामीजइ भव पारि रुक्मणी पापिणी रोस करीनइ, पारि ||८||न० ॥ Jain Educationa International ( ३२५ ) रे । रिषिदत्ता परणी घरि आव्यउ, सुख भोगवर सुविवेक रे । रे ॥ २ ॥ रि० ॥ मूंकी जोगणी एक रे ॥ ३ ॥ रि० ॥ For Personal and Private Use Only Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय सुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि माणस मारि मांस ले मँक, रिषिदत्ता नइ पासि रे । ( ३२६ ) लोही सुं मूँहडउ बलि लेपइ, आवी निज आवासि राक्षसणी जाणी राय कोप्यउ, गद्दह ऊपरि चाडि रे कलंक दई नइ बाहिर काढी, मुँह जाणी चंडालइ मँकी, सारउ नगर भमाड़ि रे ।। ५ ।। रि० ॥ मारण खड़ग देखि नड़ महिला, धरती पड़ी अचेत रे । रे ।। ४ ।। रि० ।। पुरुष थई औषधि परभावर, 1 चरम सरीरी हेत रे ॥ ६ ॥ रि० ॥ सीतल वाय सचेतन कीधी, पहुँती बाप नह ठाम रे । Jain Educationa International तिथ ठाम तापस मिल्यउ तेजि, रिषिदत्त तोपस नाम रे ।। ७ ।। रि० ।। वलि रुकमणी परवा चान्यउ, कुमर कनकरथ तेह रे ! प्रगट्यउ परम ससनेह रे ॥ ८ ॥ रि० ॥ For Personal and Private Use Only Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ऋषिदत्ता गीतम् ( ३२७ ) तापस साथि लीयउ वीनति करि, परणी रुकमणी नारि रे । एक दिन कहइ रिषिदत्ता सुं प्रियु, केहवउ हूंतउ प्यार रे॥६॥ रि०॥ जीवन प्राण हुंती ते माहरइ, तब रुकमणी कहइ एम रे । पणि राक्षसणी दोस देहनइ, मइ दुख दीधउ केम रे ॥१०॥ रि०॥ रुकमणि नइ निभ्रांछि नांखी, काष्ट भक्षण करइ राय रे। मुई पणि मेलं रिपिदचा, कहइ मुनि करउ जउ पसाय रे ॥११॥ रि०॥ कहइ राजा मांगइ ते आएँ, राखउ थांपणि सुब्भ रे।। आप मरी नइ रिषिदत्ता नइ, देई म किसि तुझ रे ॥१२॥ रि०॥ इम कहिनइ परियछि मांहि पइठउ, . ऊषधि कीधी दर रे । . .. रिषिदत्ता रमझमती प्रावी, प्रगट्यउ पुण्य पडूर रे ॥१३॥ रि०॥ रिषिदत्ता लेई घरि आव्यउ, पणि मित्र न करइ दुखु रे । । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२८ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि रिषिदत्ता कहइ ते मित्र आ हूं, भेद काउ थयउ सुक्खु रे ॥१४॥रि०॥ रिषिदत्ता मांगइ थांपणि वर, रुकमणि सं करउ रंग रे। रिषिदत्ता नीं देखउ रूड़ाई, देखउ सील सुचंग रे॥१॥रि०॥ रिषिदत्ता प्रिय से सुख भोगवी, लीधउ संजम भार रे। केवल न्यान लघु तप जप करी, पाम्यउ भव नउ पार रे ॥१६॥ रि०॥ रिषिदत्ता राणी रूड़ी परि, पाल्यु निरमल सील रे। समयसुंदर कहइ मुगति पहूँती, लांधां अविचल लील रे ॥१७॥ रि०॥ ॥ इति रिषिदत्ता गीतम् ॥ श्रीदवदंती सती भास हो सायर सुत सुहामणा, सुहामणा रे, . हो सांभलि सुगुण संदेस । हो गगन मंडल गति ताहरी, ताहरी रे, हो देखइ समला तू देस ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दवदंती सती भास चांदलिया संदेस रे, कहे म्हारा कंतइ रे, थारी अबला कर रे अंदेश | ० नाहलिया विणी रे नारि हूं क्युं रहुं रे | आंकणी || हो वार्लिभ मई नइ वारियउ, वा० रे, हो जूटइ रमिवा तँ म जाई । हो राज हारी तूं निसरघउ, नी० रे, वन मांहि गयउ विलखाइ ॥ २शव०|चा० ॥ हो नल तुझ सुं हूं नीसरी सुनी० रे, हो गमिलीधर दुख श्राध | हो तँ मुझ नइ मँकी गयउ, मुरे, हो इवड़उ किसउ अपराध || ३ |इव । चा । हो सूती मँकी कांइ सती, कांइ सती रे, प्रमदा न जाणी तई पीर । हो हाथे जिण परी हुँती, परणी हुँती रे, हो चतुर कपाउ किम चीर ॥ ४ च. चां ॥ हो कि जागी लगी रिवा, भूरि वा ० रे, हो प्रिउ तँ न दीठउ रे पासि । हो नि वनि जो तँ नइ बालहा, वा० रे, हो साद किया सउ पंचास || ५|सा. चौ. | हो निरति न पामी थारी नाहला, ना० रे, हो पग पग मृगली रे पूठि । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ( ३२६ ) Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३०) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि हो रोई रोई मुंइ हूं रान० मई, रान० रे, हो महियलि पड़ी हूं मूरछि ।।६।।म.।।चो.।। हो कीधुं ते न को करइ, न को करइ रे, पुरुषां गमाड़ि परतीति । हो वेसास भागउ हिव वालहा रे, हो० रे, हो .पुरुषां सु केही प्रीति | ७|पु.चां.॥ हो दृष्टान्त थारउ नल दाखिस्यइ रे, दा० रे, हो कवियण केरी रे कोड़ी। हो पुरुष कूड़ा घf कपटिया रे, हो क० रे, हो खरो लगड़ी तई खोड़ि ख.चां.॥ होवस्त्र अक्षर वांच्या वालहा रे, हो वा० रे, हूं पीहरि चाली परभाति । हो कंत विहूणी कामणी रे, हो कामणी रे, हो पीहरि भली पंच राति ॥४।पी.चा.।। हो वलण वेगी करे वालहा रे, हो वा० रे, हूँ राखीसि सील रतन्न । हो लेख मिटइ नहीं विहि लिख्या, हो रे, हो भूठा कीजइ ते जतन्त्र ॥१०भू.चां.॥ हो बार वरसे बे मिल्या हो, बे मिल्या रे, नल दवदंती नर नारि । हो भावना समयसुंदर भणइ,सुंदर भणइ रे, हो सीयल बड़उ संसार ॥११॥सी.चां। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नल श्री दमयंती सती गीतम् श्री दमयन्ती सती गतिम ढाल - धन सारथवाह साधु नई, एहनी नीसरचा, दवदंती जूयढड़ हार घउ देस नल राजा । वन मांहि राति वासउ वस्या, सूता भूमि प्रदेस नल मुझ नइ मुंकी तू किहां गयउ, अबला कुण आधार नल राजा । साद करइ सगली दिसइ, दवदंती निज नारि नल दवदंती सूती थकी, मूकी गयउ नल राय नल राजा । दवदंती वस्त्र ऊपर अक्षर लिख्या, सासरह पीहरि जाय नल राजा || ३ || मु० ॥ नहीं, द्य प्रलंभा दैव नइ राजा ||१|| ( ३३१ ) देखइ नयण सलूणउ नाह नल राजा | हे हे पुरुष कठिन हिया, राजा ||२||०|| दुख करइ मन मांहि नल राजा ||४|| मु० ॥ Jain Educationa International पुरुष नउ केहउ वेसास नल राजा । For Personal and Private Use Only Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३२ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जा इम अबला नइ एकली, ___ कुण तजई वन वास नल राजा ॥शामु०॥ दवदंती पीहर गई, पाल्यउ निरमल शील नल राजा । समयसँदर कहइ पियु मिल्यउ, लाधा अविचल लील नल राजा ।।६।।मु०॥ इति नल देवदंती गीतम् ।। ३४ ॥ श्री चुलणी भास नयरी कंपिल्ला नउ धणी, पहुंतउ ब्रह्म पर लोकरे। दीरघ राजा सुं ते रमइ, चुलणी न कीधउ सोकरे ॥१॥ चुलणी पणि मुगतई गई, तप संजम फल सार रे। पाप कीयां घणो पाडयां, पड़ती नरक मझारो रे ॥राचु.।. ब्रह्मदत्त पुत्र परणावियउ, लाख नउ घर रच्यउ माइरे। निज स्वारथ अण पहुंचतइ, दीधी अगनि लगाइ रे ॥३॥चु.॥ ... महतइ सुरंग मई काढियउ, बाहिर भम्यउ कुमारो रे। ..... ...........||४||चु. ।। ..........। चुलणी सिव सुख पामियु, समयसुदर करइ ध्यानो रे ॥५॥चु.।। ॥ इति चुलणी भास ॥ १२ ॥ ....... ...... .... Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कलावतो सती गीतम ( ३३३ ) श्री कलावती सती गौतम बांधव मुक्या बहिरखा रे, बहिनइ पहिरन्या बांहि । आसीस दीधी एहवी रे, चिरजीवे जग मांहि ॥१॥ कलावती सती रे सिरोमणि जाण । काप्या हाथ आव्या नवा रे, सील तणइ परमाणि ।।। संखे आसीस सांभली रे, भरम पड़यउ भरतार । एहनउ अनेरउ वालहउ रे, मको दंडाकार ।।क०॥२॥ चंडाले हाथ कापिया रे, जायउ पुत्र रतन्न । हाथ नहीं हुई वेदना रे, जीव नी हिंसा अधन्न ||क०॥३॥ सूड़ा नी पांख खोसी हुँती रे,अाव्या उदय ते कर्म । कर्म थी को छूटइ नहीं रे, जीवनी हिंसा अधर्म ॥०॥४॥ सीलइ सुर सानिधकरी रे, तुरत आव्या ते हाथ । पुत्र सोनानइ पालणइ रे, पउढायउ सुख साथ । क०॥शा राजा बात ए सांभली रे, अचरज थयउ मन एह । आणी आडंबर सुं घरे रे, वाध्यउ अधिक सनेह ॥क०॥६॥ जोवदया सहु पालज्यो रे, पालज्यो सुधू सील । समयसँदर कहइ सील थी रे,लहिस्यउ आणंद लील ॥०॥७॥ श्री मरुदेवी माता गीतम् मरुदेवी माताजी इम भणइ, सुणि सुणि भरत सुविचार रे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि तूं थयउ सुख तणउ लोभियउ, न करह म्हारा रिषभ नी सार रे ।। म. ॥१॥ सुरनर कोड़ि सं परिवर यउ, हीडतउ वनिता मझार रे। आज भमइ वन एकलउ, ऋषभजी जगत आधार रे ॥म.॥२॥ राज लीला सुख भोगियउ, म्हारउ रिषभ सुकुमाल रे । आज सहइ ते परिसहा, भूख तृषा नित काल रे ॥ म. ॥ ३॥ हस्ति ऊपर चड्यउ हीडतउ, . आगलि जय जय कार रे। आज हीडइ रे अल वाहणउ, चिहुं दिसि भमर गुंजार रे । म.॥४॥ सेज तलाइ में पउढतउ, वर पट कूल विछाइ रे । आज तउ भूमि संथारड़उ, बइठड़ां रयणी विहाइ रे ॥म. ॥५॥ मस्तकि छत्र धरावतउ, चामर वीजता सार रे। आज तउ मस्तकइ रवि तपइ, डांस मसक भणकर रे ॥म. ॥ ६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रो मरुदेवी माता गीतम् ( ३३५ ) इम मुझ दुख करंतड़ा, रोवंता रात नइ दीसरे। नयणे अंध पडल वल्या, मोहनी विषम गति दीस रे॥ म. ॥ ७॥ तिण समइ आवि वधावणी, ऋषभ नइ केवल नाण रे। सांभलि भरत .. नरेसरू, वांदिवा जायइ जगभाण रे ॥ म. ॥ ८॥ मरुदेवी गज चड्या मारगइ, सांभल्या वाजिन सूर रे। देव दुंदुभि प्रभु देसना, झटकि पडल गया दूर रे ॥ म. ॥६॥ प्रभु तणी रिधि देखी करी, चिंतवइ मरुदेवी मात रे। हूंतउ आवडउ दुख करू, रिषभ नइ मनि नहीं बात रे॥म. ॥१०॥ एतला दिवस मई मुझ भणी, नवि दियउ एक संदेश रे। कागल मात्र नवि मोकल्यउ, नविकर यउ राग नउ लेश रे।। म.॥ ११॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३६ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि धिग धिग एह संसार नइ, आवियउ परम वइराग रे। किम प्रतिबंध जिनवर करइ, ए अरिहंत नीराग रे ॥म. ॥ १२॥ गज चढ्यां केवल ऊपर्नु, पाम्यउ मुगति नउ राज रे। सुग्नर कोडि सेवा करइ, __भरत बंद्या जिनराज रे॥म. ॥१३॥ नाभिरायां कुल चंदलउ, मरुदेवी मात मल्हार रे। समयसुंदर सेवक भणइ, आपजो शिव सुख सार रे ॥ म. ॥१४॥ श्री मगावती सती गीतम चंद सूरज वीर बांदण आव्या, निरति नहीं निसदीस । मृगावती तिण मउड़ी आवी, . गुरुणी कोधी रीस ॥ १ ॥ . मृगावती खामइ बे कर जोड़ि। .... : चंदना गुरुणी हुँ चरणे लागु, ए अपराध थी छोड़ि ॥मृ०.२॥आंकणी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री मृगावती सती गीतम् ( ३३७ ) मिच्छामि दुक्कड़ दइ मन सुद्ध, __ मूकी निज अभिमान । पोतानउ दूषण परकास्यउ, पाम्यउ केवल ज्ञान ।। मृ०॥३॥ चंदन बाला केवल पाम्यउ, करती पश्चाताप । समयसुंदर कहइ बे मुगति पहुँती, नाम लिया जायइ पाप ॥ मृ०॥४॥ श्री चेलणा सती गतिम् वीर वादी वलतां थकां जी, चेलणा दीठउ रे निग्रंथ । वन मांहि काउसग रह्यउ जी, साधतउ मुगति नो पंथ ॥१॥ वीर वखाणी राणी चेलणा जी, सतिय सिरोमणि जाण । चेडा नी साते सुता जी, श्रेणिक सील प्रमाण ॥२॥वी०॥ सीत ठंठार सबलउ पड़इ जी, चेलणा प्रीतम साथि । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३८ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि चारित्रियउ चित मां वस्यउ जी, __ सोवड़ि बाहिर रह्यउ हाथि ॥३॥वी०॥ झवकि जागी कहइ चेलणा जी, . किम करतउ हुस्यइ तेह । कुसती नइ मन कुण वस्यउ जी, श्रेणिक पड्यउ रे संदेह ॥४॥वी०॥ अंतेउर परिजालज्यो जी, श्रेणिक दियउ रे आदेस । भगवंत सांसउ भांगियउ जी, चमक्यउ चित्त नरेस ॥वी०॥ वीर वांदी वलतां थकां जी, पइसतां नगर मझार । धुंआ नउ धोर देखी करी जी, जा जा रे अभयकुमार ॥६॥वी०॥ तात नउ वचन पाली करी जी, व्रत लीयउ हरषर अपार । समयमुन्दर कहइ चेलणा जी, पाम्या भव तणउ पार ॥वी० ॥ ७॥ १ पाल्यउ तिहां जी. २ अभयकुमार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजुल रहनेमि गीतम् ( ३३६ ) श्री राजुल रहनेमि गीतम् राजमती मन रंग, चाली जिण वंदन हे राजुल चाह स। साधवी सील सुचंग, गिरनारि पहुंता हे राजुल गहकती । १॥ मारगि बूठा मेह, चीवर भीना हो राजुल चिहुँ गमा' । गईय गुफा मांहि गेह, २साइलउ उतारचउ हे राजुल सुंदरी ॥२॥ देखि उघाड़ी देह, प्रारथना कीधा हो रहनेमि पाडुई । अदभुत जोवन एह, सफल करीजइ हे राजुल सुन्दरी ॥३॥ साधवी कहइ सुण साध, विषय तणा फल हो रहनेमि विषसमा। आपइ दुख अगाध, दुर्गति वेदन हो रहनेमि दोहिली ॥४॥ चतुर तुं चित्त विचार, आपे केहवह कुलि हो रहनेमि ऊपना। इण वातइ अणगार, लौकिक न लहियइ हो रहनेमि लोकमइ ॥५॥ साधवी वचन सुणि एम, पाछउ मन वाल्यउ हो रहनेमि पापथी। कुवचन कह्या मई केम,अति पछताणउ हो रहनेमि आप थी।६। अरिहंत चरणे आवि,पाप आलोया हो रहनेमि आपणा । खिण मांहि करम रूपावि, मुगति पहुंतउ हो रहनेमि मुनिवरु ।७) राजमती रहनेमि, सील सुरंगा हो सहु को सांभलउ । जायइ पातक जेम, भाव भगति हो समयसुन्दर भणइ ।८। ॥ इति रहनेमि गीतम् ॥ १ दिसा. २ माधवी उत स्थ उ हे राजुल साइलउ. ३ पाछिल्या. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४०) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि श्री राजुल रहनोमि गीतम् राग-रामगिरी रूड़ा रहनेमि म करिस्यउ म्हारी आलि । मुहड़इ बोलि संभालि रे, हुं नहीं छुभे (१ ने) वाली रे । र । म । सुणि एहवी बात जउ सांभलस्यइ, गुरु देस्यइ तुझ नइ गालि रे।र०॥१॥ जोरह प्रीति न होयइ जादव, ___एक हथि न पड़इ तालि रे । समयसुन्दर कहइ राजुल वचने, रहनेमि लीधु मन वालि रे ।र० ॥ २ ॥ इति राजुल रहनेमि गीतम् ।। पं. रंगविमल लिखितम् ।। शुभंभवतु ॥ छः॥ श्री राजुल रहनेमि गीतम ढाल-किहा गयउ नल किहां गयउ; एह दमयंती ना गीत नी। यदुपति वांदण जावतां रे, मारगि बूठा मेहो रे । गुफा मांहि राजुल गई रे, वस्त्र ऊगविवा देहो रे ।। दरि रहउ रहनेमि जी रे, वचन संभाली बोलउ रे। राजमती कहइ साधजी रे, मारग थी मत डोलउ रे ।२। दू। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजुल रहनेमि गीतम् ( ३४१ ) अंग उघाड़ा देखिनइ रे, जाग्यउ मदन विकारो रे। मुनिवर प्रारथना करइ रे, ल्यउ जोवन फल सारो रे ।३। दू.। राजमती कहइ आपणउ रे, उत्तम कुल संभारउ रे । विषय तणां फल पाडया रे, साधजी चित्त विचारउ रे ।४। दू.। सतिय वचन इम सांभलि रे, वइरागह मन वाल्यउरे। समयसुन्दर रहनेमि जी रे, सील अखंडित पाल्यउ रे ।। दू. । इति श्री रथनेमि गीतम् सं० ॥४॥ श्री राजुल रहनोमि गीतम् राजुल चाली रंगसुं रे लाल, यदुपति वंदण जाइ सुकुलीणी रे । मेहसुभीनीमारगेरे लाल,ऊभी गुफा मांहे बाइ सुकुलीणी रे।१। राजुल कहइ रहनेमि जी रेलाल, मत कर म्हारी आलि सुकुलीणी रे। आपां कयाकुले उपन्यारेलाल,चतुर तुं चारित पाल सुकुलीणीरे २। अंग उघाड़ा देखि नइ रे लाल, चूक्यउ रहनेमि चित्त सुकुलीणी रे । आव आपे सुख भोगवां रे लाल, पालस्यां पूरब प्रीत सकुलीणीरे।३। लौकिक न रहइ लोकमारे लाल, विषय थकी मन वाल सुकुलीणी रे। काम भोग भुंड्या कह्यारेलाल, नरक ना दुख निहाल सुकु० रे।४। दूध उफाणे दूर कियउरेलाल, राख्यउ नइ रहनेमि शील सकु० । समयसुंदर साबास द्यइ रे लाल,............. 'सुकुलीणी रे।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४२ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि UA श्री सुभद्रा सती गीतम् मुनिवर अाव्या विहरता जी, झरती दीठी आंखि । जीभ संघाति काढियउ जी, तरणं ततखिण नाँखि ॥१॥ जग माहे सुभद्रा सती रे, सती रे सिरोमणि जाण । विनयवंत श्रावक सुणउ जी, सील रयण गुण खाण ॥ज..। तिलक रंग लागउ तिहांजी, मुनिवर भाल विसाल । दुसमण लोक कलंक दियउ जी, काउसग्गिरही ततकाल ज.।२। सासण देवत इम कहइ जी, म करे चिंत लगार । ताहरउ कलंक उतारिस्युं जी, जिन सासन जयकार ॥ज. ॥३॥ काचे तांतण सूत्र नइ जी. चालणी काढय नीर। चंपा बार उघाडियउ जी, सीले साहस धीर ।।ज. ॥४॥ मन वचने काया करउ जी, सील अखंड संसार । समयसुंदर वाचक कहइ जो, सती रे सुभद्रा नार (ज. ॥शा श्री द्रौपदी सती भासढाल-मांगी तूगी रे वलभद्र जइ रह्या रे, एहनी. पांच भरतारी नारी द्र पदी रे, तउ पणि सतीय कहाय रे । नारी नियांणुं की, भोगबह रे, करम तणी गति काइ रे।११ पं./ जुधिष्टिर नई पासइ हुंती रे, देवता आणी दीध रे। पदमनाभइ घणु प्रारथी रे, पणि सत साहस कीध रे ।।पं.। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री द्रौपदी सती भास ( ३४३ ) छम्मास सीम आंबिल किया रे, राख्यु सील रतन्न रे। पाली आणी वलि पांडवे रे, पणि श्रीकृष्ण जतन्न रे।।पं.। सील पाली संजम लियउ रे, पांचमइ गई देवलोकि रे। माहविदेह मइ सीमस्यइ रे, सील थकी सहु थोक रे।४।पं.। द्र पद रायतणी तणया रे, पांच पांडव नी नारि रे। समयसुन्दर कहइ द्रपदी रे, पहुँती भव तणइ पारि रेशपं.। (१) श्री गौतम स्वामी अष्टक प्रह ऊठी गौतम प्रणमीजइ, मन वंछित फल नउ दातार । लवधि निधान सकल गुण सागर,श्रीवद्धमान प्रथम गणधार । प्र.१॥ गौतम गोत्र चउद विद्यानिधि, पृथिवी मात पिता वसुभूति । जिनवर वाणी सुण्या मन हरखे, बोलाव्यो नामे इन्द्रभूति । प्र.२। पंच महाव्रत ल्याइ प्रभु पासे, ये त्रिपदी जिनवर मनरंग। श्री गौतम गणधर तिहां गूथ्या, पूरव चउद दुवालस अंग । प्र.३। लब्धे अष्टापद गिरि चडियउ, चैत्यवंदन जिनवर चउवीस । पनरेसै तीडोत्तर तापस, प्रतिबोधि कीधा निज सीस ।प्र.४। अद्भुत एह सुगुरु नो अतिसय, जसु दीखइ तसु केवल नाण। जाव जीव छठ छठ तप पारणइ,आपण पइ गोचरीय मध्यान्ह । प्र.॥ कामधेनु सुरतरु चिन्तामणि, नाम मांहि जस करे रे निवास। ते सदगुरु नो ध्यान धरंता, लाभइ लक्ष्मी लील विलास । प्र.६। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि लाभ घणो विणजे व्यापारइ, आवे प्रवहण कुशले खेम । ए सदगुरु नो ध्यान धरता, पामइ पुत्र कलत्र बहु प्रेम ।प्र.७॥ गौतम स्वामि तणा गुण गातां, अष्ट महासिद्धि नवे निधान। समयसुन्दर कहइ सुगुरु प्रसादे, पुण्य उदय प्रगट्यो परधान । प्र.८। (२) श्री गौतम स्वामी गौतम् ढाल-भीली नी मुगति समय जाणी करी जी रे जी. वीरजी मुझ नइ मूक्यउ दूरि रे । मह अपराध न को कियउ जी रे जी, वोरजी रहतउ तुम्ह हरि रे॥ वी०॥१॥ वीर जी वीर जी किहां गयउ जी रेजी, वीर जी नयणे न देखू केमरे। तुम पाखे किम हूं रहूं जी रे जी, वीरजी साचउ तुम्ह सुं प्रेम रे ।। वी०॥२॥ जाण्यु आइउ मांडस्यइ जी रे जी, वीरजी गौतम लेस्यइ केवल भाग रे। विलवलतां मू की गयउ जी रे जी, वीरजी एक पखउ म्हारउ राग रे ।। वी०॥३॥ - १ श्री गौतम गुरु. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गौतम स्वामी गीतम् (३४५) वीर वीर केहनइ कहूं जी रे जी, वीरजी हिव हूं प्रश्न करूँ किण पासि रे। कुण कहस्यइ मुझ गोयमा जी रे जी, बीरजी कुण उत्तर देस्यइ उल्हासि रे॥ वी०॥४॥ हा हा वीर तई स्यु करयं जी रे जी, गौतम करत अनेक विलाप रे । जेतलउ कीजइ नेहलउ जी रे जी, जिवड़ा तेतलउ हुयइ पछताप रे॥वी०॥॥ जगि मांहे को केहनु नहीं जी रे जी, गौतम वाल्यु मन बहराग रे। मोह पडल दूरे करया जी रे जी, गौतम जाण्यु जिन नीराग रे ॥ वी०॥६॥ गौतम केवल पामियु जी रे जी, त्रिभुवन हरख्या सुरनर कोड़ि रे । पाय कमल गौतम तणा जी रे जी, प्रणमइ समयसुन्दर कर जोड़ि रे ॥ वी०॥७॥ (३) श्री गौतम स्वामी गीतम् राग-परभाती श्री गौतम नाम जपउ परभाते, रलिय रंग करउ दिन राते ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४६ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि भोजन मिष्ट मिलइ बहु भाते, शिष्य मिलइ सुविनीत सुजाते ॥२॥ वाधइ कीरति जग विख्याते, समयसुन्दर गौतम गुण गाते ॥३॥ एकादश गणधर गीतम् राग-वेलाउल प्रात समइ उठि प्रणमियइ, गिरुया गणधार । वीर जिणंद वखाणिया, अनुपम इग्यार ॥प्रा०1१। इन्द्रभूति श्री अग्नि भूति, वायुभूति कहाय । व्यक्त सुधरमा स्वामि स्युं, रहियइ चित लाय ॥ प्रा०॥२॥ मंडित मौरिपुत्र ए, अकंपित उल्हास । अचल भ्राता आखियइ, मेतार्य प्रभास ॥प्रा०३। ए गणधर श्री वीर ना, सुखकर सुविशाल । थाज्यो माहरी वंदना, समयसन्दर तिहुँ काल ॥प्रा०।४। गहुँली गीतम् प्रभु समरथ साहिब देवा रे, माता सरसति नी कर सेवा रे। सुध समकित ना फल लेवा रे, हुतो गाइस गुरु गुण मेवा रे।। मुनिराया रे॥ गुण सतावीस जेहनइ पूरा रे, शुद्ध किरिया मांहि धूरा रे। तप बारे भेदे मरा रे, शियल व्रत सनूरा रे । मु.।२। गुरु जीवदया प्रतिपालइ रे, पंच महाव्रत सूधा पालइ रे। बेंतालीस दोष निवारइ रे, गुरु आतम तच विचारह रे । मु.॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गहूँली गीतम् (३४७ ) गीतारथ गुण ना दरिया रे, गुरु समता रस ना भरिया रे। पंच सुमति गुपति सुं परिवरियारे, भवसागर सहजे तरिया रे । मु.।४। गुरु नुपाटिओ मोहन गारो रे,सहु संघनइ लागे छ प्यारोरे। गुरु उपदेश द्यइ मुख वारु रे,भवि जीव नइ भव निधि तारु रे। मु.॥५॥ गुरु नी आंखडली अणियाली रे,जाणइ ज्ञान नी सेरी निहालीरे। चार विषधर ना विष टाली रे, वस कीधा शिव लटकाली रे। मु.।६। गुरु नुवंदन ते शारद चंद रे, जाणे मोहन वेलि नो कंद रे। गुरु आगे तेजें आनंद रे, हूं तो प्रणमु अति आनंद रे । मु./७/ इम गहूंली माहे गाई रे, रयण अमुक थी सवाई रे। इम समकित थी चित लाइ रे, सहु संघ मिली नई वधाई रे । मु.८। गुरु नी वाणी ते अमिय समाणी रे, जाणी मोक्ष तणी नीसाणी रे। इम विनय सँ नमो अति भवि प्राणी रे,इम समयसुंदर वदे वाणी ।मु.। खरतर गुरु पट्टावली प्रणमी वीर जिणेसर देव, सारइ सरनर किन्नर सेव । श्री खरतर गुरु पट्टावली, नाम मात्र पभणु मन रली ॥१॥ उदयउ श्री उद्योतनसूरि, वर्द्धमान विद्या भर पूरि। . सूरि जिणेसर सुरतरु समो, श्री जिनचंद्र सूरीसर नमउ ॥२॥ अभयदेव सूरि सुखकार, श्री जिनवल्लभ किरिया सार । युगप्रधान जिनदत्त सूरिंद, नरमणि मंडित श्रीजिनचंद ॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४८) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि श्रीजिनपति सूरीसर राय, सरि जिणेसर प्रणमुपाय । जिन प्रबोध गुरु समरूं सदा, श्रीजिनचंद्र मुनीसर मुदा ॥४॥ कुशल करण श्री कुशल मुणिंद, श्रीजिनपदमसरि सखकंद। लब्धिवंत श्री लब्धि सूरीश, श्री जिनचंद नमूनिशदीस ॥॥ सूरि जिनोदय उदयउ भाण,श्री जिनराज नमूसुविहाण। श्री जिनभद्रसूरीसर भलउ, श्री जिनचंद्र सकल गुण निलउ ।६। श्री जिनसमुद्रसरि गच्छपती, श्री जिनहंसमरिसर यती। जिनमाणकसरि पाटे थयर, श्रीजिनचंद सरीसर जयउ॥७॥ ए चौवीसे खरतर पाट, जे समरइ नर नारी थाट । ते पामइ मन वंछित कोड़, समयसुंदर पभणइ कर जोड़ि ॥८॥ इति श्रीखरतर २४ गुरु पट्टावली समाप्तालिखिताच पं० समयसुन्दरेण । (जयचंदजी भंडार गु० नं० २५) गुर्वावली गीतम् राग-नट्टनारायण जाति कड़खा उद्योतन बर्द्धमान जिनेसर, जिनचंदररि अभयदेवसरि । जिनवल्लभमरि जिनदत्त जिनचंद,श्री जिनपतिसरि गुण भरपूरि ॥१॥ ए जु श्रीजिनपतिसूरि गुण भरपूर नइ, श्रीगुरुहो खरतर नायक अविचल पाट । जिनेसरसूरि प्रबोधसरि जिनचंदसरि, कुशलसरि पदममूरिंद। लब्धिमूरि जिनचंद जिनोदय, श्री जिनराजसरि सुखकंद ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुर्वावली गीतम् ( ३४६ ) भद्रसूरि जियचंद समुद्रसूरि, हंसरि चोपड़ा कुलचंद | जिन माणिकसूरि श्री जिनचंद्रसूरि, श्रीजिनसिंघसूरि चिर नंद ||२|| एजु श्रीजिनसिंहरि चिर नंद, श्री गुरु हो खरतर नायक अविचल पाट || सुधरम सामि परंपरा चंद कुल, वयर सामि नी साखा जाण । खरतर गच्छ भट्टारक गिरुया, परगच्छि ए पण क्रिया प्रमाणि । पाखी आठमि नी चउमासह, गुरावलि गीत सुखो वखाणि । श्रीसंघ नइ मंगलीक सदाइ, समयसुन्दर बोलति मुख वाणि ॥३॥ दादा श्री जिनदत्तसूरि गतिम दादाजी वोनी धारो | दा० । बड़ली नगर श्री शांति प्रासादे, जागतउ पीठ तुम्हारो ॥ दा. ॥ १ ॥ तूं साहिब हूं सेवक तोरो, बंछित पूर हमारो । प्रारथिर्या पहिइ नहीं उत्तम, ए तुमे बात विचारो || दा. ॥ २ ॥ सेवक सुखियां साहिब सोभा, ते भी भक्त संभारो । समयसुंदर कहइ भगति जुगति करि, जिनदत्तसूरि जुहारो ॥दा. ॥३॥ दादा श्रीजिन कुशल सूरिगुरोरष्टकम् नतनरेश्वर मौलिमणिप्रभा- प्रवर केशर चर्चितपत्कजम्। मरुषुमुख्यगडालयमण्डनं, कुशलसूरिगुरुं प्रयत स्तवे |१| Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५०) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि कति न सन्ति कियद्वरदायिनो, भुवि भवात सुगुरुर्मयकाश्रितः। सुरमणियदि हस्तगतो भवेत् , किंमपरै किल काचकपद कैः ।२। कठिनकष्टसमाकुलवर्त्मने, प्रवरसौख्यसमन्वितसझने । मम हृदि स्मरणं तव सर्वदा, भवतु नाम जपस्तु मुदाप्तये ॥३॥ विकटसङ्कटकोटिषु कल्पिता, तनुभृतां विषमा नियमा समा। सुगुरुराज तवेप्सित दर्शना-दनुभवन्ति मनोरथपूर्णता ।४| नृपसभासु यशो बहुमानता, विवदमानजने जयवादताम् । सुपरिवार-सुशिष्य-परम्परा--स्तव गुरो सुदृशस्फुरतेतराम् ।। न खलु राजभयं न रणाद्भयं, न खलु रोगभयं न विपद्भयम् । न खलु बन्दिभयं न रिपोर्भयं, भवतु भक्तिभृतां तव भूस्पृशाम् ।६। अपर-पूर्व-सुदक्षिण-मण्डले, मरुषु मालवसन्धिषु जङ्गले । मगध-माधुमतेष्वपि गूर्जरे, प्रति पुरे महिमा तव गीयते ।। मम मनोरथकल्पलता मतां, कुशलसरिगुरो फलिताऽधुनाम् । प्रबलभाग्यबलेन मया रयात् , यदमतं ददृशे तव दर्शनम् ।। शशधरस्मरबाणरसक्षिति (१६५१), . प्रमितविक्रमभूपतिसंवति । समयसुन्दरभक्तिनमस्कृति, कुशलसूरिगुरोर्भवताच्छ्रिये ॥६॥ दादा श्री जिनकुशलसरि गीतम् आयौ आयो जी समरंता दादौ आयो । संकट देख सेवक के सदगुरु, देराउर तें धायो जी ॥स.॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दादा श्री जिन कुशल सूरि गीतम् ( ३५१ ) दादा वरसे मेह नै रात अंधारी, वाय पिण सबलौ वायौ । पंच नदी हम बइठे बेड़ी, दरिये हो दादा दरिये चित्त डरायो जी।२।। दादा उच्च भणी पहुँचावण आयो, खरतर संघ सवायो। समयसंदर कहे कुशल कुशल गुरु, परमानंद सुख पायो जी। स.३। देरावर मंडण श्री जिनकुशलसरि गीतम देरावर दादो दीपतो रे, डिग मिग कांइ डम डोल रे जात्रीड़ा । परचा दादो पूरवे रे लो, तीरथ को इण तोल रे जात्रीड़ा ॥१॥ बोहथ तारे दादो डूबतोरे लो, अड़बड़ियां आधार रे जात्रीड़ा । समरयां दादो साद दय रे लो, सेवक अपणा संभाल रे जात्रीड़ा ॥२॥ पुत्र पिण आपे अपुत्रियां रे लो, निरधनियां नइ धन्न रे जात्रीड़ा । दुखियां ने भाजे दुख सही रेलो, परतिख दादो प्रसन्न रे जात्रीड़ा ॥३॥ चिंता चुरे चित्तनी रे लो, ए गुरु अंतरजामी रे जात्रीड़ा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५२) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि समयसुंदर कहइ भावसुं रे, नित प्रणमुं सिर नामी रे जात्रीड़ा ॥४॥ दादा श्री जिन कुशल सूरि गीत राग-वसंत आज आणंदा हो आज आणंदा । भाव भगति परभाते भेट या, श्री जिन कुशल सूरीन्दा ॥श्रा० ॥१॥ आरति चिन्ता टालइ अलगी, ___ गुरु मेरो दूर करे दुख दंदा । जागतो पीठ श्रावे लोग जातर, नर नारी ना वृंदा ॥ आ० ॥२॥ साहिब हूँ तोरी करु सेवा, आठ पहर अरज बंदा । समयसुंदर कहइ सानिध करजो, चंद कुलंबर चंदा ॥आ० ॥३॥ अमरसर मंडण श्री जिनकुशलसूरि गीतम् ___ राग-मारुणी दाखि हो मुझ दरिसण दादा, श्रीजिनकुशल करि सुप्रसादा। सेवक नइ समस्यउ द्यइ सादा, जग सिगलउपइ जसवादा। दा.॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्रसेनपुर मंधण श्री विनकुशन सूरि गीतम् ( ३५३ ) असपति गजपति नृपति उदारा, इंद्र तणा दीसह अवतारा। पुष कला अनइ परिवारा, ते सब तेज प्रताप तुम्हारा ।दा.।२। नर नारी आपद निस्तारा, अड़बड़ियां नइ तूंआधारा । परनिख परता पूरणहारा, मनवंछित फल पूरि हमारा ।दा.।३। नयर अमरसर धुभ निवेशा, प्रसिद्धि घणी प्रगटी परमेसा। सेव करइ सद्गुरु सुविशेषा, एह समयसुन्दर उपदेसा ।दा.।४। उग्रसेनपुर मंडण श्री जिनकुशलसूरि गीतम पंथी नह पूछूवातड़ी रे, तुमे आया उग्रसेनपुर थी आज रे। तिहां दीठा अम्ह गुरु राजीया, श्रीजिनकुशल सरिराज रे ॥१॥ सुखो नागोरी तुम गुर राजीया,अमे दीठा मारवाड़ मेवाड़ देस रे। धर्म मारग परकास रे, आणंद लील विलास रे ॥२॥ संघ सहु सेवा करड, राय राणा सहु धइ मान रे। आइ नमइ सहु नर नार रे, महिमा मेरु समान रे ॥३॥ मेरो मन घणो ऊमयो रे, वांदं मेरे गुरु ना पाय रे। समयसुन्दर सेवता रे, श्री जिनकुशलसरि गुरु राय रे ॥४॥ नागौर मंडण श्री जिनकुशलसूरि गीतम उलट परि अमे आविया दादा, भेटण तोरा पाय । कर जोड़ी बीमदादा, आरति दुरि गमाय ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि इण रे जगत्र मई, नागोर नगीनइ दादो जागतउ । भाव भगति सु भेटतां, भव दुख भागतउ । इण रे०॥ को केहनइ को केहनड, दादा भगत आराधइ देव । मई इक तारी आदरी दादा, एक करूँ तोरी. सेव ॥ इण.॥२॥ सेवक दुखिया देखतां दादा, साहिब सोभ न होय । सेवक नइ सुखिया करइ दादा, साचो साहिब सोय ।। इण.॥३॥ श्री जिनकुशल सूरीसरु दादा, चिंता आरति चूरि । समयसुन्दर कहइ माहरा दादा, मन वंछित फल पूरि ॥ इण.॥४॥ श्री जिनकुशलसूरि गीतम् राग-भैरव पाणी पाणी नदी रे नदी, सानिध करो दादा सदी रे सदी। पा.११ ध्यान एक दादइ जी रो धरतां, कष्ट न आवइ कदीरे कदी। पा.।२। समयसुंदर कहइ कुशल कुशल गुरु,समस्यांसाद द्य सदीरेसदी।३। पाटण मंडन श्री जिनकुशल सरि गीतम राग-मल्दार उदउ करौ संघ उदउ करो, विनती करइ श्री संघ दादाजी । उ.। ऋद्धि समृद्धि सुख संपदा, द्रव्य भरो भंडार दादाजी। मणि माणक मोती बहु, पुत्र कलत्र परिवार दादाजी । उ.१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाटण मंडन श्री जिनकुशल सूरि गीतम् ( ३५५ ) धि व्याधि आरति चिंता, संकट विकट विकार दादाजी । दुख दोहग दूरइ हरउ, तुम्हे अड़वड़ियां आधार दादाजी | उ . |२| सदगुरु समरयां साद घउ, सेवक नी करउ सार दादाजी । परतिख परता पूरवउ, तुम्हे जागती ज्योत उदार दादाजी | उ . | ३ | पूजउ गुरु पगला भला, पूनिम दिन बुधवार दादाजी । केसर चंदन मृगमदा, अगर कुसुम अधिकार दादाजी | उ. । ४ । गीत गावे तान मान सु, मादल ना धौंकार दादाजी । दान मान आप घरणा, भावना भावउ उदार दादाजी । उ. ५। श्री जिनकुशलसूरी सरु, मन वंछित दातार दादाजी | पाटण संघ पूरउरली, भगइ समयसुन्दर सुविचार दादाजी | उ . ६ | अहमदाबाद मंडण श्री जिनकुशलसूरि गीतम् दादो तो दरसण दाख, दादो मोहिला सुखिया राखड़ हो । दादाजी दौलत दो || दादो तो चिंता चूर, दादो परतिख परता पूरइ हो । दा. । १ । दादो तो बिछड़ियां मेल, दादो ठींभर दुसमण ठेलइ हो । दा.| २ | दादो तो समरांव, दादो परघल लक्ष्मी लावइ हो । दा. | ३ | दादो तो दुसमण दाट, दादो विधन हरइ वाट घाटइ हो । दा. ४ | दादो तो साचो जाइ, दाझे बोल ऊपर पिरा आगर हो । दा. ५ | दादो तो हाजरा हजुरह, दादो अहमदाबाद पडूरह हो । दा | ६ | दादो तो वुशल कहावर, हम समयसुन्दर गुण गावइ हो । दा. ७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५६ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि दादा श्री जिनकुशलसूरि गीतम् दादाजी दीजइ दोय चेला। एक भणइ एक करइ वेयापच, सेवक होत सोहेला । दा० १.... श्रीजिनकुशलसरीसर सानिध, आज के काल वहेला.। ... समयसुन्दर कहइ सीरणी वाटू, गुन्दबड़ा गुल मेला। दा० ॥२॥ भट्टारक त्रय गीतम् राग-आसावरी भट्टारक तीन हुए बड़ भागी। जिण दीपायउ श्री जिन शासन, सबल पडूर सोभागी। म०१॥ खरतर श्री जिनचंद सरीसर, तपा हीरविजय वैरागी। विधि पक्ष धरममूरति सूरीसर, मोटो गुण महात्यागी। भारा मत कोउ गर्व करउ गच्छनायक, पुण्य दशा हम जागी। समयसुंदर कहइ तत्त्व विचारउ, भरम जायह जिम भागी। म०३। जिनचंद्रसरि कपाटलोहश्रृंखलाष्टकम् श्रीजिनचन्द्रसरोणां, जयकुञ्जरभृङ्खला । शृङ्खलो धर्मशालायां चतुरे किमसौ स्थिता ॥१॥ शृङ्खला धर्म शालायां,वासितां पापनाशिनाम् । . शिवसमसमारोहे, किमु सोपानसन्तति ॥२॥... Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनचद्रसूरि कपाटलौहशृंखलाष्टकम् ( ३५७ ) पा पठयमानं मुनिभिः प्रकामं श्रीपार्थ नाम-प्रगुण-प्रकामम्। श्रुत्वा स्वनाथोत्र ततः समोगात् .. सेवाकृतेहिः किल शृङ्खलाच्छलात् ।।३।। वर्यसंयमसुन्दर्याः, केशपाशः किमद्भुतः। ... वराङ्गस्थितिराभाति, शृङ्खला श्यामलद्यु तिः ॥ ४ ॥ कपाटे कृष्णवल्लीव, शृङ्खला शुशुभेतराम् । स्थापितेयं महामोह-नागनाशाय नित्यशः ॥ ५॥ पापपाश चरातङ्क-रक्षार्थ साधुमन्दिरे। ... ध्रुवं धर्म मरुद्धेनोरियं बन्धनशृङ्खला ॥६॥ महामोहमृगादीनां, पाशपाताय मण्डिता । शृङ्खलापाश लेखेव, धर्म शब्दातिघोषणात् ॥ ७॥ सर्वतः छेद्यभेद्यादि-भीत्यैषा लोहशृङ्खला । धर्मस्थानस्थ साधूनां, शरणं समुपागता ।। ८॥ . . इति कपाट लौह श्रृंखलाष्टकं सम्पूर्णम् ।। यु० जिनचन्द सूरि गीतम् आर्या ३ पणमिय पासजिणंद, साणंदं सयललोयणाणंदं । श्रीजिणचंदमुणिदं थुणामि भो भविय भावेण ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५८ ) समय सुन्दरकृतिकसुमाञ्जलि साधना कयपुन्ना, जगणी जीवम्मि सयललोयम्मि । जं कुच्छीए पवरो, उप्पन्नो एरिसो पुो ॥२॥ जह चंदस्स चकोरा, मोरा मेहस्स दंसणं पवरं । इच्छंति जस्स गुरुणो, सो सुगुरु आगउ इत्थ || ३ || छन्द गीता सिरिवंत साहि सुतन्न, माता सिरिया देवी नंदणो । बहरागि लहुवय लिद्ध संजम, भविय जण आणंदणो ॥ शुभ भाव समकित ध्यान समरण, पंच श्री परमिट्ठयो । सो गुरु श्री जिणचंद सूरि, धन्न नयणे दि ॥ ४ ॥ श्री जैन माणिकसरि सद्गुरु, पाटि प्रगट्यउ दिनकरो । सुविहित खरतर गच्छनायक, धर्म भार धुरंधरो ॥ तप जप सुजयणा जुगति पाल, मात प्रवचन श्रटु । सो गुरु श्री जिणचंद सूरि, धन्न नयणे दिंदु ॥ ५ ॥ जसुनवरि जेसल मेरि राउल, मालदे महुच्छव कियं । उद्धरी किरिया नयार विकमि, वंश सोह चड़ावियं ॥ निरखंत दरसण सुगुरु केरउ, दूरि दोहग नहओ । सो गुरु श्री जिरणचंद सूरि, धन्न नयये दिओ ॥ ६ ॥ चारित्र पात्र कठोर किरिया, नाण दंसण सोहए मुनिराय महियलि मनहि नाइ, माण माया लोह ए ॥ 1 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यु• जिनचन्द्रसूरि गीतम् ( ३५६ ) आरति चिंता सयल खूरई, पूरई मन हो । सो गुरु श्री जिणचंदरि, धन्न नयणे दि ॥ ७ ॥ जो चउद विद्या पारगामी, सयल जण मग मोह ए । अति मधुर देस अमृतधारा, अबुह जिय पड़िवोह ए ॥ कलिकाल गोयम सामि समवडि, वयण अमृत मिश्र । सो गुरु श्री जियचंदसूरि, धन्न नयणे दिट्ठो ॥ ८ ॥ पुर नयर गामई ठाम ठामईं, गुरु महोच्छव अति घणा । कामिनी मंगल गीत गावइ, रलिय रंगि वधामणा ।। गुरुराज चरणे रंग लागउ, जाणि चोल मजिओ । सो गुरु श्रीजिणचंद्रसूरि, धन्न नयणे दि ॥ ६ ॥ इक दियइ पाठक पद प्रधानं, वलिय वाचक गणि पदं । इक दियs दीक्षा सुगुरु शिक्षा, एक कुं सुख संपदं ॥ इक माल रोहण भविय बोहण, जाणि सुरतरु तुट्टो । सो गुरु श्री जियचंद सूरि, धन्न नयणे दिश्रो ॥ १० ॥ दोहा इक दिन अकबर भूपति इम भाखरं, मंत्रीसर कर्मचंद सु दाखइ । तुम्ह गुरु सुणियह गुञ्जर खंडह, सिद्ध पुरुष सुप्रताप अखंड ।। ११ ।। वेगि बोलायउ लिखि फुरमाणं, श्रादर अधिक देह बहु मांणं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६०) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि सुणि जिणचंद सूरि सुवखाणं, जिम हम जैन धरम पहिछाणं ॥ १२ ॥ तब मंत्रीसर वेगि बुलाए, आडंबर मोटइ गुरु आए। नर नारी मन रंगि वधाए, पातिसाहि अकबर मनि भाए ॥१३॥ छंद गीता आवतां आदर अधिक दिद्धत, पातिसाहि पर सिद्धमओ। लाहोर नयरि महा महोच्छव, सुजस श्री संघ लिद्धओ। श्री पूज्य आया हुया आणंद, जाणि जलधर वुटुओ। सो गुरु श्री जिणचंद सूरि, धन्न नयणे दिदुओं ॥१४॥ प्रति दिवस अकबर साहि पुच्छइ, जैन धरम विचारओ। प्रति बूझवह गुरु मधुर वाणी, दया धरमह सारो ।। प्राणातिपातादिक महाव्रत, रात्रि भोजन बटुनो। सो गुरु श्री जिणचंद सरि, धन्न नयणे दिट्टओ ॥१५॥ रंजियउ अकबर साहि बगसइ, दिवस सात अमारि के। वलि मच्छ छोरे नगर खंभाइत्त दरिया वारि के । जो कियउ जुगह प्रधान पद दे, सबहि मई उक्टुिनो। सो गुरु श्री जिणचंद सूरि, धन्न नयणे दिहश्रो॥१६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि गीतम् (३६१ ) जिण जाणि जुगतउ शिष्य जिणसिंघ,सरि पाटइथप्पियो। सई हत्थि आचारिज पद दे, सूरि मंत समप्पियो । अवलिया अकबर साहि हुकमइ हुयउ सुजस गरिट्टओ। सो गुरु श्री जिनचंद सूरि, धन्न नयणे दिट्टओ ॥१७॥ संग्राम संभ्रम मंत्रि कर्मचन्द, कुल दिवाकर दीप्पियो । गुरु राज पद ठवणउ करायउ, सवा कोड़ि समप्पिो । आणंद वरत्या हुया उच्छव, वसुह मांहि वरिट्टओ। सो गुरु श्री जिणचंद सूरि, धन्न नयणे दिट्टयो॥१८॥ ॥ कलश ॥ आज हुया आणंद, आज मन वंछित फलिया, ___ आज अधिक उछरंग, आज दुख दोहग टलिया। श्री जिणचंद मुणिंद, सूरि खरतर गच्छ नायक, रीहड़ कुलि सिणगार, सार मन वंछित दायक ।। लाहोर नयर उच्छव हुया, चिहुँ खंडि : स विस्थारिया। कर जोड़ि समयसुंदर भणइ,श्री पूज्य मलई पधारिया ॥१६॥ युगप्रधान-श्रीजिनचन्द्रसूर्यष्टकम् .. ए जी संतन के मुख वाणि सुणी, जिणचंद मुणींद महंत जती। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६२) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि तप जप करइ गुरु गुर्जर में, प्रतिबोधत है भविकं सुमति ॥ तब ही चित चाहन चप भई, समयसुन्दर के प्रभु' गच्छपति । पठइरे पतिसाहि अजब्बारे की छाप, बोलाए गुरु गजराज गति ॥१॥ एजी गुजर ते गुरुराज चले, बिच में चौमास जालोर रहे। मेदिनीतट मंत्रि मंडाण कियो, गुरु नागोर आदर मान लहै ।। मारवाड़ रिणी गुरु वंदन को, तरसै सरसै विच वेग वहै । हरख्यो संघ लाहोर आये गुरु, पतिसाह अकब्बर पांव गहै ॥२॥ एजी साहि अकब्बर बब्बर के, गुरु सूरत देखत ही हरखे । हम योगी यति सिद्ध साधु व्रती सब ही षट दर्शन को निरखे ॥ तप जप्प दया धर्म धारण को, जग कोई नहीं इनके सरखे। १ गुरु, २ भेजे, ३ अकबरी, ४ अधविच, ५ में, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधान श्री जिनचन्द सूर्यष्टकम ( ३६३ ) समयसुन्दर के प्रभु धन्य गुरु, पतिसाहि अकब्बर जो परखे ६ ॥३॥ एजी अमृत वाणि सुणी सुलतान, ऐसा पतिसाहि हुकम्म किया । सब आलम मांहि अमारि पलाइ, बोलाय गुरु फुरमाण दिया । जग जीव दया भ्रम दाखण ते, जिन शासन मई जु सोभाग लिया। समयसुन्दर कहे गुणवंत गुरु, __हग देखी हरखित होत हिंया ॥४॥ एजी श्री जी गुरु ध्रम गोठ१० मिले, सुलतान सलेम अरज करी । गुरु जीवदया नित चाहत११ है, चित अन्तर प्रीति प्रतीति धरी ।। कर्मचन्द बुलाय दियो फुरमाण, छोड़ाइ खंभाइत की मच्छरी । समयसुन्दर कहइ सब लोगन मई, जु खरतर गच्छ की ख्यात खरी ॥॥ ६ टोपी बस ऽमावस चन्द उदय अज तीन बताय कला परखे ( मुद्रित में पाठांर एवं पंक्ति कार नीचे) ७ गुरु, ८ भव्य इम, १० ध्यान, ११ प्रेम धरै, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि एजी श्री जिनदत्त चरित्र सुणी, पतिसाहि भयौ गुरु राजिय रे । उमराव सबै कर जोड़ि खड़े, पभणै अपणै मुख हाजिय रे॥ युग प्रधान किये गुरु कु.२, गिगड़दं ५ ५ बाजिय रे । समयसुन्दर तूं ही जगत गुरु, पतिसाहि अकबर गाजिय रे ॥६॥ एजी ज्ञान विज्ञान कला सकला, गण देखि मेरा मन रीझिये जी। हिमायु को नन्दन एम अखे, __मानसिंह पटोधर कीजिये जी॥ पतिसाहि हरि थप्यो सिंहमूरि, मंडाण मंत्रीसर बीजिये२३ जी। जिनचन्द्र अने१४ जिन सिंह सरि, चन्द्र सूरिज ज्यु प्रतपीजियेजी ॥७॥ एजी रीहड़ वंश विभूषण हंस, ... खरतर गच्छ समुद्र ससी। प्रतप्यो जिन माणिक सूरि के पाट१५, प्रभाकर ज्यु प्रणमू उलसी ॥ १२ चामर छत्र मुरातत्र भेष्ट, १३ कीजिये १४ पटे १५ पट्ट। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ राग ३६ रागिणी नाम गर्भित श्री जिनचंद्रपूरि गीतम ( ३६५ ) मन सुद्ध अकबर मानतु है, जग जाणत है परतीति इसी। जिणचन्द मुणिंद चिरं प्रतपो, समयसुन्दर देत आसीस इसी ॥८॥ ६गग३६रागिणी नामगर्भित श्रीजिनचंद्रसूरि गीतम् कीजइ अोच्छव संता सुगुरु केरउ, सुललित वयण सुणि सखिमेरउ । । कहउ री सदेसा खरा गुरु आवतिया, तिण वेला उलसी मेरी छतिया ॥१॥ आए सखी श्रीवंत मल्हारा, खरतर गच्छ शृंगार हारा । आंकणी ॥ अइसा रंग वधावन कीजइ, गुरु अभिराम गिरा अमृत पीजइ। अइसे गुरु कुं नित उलगउरी, सुंदर शिरीरा गच्छपति अउरी ॥२॥ दुख के दार सुगुरु तुम हउ री, गाऊं गुण गुरु केदारा गउरी । -- man Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय सुन्दरकृतिकुसुमाञ्जति सोरठगिरि की जात्रा करण कुं, आपण री गुरु पाय भाग्य फल्यो च्व लोकपरयो ।। ३ ।। ओ ( ३६६ ) तँ कृपा पर दउलति दे मोहि सुं तेरउ भगत हुं री । गुरु जी तँ ऊपर जीउ राखी रहूँ री । इहु सयनी गुरु मेरा ब्रह्मचारी, हूँ चरण लागू डर डमर बारी ॥ ४ ॥ हो निकेत नट नराइण के आगर, A इस नृत्य करत गुरु के रागह । इसे शुद्ध नाटक होता गावत सुंदरी, वेणुवीणा मुरज वाजत घुमर घुघरी ॥ ५ ॥ रास मधु माधवइ देति रंभा, सुगुरु गायंति वायंति भंभा । तेज पुँज जिम सोभइ रवि, जुगप्रधान गुरु पेखउ भवि ॥ ६ ॥ सबहि ठउर वरी जयत सिरी, Jain Educationa International गुरु के गुण गावत गुजरी। मारुणी नारी मिली सब गावत, सुंदर रूप सोभागी रे. आज सखी पुण्य दिसा मेरो जागी रे ॥७॥ For Personal and Private Use Only Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ राग ३६ रागिणी नाम गर्भित श्री जिनचंद्रसूरि गीतम् ( ३६७ ) तोरी भक्ति मुझ मन मां वसी रे, साहि अकबर मानइ जस बाबर वंसी । गुरु के वंदणि तरसह सिंधुया, इया सारी गुरु की मूरतिया ॥ ८ ॥ गुरु जी तूं हिज कृपाल भूपाल, कलानिधि तँ हिज सबहि सिरताज, यावर ए रीतइ गच्छगज । संकराभरण लंछन जिन सुप्रसन्न, जिनचन्दसूरि गुरु कुं नति करूं ॥ ६ ॥ तेरी सूरत की वलिहारी तू पूर स हमारी तँ जग सुरवरु ए । गुरु प्रणमरी सुरनर किन्नर धोरणी रे, मन वंछित पूरण सुरमणी रे ॥१०॥ मालवी गउड़ मिश्री अमृत थई, वचन मीठे गुरु तेरे हर ताथइ । करवंदा गुरु कुं त्रिकालइ हरउ पंच प्रमाद रे । सबई कुं कल्याण सुख सुगुरु प्रसाद रे ॥ ११ ॥ बहु पर भांति व उच्छव सार, पंच महाव्रत घर गुरु उदार । हूं आदेस कार प्रभु तेरा, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६८) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि जुगप्रधान जिनचन्द मुनीसरा, तूं साहिब मेरा ॥१२॥ दुरित मे वारउ गुरु जी सुख करउ रे, श्री संघ पूरउ आशा । नाम तुमारइ नवनिधि संपजइ रे, लाभइ लील विलासा ॥१॥ धन्या सरी रागमाला रची उदार, छः रग छतीसे भाषा भेद विचार ।। सोलसइ बावन विजय दसमी दिने सुरगुरु वार, थंभण पास पसायइ त्रंबावती मझार ॥१४॥१०॥ जुगप्रधान जिनचंद सूरींद सार, चिरजयउ जिनसिंहसरि सपरिवार । १०। सकलचंद मुणीसर सील उमतिकार, समयसुंदर सदा सुख अपार ॥१०॥१५॥ इति श्री युगप्रधान श्री जिनचंद्र सूरीणा रागमाला सम्पूर्णा कृताच समयसुन्दर गणिना लिखिता सं० १६५२ वर्षे कार्तिक सुदि ४ दिने __ श्रीस्तभतीर्थनगरे। श्रीजिनचन्द्रसूरि चन्द्राउला गौतम ढाल-चन्द्रासला नी श्री खरतर गच्छ राजियउ रे, माणिक सरि पटधारो सुन्दर साधु सिरोमणि रे, विनयवंत परिवारो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनचन्द्र सूरि चन्द्राउला गीतम् ( ३६६ ) विनयवंत परिवार तुम्हारउ, भाग फल्यउ सखि आज हमारउ । ए चन्द्राउलउ छह अति सारउ, जिन चन्द सूरि सुणिज्य वीनति रे, तुम्हे श्री पूज्य जी तुम्हे वेगि पधारउ ॥ १ ॥ जी रे, तुम्हे जग मोहन वेलि व अम्हार देसि, गिरुया गच्छपति रे ॥ श्रकणी ॥ वाट जोवतां श्रविया रे, हरख्या सहु नर नारो रे । संघ सहु उच्छव करह रे, घरि घरि मंगलाचारो ॥ घरि घरि मंगलाचारो रे गोरी, सुगुरु वधावउ बहिनी मोरी । ए. चंद्राउल सांभलज्यो री हुँ बलिहारी पूज जी तोरी ॥२॥ अमृत सरिखा बोलड़ा रे, सांभलतां सुख थायो । श्रीपूज्य दरसण देखतां रे, अलिय विघन सवि जायो ॥ अलिय विघनसवि जाय रे दूरह, श्रीपूज्य वांद उगमते सूरह । ए चंद्राउ लउ गाउं हजुरइ, तउ मुझ आस फलइ सवि नूरइ ॥ ३ ॥ जिण दीठां मन ऊलसह रे, नयणे अमिय झरंति । ते गुरु ना गुण गावतां रे, वंछित काज सरंति ।। छित काज सरंति सदाई, श्री जिण चंद सूरि वांदउ माई | ए चंद्राला भास महंगाई, प्रीति समयसुन्दर मनि पाई ॥४॥ इति श्री युगप्रधान जिनचंद्रसूरीणां चंद्राउला गीतं संपूर्णम् ॥१६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७० ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि श्रीजिनचन्द्रसूरिस्वप्नगीतम् सुपन ला साहेलड़ी रे, निसि भरि सूती रे आज । सुंदर रूप सुहामणा रे, दीठा श्री गच्छराज ॥१॥ सुगुरु औ मूरति मोहनवेलि, . श्रीपूज्य जी चालइ गजगति गेलि ॥ांकणी ॥ गाम नगर पुर विहरता रे, आव्या जिण चंद सरि । श्री संघ साम्हउ संचरह रे, वाजइ मंगल तूरि ।।सु०॥२॥ आन्या पूज्य उपासरइ रे, सुललित करइ रे वखाणि । संग सहु ध्रम सांभलइ रे, धन जीव्यं परमाण ।।स०॥३॥ संख सबद सखि मई सुण्यउ रे, ऊभी जोऊँ रे वाट । आंगणि मोरी आविया रे , परिवरथा मुनिवर थाट ।।स०॥४॥ धवल मंगल गायइ गोरडी रे, होड़इ हरख न माय । नारि करइ गुरु न्यूछणा रे, पडिलाभइ मुनिराय ।।स०॥शा सुपन एह साचउ हुज्यो रे, सीझइ वंछित काज । श्रीजिन चंद्र सूरि वांदियइ रे, समयसुंदर सिरताज ॥१०॥६॥ . . . . (गौड़ी जी का भंडार उदयपुर ) श्री जिनचंद्रसूरि छंद अवलियउ अकबर तास अंगज, सबल साहि सलेम । सेख अबुल आजम खान खाना, मानसिंह सँ प्रेम ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनचन्द्रसूरि छंद ( ३७१ ) रायसिंघ राजा भीम राउल, सूर नये सुरतान | बड़ा बड़ा महीपति वयण मानइ, देय आदर मान ॥ गच्छपति गाइये जी, जिनचंदरि मुनि महिराण । अकबर थापियो जी, युगप्रधान गुण जाण ॥० ॥ १ ॥ काश्मीर काबुल सिंध सोरठ, मारवाड़ मेवाड़ | गुजरात पूरब गौड़ दक्षिण, समुद्रतट पयलाड़ || पुर नगर देश प्रदेश सगले, भ्रमह जेति भए । आषाढ मास अमीय वरसे, सुगुरु पुण्य प्रमाण ||ग० ॥२॥ पंच नदी पांचे पीर साध्या, खोडियउ खेत्रपाल । जल वह जेथ अगाध प्रवहण, थांभिया ततकाल ॥ ...कित किता कहूं वखाण । परसिद्ध अतिशय कला पूरण, रीझवण रायाण || ग० ||३|| गच्छराज गिरुयो गुणे गाढो, गोयमा अवतार | बड़ वखतवंत बृहत्खरतर, गच्छ कौ सिणगार ॥ चिरजीवउ चतुर विध संघ सानिध, करइ कोड़ि कल्याण । गणि समयसुंदर सुगुरु भेटया, सकल आज विहारण ॥ ४ ॥ श्री जिनचन्द्रसूरि गतिम् राग - आसावरी. भले री माई श्री जिन चंद्र सूरि आए । श्रीजिनधर्म मरम बूझण कुं, अकबर साहि बुलाये ॥ . ॥ १ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७२ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जाल सदगुरु वाणि सुणी साहि अकबर, परमानंद मनी पाए। हफतह रोज अमारिपालन कुं, लिखि फुरमाण पठाए ।म.॥२॥ श्री खरतर गच्छ उन्नति कीनी, दुरजन दूरि पुलाए । समयसुंदर कहइ श्रीजिनचंद सरि, सब जन के मन भाए ।।म.॥३॥ श्री जिनचन्द्रमरि गीतम् राग-आसावरी. सुगुरु चिर प्रतपे तू कोड़ि वरीस । खंभायत बंदर माछलड़ी, सब मिलि देत आसीस ।।सु.॥१॥ धन धन श्री खरतर गच्छ नायक, अमृत वाणि वरीस । साहि अकबर हमकुं राखण कुं, जासु करी बकसीस ।।सु.॥१॥ लिखि फरमाण पठावत सबही, धन कर्मचंद्र मंत्रीश । समयसुंदर प्रभु परम कृपा करि, पूरउ मनहि जगीश ॥सु.॥३॥ श्री जिनचंद मूरि गीतम् राग-आसावरी पत्य जी तुम चरणे मेरउ मन लीणउ, ज्यू मधुकर अरविंद । मोहन वेलि सबइ मन मोहिउ, पेखत परमाणंद रे॥ पू०॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनचन्द्र सूरि गीतम् (३७३ ) - सुललित वाणि वखाण सुगावति, __ श्रवति सुधा मकरंद रे। भविक भवोदधि तारण वेरि, जन मन कुमुदनी चंद रे॥पू० ॥२॥ रीहड़ वंश सरोज दिवाकर, साह श्रीवंत कउ नंद रे। समयसुंदर कहइ तूं चिर प्रतपे, श्री जिणचंद मुणिंद रे। पू० ॥३॥ श्री जिनचंद्र सूरि छंद सुगुरु जिणचंद सौभाग सखरो लियो, चिहूं दिसे चंद नामो सवायो। जैन शासन जिके डोलतउ राखियो, साखियो जगत सगलइ कहायो॥१॥ एक दिन पोतिसाह आगरइ कोपियो, ___ दर्शनी एक आचार चूकउ । शहर थी दरि काढो सबइ सेवड़ा, ___ मेवड़ां हाथ फरमाण मूक्यउ ॥२॥ आगरइ सहरि नागोर अरु मेड़तइ, महिम लाहोर गुजरात मांहइ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि देस दंदोल सबलउ पड़चउ तिहां किणे, तुरत ना पंथिया तुंब वाहई ।।३॥ दरसनी केइ पर दीप मई चढि गया, केइ नासी गया कच्छ देसे । केइ लाहोर. केइ रहया भूहि मां, दरसनी केइ पाताल पैसे ॥४॥ तिण समइ युग प्रधान जगि राजियो, श्री जिनचंद तेजे सवायो। . पूज अणगार पाटण थकी पांगुर या, आगरइ पातिसाह पासि आयो ॥ ५॥ तुरत गुरु राय नइ पातिसाह तेड़िया, देखि दीदार अति मान दीधा । अजब की छाप फुरमाण करि अखिया, केडला गुनह सहु माफ कीधा ॥६॥ जैन शासन तणी टेक राखो करी, ताहरइ आज कोई न तोलइ।.. खरतर गच्छ नई सोम चाढी खरी, समयसुंदर विरुद साच बोलइ ॥ ७ ।। __ श्री जिनचंद्र सूरि आलिजा गोतम् भासू मास वलि आवियउ पूजजी, अायो दीपाली पर्व । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनचंद्रसूरि अलिजा गीतम् काती चौमासो विउ पूज जी, अवसर सर्व ॥ ५० ॥ १ ॥ आया I तुमे वो रे सिरिया का नंदन पू०, तुम बिन घड़िय न जाय । तुम बिन अलजउ जाय पू० तु० ॥ श्रकरणी || साहि सलेम ने वलि उमरा पू०, संभारइ सहु कोय ॥ ५० ॥ धर्म सुगावो आवि नह पू०, जीव दया लाभ होय || पू०|| २ || तु० ॥ श्रावक आया वांदिवा पू०, श्रीसवाल नइ श्रीमान ॥ १० ॥ दरसण घउ एक बार तउ पू०, वाणी सुखावो रसाल ॥ पू०|| ३ || तु० ॥ बाजोट मांडयउ बसणे पू०, कमली मांडी सुघाट ॥ पू०॥ वखाण नी वेला थई पू०, श्री संघ जोवर वाट ॥ ० ॥ ४ ॥ तु० ॥ वी सहु पू०, वांदण वे कर जोड़ि || पू०|| श्रीविका मिली ( ३७५ ) वंदावी भ्रमलाभ द्यउ पू०, जिम पहुँचे मन कोड़ि || पू० ॥ ५ ॥ तु० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - ( ३७६ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि श्राविका उपधान सहु वहई पू०, मांड यउ नंदि मंडाण |पू०॥ माला पहिरावो प्रावि ने पू०, जिम हुवे जनम प्रमाण पू०॥६॥ तु०॥ अभिग्रह वांदण ऊपरइ पू०, कीधा हुँता नर नारि ॥३०॥ ते पहुँचाओ वेहना पू०, वंदावो एक बार पू०॥७॥ तु.॥ पर्व पजूसण वहि गयउ पू०, लेख वांछे सहु कोय ॥३०॥ मन मान्या आदेश द्यउ, शिष्य सुखी जिम होय ॥पू०॥८॥तु०॥ तुम सरिखउ संसार मई पू०, देखु नहीं को दीदार |पू०।। नयण तृप्ति पामइ नहीं पू०, __ संभार सौ वार ॥पू०॥ ६ ॥ तु.॥ मुझ मिलवा अलजउ घणो पू०, तुम तो अकल अलक्ष पू०॥ सुपनि में आवि वंदावजो पू., हुँ जाणिस परतक्ष पू०१०॥ तु० । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रो जिनचंद्रसूरि प्रालिजा गीतम् (३८७ ) युग प्रधान जगि जागतउ पू०, श्री जिणचंद मुणिंद ॥०॥ सानिध करजो संघ नइ पू०, समयसुंदर आणंद ॥०॥ ११ ॥ तु० ॥ श्री जिनचन्द्रसूरि आलिजा गीतम __ राग-आस्या सिंधुड़ो थिर अकबर तूं थापियउ, युगप्रधान जग जोइ । श्री जिनचंद सूरि सारिख उ सारि०, कलि मई न दीसइ कोइ ।। ऊमाह धरी नइ तात जी हूं आवियउ रे, हो एकरसउ तु आवि । मन का मनोरथ सहु फलइ माहरा रे,होदरसणि मोहिं दिखाउराऊ. जिन शासन राख्यउ जिणइ, डोलतउ उमडोल । . . समझायउ श्री पातिसाह सदगुरु खाट्यउ तई सुबोल ।३। ऊ.। आलेजो मिलवा अति घणउ, आयउ सिंध थी एथ । नगर माम सहु निरखिया, कहो क्यूंन दीसइ पूज केथ ।४। ऊ.। साहि सलेम सहु अम्बरा, भीम सूर भूपाल । चीतारइ तूनइ चाह सुं हो, पूज्य जो पधारउ किरपाल ।। ऊ.। बाबा आदिम बाहुबलि, वीर गौतम ज्यू विलाप । मेलउ न सरज्यउ माहरो मा०, ते तउ रह्यउ पछताप ।६। ऊ.। साह बड़उ हो सोम जी, राख्यउ कर्मचंद राज । अकबर इंद्रपुरि आणियउ, आस्तिक वादी गुरु आज ।७। ऊ.। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७८ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि मूयइ कहइ ते मूढ़ नर, जीवइ जिण चन्द सूरि । जग जंपइ जस जेहनउ जेह. हो पुहवि कीरत पडूरी ।। ऊ.। चतुरविध संघ चीतारस्यइ, ज्यां जीविस्यइ तां सीम । वीसारचा किम वीसरइ वीस हो निरमल तप जप नीम 18। ऊ.। पाटि तुम्हारइ प्रगटियउ, श्री जिन सिंह सूरीश । शिष्य निवाज्या तई सहु तई० रे, जतीयां पूरी जगीश।१०।ऊ.। (अपूर्ण) श्री जिनसिंहसरि गीतानि (१) राग-मेवाड़उ श्री गौतम गुरु पाय नमी, गाऊं श्री गच्छराज । श्री जिन सिंध सरीसरू, पूरवइ वंछित काज ॥ पूरवइ वंछित काज सहगुरु, सोभागी गुण सोह ए। मुनिराय मोहन वेलि नी परि, भविक जन मन मोह ए॥ चारित्र पात्र कठोर किरिया, धरम कारिज उद्यमी । गच्छराज ना गुण गाइस्युंजी,श्री गौतम गुरु पय नमी ॥१॥ गुरु लाहोर पधारिया, तेडाव्या कर्मचन्द । श्री अकबर ने सहगुरु मिल्या, पाम्यउ परमाणंद ॥ पामीयउ परमाणंद ततक्षण,हुकम दिउढी नउ कियउ । अत्यंत अोदर मान गुरु ने, पादसाहरे अकबर दियउ॥ धम गोष्ठि करतां दया धरता, हिंसा दोष निवारिया। आणंद वरत्या हुआ अोच्छव, गुरु लाहोर पधारिया ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिन सिंहसूरि गीतानि ( ३७६ ) श्री अकबर आग्रह करी, काश्मीर कियो रे विहार । श्रीपुर नगर सोहामणं, तिहां वरतावी अमार ।। अमारि वरती सर्व धरती, हुओ जय जय कार ए। गुरु सीत तावड ना परिसह, सह्या विविध प्रकार ए । ५महालाभ जाणी हरख प्राणी, धीर पणुं हियड़े धरी। काश्मीर देश विहोर कीधो, श्री अकबर आग्रह करी ॥३॥ . श्री अकबर चित रंजियो, ६ पूज्य नइ करइ अरदास । आचारिज मानसिंह करउ, अम मनि परम उल्लास ।। अम्ह मनि आज उलास अधिकउ,फागण सुदि बीजइ मुदा! सइंहत्थि जिणचंदसूरि दीधी, आचारिज पद संपदो ॥ करमचंद मंत्रीसर महोच्छव, आडंबर मोटउ कियो । गुरुराज ना गुण देखि गिरुया, श्री अकबर चित रंजियउ॥४॥ संघ सहू हरखित थयउ, गुरु नइ द्यइ अासीस । श्री जिनसिंह सूरीसरु, प्रतपे तू कोड़ि वरीस ॥ प्रतपे । कोड़ि वरीस, सहगुरु चोपड़ां चड़ती कला । चांपसी साह मल्हार, चांपल देवि माता धन इला ॥ पादसाह अकबर साहि परख्यो, श्री जिनसिंयसरि चिर जयउ। आसीस पभणइ समयसुंदर, संघ सहु हरखित थयउ ॥ ५॥ इत श्रीजिनसिंहसूरीणां जाड़ी गीतं समारम् ।। १-२ गुरुराज, ३ पातिसाहि.४ गोठि,५गुरु, ६ गुरु,७ अधिक, ८ वेलि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८० ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि (२) श्री जिनसिंहसार हीडोलणा गीतम् __हीडोलना नी ढाल सरसति सामिणी वीन, आपज्यो एक पसाय । श्री आचारिज गुण गाइस्युहीडोलना रे,आणंद अंगि नमायाहीं.२। वांदउ जिणसिंघसरि हीडोलणारे, प्रह ऊगमतइ सूरि । ही.। मुझ मन आणंद पूरि हीडोलणा रे, दरसण पातिक दुरि ।आ.। मुनिराय मोहन वेलड़ी, महियलि महिमा जास।। चंद जिम चड़ती कला हीडोलणारे, श्रीसंघ पूरवइ आस ।हीं.२। सोभागी महिमा निलो, निलवट दीपइ नूर । नरनारी पाय कमल नमइ हीडोलणारे, प्रगट्यो पुण्य पडूर ।हीं.३। चोपड़ा वंशइ परगड़उ, चांपसी साह मल्हार । मात चांपलदे उरिधरचाहीडोलणारे, खरतरगच्छ सिणगारहीं.४। चउरासी गच्छ सिरतिलउ, जिनसिंहमूरि सरीस । चिरजयउ चतुर्विध संघ सुहीडोलणारे,समयसुन्दर धइ आसीस२। चालउ सहेली सहगुरु वांदिवा जी, सखि मुझ वांदिवा नी कोड़ रे। श्री जिनसिंह सरि प्राविया जी, सखि कलं प्रणाम कर जोड़ रे॥चा.॥१॥ १ प्रगट्यउ पुण्य प्रकार। २ पूरवइ मनह जगीस Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) श्री जिन सिंहसूरि गीतानि- (३८१ ) मात चांपलदे उरि धरयो जी, सखि चांपसी साह मल्हार रे। मन मोहन महिमा निलउ जी, सखि चोपड़ा साख शृङ्गार रे॥चा.॥२॥ वइरागइ व्रत आदरयो जी, सखि पंच महाव्रत धार रे। सकल कलागम सोहता जी, सखि लब्धि विद्या भण्डार रे॥चा.॥३॥ श्री अकबर आग्रह करी जी, सखि कास्मीर कियउ विहार रे। . साधु आचारइ साहि रंजियउ जी, सखि तिहां वरतावि अमारि रे ।।चा.॥४॥ श्रीजिनचंद्र सरि थापिया जी, सखि आचारिज निज पटधार रे। संघ सयल आस्या फली जी, सखि खरतरगच्छ जयकार रे॥चा.॥५॥ नंदि महोच्छव मांडियउ जी, सखि श्री कर्मचंद मंत्रीस रे। नयर लाहोर वित्त वावरइ जी, सखि कवियण कोड़ि वरीस रे ॥चा.॥६॥ गुरु जी मान्या रे मोटे ठाकुरइ जी, सखि गुरु जी मान्या अकबर साहि रे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८२ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि गुरु जी मोन्या रे मोटे उंबरे जी, सखि जसु जस त्रिभुव। मांहि रे । चा.॥७॥ मुझ मन मोह्यो गुरु जी तुम्ह गुणे जी, सखि जिम मधुकर सहकार रे। गुरु जी तुम्ह दरसण नयणे निरखताँजी, सखि मुझ मनि हरख अपार रे ॥चा.॥८॥ चिर प्रतपउ गुरु राजियउ जी, सखि श्री जिनसिंघ सूरीश रे। समयसुन्दर इम वीनवइ जी, सखि पूरउ माहरइ मनहि जगीस रे ॥चा.।।६।। (४) आज मेरे मन की आस फली। श्री जिनसिंह सूरि मुख देखत, श्रारति दूर टली। श्री जिनचंद्र सूरि सई हत्थइ, चतुरविध संघ मिली। साहि हुकम आचारिज पदवी, दीधी अधिक भली ॥२॥ कोड़ि वरीस मंत्री श्री करमचंद, उत्सव करत रली । समयसँदर गुरु के पद पंकज, लीनो जेम अली ।। ३॥ ३ए Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिन सिंहसूरि गीतानि Jain Educationa International राग --- सारङ्ग आज कुं धन दिन मेरउ | पुण्य दशा प्रगटी अब मेरी, पेखतु गुरु मुख तेरउ || . ॥ १ ॥ श्री जिन सिंघसूरि तुं हि तुहि मेरे जिउ में, सुपन में नहिंय अनेरउ । कुमुदिनी चंद जिसउ तुम लीनउ, दूर तुहि तुम्ह नेरउ ॥ श्रा ॥२॥ तुम्हारे दरसन आनंद मोपइ उपजति, नयन को प्रेम नवेरउ । समयसुन्दर कहइ सब कुंबल्लभ जिउ, तँ तिन थह अधि केरउ । आ. ३ । (६) वधावा गीतम् आज रंग वधामणा, मोतियड़े चउक पूरावउ रे । श्री याचारिज श्राविया, श्रीजिन सिंह सूरि वधावउ रे । श्र० १ ॥ युगप्रधान जगि जाणिय, श्रीजिनचंद सरि मुणिंद रे । सहत्थि पाट थापिया, गुरु प्रतपइ तेजि दिणंद रे । आ० |२| सुर नर किन्नर हरखिया, गुरु सुललित वाणि वखाणइ रे । पातिसाहि प्रतिबोधियउ', श्री अकबर साहि सुजाण रे । आ०।३। बलिहारी गुरु वयणड़े, बलिहारी गुरु मुख चंद रे । बलिहारी गुरु नयणड़े, पेखहतां परमाणंद रे | श्र० |४| धन चापलदे कूखड़ी, धन चांपसी साह उदार रे । पुरुष रत्न जिहां ऊपना, श्री चोपड़ा साख शृङ्गार रे । आ०|५| | १ प्रतिबृजव्यउ ( ३८३ ) For Personal and Private Use Only Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८४ ) समय सुन्दरकृति कुसुमाञ्जलि श्री खरतरगच्छ राजियउ, जिन सासन मांहि दीवउ रे । समयसुन्दर कहइ गुरु मेरउ, श्रीजिनसिंघ सूरि चिरजीवउ रे | ६ | इति श्री श्री श्री आचार्य जिनसिंहसूरि गीतम् । श्री हर्षनन्दन मुनिना लिपि कृतम् ॥ (७) राग - पूरवी गउड़उ मोकू देहु वधाई | देहु बधाई देहु वधाई री ॥ अरी मोकु ० ॥ युग प्रधान जिनसिंघ यतीसर, नगर निजीक पधारे । देखि गुरु 'खबर करण कु हुँ आई ॥ रो० ॥ १ ॥ मन सुध साहि सिलेम मानतु है, मन मोहन गुरु माई | समयसुंदर कहइ श्री गुरु याये, श्रीति परम मनि पाई ॥ श्र०|२|| (८) चौमासा गीतम् श्रावण मास सोहामणो, महियलि वरसे मेहो जी । बापिया रे पिउ पिउ कर, अम्ह मनि सुगुरु सनेहो जी ॥ अम मन सुगुरु सनेह प्रगट्यउ, मेदिनी हरियालियां | गुरु जीव जयगा जुगति पालड़, वह नीर परणालियां ॥ सुध क्षेत्र समकित बीज वावई, संघ आनंद अति घणउ । जिनसिंघसूरि करउ चउमासउ, श्रावण मास सोहामणउ ॥ १ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिन सिंहसूरि गीतानि (३८५) मलइ आयउ भाद्रवउ, नोर भस्था नीवाणो जी। . गुहिर गंभीर ध्वनि गाजता, सहगुरु करिहि वखाणो जी ।। वखाण कल्प सिद्धांत वांचे, भविय राचइ मोरड़ा। अति सरस देसण सुणी हरखइ, जेम चंद चकोरड़ा ।। गोरड़ी मंगल गीत गावइ, कंठ कोकिल अभिनवउ । जिनसिंघसूरि मुणींद गातां, भलइ रे आयो भाद्रवउ ॥२॥ आस आसा सहू फली, निरमल सरवर नीरो जी। सहगुरु उपसम रस भरथा, सायर जेम गंभीरो जी॥ गंभीर सायर जेम सहगुरु, सकल गुणमणि सोह ए। अति रूप सुन्दर मुनि पुरंदर, भविय जण मण मोह ए॥ गुरु चंद्र नी परि झरइ अमृत, पूजतां परइ रली। सेवतां जिनसिंघ सूरि सहगुरु, आस मास आसा फलीं ॥३॥ काती गुरु चढती कला, प्रतपइ तेज दिणंदो जी। धरतियइ रे धान नीपना, जन मनि परमाणंदो जी॥ जन मनि परमाणंद प्रगट्यो, धरम ध्यान थया घणा । वलि परब दीवाली महोच्छव, रलिय रंग वधामणा ॥ चउमास चारे मास जिनसिंह सूरि संपद आगला। वीनवइ वाचक 'समयसुन्दर' काती गुरु चढती कला ॥४॥ आचारिज तुमे मन मोहियो, तुमे जगि मोहन वेली रे। सुन्दर रूप सुहामणो, वचन सुधारस केलि रे। पान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८६) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि राय राणा सब मोहिया, मोयो अकबर साहि रे । नर नारी रा मन मोहिया, महिमा महियल माहि रे । श्रा०।२। कामण मोहन नविकरउ, स्वधा दीसउ को साधु रे । मोहनगारा गण तुम्ह तणा, ए परमारथ लाध रे । प्रा०३। गुण देखी रावह स को, अवगुण राचई न कोई रे। हार स को हिपडई धरइ, नेउर पायतलि होय रे। प्रा०४। गुणवंत रे गुरु अम्ह तणा, जिनसिंहमूरि गुरराज रे । ज्ञान क्रिया गुण निरमला, समयसुन्दर सरताज रे । प्रा०५। · ढाल-नणदल री. चिहुँ खंडिं चावा चोपड़ा,तिण कुलि तुम्ह अवतार हो । पूज्य जी। वइरागइ व्रत आदरचउ, उत्तम तुम आचार हो पूज जी ।।१।। तुम्हे करतार बड़ा किया, कुण करइ तुम होड़ हो पूज जी। सोभागी महिमा निलउ, लोक नमई लख कोड़ि हो पूज जी॥२॥ सबल क्षमा मुण ताहरउ, साधु धरम नउ सार हो पूज जी। जाण पणु पण अति घj, आगम अरथ भंडार हो पूज जी ॥३॥ आचारिज पद थापियउ, सई हथि जिणचंद सूर हो पूज जी। पद ठवणउ क्रमचंद कियउ,अकवर साहि हजूर हो पूज जी ॥४॥ मानइ मोटा उंबरा, मानह राणा राय हो पूज, जी। तेज घणउ जगि ताहरउ, पिशुन लगाड्या पाय हो पूज जी ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिन सिंहसुरि गीतानि ( ३८७ ) गिरुप गच्छ खरतर छह, तेह तपउ तू राय हो- पूज जी 1 श्री जिन सिंह सूरीसरू, समयसुन्दर गुण गाँव हो पूज जी ॥६॥ (११) 1 प्रह ऊठी प्रणमु' सदा रे, चरण कमल चित्त लाइ | देऊ तीन प्रदक्षिणा रे, पातक दूरि पुलाइ |१| म्हारा पूज जी, तुम सु धरम सनेह । मुख दीठां सुख ऊपजे रे, जिम बापियउ मेह | आंकणी । सुह राई सुह देवसी रे, पूछू बे कर जोड़ि । विनय करी गरु बांदिय रे, तूटइ करम नी कोड़ि | म्हा. |२| मुखतां सुललित देणारे, आणंद अंग न माइ । देव धरम गुरु जाणियह रे, समकित निर्मल थाइ | म्हा. ३। भात पाणी अति सूकता रे, पड़िलाभू बार बार । ज्यू लाहऊ लखमी ताउ रे, सफल करू अवतार | म्हा. | ४ | गुरु दीवउ गुरु चंद्रमा रे, गुरु देखtes वाट । गुरु उपगारी गुरु बड़ा रे, गुरु उत्तारह घाट | म्हा श्रीजिनसिंघ सूरीसरू रे, चोपड़ा कुल सिणगार | समयसुन्दर कहइ सेवतां रे, श्री संघ नइ सुखकार | म्हा. | ६ | (१२) मुझ मन मोह्यो रे गुरुजी, तुम्ह गुणे जिम बाबीहड़' मेहो जी । मधुकर मोह्यो रे सुन्दर मालती, चंद चकोर सनेहो जी । मु. । १ । १ बामीयडर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८८) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि मानसरोवर मोटो हंसलउ, कोयल जिम सहकारो जी। मयगल मोहोरेजिम रेवा नदी,सतिय मोही भरतारोजी। मु.।२। गुरु चरणे रंग लागउ माहरउ, जेहवउ चोल मजीठो जी। दूर थकी पिण खिण नवि वीसरइ,वचन अमीरस मीठोजी। मु.३॥ सकल सोभागी सहगुरु राजियउ,श्रीजिनसिंघसरीसो जी। समयसुंदर कहइ गुरु गुण गावतां, पूजइ मनह जगीसोजी । मु.।४। राग--मारुणी धन्याश्री अमरसर अब कहउ केती दूर । पगि पगि पगि पंथियन । पूछत, आये आणंद पूर ।अ.१॥ पातसाह अकबर के माने, जिहां श्री जिनसिंहसूरि । मास कल्प राखे आग्रह करि, थानसिंह साहि सनूरि अ.२। गुरु के पद पंकज प्रणमत ही भाजि गये दुख भूरि । . समयसुन्दर कहइ आज हमारे, प्रगट्यइ पुण्य पडूरि ।अ.३। सुंदर रूप सुहामणउ रे, जोतां तृपति न थाय म्हारा पूज जी । मुंख पूनम कउ चांदलउ रे लाल, कंचन बरणी काय म्हारा पूज जी ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिन सिंहसूरि गीतानि ( ३८६ ) तहं मोरो मन मोहियउ रे लाल, श्री जिनसिंह सूरीश म्हारा पूज जी। मूरति मोहन वेलड़ी रे, मीठी अमृत वाणि म्हारा पूज जी। . नर नारी मोही रह्या रे लाल, सुणतां सरस वखाणि ॥म्हा०॥२॥ गुण अवगुण जाणइ नहीं रे, ते तउ मूरख होय म्हा० । मई गुण जाण्या ताहरा रे लाल, तुझ सम अवर न कोय ॥म्हा०॥३॥ मन रंग लागउ माहरो रे, जेहवउ चोल मजीठ म्हा० । ऊतारयो नवि ऊतरइ रे लाल, दिन दिन दस गुण दीठ म्हा०॥४। श्री जिन सिंघ सूरीसरू रे, खरतर गच्छ कउ राय म्हा० । सरिज जिम प्रतपउ सदा रे लाल, समयसुन्दर गुण गाय । म्हा०। ५॥ राग-वयराड़ी मुणउ री सुणउ मेरे, सदगुरु वयणा । सु०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६०) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि अमृत मीठे अत्यन्त, सरस यांचे सिद्धांत । भंजत मन की भ्रांति, चित्त होत चयणा ||सु०॥१॥ गावत वयराडी रागइ, आलापइ श्री संघ आगइ । वांसुरी मधुरी वागइ, सुख पावइ सयणा ॥सु०॥२॥ श्री जिन सिंघसरि, देख्यां दुख गये दूरि । समयसुन्दर सनूरि, हरखे नयणा ॥सु०॥३॥ सदगुरु सेवउ हो शुभ मतियां । श्री जिनसिंघसूरि सुखदायक, गच्छनायक गज गतियां।स.।१। सूत्र सिद्धान्त वखाण सुणावत,बलि वयराग की वतियां।। समयसुंदर कहइ सगुरु प्रसादइ,दिन दिन बहुदउलतियां स.।२। श्रीजिनसिंहसूरि सपादाष्टक एजु लाहोर नगर वर, पातिसाहि अकबर; दया भ्रम चितधर, बूझइ ध्रम बतियां । कर्मचंद्र मंत्री अ(ह)सी, गुरु चित वात वसी; अभयकुमार जसी, मानु जाकी मतियां ॥ वाचक महिमराज, करत उत्तम काज; बोलाए जु मंत्रिराज, लिखि करी पतियां । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनसिंहसूरि सपादाष्टक (११) समयसुन्दर तब, हरखित होत सब अधिक आणंद अब, उलसति छतियां ॥१॥ एजु प्रणम्यां श्री शांतिनाथ, गुरु सिर धरचउ हाथ; समयसुंदर साथ, चाले · नीकी वरियां। अनुक्रमि चलि आए, सीरोही मई सुख पाये; सुलताण मनि भाए, पेखत अंखरियां ॥ जालोर मेदनीतट, पइसारउ कियउ प्रगट, डिंडवाणइ जीते भट, जयसिरि वरियां । रिणी ते सरसपुर, आवत पीरोजपुर, लंघत नदी कसूर, मार्नु जइसी दरियां ॥२॥ एजु आवत जु शोभ लीनी, लाहोर वधाई दीनी; मंत्री कुमालुम कीनी, कहह ऐसो पंथिया । मानसिंघ गुरु आए, पातिसाहि कुसुणाए; वाजिब गृधु वजाए, दान दियइ दुथियां ॥ समयसुन्दर भायउ, पइसारउ नीकउ वणायउ; श्रीसंघ साम्हउ आयो, सज करि हथियां । गावत मधुर सर, रूपइ मानु अपछर सुन्दर सूहब करइ, गुरु आगइ सथियां ।।३।। एजु तबही श्री जी कुँमिले, पछया री गुरु हउभाले दुरि देसि आए चले, वखत संजोग री। हरखित होत हीया, अत्यंत आदर दीया; दउढी का हुकम कीया, जानइ सब लोग री॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६२) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि जीवदया धरमसार, बूझत सदा विचारः भरत चक्री उदार, कइसें लीनउ जोग री। मानसिंह मान्यउ साहि, जश भय जग माहि; समयसुन्दर तह, सुखे कापूपींग री ॥४॥ एजु अकबर जहांगीर, साई नाकासमीर; सुगुरु साहस धीर, दृढ करि हइया री । परत बरफ पूर, मारग विषम दूर; __ चरत डरत सूर, कहा कीजइ दइया री ॥ श्रीपुरनगर आई, अमारि गुरु पलाई __ मछरी सबइ छोराइ, नीकउ भयउ भइया री। समयसुन्दर तस, गावत सुगुरु जस; . अकबर कीनउ बस, अइसे गुरु अइया री॥॥ एजु जिनचंदररिज्ञानी, गच्छ की उन्नति जानी; साहि कउ हुकम मानी, साहि के हजूरि री । लाभपुर आए जोम, सिंह सम जान्यउ ताम; पातिसाहि दीनउ नाम, जिनसिंघसरि जी॥ पाठक वाचक दोय, सब मिल पंच होय; जुगह प्रधान जोय थापे गुण पूर री । आचारिज बड़ भागी, सुन्दर कहइ सोभागी; 'पुण्य दिसा जसु जागी, प्रबल पडूर री ॥६॥ एजु मसंजर मुखमल, कसबी की झ(ल)मल; सूप रूप निरमल, कथीपे की भतियां । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिन सिंहसूरि सपादाष्टक ( ३६३ ) विचित्र तंबू वणायउ, उपाश्रउ नीकउ वणायउ; इंद्र भी देखण आयउ, सुन्दर सोभतियां। नांदि कउ उच्छव कीनउ, कर्मचंद जस लीनउ; सवा कोडि दान दीनउ, सुगुरु गावतियां । समयसुन्दर कहइ, श्रीसंघ गहगहइ; दान मान सब लहइ, वाजत नोवतियां ॥७॥ एजु चोपड़ा वंश दिणिंद, चांपसीह साह नंद; . अदभुद रूप इंद, मुख जइसो चंद री। सुविहित खरतर, गच्छ भार धुरंधर सेवतां ही सुरतरु, सुख केरउ कंद री ॥ जिणचंद सूरि सीस, छाजत गुण छत्तीस पूरवह मन जगीस, भवियण वृन्द री । समयसुन्दर पाय, प्रणमी सुजस गाय, जिनसिंह सरिराय, जगि चिर नंद री ॥८॥ इति श्रीजिनसिंहसूरीणां सपादाष्टकं सम्पूर्णम् । (१७) बे मेवरे काहे री सेवरे, अरे कहां जात हो उतावरे, टुकरहोनइ खरे।बे। हम जाते बीकानेर साहि जहांगीर के भेजे, हुकम हुया फरमाण जाइ मानसिंघ कु देजे । सिद्ध साधक हउ तुम्ह चाह मिलणे की हम कु, वेगि आयउ हम पास लाभ देऊंगा तुम कु।। बे मेवरे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६४) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि बे साहूकार काहे खुनकार, अरे हमकुं बतावइ नइ कहां जिनसिंघसरि __का दरबार ।बे। बीकानेर के बीचि चैत्य चउवीसटा कहियइ, उस तइ उत्तर कूणि वाम दिसि वेगा लहियइ । पावड़ साले पांच बार दोऊं बइठण त्रक्रिया, .........'जाओ मानसिंघ का क्रिया।२। वे साहूकार। बे महाजन काहे दीवाण, अरे बोलायउ नइ काजी के मुला वचायउ पुरमाण ।बे.। हाजरि काजी एइ खूब भली परि वांचइ, __सुणइ लोक सहु कोउ मेघ धुनि मोर ज्युं माचइ । पातसाह जहांगीर बहुत करी लिखी बड़ाई; करउ तपास तुम आई तपा कइ होत लड़ाई ।। महाजन । पूँजि जी सलामत काहे मीयां जी, अजें क्यूँ नहीं चलते बणइ नहीं ढीलि कियां । ब.। ढिल्ली का पातसाह गढ मंडप मइं गाजइ, कबजि किये सब देस फतह की नोबति वाजइ । श्रो तुम कुं करे याद जइसई चंद कुं चकोरा, रेवा कुंगजराज मेघ आगम कुंमोरा ।४। पूजि जी सिलामत.। जीवइ गुरु जी इहु भी ल्यउ कतावत, मियां जी किस की इहु जी अणीराय के दसखत । बे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनसिंहसूरि गीतानि ( ३६५ ) अणीराय उंबराउ पातिसाह का निजी की, तुम सुं हइ इकलास प्रीति ओ पालइ नीकी । पातिसाह का पासि आयां तुम कुं फायदा, खुदा करइ तउ खूब किसा वधारू काइदा पूजजी.। (१८) श्री आचारिज कइयइ आवस्यइ, जोसी जोय विचारो रे। सुंदर वात कहइ सोहामणी, लगन तणइ अनुसारो रे ।शश्री.। अह निसि जोऊ रे सहगुरु वाटडी,मोमनिवांदिवाखांति रे। धर्म राग भेघउ चिर भीतरह, पडीय पटोलइ भांति रे।।श्री.। सोभागी गुरु सहु नइ वालहा, मुनिवर मोहण वेलि रे । विनयवंत श्रावक सहु सांभलइ, वचन अमीरस सेलि रे।३।श्री.। गुरु उपरि जे राचइ नहिं, ते माणस तिरजंचो रे। परवाली मोती नु पारखु, चतुर लहइ परपंचो रे ।४।श्री.। श्रीखरतर गच्छ केरउ रानियउ, जुगप्रधान पटधारो रे । श्रीजिनसिंघसूरोसर वांदतां, समयसुन्दर जयकारो रे ।।श्री.। राग-रामगिरि सूबटा सोभागी, कहि किहां सगुरु दीठा। साकर दूध सेती, मुख करावुमीठा रे ॥वीर स्व०॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६६) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि जउ तूं रे वधामणि आणइ सुगुरु केरी । तउ हूं सोवन चांच मंढावू सुयटा तेरीरी। वीर स्व०॥२॥ सुणि सखि मारग मांहि मलपंता आवइ । श्रीय जिनसिंघसरि महा प्रभावइ रे ॥वीर सू०॥३॥ सुगुरु आगम सुणि आणंद पाया। सुरनर किनर नामीरी वधाया रे ॥ वीर सू०॥४॥ आचारिज आव्या मन कामना फली। समयसुन्दर गुण गावइ मन नी रली रे।। वीर सू०॥५॥ मारग जोवंतां गुरु जी तुम्हे भलइ आए रे। गु० । मोहन मूरति पेखी आणंद पाए ॥ हियरा ही सतगुरु नी देखी मुख तोरा रे । मेघ के आगमि जइसइ माचत मोरा ॥१॥ मा०॥ नयण तुम्हारे गुरु जी मोहण गारे । गु० । छोरण न जाते हम कुं बहुत प्यारे । तुम्हारे चरण गुरु जी मेरा मन लीणा । गु० । वचन सणंता चित अंतर भीणा ॥१॥मा०॥ किंहा कुमुदिनी किहाँ गगनि चंदारे । गु० । दर थी करत तउ भी परम आणंदा । जे नर जोके चित मइ ते दूर थइ नेरे जी । गु० । अहनिसि लेउं गुरु जी भामणा तेरे ॥३॥मा०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनसिंहसूरि गीतानि ( ३६७) मन सुधि अकबर तुम कुं मानइ रे। ग०। तुम्ह चिर जीवउ गुरु जी वधतइ वानइ ॥ जिनसंघसरि अइसा मेरइ मनि भाया रे। ग०। समयसुन्दर प्रभु प्रणमइ पाया ॥४॥मा०॥ राग-भयरव भोर भयउ भविक जीव, जागि जागि जागिरी; जिनसिंघसरि उदय भाण, तेजपुञ्ज राज माण । ऊठि अइसे धरम मारगि, लागि लागि लागि री ।।भो। भविक कमल वन विकासन, ढुरित तिमिर भर विनासन; कुमति उलूक दूरि गए, भागि भागि भागिरी । श्रीजिनसिंघसरि सीस, पूरवइ सब मन जगीस; समयसुन्दर गावत भयरव, रागि रागि रागिरी ।२।भो। इति श्रीजिनसिंघसूरीणां चर्चरी गीतम् । (२२) राग-सारंग गुरु के दरस अंखियां मोहि तरसइ । नाम जपत रसना सुख पावत, सुजस सुणत ही श्रवण सरसइ ।१। अं.। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि प्रणमत होत सफल सहगुरु कु, ध्यान धरत मेरउ चितु हरसइ । सगरु वंदण कुंचलत ही चरण युग, पतियां लिखत ही कर फरसइ ।२। अं.। श्री जिनसिंहसरि आचारिज, वचन सुधारस मुखि वरसइ । समयसुंदर कहइ अबहु कृपा करि, नयण सफल करउ निज दरसइ ।३। अं.। राग-नट्ट नरायण तुम चलहु सखि गुरु चंदण । श्रीजिनसिंघसरि गुरु दरसण, सब जण कुंआणंदण।१।तु.। पातिसाहि अकबर मण रंजण, वचन सुधारस वंदण । चोपड़ां वंस सुशोभ चडावत, चांपसी साह के नंदण ।२।तु.। तेज प्रताप अधिक गुरु तेरउ, दुरमति दुख निकंदण । समयसुन्दर प्रभु के पद पंकज, प्रणमति इंद नरिंदण ।३। तु.। (२४) राग-मालवी गउड़ाउ __ आज सखी मोहि धन्यः जीयारी। ५. श्रीजिनसिंघसरीसर दरसण, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनसिंहसूरि गीतानि ( ३६६ ) देखत हरखित होत हीया री ॥१॥ श्र० ॥ कठिन विहार कीयउ कासमीरइ, साहि अकबर बहु मान दीया री । श्रीपुर नगर अमारि पालण तह, सब जग मई सोभाग लीया री || २ || श्र० ॥ गुहिर गंभीर सर मधुर आलापति, देसया सुगत मानु अमृत पीया री। समयसुन्दर प्रभु सुगुरु वांदण तई, इहु मइ मानव भव सफल कीया री || ३ || श्राना (२५) राग-कल्याण श्री जिन सिंघसूरिंद जयउ री | श्री० | 1 जुगप्रधान जिण चंद मुणीसर, पाटि प्रभाकर ज्युं उदयउ री । १ । श्री । अकबर साहि हजूर हरख भरि, आचारिज पद जासु दयउ री। मोहन वेलि भविक मन मोहन, दरसण तइ दुख दूरि गयउ री | २|श्री . | चोपडां वंश चांपसी नंदरण, वंदण कु मेरउ मन उमयउ री । समयसुंदर कहइ श्रीगुरु आए, श्रीसंघ कुं आणंद भयउ री | ३ | श्री. Jain Educationa International (२६) राग-केदारउ जिनसिंघसूर की बलिहारि । बूव्य पातिसाहि अकबर, दया धरम दिखारि । १ । जि० | For Personal and Private Use Only Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४.०) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि सूरि गुण छत्रीस शोभित, वचन अमत धार । श्री जिन शासन मांहि दिनकर, खरतर गच्छ सिणगार।।जि०। जुगप्रधान सुसीस जगि मई, प्रगटियउ पटधार । समयसुन्दर सुगुरु प्रतपउ, श्री संघ कुं सुखकार ।३। जि०। (२७) राग-गउड़ी पंथियरा कहियो एक संदेश। जिनसिंघसरि तुम्हे वेगि पधारउ, इण रो हमारइ देश।।पं.। भगत लोग इतु भाव बहुत हइ, मानत सब आदेस । चंद चकोर तणी परि चाहत, नाम जपत सविशेस ।।पं.। पातिसाहि अकबर तुम माने, जानत लोक असेस । समयसुन्दर कहइ धन्य जीया मेरउ, जब नयणे निरखेस ।।पं.। (२८) राग-ललित ललित वयण गुरु ललित नयण गुरु, ललित रयण गुरु ललित मती री ॥ल०॥ ललित करण गुरु ललित वरण गुरु, ललित चरण गुरु ललित गतीरी ॥ल०॥१॥ ललित पूरति गुरु ललित सूरति गुरु, ., ललित मूरति गुरु ललित जती री। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनसिंहसूरि गीतानि (४०१ ) ललित वयराग गुरु ललित सोभाग गुरु, ललित पराग गुरु ललित व्रती री ॥ ल०॥२॥ ललित खरतर गुरु ललित सुरतरु गुरु, ललित गणधर गुरु ललित रती री । समयसुन्दर प्रभु जिनसिंहसरि कु __साहि अकबर मानइ छत्रपती री ॥ल०॥३॥ (२९) राग-धन्यासिरी बलिहारी गुरु वदन चंद बलिहारी । वचन पीयूष पान कुंआए, नयन चकोर अनुसारी री।श गु.। भविक लोक लोचन आणंदण, दुरित तिमिर भरवारी। अकलंक सकल कला संपूरण, सौम्य कांति मनुहारीरी।।गु.। . पातिसाहि अकबर प्रतिबोधक, युगप्रधान पटधारी। समयसुंदर कहइ श्रीजिनसिंघसूरि,सब जन कुंसुखकारी री।३।गु.। राग-पंचम आवउ सुगुण साहेलड़ी, मिलि वेलड़ी रे; गायउ जिनसिंघसूरि मोहन वेलड़ी ।। श्रा०। श्रवण सुधारस रेलड़ी, गुड़ भेलड़ी रे; मीठी सहगुरु वाणि जाणे सेलड़ी ।२।०। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०२ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि चालइ गज गति गेलड़ी, धन ए घड़ी रे; समयसुन्दर गुरुराज महिमा एवड़ी ।३। श्रा०। (३१) श्री जिनसिंघसूरि-तिथिविचारगीतम राग-प्रभाती पड़िवा जिम मुनि वडउ साहेलड़ी ए, बीज बेऊ भ्रम पालइ गुण वेलड़ी ए। त्रीजइ त्रिएह गुपति धरइ साहेलड़ी ए, . चउथि कषाय च्यार टालइ ॥ गु० ॥१॥ पांचमि व्रत पालइ पांचे साहेलड़ी ए, छट्टि छजीव निकाय ॥ गु०॥ सातमि भय साते हरइ साहेलड़ी ए, आठमि प्रवचन माय ।। गु० ॥२॥ नवमि आपइ नवनिधि साहेलड़ी ए, दसमि दसे भ्रम सार ॥ गु०॥ इग्यारसि अंग इग्यार धरइ साहेलड़ी ए, बारसि प्रतिभा बार ।। गु० ॥३॥ तेरसि तेर क्रिया तजइ साहेलड़ी ए, चउदसि विद्या जाण ॥ गु०॥ पुनिमचंद तणी परि साहेलड़ी ए, सकल कला गुण खाण ॥ गु० ॥ ४ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनसिंहसूरि गीतानि (४०३ ) पनरे तिथि गुण पूरण साहेलड़ी ए, श्री जिनसिंघसरीश ।। गु०॥ समयसुन्दर गुरु राजियउ साहेलड़ी ए, पूरवइ मनह जगीस ॥गु० ॥ ५ ॥ (३२) चतुर लोक राचइ ग णे रे, अवगण कोइ न राचह रे। परमारथ तुम्हे पीछज्यो रे, सहु को पतीजड़ साचा रे।। मन माहरउ गच्छनायक, मोघउ तुम्ह गणे रे। जाणु जे रहुँ आचारिज, चरणे तुम्ह तणे रे ॥०॥ सुन्दर रूप सोहामणउ रे, बोलइ अमत वाणी रे । नर नारी मोही रह्या रे, मुझ मनि अधिक सहाणी रे।।मन.। सोम गणे करि चन्द्रमा रे, सायर जेम गंभीरो रे। खमति घणी पूज ताहरी रे, संयम साहस धीरो रे ।३। मन.। सोभागी महिमा निलउ रे, सकल कला ग ण सोहइ रे। मानइ राणा राजिया रे, भवियण ना मन मोहइ रे।४। मन.। श्रीजिनसिंघसरीसरु रे, प्रतिपउ मूरिज जेमो रे। .................. ... .. . .. .. . . . . .. . . . . . . . . . . . . श्री जनराजसूरि गीतनि राग-श्री भट्टारक तुझ भाग नमो। तूं अतुलीबल असम साहसी, सूर नहीं को तुझ समो॥भ.॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि भागइ भट्टारक पद पायउ, भागइ दुरिजन दूरि गमउ । भागइ संघ कियउ वसि सगलउ, देस प्रदेसि विहार क्रमउ।।भ.॥२॥ तूठी अंबिका परतिख तुझनइ, अमीझरउ तीरथ उतमउ। श्रीजिनराजसरि अब मोनइ,समयसुंदर कहइ तुझ सरम॥भ.॥३॥ (२) राग-आसावरी भट्टारक तेरी बड़ी ठकुराई। तखत बइठ करि हुकम चलावत, मानत सब लोगाई ।। भ.॥१॥ बिंब प्रतिष्ठा अमीझरइ प्रतिमा, ए तेरी अधिकाई। घंघाणी लिपि वांची बचाई, अंबिका परतिख आई ॥भ.॥२॥ श्रीजिनराजसरि गच्छनायक, जाण प्रवीण सदाई । समयसुंदर तेरे चरण शरण किए,अब करि अपणी बड़ाई।भ.॥३॥ (३) ढाल-नाहलिया म जाए गोरी रावण हरइ तूंतठउ घइ संपदा पूज जी, धइ संघवी पद सार । पाठक वाचक पद भला पूज जी, इंद्र इंद्राणी सार ॥१॥ अकल सरूपी तूं गुरु जीयउ, एह अचंभो थाई । अमत अमृत वसइ के विष नयण वसइ,निरति पड़इ निहि काय।अं.२। तू रूठउ धइ आपदा पूज जी, राय थका करइ रांक । मेर थको सरसव करइ पूज जी, वांका काढइ वांक | अ.३। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनराजसूरि गीतानि (४०५ ) शीतल चंदन सारिखउ पूज जी, तेज तपइं तकि वार । हूँसि करी हेजइ मिलइ पूज जी, कदि न आणइ अहंकार । अ.।४। श्री जिनराजसूरीसरू पूज जी, तू कहियइ करतार । सोम निजर करि निरखजो पूजजी,समयसन्दर कहइ सार । अ. ५॥ राग-नट्ट नारायण श्री पूज्य सोम निजर करउ । चप करी आयउ तेरइ सरणे, अभिग्रह ले सबलउ आकरउ ।श्री.।१। भट्टारक जोइयइ भारी खम, पड़इ चाकर नह पांतरउ । नमतां कोप करइ नहीं उत्तम, बांक हुवइ जो घणी बातरउ । श्री.।२। अति ताण्यउ न खमइ अलवेसर, आज विषम पांचमउ अरउ। समयसुंदर कहइ श्रीजिनराजसूरि,अब अपणउ करि ऊधरउ ।श्री.।३। ढाल-सूबरा ना गीत नी श्री पूज्य तुम्ह नइ वांदि चलतां हो, चलता हो पाछा पग पड़इ माहरा हो । धरती भारणी होइ ध०, चालइ हो चा. वेधक सुवचन ताहरा हो॥१॥ अउलु आवइ एम अउ०, जाणू हो जाणं हो पाछो वलि जाउं वली हो। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०६) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि खिण विरहर न खमाय खिण, जीवइ हो जीवइ पाणी विण किम माछली हो॥२॥ हसितइ बोलइ बोल ह०, ते बोल हो ते बोल थारा मुझ नइ सांभरइ हो। एहवा चतुर सुजाण ए०, ___ कहउ कुण हो कहउ कुण हो कहियउ पूज्य पटंतरइ हो ॥३॥ हेजइ हियडइ भीडि हे, यह तुं हो धइ तुं हो बांभिसि मीठइ बोलड़इ हो। सबल करइ बगसीस स०, ____ अवर हो अवर हो लाभइ जे बहुमोलड़इ हो ॥४॥ श्री जिनराजसूरींद श्री०, तूठो हो तूठो हो साहिब सुरतरु सारिखउ हो। समयसुन्दर कहइ एम स०, परतिख हो परतिख हो दीठउ ए मई पारिखउ हो॥५॥ इति श्रोजिनराजसूरीश्वराणां वियोगनतमये गीतम् । श्रीजिनसागरसूर्यष्टकम् श्रीमज्जेसलमेरुदुर्ग नगरे, श्रीविक्रमे गूर्जरे । थट्टायां भटनेर-मेदिनी तटे, श्रीमेदपाटे स्फुटम् ।। श्रीजावालपुरे च योधन गरे, श्रीनागपुयों पुनः। श्रीमल्लाभपुरे च वीरमपुरे, श्रीसत्यपुर्यामपि ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनसागरसूर्यष्टकम् ( ४०७ ) .............॥३॥ मूलत्राणपुरे मरोट्टनगरे, देराउरे पुग्गले । श्रीउच्चे किरहोर-सिद्धनगरे, धींगोटके संबले ॥ श्रीलाहोरपुरे महाजन रिणी, श्रीआगराख्ये पुरे । सांगानेरपुरे सुपर्वसरसि, श्रीमालपुर्यां पुनः ॥२॥ श्रीमत्पत्तननान्नि राजनगरे, श्रीस्तंभतीर्थस्तथा। द्वीपश्रीभृगुकच्छवृद्धनगरे, सौराष्ट्रके सर्वतः ।। श्रीवाराणपुरे च राधनपुरे, श्रीगूर्जरे मालवे । ........ सर्वत्र प्रसरी सरीति सततं, सौभाग्यमावाल्यतः । वैराग्यं विशदामतिः सुभगता भाग्याधिकत्वं भृश ।। नैपुण्यं च कृतज्ञता सुजनता, येषां यशोवादता । सूरिश्रीजिनसागरा विजयिनोभूयासुरेते चिरम्॥४॥ प्राचार्या शतशश्च संति शतशो, गच्छेषु नाम्ना परां । त्वं त्वाचार्य पदार्थयुग युगवरः प्रौढः प्रतापाकरः॥ भव्यानां भवसागरप्रतरणे, पोताय मानो भुवि । श्रीमच्छीजिनसागरः सुखकरः सर्वत्रशोभाकरः ॥॥ सौम्यश्रीहिम दीधितौ सुरगुरौ बुद्धिर्धरायां क्षमा। तेजः श्रीस्तरणौ परोपकृतिधीः श्रीविक्रमे भूपतौ॥ सिद्धि गोरखनाथ योगिनि बहुलाभाश्च लम्बोदरे। सत्येवं विविधानयागुणगणाः सर्वे श्रितास्यां प्रभो॥६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४०८ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि श्रीबोहित्थकुलांबुधिप्रविलसत्प्रालेयरोचिप्रभा । भास्वन्मातृमृगांसकुक्षिसरसि श्रीराजहंसोपमा । श्रीमद्विक्रमवासि विश्वविदितः श्रीवत्सराजङ्गजाः। सन्तुश्री जिनसागराः खरतरे गच्छे चिरंजीविनः ॥७॥ इत्थं काव्यकदम्बकं प्रवरकं मुक्ता पुरः प्राभृतम् । विज्ञप्तसमयादिसन्दरगणि भक्त्या विधत्ते भृशम् ।। युष्मत्प्रौढतमप्रतापतपनो देदीप्यतां सत्त्वरः । यूयं पूरयत स्वभक्तयतिनां शीघ्र मनोवांछितम् ॥८॥ [अनूप संस्कृत लाइब्रेरी, बीकानेर ] श्री जिनसागरसूरि गीतानि (१) राग-कनड़ी सखि जिनसागर सूरि साचउ । स० । श्री खरतर गच्छ सोह चड़ावद, जाणइ हीरउ जाचउ ।स०११ सुललित वाणि वखाण सणावइ, कहइ मत मायाराचउ।स० ए संसार असार अथिर छइ, ज्यूं माटी घट काचउ । स०१२। शांत दांत सोभागी सदगुरु, बड़े बड़े विरुदे वाचउ । स०। समयसुन्दर कहइ ए गुरु ऊपरि, चतुर हुवइ ते राचउ । स०।३। (२) राग-शुद्ध नाट धन दिन जिन सागर सूरि निरखी नयणा । ए ए आ। सुललित सिद्धान्त वोचइ अमृत क्यणा ॥१०॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनसागरसूरि गीतानि (४०६ ) गुहिर गंभीर मेघ जिम गाजति गयणा । ए एआ। नवतत भेद नीर पावइ चातक सयणा ॥३०॥२॥ बच्छराज साह वंश विभूषण गुण मणि रयणा । ए ए था। समयसन्दर गुरु के दरशि चित्त होत चयणा ॥ध०॥३॥ (३) राग-हमीर कल्याण जिन सागर सूरि गच्छपति गिरुयउ । जि०। कुण कहूं ए सदगुरु सरिखउ, किंहा कंचणि किहां पीतल तरुयउ ।। जि० ॥१॥ श्री जिन शासन सोह चढावइ, जिम सुगंध वाड़ि मांहि मरुयउ । समयसुन्दर कहि ए गुरु उत्तम, किणहि ऊपरि चिंतइ नहीं वरुयउ ।। जि० ॥२॥ (४) राग-भूपाल ढाल-शालिभद्र आज तुम्हानइ आपणी माता जिनसागर सूरि गच्छपति गरुयउ, खरतर गच्छ मांहि सोहइ रे। तप जप संयम कठिन क्रिया करि, ___ भवियण ना मन मोहइ रे ॥ जि० ॥१॥ युगप्रधान जिनचंद सूरीसरि, ___ पाट जोग काउ औ हइ रे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१०) समयमुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि - श्री जिनसिंह सूरि पाटोधर, .. कहउ सामल सम को हइ रे ॥ जि० ॥२॥ वयरागी संवेगी सदगुरु, वयर विरोध विपोहइ रे। समयसुन्दर कहइ देस विदेसे, - सहु श्रावक पडिबोहइ रे ॥ जि० ॥३॥ (५) राग-गुन्ड अइओ नंद नंदना, नंद नंदना साह बच्छराज के नंदना। अइओ चंद चंदना, चंद चंदना वचन अमीरस चंदना ॥१॥ अइश्रो फंद फंदना, फंद फंदना नहिं माया मोह फंदना। अइयो कंद कंदना, कंद कंदना; दुख दारिद्र निकंदना ॥२॥ अइओ इंद इंदना, इंद इंदना; जिनसागरसूरि इंदना। अइनो वंद वंदना, वंद वंदना; समयसुन्दर कहइ वंदना ॥३॥ (६) राग-तोड़ी गुरु कुण जिनसागर सूरि सरिखउ री । गु० । शीलवंत अनइ सोभागी२, पांच माणस पंडित परखउ री। गु.११ किंहांकाच किहां पांच अमृलिक, किहां अरहट कातण चरखउरी। किहां करीर किहां सुरतरु सुंदर,किहाँ मेर कंचन करखउ री।गु.॥२॥ १ कुण सुगुरु जिनसागर सरिखउ री, २ संवेगी, ३ कचकि, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनसागरसूरि गीतानि (४११ ) सुगुरु कुगुरु नउ एह पटंतर, निर्विरोध नयणे निरखउ री। समयसुंदर कहइ एह धर्म पक्ष, साचउ जाणी सहु हरखउ री। गु.॥३॥ (७) राग-धन्याश्री वंदउ बंदउ रे श्री जिनसागर सूरि वंदउ री। शांत दांत दर्शन गुरु देखी, अधिक अधिक आनंदउ री । श्री.।१। श्रीजिनसिंघ सूरि पटोधर, साह बच्छराज कुलचंद । सूत्र सिद्धांत वखाण सुणावत, जाणी अमत रस बिंदो जी। श्री.।२। मन वंछित पूरवइ ए मुनिवर, जिम सरतरु नो कंदोरी। समयसँदर कहइ सुगुरु प्रसादइ,चतुर्विध संघ चिर नंदउरी। श्री.।३। (८) ढाल-आवउ रे सहियर सवि मिली जी. बहिनी आवउ मिलि वेलड़ी जी, सजि करि सोल शृङ्गार । पहिरी पटोली अोढउ चूनड़ी जी, तिलक करो तुमे सार ।। सुगरू वधावउ सखि मोतिये जी, श्री जिनसागर सूरि । आणंद हुयइ घरि पापणइ जी, अलिय विघन जायइ दूरि । स.।२। सखर करउ तुमे साथियउ जी, कक भरिय कचोल । चौक पूरउ तुम्हे चाउलइ जी, गीत गायउ रमझोल । सु.।३। नारि करउ तुम्हे लूछणा जी, लटकितइ हाथि उलास । विधि सुं करउ गुरू वंदणा जी, वास ल्यउ सदगुरु पास । सु.।४। खरतर गच्छ केरउ राजियउ जी, जिनसिंहसरि पटवार । जिनसागर सूरि चिरजयउ जी, समयसुन्दर सुखकार । सु.॥ ४ गुण समुद्र, ५ हियइ। [अनूप संस्कृत लाइब्रेरी से पाठान्तर] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१२ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि (१) ढाल-भरत यात्रा भणी ए, अथवा-बहिण सिलामती ए जिनसागर सरि गुरु भला ए, मोटा साधु महंत ॥ जि०॥ रहणी अति रूड़ी रहइ ए, सौम्य मूरति शांत दांत ।। जि०॥१॥ लघु वय जिण संजम लियउ, सत्र सिद्धांत ना जाण ।। जि०॥ वचन कला भली केलवी ए, सुललित करइरे वखाण । जि०॥२॥ शीलवंत शोभा घणी ए, सहु को आपइ साख ॥ जि०॥ नींबोली सुं मन नहीं ए, मिली मुझ मीठी द्राख ॥ जि०॥३॥ अम्हारइ सखि गुरु एहवा ए, अम्हे राचुं नहीं काच॥जि०॥ जिनसागरसूरि चिरजयउजी, समयसुन्दर सुखकार ॥ जि०॥४॥ (१०) ढाल-भलु रे थयु म्हारा पूज जी पधार्या पुण्य संजोगई अम्हे सदगुरु पाया, नहीं ममता नहीं माया ।। जिनसागर सरि मिरगादे जाया, संघसरि पाट सवाया। खरतर गच्छ केरा राया, जिनसागरसूरि मिरगादे जाया। आं.।पु.। वयरागी गुरु सुललित वाणी,अम्ह मनि अमिय समाणी। जि.।२। चालइ ए गुरु पंचाचारइ, आप तरइ बीजां तारइ । जि.।३। बाई रे अम्हारा गुरु थोड़ा मुख बोलइ,रतन चिंतामणि तोलइ । जि.४। बाई रे अम्हे लह्या ए गुरु साचा, समयसुन्दर नी वाचा । जि.५॥ (११) ढाल-नयण निहालो रे नाहला, अथवा पोपट चाल्यो रे परणवा एहनी. मनडु मोारे माहरू, गुरु ऊपरि गुणराग। जिनसागर सरि गुरु भला, साचउ जेहनउ सोभाग । म.१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनसागरसूरि गीतानि सहकार । भरतार | म. |२| मधुकर मोउ रे मालती, कोइल जिम महिगल मोउ रेवा नदी, सतीय मोही मानस मोउ रे हंसलउ, चंद सुं मोह्यउ चकोर । मृगलउ मोउ रे नाद सुं, मेह सु मोउ रे मोर | म. | ३ | जिनसागर सूरि सारखा, उत्तम ए गुरु दीठ | मन रंग लागो बाई माहरउ, जेहो चोल मजीठ | म. |४| तारइ ते गुरु आपणा, जे हवा दरियs जिहाज । समयसुन्दर कहइ सांभलउ, सहु ना जिम सरइ काज | म.|५| ( ४१३ ) (१२) ढाल - दुमुह नाम राजा घर रे गुणमाला पटराणि ( बीजा प्रत्येक बुद्ध ना खंड नी ) श्रथवा, फिट जीव्यु थारु रामला रे जसूड़ी लूखउ खाय, एहनी. न्याति चउरासी निरखतां रे, ओसवाल उतम न्याति । बुद्धिवंत कुल बोथरा रे, बीकानेर विख्यात रे ॥ १ ॥ अम्हारा गुरु जिनसागर सूरि एह । शांत दांत शोभा घणी रे, कठिन क्रिया करइ तेह रे | अ. | २| मात मृगादे उरि धरचउ रे, वच्छराज साह मल्हार । जिनसिंह सूरि पटोधरु रे, खरतरगच्छ सिणगार | | ३ | बोलह थोडूं बइठा रहइ रे, वाच सूत्र सिद्धान्त । धरई एकान्त । . |४| राति ऊभां काउसग्ग करइ रे, ध्यान फरस भला अति फुटरा रे, आउलि चांपा फूल । समयसुन्दर कहइ सांभलउ रे, बिहुं माहें कुछ बहु मूल | अ. ५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जाल (१३) श्री जिनसागरसूरि सवैया * सोल भृङ्गार करइ सुन्दरी, सिर ऊपर पूरण कुम्भ धरइ । पिहिउं पहिउं पहकइ नफेरी, गृधुंधु दमामा की घूँस परइ ॥ गायइ गीत गान गुणी जन दान, पटंबर चीर पगे पधर । समयसुन्दर कहइ जिनसागरसूरि कउ, श्रावक ऐसो पैसारउ करइ ॥ १ ॥ (१४) ढाल - साहेली हे आंबलउ मोरीयड, ए गीतनी. साहेली हे सागर सूरि वांदियह, जिण वांद्या हे हुवइ हरख पार साहेली हे सोम मूरति सोभा घणी, साहेली हे उत्तम ( ४१४ ) आचार ॥ सा ॥१॥ साहेली हे वयरागी गुरु वालहा, साहेली हे वांच सूत्र सिद्धांत | साली हे तप जप किरिया आकरी, साहेली हे दरसण शांत दांत ॥ सा ॥२॥ साहेली हे जिचंदरिका जेहु तु, साहेली हे सामल साहेली हे तेह वचन तिमहिज थयुं, Jain Educationa International सिरदार | *[ जेसलमेरु नगरे आचार्य खरतरोपाश्रये यति चुन्नीलाल सप्रहे स्वयं लिखित पत्रात् ] For Personal and Private Use Only Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनसागरसूरि गीतानि (४१५ ) साहेली हे पूज्य थया पटधार ॥ सा.॥३॥ साहेली हे उठि. प्रभाते एहनइ, साहेली हे प्रणम्यां जायइ पाप । साहेली हे समयसुन्दर कहइ अति घणउ, साहेली ए हुज्यो तेज प्रताप ॥सा.॥४॥ (१५) राग-प्रभाती सिणगार करउ रे साहेलड़ी रे, बहिनी आवउ मिली बेलड़ी रे ॥ सि॥१॥ वांदउ गुरु मोहन वेलड़ी रे, सांभलतां जाणे मीठी सेलड़ी रे ॥ सि०॥२॥ पाटू नी पूजि ओढउ पछेवड़ी रे, पाटण नी नीपनी सखरी दोपड़ी रे ॥ सि०॥३॥ कठिन तुम्हारी क्रिया केवडी रे, तुम्हे तो पदवी पामी तेवड़ी रे॥ सि०॥४॥ जिनसागर सरि नी महिमा जेवड़ी रे, समयसुन्दर कहइ एवड़ी रे ॥ सि॥शा इति श्रीजिनसागरसूरि गीतानि। संघपति सोमजी वेलि संघपति सोम तणउ जस सगलइ, वरण अठारह करइ वखाण । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - (४१६) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि मूयउ कहइ तिके नर मूरिख, जीवइ जगि जोगी सुत जाण ॥ सं०॥१॥ दीपक वंश मंडायउ देहरउ, अद्भत करण धर यउ अधिकार । नलिनि गुल्म विमान निरखवा, सोम सिधायउ सरग मझार ॥ सं०॥२॥ मोटा सबल प्रासाद मंडायउ, करिया मांड्यउ सोम सुकाज । पृथिवी मांहि तिसउ नही परिकर, इन्द्र पास लेण गयउ आज ॥ सं०॥३॥ आख्यउ जुगप्रधान साहि अकबर, जिनचन्द सरि गुरु वड़उ जतीश । सोम गयउ पूछण सुर लोके, वासव कहस्यइ विसवा वीस ॥ सं०॥४॥ भामउ अनइ करमचंद भाखड़, राज काज तणी सवि रीति। .. हरि तेड्यउ सोम तुं हिवणां, पूछण धरम तणी परतीति ॥सं०॥५॥ नास्तिक मत थापइ गुरु नित नित, सभा मांहि पोषइ सिणगार । इन्द्र धरम धुरंधर आण्यउ, सत्यवादी साहां सिरदार ॥ सं०॥६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्घपति सोमजी वेलि (४१७ ) पुण्य क्रतूत किया अति परिघल, सुरपति सबल पड़ी मन सांक । पहुँतउ सोम इन्द्र परिचावा, वरस्युं मुगति नहीं तुझ वांक ॥ सं०॥७॥ वड़ दातार दान गुण विक्रम, संघपति जोगी साह सुतन्न । सोम गयउ धनद समझावा, धरमइ कायन खरचइ धन्न । सं०॥८॥ बिंब प्रतीठ संघ करि बहुला, लाहणि साहमी सगले लाहि । ख्याति घणी खरतर गच्छि कीधी, बड़ हथ लीघउ वारउ वाहि ॥ सं.॥६॥ प्रोग वंश बिहुँ पखि पूरउ, रूड़उ गुरु गच्छ उपरि राग । सानिध करे सोम सदगुरु नइ, सुंदर जस दीपई सोभाग । सं० ॥१०॥ इति सोमजी निर्वाण वेलि गीतं संपूर्णम् । कृतं विक्रमनगरे समयसुन्दर गणिना ॥ शुभं भवतु ।। गुरुदुःखितवचनम् । क्लेशोपार्जितविरेन, गृहीता अपवादतः । यदि ते न गुरोभक्ताः, शिष्यैः किं तैनिरर्थकैः ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१८ ) समयमुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि वंचयित्वा निजात्मानं, पोषिता मृष्टभुक्तितः। यदि ते न गुरोभक्ताः, शिष्यै कि तैनिरर्थकैः ॥ २॥ लालिताः पालिताः पश्चान्मातृपित्रादिवद् भृशं । यदि ते न गुरोभक्ता, शिष्यैः किं तैर्निरर्थकैः ॥३॥ पाठिता दुःख पापेन, कर्मबन्धं विधाय च । यदि ते न गुरोभक्ताः, शिष्यैः किं तैर्निरर्थकैः ॥ ४॥ गृहस्थानामुपालम्भाः, सोढा बाढं स्वमोहतः । यदि ते न गुरोर्भताः, शिष्यैः किं तैर्निरर्थकः ॥ ५ ॥ तपोपि वाहितं कष्टात्कालिकोत्का लिकादिकम् ।। यदि ते न गुरोभक्ताः, शिष्यैः किं तैनिरर्थकैः ॥६॥ वाचकादि पदं प्रेम्णा, दायितं गच्छनायकात् ।। यदि ते न गुरोभक्ताः, शिष्यैः किं तैर्निरर्थकः ॥ ७ ॥ गीतार्थ नाम धृत्वा च, बृहत्क्षेत्रे यशोर्जितम् । यदि ते न गरोभक्ताः, शिष्यैः किं तैर्निरर्थकैः ॥ ८॥ तर्क-व्याकति-काव्यादि, विद्यायां पारगामिनः । यदि ते न गुरोभक्ताः, शिष्यैः किं तैनिरर्थकैः ॥६॥ सूत्र-सिद्धान्त-चर्चायां, याथातथ्यप्ररूपकाः । यदि ते न गुरोभक्ताः, शिष्यैः किं तैर्निरर्थकैः ॥१०॥ वादिनो भुवि विख्याता, यत्र तत्र यशस्विनः । यदि ते न गुरोभक्ताः, शिष्यैः किं तैनिरर्थकैः ॥११॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुदुःखित वचनम् ( ४१६ ) ॥ ज्योतिर्विद्या - चमत्कारं, दर्शितो भूभृतां पुरः । यदि ते न गुरोर्भक्ताः शिष्यैः किं तैर्निरर्थकैः ॥ १२ ॥ हिन्दू-मुसलमानानां मान्याच महिमा महान् । यदि ते न गुरोर्भक्ताः शिष्यैः किं तैर्निरर्थकैः || १३ || परोपकारिणः सर्वगच्छस्य स्वच्छहच्चितः । यदि ते न गुरोर्भक्ताः शिष्यैः किं तैर्निरर्थकः ॥ १४ ॥ गच्छस्य कार्यकर्त्तारो, हर्त्तारो श्वभूस्पृशाम् । यदि ते न गुरोर्भक्ताः शिष्यैः किं तैर्निरर्थकैः ||१५|| गुरुर्जानाति वृद्धत्त्वे, शिष्याः सेवाविधयिनः । यदि ते न गुरोर्भक्ताः शिष्यैः किं तैर्निरर्थकैः ॥ १६ ॥ गुरुणा पालिता नाऽऽज्ञ - र्हतोऽतोऽतिदुःखभागऽभूत् । एषामहो गुरुर्दु: खी, लोकलज्जापि चेन्नहि ||१७|| न शिष्य--दोषो दातव्यो मम कर्मैव तादृशम् । परं भद्रकभावेन, लोला लोलायते मम ॥ १८ ॥ संवत्यष्टनवत्य, राजधान्यां स्वभावतः । स्वरूपं प्रकटीचक्र, गणिः समयसुन्दरः ||१६|| * " (२) चेला नहीं तउ म करउ चिंता, दीसइ घणे चेले पण दुक्ख । संतान करंमि हुया शिष्य बहुला, पणि समयसुन्दर न पायउ सुक्ख ॥ १ ॥ *[ स्वयं लिखित पत्र १ म मा भक्ति भंडार ] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२० ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि केई मुया गया पणि केई, केई जूया रहइ परदेस । पासि रहइ ते पीड़ न जाणई, . कहियइ घणउ तउ थायइ किलेस ॥२॥ जोड़ घणी विस्तरी जगत मई, प्रसिद्धि थइ पातसाह पर्यंत । पणि एकणि वात रही अणूरति, न कियउ किण चेलइ निश्चिन्त ॥३॥ समयसुन्दर कहइ सांभलिज्यो, देतउ नही छु चेलां दोस । जिन आज्ञा न पाली जमंतरि, तउ शिष्यां दिसि किसउ करूसोस ॥४॥ समयसुन्दर कहइ कर जोड़ि, ऊपरला सुणिजे अरदास । मनोरथ एक धरूंछु ध्रम रउ, ए लूँ पूरि अम्हारी आस ॥५॥ जीव प्रतिबोध गीतम् राग-मारुणी. जागि जागि जंतुया तु, काइ निचिंतउ सोवइ री ।जा.। तनु छाया मिस मरण तो', आपणी घात जोवइ री जा.।१। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव प्रतिबोध गीतम् (४२१ ) माया मोह मांहि लपटाणउ, काई जमारउ खोबइ री जा.। समयसुन्दर कहति एक ध्रम, तेही सुख होवइ री जा.।२। जीव प्रतिबोध गीतम राग-प्रासाउरी रे जीव वखत लिख्या सुख लहियइ । भूरि झूरि काहे होत पांजर, दैव दीना दुख सहियई रे.।१। अइसउ नहीं कोऊ अंतरजामी, जिण आगलि दुख कहियइ। जोर नहीं परमेसर सेती, ज्यू राखइ त्यूँ रहियइ रे.।२। कुल की लाज प्रजाद मेटत कुण, जिम तिम करि निरवहियइ। समयसुंदर कहइ सुख कउ कारण, एक धरम सरदहिया ।रे.।३। जीव प्रतिबोध गीतम ढाल-कपूर हुवउ अति ऊजलो एहनी. जिवड़ा जाणे जिन धर्म सार, अवर सहु रे असार जि.। कुटुंब सहु को कारमुं रे, को केहनउ नवि होय । नरक पडतां प्राणिया तु नइ राखणहार कोय ।जि.।१। कूड़ कपट नवि कीजियई रे, पापे पिण्ड भराय । पहिले पुण्य न कीजियइ रे, तउ पछइ पछतावो थाय ।जि.।२। काया रोग समाकुली रे, खिण खिण तूटइ आयु । सनतकुमार तणी परइ रे, खिण मांहे खेरू थाय ।जि.।३। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२२) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि कीधा पाप न छूटियइ रे, पाप थकी मन वाल । काने बिहुं खीला ठव्या रे, तउ वीर तणइ गोवाल जि.।४। मरण सहु नइ सारखउ रे, कुण राजा कुण रांक । पणि जायइ जीव निसंबलउ रे, एहिज मोटउ बांक जि.।। जे पाखइ सरतुं नहीं रे, जे साथइ प्रतिबंध । ते माणस उठि गया रे, तउ धरम पखइ सहु धंध ।जि.।६। जन्म मरण थी छूटियइ रे, न पड़ीजइ गर्भावास । समयसुन्दर कहइ ध्रम थकी रे, लहिया लील विलास ।जि.७ जीव प्रति बोध गीतम् राग-अ.साउरी-सिंधुड़ जीवडारे जिन ध्रम कीजियइ, ए छइ परम आधारो रे। अवर सहु को अथिर छइ, सकल कुटुंब परिवारो रे ।जी.।१। दस दृष्टांत दोहिलउ, वलि मनुष्य भव सार । ते पुण्य जोगे पामियउ, जीव जन्म आलिम हारो रे ।जी.।२। अति अथिर चंचल आउखड, रमणीक यौवन रूप । चक्रवर्ती सनतकुमार ज्यु, जीव जोई देह सरूपो रे ।जी.।३। चक्रवर्ती तीर्थकर किहां, किहां गणधर गुण पात्र । ते पण विधाता अपहरया, तो अवर केही मात्रो रे ।जी.।४। जीव रात्रि दिवस जे जाइ छ, वलि नवि आवै तेह । तप जप संजम आदरी, करी सफल प्रातम देहो रे ।जी.श Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव प्रतबोध गीतम् । ४२३ ) अति तुच्छ सुख संसार नो, मधु लिप्त खड़गनी धार । किंपाक ना फल सारिखा रे. दयै दुख अनेक प्रकारोरे।जी.।। विश्वास म कर स्त्री तणउ ए, मुगधजन मृग पास । अति कूड कपट तणी कँडी वलि, दियइ २ दुर्गति वासोरे।जी.।७। जीव अत्यंत प्रमादियउ, दूषम काल दुरंत ।। तिण शुद्ध क्रिया नहीं पलइ, आधार एक भगवंतो रे ।जी.।। मन मेरु नी परइ दृढ करी, स्थिर पाली निरतिचार । भव भ्रमण थी जिम छूटियइ, पामियई भवनो पारो रे।जी.।। जग मांहि ते सुखिया थयो, पलि हुयइ हुइस्यइ जेह । ते वीतराग ना धरम थी रे, इहां नहीं कोई संदेहो रे ।जी.।१० जिन धर्म सूधो आदरे ए, सीख अमृत धार । गणि समयसुन्दर इम कहइ, जिम लहै भवनो पारो रे ।जी.॥११॥ जीव प्रतिबोध गीतम राग-उड़ी ए संसार असार छइ, जीव विमासी जोय । कुटुंब सहु को कारमउ, स्वारथ नउ सहु कोय ।ए०।१। खिण खिण इन्द्रिय बल घटइ, खिण खिण टूटै आय। वृद्ध पणइ परवश पड्या, कहि किम धर्म कराय ए०।२। जाल जंजाल मांहि पड़ यउ, प्रालि जमारउ म खोय। कर तप जप एकै साधना, साचउ संबल जोय ।ए०।३। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि सांभलि सीख सोहामणी, ममता थी मन वाल । समयसुन्दर कहइ जीव नइ, सूधउ संजम पाल ए०।४। जीव प्रतिबोध गीतम् । असारा जाण असार संसार,करि ध्रम प्रालि म हारि जमारा।ऐ.। मात पिता प्रियु कुटुंब सनेहा, स्वार्थ बिनु दिखरावई छेहा ।।ऐ.। धन यौवन सब चंचल होइ, राख्या न रहइ कवहीं सोई ।३।ऐ.। जीर्ण पात परे ज्युं समीरा, तहसा री जीवत अथिर सरीरा।४ाऐ.। जिण शिर चामर छत्र धराते. वो भी रे छोरि गये चिल्लाते।शए.। बहुत उपाय किये क्या होई है है, मरण न छूटइ कोई ऐ.। पोप करी पिछताणा भारी,हारया रे हाथ घसै ज्युं जुआरी ऐ.। किणही की जियु वात न करणी, अपनी करणी पार उतरणी।बाएं। मगनयणी नयणे म लुभाये, ध्यान धर्म सुं जीव चित लाये।हाऐ.। समयसुंदर कहइ जीवसुं विचारी,या हित सीख करे सुखकारी ।१०ऐ.। धम महिमा गीतम रे जीया जिन धर्म कीजियइ, धरम ना चार प्रकार । दान शील तप भावना, जग मई एतलउ सार रे.।१। वरस दिवस नई पारणइ, आदीसर सुखकोर । इचरस दान वहिरावियउ, श्री श्रेयांस कुमार रे.।२। चंपा बार उघाड़ियउ, चालणी काढयउ नीर । सती सुभद्रा यश थयउ, शीले सुर गिरि धीर ।रे।३। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म महिमा गीतम् (४२५ ) तप करि काया सोखवी, सरस निरस आहार । वीर जिणंद वखाणियउ, ते धनउ अणगार रे।४। अनित्य भावना भावतां, धरतां निर्मल ध्यान । भरत प्रारीसा भवन मई, पाम्यउ केवल ज्ञान रे।५। श्री जिन धर्म सुरतरु समो, जेहनी शीतल छोहि । समयसुन्दर कहइ सेवता, मुक्ति तणां फल पाहि ।रे.।६। जीव नटावा गीतम् राग-मट नारायण देखि देखि जीव नटावइ, अइसउ नाटक मंड्यउ री। कर्म नायक नृत्य करायउ, खेलत ताल न खंड्यउ री ॥दे.॥१॥ कबहि राजा कहि रंक, कबहि भेख त्रिदण्ड्यउ । कबहि मूरिख कबहि पंडित, कबहि पुस्तक पंड्यउ री ॥दे.॥३॥ चउरासी लख भेख बनाए, कोउ भेख न छंड्यउ । समयसुंदर कहइ धर्म बिनासब, आप वृथा कर भंड्यउरी॥४॥ आत्म प्रमोद गीतम् राग-कालहरउ वृझिरे त बुझि प्राणी, वालि मन वइराग रे। अथिर नर आउखं दीसइ, जाणि संध्या राग रे ॥॥०॥ मानुषो भव लही दुर्लभ, पापे पिंड म भार रे। आल काग उडावणे कुं, मूढ रत्न म हार रे ॥२॥बू.॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२६ ) समय सुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि कारिमा एह कुटुंब काजइ, म कर करम कठोर रे । एकल उ जीव सहीस परभव, नरक ना दुख घोर रे || ३ |बू. ॥ काम भोग संयोग सगला, जाण फल किंपाक रे । दीसतां रमणीक दीसह, अति कटुक विपाक रे || ४ || बू ० ॥ गर्व गरथ तउ न कीज, थिर न रहस्यै कोय रे । राय फीटी रंक थावर, राय हरिचंद जोय रे ||५||बू०|| ए असार संसार मांहे, जाणि जिण भ्रम सार रे । नरक पड़तां थकां राखह, परम हित सुखकार रे || ६ || बू ० || हम जागी जीव जिन धर्म कीजइ, लीजिये कछु सार रे । समयसुन्दर कहत जीव कुं, पामियै भव पार रे ||७|| बू०॥ वैराग्य शिक्षा गतिम म कर रे जीउड़ा मूढ, म माया सब मेरा मेरा । आप स्वारथ सब मिले, नहीं को जग तेरा ॥ म ० ॥ १ ॥ एक श्रावै चलै एकला, कुछ साथ न आवह | भली बुरी करणी करी रे, पीछे सुख दुख पावइ || म०॥२॥ धर्म विलंबन कीजियइ रे, एहु अधिर संसारा । देखत देखत वाजता रे, बड़ी में घड़ियारा || म ० ||३|| एक के उदर भी दोहिला, एक के छत्र धरीजइ । आप कीने कर्मड़े रे, किस कुं दोष न दीजइ ॥ म० ||४|| Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम महिमा गीतम् (४२७ ) आप समउ और लेखियइ, तुझे बहुत क्या कहणा। समयसुन्दर कहइ जीव कुं रे, ऐसी सीख में रहणा ।।म०॥॥ घड़ी लाखीणी गीतम् राग-श्रासारी घड़ी लाखीणी जाइ बे, कछु धरम करउ चित लाइ बेघ.१॥ इहु मानव भव दोहिलालाधा,रमत खेलत मान्हन गया आधा।घ.।२। कुण जाणइ आगइ क्या होई, मरण जरा मिलि आवत दोई घ.३। वरसां सौ जीवण की आसा, पण एक घड़िय नहीं वेसासा घ.।४। समयसंदर कहइ अथिर संसोरा, जनमि २ जिनध्रम आधारा ।घ.५॥ सूता जगावण गीतम् राग-भैरव जागि जागि जागि भाई जागिरे जागि। भोर भयो ध्रम मारगि लागी ॥जा०११ सूता रे तेह विगूता सही । जागंतां कोउ डर भय नहीं । जा०।२। देव जुहारी गुरु वांदण जाइ ।। मुणि रे वखाण तोरा पाप पुलाई ॥जा०॥३॥ देहु दान कछु कर उपगार । __ समयसुन्दर कहइ ज्युं पामइ भव पार ।।जा०1४। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२८ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि प्रमाद त्याग गीतम् प्रातः भयउ प्रात भयउ, प्राणी जीउ जागि रे । आलस प्रमाद तज, धर्म ध्यान लागि रे ॥ खोटी माया जाल एह, प्रभु गुण गावो रे । कछुक उपगार करो, जेह थी सुख पावो रे ॥प्रा०॥१॥ हाथ दीने पांव दीन्हे, बोलवै कुवेण रे । सुणवै कुं कान दीने, देखवै कु नैण रे॥प्रा०॥२॥ दिन दिन पाए एह, ते तो घटतउ आयुरे । तेरो जन्म सरानो जात, लोहा कैसे ताउ रे ॥प्रा०॥३॥ केतो धन माल एतो, स्वारथियउ संसार रे । करणी तुं विन नहीं, पावे भव पार रे ॥प्रा०॥४॥ अंतर विचार करउ, समयसुंदर कहइ । अंतर प्रकाश विना, शिवसुख कुण लहै ॥प्रा०॥५॥ प्रमाद त्याग गीतम जागौ रे जागौ रे भाई परभात थयउ । धरम सूरज उग्यउ अंधारउ गयउ |भा०जा०॥१॥ श्रालस प्रमाद ऊंघ कीधा क्युं जुड़े। चवद पूरवधर निगोद पड़े रेभा० जा०॥२॥ रूड़ी परि राई प्रायश्चित पड़िकमणौ करो। किरीया करी पँजी पूछी काजउ ऊधरौ |भा० जा०॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन समाय ( ४२६ ) देहरइ जाइ नइ तुमे देव जुहारो। सगुरु वांदी नइ सूत्र संभारो रे॥भा० जा०॥४॥ मनुष्य जमारउ काइ आलि गमाड़उ । समयसुन्दर कहइ प्रमाद छांडउ रे भा० जा०॥५॥ मन सज्झाय मना तने कई रीते समझा। सोनु होवे तो सोगी रे मेलावु, तावणी ताप तपावु। .. लई फूंकणी ने फुकवा बेस, पाणी जेम पिगलावु । म०१। लोढुहोवे तो एरण मंडावू, दोय दोय धमण धमा। ऊपर घणारी घमसोर उडावू, जांतली तार कढावु। म०२। घोड़ो रे होवे तो ठाण बंधार्बु, खासी जन मंडावु। . अस्वार होइ करि माथे बैठावु, केइ केइ खेल खेलावूम०३। हस्ती होवे तो ठाण बंधावू, पाय घुघरी घमकावु। मावत होइ कर माथे बेठा, अंकुश दइ समझावु । म०।४। शिला होवे शिलावट मंगाएँ, टांकणे टांक टंकावु। विध विध देवकी प्रतिमा निपजाऊं,जगत ने पाये नमा। म०५॥ चचल चोर कठिन है तुं मनवा, पल एक ठौर न आवे। मना तने मुनिवर समझावे, जोत में जोत मिलावे । म०१६॥ जोगी जोगेसर तपसी रे तपिया, ज्ञान ध्यान से ध्यावो। समयसुंदर कहइ मंइ पण ध्यायो, ते पण हाथ न आयो। म०७) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३०) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि मन धोबी गीतम् धोबीड़ा तू धोजे रे मन केरा धोतिया,मत राखे मैल लगार। इणमइले जग मैलो करचउ रे,विण धोयां तू मत राखे लगा।धो.१। जिन शासन सरोवर सोहामणोरे, समकित तणी रूड़ी पाल। दानादिक चारु ही बारणा, मांहे नवतत्व कमल विशाल धो.।२। त्यां झीलइ रे मुनिवर हँसला, पीवै छइ तप जप नीर । शम दम आदि जे शीला रे, तिहां पखाले आतम चीर धो.।३। तपवजे तप नइ तड़के करी रे, नालवजे नव ब्रह्मवाड़। छांटा उडाड़े रे पाप अढार नारे, जिम उजलो हुवे ततकाल । धो.।४। आलोयण साबुड़ो सुद्धि करी रे, रखे आवे नी माया सेवाल। निश्चय पवित्र पणो राखजे, पछड़ आपणो नेम संभाल । धो.।। रखे तूं मूके तो मन मोकलो रे, चाल मेली नइ संकेल । समयसुन्दर नी आ छइ सोखड़ी, सीखड़ली मोहन वेल । धो.।६। माया निवारण सज्झाय माया कारमी रे माया म करो चतुर सुजाण । काया माया जन विलुद्धि, दुखिया थाई जाण ॥१॥ माया कारण देश देसांतर, अटवी वन मां जावै रे । प्रवहण बइसी धीर द्विपांतर, सायर मां झपावै रे ॥२॥ माया मेली करी बहु भेली, लोभे लक्षण जाय रे । भीतें धन धरती में पालै, ऊपर विषहर थाय रे ॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माया निवारण सज्झाय (४३१ ) जोगी जंगम तपसी सन्यासी, नगन थइ परवरीया रे। ऊधे मस्तक अगन धखंती, माया थी न ओसरिया रे ॥४॥ नाहना मोटा नर ने माया, नारी नै अधिकेरी रे। वली विशेष अधिकी व्यापइ, गरढा नई झाझेरी रे ॥५॥ शिवभूति सरिखो सत्यवादी, ससमें घोषं वाइरे। रतन देखि मन तेहनउ चलियउ, मरी नइ दुरगति जाइ रे॥६॥ एहवुजाणी भवियण प्राणी, माया मूकउ अलगी रे । समयसुन्दर कहइ सार छइ जगमें, धरम रंगसुविलगी रे॥७॥ माया निवारण गीतम् ___ राग-रामगिरी इहु मेरा इहु मेरा इहु मेरा इहु मेरा । जीव तुं विमासि नहीं कुछ तेरा ॥ इ०॥१। सासतां सोस करइ बहु तेरा, आंखि मीची तब जग अंधेरा इ.।२। माल मलूक तंबू का डेरा, सब कछु छोरि चलहगा इकेरा ।इ.।३। समयसुंदर कहड कहुँ क्या घणेरा, माया जीतह तिणका हूं चेरा ।४। लोभ निवारण गीतम राग-रामगिरी रामा रामा धनं धनं, भमतउ रहइ तूं राति दिनं, भाई रा.। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३२ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि पुण्य विना कहि क्युं धन पाइयइ, पूछि न मानइ तउ पंच जनं, भाई रा.१। घर धंधइ सब धरम गमायउ, वीसरि गयउ देव गुरु भजनं । पोटि उपाड़ि गये कुण परभवि, म करि म करि जीव लोभ धनं, भाई रा.।२। पग माहे मरण वहइ रे मूरिख, माया जाल म पड़ि गहनं । समयसुंदर कहइ मान वचन मेरउ, धम करि भ्रम करि एक मनं, भाई रा.।३। पारकी होड निवारण गीतम् __राग-गुण्ड मिश्र पारकी होड तुम करि रे प्राणिया, - पुण्य पाखइ म करि हूंसि खोटी । बापड़ा जीव बावी तई जउ बाजरी, कहि किम लुणिसितुं सालि मोटी|पा०॥१॥ जउतंइ सोनार नई जसद घड़िवा दियउ, तउ तूं मांगइ किम कनक त्रोटी। देखि हनुमंत की हूंसि माहे रली, राम बगसीस कीनी कछोटी पा०॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारकी होड निवारण गीतम् (४३३ ) पुण्य तई राज नई रिद्धि सुख पामियइ, पुण्य पाखइ न रोटी न दोटी । समयसुंदर कहइ पुण्य कर प्राणिया, पुण्य थी द्रव्य कोटान कोटी ॥पा०॥३॥ मरण भय निवारण गीतम राग-आसावरी मरण तणउ भय म करि मूरिख नर, जिण वाटे जग जाइरे। तीर्थकर चक्रवर्ती अतुल बल, तिण पणि खिण नरहाइ रे।म.।१। तप जप संजम पालि त मधुं, ध्यान निरंजन ध्याइ रे। समयसुंदर कहइ जिम तुं जिवड़ा, परभव सुखियउ थाइ रे।म.।१। आरति निवारण गीतम राग-गूजरी मेरी जीयु आरति कोइ धरइ । जइसा वखत मई लिखति विधाता, तिण मई कछु न टरइ मे.१॥ केइ चक्रवर्ती सिर छत्र धरावत, किइ कण मांगत फिरइ । केइ सुखिए केइ दुखिए देखत, ते सब करम करइ ।मे।२॥ आरति अंदोह छोरि दे जायुरा, रोवत न राज चरइ । समयसुंदर कहइ जो सुख वंछत, तउ करि भ्रम चित्त खरइ ।मे।३।। - - - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृति कुसुमाञ्जलि मन शुद्धि गीतम एक मन सुद्धि विन कोउ मुगति न जाइ । भाव तँ के जारि मस्तकि, भावइ तुं मुंड मुंडाई | २. | १ || भाव तू भूख तृषा सहि वन रहि, भावइ तूं तीरथ न्हाइ । भाव तँ साधु भेख धरि बहु परि, भाव तू भसम लगाई | ए | २ || भाव तँ पढि गुणि वेद पुराणा, भावइ तू भगत कहाई । समयसुंदर कहि साच कहूं सुण, ध्यान निरंजन ध्याइ | ए | ३ || कामिनी-विश्वास- निराकरण-गीतम् (838) रोग - सारङ्ग. कामिनी का कहि कुण विसासा | का० । खि राचइ विरचइ खिण मांहे, खि विनोद खिरा मेलै निसासा ॥ का ० ॥ १ ॥ बचाने अउर अउर चित अंतर, अउर सु करइ हांसा । चंचल चित्त कूड अति कपटिनि, मुग्ध लोग मृग बंधनि पासा || का० ||२|| धन जे साध तास संगति तजी. जाइ रहे वन वासा | समयसुन्दर कहइ सील अखंडित, Jain Educationa International पाल ताके चरण कउ हूं दासा ॥ का ० || ३ || For Personal and Private Use Only Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वार्थ गीतम् ( ४३५) - - स्वार्थ गीतम राग-आसाउरो स्वारथ की सब हइ रे सगाई, कुण माता कुण बहिन रि भई ।। स्वा० ॥१॥ स्वारथ भोजन भगति सजाई, स्वारथ बिण कोऊ पाणी न पाई ॥ स्वा० ॥२॥ स्वारथ मां बाप सेठ बड़ाई, स्वारथ बिण नित होत लड़ाई ।। स्वा० ॥३॥ स्वारथ नारी दासी कहाई, स्वारथ विण लाठी ले धाई । स्वा० ॥४॥ स्वारथ चेला गुरु गुरहाई, स्वारथ सब लपटाणा भाई ॥ स्वा० ॥५॥ समयसुन्दर कहइ सुणउ रे लोगाइ, साचा एक हइ धरम सखाई ॥ स्वा० ॥६॥ अंतरंगबाह्यनिद्रानिवारणगीतम् नींद्रड़ी निवारो रहो जागता, वालिभ म करि विश्वास रे। सांप सिरहाणे सूतो ताहरइ रे, चोर फिरइ चिहुँ पास रे। नी..१॥ जिण पूठइ दुसमण फिरइ, गाफिल किम रहइ तेह रे । सूतां री पाडा जिणइ, दृष्टान्त कहइ सहु एह रे । नी.।२। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३६ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि कह काया जीव कंत नइ, जागता रहउ मोरा स्वाम रे । ध्यान धरम सुख भोगवउ, ल्यउ भगवंत रउ नाम रे । नी । ३ । धन पर रहइ सावतउ, हुसियारी भली होइ रे । समयसुन्दर कहइ जागता, छेतरी न सकइ कोई रे । नी । ४ । I निद्रा गीतम् सोइ सोइ सारी रयणि गुमाई, वैरण निद्रा तु कहां से आई । सो० । निद्रा कहइ मई तर बाली रे भोली, बड़े बड़े मुनिजन कुं नाखु रे ढोली || सो० ॥ १ ॥ निद्रा कहइ मई तउ जमकी रे दासी, एक हाथ मूकी एक हाथ फांसी || सो० ||२॥ समयसुन्दर कहइ सुनो भाई बनिया, डूबे सारी डूब गई दुनिया || सो० || ३ || पठन प्रेरणा गीतम् राग- भयरव भउ रे बेला भाई भउ रे भाउ, Jain Educationa International भण्या रे माणस नइ आदर घाउ || भ. || १ || १ धरम करम सगली परइ For Personal and Private Use Only Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पठन प्रेरणा गीतम् भण्या नह हुयह भलउ विहरावणउ, सखर वस्त्र पहिरण ओढणउ ॥ भ. ॥२॥ पद हुयइ वाचक पाठक ताउ, बाजउठई चड़ी भयां पाखइ दुख पाप देखाउ, बइस उ ॥ भ. ॥३॥ कांधर झोली हाथ मइ दोहराउ || भ॥ ४ ॥ समयसुन्दर कउ सबद मानण्उ, ( ४३७ ) इह लोक परलोक सोहामणउ ॥ भ. ॥५॥ Jain Educationa International क्रिया प्रेरणा गीतम् राग-भयरव क्रिया करउ चेला क्रिया करउ, क्रिया करउ जिम तुम्ह निस्तरउ । क्रि० | १| पड़िलेहउ उपग्रण पातरउ, जयगा सुं काजउ ऊधरउ | क्रि० |२| पड़िकमतां पाठ सुध ऊचरउ, सह अधिकार गमा सांभरउ | क्रि० | ३ | काउसग करता मन पांतरउ, चार अंगुल पग नउ तरउ । क्रि० |४| परमाद नई आलस परिहरउ, तिरिय निगोद पड़ा थी डरउ । क्रि० |५| For Personal and Private Use Only Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३८ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि क्रियावंत दीसइ फूटरउ, क्रिया उपाय करम छूटरउ । क्रि०।६। पांगलउ ज्ञान किस्यउ कामरउ, ज्ञान सहित क्रिया आदरउ ।क्रि०७। समयसुन्दर धइ उपदेश खरउ, मुगति तणउ मारग पाधरउ । क्रि०८) जीव-व्यापारी गीतम् राग-देव गंधार आये तीन जणे व्यापारी । श्रा० । सूदा सूत करण कुं लागे, बइठे मांहि बखारि ।प्रा०१॥ मूल गमाइ चल्या एक मूरिख, एक रह्या मूल धारी। एक चल्या लीन लाभ बहुत ले, अब देखो अरथ विचारी; श्री उत्तराध्ययन विचारी । प्रा०।२। लाभ देख सउदा सब करणा, कुव्यापार निवारी । समयसुंदर कहइ इण कलजुग मई, सब रहिज्यो हुसियारी ।श्रा०॥३॥ घड़ियाली गीतम् राग-मिश्र चतुर सुणउ चित लाइ कइ, कहा कहइ घरियारा । जीवित माहि जायइ घरी, न कोइ राखणहारा । च.।१। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घड़ियाली गीतम् (४३६ ) - - - - पहुर पहुर कइ अांतरइ, राति दिवस मझारा । वाजा रे वाजइ जम तणा, सब रहु हुसियारा । च.।२। तनु छाया छड़िया फिरइ, गाफिल म रहउ गमारी । समयसुन्दर कहइ ध्रम करउ, एहीज आधोरा । च.।३। उद्यम भाग्य गीतम् राग--गूजरी उद्यम भाग्य विना न फलइ । बहुत उपाय किये क्या होई, भवितव्यता न टलइ । उ०१॥ पूरब रवि पच्छिम दिस ऊगत, अविचल मेरु चलइ । तउ भी लिखित मिटइ नहीं काही, उद्यम क्या एकलइ । उ०।२। सुख दुख सब कु सरज्या होवत, उद्यम भाग्य मिलइ। समयसुन्दर कहइ धर्म करउ जिम,मन अभीष्ट मिलइ। उ०३ ___ सर्वभेषमुक्तिगमनगीतम् , राग-नटनारायण हां माई हर कोउ भेख मुगति पावइ,ध्यान निरंजण जो ध्यावइ।मा.। सैव सेतांबर बौध दिगम्बर, सेख कलंदर समभावइ ।मा.।१, हां भाई ब्राह्मण श्रमण तापस सन्यासी, सिंगीनाद सबद बावइ। नगन जटाधर कोउ करपात्री, के जोगीन्द्र भसम लावइ ।मा.।२। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४० ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि हां माई स्त्री पुरुष नपुंसक सब कोउ,जोग मारग नइ मुगति जावइ। समयसुन्दरकहइ सोगुरु साचउ,जोग मारग मोकुसमझावइ मा.३। कम गीतम् राग-नटनारायण हां माई करम थी को छूटइ नहीं । क०।। मल्लिनाथ अस्त्री पणइ ऊपना, वीरइ कुण वेदन सही ।हा.।१। हरिचंद राय पाणी सिर आण्यउ, नंदिषेण वेश्या संग्रही। घरि घरि भीख मांगी मुंज राजा, द्वारिका जादव कोड़ि दही। हां.।२। लखमण राम भये वनवासी, रावण कुण विपति लही। समयसुंदर कहै करम अतुलबल,करम की बात न जात कही।हां.।३। नावी गीतम् राग--कनड़उ अडाणउ नावा नीकी री चलइ नीर मझार, जाजरि नहीं य लगार ।ना। रुंधे हैं आश्रव द्वार, भरयउ हइ संजम भार । आउला पांच प्राचार, धीरिज हइ झूझार ॥ ना०॥१॥ थिर मन कूया थभउ, नांगर दया उठ भउ; समकित भावना सुवाय । मालमी आगम भाखड़, जतने जिहाज राखड़ समयसुन्दर नाउयउ, कुशले शिवपुर पाय ॥ ना० ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपदे शक गीताति (४४१) जीव काया गीतम् जीव प्रति काया कहइ, मुनइ मुकि कां समझावइ रे। मइ अपराध न को कियउ, प्रियु को समझावइ रे॥जी॥१॥ राति दिवस तोरी रागिणी, राखुहृदय मझारिरे। सीत तावड़ हूँ सहु सहूं, तू छइ प्राण आधार रे॥जी॥२॥ प्रीतडी वालंभ पालियइ, नवि दीजियइ छेह रे। कठिन हियुनवि कीजियइ, कीजइ मुगुण सनेह रे । जी०॥३॥ जीव कहइ काया प्रति, अम्ह को नहीं दोस रे । खिण राचइ विरचइ खिण तेहनउ किसोय भरोस रे॥जी॥४॥ कारिमउ राग काया तणउ, कूट कपट निवास रे। गुण अवगुण जाणइ नहीं, रहइ चित्त उदास रे॥जी॥॥ जीव काया प्रतिबूझवी, भागो मन मो संदेह रे। समयसुन्दर कहइ सुगुण सुं, कीजइ धरम सनेह रे॥जी॥६॥ काया जीव गीतम राग-केदारउ गउड़ी रूड़ा पंखीड़ा, पंखीड़ा मुन्हइ मेल्ही नइ म जाय । धुर थी प्रोति करी मई तो सैं, तुझ विण क्षण न रहाय॥रू॥१॥ चतुर अमृत रस मोरउ तई चाख्यउ, कीधी कोड़ि विलास । जाण्यं नहीं इम उड़ी जाइस, हुंती मोटी आस ॥रू.॥२॥ काया कमलनी जायइ कुमलानी, न रहइ रूप नइ रेख। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४२ ) समय सुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि विन अपराध तजह को बालंभ, पंच राति वलि देख ॥ रू. ॥ ३ ॥ हंस कहइ हूं न रहूं परवश, संबल द्य मुझ साथ । समयसुन्दर कहै ए परमारथ, हंस नहीं कि हाथ ॥ रू.॥४॥ जीव कर्म संबन्ध गीतम् राग - भूपाल जीव नइ करम माहो मांहि संबंध, अनादि काल नउ कहियह रे । ए पहिलउ ए पछड़ न कहियह, धातु उपल भेद लहियइ रे ॥ जी० ॥ १ ॥ तप जप अनि करी नइ एहनउ, दुष्ट करम मल दहियह रे । समयसुन्दर कहर एहिज श्रातमा, सिद्ध रूप सरदहियइ रे || जी० ॥ २ ॥ सन्देह गीतम् राग-भूपाल करम अचेतन किम हुयउ करता, कहउ किम सकियइ थापी रे । परमेसर पि किम हुइ करता, धड़ दुख तउ ते पापी रे । क. । १ । आरसा मांहि मुहडउ दीसर, कहउ ते पुदगल केहा रे । जीव अरूषी करम सरूपी, किम संबंध संदेहा रे । क. | २ | Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपदेशिक गीतानि (४४३) जिन सासन शिव सासन प्रच्छू, पुस्तक पाना बांचं रे। समयसुन्दर कहइ सांसउ न भागउ, भगवत कहइ ते सांचुरे। क.॥३॥ जग सृष्टिकार परमेश्वर पृच्छा गीतम् राग-वेलाउल पूछू पंडित कहउ का हकीकत, आ जगत सष्टि किण कीधी रे। जउ जाणउ तउ जुगति कहउ कोइ, नहिं तरि ना कहउ सीधी रे ॥ पू०॥१॥ बांभण यांचउ वेद पुराणा, कोजी बांचउ कुराणा रे । सूत्र सिद्धांत वांचउ जिण शासणि, ... पणि समझावइ ते सुजाणा रे ॥ पू०॥२॥ जनम मरण दीसइ अति बहुला, प्राणी सुख दुख पावइ रे। समयसुन्दर कहइ जउ मिला केवलि, तउ सहु विध समझावइ रे॥पू०॥३॥ करतार गीतम् कबहु मिलइ मुझ जउ करतारा, तउ पूछुदोइ बतियां रे। " तू कृपाल कितूं हइ पापी, लखि न सकूँ तोरी गतियांरे।का Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि मन मान्या माणस जउ मेलइ, तउ कि विछोहा पाइ रे। विरह वेदन उनकी ओ जाणइ, रोइ रोइ जनम गमाडइ रे ।का। देवकुमर सरखा पुत्र देइ, अधविच ल्यइ कुंउदाली रे। पुरुष रतन घड़ी घड़ी किम भांजइ, यौवन अबला बाली रे।क०३। जो तूंछत्रपति राजा थापइ, तउ रंक करी कु सलावइ रे। जिण हाथइ करि दान दिरावइ, सो कुहाथ उडावइ रे।क०४। के कहा ईश्वर के कहइ विधाता, सुख दुख सरजन हारा रे। समयसुन्दर कहइ मई भेद पायउ, करम जु हइ करनारा रे।का। दुषमा-काले संयम-पालन गीतम् 'राग-भूपाल हां हो कहो संयम पथ किम पलइ, ए दुषमा काल । किसण पाखी जीव इहां घणा, वलि गच्छ जंजाल ॥१॥ हां हो तप संयम नी खप करउ, जिन आज्ञा निहालि। समयसुन्दर कहइ ध्रम करउ, राग नई द्वष टालि ॥२॥ श्री परमेश्वर भेद गीतम् राग-सबाब मिश्र एक तुही तुही, नाम जुदा मूहि मूहि । १ ।एक तुही.। बाबा आदिम तुही तुही, अनादि मते तुही तुही। २ ।एक तुही.। पर ब्रह्म ने तुही तुही, पुरुषोचम ते तुही तुही।३।एक तुही.। ईसर देव ते तुही तुही, परमेसर ते तुही तुही।४।एक तुही.। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपदेशिक गीतानि (४४५) राम नाम ते तुही तुही, वहीनाम ते तु ही तुही। ५।एक तुही.। सांई पण ते तुही तुही,गोसांइ ते तुही तुहीं।६।एक तुही.। बिल्ला इला तुही तुही, आप एकल्ला तुही तुही , ७।एक तुही.। जती जोगी तुही तुही, भुगत भोगी तुही तुही। ८ ।एक तुंही.। निराकार ते तुहीतुही,साकार पणि ते तुही तुही।६। एक तुही.। निरंजण ते तुही तुही, दुख भंजण ते तुही तुही।१०।एक तुही.। अलख गति ते तुहीतंही, अकल मतितेतही तंही।११। एक तुही.। एक रूपी तुही तुही, बहुय रूपी ते तुही तुही।१२।एक तुंही। घट घट भेदीतुही तुही, अंतर जामीतुही तुही।१३। एक तुंही.। जगत व्यापी तंही तंही, तेज प्रतापी तुही तुही ।१४।एक तुही.। पापीयां दूरिते तुंही तुही,धरमी हजूरी ते तु ही तुही।१५।एक तुंही.। अंतरजामी तुही तुही, सहसनामी तुही तुही ।१६।एक तुही.। एक अरिहंत तुंही तुंही, समयसुन्दर तुही तुही ।१७। एक तुही.। इति श्री परमेश्वर भेइ गीतम् । परमेश्वर स्वरूप दुर्लभ गीतम् राग-वयराड़ी कुण परमेसर सरूप कहइ री । कु० । गगन भमत खर खोज पंखी का, मीन का मारग कुण लहइ री । कु०।१। कुण समुद्र पसली करि पीयइ, कुण अंबर कर मांहि ग्रहइ री। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय सुन्दरकृति कुसुमाञ्जलि कुण गंगा वेलु करण कुं गिगइ, कुण माथइ करि मेरु बहह री | कु० | २ | क्रोध मान माया लोभ जीपह, जो तपस्या करि देह दहह री । समयसुन्दर कहइ ते लहह तिकु जे जोग ध्यान की जोति रहइ री | कु० । ३ । निरंजन ध्धान गीतम् राग - वयराड़ी ( ४४६ ) हां हमार परब्रह्म ज्ञानं । कुण माता कुण पिता कुटुम्ब कुण, सब जग सुपन समानं । हां. । १ । तप जप किरिया कष्ट बहुत हइ, तिरा कु तिल भी न मानं । समयसुन्दर कहइ कोइक समझइ, एक निरंजन ध्यानं | हां ॥२॥ परब्रह्म गीतम् राग - वयराड़ी हुं हमारे परब्रह्म ज्ञानं । कुण देव कुण गुरु कुण चेला, अउर किसी कुं न मानं रे । हुँ० | १ | कुण माता कुण पिता कुटुंब कुण, सब जग सुपन समानं । लख अगोचर अकल सरूपी, पर ब्रह्म एक पिछानं । हुँ० |२| इंद्रजाल इंद्रधनुष ज्युँ, तन धन अनित्य हुं जानं । समयसुन्दर कहइ कोइ समझह, एह निरंजन ध्यानं रे । हुँ० | ३ | Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रौपदेशिक गीतानि (४४७) जीवदया गीतम् राग भूपाल हां हो जीवदया धरम वेलडी, रोपी श्री जिनराय । जिन सासण था] जिहां, ऊगी अविचल आइ । हां०जी०११ हां हो समकित जल सीची थकी,बाधी जयणा सुहाय । गुपति मंडपि ऊंची चडी, सुख शीतल छाय । हां०जी०१२। हां हो व्रत साखा तप पानडा, रूड़ि रिद्धि ते फूल। समयसुन्दर कहइ मुगति ना, फल आपइ अमूल । हां०जी०।३। वीतराग सत्य वचन गीतम् राग-भूपाल हां हो जिन ध्रम जिन ध्रम सहु कहइ, थापइ आपइ अपणी बात । समाचारी जूजुई, कहउ किम समझात । जि० ११ हां हो चंद्रगुपत राजा हुयउ, सुहणउ दीठउ एम। चंद्र थयउ जाणु चालणी, जिण सासण तेम । जि०।२। हां हो अम्हे साचा झूठा तुम्हे, ए मूकउ टेव। समयसुन्दर कहइ सत्य ते, वदइ वीतराग देव । जि०।३। कर्म निर्जरा गीतम् ___ ढाल-जणणी मन आस्या पणी कर्म तणी कही निर्जरा, थाये त्रिहुं ठामे । श्रमणोपासक नइ कही, रूड़े परिणामे । क०।१। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४८ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि छती रिद्धि कदि छोडसं, थोड़ी घणी जेह । आरंभ नउ मूल ए कही, तीर्थकरे तेह । क० । २। गृहस्थावास छोड़ी करी, होस्यु हूं अणगार। संयम सधैं पालस, पामिसी भव पार । क०।३। अंत समय संलेखना, कदि करस्युशुद्ध । .....................।क०।४। ठाणांग सूत्र माहे कही, ए तीजे ठाणे । सुधर्मा स्वामी कहै जंबू ने, समयसुन्दर वखाणे । क० ।५। इह पर............. वैराग्य सज्झाय मोक्षनगर मारु सासरू, अविचल सदा सुखवास रे। आपणा जिनवर नइ भेटियइ, त्यां करउ लील विलास मो.।१। ज्ञान दर्शन आणे आविया, करो करो भक्ति अपार रे। शील सिणगार पहरो पदमणी,उठि उठिजिन समरोसार रे।मो.२। विवेक सोवन टीलँ तपतपे, साचो साचो वचन तंबोल रे। संतोष काजल नयणे भां, जीवदया कुंकुम घोल रे । मो.॥३॥ समकित बाट सोहामणी, संयम वहेल उजमाल रे।. तप जप बलदिया जोतर्या, भावना रास रसाल रे।मो.४। कारमो सासरो परिहरो, चेतो चेतो चतुर सुजाण रे। समयसुन्दर मुनि इम भणइ, त्यां छई भवि निरवाण रे ।मो.।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपदेशिक गीतानि (४४६ ) औपदेशिक गीत क्रोध निवारण गीतम् राग-केदारउ जियुरा तुम करि किण सरोस । जि० । जु कछु जीय तुदुखु पामइ, देहु करम कु दोस । जि.।१। हां पारकी निंदा पाप हइ बहु, म कहि मरम नइ मोस । आप स्वारथ मिले सब जण, किण ही कान भरोस । जि.।२। हां हो क्षमा गयसुकमाल कीनी, सासता सुख ओस । समयसन्दर कहइ क्रोध तजि करि, धरे धरम संतोस । जि.३। हुंकार परिहार गीतम ___राग-तोड़ी जहां तहां ठउर ठउर हूं हूं हूं। ज० । कहा अति मान करइ तूं । ज०॥ इण जगि कुण कुण आइ सिधारे, तूं किस गान में हइ रे गमारे ॥ ज०॥१॥ इहु संसार असार असारा । समयसुन्दर कहइ तजि अहंकारा ॥ज०॥२॥ मान निवारण गीतम राग-केदारा गउड़ी मूरख नर काहे तुकरत गुमान। "तन धन जोवन चंचल जीवित, सहु जग सुपन समान ।।१। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० ) समयसुन्दरकृति कुसुमाञ्जलि कहां रावण कहां राम कहां नल, कहां पांडव परधान । इण जग कुणकुण आइ सिधारे, कहि नई तूं किस थान । मू. २ | आज के कालि आखर अंत मरणा, मेरी सीख तूं मान । समयसुन्दर कह थिर संसारा, धरि भगवंत का ध्यान । मू. | ३ | मान निवारण गीतम् राग - केदारा गउड़ी किसी के सब दिन सरिखे न होई । ग्रह ऊगत अस्तंगत दिनकर, दिन मई अवस्था दोई । कि . । १ । हरि बलभद्र पांडव नल राजा, रहे वन खंड रिधि खोई । चंडाल कर घरि पाणी आण्यउ, राजा हरिचंद जोई । कि. | २ | गरम कर रे तूं मूढ गमारा, चढत पड़त सब कोई । समयसुन्दर कहर ईरत परत सुख, साचउ जिन धर्म सोई । कि. | ३ | 1 Jain Educationa International यति लोभ निवारण गीतम् राग - रामगिरि I चेला चेला पदं पदं, पुस्तक पाना लोभ मदं । चे. भार भूत म मेलि परिग्रह, संयम पालहु साच वदं । भाई चे . । १ । मन चेला पद साध की पदवी, पुस्तक धरि शुभ ध्यान मुदं । समयसुंदर कह अपणे जिय कुं, अविचल एक मुगति संपदं । भा. चे. २ For Personal and Private Use Only Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपदेशिक गीतानि (४५१ ) विषय निवारण गीतम् राग-केदारउ रे जीव विषय थी मन वालि । काम भोग संयोग झंडा, नरक दुख निहाल || रे ॥१॥ अल्पकाल विषय तणा सुख, दुख धइ बहु काल । बलवंत विषय नइ लोम बेहुँ, टालि जीव जंजाल ॥रे ॥२॥ मानखौ भव लही दुरलभ, मत गमाडइ प्रालि । समयसुन्दर कहइ आपनइ, सूधु संयम पाल ॥रे० ॥३॥ निंदा परिहार गीतम राग-सबाब निंदा न कीजइ जीव पराई, निंदा पापइ पिंड भराई । नि०॥१॥ निंदक निच्चय नरगइ जाई, निंदक चउथउ चंडाल कहाई ॥ निं० ॥२॥ निंदक रसना अपवित्र होई, निंदक मांस भक्षक सम दोई ।। निं० ॥३॥ समयसुन्दर कहइ निंदा म करिज्यो, परगुण देखि हरख मनि घरज्यो। नि०॥४॥ निंदा वारक गीतम् निंदा म करजो कोइ नी पारकी रे, निंदा ना बोल्या महा पाप रे । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५२ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि वेर विरोध वाधई घणा रे, निंदा करतांन गिणइ माय बाप रे। निं०११॥ दूर बलंती कां देखो तुमे रे, पग मां बलती देखो सहु कोइ रे। पर ना मल मांहि धोयां लूगड़ा रे, कहो किम उजला होइ रे ।नि०।२। आपु संभोलो सहु को आपणुरे, निंदा नी मूको परि टेव रे। थोड़े घणइ अवगुणे सहु भरया रे, केहना नलिया चूये केहना नेव रे । नि०।३। निंदा करइ ते थायइ नारकी रे, तप जप कीधु सहु जाय रे।। निंदा करउ तउ करज्यो आपणी रे,, जिम छूटक वारउ थाय रे ।निं०।४। गुण ग्रहजो सहु को तणउ रे, जेह मां देखउ एक विच्यार रे । कृष्ण परइ सुख पामस्यउ रे, समयसुन्दर कहइ सुखकार रे । नि०।५। दान गीतम् राग-रामगिरि जिनवर जे मुगतइ गामी, ते पिण आपइ दान । वरह वरं घोसह जग बच्छल, वरसइ मेह समान ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपदेशिक गीतानि ( ४५३ ) रूड़ा प्राणिया दान समउ नहीं कोइ रे, तँ हृदय विमासी नइ जोइ रे । श्रां. सालिभद्र नी रिद्धि संगमई लाधी, ते दान ताउ परमारा रे । देव दान थकी रथकार, पायुं अमर विभागा ॥ रू. ||२|| लियन सब दूर पुलाइ, दानइ दउलति होइ रे । इह भवि सुजस कीरति वाघ, पर भवि संचल सोइ ॥ रू. ॥३॥ दान ता फल परतिख देखो, दानइ जगत बसि थायह रे । समयसुन्दर कहइ दान धरम ना, रामगिरी गुण गाइ || रू. ||४|| शील गीतम् राग - मेवाड़ उ सील व्रत पालउ परम सोहामणउ रे, सील बड़उ संसार । सील प्रमाण शिव सुख संपजइ रे, शील आभरण उदार । सी. । १ । कलावती कर नवपल्लव थया रे, सीता अगनि थयउ नीर । सुदरसण सूली सिंहासण थयउ रे, द्र पदी अखंडित चीर । सी. । २ ॥ स्थूलभद्र जंबू सील वखाणियइ रे, नवि डोल्या मुनिराय । समयसुन्दर भाव भगति धरी रे, प्रणमह तेहना पाय । सी. | ३| तप गीतम राग- कालहरउ तप तया काया हुई निरमल, तपतपंग इंद्री बसि थाह । तप तप्या परमार्थ सीझर, तप तप्या प्रणमइ पाइ । त. |१| ऋषभदेव बरसी तप कीउ, छमासी कीधउ वर्धमान । तप तपी मुगतिइजे पहुता, ते मुनिवर नुं नहिं को गान । त. |२| Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जति आतम वस्त्र करम मल मइलो, तप जल धोई निरमल करउ । समयसुंदर कहइ जेम भविक तुमइ,मुगति रमणी सुख लीला वरउ।३। भावना गीतम राग-अधरस भाल भावना भावज्यो रे भवियां. जिम लहउ भवनउ पार । गयवर चढिया केवल पाम्यु, जोवउ मरुदेवी अधिक र । भा.॥१ वंस उपरि इला पुत्र नइ, भरत नइ भवन मझारि । भावना मन मांहिं भावतां, उपन्यउ केवल उदार । भा.।२। दान शील तप तउ भला रे, भावना हुयइ जो उदार । भाव रसायण जोग अछइ रे, समयसुन्दर कहइ सार । भा.।३। दान-शील-तप-भावना गूढा गीतम् राग--गूजरी ग्रहपति पुत्र क्रतूत करउ। दशमुख बंधु निवाज क नारी, अग्नि धरयउ मृधरउ । ग्र.।१। ज्योतिष जाण सहोदर नामे, तसु यक्ष पिशुन खरउ । तसु प्रिय रति आगलि रति रवि कउ, अधिक निकउ आदरउ । ग्र.२। दधितनया प्रियु लघु बांधव चित, चिंतव्यउ ते आदरउ । समयसुन्दर कहइ क क गलइ जिम, ते लहि तुरत तरउ । ग्र.।३। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदेशिक गीतानि तुर्य वीसामा गीतम् ढाल - श्री नवकार मन ध्याइये भार वाहक नइ कह्या भला, वीसामा वीतरागो जी । माथा थी मूकड़ कंधे लहह, मारग मांहि लागो जी ॥ लहि मारग मांहि चलतां, मल नह मूत्र तजड़ जिहां । नाग यक्ष देहरे रहे राते, भार उठारह तिहां ॥ जाव जीव जि थानक बसै, तिहां भार मूकी रहै सुक्खे। ए द्रव्य थकी चारे वीसामा, महावीर कहै मुखे ॥ १ ॥ श्रमणोपासक ते सुखो, वोसामा सुविवेको जी। शील व्रत गुण व्रत सहु, उपवास वरति अनेको जी ॥ 'देसावगासियs । वलि पर्व दिवसे करs पोसउ, ए भगवंते भाषिय | संलेखना करे सुद्ध बेहड़े, भाव वीसामा कया । ठाणांग सूत्र में चौथे ठाणइ, समयसुन्दर सरदद्या ॥२॥ Jain Educationa International -:०: प्रीति दोहा ( ४५५ ) कागद थोड़ो हेत घउ, सो पिग लिख्यो न जाय । सायर मां पाणी घाउ, गागर में न समाय ॥ १ ॥ प्रीत प्रीत ए सहु को कहड, प्रीति प्रीति में फेर । जब दीवा बड़ा किया, तब घर में भया अंधेर ||२|| For Personal and Private Use Only Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५६ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि त्रीकम त्रिया न धरणि जो, सिर कदी देह । नदी किनारे खड़उ, कदीक समूलो लेह ॥३॥ कंठालो कालो कठण, ऊँची देखी जाड़ा। समयसुन्दर कहइ गुण विना, ते सुकरे ते जाड़ा ॥४ ० अन्तरंग श्रृंगार गीतम् हे बहिनी महारउ जोयउ सिणगार हे, बहिनी नीकउ सिणगार; हे बहिनी साचउ सिणगार, जिण आज्ञा सिर राखड़ी रे हां । सिर समथउ व्रत खड़ी रे हां ॥१।। हे बहिनी० ॥ कानइ उगनियां भ्रम बातडी रे हे ब०, सरवर सामाई चुनी रातड़ी रे । २ । हे। कनक कुडल गुरु देसना रे हां ब०, ___ दान चूड़ा पर देशना रे । ३ । हे। माल मोरइ हियइ हारड़उ रे हां० ब०, पदकड़ि पर उपमारड़उ रे हां । ४ । हे। मुखि तंबोल सत्य बोलणउ रे हां० ब०, ___पडिकमणउ अंगि लोलणउ रे हो । ५। हे। जिण प्रणाम भालि चंदलउ रे हां० ब०, नफूली लाज बिंदलउ रे हा०।६। हे। नवकार गुणनउ बीटी गोलनी रे हां० २०, ज्ञान अंगूठी बहु मोलनी रे हां० । ७। हे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपदेशिक गीतानि (४५७ ) कहि मेखल सोहइ क्षमा रे हां० ब०, - गुपति वेणी दंडोपमा रे हां०।८। नयण काजल दया देखणी रे हां० ब०, ..... किरिया हाथे मंहदी रेखणी रे हां० । । । है। . इरिजा समिति पाये वीछिया रे हां. ब०, __.साधु वेयावच्च बांहे पुणछिया रे हां०।१०। हे। देव गुरु गीत गलइ दुलड़ी रे हां० ब०, शील सुरंगउ अोढइ चूनड़ी रे हां० ११ हे। जीव जतन्न पाए नेटरी रे हां० ब०, समकित चीर पहिरी नीसरी रे हां०।१२। हे। नर नारी मोही रह्या रे हां० ब० समयसुन्दर गीत ए कह्या रे हां०।१३। हे। फुटकर सवैया दीक्षा ले सूधी पालीजइ, सुख साता न अउला कांइ । कर्म खपावी केवल लहियइ, भणना गुणना रउला कांइ॥ इवड़ी बात अाज नहीं छइ, जीव थायइ तू गउला काइ । समयसुन्दर कहइ वांछा कीजइ, मन लाडू तेउ मउला कांइ ॥१॥ खाधू पीयूं लीधू दीवू, वसुधा मांहि वधारउ वान । गुरु प्रसादे खाता सुखपाम्यौ, जिनचंद्रसरि ते जुग परधान ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५८ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि सकलचंद्र गुरु सानिध कीधी, सतासियइ न थयउ तन ज्यान। समयसँदर कहइ हिव तू रेमन,करि संतोष नइ धरिध्रम ध्यान ॥२॥ आधि व्याधि रोग को उपजइ, जीव जंजाले जायइ कही। कुण जाणे कही अणुपूर्वी, जीवे बांधी मूकी अहीं। धर्म करउ ते पहिली करजो, छेहली वेला थास्या नहीं। समयसुन्दर कहै हूँ तो माहरै, बे घड़ी ध्यान धरु छू सही ॥३॥ नव-वाड़-शील गीतम् ढाल-तुङ्गिया गिरि सिखर सोहइ नव बाड़ि सेती शील पालउ, पामउ जिम भव पार रे । भगवंत विस्तर पणइ भाख्यउ, उत्तराध्ययन मझार रे । नप.।। पसु पडंग नइ नारि जिहां रहइ, तिहां न रहइ ब्रह्मचारिरे। पहली वाड़ ए तुमे पालउ, शील बड़उ संसार रे । नव.।२। कहइ सराग कथा कदे नहीं, स्त्री मुंएकांत रे। बीजी बाड़ ए एम बोली, मानइ लोक महांत रे । नव.।३। बइयरि जिण बइसणे बइसे, वे घड़ी न बइसे तेथ रे । तीजी बाड़ि ए कही तीर्थकरे, आज्ञा मोटी एथ रे । नव.॥४॥ स्त्री. अंग उपांग सुन्दर, देखत नहीं धरि राग रे। चउथी वाड़ि ए चतुर पालउ, पामइ जस सोभाग रे । नवाश कुण्डी नइ अंतरइ पुरुष स्त्री, रमइ खेलइ रंगि रे। पंचमी वाड़ि ए तुम्हे पालउ, टालउ तेह प्रसंगि रे । नव.।६। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदेशिक गीतानि ( ४५६ ) पहिलु काम नइ भोग भोगव्या, संभारइ नइ तेह रे । छठी बाड़ ए छह भली पणि, जतनइ पालिस्य जेह रे | नव|७| वते कवलिए घी सुं, जिमइ नहीं ब्रह्मचारि रे । । सातमी वाड़िए घणु ं सखरी, पणि विगय घी विकार रे । नव. ८| बीस वीस कवलिया, नारी नर नउ आहार रे । मी वाड़ एकही उत्तम, अधिको न ल्यइ निरधार रे | नव. || सरीर नी शोभा करइ नहीं, न करड़ उद्भट वेस रे नवमी वाड़ ए नित्य पालउ, सुयश देश प्रदेश रे । नव. | १० | कल्पवृक्ष ए शील कहियह, रोप्यउ श्री जिनराज रे । वाड़ रक्षा भणी भाखी, सेवज्यो सुखकाज रे । नव. १११ | पानड़ा प्रत्यक्ष प्रभुता, फूटरा सुख फूल रे । मुक्ति ना फल घणा मीठा, आपइ ए अमूल रे । नव. । १२ । संवत सवर मास आसू, नगर अहमदावाद रे समयसुन्दर वद वाणी, सकलचंद प्रसाद रे । नव. |१३| I बारह भावना गीतम् ढाल - तुङ्गिया गिरि सिखर सोहइ भावना मन बार भावउ, तूटइ करम नी कोड़ि रे । तप संजम तउ छ भला, पण नहीं भावना नी जोड़ि रे । भा. । १ । पहली भावना एन भावउ, अनित्य आयुर दाय रे । तन धन यौवन कुटुम्बसहु ते, क्षण मांहे खेरु थाय रे । भा. । २ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६० ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि बीजी भावना एम भावउ, जीव तुशरणउ म जोइ रे । माता पिता प्रियु कुटुम्ब छइ पण, रोखणहार न कोइ रे। भा.।३। तीजी भावना एम भावउ, चउगति रूप संसार रे। धर्म बिना जीव भम्यउ भमस्यइ, बलि अनंती वार रे। भा.। ४ । चौथी भावना एम भावउ, जीव छइ तूं अनाथ रे । एकलउ अाव्यउ एकलउ जाइसि,नहिं को आवइ साथ रे।भा.। ५। पंचमी भावना एम भावउ, जीव जुदउ जुदी काय रे! जीव न जाणइ केथ जासइ, काय कलेवर थाय रे ।भा.। ६। छट्ठी भावना एम भावउ, अशुचि अपवित्र देह रे। काया मूत्र मल तणउ कोथलउ, नाणउ तेह सु नेह रे। भा.। ७। सातमी भावना एम भावउ, आश्रव रुध अपाय रे । प्रातमा सरोवर आपणउ जिम, पाप पाणी न भराय रे। भा.।८। आठमी भावना एम भावउ, संवर सत्तावन्न रे। समिति गुपति सहु भला छइ, जीव तुकरिजे जतन्न रे। भा.।। नवमी भावना एम भावउ, निर्जरा तप बार रे। छत्र छह बाह्य छत्र छइ अभ्यंतर, पहुँचावइ भव पार रे। भा.।१०। दसमी भावना एम भावउ, लोक स्वरूप मंथान रे। जिम विलोवणउ विलोवतां थकां, सरीर नउ संस्थान रे। भा./११॥ इग्यारमी भावना एम भावउ, बोधि बोज दुलभ रे। इण बिन जीव को मोक्ष न जावइ, ए धरम नउ उटुंभरे।भा. १२। बारमी भोवना एम भावउ, अरिहंत वीतराग देव रे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *-- औपदेशिक गीतानि ( ४६१ ) धरम ना ए खरा आराधक, नाम जपउ नितमेव रे । भा. | १३ | भावना भावत चक्री भरत, पाम्यउ केवल ज्ञान रे । इम बीजा पणि जीव अनंता, धरता निर्मल ध्यान रे । भा. । १४ । भावना ए भली कीधी, मह तउ म्हारइ निमित रे । समयसुन्दर कहइ सहु भराउ जिम, पायइ जीव पवित्त रे । भा. । १५ । देव गति शप्ति गीतम् 具 बारे भेद तप तपड़ गति पामइ जी, संजम सतर प्रकार देवगति पामइ जी । साते खेत्रे वित बावरड् गति पामइ जी, पाइ पंचाचार देव गति पामइ जी ॥१॥ गति पाम जी पुण्य करइ जे जीव, देव गति पामह जी ॥ कणी ॥ प्रतिदिन पड़िकम कर गति पामइ जी, सामायिक एकत देव गति पाम जी । आहारविहराव सूत गति पामइ जी, सांभल सूत्र सिद्धांत देवगति परमई जी ॥ २॥ भद्रक जीव गुणे भला गति पामइ जी, जीवदया प्रतिपाल देवगति पाम जी । सदगुरु नी सेवा करइ गति पामइ जी, देव पूजड़ त्रिहुं काल देवगति पामइ जी ||३|| Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय सुन्दरकृति कुसुमाञ्जलि सण नइ आराधना गति पामइ जी, खड़ी नह पचखाण देवगति पामइ जी । सूर्धं समकित सरदह गति पामइ जी, अरिहंत देव प्रमाण देवगति पामइ जी ||४|| पंच महाव्रत जे धरह गति पाम जी, श्रावक ना व्रत बार देवगति पामइ जी । ध्यान भलु हिंड़ धरह गति पामइ जी, पालइ शील उदार देवगति पाम जी ||५|| पुण्य करइ जे एहवा गति पामह जी, आणी अधिक उल्लास देवगति पामइ जी । समयसुन्दर पाठक भरणइ गति पामइ जी, ( ४६२ ) पामइ लील विलास देवगति पामइ जी || ६ || नरक गति प्राप्ति गीतम् ढाल - सीखि नइ सीखि नइ चेला - एहनी जीव तणी हिंसा करह, प्राणसमा परधन हरइ, नरक जाय ते जीवड़उ, छेदन भेदन ते सहइ, परदारा सुं पापियउ, बोलह मिरषावाद | सेवइ पंच प्रमाद || १ ॥ पामइ दुख अनंत । भाखड़ श्री भगवंत ॥ न० ॥ २ ॥ भोगवह काम भोग । विषयारस लुब्धउ थकउ, न बीहड़ पर लोग || न० ॥ ३ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपदेशिक गीतानि (४६३) मदिरा मांस माखण भखड़, बहु प्रारंभ निवास । पार नहीं परिग्रह तणउ, इच्छा जेम आगास ॥न०॥४॥ देव द्रव्य गुरु द्रव्य वलि, साधारण द्रव्य खाय । दीन हीन निर्धन थकउ, दुखियउ ते थाय ॥न०॥५॥ साध अनइ वलि साधवी, धरमी नर नार । तेह तणी निंदा करइ, न गिणइ उपगार ॥ न०॥६॥ कृतन कर प्रकृति करइ, परवंचन द्रोह । कूड़ कपट नित केलवइ, माया नइ मोह ॥ न०॥७॥ आल पंपाल मुखइ भखइ, हियइ वज्र कठोर । धसमसतउ धंधइ फिरइ, करइ पाप अघोर ।। न०॥८॥ जोयउ चक्रवर्ती अाठमउ, संभूम नउ जीव । सातमियइ नरकइ गयउ, करतउ मुख रीव ॥ न०॥६॥ पाप तणा फल पाडुया, आपई अति दुखु । समयसुन्दर कहइ ध्रम करउ, जिम पामउ सुखु।। न०॥१०॥ व्रत पञ्चक्खाण गीतम् राग-बीलावर बुढा ते पिण कहियइ बाल, व्रत बिना जे गमावइ काल । जीमइ पोहर बि पोहर प्रमाण, पण न करइ नोकारसी पचखाण ॥ बू० ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि पाणी न पीवइ राते इकि वार, पण न करइ रात्रे चउबिहार । बू० ॥२॥. नीलवण खावे नहीं दस के बार, .... पिण मायइ पाप भार अढोर ।। बू० ॥३॥ नवरा रहइ न करइ को काम, . पण न लियइ परमेसर नु नाम ।। बू०॥४॥ गांठ रुपइया त्रण के चार, पिण न करइ सुंस पचास हजार ॥ बू० ॥५॥ चउपद माहे घरि छालो नहीं, हाथी नुसूस न सके ग्रही ॥ बू०॥६॥ विनय विवेक ने जाणे मरम, .. श्रावक होइ नइ न करे धरम ॥ बू० ॥७॥ पोषउ करइ ने दिवसे सूवै, ते धर्म फल पोषह नो खुवै ॥ बू० ॥८॥ क्रिया न करइ कहावइ साध, नाम रतन दाम न लहइ अाध ॥ बू०॥६॥ मनुष्य जन्म नवि हारो आल, तमे पाणी पहली बांधो पाल |बू०॥१०॥ जे करइ व्रत आखड़ी पञ्चखाण, समयसुन्दर कहइ ते चतुर सुजाण ॥०॥११॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक गीतम् (४६५) सामायिक गीतम् सामायिक मन शुद्ध करउ, निंदा विकथा मद परिहरउ । पढउ गुणउ वांचउ उपगरउ, जिम भवसागर लीला तरउ॥१॥ दिवस प्रते कोई दियइ सुजाण, सोनारी कंडी लाख प्रमाण। तेहनउ पुण्य हुवइ जेतलउ, सामायक लीधे तेतलउ ॥२॥ काम काज घर ना चिंतवइ, निंदा कपट करी खीजवइ । आर्त रौद्र ध्यान मन धरइ, ते सामायिक निष्फल करइ ॥३॥ आप परायउ सरखड गिणइ, साचुं थोडगमतू भणइ। कंचन पत्थर समवड धरइ, ते सामायक सूधू करइ ॥४॥ चंदवतंसक राजा जेम, सामायक व्रत पाल्यु तेम । कहइ श्री समयसुन्दर सीस,सामायिक व्रत पालउ निशदीस॥५॥ ___ गुरु वंदन गीतम् हां मित्र म्हारा रे, चालउ उपासरइ जइयइ । संवेगी सदगुरु वांदी नइ,आपे कृतारथ थइयइ रे ॥१॥ हां.॥ श्री जिन वचन वखाण सुणीजइ, आपणि श्रावक थइयइ रे। समयसुन्दर कहइ ध्रम साचउ,हियइ मां सरदहियइ रे॥२॥हा.।। श्रावक बारह व्रत कुलकम् श्रावक ना व्रत सुणजो बार, संसार मांहे एतउ सार । धुर थी समकित सूधउ धरइ, पणि मिथ्यात भणी परिहरहा १ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६६ ) समयसुन्दरकृति कुसुमाञ्जलि बेन्द्रिय प्रमुख जीव जे बहू, रूड़ी परि राखइ ते सहु | जीव एकेन्द्री जयगा सार, व्रत पहिला नउ एह विचार | २ | कन्यादिक बोलइ नहीं कूड़, ते बोलs तो जासह बूड़ । सांचू बोलs ते श्रीकार, ए बीजा व्रत नउ आचार | ३ | दीधी चोरीनी थि, हासह पणि झालइ नहीं हाथि । जूठउ बोलि न लीजइ जेह, तीजउ व्रत कहीजड़ एह | ४ | पर स्त्री न कीज परिहार, नियत दिवस पोता नी नारि । रागदृष्टि राखीजइ साहि, चउथउ वरत धरउ चित मांहि । ५ । नवविध परिग्रह नउ परिमाण यावजीव करइ हित जाणि । आकास सरीखी इच्छा गमउ, पालउ ए अणुव्रत पांचमउ | ६ | आप वसई तिहां थी छ दिसइ, करइ कोस जाऊँ निज वसई । मन मान्या राखइ मोकला, ए छट्टा व्रत नी अरगला । ७ । भोग न उपभोग बेउ, आपण अंग लागइ जेउ । तेह विगत जे लेवा तणी, सातमउ वरत काउ जगधणी । ८ । आपणा रथ विना उपदेस, पाप नउ दीजड़ नहीं आदेश । पाहुया ध्यान तराउ परिहार, ए आठमा व्रत नउ अधिकार | ६ | लव गुरु मुख ऊचरह, सावद्य जोग सहु परिहरइ । समता भावइ वि घड़ी सीम, नवमउ सामायक व्रत नीम | १० | सगला वरत तउ संखेव, निरारंभ रहs नितमेव । जां लगि कल कीज जेह, दसमउ देसावगासिक तेह | ११ | Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक बारह व्रत कुलकम् (४६७ ) चौपरवी पज्जूसण परब, वलि कल्याणक तिथि पण सर्व । सावद्य नउज कीजइ समउ, ए पोसउ व्रत इग्यारमउ ।१२। पोसउ पारी नइ प्रहसमइ, जतियां नइ दीघउ ते जिमइ । गुरु ऊपरि ओणी ध्रमराग, ए बारमउ व्रत अतिथि संभाग।१३। बोल्या श्रावक ना व्रत बार, मूल सूत्र सिद्धांत मझार । आणंद नी परि पालउ एह, जिम पामउ भवसागर छेह ।१४। सोलइ सइ नझ्यासी समइ, बीकानेर रह्या अनुक्रमइ । कीधउ बारां व्रत नउ कुलउ,समयसुन्दर कहइ नित सांभलउ।१५॥ श्रावक दिनकृत्य कुलकम् श्रावक नी करणी सांभलउ, नित समकित पालउ निरमलउ। अरिहंत देव अनइ गुरु साध, भगवंत भाख्यउ धरम अबाध।१। जागइ पाछली रात जिवार, निचल चित्त गुणइ नउकार । काल वेला पडिकमणउ करइ, पाप करम दूरि परिहरइ । २ । पछड़ करइ गुरु मुख पचखाण, जयणा सुपडिलेहण जाण। देव जुहारइ देहरइ जाय, चैत्यवंदन करइ चित्त लगाय । ३ । वलि गुरु वांदी सुणइ वखाण, सूत्र ना पूछइ अरथ सुजाण । जतियां नइ रिहरावी जिमइ, ते भव मांहि थोड़उ भमइ । ४ । सांझइ वलि सामाइक लेइ, मन मान्यउ पचखाण करेइ । थापना ऊपर थिर मन ठवइ, सूधा आवश्यक साचवइ । ५। अणसण सागारी उच्चरइ, सूतउ चारे सरणा करइ। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६८ ) समय सुन्दरकृति कुसुमाञ्जलि राति दिवस इण रहणी रहइ, उठतउ बहसतउ अरिहंत कहइ | ६ | व्यवहार सुद्ध करइ व्यापार, वलि ल्यइ श्रावक ना व्रत बार । वलि संभारs चउदह नीम, मांग नहीं य सरह तां सीम । ७ । निंदा पणि न करs पारकी, ते करतउ थायइ नारकी । सीख भली तर इ सुविचार, पछड़ न मानइ तउ परिहार | ८ | मिथ्यात तउ मानइ नहीं मूल, वलि विकथा न करइ वातूल। देव द्रव्य थी दूरि रहइ, नहि तरि नरक तगा दुख लहइ | ६ | साहमी नइ संतोष घणु, सगपण ते जे साहमी तणुं । धरण देतां त रहs धर्म, माणस नउ बोलइ नहीं मर्म |१०| अनंत अभक्ष तणी खड़ी, जीवदया पालइ जगि बड़ी । वलि वह साते ही उपधान, सुद्ध करइ किरिया सावधान | ११ | गोती हरइ सरिखउ ग्रह वास, प्रमदा बंधण छांडइ पास । संजम कदि हूँ लेइसि सार, इसउ मनोरथ करइ अपार | १२| करणी ए श्रावक जे करइ, ते भवसागर हेलां तर । वीतराग ना एह वचन, नर नइ नारि करइ ते धन्न | १३ | परभाते पड़िकमण करइ, धर्म बुद्धि हीयइ में धरई । गुण कुलाउ ते सिव सुख लहइ, समयसुन्दर तउ साचउ कहर | १४ | Jain Educationa International --:: For Personal and Private Use Only Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध श्रावक दुष्कर मिलन गीतम् (४६६ ) शुद्ध श्रावक दुष्कर मिलन गीतम राग-प्रासाउरी-सिंधुइ उ. दाज-कइयइ मिलस्यइ मुनिवर एहवा-एहनी। पाठांतर नउ गीत जाणियउ. कायइ मिलस्यइ श्रावक एहवा, सुणिस्यइ आवि वखाणो जी। धरम गोष्ठी चरचा करिस्यां, वीतराग वचन प्रमाणो जी ॥१॥क. ॥ धुरि थी सूधू समकित जे धरई, मानइ नहिं य मिथ्यातो जी । साहमी सुधरणइ बहसइ नहीं, नहि राग द्वष नी बातो जी॥२॥क. ॥ बारह व्रत सीखइ रूड़ी परि, जां जीवइ तां सीमो जी। सूधइ मन किरिया नी खप करइ, साचवइ चउदह नीमो जी ॥३॥ क. ॥ काल वेलागइ जे पडिकमणउ करइ, सूत्र अरथ पाठ सूधो जी । बार अधिकार गमा त्रिण साचवइ, गुरु वचने प्रतिबूधो जी ॥४॥क. ॥ व्यवहार (१) सूध पणु पालइ सदा, प्रथम वडउ गुण एहो जी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७० ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि रोग रहित पंचेन्द्री परगड़ा (२), सोम प्रकृति (३) सुसनेहो जी ॥५॥क. ॥ लोग प्रिय उत्तम आचार थी (४), वंचना रहित अक्ररो (५) जी । पाप करम थी जे डरता रहइ (६), कपट थकी रहइ दूरो (७) जी ॥६॥ क. ॥ त्रोटउ आप खमी जइ पारका, काम समारइ जेहो जी (८) । चोरी परदारादिक पाप थी, - करता भाजइ तेहो जी (8) ॥७॥क. ॥ जीवदया पालइ जतना करइ (१०), रहइ मध्यस्थ सुदक्षो जी (११)। सोमदृष्टि (१२) गुणरागी(१३) सतकथा, (१४) मात पिता सुद्ध पक्षो जी ॥ ८॥क. ॥ दीरघ दरसी (१५) जाण विशेषता (१६), उत्तम संगति एको जी (१७) । विनय करइ (१८) उपकार कियउ गिणइ (१६), हित वच्छल सुविवेको जी (२०) ॥६॥ क. ॥ लब्ध लक्ष अंगित अकारना, जाण प्रवीण अपारो जी (२१)। एकवीस गुण श्रावक ना ए कह्या, सूत्र सिद्धांत मझारो जी ॥१०॥ क.॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध श्रावक दुष्करमिलन गीतम् (४७१ ) निंदक थायइ निच्चइ नारकी, लोक कहइ चंडालो जी । श्रावक न करइ निंदा केहनी, घई नहीं कूड़उ आलो जी ॥११॥ क. ।। साध तणा छल छिद्र जोयइ नहीं, भाखड़ भगवान भाखो जी। अम्मा पिउ सरिखा श्रावक कह्या, ठाणांग सूत्र नी साखो जी ॥१२॥ क. ॥ विण विहराव्या श्राप जिमइ नहीं, दाखीजइ दान सूरो जी। आहार पाणी विहरावइ सूझतउ, वस्त्र पात्र भरपूरो जी ॥१३॥ क. ॥ एक टंक जिमड एकासणइ, सचित तणउ परिहारो जी। चारित लेवा उपरि खप करइ, पालइ सील उदारो जी ॥१४॥ क. ॥ न्यायोपार्जित वित्तइ नीपनउ, श्रावक द्यइ जु आहारो जी । तउ अम्ह थी सूध संजम पलइ, आहार निसउ उदगारो जी ॥१५॥ क. ॥ उत्तम श्रावक नी संगति करी, साध नइ पणि गण थायो जी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि कूल अमूलिक संग थकी, जिम तेल सगंध कहायो जी ॥१६॥ क.॥ ए नहिं साध सिथल दीसइ घणु, मूंड मिला पाखंडो जी । एहवी संका मनि आणइ नहीं, साधु छइ लीजइ खंडो जी ॥१७॥ क. ॥ तरतम जोगइ साध इहां अछइ, दुपसह सीम महंतो जी । महावीर नउ सासन वरतस्यइ, एहवी बात कहंतो जी ॥१८॥क. ॥ तुगिया नगरी श्रावक सारिखा, .. आणन्द नउ कामदेवो जी । संख सतक नइ सुदरसण सारिसा, करणी करइ नित मेवो जी ॥१९॥क ॥ दूसम कालइ संजम दोहिलउ, दोहिलउ श्रावक धर्मो जी । गुण भीजइ नइ अवगुण गाडियइ, जिन धर्म नउ ए मों जी ॥२०॥ क. ॥ तप जप किरिया नी जे खप करइ, कुण श्रावक कुण साधो जी। समयसुन्दर कहइ आराधक तिके, सफल जनम तिण लाधो जी॥२१॥क. ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषि महत्व-पर प्रसंशा गीतम् (४७३ ) अंतरंग वचार गीतम् राग-भैरव कहउ किम तिण घरि हुयइ भलीवार, को कहनी मानइ नहीं कार ॥१॥ क० ॥ पांच जन कुटुम्ब मिल्यउ परिवार, जूजुइ मति जूजुयउ अधिकार ॥२॥ क०॥ आप संपा हुयइ एक लगार, तउ जीव पामइ ख अपार ॥३॥ क०॥ समयसुन्दर कहइ स नर नारि, अंतरंग छइ एह विचार ॥४॥क० ॥ ऋषि महत्व गीतम् बइठि तखत्त हुकम्म करइ, परभाति जाणे पातसाह बड़ा; मध्याह्नसमइ हाथि ठूठइ लीयइ, भीख मांगइ फकीर ज्युं बारि खड़ा। न मर्द न जोरू लख्या नहीं जावत, मस्तक मुंडित कन फड़ा; अचरिज भया मोहि देख नहीं एहु,कुण दुकोण देखउ रिखड़ा ।१।३.। मध्याह्न समइ गज भिक्षा भमइ, लोक मष्टान्न पान द्यइ आगइ खड़ा; ध्रम आप तरइ तारइ अउरण कं, नमइ लोक खलक बड़ा लहुड़ा। दुख पाप जायइ मुख देखत ही, एहु खूब दुकाण भला रिखड़ा ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि समय पर प्रशंसा गीतम हूं बलिहारी जाऊँ तेहनी, जेहनउ अरिहंत नाम । जिण ए धरम प्रकाशियउ, कीघउ उत्तम काम ॥ हु०॥१॥ हुँ बलिहारी जाऊँ तेहनी, जे श्री साधु निग्रंथ । आप तरइ अउर तारवइ, साधइ मुगति नउ पंथ ॥ हुं०॥२॥ हूँ बलिहारी जाऊँ तेहनी, जे श्री सूत्र सिद्धांत । जिण थी जिन ध्रम चालिस्यइ, दुप्पसह सरि परजंत ॥ हुँ॥३॥ हूं बलिहारी जाऊँ तेहनी, जे गुरु गुरणी गुणवंत । जिण मुझ ज्ञान लोचन दिया, ए उपगार महंत ।। हुं०॥४॥ हुँ बलिहारी जाऊँ तेहनी, जे यइ गुपत कउ दान । पर उपगार करइ सदा, पणि न करइ अभिमान ।। हुं०॥॥ हुं बलिहारी जाऊँ तेहनी, निंदा न करइ जेह । देतां दान वारइ नहीं, हूँ गण ल्य तस एह ॥ हुं०॥६॥ हुँ बलिहारी जाऊँ तेहनी, धरम करइ जे संसार । समयसन्दर कहइ हूं कहुं, धन धन ते नर नार हुँ॥७॥ साधु गुण गीतम् तिण साधु के जाऊँ बलिहारे। अमम अकिंचन कुखी संबल, पंच महाव्रत जे धारे। ति०।११ शुद्ध प्ररूपक नइ संवेगी, पालइ सदा पंचाचारे । चारित्र ऊपर खप करइ बहु, द्रव्यक्षेत्र काल अनुसारे । ति०।२। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हित शिक्षा गीतम् (४७५ ) गच्छ वास छोड़ नहीं गुणवंत, अकुश कुशील पंचम आरइ। समयसुंदर कहइ सो गुरु साचउ,अाप तरइ अवरां तारइ। ति।३। साधु गुण गीतम् राग-आसावरी धन्य साधु संजम धरइ सूधउ, कठिन दूषम इण काल रे। जाव जीव छज्जीव निकायना, पीहर परम दयाल रे । ध.।१। साधु सहै बावीस परिसह, आहार ल्यइ दोष टालि रे। ध्यान एक निरंजन ध्याइ, वइरागे मन वालि रे । ध.।२। सद्ध प्ररूपक नइ संवेगी, जिन आज्ञा प्रतिपाल रे। समयसुंदर कहइ म्हारी वंदना, तेहनइ त्रिकाल रे । ध.।३। हित शिक्षा गीतम राग-सोरठ पुण्य न मकड विनय न चूकउ, रीस न करिज्यो कोई। देव गुरु नउ विनय करीजइ, काने सुणउ भलाई रे ।११ जिवडा घड़ी दोइ मन राखउ ॥ अांकणी ॥ बूढा ते किम बाल कहीजइ, विरत नहीं जाणउ कोई । एक रुपइयउ खोटउ बांध्यउ, दौड़चउ करैय दगाई रे । जी.।२। मांकर ज्यु जीव हालई डोलई, थांम्यउ किही नी जावइ । नावा ऊपरि आयज बईठउ, आपण आपणइ छदई रे । जी.३। लेखे बइठउ लोभे पईठउ, चार पहुर निश जागइ । दोय घड़ी सामाइक वेला, चोखउ चित्त न राखइ रे । जी.।४। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७६ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि कीरति कारण उपगरण मांड्यउ, लाख लोक घरि लँटइ। एक फूदीकउ फड़कउ बांधइ, धरम तणी गांठ खोलइ रे। जी.।। रावल जातउ देवलि जातउ, ऊपरि मारज सहितउ । दोय घड़ी नउ भूखउ रहितउ, सोइ दिन वहि जातउ रे। जी.।६। घरि साम्ही धरमशाला हुँता, वीस विमासण धोवइ । दोय....... ........ जी./७१ पंच अंगुलिया वेल ज पहिरइ, ऊँचउ पहिरइ वागउ । घर परिणी नइ घाट घड़ावइ, निहचइ जासी नागउ । जी.|८ साचौ अखर मस्तक मांडी, बदन कमल मुख दीपड़उ । मारग चालइ सूधइ चालइ, पान फूल मूल कंदो । जी.। ना उतरियइ उठ चलेगो, जु सीचाणउ बंदउ । समयसुंदर कहइ सुणउ रे भाई, धरम करइ तेहनइ वंदो । जी.।१०। श्री संघ गुण गीतम् राग-धन्याश्री संघ गिरुयउ रे, श्री संघ गुणे करि गिरुयउ रे। मात पिता सरिखउ हित वल्लभ', किमही करई नहीं विख्यउ रे।श्री.१॥ चंद्र सूरज पथ नगर समुद्र चक्र, मेरु नी उपमा धरुयउ रे। तीर्थकर देवे पणि मान्यउ, दुखिया नउ दुख हरूपउ रे ।श्री.२॥ संघ मिल्यउ करइ काम उलट पट, कनक पीतल रूप तरुयउरे। समयसँदर कहई श्रीसंघ सोहइ, वाड़ी मांह जिम मरुयउरे।श्री.३। १ वच्छल । २ तिवेइ ते करइ काम। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्त श्रद्धा-अध्यात्म समाय (४७७ ) सिद्धान्त श्रद्धा सज्झाय आज आधार छइ सूत्र नउ, आरइ पांचमइ एह । सुधरम सामी संइ मुखइ, बाउ जंबू नइ तेह ।। प्रा०॥१॥ तीर्थंकर हिवणा नहीं, नहीं केवलो कोई । अतिशयवंत इहां नहीं, संशय भांजइ सोई॥ प्रा०॥२॥ भरत मई जीव भारी कर्मा, मत खांचे गमार । पणि सूत्र में कह्यउ ते खरउ, ए छइ मोटी कार ॥ श्रा०॥३॥ आज सिद्धान्त न हुँत तउ, किम लोक करंत । पणि वीतराग ना वचन थी, ध्रम बुद्धि धरंत ॥ श्रा०॥४॥ इकवीस सहस वरस इहां, जिन धर्म जयवंत । सूत्र तणइ बलि चालस्यां, भाख्यौ भगवंत ॥ प्रा०॥॥ श्री महावीर प्ररूपियउ, धरम नउ मरम एह । समयसुन्दर कहइ सहु, काउ तीर्थकर तेह ॥ ०॥६॥ अध्यात्म सज्झाय राग-प्रासाउरी इण योगी ने आसन दृढ कीना, पवन बंधि परब्रह्म सुं लीना । इ.१। नासा अग्र नयन दोऊ दीना, भीतरि हंस ढुंढत मन भीना । इ.१२। अपनि पवन दसमें द्वार प्राण्या, प्राणायाम का भेद पिछाण्या । इ.।३। बार अंगुल जल पवने पइसारया, पूरक ध्यान पवन सवारचा।इ.१४। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७८ ) समयसुन्दरकृतिकुसमाञ्जलि नाभि कमल थी पवन निसार्या, रेचक ध्यान चपल मन मारया।इ.।। घट भीतरि कियो घट आकारा, नाभि पवन कुंभक आकारा । इ.।६। पवन जीत्या तिण मन भी जीत्या, सोयोगना मेरा सच्चा प्रीता।इ.१७। ज्ञान की बात लहेगा ज्ञानी, समयसुंदर कहइ अातम ध्यानी। इ.८ श्रावक मनोरथ गीतम श्री जिन शासन हो मोटउ ए सहु, जीवदया जिन धर्म। प्रथ्वी प्रमुख हो जीव कह्या जुदा, बलि काउ करता कर्म। श्री.।१। देव कहीजइ अरिहंत देव नइ, गुरु तउ सूधउ साधु । धर्म कहीजइ केवलि भाखियउ, सूधउ समकित लाध । श्री.।२। पंच महाव्रत हो पालइ जे सदा, ल्यइ सूझतउ अाहार । आप तरइ और नइ तारवइ, एहवा जिहां अणगार । श्री./३। समकित धारी होश्रावक जिहां कया,मानइ नहीं मिथ्यात। व्यवहार सुद्धे हो करइ आजिविका, न करइ पर नी वात । श्री.।४। अभक्ष्य न खावइ हो लहुडो बड़उ, अनंत काय नउ सँस । सांझ सवोरइ हो पडिकमणउ करइ,वलि करइ संजम हूंस। श्री.।। पारसनाथ होइम प्ररूपियउ, जिन शासन जयकार । भव भव होज्यो हो समयसुंदर कहइ, इहां म्हारइ अवतार। श्री.।६। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोरथ गीतानि (४७६ ) मनोरथ गीतम् ते दिन क्यारे आवसइ, श्री सिद्धाचल जासू। ऋषभ जिणंद जुहारि नइ. सूरज कुण्ड मई न्हासू ।। ते॥१॥ समवसरण मां बइसी नइ, जिनवर नी वाणी। सांभलसु साचे मनई परमारथ जाणी॥ते॥२॥ समकित शुद्ध व्रत धरी, सद्गुरु नइ वंदी। पाप सकल आलोय नइ, निज प्रातम निंदी ॥ते॥३॥ पडिकमणउ चे टंक नउ, करसु मन कोडे । विषय कषाय निवार नइ, तप करसु होडे । ते०॥४॥ व्हाला नइ बहरी बिचइ, नवि करवउ वैरो। पद ना अवगुण देखि नइ, नवि करवउ चेरो ॥०॥५॥ धर्म स्थानक धन वावरी, छ काय नी हेते । पंच महाव्रत लेय नइ, पालमु मन प्रीते ॥०॥६॥ काया नी माया मेल्हि नइ, जिम परिसह सहसु। सुख दुख सगला विसार नइ, समभावइ रहसु॥०॥७॥ अरिहंत देव ने अोलखी, गुण तेहना गासु। समयसुन्दर इम वीनवह, क्यारे निरमल थासु।०८॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८०) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि मनोरथ गीतम् राग-आसावरी धन धन ते दिन मुझ कदि होसह, हुँ पालिस संजम सूधोजी। पूरव ऋषि पंथे चालीसु, गुरु वचने प्रति बूझो जी । घ.।१। अनियत भिक्षा गोचरी, रन्न वन्न काउसग लेस्यु जी।। समभाव शत्रु नई मित्र सु, संवेग शुद्ध धरस्युजी । ध.।२। संसार नो संकट थकी, छूटिस जिण अवतार जी। धन्य समयसुन्दर ते घड़ी, पामिस भव नउ पार जी । ध.।३। _ मनोरथ गीतम् ___ ढाल-जगर सुदरसन अति भलउ अरिहंत देहरई आविनई, प्रतिमा नई हजूर । चारित फेरी ऊचरू, आणी आणंद पूर ॥१॥ ते दिन मुझ नई कदि हुस्यह, थाऊँ साधु निग्रंथ । चारित फेरी ऊचरूँ* पालु साधु नउ पंथ ॥२॥ ते०॥ आपण पइ जाऊँ विहरवा, सूझतउ लू आहार । ऊँच नीच कुल गोचरी, लेऊँ नगर मझार ॥३॥ ते०॥ माया ममता परिहरी, करूं उग्र विहार । उपगरण कांधे आपणइ, न लू नफर कि वार ॥४॥ते०॥ आपउ निंदू आपणउ, न करूँ परताति । चारित ऊपर खप करूँ, दिन नइ वलि राति ॥५॥ ते०॥ * परिगहउ सगल उ परिहरूँ। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार मंगल गीतम् ( ४८१) लालच लोभ करूँ नहीं, छोडूं जीभ नउ स्वाद । सूत्र सिद्धान्त भएँ गण, न करूँ परमाद ॥६॥२०॥ दूषम कालइ दोहिलउ, अधिकउ पंथ एह । वर्ष मास दिन जो पलई। तो पण मलउ तेह ॥७॥ तै०॥ एह मनोरथ माहरउ, फलीजो करतार । समयसुन्दर कहई जिम करू, हूं सफलउ अवतार ॥८॥०॥ चार मंगल गीतम् अम्हारइ हे आज वधामणा, सहेली हे गावउ मंगल च्यार । अम्हा०। पहिलउ हे मंगल माहरइ, सहेली हे गावउ अरिहंत देव । अम्हा। तित्थंकर त्रिभुवन तिलो, कर जोड़ी हे करि सुरनर सेव । अम्हा०।११ बीजउ हे मंगल माहरइ, सहेली हे गावउ सिद्ध सहाग । अम्हा। सिद्ध शिला ऊपर रह्या, जोयण नइ हे चउवीसमई भाग। श्रम्हा०।२। तीजउ हे मंगल माहरइ, सहेली हे गावउ साधु निनथ। अम्हा। | मास पाख दिन जउ पलउ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८२ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ज्ञान दर्शन चारित करी, जे साधइ हे मुगति नउ पंथ ! अम्हा०।३। चउथउ हे मंगल माहरइ, सहेली हे गावउ श्री जिन धर्म । अम्हा०। भगवंत केवलि भाखियउ, . __ भवियण ना हे भांजइ मन नामर्म। अम्हा०।४। च्यारे मंगल चिरजया, ___ सहेली हे करइ कोड़ कल्याण । अम्हा। समयसुन्दर कहइ सांभलउ, पणि गायइ हे ते तो चतुर सुजाण । अम्हा०।५। चार मंगल गीतम ढाल-महावीर जी देसणा ए, एहनी श्री संघ नइ मंगल करउ ए, मंगल चार परम के । अरिहंत सिद्ध सुसाध जी ए, केवलिभाषित धरम के। श्री०।१ पहिलु मंगल मनि धरु ए, विहरंता अरिहंत के। भविक जीव प्रतिबोधता ए, केवल ज्ञान अनंत के । श्री०।२। बीजउ मंगल मनि धरु ए, सिद्ध सकल सविचार के। आठ करम नउ क्षय करी ए, पहुँता मुगति मझारि के। श्री०।३। त्रीजु मंगल मन धरु ए, सूधा साध निग्रंथ के । निर्मल ज्ञान क्रिया करी ए, साधई मुगति नउ पंथ के। श्री०.४। चरथु मंगल मन धरु ए, श्री जिनधर्म उदार के । चिंतामणि सुरतरु समउ ए, समयसुन्दर सुखकार के। श्री०।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार शरणादि गीतम् चार शरणा गीतम् राग - आसाउरी सिंधुड़उ मुझ नइ चार शरणा हो जो, अरिहंत सिद्ध सुसाधो जी। केवल धर्म प्रकासिय, रतन अमोलिक लाधो जी । मु० | १ | चिहुँ गति ता दुख छेदिवा, समरथ सरणा एहो जी । पूर्वे मुनिवर जे हुआ, तेा किया सरणा तेहो जी । मु०|२| संसार मांहे जीवसुं तां सीम सरणा चारो जी । गणि समयसुंदर इम कह, कल्याण मंगलकारो जी | मु० | ३ | अठारह पाप स्थानक परिहार गीतम् राग - आसाउरी ( ४८३ ) पाप अठारह जीव परिहरउ, अरिहंत सिद्ध सुसाखो जी । लोयां पाप छूटिय, भगवंत इणि परि भाखो जी । पा० | १ | श्रव कषाय दुबंधना, वलि कलह अभ्याख्यानो जी । रतिरति पेसुन निंदा, माया मोस मिथ्या ज्ञानो जी । पा०|२| मन वच काये किया सहु', मिच्छामि दुक्कडं तेहो जी । गणि समयसुन्दर इम कहइ, जिन धरम मरमो एहो जो । पा०|३| Jain Educationa International चौरासी लक्ष जीव योनि क्षामणा गीतम् राग - आसाउरी लख चउरासी जीव खमावई, मन धरि परम विवेको जी । मिच्छामि दुक्कडं दीजियs, त्रिकरण सुद्ध प्रत्येको जी | ल० | १ | १ इ भव परभव जे किया । For Personal and Private Use Only Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८४) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि सात लाख भू दुग तेउ वाउ, दस चउद वन नाभेदो जी। पट विगल सुर तिरि नारकी, चार चार चउद नर वेदोजी। ल०।२। मुझ वार नहीं छई केह सँ, सहु मुंजई मैत्री भावो जी। गणि समयसुन्दर इम कहइ, पामिय पुण्य प्रभावो जी। ल०।३। अंत समये जीव निर्जरा गीतम् ___राग-आसाउरी इण अवसर करि रे जीव सरणा, ध्यान एक भगवंत का धरणा ॥ ३० ॥१॥ माया जाल जंजाल न परणा, अरिहंत अरिहंत नाम समरणा ॥ इ० ॥२॥ वलि दोहिला नर भव अवतरणा, समकित बिन संसार मइ फिरणा ॥ इ० ॥३॥ माल मलूक महल मन हरणा, साथइ नहीं आवइ इक तरणा ॥ ३० ॥४॥ साते खेत्रे वित वावरणा, अथिर आथि एता उगरणा ॥ ३० ॥५॥ त्रुटी नाड़ि न को काज सरणा, करि सकइ तउ करि पहिली सवरणा॥ इ० ॥६॥ मरण तणा मत प्राणे डरणा, ए जायइ देखि लघु वृद्ध तरुणा ॥ ३० ॥७॥ आप Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार ४७ दूषण सज्झाय (४८५ ) अणसण अपणइ मुखि ऊचरणा, सूरवीर साहत आदरणा ॥ ३० ॥८॥ पाप अठार दूर परिहरणा, सहु सु मिच्छामि दुक्कड़ करणा ॥ ३० ॥६॥ समयसुन्दर कहइ पंडित मरणा, संसार समुद्र थी पारि उतरणा ॥ ३०॥१०॥ आहार ४७ दूषण सज्झाय ढाल--चउपई नी माध निमित्त छजीव निकाय, हणतां आधा करमी (१) थाय । एहवउ ल्यई नहीं जे आहार . ते कहियइ सूधा अणगार । १। लाडू चूरण अगनि तपावि, ___आपइ उद्दसक (२) प्रस्तावि । ए०।२। आधा करमी नउ कण मिलाइ, ते अनपूति दूषण (३) अटकलइ । ए०।३। साध असाध निमित्त रंधाय, एकठउ अन्न ते मिश्र (४) कहाय । ए०।४। साध आया विहरविसि एह, राखी मकइ थापना (५) तेह ।ए०।५। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि काज किरियावर पहिलउ पछई, जति निमित्त करइ प्रावृत्त (६) अछई | ए० | ६ | अजुयालउ करइ गउख उघाड़ि, ( ४८६ ) नाउर दोष (७) दिखाड़ि । ए० । ७ । वेची थी आणी द्यई वस्त, क्रीत दोष (८) काउ अप्रशस्त । ए० ८ 1 ऊली नुं आणी द्यई जेह, पामिच दोष ( 8 ) कहीजड़ तेह | ए० | ६ | वस पालटी नह घर कोइ, तउ परिवर्तित (१०) दूषण होइ । ए० | १० | घर थी उपासर आणी देह, ते अभ्याहत (११) दोष कहे | ए० | ११ | दाचउ ठामउ थामी अन्न, आप ते दूषण उदभिन्न (१२) । ए०१२ | ऊंचाधी नीचु उतारि, यह मालाहत (१३) दोष विचारि । ए० |१३| केहना हाथ थी झूटी दिज, समादिक (१४) ते दोष अछि | ए० | १४ | सामि जीमइ एकट्ट, एक आप आधण माहि अधिक अनकूर, तर ते अनिसिद्ध (१५) | ए० | १५ | साथ निमित्त ते अध्यवपूर (१६) | ए० | १६ | वण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार ४७ दूषण सज्झाय ए सोलह का उदगम दोष, गृहस्थ लमाड़इ रागि के रोस । पण सूझतउ विहरावर जोइ, तेहनई लाभ अनंता होइ । ए० | १७ | हुलरावर राखइ वली धात्री (१७) दोष काउ केवली | ए० | १८ | संदेसा कह कहर नागइ सम्म भिक्षा ल्यइ ते दूती (१८) कर्म्म । ए० | १६ | जोतिष निमित्त प्रजु जइ नित्त, यह आहार ते दोष निमित्त (१६) | ० | २० | जाति प्रकासी ल्यइ आहार, जीव (२०) दूपण ते निरधार | ए० | २१ | दाता नउ श्रीतउ जे कोइ, बाल ( ४८७ ) तसु प्रसंसवणी मग (२१) होइ । ए०|२२| वैद्य पशु करs पिण्ड निमित्त, दोष विकिच्छा (२२) जाउ चित्त । ए० | २३ | क्रोध (२३) मान (२४) माया (२५) नइ लोभ (२६), करी पिण्ड ल्यड़ न रहइ सोभ | ० | २४| अन्नदाता नउ पहिली पछइ, दूषण छ । ए० | २५ | संस्तव (२७) करतां विद्या (२८) मंत्र (२६) प्रजुंजी लेह, केवल बेउ दोष कहेई । ए० | २६। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८८ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि वसीकरण (३०) नइ चूरण (३१) देइ, अन पाणी मन वंछित लेइ । ए०।२७। गरभ पाडइ ते तउ मूल कर्म (३२), _अन पाणी ल्यइ महा अधर्म । ए०।२८। ए सोलह उपजावइ जती, . संजम नी खप नहीं छइ रती । पणि ते आगलि थास्यइ दुखी, टालइ दोष ते थायइ सुखो । ए०।२६। आधाकरमी संकित (३३) ग्रहइ, जल प्रमुख प्रक्षित (३४) लहई । ए०।३०। सचित परि मूक्युं अन्न पाण, विहरइ ते निक्खित्त (३५) अजाण । ए०।३१॥ फासू ऊपरि धरचउ सचित्त, ते पिण्ड पिहित (३६) दूषण नित्त । ए०३२। एक ठाम थी बीजइ ठामि, घाल्यउ ल्यई साहरिय (३७) सुनाम । ए०।३३। बालवृद्ध अयोग्य नउ दत्त, दायक दूषण (३८) काउ अजुत्त । ए०३४। सचित अचित बे भेला कीया, मिश्र दोष (३६) लागइ ते लीयां । ए०३॥ फासू पूरु प्रणम्यु नहीं, अपरणित (४०) दृषण जाणउ सही। ए०३६। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार ४७ दूषण सज्झाय वसादि के करि खरडच अन्न, विहरइ लित दोष (४१) धरमउ मन्न । ए० |३७| विहरतां थी करण भूमि नखाय, ते छर्द्दित दूषण (४२) कहिवाय | ए० | ३८ | दस एषणा ना दूषण कथा, साध तीए सूधा संकादिक बिहुँ नह उपजइ, . दायक ग्राहक नइ ते जइ | ३६ | खीर खंड घृत संजोजना (४३), धन करि नह जीमइ जे एक मना |४०| संजम नउ निरवाहण थाय, तेही अधिक प्रमाण (४४) कहाय । ४१ । सखर आहार वखाणइ घणु, जिम तर दूषण अंगार (४५) तणुं । ४२ । कव खोड़इ भुंडउ आहार, धूम दोष (४६) तण अधिकार | ४३ | वेयण प्रमुख छ कारण विना, लेतां दोष अकारण (४७) तथा । ४४ । मांडलि ना ए दूषण पंच, तेह तणउ बोल्यउ पर खंच । स्वाद तणउ जे करिस्यइ त्याग, जेहनइ मनि साचउ वयराग ॥४५॥ Jain Educationa International सरदह्या । (४८६) For Personal and Private Use Only Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६० ) समयसुन्दरकृतिकुप्चमाञ्जलि उदगम दोष ए सोलह कह्या, अपादान पणि सोलह लह्या । दस एषणा ना कह्या केवली, पांच दुषण मांडलि ना वली ।४६। सगला मिलि सइंतालीस दोस जिण सासण माहें परिघोष । साधनइ जोइयइ सूध आहार, श्रावक नइ साचउ व्यवहार ।४७/ वत्तच्चार सुरा गो मंस, ए दृष्टांत कह्या अप्रशंस । भद्रबाहु स्वामी नी किद्ध, पिण्ड निर्यक्ति मांहे प्रसिद्ध ।४। रूप वर्ण बल पुष्टि नइ काज, आहार निषेध्यउ जु श्री जिनराजि । ज्ञान दर्शन चारित्र निमित्त, देह नइ अउठंभ घइ समचित्त ।४६। तर्या तरइ नइ तरिस्यइ तेह, सूझता नी खप करिस्पई जेह । तेहनइ वंदना कर त्रिकाल, जे श्री जिन आज्ञा प्रतिपाल १५० संवत सोल एकाणु समइ, सझाय कीधी सहु नइ गमइ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपदेशिक गीतानि (४६१) श्री खंभायत नगर मझारि, खारुयावाडइ वसति अपार ॥५१॥ दीवाली दिन आणंद पूर, श्री खरतर गच्छ पुण्य पडूर । मेघ विजय शिष्य नइ आग्रहइ, समयमुन्दर ए सझाय कहइ ।५२। इति श्री आहार ४७ दोष सज्झाय । 0 हीयाली गीतम् कहिज्यो पंडित एह हियाली, तुम्हे छउ चतुर विचारी। नारी एक त्रण अक्षर नामे, दीठी नयर मझारी रे । क.१। मुख अनेक पण जीभ नहीं रे, नर नारी सुराचइ । चरण नहीं ते हाथे चालइ, नाटक पाखे नाचइ रे । क.।२। अन्न खायइ पानी नहीं पीवइ, तृप्ति न राति दिहाड़इ । पर उपगार करइ पणि परतिख', अवगुण कोडि दिखाडइ । क.।३। अवधि आठ दिवस नी आपी, हियइ विमासी जोज्यो। समयसँदर कहइ समझी लेज्यो,पणि तेसरिखा मत होज्यो।क.।४। 6 हीयाली गीतम् पंखि एक वनि ऊपनउ, आव्यउ नयर मझार । आँखडली अणियालड़ी जी हो, देखइ नहिंय लगार ।। १ पाणि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६२ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि हरियाली रे चतुर नर हरियाली रे, सुंदर नर जी हो कहिजो हियइ विमासि । साचा पांच कारण कह्या जी हो, कहइ तेहनइ साबासि । ह.।२। चांचा सदा चरतउ रहइ जी हो, वमन करइ आहार । राति दिवस भमतउ रहइ जी हो, न चढइ नर वर पार । ह.।३। भूखउ बोलइ अति घणु जी हो, बोल्युनवि समझाय । नारी संघातइ नेहलउ जी हो, विनु अपराध बंधाय । हा४। ते पणि पंखी बापड़उ जी हो, प्रमदा पाड्यउ पास । समयसुंदर कहइ तेभणीजी हो,नारी नउम करिस्यउ विश्वासरीह.॥ हीयाली गीतम् राग-मिश्र एक नारी वन मांहि उपन्नी, आवी नयर मझारि । पातलड़ी रूपइ अति रूयडी, चतुर लोक लेइ धारी रे ।। कहिज्यो अरथ हियाली केरउ, वहिलउ हियइ विमासी। विनतवंत गुणवंत तुम्हारी, नहिं तउ थास्यई हांसी रे। आ.क.। काज पियारइ देह कमावइ, नयण बिना अणियाली। सामल वरण सदा मुख सोहइ, जल पीवइ वृष टाली रे । क. ।२। मुखि नवि बोलई मस्तकि डोलइ, वचन शुभाशुभ जास। साजण दूजण पासि रमंती, दीठी लील विलास रे। क.।३। ए हीयाली हियई विमासी, कहज्यो चतुर सुजाण । समयसुन्दर कहइ जेम तुम्हारु, कीजइ घणु वखाण । क.।४। २ बेसास Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपदेशिक गोतानि सांझी गीतम् ढाल-गुरु जी रै बधामणदु-एहनी सांझि रे गाई सांझी रे, म्हारी सांझी हुया रंगरोल रे। संघ सहु को हरखियउ, वारु दीधा नवल तंबोल रे । सां.।१। गुण गाया अरिहंत ना, वलि साध तणा अधिकार रे। गुणतां भणतां गावतां, सांभलतां हरख अपार रे। सां.२। घरि घरि रंग बधामणा, कोइ घरि घरि मंगलाचार रे। घरि घरि आणंद अति घणा,श्री जिन शासन जयकार रे। सां.३। सांझी गीत सोहामणा, ए मई गाया एकवीस मारे। समयसुंदर कहइ संघ नइ, नित पूरवउ मनह जगीस रे । सां.।४। राती जागी गीतम राग-धन्याश्री गायउ गायउ री राती जगउ रंगइ गायउ । मन गमती मिलि सहिय समाणी, मनगमतउ गवराज्यउरी। रा.१॥ देव अनइ गुरु ना गुण गाया, दोहग दरि गमायउ । सफल जनम समकितथयउ निरमल,भवियण केमनभायउरी। रा.२ चतुर सुजाण सुण्यउ इक चित्ते, भलउ भलउ भेद सुणायउ। पुण्यवंत श्रावक परिघल चित, तुरत तंबोल दिवायउ री । रा.३॥ गीत पंचास अनोपम गाय, आणंद अंगि न मायउ । चतुर्विध संघथयउ अति हर्षित, समयसुन्दर गुण पायउ री । रा.४। * पंचवीसो रे ॥ जगदीशो रे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि (१) तृष्णाष्टकम् अच्छंदकविवादे त्वं भज्यमानं तु नाऽभनक । वीरोक्तिं कृतवान् सत्यां तद्धन्यं जन्म ते तृण ॥१॥ साधुचतुर्व्यथोद्भूत--पापशुद्धिकृते तृणम् । पुनः पुनर्बलत्याशु कृशानौ जनसाक्षिकम् ॥२॥ राज्यर्द्धि त्यक्तवान् सर्वां निःस्पृहः करकण्डुराट् । परं त्वां तृण नामो च द्वालभ्यं भुवि ते महत् ।।३।। अहो ते तण माहात्म्यं विवादे पतिते त्वयि । सत्याय मस्तके न्यस्ते तत्क्षणं भज्यते कलिः ॥४॥ कृते पंचामते भोज्ये ताम्बूले भक्षिते तण । वक्त्रशुद्धिकरन्तु त्वं वरांगस्थिति तन्महत् ॥५॥ अहो ते तृण सौभाग्यं शर्कराभः समं ततः । अन्तरालिंग्यसे स्त्रीभिर्यथा सौभाग्यवान् नरः॥६॥ तणशक्तिरहोदर्भ-तृणझाटेन मन्त्रतः दुष्टस्फोटकभूतादि दोषा यांति यतः क्षयं ॥७॥ छाया सोपरिस्थस्त्वं दंतस्थं युधि जीवनम् । गो-जग्ध-मसि-दुग्धं तदुपकारि महत् तृण ॥८॥ विद्वद्गोष्टिविनोदेषु तृष्णाष्टकमचीकरत् । श्रीविक्रमपुरे रंगागणिः समयसुन्दरः ॥६॥ इति श्री समयसुन्दरोपाध्याय कृतं तृणाष्टकम् । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजोष्टकम् (४६५) (२) रजोष्टकम् देवगुर्वोरिव शेषां शीर्षचां स्थापयन्त्यमी । हस्तेन हस्तिनो हर्षादहो ते धूलि मान्यता ॥१॥ स्वस्ति श्रीमति लेखेपि यत्नतः प्रेषितेपि च । परं सिद्धिस्तवाधीना शक्तिस्ते रज इदृशी ॥२॥ जगदाधारभूतेन जलदेन पुरस्कृताम् । वातेनोढां निरीक्ष्य त्वां धनाशा जायते नृणां ॥३॥ सर्वसहा प्रश्रतित्त्वात्मद्यमानं पदैरधः । न कुप्यसि कदापि त्वं रजस्ते शांतिरुत्तमा ॥४॥ यस्या नाम पदाधस्त्यां त्वां लात्वा रविवासरे। मस्तके क्षिप्यते मंत्रात् सा स्त्री वश्या रजो नृणाम् ॥१॥ गालिदाने न रुड् लज्जे यत्र स्वेच्छा कृतं सुखम् । रजः पर्व यतो जज्ञ तन्मान्यं कस्य नो रजः ॥६॥ रथ्यासु रममाणानां शिशुनां पांसुशालिनाम् । धूले त्वं स महापि शृङ्गारादतिरिच्यसे ॥७॥ अप्रार्थ्याप्यनभीष्टापि सुलभापि पदे पदे । अहो ते धूलि माहात्म्यं लक्ष्मीरित्यभिधीयसे ॥८॥ श्रीमद्विक्रम सदेंगे विद्वद्गोष्टिषु नोदितः । रजोष्टकमिदं चक्र शीघ्र समयसुन्दरः ॥६॥ इति श्री समयसुन्दरोपाध्याय कृतं रजोष्टकम् । १ सौभाग्यं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६६ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि (३) उद्गच्छत्सूर्यबिम्बाष्टकम् चतुर्यामेषु शीता यामिनी कामिनी किमु । तापाय तपनोद्गच्छद्धिम्बमङ्गोष्टिकां व्यधात् ॥१॥ दिनश्रीधिकृता यांती रुष्टा रात्रि निशाचरी । वन्हिज्वालावलीमुश्चतीव भानुप्रकाशतः ॥२॥ प्राचीदिगप्रमदा चक्र विशाले भालपट्टके । बालारुणरवेर्बिम्बं चारुसिन्दूरचन्द्रकम् ॥३॥ पश्यन्त्या वदनं प्रोची पमिन्यां दपिणेऽरुणः । प्रवालाधररागेण रविबिम्बमिव प्रगे ॥४॥ प्रतीच्याऽभिमुखं क्रीडोच्छालनाय नवाऽरुणः। प्राचीकन्याकरस्थः किं रक्तधु रत्नकंदुकः ॥५॥ जगद्ग्रसित्वा पापिष्ठः क्व गतोद्धांत राक्षसः। तं द्रष्टुमिति बालार्को दीपिका दिन भूभुजः ॥६॥ प्राचौदिगनकीव्योमवंशाग्रमधिरोहति । कृतरक्ताम्बराशीर्ष न्यस्तार्कस्वर्णकुम्भभृत् ॥७॥ त्वत्कीर्ति कान्तया दधे बालार्कस्तप्तगोलकः । दिव्याय स्वेच्छया भ्रान्त्या कुसतीत्वहृते नृप ॥८॥ रवेः प्रकाशं विंबं चारक्तं दृष्ट्वा प्रगे रयात् । कौतुकादष्टकं चक्र गणिसमयसुन्दरः ॥६॥ इति श्री समयसुन्दरोपाध्याय कृतं उद्गच्छत्सूर्यबिम्बाष्टकम् ॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस्याष्टकम् Jain Educationa International (४) समस्याऽष्टकम् प्रस्नात्रकृते देवा नीयमानान् नभे घटान् । रौप्यान् दृष्ट्वा नराः प्रोचुः शतचन्द्रनभस्तलम् ॥ १ ॥ रामया रममाणेन कामोद्दीपनमिच्छता । प्रोक्तं तचारु यद्येवं शतचन्द्रनभस्तलम् ॥ २ ॥ सर्वशेन समादिष्टं साद्ध द्वीपद्वये वम् । द्वात्रिंशताधिकं भाति शतचन्द्रनभस्तलम् ॥ ३ ॥ हस्त्या रोहशिरस्त्राणश्रेणिमालोक्य संगरे 1 पतितो विह्नलोऽवादीत् शतचन्द्र नभस्तलम् ॥ ४॥ दीपान दीपालिकापवें कृतानुच्चैस्तरं निशि । वीक्ष्य विस्मयतो ज्ञानं शतचन्द्रनभस्तलम् ॥ ५ ॥ मुक्तधच रपूरवाद्भ्रान्तदृष्टिरितस्ततः । अपश्यत्कोऽपि सर्वत्र शतचन्द्रनभस्तलम् ॥ ६ ॥ दर्पणश्रेणिमालोक्य सौधाभ्र लिहतोरणे 1 स्माह सुप्तोत्थितः कोपि शतचन्द्रनभस्तलम् ॥ ७ ॥ नमः प्रकाशवद्भाति यथैकेन खरांशुना । तथा सखि कदापि स्यात् शतचन्द्रनभस्तलम् ॥ ८ ॥ यत्र तत्र जलस्थाने दृश्यते जलचन्द्रमाः । तत्कि सखि संजातं शतचन्द्रनभस्तलम् ॥ ६ ॥ १ इदं द्वात्रिंशदायुक्त ( ४६७ ) For Personal and Private Use Only Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६८) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि परस्परं बुधोल्लापे .. शतचन्द्रनभस्तलम् । समस्यामिति सम्पूर्णां चक्र समयसुन्दरः ॥१०॥ .. इति समस्याष्टकम् । अस्यते राहुणा नित्यमेक एकहि मत्प्रियः । सृष्टमासात्तदा श्रेष्ठ शतचन्द्रनभस्तलम् ॥१४॥ होनाधिककलाभेदाद्विविधो दृश्यते विधुः । वत्तीत सुभगं तत्के शतचंद्रनभस्तलम् ॥१५॥ न पश्येत्पुण्यहीनो हि निधानं पुरतः स्थितम् । किमन्धः शतसूर्य वा शतचंद्रनभस्तलम् ॥१६॥ स्वयं लिखित अन्य प्रति में अधिक ] न पश्या शतसूर्य का लिखित नेमिस्नात्रांबुकल्लोलैः क्षणं मोरोस्तदाऽभवत् । , रामबोधितसिंहैण शशशृङ्ग पयोनिधिः ॥३॥ पृथ्वीकुक्षि भवा वयं बिलग्रहास्त्वं चासिपृथ्वीपतिः। तस्माद्विशपयाम इत्यनुदिनं संत्राशिनः शौण्डिकाः ।। निर्माथा इव नाथमन्तु रहिता मार्यामहे भिल्लकैः । तस्माद्राउलभीमभूपकृपयाऽस्मान् रक्ष रक्ष प्रभो ! ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस्यापूर्तिश्लोकानि ( ४६६ ) नास्माभिविंदधे कदापि किमपि क्षेत्रादिविध्वंशनं । नो चौयं न च सार्थलुणनमपि त्याज्यं पुनर्नेतरत् ॥ नीरक्षीरविवेचके नरपते रामावतारे त्वयि । ग्रीवामोटनमारणं किमिति नः पूत्कर्म हे शौण्डिकाः॥२॥ पंजायां नीनितो. धर्मो धर्माद्राज्यसमुन्नति । ततस्त्वं वसुधाधीश ! नीतिधर्म प्रपालय ॥३॥ रघुवंशोद्भवत्वेन रामचन्द्र इवामृतः । । श्रीशाहे न्यायधर्माभ्यां राज्ये पालयसि प्रभो! ॥३॥ जय जयेति वदन्ति तवाशिष, शुकमयूषपिकप्रमुखाः प्रभो ! जगति जीवदयाप्रतिपालनात् यदिह जंतुगणाः सुखिनः कताः॥शा श्रीशाहे सूर्यदेवस्य पाणिनाथ प्रयच्छतः। तव हस्तार्कयोगोयं सर्वसिद्धिकरोऽभवत् ॥६॥ सौम्य दृष्टिस्त्वं स्वामिन् क्र राक्रान्तैपि चेद्भवेत। तथापि सर्वकार्यस्य सिद्धिः साधयति स्फुटम् ।।७।। चतुर्मखोपि नो ब्रह्मा जटाभृन्न च शङ्करः।। श्रीधरो न च दाशार्हः स श्रीआदिजिनोऽवतात् ॥१॥ चतुरशीतिगणोपि यदीश्वरः, स्मरहरोपि च यत्पुरुषोत्तमः। विलसदेकमुखोपि भवान्तकृत तदतिचित्रमिदं प्रथमप्रभो ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५००) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि त्वद्यशःपुजशुभ्रश्रियाः युद्धया पश्चिम भोधिनीरे निमअनमपि। सम्प्रमाष्टुंनिजं नीलिमानं प्रगे पूर्णिमेन्दुःप्रभोपापि तवतुलम् ।। मेरु धैर्यात् क्षमातः क्षितिरहमापि गाम्भीर्यतस्तेजसायं । सूर्यो जिग्ये यथेह त्वमपि सुत तथा तेन वकश्रियात: (१) ॥ प्राकाहभधेहि (१) दुःखादुदधिरिति विधु गर्जितैः प्रीणयत्युत् । प्रेक्षे यल्लोकवाक्यं विदितमिदमिमा पंचमिर्नेव दुःखाम् ॥४॥ आदित्यो निजतेजसा सुवचसा चन्द्रोरिदृष्टया कुजो। ज्ञानाधिक्यवशाद् बुधो गुरुरपि स्पष्टं सुतचोक्तितः ।। शुक्रो विक्रमतः शनि प्रकुपितो राहुश्च केतुर्ग्रहः । प्रप्यात्मा जिन...... 'सर्व ग्रहात्मा चासि तत् (१) ॥१॥ लक्ष्मो वाचि पदं विभक्तिरहितं किं तद्विशिष्टार्थकत् । जेता रंजनमाय प्रमुदिता नारायणं का गताः॥ कः कसं यमसमनि प्रहितवान् किं वष्टि शिष्टं नरः। के संत्यत्र तपोनिधी गणधराः सौभाग्यभाग्याधिकाः ॥२॥ श्रीविझसा मंबस्त वशः। मज्याभिधादि पद मन्मथ पक्षिजातसा। हर्ष सुष्टुपदशंकररिप्रयोगाः ॥ द्वन्द्व विधाय वद कोविद कीशास्ते । के सन्ति सम्प्रति पया जनभापमुख्याः ॥ इदं पयद्वयं पराभ्यर्थना कृत्वा दपमस्ति । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यासीया दुष्काल वर्णन छत्तीसी ( ५०१ ) सत्यासीया दुष्काल वर्णन छत्तीसी गरुई' श्रीगुजरातदेश, सगलां मांहे दाखी; धरम करम परघानर, लोक मुख मीठु भाखी । सुखी रहइ सरीर, साग तो सखरा भावइ ऊँचा करइ श्रावास, लाख कोडि द्रव्य लगावइ । गेहणी देह गणै भरइ, हँसी' लोकतणो हीयउ; 'समयसुन्दर' कहइ, सत्यासीय इसड (ह) पड्यउ अभागीयउ । १ । जोयउ टीपणउ जांण, साठि संवच्छरि साथइ, गुराचार शनिचार, हुंता ते लीधा हाथइ । कपूरचक्र पिण काढी, जांय ज्योतिषीए जोयउ आराधक थया अंध, खिजमति फल सगलउ खोयउ । निपट किur जाण्यउ नहीं, खरो शास्त्र खोटो कीयउ; 'समय सुन्दर' कहर सत्यासीयउ, पढ्यो अजांण्यउर पापीयउ | २ | महियलि न हुवा मेह, हुवा तिहां थोडा हुआ; खब्धा पढ्या रझा खेत्र, कलंबी नोतरिया कुभा । कदाचि निपनो केथ, कोली ते लीधुं कापी; घटा करी घनघोर, पिण बूठो नहीं पापी । खलक लोक सहु खलभन्या, जीवई किम जलवाहिरा; 'समयसुन्दर' कह सत्यासीया, ते क्रतूत सहूर ताहरा | ३ | पाठ भेद:- १ रूड़ी, २ सुबिवेक, ३ होंसि, ४ असइ ५ अचिंत्यो, ६ सहि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०२) ..समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि : गदह गाइ नई भेइसि, ऊँट छाली नइ एवड; .. अम्हनइ ए आधार, तियां धणीयां नै त्रेवड । चरिवा मूक्या च्यारि, निजीक निज नगरनी सीमइ; खड त्रणा पिण खाइ, कदाचि ते जीव कीमइ। तेहवइ धाडि कोलीतणी, सगला लेइ१० सामठा; 'समयसुन्दर' कहइ सत्यासीया; तु तो पड्यउ जठा.तठा ।४। लागी लुटालूट, भयै करि मारम भागा; लतो न मूकड लंठ, नारी नरनिं१ करइ नागा। बइयर २ झाले बंदि१३, मांटोनइ मुह कडा मारइ; बंदीखानइ बंधि ऊन्हीं, घिसी उपरि झारइ । . दोहिलउ दंड माथइ करी, भोख मंगाधि भीलड़ा; 'समयसुन्दर' कहइ सत्यासीया, थारो कालो मुंह पगनीलडा।। भला हुंता भूपाल, पिता जिम पृथ्वी पालइ; नगरलोक नर-नारी, नेहसु नजरि निहालइ । हाकिमनइ हुबो लोभ, धान ले पोतइ धारहः महामुहगा करि मोल, देखि वेचइ दरवारइ । मसकीन लोक पामइ नहीं, लेतां धान'५ लागइ धक्का; . 'समयसुन्दर' कहइ सत्यासीया, तई कुमति दीधी तिका (७) ७ ना, ८ नीआमोबडु, ६ चारि, १० लेगया, ११ नै, १२ बइरनि, १३ बंद, १४ उन्हां ( उभी) थी (थइ), १५ घबना, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यासीया दुष्काल वर्णन छत्तीसी धान्यादि के भाव सँठि रूपयै सेर, मुग अढी सेर माठा; साकर घी त्रिण सेर, भुण्डौ गुलमाहि भाठा । चोखा गोहुं च्यार सेर, तर तो न मिले तेही; बहुला बाजार बाड१६, अधिक छा हुवै एही । शालि दालि घृत घोल, जे नर जीमता सामठउ; 'समयसुन्दर' कहइ सत्यासीया, तई खवराव्यो बावटउ १७ |७| अपान लहै अन्न, भला नर थया भिखारी; मूकी दीघउ मान, पेट पिए भरइ न भारी । पमाडीयाना पांन के बगरौ नई कांटी : खावै खेजड छोड, शालितूस सबला वांटी । ... अन्नकण चुप के इंटिमें, पीयइ इंटि पुसली भरी; 'समयसुन्दर' कहइ सत्यासीया, एह अवस्था तई करी || ( ५०३ ) मांटी मुकी बहर २, मुक्या बहरै पणि मांटी; बेटे मुक्या बाप, चतुर देता जे चांटी । भाइ मुकी भइण, भइणि पिण मूक्या भाइ अधिक व्हालो अन्न, गइ सहु कुटुम्ब सगाइ । घरवार मुकी माणस घणा, परदेशड़ गया पाधरा; 'समयसुन्दर' कह सत्यासीया, तेही ११ न राख्या श्रधरा ॥ ६ ॥ १६ पाड, १७ बावठो, १ = पमाडिया, १६ कुरण, २० बैरि (बयरि), २१ तह इहां नव राषा आधरा । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५०४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि wimmaavaanawar आपणा वाल्हा आंत्र२२, पच्या जे आपणां पेटा; ' नाण्यो नेह लिगार, बापड पिण बेच्या बेटा। लाधउ जतीए लाग, मँडिनई माहह लीधा हुंती जितरी२३ हंस, तीए तितराहिज कीधा । कूकीया२४ घणु श्रावक किता, तदि दीक्षा लाम देखाडीया 'समयसुन्दर' कहइ सत्यासीया, तई कुटुम्ब विछोहापाडीया॥१॥ खातां खूटा गरथ, पछइ घर बेच्या परगट; बलि ग्रहणा दीया बेचि, किमही रहह घरनी कुलबट । पणि पसर्यो दुरभिक्ष, कहउ केहीपर कीजह; आपहन को उधारि, सत्त नही सगइ सुणीजह । लाजते भीख लीधो नहीं, मुंहडई पग सजी ममा; 'समयसुन्दर' कहइ सत्यासीया, ते हवाल' ताहरा हुमा ।११॥ तई हींद किया तुरक, विप्र तो मूल विटाल्या; वणिके गइ विगचि, रांक करि लंगरि राख्या। दरसणो दुखिया कीध, जती जोगी सन्यासी जटाधारि जलधारि, प्रगट जे पवन अभ्यासी । अन मात्रइ ए अपामेत, भागां सुस भूखालूए; 'समयसुन्दर' कहइ सत्यासीया, ते तुझ पाप त्रिकालूए ।१२। २२ अत्र, प्रो. २३ जितानि. २४ क्या. १ सणेजइ, सणीने. २ लाजते. ३ मुंद. ४ तेह बाल ५ भणपामते. ६ भूपालए. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यासीया दुष्काल वर्णन छत्तीसी (५०५ ) दुखी थया दरसणी, भूख आधी न खमावह श्रावक न करी सार, खिण धीरज किम थायइ । चेले कीधी चाल, पूज्य परिग्रह परहउ छांडउ; पुस्तक पाना बेचि, जिम तिम अम्हनई जीवाडउ। वस्त्र १२ पात्र बेची करी, केतौक तो काल काढीयउ; 'समयसुन्दर' कहइ सत्यासीया,तुनइ निपट१३ निरधाटीयउ।१३। घर तेडी घणीवार, भगवानना पात्रा भरता। भागा ते सहू भाव, निपट थया वहिरण निरता। जिमता बडइ किमाड, कहै सवार छै केई यह फेरा दस पांच, जती निठ'४ जायई लेई । आपइ दुखह अणछूटतां, ते दूषण सहु तुझ तणउ; 'समयसुन्दर' कहइ सत्यासीया, विहरण नहीं विगुचणउ१५१४ पडिकमणउ पोसाल, करण को श्रावक नाव: देहरा सगला दीठ, गीत गंधर्व न गावइ । शिष्य भणइ नहीं शास्त्र, मुख भूखइ मचकोडइ; गुरुवंदण गइ रीति, छती प्रोत माणस छोडइ । वखाण' खाण माठा पड्या गच्छ चौरासी एही गति; 'समयसुन्दर' कहइ सत्यासीया, कांइ दोधी तई ए कुमति ।११ सुधा. ८ भाषी. ६ थिर. १० नहीं. ११ उद्यत करत विहार, मांड काइ बीजी मांडो. १२ पुस्तक पाना. १३ तीए, १४ नेरि. १५. विगोवरगाउ। १ पछइ माप. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५०६ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि पाटण अम्हदाबाद, खरो सूरत खंभाइत; लाइक लखपति लोक, वणिक पिण हुँता विलाइत । जगडू भीमोर शाह, उठ्यो को नाम उगारइ सबलउ सत्रकार, मांडि महियलि साधारइ । केतक दिवस दीधउ कीए, पिण थिर थोभ न को थयउ; 'समयसुन्दर' कहइ सत्यासीया, तेतई तूं व्यापी गयउ ।१६। मूत्रा घणा मनुष्य, रांक गलीए रडवडिया; सोजो वल्यउ सरीर, पछई पाज मांहे पडिया । कालइ कवण वलाई, कुण उपाडइ किहां काठी तांणी नाख्या तेह, मांडि थइ सगली माठी। दुरगंधि दशोदिशि ऊछली, मडा पड्या दीसइ मूत्रा; 'समयसुन्दर' कहइ सत्यासीया, किण धरि न पड्या कुकुआ।१७) __ जैनाचार्य जो स्वर्गवासी हुएश्रीललितप्रभु सरि, पाटण पूनमिया सुगुरु, प्रभु लहुडीपोसाल, पूज्य बे पीपलिया-खरतर । गुजराती गुरु बेउ, बडउ जसवंत नइ केसव; शालिवाडीयउ सरि, कहूं कितो पूरो हिसव । सिरदार घणेरा संहा, गीतारथ गिणती नहीं, 'समयसुन्दर' कहइ सत्यासीया, तु हतियारउ सालो सही।१८॥ २ पूरो. ३ शाहनी जोडी. ४ बालक. ५ मांड. ६ सद्गुरु । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यासी या दुष्काल वर्णन छत्तीसी (५०७ ) कवि की आप बीती कथापछि आव्यउ मो पासि, तु आवतउ मई दीठउ; दुरबल कीधी देह, म करि काउ भोजन मीठउ। दूध दही घृतघोल, निपट जिमिवा न दीधा; शरीर गमाडि शक्ति, केई लंघण पणि कीधा । धर्मध्यान अधिका धर्या, गुरु दत्त गुणणउ पिण गुण्यउ; 'समयसुंदर' कहइ सत्यासीया,तुन हाक मारिनइ मई हण्यउ।१६। पाटण थकी पांगुरी, इहां अहमदाबाद आयउ; देखी माहरी देह, माच्छ गलबंध' गमायउ। गरढउ गीतारत्थ, गच्छ चउरासी चावउ; श्रावक न करी सार, पिण रहिस्यइ पछतावउ । श्रावक दोष न को सही, मत जांण उ वांक माहरउ । 'समयसुन्दर' कहइ सत्यासीया, ते दूषण सहु ताहरउ ॥२०॥ सहायकर्ता-दानी श्रावकसाबास शांतिदास, परघल अपणां गुरु पोष्या; पात्रा भरि भरपूर, साधनई घणा संतोष्या । उसा पाणि अांणि, वस्त्र पिण भला बहराव्या; सखर कीयो लघु शिष्य, गच्छ पिण गरुयडि पाया। १ बंध. २ ऋतूत. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ( ५०८ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जाल सागर जिके साहमी हूया, सहु तेहनइ संतोषिया; 'समयसुन्दर' कहइ सत्यासीया, तें सागरनै न संतापिया (२१॥ कुंवरजी करमसी रतन, बछराज ऊदो वछियाइत; जीवउ सुखीयो जाण, वलि वीरजी विख्याइतः । मनजी कैसव मेल, साह सूरजी सवायउ; पंचपरवी कीयउ पुन, मास च्यार पांच चलायउ । जिनसागर समवाय जस, हाथीशाह- उद्यम हूयउ; 'समयसुन्दर' कहइसत्यासीया, तांसीम साहमीनको हूप्रउ।२२। नागोरी नामजाद, शाहलकोई सुणोयह वस्यउ ते अहमदाबाद, भलउ प्रतापसी भरणीयह । बडउ पुत्र वर्द्धमान, भलउ तिलोकसी भाई; कीजइ पुन्य क्रतूत, इण परि एह बडाई । सांभले बात सत्यासीया, तुम करे केहनई आकुला; प्रतापसीसाहरी प्रौलमई, दीजई रोटी बाकुला ॥२३॥ पाटणमाहि प्रसिद्ध, मोटउ सांमलदास मारू; जयतारणियउ जाण, विच तिण वावों वारू । तपा जतीनइ तेडि, अन्न वे टंक वहिराव्यउ; सो- सवासो साधु सको, शाता सुख पायउ । दोहिला दुखीया दूषला, सत्रकार दीयउ सदा; 'समयसुन्दर' कहइ सत्यासीया, ताहरो बल न चाल्यउ तदा।२४। ३ किया. ४ जिहनी ५ वि छयाइत ६ सादुलट्टककड. सिं० १६८६ में इनसे गच्छभेद हुआ। इनके आग्रह से कविवर ने १८ नात्रक सझाय रची है। - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यासीया दुष्काल वर्णन छत्तीसी श्रीमाली श्रावक, गच्छ कामती गिरुयउ पूजा करइ प्रधान, चढावह चांपउ नै मरूयउ । दानबुद्धि दातार, पड्यउ ते दुरभित पेखी; खोल्या धानभखार, अन्न द्यह अवसर देखी । दरसणीसहून अन्न, थिरादरे थोभी लीया; 'समयसुदर' कहइ सत्यासीया, तिहां तु नइ धक्का दीया | २५ | सत्यासीय संहार, कीयउ नरनारी केरउ; श्रादाय वरतावि, ढुंढ ढंढेरउ फेरउ । महावीरथी मांडी, पड्या त्रिण वेला पापी; बारवरषी दुःकाल, लोक लोधा संतापी । पणि एकलइ एक त ते कोयउ, स्युं बार वरसी बापडा; 'समयसुन्दर' कहइ सत्यासीया, बारैर लोके न लह्या लाकडा | २६ | ( ५०६ ) अय्यासोया आगमन - इस प्रस्ताव इंद्र, सभा सुधर्मा बइठउ; दीउ अवधि दुःकाल, पाप भरतमई पइठउ । गिरूड़ श्रीगुजराति, निपट दुखी करि नांखो; सीदास साध, सही हुँ न सकु सांखी । तुरत व्यासीय उ तेडिन, ए हुकम इंद्रह कीयउ 'समयसुन्दर' कहइ अय्यासीया, तुरं मार काढि सत्यासीयर |२७| १ वाटइ. २ थारै ३ घणुं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि इंद्रनु लेइ आदेश, आयउ अध्यासीयउ इहाँ; अहमदाबाद आवि, पूछइ कासिमपुरउ किहां । महि वरसाव्या मेह, धान धरती निपजाव्यउ; आणी नदी अथाग', प्रजा लोक धीरज पायउ । गुल खांड चावल गोहुँ तणा, पोठ आणि परगट किया 'समयसुन्दर' कहइ सत्यासीयउ,तुपरहो जा हिव पापीया।२८। आव्या पोठी ऊँट, धान भरि घना गाडा भरचा खंभाइत भार, आंण्या इहां परठी भाडा। सबल थयउ संग्राम, भिडतउ रण माहे भागउ; सत्यासीयउ सत्त छोडि, लालच करि चरणे लागउ । घी तेल मूंग थाइस घणा, घे मुझनै एतउ दूयउ; 'समयसुन्दर' कहइ सत्यासीया, कहइ पडि रहिस अधम्यउ।२६। अध्यासीयइ इहां वेढि, सजी सत्यासीयइ सेती; सत्यासीया सुणि वात, कहिहिक जाइस केती । इंद्र तणउ ए क्षेत्र, भरत दक्षिण ए भणीयइ; निरपराध नर नारि, हा हा पापी किम हणीयइ । निंदा करइ गुरुनी निपट, दया दान मुकी दिया; पापीया पाप पच्या पछी, मइ क्रतूत माहरा किया ।३०। १ अतार. २ पोढ. ३ परघलि. ४ ति रिण माहेवलिभागउ. ५ इहां वहिवेढ; हिववेढि. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यासीया दुष्काल वर्णन छत्तीसी (५११) सत्यासीयउ साहसी, ऊठि बलि सामउ थावइ, पड्यउ न रहई पापीय उ, धांन मुहगउ करि धावइ । अध्यासीयउ अन्न आणि, करइ वलि सुहगा काई; लागी लस्थापत्थि, किस्यु थास्यइ हो सांइ । अन्न पुण्यतणउ संचउ अधिक, लोक जिके करस्यइ लही; 'समयसुन्दर' साचउ कहइ, सुखी तिको थास्यइ सही ।३१। सगलइ हुवउ सुगाल, अन्न चिहुँ दिसिथी आयउ; आप आपणइ व्यापारी, सको अधिकारइ लायउ । बाजरी चउंला मउठ, के के धान सुहगा कीधा; सहगा-मुंहगा सर्व, लोक ते आणी लीधा। नर-नारी नूर वाध्यउ नगरि, चहल-बलाई चहुटइ थई । 'समयसुंदर' कहइ अठ्यासीया, हिव चितनी चिंता गई ।३२॥ मरगी नइ मंदवाडि, गया गुजरातथी नीसरि; गयउ सोग संताप, घणो हरख हुयउ घरिघरि । गोरी गावइ गीत, वली विवाह मंडाणा; लाडू खाजा लोक, खायइ थालीभर भांणा।। शालि दालि घृत घोलसु भला पेट काठा भर्या; 'समयसुंदर' कहइ अध्यासीया,साध तउ अजे न सांभर्या ।३३। ६ उभउ. ७ इहां. ८ काइ लागी लछापछि स्यु. ६ पुत्र . १० धान ।। - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय सुन्दर कृतिकुसुमाञ्जलि श्रावक कहइ सुगाल, सहु धान थया सुंहगा; दरसणी कहै दुकाल, अम्हे जाणां छां मुँहगा । आदरसुँ को अन्न, अजी आप नही अम्हनैः श्रावक पिता समान, ति कहीछह तुम्हनै । दया मया दिल धर्म घरी, श्रावक सार सहु करइ; 'समयसुंदर' कहै अय्यासीया, धीरज तउ सहू को धरइ | ३४ | ( ५१२ ) कहै एम, म करो तुम्ह चिंता मुनिवर; करौ क्रिया अनुष्ठान, तप जप संजम तत्पर । वांचो सूत्र - सिद्धांत, भलउ धरम मारग भाखउ; महावीरनो वेश, रीति रूडीपरि राखउ । वखाण खाण थास्यै वली, श्रावक सार सहु करै, 'समयसुंदर' कहे सत्यासीया, धीरज तउ सहु को धरै |३५| दुरभिद महादुकाल, वरस सत्य । सीयउ बूरो; दीठा घणा दुकाल, पणि एहवउ को न हूबो । सत्यासीया- सरूप, दीठउ मह तेहवो दाख्यउ गया मूत्र गइंद, रह्यौ भगवंत तौ राख्यउ । रागद्व ेष नही को माहरइ, मह ख्याल -विनोदइ ए कीयउ; 'समयसुंदर' कहइ सहु सुखी, कवि कल्लोल आणंद करउ | ३६ | Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यासीया दुष्काल वर्णन छत्तीसी (५१३ ) [२] 'पंचकष्ठि चौपाई ' के दूसरे खंड की छठी ढाल में अकाल का इस प्रकार वर्णन किया है :तिण देसइ हिव एकदा रे, पापी पड्यउ दुकाल । बार बरस सीम बापड़ारे, कीधो लोक कराल । १। वली मत पडिज्यो एहवो दुकाल, जिणे बिछोह्या मावाप बाल, जिणे भागा सबल भूपाल । खातां अन्न खूटी गया रे, कीजइ करण प्रकार । भूख सगी नही केहनी रे, पेट करई पोकार । २। सगपण तउ गिणे को नही रे, मित्राइ गई भूल । को कदाचि मांगै कदी रे, तौ माथे पिडइ त्रिसूल । ३ । मांन मृकि वडे माणसे रे, मांगवा मांडी भीख ।। तउ पिण को आप नहीं रे, दुखीए लीधी दीख । ४ । केई बईयर मूकी गया रे, के मूंकी गया बाल । के मा-बाप मूकी गया रे, कुण पडई जंजाल । ५ । परदेसे गया पाधरा रे, सांभल्यउ जेथ सुकाल । माणस संबल विण मूत्रा रे, मारग मांहि विचाल । ६ । बापे बेटो वेचिया रे, माटी बेची बयर । बयरे मांटी मकीया रे, अन्न न द्यइ ए बयर । ७ । गुखे बैठी गोरड़ी रे, वीजणे ढोलति वाय । पेटनै काजै पदमणी रे, जाचै घर घर जाय । ८। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि जे पंचामृत जीमता रे, खाता द्राख अखोड । कांटी खायै कोरणी रे, के खेजडना छोड । । । जतीयांनै देई जीमता रे, ऊभा रहता आडि । ते तउ भाव तिहां रह्या रे, जीमता जडै किमाडि । १० । दांन न के दीपता रे, सहु बैठा सत छांडि । भोख न द्यइ को भावसुरे, ये तो दुख दिखाडि । ११ । देव न पूजै देहरै रे, पडिकमइ नही पोसाल । सिथल थया श्रावक सहू रे, जती पड्या जंजाल । १२ । रडवडता गलीए मूत्रा रे, मडा पड्या ठाम ठाम । गलिमांहे थइ गंदगी रे, ये कुण नांखण दाम । १३ । संवत सोल सत्यासीयौ रे, ते दो? ए दीठ।। हिब परमेसर एहनइ रे, अलगौ करे अदीठ । १४ । हाहाकार सबल हो रे, दीसै न को दातार । तिण वेला उठ्यौ तिहां रे, करवा काल उद्धार । १५ । अवसर देखो दीजिय रे, कीजै पर उपगार । लखमीनौ लाहौ लीजीय रे, 'समयसंदर' कहै सार । १६ । विशेषशतक ग्रन्थलेखन प्रशस्ति में इस दुष्काल का स्मरणोल्लेख:मुनिवसुषोडशवर्षे (१६८७) गूर्जरदेशे च महति दुःकाले । मृतकैरस्थिग्रामे जाते श्रीपत्तने नगरे॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यासीया दुष्काल वर्णन (५१५) भिक्षुभयात् कपाटे जटिते व्यवहारिभिभृशं बहुभिः । पुरुषैर्माने मुक्त सीदति सति साधुवर्गेऽपि । २ । जाते च पंचरजतेर्धान्यमणे सकलवस्तुनि महये । परदेशगते लोके मुक्त्वा पितृमातृबन्धुजनान् । ३ । हाहाकारे जाते मारिकृतानेकलोकसंहारे। केनाप्यदृष्टपूर्वे निशि कोलिकलुठिते नगरे । ४ । तस्मिन् समयेऽस्माभिः केनापि च हेतुना च तिष्ठद्भिः। श्रीसमयसुंदरोपाध्यायलिखिता च प्रतिरेषा । ५। मुनिमेघविजयशिष्यो गुरुभक्तो नित्यपार्श्ववर्ती च । तस्मै पाठनपूर्वं दत्ता प्रतिरेषा पठतु मुदा । ६ । प्रस्तावोचितमेतत्त श्लोकपटकं मया कृतम् । वाचनीयं विनोदेन गुणग्राहिविदांवरैः । ७ । प्रस्ताव सवैया छत्तीसी परमेसर परमेसर सहु कहइ, पणि परमेसर दीठउ किणइ; तेहनइ आघउ तेडि पूछि जइ, परमेसर दोठउ हुयइ जिणइ । अलख अगोचर लख्यउ न जायइ, निराकार निरजन पण 'समयसन्दर' कहइ जे जोगीसर, परमेसर दीठउछइ तिणई । १। के कहई कृष्ण के कहइ ईसर, के कहई ब्रह्मा किया जिण वेद; के कहई अल्ला सहज कहइ के, परमेसर जू दे बहू भेद । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१६ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि जगति सृष्टि करता उपगारी, संहरता पणि नागइ खेद; समयसुन्दर कहइ हुँ तो मोनु, करम एक करता भ्र वेद । २ । पंखी ऊडि भइ आकासह, मीन कउ मारग कुंग ग्रहई; तारा मंडल कुरा गिड़ कहउ, माथइ करि कुरा मेरु वहह । बेड़ी बि बाहां करि दरियउ, कुंण तरह भावी कुण कहइ; समयसुन्दर कहइ भेद भली परि, परमेसर कउ कुरण लहइ | ३ | वरण अढार छत्रीस पवन छह, सहुनई गुरु निगुरउ नहि कोइ पण आरंभ कर अगन्यांनी, जीव दया विण धरम न होइ । गुरु तउ ते जे सुद्ध परूपई पग मुकइ जड़गा सुरौं जोइ; आप तरहं अवरां नई तारई, समयसुन्दर कहइ सद्गुरु सोइ । ४ । कष्ट करइ पंचागनि साधइ, जाग होम करइ बहु कर्म; जाई अम्मे मुगति पणि जास्यां, ए तउ सगलउ खोटउ भर्म । आगन्या सहित दया पाली जइ, सगलां धर्मनउ एहिज मर्म समयसुदर कहइ दुरगति पडतां यह डी वांहि श्रीजिन धर्म | ५ | गछ चउरासी दीसह गिरुया पिण ते (हुना) भिन्न २ श्राचार; कहउ हा गछनी कीज विधि, नाणी विण न हुयई निरधार । पण गनी करउ किरिया, पणि म करो परतात लगार; समयसुंदर कहइ हुँ इम जाणुं, इण वात मांहई गणउ सकार । ६ । चंद्रगुपत राजा लह्या सुहणा, तिहां चंद्र दीठउ चालणी समांयः ते तउ बात साची दीसह छह भद्रबाहू सामी नउ न्यांन । जिण सासरा मइ गच्छ गछांतर, हुया घणा वली हुस्यइ तोफान; समयसुंदर कहै आप पराउ, गच्छ काठउ ग्राउ जाणि निधान । ७ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ܘ Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्ताव सवैया छत्तीसी (५१७) कुण जाणइ साचउ कुण झूठउ, पूछ्यउ नही परमेसर पास; सूत्र सिद्धांत अक्षर तउ एहीज, पणि जू जूया थयावचन विलास। रागद्वष किरण अरथ मरोड्या किणही कि अरथ न पीछया तास; समयसुंदर कहइ ए परमारथ सहु को जोज्यो हीयइ विमास । ८ । जे धम करिस्यइ ते निस्तरिस्यइ पणि पारकी को मकरउ बात, पणी करणी पारि उतरणी, पुण्य पाप आवस्यइ संघात । साची झूठी मन सरदहरणा दीपावइ सहु को दिन रात, समयसुंदर कहइ वीतराग वचनई मिलइ तिका जइ साची वात ।। संका कंखा सांसउ मकरउ कियउ धरम सहु धूडिं मिलई; सउकि मात साचउदीयउ अोखध पणि सांसइंसुत देह गलइ । अमृत जांणि पाणी पणि पीधइ सर्प तणउ विषवेगि टलइ समयसुंदर कहई आस्ता आणी धर्म कर्म कीजइ ते फलइ ॥१०॥ तपां कहई इरियावही पहिली खरतर कहइ पडि कमियई पछइ, मुंहपति आंचलिया गुरु कडुअा,लुंका कहइ जिन प्रतिमान छ।। स्त्रीनई मुगति न मांनइ हुँबड़ एहवा बोल घणा ही अछ। पणि समयसुंदर कहै सांसउ भांजइ, जउ को केवली पासइ गछइ।११। खरतर तपो आंचलिया पासचंद आगमीया पुनमिया सार; कड्डयामती दिगंबर लँका चउरासी गछ अनेक प्रकार । आप आपणउ गछ' थापइसगला खवउं ठोकि आणी अहंकार; समयसुंदर कहइ कह्या ज करउ पणि, भगवंत भाखइ ते श्रीकार ।१२। मोटउ गछ अम्हारउ देखउ माणस बइसई घणां बखांणि; गवे म करि रे मूढ़ गमारा समय समय अणंती हाणि । १ मत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१८) समयसुन्दरकृति कुसुमाञ्जलि सूत्र मांहि एक दसवैकालिक जती मांहि दुपसह मूरिजांणि । समयसुदर कहइ कुण जाणइ रे कहउ गछ रहिस्यइ परमाणि।१३। गछनायक हुयई अति गिरुया भारी खमानइ अति गंभीर; चालई आप भलई आचारई तउ को गिणइ हटक नई हीर। फाडि तोड़ि नइ गछ गमाडइ दिन नइ राति रहई दिलगीर; समयसुदर कहइ ते गछनायक, तरकस मांहे थोथा तीर ।१४। आसा तना सूतरनी उपजइ कथक अप्रीति ते कही नी जात; परमारथ एक आंपन पीछई बीजानई पणि करई व्याघात । रली रोहिणी विकथा करती, वारंता करनी परतात; समयसुंदर कहइ सहुको सुणिज्योबखांण मांहि मत करिज्यो बात १५ कोलो करावउ मुंड मुंडावउ, जटा धरउ को नगन रहउ; को तप्प तपउ पंचागनि साधउ कासी करवत कष्ट सहउ । को भिक्षा मांगउ भस्म लगावउ मौन रहउ भावइ३ कृष्ण कहर, समयसुदर कहइ मन सुद्धि पाखइ,मुगति सुख किमही न लहउ।१६। आव्यां ऊठि ऊभी थइयइं दीजइ आदर मांन घणां; भली परि भोजन पाणि दीजई, कोज पाय कमल नमणां । कुटंब कारिमा लयां अनंता, स्वारथ नां सहु प्रेम पणां, समयसुंदर कहइ सही करि जाणउ सगपण ते जे साहमी तणां।१७। काम काज विणजई व्यापारई, सारउ दिन सगलइ हांदिवउ; धरम नियम विहांथो थायइ थायइ पणि जउ मन ढिवउं। १ साध एक. २ बात. ३ को. ४ भाव विनात उ.५ ऊनइ थायइ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्ताव सवैया छत्तीसी (५१६) जे भ्रम करिस्यई ते निरतरस्यई, केहनउ पाड़ काई चाढ़िवउ; समयसुंदर कहइ जे धम दीजइ ते बलतइ माहि दांडउ काढिवउ।१८ व्याव्या बिना क्षेत्र किम लुणियइ, खाद्यां पाखड भूख न जाह; आप मुयां विण सरग न जइयई, वाते पापड़ किमही न थाइ। साधु साधवी श्रावकर श्राविका एतउ खेत्र सुपात्र कहाइ; समयसुंदर कहइ तउ सुख लहियइ, जउ घर सारउ दत्त दिवाइ।१६। मस्तिकि मुगट छत्र नई चामर बइंसउ सिंहासन नई रोकि आण दांण बरतावइ अपणी आइ नमइ नर नारी लोक । राजरिद्धि रमणी धरि परिघल जे जोयइ ते सगला थोक पणि समयसुंदर कहइ जउधम न करइतउ ते पाम्य सगलं फोका२०॥ सीस फूल स मथउ नकफूली, कानइ कुन्डल हीयइ हार; भालई तिलक भली कटि मेखल, बांहै चूडि पुणछिया सार । दिव्य रूप देखती अपछर, पगि नेउर झांझर झणकार; पणि समयसुंदर कहइ जउ धम न करइ,तउभार भूत सगलौ सिणगार मांस म खायउ मदिरा म पीयउ म करउ भांगि नइ घंटाधुटि3; चोरी म करउवाट म पाइउ, म करो झांझी अठा मठि। पर स्त्री मत भोगवउ पापी, म करउ लोक नइ लँटा लॅटि; समयसंदर कहइ नरगइ पडिस्यइ बधारा जिम कूटा कूटि ।२२॥ मनुष्य तणु आउखु जायई धरम बिना बैइसी रह्या केम; जम नीसाण चडत रा वरजई पहुर पहुर तिहां किहां थी खेम । १ज धरम । २ डांड। ३ साहमी साहमिणी । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२० ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि वागी घड़ी ते पाछी नावई करउ धरम तर जप नई नेम; समयसुंदर कहइ सहु को सुणिज्यो,घड़ियालउबोलइ छइ एम ।२३। धरम क्रतूत करिबुते करिज्यो, ताणी तूणी नई ततकाल; मन परिणाम अनित्य आउखु, पापी जीव पड़इ जंजाल । मत विलंब करउ ध्रम करता आवी पड़ड़ अंतराय विचाल; समयसुंदर कहइ सहु को समझउ, घड़ी मांहि वाजइघड़ीयाल।२४। केहनई पुत्र अस्त्री नहि केहनई केहनइं अन्न तरणी नहि चूणि केहनई रोग सोग घर केहनई, केहनई गरथनी ताणां तणि । के विधवा के विरहिणी दीसइ, माथई भार वहई के गणि समयसुंदर कहई संसार महिई, कहउ नइआज सुखी छइ कणी।२५॥ बेटा बेटी बइयरि भाई बहिनी तणउ नहि क्लेस लगार; विणज व्यापार मसाकति का, नहि उपाडिवउ माथइ नहि भार । सखर उपासरै बइसी रहिवउं, नमणि करई मोटा नर नारि; समयसुंदर कहइ जउ जाणइ तउ आज सुखी काइंक अणगार।२६। सूरिज कोढ़ी चंद कलंकी मंगल तणी उदंगल रुक्खा बुध तउ जड़ विरोध बापसुनास्तिक गुरु तिहां केहउसुक्ख । सनि पांगलउ पितानई वयरी राहु देह पखइ धरई मुक्ख; समयसुंदर कहइ सुक्र कहइ हुँ काणउ पणि पंचसुं नहिं दुक्ख ।२७। महावीर नई काने खीला, गोवालिए ठोक्या कहिवाय; द्वारिकादाह पाणी सिर प्राण्यउ, चंडाल नइं घरि हरिचंद राय। लखमण राम पांडव वनवासि, रावण बध लंका लटाय; समयसुंदर कहइ कहउ ते कहुं पणि,करमतणी गति कही न जाय।१८) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्ताव सवैया छत्तीसी (५२१) बखत मांहि लिख्यउ ते लहियइ, निश्चय बात हुयइ हुणहार; एक कहई काछड़ बांधीनई, उद्यम कोजइ अनेक प्रकार । नीखण करमां वाद करंतां, इम झगड़उ भागउ पहुतौ दरबारि; समयसुंदर कहइ बेऊ मानउं, निश्चय मारग नई व्यवहार ।२६। विषम काल अरउ पणि पांचमउ, कृष्ण पाखी पणि जीव घणा; मत चउरासी गच्छ मंडाणा ते पणि ताणा ताणि तणा। संघयण नही मनो बल माठा, चरित्र ऊपरि किहां चालणा; पणि समयसुंदर कहइ खप तउ कीजई पंचाचार पछइ पालखा।३०। आप वखाणई पर नइ निंदइ, ते तउ अधम कह्या नर नारि; सहु को भलउपणि हुं कांई, नहीं इम बोलइ तेहनई बलिहारि। गुण लीजड अवगुण गाडीजइ समकित जू ए लक्षण सारि; समयसुदर कहइ इण अधिकारइं दृष्टांत कयो श्रीकृष्णमुरारि ॥३१॥ देवतउ अरिहंत गुरु सुसाधनइ केवलि भाषित सूधउ धर्म; सूधु सरदहियइ ते समकित जिनसासन नु एहीज मर्म। सात आठ भव माहई सीझइ संजम सुमत प्राणउ भर्ती समयसँदर कहइ सर्व धर्म नउ, मूल एक समकित सुभकर्म ।३२॥ अपणी करणी पारि उतरणी पारकी वात मइ काइ पड़उ; पूठि मांस खालउ परनिंदा लोकां सेती काइ लड़उ । (निंदा म करो कोइ केहनी तात पराई मैं मत पड़उ ) निर्दक नर चंडाल सरीखउ, एहनइ मत कोई आभड़उ; समयसुंदर कहइ निंदक नर नई नरक माहि वाजिस्यइ दड़उ।३३। झूठ बोलइ ते नरकई जायई पड़इ तिहां जई मोटी खाड; Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२२ ) समय सुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि चाड़ चुगल नई राजा रूठउ, जीभ छेदि यह डांभ निलाड़ि। झूठानउ बेसास को न करइ बाहिर काढिनह जड़इ कंवाड़; समय सुंदर कहर झूठा माणस नइसहु को कहइ ए महा लबाड़ | ३४ | ए संसार असार जांगिड़ छोड़ी दीघउ सगलउ रज; पंच महाव्रत पाल सुधा सील वरत पणि धरइ सलज्ज | तप जप किरिया कर उतकृष्टी एहवा पिरण केइक छह अ; समयसुन्दर कहै मई तउ न पलड़, पगि हुँछु' तेहना पगनी रज । ३५ । खाधू पी ली दीधू वसुधा मांहि वधारच वांन । गुरु प्रसादि साता सुख पायउ जिण चंद सूरि ते जुगपरधान । सकलचंद गुरुसांनिधि कीधी सत्यासियइ तन थयउ ज्यांन; समयसुन्दर कहड़ हिवहुँ करिस्यु' उत्कृष्टी करणी भ्रम ध्यान | ३६ | संवत सोलनेउया वरषें श्री खंभाइत नयर मकारि; कीया सवाया ख्याल विनोदइ मुख मंडण श्रवणे सुखकारि । साच एक धरम भगवंत नउ दुरगति पड़तां घई आधार; समयसन्दर कहइ जैन धरम जिहां तिहां हड़ज्यो माह अवतार |३७| [ संशोधिता प्रतिरियं पत्र ४ स्वयं कविलिखिताः - इति प्रस्ताव सवायाछत्रीसी समाप्ता । सं० १६४८ वर्षे भाद्रपद सुदि २ दिने | श्री अहमदाबादपाश्र्ववर्त्ति श्री अहम्मदपुरे श्रीपासचंदोपाश्रये चतुर्मास्यां स्थितैः श्रीसमय सुन्दरोपाध्यायैः स्त्रपरार्थं लिखिता । शुभं भवतु लेखकपाठकयोः । ] १ वि तु रेमन करि संतोष नइ घरि धर्मध्यान । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमा छतीसी (५२३ ) क्षमा छत्तीसी आदर जीव क्षमा गण आदर, म करि राग नइ द्वेष जी । समताये शिव सुख पामीजे, क्रोधे कुगति विशेष जी । आ.।१। समता संयम सार सुणीजे, कल्पसूत्र नी साख जी। क्रोध पूर्व कोडि चारित बाले, भगवंत इण परि भाख जो। आ.।२। कुणकुण जीव तर्या उपशम थी, सांभल दृष्टांत जी । कुणकुण जीव भम्या भव मांहे, क्रोध तणइ विरतंत जी। आ.।३। सोमल ससरे सीस प्रजाल्यउ, बांधी माटी नी पाल जी। गज सुकुमाल क्षमा मन धरतउ,मुगति गयउ ततकाल जी।आ.।४। कुलवालुओ साधु कहातउ, कीधो क्रोध अपार जी। कोणिक नी वेश्या वसि पड़ियउ, रडवड़ियउ संसार जी। आ.।५। सोवनकार करी अति वेदन, वाघ्र संवीट्य सीस जी। मेतारज मुनि मुगते पहुँता, उपशम एह जगीश जी । आ.।६। कुरुड़ अकुरुड़ वे साधु कहाता, रह्या कुणाला खाल जी। क्रोध करी कुगते ते पहुँता, जन्म गमायो आल जी । आ.।७। करम खपावी मुगते पहुँता, खंधकसूरि ना सीस जी। पालक पापीए घाणी पील्या, नाणी मन मां रीस जी । आ.८। अच्चंकारी नारि अच्चंकी, तोउयो पियु सुं नेह जी। बब्बरकूल सह्या दुख बहुला, क्रोध तणा फल एह जी । आ.18 | बाघणे सरब सरीर विलूरयो, ततखिण छोड्याप्राण जी। साधु सुकोशल शिवसुख पाम्या, एह क्षमा ना जाण जी। आ..१०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि कुण चंडाल कहीजई विहुँ मई,निरति नहीं कहइ देव जी। ऋषि चंडाल कहीजइ विढतो, टालइ वेढ नी टेव जी । आ.११॥ सातमी नरक गयउ ते ब्रह्मदत्त, काढी ब्राह्मण आंख जी। क्रोध तणा फल कडुआ जाणी, राग द्वेष द्यो नांखजी। आ.।१२। खंधक ऋषि नी खाल उतारी, सह्यउ परिसह जेण जी। गरभावास ना दुख थी छूट्यउ, सबल क्षमागुण तेण जी। आ.।१३। क्रोध करी खंधक आचारज, हुप्रो अगनिकुमार जी। दंडक नृप नउ देश प्रजाल्यउ, भमसे भवह मझोर जी । आ.।१४। चंडरुद्र आचारज चलतां, मस्तक दीध प्रहार जी । क्षमा करंता केवल पाम्यउ, नव दीक्षित अणगार जो । आ.|१५॥ पांच वार ऋषि नई संताप्यउ, आणी मन मां द्वष जी। पंच भव सीम दह्यो नंदनादिक,क्रोध तणा फल देख जी। आ.१६। सागरचंद नउ सीस प्रजाली, निशि नभसेन नरिंद जी। समतां भाव धरी सुरलोके, पहुँतो परमानंद जी । आ./१७) चंदणा गुरुणीए घणी निभ्रन्छी, धिक धिक तुझ आचार जी। मृगावती केवल सिरी पामी, एह क्षमा अधिकार जी । आ.|१८| सांब प्रद्युम्न कुमार संताप्यउ, कृष्ण द्विपायन साह जी। क्रोध करी तप नउ फल हारचउ,कीधउ द्वारिका दाह जी। आ.१६। भरत नइ मारण मूठि उपाड़ी, बाहूबलि बलवंत जी। उपशम रस मन मांहे प्राणी, संयम ले मतिमंत जी । आ.॥२०॥ काउसगा मई चढियउ अति कोपे, प्रसन्नचंद्र रिषिराय जी। सातमो नरक तणां दल मेल्यांकडुआ तेणे कषोय जी। आ.।२।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमा छत्तीसी ( ५२५) आहार मांहे क्रोधे रिषि थूक्यउ, प्राण्यउ अमृत भाव जी। कूरगडूए केवल पाम्यउ, क्षमा तणइ परभाव जी । आ.।२२। पार्श्वनाथ नइ उपसर्ग कीधा, कमठ भवांतर धीठ जी । नरक तिर्यंच तणा दुख लाघां,क्रोध तणा फलदीठ जी। आ.।२३। क्षमावंत दमदंत मुनीसर, वन मा रह्यउ काउसग्ग जी। कौरव कटक हण्यउ इंटाले, त्रोड्यउ करम ना वग्ग जी। आ.।२४। सज्यापालक काने तरुनो, नाम्यो क्रोध उदीर जी । बिहुँ काने खीला ठोकणा, नवि छूटा महावीर जी । आ.।२५॥ चार हत्या नो कारक हुँतो, दृढ प्रहारी अतिरेक जी। क्षमा करी नइ मुगति पहुँता, उपसर्ग सही अनेक जी । आ.।२६। पहुर मांहि उपजंतो हारयो, क्रोधे केवल नाण जी। देखो श्री दमसार मुनीसर, सूत्र गण्यो उट्ठाण जी । आ.।२७। सिंह गुफा वासी ऋषि कीघउ,थूलिभद्र ऊपर कोप जी। वेश्या वचने गयउ नेपाले, कीधउ संजम लोप जी । आ.२८ चंद्रावतंशक काउसग्ग रहियउ, क्षमा तणउ भंडार जी। दासी तेल भरचउ निसि दीवउ,सर पदवी लहिसार जी। आ.।२६। एम अनेक तरचा त्रिभुवन में, क्षमा गुणे भवि जीव जी। क्रोध करी कुगते ते पहुँता, पाडता मुख रीव जी । आ.।३०। विष हलाहल कहियइ विरुयउ, ते मारइ इक वार जी। पण कषाय अनंती वेला, आपइ मरण अपार जी । ।३१॥ क्रोध करता तप जप कीधा, न पड़इ काइ ठाम जी । आप तपे पर नइ संतापइ, क्रोध सुं के हो काम जी । अा.।३२। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२३६ ) समयसुन्दरकृति कुसुमाञ्जलि क्षमा करंता खरच न लागइ, भांगे कोड़ कलेस जी । अरिहंत देव आराधक थावर, व्यापइ सुयश प्रदेस जी । आ. । ३३ । नगर मांहि नागोर नगीनउ, जिहां जिनवर प्रासाद जी । श्रावक लोग वस अति सुखिया, धर्म तराइ परसाद जी । आ.॥ ३४ ॥ क्षमा छत्तीसी खांते कीधी, आत्मा पर उपगार जी | सांभलतां श्रावक पण समज्या, उपसम घरघउ अपार जी । आ. । ३५ । युगप्रधान जिणचंद सूरीश्वर, सकलचंद तसु सीस जी । समयसुंदर तसु शिष्य भइ इम, चतुर्विध संघ जगीशजी । श्रा. | ३६ | कर्म छभीसी करम थी को छूट नहीं प्राणी, कर्म सबल दुख खाण जो । कर्म तराइ वस जीव पड़चा सहु, कर्म करइ ते प्रमाण जी | क० | १ | तीर्थंकर चक्रवर्त्ति अतुल बल, वासुदेव बलदेव ते पण कर्म विटंब्या कहिये, जी । कर्म सबल नित मेव जी क० | २ | मुक्ति भणी उठ्या जे मुनिवर, तेह तथा कहुँ नाम जी । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म छत्तीसी कर्म विपाक घणा अति कडुआ, धर्म करो अभिराम अभिराम जी कि । ३ । कुरण कुरण जीव विटंब्या कर्मे, तेह तथा कहुँ कर्म विपाका अति कडुआ, नाम जी । धर्म करो अभिराम जी | क ० ४ | आदीश्वर आहार न पाम्यउ वर्ष सीम कहिवाय जी । खातां पीतां दान देवतां, मत को कर मल्लिनाथ तीर्थंकर स्त्री तराउ तप करतां माया तिण कीधी, " Jain Educationa International ( ५२७ ) अंतराय जी |क० | ५ | लाघउ, अवतार जो । करमे न गिणी कार जी | क ० | ६ | गोसाले संगम गोवाले, कीधा उपसर्ग घोर जी । महावीर नह चीस पड़ावी, कर्म सु केहो जोर जी |क०१७ | साठ सहस सुत नो समकाले, लागो सबलो दुख जो । सगर राय थयो मूर्छागत, कर्म न सांसे सुख जी |क०१८ | For Personal and Private Use Only Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२% ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि वलि सुभूम अति सुख भोगवतो, छः खंड लील विलास जी । सातमी नरक मांहे ले नांख्याउ, कर्म नउ किंसउ बिसास जी क०।। ब्रह्मदत्त नह आंधउ कीधो, दीठा दुख अपार जी । कुरु मती कुरु मती खड्यो पुकारे, सातमी नरक मझार जी क०।१० इंण वखाण्यो रूप अनोपम, ते विणस्यो तत्काल जी । सात से वरस सही बहु वेदन, सनत्कुमार कराल जी क०।११। कष्णे कोण अवस्था पामी, दीठउ द्वारिका दाह जी । माता पिता पण काढी न सक्या, आप रघउ वन माह जी क०।१२। राणउ रावण सबल कहातो, नवग्रह कीधउ दास जी । लक्ष्मण लंका गढ लूटायो, दस सिर छेद्या तास जी क०।१३। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म छत्तीसी (५२६ ) दसरथ राय दियो देसवटउ, राम रघउ वनवास जी। बलि वियोग पत्यउ सीतानउ, आठे पहर उदास जी ।क.।१४। चिर प्रतिषाल्यउ चारित छोड़ी, लीधो बांधव राज जी । कंडरीक नइ कर्म विटंब्यउ, कोई न सरयउ काज जी । क..१५॥ कोणिक कठ पंजर मंइ दीघउ, श्रेणिक आपणो बाप जी । नरग गयउ नाड़ी मारंतउ, प्रगट्यउ हिंसा पाप जी । क.।१६। जसु अठार मुकुट बद्ध राजा, सेव करइ कर जोड़ जी । कोणिक थी बीहतउ राय चेड़उ, कूप पड़यउ बल छोड़ जी । क./१७ लुब्धो मुंज मृणालवती सुं, उज्जैनी नउ राय जी । भीख मंगावी सली दीधर, कर्णाट राय कहाय जी । क.।१८। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय सुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि वाचना पांच से साधु ने देतो, योगी वटे थयो गृद्ध जो । अनार देशे सुमंगल उपनो, ( ५३० ) जोगी बड़े सम्बद्ध जी । क. | १६ | कृष्ण पिता नइ गुरु नेमीश्वर, द्वारिका ऋद्धि समृद्ध जी । ढंढरण ऋषि तिहां आहार न पाम, पूर्व कर्म प्रसिद्ध जी । क./२०१ मुनीसर, वृत लीधउ वैराग जी । द्र कुमार महंत श्रीमती नारि संघाते लुब्धउ, एह करम विपाक जी । क. । २१। सेलग नाम आचारज मोटउ, Jain Educationa International राज पिण्ड थयउ गुद्ध जी । मद्य पान करी रहे सूतउ, नहीं पड़िकमरणा सुद्धि जी । क. | २२ | । कुवलप्रभ उत्सूत्र थकी थयउ, तीर्थंकर दल मेलि एह देखउ सावधाचारिज जी । गमाड़या, अचरिज जी । क.|२३| For Personal and Private Use Only Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म छत्तीसी ( ५३१ ) नंदिषेण श्रेणिक नउ बेटर, महोवीर नउ शिष्य जी । चार वरस वेश्या सं लुब्धउ, कर्म नी वात अलक्ष जी । क.।२४। भगवंत नउ भाणेज अँवाई, वीर सुं कीधी वेढि जी । तीर्थकर ना वचन उथाप्या, हुयउ जमालि सुर ढेढ जी । का२॥ रजा साधवी रोग ऊपनो, विणठो कोढ सरीर जी । भव अनंत भमी दुख सहती, दोष दिखाड्यउ नीरि जी । क.।२६। सील समाह घणु समझावी, तोहि न मूक्यां साल जी । रूपी राय रुली भव मांहे, भंडे घणु हवाल जी । क.।२७) लक्ष भव रुली वलि लक्ष्मणा, कवचन बोल्या एम जी । तीर्थंकर परपीड़ न जाणी, मैथुन वारचउ केम जो । क.।२८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३२ ) समयसुन्दरकृति कुसुमाञ्जलि मुह जाएगी मूकी वन मांहे, सुकुमालिका सरूप सार्थवाह घर घरणी कीधी, इम रोहिणी साधु भरणी बहरायो, कडुओ तूंबो तेड़ि जी । भव अनंत भमी चउ गति मई, कर्म नउ अकल सरूप जी । क. २६| करम न मँके केड़ि जी । क. । ३०| कष्ट पड़ी कमला रति सुंदरी, जी । मृगांकलेखा मृगावती, सतानीक नी नार जी । कर्म विपाक सुणी इम कहुआ, जीव करह जिन Jain Educationa International कहता न आवs पार जी । क.|३१| जीव छह करमे तूं जीतो, धर्म जी । पिग हिव जीपि तूं कर्म जी । क. । ३२ | श्री मुलतान नगर मूलनायक, पार्श्वनाथ जिन जोय जी । वासुपूज्य श्री सुमति प्रसाद, लोक सुखी सहु कोय जी । क. । ३३ । For Personal and Private Use Only Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म-पुण्य-छत्तीसी । ५३३ ) श्री जिनचंद्रसरि जिनसिंहसरि, गच्छपति गुण भरपूर जी । सिंघी जेसलमेरी श्रापक, खरतर गच्छ पडूर जी ।क.|३४| सकलचंद सदगुरु सुपसाये, सोलह सइ अड़सठ्ठ जी । करम छत्तीसी ए मई कीधी, माह तणी सुदी छट्ट जी । क.।३१ करम छत्तीसी काने सुणि नइ, करजो व्रत पच्चखाण जी । समयसुंदर कहइ सिव सुख लहिस्यउ, धर्म तणे परमाण जी । क..३६। -०)*(. पुण्य छत्तीसी पुण्य तणा फल परतिख देखो, करो पुण्य सहु कोय जी । पुण्य करतां पाप पुलावे, जीव सुखी जग होय जी ॥पु०॥१॥ अभयदान सुपात्र अनोपम, बलि अनुकंपा दान जी । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय सुन्दर कृ तिकुसुमाञ्जलि साधु श्रावक धर्म तीरथ यात्रा, शील धर्म तप ध्यान जी ॥ पु० ॥ २ ॥ सामायिक पोषह पड़िकमणो, देव पूजा गुरु सेव जी । ( ५३४ ) पुण्य तरणा ए भेद परूप्या, अरिहंत वीतराग देव जी ॥ ५० ॥ ३ ॥ सरणागत राख्यउ पारेवउ, पूरव भव परसिद्ध जी । Jain Educationa International शांतिनाथ तीर्थंकर पदवी, पाम्या चक्रवर्ती चक्रवर्ती रिद्ध जी ॥ पु०॥ ४ ॥ गज भवे ससलउ जीव उबारचो, अधिक दया मन आणिजी । मेघ कुमार हुयो महा भोगी, श्रेणिक पुत्र सुजाए। जी ॥ पु० ॥ ५ ॥ साधु तराउ उपदेश सुखी नह, मूक्यउ मछली जाल जी । नलिनी गुल्म विमान थकी थयो, यवंती सुकमाल पंच मच्छ राख्या मालि भवि, पंच यक्ष दियउ राज जी । राजकुमर लीला सुख लीधा, जी ॥ पु० ॥ ६ ॥ सुभट कटक गया भाज जी || पु०॥ ७ ॥ For Personal and Private Use Only Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्य छत्तीसी धन्य धन्य सार्थवाहज धनउ, दीधउ घृत नउ दान जी। तीर्थकर पदवी तिण पामी, आदीश्वर अभिधान जी ॥ पु०॥८॥ उत्तम पात्र प्रथम तीर्थकर, श्री श्रेयांस दातार जी । सेलड़ी रस सूधउ वहरायो, ___ पाम्यउ भव नउ पार जी ॥ पु०॥६॥ चंदन बाला चढते भावे, पडिलाभ्या महावीर जी । देव तणी दुंदुभी तिहां वाजी, सुन्दर थयउ सरीर जी ॥ पु०॥१०॥ समुख नाम गाथापति सुनियइ, दीधउ साधु नइ दान जी । हुओ सुबाहुकुमर सोभागी, वधता सुख विमान जी ॥ पु०॥११॥ संगमे साधु भणी वहिराव्यउ, खोरखांड' घृत सार जी । गोभद्र सेठ तणे परि लाधउ, सालिभद्र नउ अवतार जी ॥ पु०॥१२॥ मूलदेव मुनिवर पडिलाभ्यउ, मास क्षमण अणगार जी । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३६ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि राज ऋद्धि ततक्षण पामी इहां, को नहीं उधार जी ॥ पु०॥१३॥ मोटो ऋषि बलदेव मुनीसर, प्रतिबोध्या पशु वर्ग जी । दान सुपात्र दियो रथकारक, पाम्यउ पांचमउ स्वर्ग जी ॥ पु०॥१४॥ चंपक सेठ कीधी अनुकम्पा, दीधु दान दुकाल जी। कोड़ि छन् सोनइया केरी, विलसइ रिद्धि विसाल जी ॥ पु०॥१५॥ सुव्रत साधु समीपे कार्तिक, लीधउ संजम भार जी। बीस लाख विमान तणो धणी, इन्द्र हुयउ ए सार जी ॥ पु०॥१६॥ सनतकुमार सही अति वेदन, . सात सौ वरसां सीम जी। देवलोक तीजइ सुख दीठा, ... निश्चल पाल्यो नीम जी ॥ ॥१७॥ रूप थकी अनरथ देखी नइ, गयो बलभद्र वनवास जी । तप संयम पाली नई पहुंतउ, ___पांचमइ स्वर्म आवास जी ॥ पु०॥१८॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्य छत्तीसी भद्रबाहु स्वामी पूरबधर, सज्जंभव यशोभद्र जी । साधु आचार थकी सुख लाधा, वयर स्वामी थूलभद्र जी ॥ पु०॥१६॥ महावीर थी नवसै असीयां, सकल सूत्र सिद्धान्त जी । पुस्तकारूढ किया देवर्द्धि गणि, मोटा साधु महंत जी ॥ पु०॥२०॥ आनंद कामदेव सुश्रावक, व्रत रूड़ी परि राख जी । प्रथम देवलोक सुख पाम्या, सूत्र उपासक साख जी ॥ पु०॥२१॥ साढी बारै सत्रुजे यात्रा, कीधी इण कलिकाल जी । संधपति थई सुरलोक सिधाया, वस्तुपाल तेजपाल जी ॥ पु०॥२२॥ पाल्यउ शील कष्ट पणि पड़ियउ, ___कुलधज नाम कुमार नी । इरत परत लाधा सुख उत्तम, सलहीजे संसार जो ॥ पु०॥२३॥ चंपानगरी पोल उग्धाड़ी, सती सुभद्रा नार जी । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३८ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि काचे तांतण पाणी काढ्यउ, जिन शासन जयकार जी ॥ पु०॥२४॥ काकंदी नगरी नउ वासी, धन धनउ अणगार जो । श्रेणिक आगइ वीर वखाण्यउ, अति उग्र तप अधिकार जी ॥ पु०॥२२॥ हुँ त्रियंच किसु बहरावु, रथकार नइ सहु थोक जी । मृगलउ भावना मन भावंतउ, गयो पंचम देवलोक जी ॥ पु०॥२६॥ थिर सामायिक कीधउ थविरा, राजकुमारी थइ रंग जी । भोग संजोग घणा तिहां भोगवी, शिव सुख लाधा संग जी ॥ पु०॥२७॥ संख श्रावक पोषह सुद्ध पाल्यउ, वीर प्रशंस्यो तेह जी । तीर्थकर पदवी ते लहिस्यइ, पुण्य तणा फल एह जी ॥ पु०॥२८॥ सागरचंद कियउ बलि पोषह, राउ कोउसग्ग राय जी । निसि नभसेण तणो सबउ उपसर्ग, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्य-छत्तीसी ( ५३६ ) लाधी ऋद्धि अथाह जी ॥ पु०॥२६॥ तुगिया नगरी श्रमणोपासक, सुध क्रिया सावधान जी ।। उभय काल पड़िकमणो करता, पामी गति परधान जी ॥ पु०॥३०॥ पूरब भव तीर्थंकर पूज्या, लाधा अठारह राज जी । पद्मनाभ ना गणधर थास्ये, कुमारपाल सारया काज जी ॥ पु०॥३१॥ राणे रावण श्रेणिक राजा, अरच्या अरिहंत देव जी । बेहुँ गोत्र तीर्थंकर बांध्या, सुरनर करस्यै सेव जी ॥ पु०॥३२॥ केसी गुरु सेव्यउ परदेसी, सुर उपनो सुरिआम जी। चार हजार बरस एक नाटक, आगे अनंतां लाभ जी ॥ पु०॥३३॥ इम अनेक विवेक धरंतां, जीव सुखिया थया जाण जी । संप्रति छै सुखिया वलि थास्यै, पुण्य तणे परमाण जी ॥ पु०॥३४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४०) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि संवत निधि दरसण रस ससिहर, सिधपुर नगर मझार जी । शांतिनाथ सुप्रसादे कीधी, पुण्य छत्तीसी सार जी ॥ पु०॥३५॥ युगप्रधान जिनचंद सवाई, सकलचंद तसु शिष्य जी । समयसुन्दर कहई पुण्य करो सहु, पुण्य तणा फल परतक्ष जी ॥ पु०॥३६॥ ___-(:.:)संतोष छत्तीसी साहमी सुसंतोष करीजइ, वयर विरोध निवार जी। सगपण ते जे साहमी केरउ, चतुर सुणो सुविचार जी। सा.। १। राय उदायन मोटउ राजा, कीधो सबल संग्राम जी। चंड प्रद्योतन मूकी खाम्यउ, सांभल्यौ साहमी नाम जी । सा.।२। कोणिक चेड़इ संग्राम कीधा, माणस मारचा कोड़ि जी।। असी लाख वलि ऊपरि कहियइ, वैर विरोध द्यउ छोड़ि जी। सा.। ३ । उदायन दीघउ केसी नइ, भाणेजो नइ राज भार जी। और वहंतर थयउ विराधक, अभीचि असुर कुमार जी । सा.।४। संखे कीधउ पोसौ सखरउ, पक्खुलि कीधी तात जी । मिच्छामि दुक्कडं श्री महावीरे, दिवरायो परभात जी । सा.।५। दाविड़ वारिखिल्ल बे भाई, पंच पंच कोड़ि परिवार जी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतोष छत्तीसी ( ५४१ ) जैन तापस ऋषि विढता राख्या, सेजइ सीधा पार जी । सा.। ६ । भरत बाहुबलि बेहूँ भाई, आदीसर अंगजात जी । बार बरस बहु जन संहारचा, एह विरोध नी बात जी । सा.। ७ । रिहंत साधु विना प्रणमे नहीं, वज्रजंवन धम धीर जी । सिंहोदर सु. संतोष करायो, रामचंद्र करि भीर जी । सा. । ८ । सागरचंद्र अन्याये परणी, कमला मेला वर जी । माथ सिगड़ी की मारयो, नभसेन वाल्यो वैर जी । सा । ६ । थकी अधिक जागड़, तेहनड़ तूं जीमाड़ि जी । भरते साहमी वच्छल कीउ, तात वचन सिरवाड़ि जी । सा. । १० । उदायन राय बंधावी ले गयउ, चंड प्रद्योतन राय जी । वासवदत्ता नइ ति अपहरी, इण विरोध न कराय जी । स । ११ । सिंहोदर पासे दिवरायो, रामे आधउ राज जी । १ । घन स्वामी जाणी नइ, सखर समारचउ काज जी । सा. | १२ | कोशिक कीधी ते को न करइ, चेडो पाम्यउ रूप जी । नगरी विशाला भांजी नांखी, एह विरोध सरूप जी । सा. | १३ | विजउ विखमी चोरी पठउ, मूक्यउ कुंडल नाग जी । वज्रघन नह भेद जणाव्यउ, साचउ साहमी राग जी । सा । १४ । मांहो मांही नगर विध्वंस्था, पांडव दवदंत राय जी । मुनि दवदंत इंटाले मारो, कौरव न तज्यो कषाय जी । सा. । १५ । रुक्मिणी नइ सत्यभामा राणी, सउकी नउ सबल संताप जी । खमत खामणा किया खरै मन, व्रत लेवा प्रस्ताव जी । सा. १६ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४२ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि रेवती ऊपर रीस करी बहु, महाशतक अहीर जी । गौतम मूकी नइ मिच्छामि दुक्कड, दिवरायो महावीर जी। सा.।१७) सारंग साह धरी मद मच्छर, बांध्यउ कोचर साह जी । पणि देपाल नइ वचने मूक्यउ, साहमी जाणि उच्छाह जी। सा.१८ लक्ष्मण राम नई घर थी काढ्या, कपिले भूडो कीध जी। पणि साहमी भणी राम संतोष्यउ,अादर मान धनदीधजी।सा.१६। बरस बरस मांहे त्रिण वेला, वस्तुपाल तेजपाल जी। साहमी वच्छल सबला कीधा,भक्ति जुगति सुविसाल जी। सा.॥२०॥ बेउ इंद्र बुलाया कोणिक, मारौ चेडो राय जी। इंद्र कहै सुण अम्हे किम मारू, साहमी सगपण थायजी । सा..२१॥ साहमी सगपण नवउ करी नइ, प्रीति संतोष विशेष जी। आद्रकुमार भणी प्रतियोध्यउ, अभयकुमारे देख जी। सा.॥२२॥ खमत खामणा करउ खरे मन, मूकी निज अभिमान जी। मृगावती नइ चंदनवाला, पाम्यउ केवलज्ञान जी । सा.॥२३॥ पण कुंभार ने चेला वाला, मिच्छामि दुक्कडं टालि जी। मन शुद्ध विन कदि मुक्ति नहोइ, निश्चय दृष्टि निहालि जी। सा.२४॥ सास जंवाई वाला कीजइ, अलिया गलिया जाण जी। सामायिक पडिकमणो सूजइ, जीवत जन्म प्रमाण जी । सा.॥२५॥ सामायक पोसो पड़िकमणो, नित सझाय नवकार जी ! राग द्वष करतां सूझइ नहीं, न पड़े ठाम लगार जी । सा.।२६। समता भाव धरी नइ करतां, सहु किरिया पडै ठाम जी। अरिहंत देव कहइ आराधक, सीझड़ वंछित काम जी । सा.।२७। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतोष छत्तीसी ( ५४३ ) राग द्वष कियां रडवडियइ, पडियइ नरक मझार जी। दुख अनंता लहियइ दुरगति, तेह तणउ नहीं पार जी । सा.।२८। जिहां जीव जायइ तिहां कणि पामइ, सकल कुटुंब परिवार जी। पण साहमी नउ सगपण किहां थी, ए दुर्लभ अवतार जी। सा.।२६। दृषम काल तणे परभावे, हुइ मांहो मां विषवाद जी। तौ पणि तुरत खमावी लीजइ, पंडित गुरु परसाद जी । सा.३० सुगुरु वचन मानइ ते उत्तम, श्रावक सुजस लहंत जी । भद्रक जीव आसन्न सिद्धिगामी, अरिहंत एम कहंत जी । सा.॥३१॥ जिम नागोर क्षमा छत्तीसी, कर्म छत्तीसी मुलतान जी। पुण्य छत्तीसी सिद्धपुर कीधी, श्रावक नइ हित जाण जी। सा.३२॥ तिम संतोष छत्तीसी कीधी, लूणकरणसर माहि जी । मेल थयउ साहमी मांहो मांहि, आणंद अधिक उच्छाह जी। सा.३३। पाप गयउ पांचां वरसां नउ, प्रगट्यउ पुण्य पडूर जी । प्रीति संतोष वध्यउ मांहो मौहे, पाज्या मंगल तूर जी । सो.३४। संवत सोल चउरासी वरसइ, सर माहे रह्या चउमास जी। जस सोभाग थयउ जग माहे, सहु दीधी सावास जी । सा.॥३५॥ युगप्रधान जिनचंद सूरीसर, सकलचंद तसु शिष्य जी । समयसुन्दर संतोष छत्तीसी, कीधी संघ जगीस जी । सा.३६। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४४ ) समय सुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि आलोयणा छत्तीसी दाल-ते मुझ मिच्छामि दुक्कडं, पहनी पाप आलोय तँ आपणां सिद्ध श्रातम साख । आलोयां पाप छूटियर, भगवंत इणि परि भाख ॥ पा ॥ १ ॥ साल हिया थी काढिया, जिम कीधा तेम | दुख देखिस नहीं सर घणा, रूपी लक्ष्मण जेम || पा. ॥ २ ॥ वृद्ध गीतारथ गुरु मिले, तम सुद्ध की । तो लोग लीजियइ, नहीं तर स्पुंस लीध ॥ पा. ॥ ३ ॥ छो अधिक जिके, पारका ल्यई पाप । हार छूट नहीं, साहमौ ल्यड़ संताप | पा. ॥ ४ ॥ कीधा तिम को कह नहीं, जीभ लड़ थड़ झूठ | कांटो भांगो प्रांगुली, खोत्रीजइ अंगूठ ॥ पा ॥ ५ ॥ गाडर प्रवाह तूं मूं किजे, दूषम काल दुरंत । तम साख लोहजे, छेद कर्म निकाचित जे किया, ते भोगव्यां छूट । सिथल बंध बांध्या जिके, ते तो जायइ त्रूट | पा. ॥ ७ ॥ पृथ्वी पाणी गिना, वाउ वनस्पति जीव । ग्रंथ कहंत ॥ पा. ॥ ६ ॥ तेहनउ आरंभ तूं करइ, स्वाद लीघउ सदीव || पा॥ ८ ॥ घर बोलउ बोबडउ, मृगापुत्र ज्यू देख | अंगोपांगे तेहनइ, मारह लोह नी मेख || पा॥ ६ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा छत्तीसी (५४५) बोलइ नहीं ते बापड़उ, पिण पीड़ा होय । तेहवी तीर्थकर कहइ, आचारांग जोय ॥पा.॥१०॥ आदौ मूलौ आदि दे, कंद मूल विचित्र । अनंत जीव सूई अग्र में, पन्नवणा सूत्र ॥ पा.॥११॥ जीम नइ स्वाद मारघाजिके, ते मारस्यई तुज्झ । भव मांहे भमता थकां, थास्यै जिहां तिहां जुज्झ ॥ पा.॥१२॥ झूठ बोल्या घणा जीभड़ी, दीधा कूड़ कलंक । गल जीभी थास्यै गलै, हुस्यइ मुहड़ो त्रिबंक ॥ पा.॥१३॥ परधन चोत्या लूटिया, पाड्यउ ध्रसकउ पेट । भूख्यो भमि संसार मां, निर्धन थकउ नेट ॥ पा.॥१४॥ परस्त्री नइ भोगवी, तुच्छ स्वाद तूं लेसि । पिण नरके ताती पूतली, आलिंगन देसि ॥ पा.॥१०॥ परिग्रह मेल्यो कारमो, इच्छा जिम अाकास । काज सरयो नहीं ते थकी, उत्तराध्ययन प्रकाश ॥ पा.॥१६॥ पाणी घट्टी उंखले, जीव जे पीड़ेसि । खामिस तूं नहिंतरि नरक मई,घाणी मांहि पीलेसि ।। पा.॥१७॥ छाना प्रकारिज करि पछइ, गर्भ नांख्या पांडि । परमाधामी ते तुज्म ने, नित नांखिस्यै फाडि ।। पा.॥१८॥ गोधा ना नाक बींधीया, खासी कोधा बनध । प्रारंभी उठाडिया, राते ऊँचे सबद ॥५.॥१६॥ बाला बढान्या टांकता, मांकण खाटला कूटि । विरेच लेइ कमि पाड़िया, गलणी गयउ टि ।। पा.॥२०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४६ ) समय सुन्दरकृतिकुपमाञ्जलि राग द्वेष खाम्या नहीं, जां जीव्यउ तां सीम। अनंतानुबंधी ते थया, कहि करिस तूं केम ॥ पा । २१ ॥ तड़ तड़ते नांख्या तावडे, सुल्या धान जिवार । तड़ फड़ नइ जीव ते मूत्र, दया न रही लगार || पा. ||२२|| अगल पाणी लुगड़ा, धोया नदी तलाव । जीव संहार कियो घणउ, साबू फरस प्रभाव | पा. ॥ २३ ॥ वैरी विष दे मारिया, गलै फांसी दीघ । वे तुझ नइ पि मारस्यै, मूकस्यै वैर लीध ॥ पा ॥२४॥ कोऊ अंगीठी तई करी, थाप्यो सिगड़ी कुंड । रातें दीवो राखियो, पापे भरचा पिंड ॥ पा. ।। २५ ।। मां थो विछोड़या बाछड़ा, नीरी नहीं चारि । ऊनाले तिरस्या मूत्र, कीधी नहीं सरि ॥ पा. ॥ २६ ॥ मां बाप नहं मान्या नहीं, सेठ सुं असंतोष । धर्म नो उपगार नवि धरयो, श्रोसिकल किम होस | पा. ||२७|| अांधी टॅटो पांगलो, कोढियो जार चोर । मरि फीट जाइ बोल तुं', कह्या वचन कठोर || पा. ॥ २८ ॥ मद्य नइ मांस अभक्ष जे, खाधा हुस्यइ हँसि । मिच्छामि दुक्कडं देह नै, पछह लेजे तूं संसि ॥ प. ॥ २६॥ सामाइक पोसह कीया, लीधा साधु नो वेस । मन संवेग धरचो नहीं, कहि तूं केम करेस ॥ पा ॥३०॥ सूत्र नै प्रकरण समझता, कथा विपरीत कोय । जय जय मति छह जूजुइ, सुणतां भ्रम होय ॥ पा. ॥३१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोयणा छत्तीसी ( ५४७ ) हुवे जे पाप । वचन जिके वीतरागना, ते तो सही साच । भगवती सूत्र धुरे भणी, वीर नी ए वाच ॥ पा । ३२ ॥ करमदान पनरै कला, वलि पाप हार | खिखि ए सह खामिज्यो, संभारी संभारि ॥ पी. ॥३३॥ इण भव परभव एहवा, कीधा नाम लेइ तूं खामजे, करिजे खरच कोई लागस्यै नहीं, देह नें पण मन वैराग वालजे, सही पामिस सुख ॥ पा ।। ३५ ।। संवत सोल अट्टारपूर, श्रहमदपुर मांहि । समयसुन्दर कहह मई करी, आलोयणा उच्छाहि ॥ पा ॥३६॥ पछताप ॥ पा. ||३४|| नहिं दुख | -00:00 पद्मावती - आराधना हिंव राणी पदमावती, जीव रासि खमावइ । इण वेला आवह ॥ १ ॥ अरिहंत नी साख । चउरासी लाख ॥ ते ० ॥ २ ॥ जाग पशु जगि ते भलं ते मुझ मिच्छामि दुक्कडं, जे महं जीव विराधिया, सात लाख पृथिवी तथा साते अपकाय । सात लाख तेऊकाय ना, साते वलि वाय ॥ ते० ॥ ३ ॥ दस प्रत्येक वनस्पति, चउदह साधार | विति चउरिन्द्री जीवना, विवि लाख विचार || वे ० ॥ ४ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४८ ) · समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि देवता तिरियंच नारकी, च्यार च्यार प्रकासी। चउदह लाख मनुष्य ना, ए लाख चउरासी ॥४०॥५॥ इणि भवि परवि सेविया, जे पाप अढार । त्रिविध विविध करि परिहरू, दुरगति दातार ॥ ते०॥६॥ हिंसा कीधी जीवनी, बोल्या मिरषावाद । दोष अदत्तादान' ना, मैथुन' उनमाद ॥ते॥७॥ परिग्रह मेल्यउ कारिमउ, कोधउ क्रोध विशेष। . मान माया लोभ मई किया, वलि राग नइ द्वषा ।.।। कलह २ करो जीव दूहव्या, दीधा कूड़ा कलंक'३। निंदा कीधो पारकी, रति अरति'५ निसंक ॥ते॥६॥ चाडीखाधी चउतरइ१६, कीघउ थापण मोसउ। कुगुरु कुदेव कुधर्म नउ, भलउ प्राण्यउ भरोसउभाते ॥१०॥ खाकि नइ भवि मई किया, जीव ना बध घात। चिड़ीमार भवि चिड़कला, मारया दिन रात ॥ ते॥११॥ मच्छोगर भवि माछला, झाल्या जल वास । धीवर भील कोली भवे, मृग मांड्या पास ॥ ते॥१२॥ काजी मुल्ला नई भवे, पढी मंत्र कठोर । नीत्र अनेक जबह किया, कीधा पाप अघोर ।। ते॥१३॥ कोवाल नई भवि किया, अकरा कर दंड । बंदिवाण मराविया, कोरड़ा छड़ि दंड ॥ते॥१४॥ परमाहम्मी नइ भवे, दीधा नारकि दुक्ख । छेदन भेदन वेदना, ताड़ना अति तिक्ख ते॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मावती-बाराधना कुंभार नइ भवि जे किया, नीमाइ पजामा । तेली भवि तिल पीलिया, पापी पेट भराव्या ॥०॥१६॥ हाली नइ भवि हल खड़या, फाड्या पृथिवी पेट।। सूड़ निंदाण किया घणा, दीधी वलद थपेट ॥ते॥१७॥ माली नइ भवि रोपिया, नाना विधि वृक्ष । मूल पत्र फल फूल ना, लागा पाप लक्ष ॥०॥१८॥ श्रद्धोवाई अांगमी, भरथा अधिका भार । पोठी ऊंठ कीड़ा पड़या, दया न रही लगार ।। ते०॥१६॥ छींपा नइ मवि छेतरघउ, कीधा रांगणि पास । अगनि आरंभ किया घणा, धातुर्वाद अभ्यास ।। ते०॥२०॥ सूरपणइ रण जूझता, मारया माणस वृन्द । मदिरा मांस माखण भख्या,ख धामूला नइ कंद॥ ते ॥२१॥ खाणि खणावी धातु नी, पाणी उलिंच्या। आरंभ कीधा अति घणा, पोतइ पाप सच्या ॥ते०॥२२॥ अंगार कर्म किया वली, धरमइ दव दीधा । सुंस कीधा वीतराग ना, कूड़ा कोस पोधा ॥ ते॥२३॥ . बिल्ली भवि उंदरि लीया, गलोई हतियारी। मृढ गमार तणइ भवे, मई ज लीख मारी । ते०॥२४॥ भाभड़-भूजा नइ भवे, एकेन्द्रो जीव । ज्वारि चिणा गोहुँ सेकिया, पाडता रीव ॥ते॥२॥ खांडण पीसण गारि ना, आरंभ अनेक । रांधण इंधण आगि ना, किया पाप उदेक ।। ते०॥२६।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५० ) समय सुन्दरकृति कुसुमाञ्जलि विकथा चार कीधी वलि, सेव्या पंच प्रमाद । इष्ट वियोग पड्या किया, रोदन विषवाद || ते० ॥२७॥ साध अन श्रावक तथा व्रत लेई भांगा । " मूल अनइ उत्तर तथा, मुझ दूषण लागा ॥ ते ० ॥ २८ ॥ सांप बिच्छू सींह चीतरा, सकरा नइ समली । हिंसक जीव तणे भवे, हिंसा कीधी सबली || ते ० ॥२६॥ सूयावड़ दूषण घणा, वलि गरभ गलाया । जीवाणी ढोल्या घड़ा, सील वरत भंजाया || ते ० ॥३०॥ भव अनंत भमतां थकां कीया कुटुम्ब संबंध | त्रिविध विविध करी वासरू, तिण सँ प्रतिबंध || ते ० ॥ ३१ ॥ भव अनंत भमतां थकां कीया देह संबंध | त्रिविध त्रिविध करी वोसरू, तिरण में प्रतिबंध ॥ ते ० ॥ ३२ ॥ भत्र अनंत भमतां थकां किया परिग्रह संबंध | त्रिविध विविध करो वोसरू, तिरण सँ प्रतिबंध || ते ० ॥ ३३ ॥ इस परिभवि परभवइ, कीधा पाप अत्र । त्रिविध त्रिविधकरी वोस, करूं जनम पवित्र || ते ० ||३४|| राग arreी जे सुखइ, ए त्रीजी ढाल' | समयसुन्दर कइ पाप थी, छूटइ ते ततकाल ॥ ते ० ॥३५॥ इति आराधना संपूर्ण । ( स्वय लिखित पत्र से ) ● १ वास्तव में यह स्वतन्त्र कृति न होकर चार प्रत्येक बुद्ध चौकी एक ढाल है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुपाल तेजपाल रास ( ५५१ ) वस्तुपाल तेजपाल रात सरसति सामिणि मनि धरु, प्रणमुं सुह गुरु पाय । बसतपाल तेजपाल नउ, रास कहुं सुपसाय ॥१॥ पोस्याड़ वंसइ प्रगट, जिण सासण सिणगार । करणी मोटी जिण करी, सहु जाणइ संसार ॥२॥ चंड प्रचंड अनुक्रमइ, सोम अनइ आसराज । वस्तपाल तेजपाल थे, तसु नन्दन सिरताज ॥३॥ माता कुंयरि उरि रतन, पाटण नगर निवास । वीरधवल राजा तणा, मुहुता पुण्य प्रकास ॥४॥ वरष अढार गयो पछी, वरस अठारह सीम । वस्तपाल तेजपाल बे, ध्रम करणी कर ईम ॥शा ढाल पहिली-भरत नृप भावसु ए, एहनी ढाल धरम करणी करइ ए, वस्तगाल तेजपाल साह । थ.। साते खेत्रे वित वावरइ ए, ल्यइ लछमी नउ लाह । १ । ध. । जैन प्रासाद कारावीया ए, तेरइ सई नइ च्यार । ध. विसहस त्रिणसइ करावीया ए, जोरण चैत्य उद्धार । २। घ.। भगवंत बिंब भरावीया ए, सवा लाख अतिसार । ध.। अढार कोड़ि द्रव्य लगाडीया ए, त्रिएह भराया भंडार।३। घ.। पांचसइ सिंहासन दांत नाए, नव सइ चउरासी पोसाल । ध.। समोसरण पटकलना ए, पांचसइ पांच रसाल । ४।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि सेजइ द्रव्य सफल कीयउ ए, अढार कोडि छन्नु लाख। ध.। गिरिनारि द्रव्य सफल कीयउ ए, अढार कोडि असोलाख। शध.। आबू द्रव्य सफल कीयउ, लाख पन कोडि वार । ध.। नेमि प्रासाद मडावीयउ ए, लूणगवसही उद्धार । ६।ध.। ब्राह्मणसाला सोतसई ए, सातसइ सत्रकार । घ.। प्रासाद कराव्या महेसरा ए, ते पणि त्रिरहे हेजार । ७।ध.। तापसना मठ सातसइ ए, चउसठि करावी मतीति । घ.। जिन बिंब नी रक्षा भणी ए, म्लेछ तणइ मनि प्रोति । ८.। पाषाण बद्ध करावीयो ए, सरोवर चउराशीय । घ.। वारू सयंवर वावड़ी ए, च्यार-सइ चउसठि कोय ।। ध.। मोटा गढ़ मंडावीया ए, छत्रीसरे पाखाण बद्ध । घ.। ए सहुँ संघ रक्षा भणी ए, परिधल पाणि किद्ध ।१० घ.। परव मंडावी च्यारसइ ए, पर उपगार निमिच । घ.। चालती चरम तलावड़ी ए, चारसउ चउरासी नित्त ।११। घ.। तोरण त्रिण चढावियाए, शत्रुज १ हुन २ गिरनार ३ध.। सोनहियां बिहुँ लाख नउ ए, एकैकउ श्रीकार १२॥ध.। बि लाख सोनहियां तणउ ए, खंभायत व्यय कीध । ध। वस्तपाल तेजपालना ए, सकल मनोरथ सीध ।१३। घ.। उदयप्रभसूरि प्रमुख ना ए, पदठवणां एकवीस । ध.। महुछर सेती करावीया, जाचकां पूरी जगीस ॥१४॥ध.। जैन ना रथ नोपजावीया ए, दांत तणा चउवीस । घ. जैन देहरासर सागना ए, ते पणि एकसउ वीस ११ घ.। १ चारसय वर. २ बत्तीस । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुपाल तेजपाल रास (५५३ ) - बेदीया ब्राह्मण पांचसई ए, वेद भणइ दरबारि । ध.। गछवासी जती सातसइ ए, सूझतउ ल्यइ आहार ।१६। घ.। एक सहस नइ आठसइ ए, विहरइ एकल विहार । ध.। एक हजार तापस वली ए, मठवासी अधिकार ।१७। ध.। परिघल सहु नइ पोखीयइ ए, अन पाणी भरपूर । ध.। दय दयकार दीसइ सदा ए, प्रगव्यउ पुण्य पडूर ।१८। ध.। संघ पूजा वलि कोजीयइ, वरस माहे त्रिण वार । ध.। साहमीवछल कीजीयइ ए, अाभ्रण वस्त्र अपार ।१६। ध.। सेजना संघवी थई ए, साढ़ी बारह जात्र । ध। वस्तपाल तेजपाल करी ए, निरमल कीधा गात्र ।२०। ध। सर्वगाथा २५ दूहउ-२ संवत बार सत्योतरह, पहिली सेञ्ज जात्र । कीधी सबल पडूर सु, ते कहियइ लव मात्र ॥१॥ सर्वगाथा २६ ढाल-त्रीजी तिमरी पासइ वडलु गाम, एहनी ढाल. वस्तपाल तेजपाल बेहु भाई, सेजुञ्ज जात्र नी कीधी सजाई। पांच सहस पांचसइ सेजवाली, वलीय अढारसइ वहिली रंगाली।। सातसइ वलि सिहासन सोहइ, पांचसइ पालखी जन मन मोहह। उगणीस सइ सीकरी अतिसार, चपल तुरंगम च्यार हजार।२। करहलां कोटइ घूघरमाल, बि सहस सोहइ संघ विचाल । जैन गायन च्यार सइ चउरासी, तेत्रीस सइ बंदीजन भासी।३। तेत्रीसइ बलि वादी भट्ट, सातसइ आचारिज गह गट्ट । इग्यारह सइ दिगंबर साध, एकवीस सइ सेतंबर बाध।४। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५४ ) समय सुन्दरकृति कुसुमाञ्जलि चालता साधि पाणी तलाव, ए सहु पुण्य तराउ परभाव । तेत्रीस सह दांतना देवाला, बारह सइ सागना सुविसाला | ५ | संघ मांहे माणस सात लाख, ए सहूना परबंधे साख । सरसती कंठाभरण विरुद्द, चउवीस बोलइ भट्ट सुसद्द | ६ | दल बादल डेरा तंगोटी, फरहर नेजा धजा अति मोटी । सबल आडंबर रायनी रीति, संघ चालइ सहु संतोष प्रीति । ७ । जयत पताका तेत्रीस वार, संग्राम करि नइ पामी सार । एहवी साढ़ा बारह जात्रा कीधी, सेञ्ज संघवी पदवी लीधी । ८ । वि सहू पुण्यवरानी वात, जे द्रव्य खरच्या तेह कहात । तेत्रीसह कोड़ि चउदह लाख अठार सहस आठसइ सहु साख । ६ । त्रिहुं लोहड़िए ऊणा सोनहिया, पुण्यवरइ खरच्याते कहिया । जिण सासण मांहे सोह चड़ावी, बारसइ अठाएँ देवगति पावी । १० । वस्तपाल तेजपाल पुण्य प्रधान, जेह नइ पगि २ प्रगट्या निधान । पुण्य थी पामी तेजम तूरी, दक्षिणवरत संख आसा पूरी | ११ | इम जाणी सहु को वित सारू, धन खरचउ विवहारी वारू । सफल करउ अपण अवतार, जिम तुम्हे पामउ भवनउ पार | १२ | श्री खरतरगछ श्री जिणचंद, शिष्य सकलचंद नाम मुदि । समयसुन्दर पाठक तसु सीस, रास भण्यउ श्री संघ जगीस | १३ | संवत सोल सइ व्यासीया वरपे, रास कीधउ तिमिरीपुरी हरषे । वस्तपाल तेजपाल नऊ ए रास, भणतां सुणतां परम हुलास | १४| इति श्रीवस्तपाल तेजपाल रासः सम्पूर्णः । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुञ्जरत्न ऋषि रास ( ५५५ ) पुंजरत्न ऋाष रास श्री महावीर ना पाय नम, ध्यान धरूं निशदीश । तीरथ वर्ते जेहनो, वरस सहस इकवीस ॥१॥ साधु साध सहु को क है, पिण साधु छै विरला कोइ । दुःषम काले दोहिलो, सबल पुण्य मिलइ सोय ॥ २॥ पण तप जप नी खप करै, पालइ पंचाचार । सूत्रो बोल्यो साधु ते, वंदनीक व्यवहार ॥३॥ भला दान शील भावना, पिण तप सरिखो नहीं कोय। दुःख दीजइ निज देह नै, 'बाते बड़ा न होय ॥४॥ मुनिवर चउद हजार मई, श्रेणिक सभा मझार । वीर जिणंद वखाणियो, धन धन्नो अणगार ॥५॥ वासुदेव करै वोनति, साधु छै सहस अढार । कुण अधिको जिनवर कहै, ढंढण ऋषि अणगार ॥ ६॥ ए तपसी आगइ हुवा, पणि हिवे कहुँ प्रस्ताव । आजनइ कालइ एहवा, पुञ्जा ऋषि महानुभाव || ७ ॥ श्री पार्श्वचंद ना गच्छ माहे, ए पुञ्जो ऋषि श्राज । आप तरै नै तारवै, जिम बड़ सफरी जहाज ॥ ८ ॥ पुञ्ज ऋषि पृच्छा धरम, संयम लीधो सार । कोधा तप जप करा, ते सुणज्यो अधिकार ॥६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५६ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि - - ढाल गुजरात मांहिं रातिजगाम, करडा पटिल गोत्र नो नाम । बाप गोरो माता धन बाई, उत्तम जाति नहीं खोट कांड ॥१०॥ श्रीपार्श्वचंदसरि पाटसमरिचंद्रसरि, श्रीराजचंद्रसूरि विमलचंद सनूरि तेहना वचन सुणि प्रतिबुद्धो, असार संसार जाण्यो अति सुद्धो॥११॥ वैरागइ आपणौ मन वाल्यौ, कुब माया मोह जंजाल टाल्यो। संवत् सोलइसे सित्तरा वर्षे, संयम लीनो सदगुरु परखइ ॥१२॥ दिक्षा महोत्सव अहमदाबादइ, श्रावक कीधौ नवलै नादै। पुञ्जो ऋषि सुद्धो व्रत पालइ, दूषण सघला दूरइ टालइ ॥१३॥ ए ऋषि पुञ्जो सूझतोल्ये आहार, न करै लालच लोम लिगार। ऋषि पुञ्जो अति रूड़ोहोवइ, जिन शासन मांहे शोभ चढावइ ॥१४॥ तेहना गुण गातां मन मांहि, आनंद उपजै अति उच्छाहे। जीभ पवित्र हुवे जस भणतां, श्रवण पवित्र थाये सांभलतां ॥१५॥ ढाल ऋषि पुंजे तप कीधौ ते कडं, सांभलजो सहु कोई रे । आज नइकालै करइ कुण एहेवा, पणि अनुमोदन थाइ रे॥१६॥ आठ उपवासं कीधा पहिली, आठ अति चोवीहार रे । मासक्षमण कीधा दोइ मुनिवर, बीस बीस वे वार रे । १७॥ पक्ष-क्षमण पैंतालीस कीधा, सोल कीधा सोलह वार रे। चउद चउद चवदे बारइ कीधा, तेर तेर करया तेरह रे ॥१८॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुजरत्न ऋषि रास (५५७ ) बार बार बारह वर कीधा, दस दस चउ चौवीस रे । बे सै पंचास अठाइ कीधी, मन संवेग सँ मेल रे ॥१६॥ छठ कीधा वलि सित्तर दिन लगै, पारणे छासि आहार रे। ते मांहि पिण एक अठाइ, कीधी इण अणगार रे ॥२०॥ बासठ दिन तांइ छठि कीधी, पारणइ छासि आहार रे। बार बरस लगि विगय न लीधी, ऋषि पुजा नै सावासरे।।२१।। वरस पांच लग वस्त्र न अोढ्यो, सह्यो परिसह सीत रे । साढा पांच वरस सीम आढो, स्वतो नहीं सुविदीत रे ॥२२॥ अभिग्रह एक कीधो वलि एहवो, चिठी लिखी तिहां एम रे। च्यार जणी पूजा करि इहां, तो घी बहिरावइ सुप्रेम रे॥२३॥ तौ पुंजो ऋषि ले नहीं तर, जावजीव ताई संस रे। ते अभिग्रह तीजै वर्षे फलीयो, श्री संघ नी पहुँची हंस रे॥२४॥ इण परि तेह अभिग्रह पहुतो, ते सांभलज्यो बात रे। अहमदाबादी संघ नरोडइ, वांदवा गयो परभात रे ॥२५॥ तिण अवसर फूलां गमतांदे, जीवी राजुलदे च्यार रे। पूजा करि बांदी बिहरायो, सूझतो घी सुविचार रे ॥२६॥ मौटो लाम थयो श्राविका ने, टाल्यो तिहां अंतराय रे । इण चिहुँ नै मन वंछित वस्तु नो, अंतराय नवि थाय रे ॥२७॥ वलि धन्ना अणगार तणो तप, कीधो नव मासी सीम रे। ते मांहिं बी अठाइ उपवास, च्यार अठम च्यार नीम रे॥२८॥ छमास सीन अभिग्रह कीधा, कोई फल्यो उपवास च्यार रे। उपवास सोल फल्यो कोइ, एह तप नौ अधिकार रे ॥२६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५८ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि छठम अहम प्राकरा तप कीधा, ऋषि पुजे वलि जेह रे। तेह तणी कहुँ बात केती, कहतां नावै छेह रे ॥३०॥ अठावीस वरस लगि तप कीधा,ते सघला कह्या एम रे। आगलि वलि करिस्यै ऋषि पुंजो, ते आणिस्यइ तेम रे॥३१॥ ढाल पुंजराज मुनिवर बंदो, मन भाव मुनीसर सोहै रे। उग्र करइ तप आकरौ, भवियण जन मन मोहइ रे ॥३२॥ धन कुल कलंवी जाणीयइ, बाप गोरो ते पिण धन्न रे । धन धना बाइ कुखड़ी तिहां, उपनो एह रतन रे ॥३३॥ धन विमलचंद सूरि जिणे, दीख्या दीधी निज हाथ रे। धन श्री जयचंद्र गच्छ घणी, जसु साहु रहै ए पास रे॥३४॥ आज तो तपसीएहवो, पुजा ऋष सरीखो न दीसइरे। तेहन वंदता विहरावतां, हरखै करि हियडौ हींसइ रे ॥३॥ एक बे वैरागी एहवा, श्री पासचंद गच्छ मांहिं सदाई रे। गरुड़ बाढइ गच्छ मांहि, श्री पासचंदसूरि नी पुण्याइरे॥३६॥ संवत सोल अठाणुअइ, श्रावण पंचमी अजुवालइ रे । रास भण्यो रलियामणो, श्री समयसन्दर गुण गाइ रे ॥३७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशी प्रदेशी प्रबन्ध ( ५५६) केशी प्रदेशी प्रबन्ध धन धन प्रयवंती सुकुमालनइ एहनी, ढाल । श्री सावत्थी समोसर्या, पांचसइ मुनि परिवारो जी। चउनाणी चारत्तिया, केशी श्रमण कुमारो जी ।। .. केशी नइ करु वंदना, पारसनाथ संतानो जी। . परदेशी प्रतिबोधियउ, मिथ्यामति अज्ञानोजी २१ के.। आं. श्रावक थयउ चित्र सारथी, ते लेइ गयउ तेथोजी। परदेशी पापी हुतउ, कहइ जीव जुदउ न केथो जी।३। के.। केशी प्रदेशी भेला थया, चित्र प्रपंच थी दोयो जी। प्रश्न उत्तर थया परगड़ा, ते सणजो सहु कोयो जी।४। के.। .. ढाल बीजी-नींवइयानी प्रश्न करइ परदेशी एहवउ, परलोक मानु केमो जी। जीव नइ कोया ते नहीं जूजुत्रा, इह लोक ऊपरि प्रेमो जी। १ प्र.) दादउ हुँतउ माहरइ दीपतउ, करतउ पाप अघोरो जी। तुम्हारइ वचने ते नरके गयउ, जिहां वेदन छइ जोरो जी। २ प्र.। हुँ पणि तेहनउ अति वल्लभ हुँतउ, ते आविनइ कहतउ जी। पाप म करिजे तुं माहरी परि, दुःख देखिस दुर्दन्तो जी।३ प्र.। केशी गुरु उत्तर कहह एहवउ, सुणि परदेशी रायउ जी। जीव काया छइ बेउ जूजुश्रा, जुगति थकी समझायउ जी। ४ प्र.। केशी गुरु उत्तर द्यइ एहवउ ॥ आंकणी ॥ सुणि परदेशी ताहरी भारजा, सरिकता नामो जी। भोगवतउ देखइ तेहनइ, नरनइ स्यु करइ तामो जी। ५ के.। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६० ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि तउ हुँ बांधू मारू तेहनइ, ते कहे मूकि लगारो जी। कुटंब नइ कहि आवुहुँएहवं, मत करउ एह प्रकारो जी। ६ के.। तउ तुमूकइ ना मृकुं नहीं, तिण परि नारकी जीवो जी। परमाहम्मी खिण मूकइ नहीं, तिहां पड्यउते करइ रीवो जी । ७ के.। वलि प्रदेशी कहइ दादी हुँती, करती तुमारउ धर्मो जी।। तुम्हारे वचने ते थई देवता, सुखी हुस्यइ शुभ कर्मो जी।८ प्र.। हुँपणि दादी नइ वल्लभ हुँतउ, तिण पणि न कह्यउ मुझो जी। जीवदया पाले जिन धर्म करे, सुख संपति छइ तुज्झो जी।६ प्र.। सुणी नृप स्नान करि तुं नीसर्यउ,देहरा भणी सुपवित्तो जी। विष्ठा घर मांहि बइठउ आदमी, तेडइ तु आवि तुरंतो जी।१० के.। तिहां तु जायइ कहइ जाउं नहीं, तउ ते आवइ केमो जी। काम भोग लपटाणा ते रहइ, इहां दुर्गन्ध छइ एमो जी ।११ के.। कोटवाल चोर झाली आणी दियउ, मइंते परीक्षा निमित्तो जो। लोह कुंभी मांहि घाली काठउ,जड्यउब्यंघउ वार विछित्तो जी।१२। वलि कुंभी उघाड़ी एकदा, मूयउ दीठउ तिवारउ जी। कहउ ते जीव हुंतउ तउ किहां गयउ,छिद्र नदीसइ लगारउ जी।१३। कूड़ागार शाला जिहां छिद्र नहीं,ते मांहिं बइठउ कोयो जी। जउ ते भेरि बजाइ जोर सं, शब्द सुणइ तुं सोयउ जी ।१४ के.। कहि ते शब्द किहां थी नीसर्यउ, छिद्र पड्यउ नहीं कोयउ जी। तिम ए जीव सरूप तुजाणिज्ये, अप्रतिहत गति होयोजी।१५ के.। चोर कभी मांहि घाल्यउ मारिनइ, वलि एकदा ते दीठउ जी। जीवाकुल दीठी देही तिहां, छिद्र विण किम ते पइठउ जी १६ प्र.। लोह नउं गोलउ धमणी माहइ, धम्यउ लाल थयउ तत्कालउ जी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशी प्रदेशी प्रबन्ध ( ५६१ ) छिद्र वि अनि पठी कहि किम इहां, तिम तँ जीव निहालउजी । १७ के। जीवतउ नइ मुंयउ चोर मई तोलियउ, लाकड़ि घाली तंतो जी । बेउ बराबर सरखा ऊतयां, विण जीव छउ हूँउ जी । १८ प्र.। दहड़ी पाय भरी ठाली थकी तोलीजड़ जउ बेयो जी । as घट नहीं बे तोली थकी, ए दृष्टान्त कहेयो जी । १० के .। चोर एक मई तिल तिल चीरनइ, जोयउ जीव छइ केथो जी । पण ते जीव न दीठउ मई किहां, जीव जुदउ नहीं एथो जी | २० प्र. । अनि लेइ नइ केइ गया काननइ, काष्ट लेवा नइ काजो जी | भोजन भणी ते सहु मेला थया, सगलउ मेल्यउ साजो जी । २१ के.। आणि ओल्हार गई ते हवइ, कहि कुरा करिस्य चालो जी । अरणी नउ सरियउ घसि लाकड़ा, अगनि पाड़ी तत्कालो जी । २२ के. । काष्ट मांहि ते निन दीसती, पण ते प्रगटी प्रत्यक्षो जी । तिम ते जीव जुदर काया थकी, अमूरत एह अलतो जी । २३ के. तरुण पुरुष कोई सबल पराक्रमी, सकल कला नउ जाणो जी । तिम ते बालक मंद पराक्रमी, नांखी न सकइ बाणो जी | २४ प्र. तिण काया तेहिज जीव जाणिवउ, जउ जुदउ जीव हुँतउजी । तर जीव सरुण बालक बिहुँ मई हुँतउ, बालक नांखि सकंतउ जी । २५प्र. तरुण नांख बालक नांखड़ नहीं, प्रबल मंद बल हेतो जी । जीवन काया तिण जुदी नहीं, सरदहगाए फेरो जी | २६ प्र. | तरुण पुरुष प्रति सबल पराक्रमी, पणि धनुष घण खाधो जी। पणच जुनी नइ घण खाधी वली, तर सल्यउ नइ आधो जी । २७ के. तरुण तिकड तीर कां नांख नहीं, नृप कहह नहीं काज कोयो जी । तिंभ वे बालक मांहि सगति नहीं, पण जुदउ जीव होयो जी । २८ के, । * Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६२ ) समयसुन्दरकृति कुपुमाञ्जलि इहां वलि बोजड दृष्टांत दाखव्यउ, भारवाहक नउ विचारो जी । भारवाहर ताउ कावडी भली, साज बिना नाकारो जी 1२६ के. | सूत्र वांची नइ सगलुं समझज्यो, तिहां विस्तर संबंधो जी । केशी प्रदेशी राजा तउ, समयसुंदर कहर प्रबन्धो जी । ३० के. । दाल तीजी - - राजिमतो राखी इस परि बोलइ, नेमि बिना कु घुंघट खोलs | ४ । प । ५ । प. । इत्यादिक प्रश्नोत्तर करतां, हेतु जुगति हिया मांहि धरतां । परदेशी राजा प्रतिबोध्यउ, केशी गुरु श्रावक कियो सूधउ । २ । प. । मिथ्यात नी मति दूर निवारी, साची सर्द हा मन धारी । ३ । प. । हिंसा दुर्गतिना दुख खाणी, जीव दया साची करि जोणी । जूदउ जीव नई जूदो काया, परलोकगामी जीव जणाया । जड्डु तणी बात जाणी जिवार, मई जाणुं तुमे ज्ञानि तिवारइ । ६ । प. । पण जाणत हुँ वांकउ बोल्यउ, हेतु जुगति करतां हिथ उ खोल्यउ |७| आपणउ सगलउ अपराध खामइ, केशी गुरु नइ निज शीस नामह । श्रावक ना बारह व्रत लीधा, जन्म जीवित सफला सहु कीधा । प० । उतपति समवसे गामनी कीधी, त्रिहुं वाटे वांटी नइ दीधी । १० प . । राज, अंतेउर, पुण्य नइ खाता, इस परिठी रहई दिन रातहूं । ११ । १ । रमणिक पणुं रूडो परि राख्णुं, भली परि मान्युं गुरु भाख्यं । १२ प. । श्रीजी ढाल थई ए पूरी, समयसुन्दर कहि बात अधूरी | १३ | प डाल ४ - राग धन्याश्री - पास जिन जुहारियइ, एहनी ढाल परदेशी श्रावक थयउ, बारह व्रत सुधा पालह रे । मूल अनइ उचर तणा, दूषण ते सगला टालह रे । १ । १ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशी प्रदेशी प्रबन्ध (५६३ ) पोषउ पडिकमणउ करइ, साध साधवी नइ द्यइ दानो रे। शीलवत सधुंधरइ, रात दिवस करइ ध्रमध्यानो रे ।२।प.। निज स्वारथ अन-पहुंचतां, निज सूरिकन्ता नारो रे । पापिणी पति नइ विष दियउ, पिण देखस्यइ दुःख भारो रे। ३.प.। अणसण नइ आराधना छेहडइ, करि सद्गुरु शाखि रे। पाप आलोइ पडि कमी, वलि मिच्छामि दुक्कडं दाखि रे । ४ । प.। काल करीनइ ऊपनउ, पहिलइ देवलोक मझारो रे। सूरिआभ नामइ देवतां, आउखं पल्योपम चारो रे । ५। १.। आमलकल्पा आविनइ, श्री महावीर नइ आगइ रे। छत्तीस बद्ध नाटक कियउ, रूडि परि मन नइ रागिइ रे । ६ । प.। भगवंत नइ भव पूछिया कह्यउ, तु छई चरम शरीरी रे। । सूरियाभ वार्ता सहु, गौतम पूछी कहि वीरो रे।७।प.। सूरियाम तिहां थी चवी, उपजस्यइ महा-विदेहो रे । उत्तमकुल ते पामिस्यइ, पणि नहीं करइ कुटब सनेहोरे । ८।प.। थविर पासि संजम धरी, तप आम आदरस्यइ रे। केवलज्ञान लही करी, आठ कर्म तणउ अंत करिस्यइ रे । ६ । प.। रायपसेणी सूत्र थी, केशी प्रदेशी प्रबन्धो रे । समयसुन्दर कहइ मैं कियउ, सज्झाय भणी संबंधो रे ।१०। प.। ___सर्वगाथा ५७ ॥ इति श्री केशी प्रदेशी प्रबन्धः समाप्तः । सं० १६६६ वर्षे चैत्र सुदि २ दिने कृतोलिखितश्च श्री अहमदाबाद नगरे श्रीहाजापटेल पोल मध्यवर्ती श्रीवृहत्खरतरोपाश्रये भट्टारक • श्रीजिनसागरसूरि विजयिराज्ये श्रीसमयसुन्दरोपाध्यायैः पं० हर्षकुशलगणि सहाय्यैः। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि क्षुल्लक ऋषि राप्त राग--गउड़ी । इकदिन महाजन आवए अथवा श्री नवकार मनि ध्याइयइ, ए गीता छन्द नो ढाल पारसनाथ प्रणमी करी, जालोर ज्योति प्रकाशो जी। भाव भगति सुहुँ भण, ऋषि क्षुल्लक नउ रासो जी॥ ऋषि क्षुल्लक नउ रास हुँ भएँ, गिरुयानांगुण गावर्ता । आपणी जीभ पवित्र थायइ, श्रावक नई संभलावतां ।। ए भरत क्षेत्र मई अति मनोहर, अयोध्या नामइ पुरी। . तिहां लोक ऋद्धि समृद्धि सहु को, पारसनाथ प्रणमी करी॥१॥ राज करइ तिहां राजियउ, पुण्डरीक नाम नरिंदो जी। गुणसुन्दरी तसु भारिजा, पामइ परमाणंदो जी ॥ पामइ परमाणंद तेहनइ, कंडरीक भाई भलउ । भारिजा तेहनइ जसोभद्रा, रूप शील कला निलउ । एक दिवस सुन्दर रूप देखी, राजा चित्त विचारियउ । भोगवं जिम तिम करी भउजाई, राज करइ तिहां राजियउ॥२॥ कामातुर न करइ किसु, क्रोधी किसुन करेउ जी। लोभी पिण न करइ किसुं, आप मरइ मारेवउ जी ।। आपण मरइ न मारेउ कांइ, अकारिज कारिज किसं । करतो न जाणइ पड्यउ परवसि,मद पीधइ माणस जिसुं॥ पापियउ प्राणी इम न जाणइ, नरग ना दुख देखिस। इह लोक माहे हुस्यइ अपजस, कामातुर न करइ किसु॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुल्लक ऋषि रास ( ५६५) मल भला करइ राव भेटणा, चंदन चोवा अबीरो जी। माणिक मोती मंगिया, चोली चरणा चीरो जी॥ चोली मइ चरणा चीर सखरा, सुखड़ा सुसव द ए । रली रंग स्यु लइ जसोभद्रा, जाणइ जेठ प्रसाद ए॥ उपाय मांड्यउ राय एहवा, मन धीरिज ना मेटणा। पुण्डरीक कामातुर थयउ घणु, भल भला करइ भेटणा ॥ ४॥.. एक दिन एकान्ते आव ए, प्रारथना करइ राजो जी । भोग भोगवि भला मुझ सु, मन सेती मन लायो जी॥ मन सेती मन लाय मुझस, मकरिस ताणा ताण ए। ताहरउ जोवन जाइ लहरे, तु छइ चतुर सुजाण ऐ॥ एहवइ धीरिज रहइ ते धन, परलोक सुख पाव ए। पणि करम नइ वसि पड्यउ प्राणी,एक दिन एकांत आवए॥५॥ एह सराग वचन सुणी, मुहड़इ आंगुली देयो जी। भउजाई कहइ मत भणइ, लोक मई लाज मरेयो जी ॥ लोक मई लाज मरेय बांधव, थकी इम किम बोलियइ । धीरिज धरंता धरम थायइ, धरम थी नवि डोलियइ ॥ उपाय मांड्यउ अधम राजा, भाई नउ मारण भणी। कामान्ध माणस किसुन करइ, ए सराग वचन सुणी ॥६॥ भाई मारि मँडउ कियउ, हुयउ हाहाकारो जी। शील राखण नारी सती, शील वडउ संसारो जी ॥ शोल वड़उ जाणी जसोभद्रा, साथ मई भेली थई । हा दैव ! स्यु थयु दुःख करती, सावथी नगरी गई । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६६ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि पाधरी पहुँती धरमसाला, साधवी धरम सुणावियउ । चारित लीधउ चतुर नारी, भाई मारि भुंडउ कीयउ ॥७॥ ढाल बीजी। राग-कालहरउ, तुङ्गिया गिरि शिखरि सोहइ अथवा-बूझि रे तू बूझि प्राणी ए गोत नी ढाल. भली साधवो यशोभद्रा, पालइ पंचाचार रे।। विनय वेयावच करइ वारू, गिणइ गुरुणी नी कार रे। १। भ.। एक दिन पेट नउ गरभ दीठउ, गुरुणी पूछयुस्युएह रे।। पति नउ गरभ ए हुतउ पहिलउ, नहिं पछिलउ निसंदेह रे।। भ.। बाई तु बाहिर म जाई, करिस्यां अम्हे सहु काज रे। गुरु गुरुणी मा बाप सरिखा, राखै छोरू लाज रे।३। भ.। पूरे मासे पुत्र जायउ, नामइ खुल्ल कुमार रे । सज्यातरी श्राविका पाल्यउ, पडदा पोश प्रकार रे । ४ । भ.। आठ वरस नउ थयउ एहवइ, माता नी मानी सीख रे। आचारिज श्री अजितसरि नइ, पासइ लीधा दीख रे । ५। भ.। सूत्र सिद्धांत भण्या भली परि, बार बरस थया जाम रे। हरिहर ब्रह्मा जिण हराव्या, ते तसु जाग्यउ काम रे । ६ । भ.। मा पास जइ कहइ मुनिवर, मन नहीं माहरु ठाम रे। श्रा ल्यइ ओघउ महपती तं, को नहीं माहरइ कामरे। ७ । भ.। कठिन लोचनइ कठिन किरिया, कठिन मारग जोगरे। सील पालिवउ नहीं सोहिलउ,हुँ भोगविसुं काम भोगरे। ८ । भ.। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुल्लक ऋषि रास (५६७ ) साधवी माता कहइ सांभलि, मुंडा ए काम भोग रे। आलिंगन लोह पूतली सु, परमाहम्मी प्रयोग रे।।। भ.। कुण जाणइ आगल किस्य छइ, प्रत्यक्ष मीठउप्रेम रे। गरुणी कीर्तिमती छइ माहरइ, ते कहइतुं करि तेम रे ।१०। भ.। सीख घउ मुझशील न पलइ, मुझ तुमे मात समान रे। बार वरस रह्यो मां नइ आग्रहइ, बार वरस मुझ मान रे।११। भ.। तुल्लक मांहि दाक्षिण्य भलउ, ते पणि मानी बात रे । बार बरस जिम तिम रह्यो,पणि धुरिली न गई धातरे।१२। भ.। गुरुणी कहइ गुर पासि जा तुं, जिणि तुनइ दीधी दीख रे। गच्छनायक पासि जइ कहइ, सामी यउ मुझ सीख रे ।१३। म.। गच्छनायक प्रतियोधि दीघउ, पणि लागउ नहीं कोई रे। करम विवरउन धइ त्यां सीम, जीव नउजोर न होइ रे।१४। भ.। आचारिज कहइ गच्छ अम्हारउ, उपाध्याय नइ हाथि रे। एकला अम्हे कांइ न करूं, सहु उपाध्याय साथि रे ।१५। म.। मन विना पणि ववन मानी, पहुँतउ उपाध्याय पासि रे। उपाध्याय कहइ परखि इणि परि,वलि सउतिम पंचास रे।१६।भ.। बार बरस लगि रह्यउ अबोलउ, दाखिण गण निसदीस रे। ऊचल चित्त चित्त रह्यउ इसी परि, वरस अठतालीस रे।१७। भ.। आपणी माता पासि आन्यउ, बोलइ बेकर जोडि रे। श्रा ओघउ हुं रहि न सकु, जाउं छुव्रत छोडिरे ।१८। म.। मोहनी वसि कहइ माता, संपति विणुनहीं सुख रे। पीतरिया पासि जा त पाधरउ, देखिस नहीं तरि दुःख रे।१६। मः। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६६ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि रतन कंबल मुद्रडी ल्य, करिस्यइ ए सहु काज रे । दी आपस्य तु नइ, आधउ आपण राज रे । २० म. रिपड़उ रमतउ थकउ, चाल्यउ चंचल चिच रे । उतावलउ उ अयोध्या, राज लेवा निमित्त रे | २१ | म. । ढाल श्रीजी, जाति परिया नी । सखि जादव कोडि सु परिवरे प्रियु आये तोरण वारि रे एह गीत नी ढाल || मीठा गीत रे । तिथि अवसर नाटक तिहां राजा, आगला पड़इ राति रे । मिली खलक लोगाई, वयरी मांटी बहु भांति रे । १ । नटुई नाटक करइ, मुखि गायह नर नारी मोही रह्या, पणि रोझ राति सारी नटुई रमी, पणि घर नहीं नदुई नीरस थइ भमती, भांजइ दिलगीर दान विना थई, ऊँघ सेती आंखि घोलाई रे । नहीं चिच रे । २ | न. । I राजा दान रे । तान मान रे । ३ | न. | नटुयउ गाथा कही, रंग मह भंग म करे काई रे । ४ । न । नश्चियं साम सुन्दरि गाथा यथा - सुहु गाईयं सुट्टु वाइयं सुटु पालिय दीह रायं सुमिरणं ते मास मास माय ए ॥ २१ ॥ रतन कंबल क्षुल्लक दीयउ, कुमरइ दिया कुण्डल दोई रे । 7 Bear को आपियउ, राजा निजरि जोय रे | ५ | न. । पीलवा पियउ, सारथवाही दीयउ हार रे । पांचे अति रंजिया, तिथ दीघउ दान अपार रे | ६ | न. | Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुल्लक ऋषि रास (५६६ ) लाख लाख मोल पांचनउ, नटुइ हुई सबल निहाल रे। बीजे पणि लोके, मन मान्यउ दीधो माल रे । ७ । न. रीस करी राय ऊठियउ, परभाते तेड्या पंच रे। पहिलउ दान किम दियउ खरइ, कहई ते नहिं खल खंच रे। ८ ।न.। कुमर कहइ राजि सांभलउ, मुझनइ तुम्हे द्यउ नहीं राज रे। नाटक उठतां पछो, राजा मारी लेउं आज रे।। ।न.। एहवइ नाटकणी दियउ, मुझ नइ प्रतिबोध अपार रे । घणउ काल गयउ हिवथोड़इ, लियइ जनम म हारिरे।१०।न. मंत्रि कहइ राजि संभलउ, मुझ नइ न घउ वाडी ग्रास रे। आज वयरी तेड़ि नइ, राज तणउ करूँ नास रे ।११न.। तुल्लक ऋषि बोल्यउ खरउ, दीक्षा मांहि दीठा दुक्ख रे। श्राज आधउ राज लेईनइ, संसार ना भोगवु सुक्ख रे।१२।न.। मीठ कहइ राजि मुझनइ, तु यह नहीं पूरउ ग्रास रे। हाथी नइ अपहरी, जाण्यु जासुबीजा पासि रे ।१३।न.। सार्थवाही साचूँ काउ, आज लोपसि कुलाचार रे। बार बरस पूरा थया, अजी नाव्यर मुझ भरतार रे ।१४।न.। राजा कहइ पांचां प्रति, हूँ पूर्स सगली आस रे। पणि ते पांचई कहइ अम्हे, न पडु पाप नइ पासि रे ।१शन.। अम्हे काम भोग थी ऊभगा, जाण्यउ संसार असार रे। जोवन धन कारिमु, अम्हे संजम लेस्यु सार रे।१६।न.। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७० ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ढाल चउथी-नीवइयानी अथवा चरण करण धर मुनिवर बंदियह ए-श्री पुण्य पागर उपाध्याय नी कीधी साधु वदना नी ढाल। ए पांच जणे संजम आदर्यउ, श्री सद्गुरु नइ पासो जी। अचरिज लोक सहू नइ उपनउ, सहु आपइ साबासो जी। १ ए.। पाप थकी पाछा बल्यो, सफल कियउ अवतारो जी। तप जपकिरिया कीधी भाकरी, पाम्यउ भव नउ पारोजी। २ ए.। तुल्लक कुमर मांहे सवलउ हुँतउ, दाक्षिण गुण अभिरामो जी। पाप करंतां विचमें विलंब करी, प्राण्यउशुभ परिणामो जी।३ ए.। परमादइ पहिलु हुयइ पापिया, पछइ प्राण्यउ मन ठामो जी। दशवकालिक सूत्र माहे कयौ, ते उत्तम गति पामो जी। ४ ए.। ते पांचे प्रतिबूधा देखि नइ, प्रतिबूधा बहु लोको जी। समकित श्रावक नाबत आदर्या, जीवदया यथा योगो जी। ५ ए.। श्रावक श्राविका सहु को सांभलउ, तुम्हे छउ चतुर सुजाणो जी। जन्म जीवित सफलउ करउ आपणउ, करउआखड़ी पच्चक्खाणोजी सवत सोलइ सइ चउराणुयइ, श्री जालोर मझारो जी।। समयसुन्दर चउमासउ इहां रह्या,जाण्यउ लाभ जिवारोजी।७ ए.। लूणीए फसले लाग देखी करी, रोख्या आपणइ पासो जी।। रूड़ी रहणी देखी रंजिया, सहु को कहइ साबासो जी। ८ ए लूणिया फसला दृढ़ साउंसखाँ, सकज कांकरिया साहो जी। जिनसागरसूरि भावक थया, आणी मनि उल्लासो जी। ए.। रिपि मंडल टीका थकी ऊद्धर्यो, नुल्लक कुमर नउ रासो जी। समयसुंदर कहइ सामग्री सदा,लहिज्यो लील विलासोजी।१० ए.। सर्वगाथा ५४ इति श्री क्षुल्लक रासः समाप्तः । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुञ्जय रास श्री शत्रुंजय तीर्थ रास श्री रिसहेसर पय नमी, आणी मनि आणंद | रास मणु रलियामउ, सत्रु नउ सुखकंद || १ || संवत च्यार सत्योतरइ, हुयउ धनेसरसूरि । तिण सेज महातम कीयउ, सिलादित्त हजूरि ॥२॥ वीर जिगिंद समोसर्या, सेत्रुज उपरि जेम । इंद्रादिक आग काउ, सेज महानम एम ||३| सेज तीरथ सारखउ, नहीं छह तीरथ कोय । सर्ग * मृत्य पाताल मह, तीरथ सगला जोय ॥४॥ नामइ नवनिध संपजइ, दीठां दुरित पलाय | भेटता भवभय टलई, सेवतां सुख थाइ ||५|| जंबू नामह दीप ए, दक्षिण भरत मकार ! सोरठ देस सोहामणउ, तिहां छड़ तीरथ सार ||६|| १८वीं शती के भक्तिविशाल के ओसियां में लिखित प्रति में प्रारम्भ में निनोक्त दो श्लोक अधिक हैं ( ५७१ ) श्री शत्रुञ्जय तीर्थस्य संति रासा श्रनेकशः । प्रवर्त्तमानास्सर्वत्र नाना कवि विनिर्मिताः ॥ १ ॥ परं मया स्वजिह्वायाः पवित्र करणार्थिना । ग्रन्थानुसारतश्चक्रे रासः स्त्रपरहेतवे ॥२॥ युग्मम् कृतं श्री समय सुन्दरैः । * स्वर्ग मृत्यु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७२ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ढाल पहिली-नयरी द्वारामती कृष्ण नरेस एहनी, राग रामगिरि । सेत्रञ्जर नइ श्री पुण्डरीकर, सिद्धक्षेत्र कहुं तहतीक । विमलाचल नइ करूँ प्रणाम, ए सेत्रुञ्ज ना एकवीस नाम ॥१॥ सुरगिरि नइ महागिरि पुण्यरासि', श्रीपद पर्वत इंद्रप्रकासि। महातीरथ पूरबइ सुखकाम, ए सेजुञ्ज ना एकवीस नाम ॥२॥ सासतउ पर्वत नई दृढशक्ति, मुक्ति निलउ तिण कीजइ भक्ति। पुष्पदंत महापद्म सुठाम, ए सेञ्ज ना एकवीस नाम ॥३॥ पृथिवीपीठ सुभद्र केलास, पातालमूल अकर्मक तास । सर्व कामद कीजइ गुण गाम, ए सेत्रुञ्ज ना एकवीस नाम ॥४॥ ए सेव॒ञ्ज नां एकवीस नाम, जपइ जे बइठइ" अपणी ठाम । सेत्रुज यात्रा नउ फल लहइ, महावीर भगवंत इम कहइ ॥५॥ सर्व गाथा ११ दहा सेवजउ पहिलइ अरइ, असी जोयण परिमाण । पहिलउ मूलइ ऊँच पणि, छब्बीस जोयण जाणि ॥१॥ सत्तरि जोयण जाणिवउ, बीजइ अरइ विसाल । वीस जोयण ऊँचउ काउ, मुझ वंदणा त्रिकाल ॥२॥ साठ जोयण त्रीजइ अरइ, पिहुलउ तीरथराय । सोल जोयण ऊँचउ सही, ध्यान धरूं चितलाय ॥३॥ । बैठौ आपणी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रु जय रास ( ५७३ ) पंचास जोयण पहिलपणि, चउथइ अरइ मझारि । उंचउ दस जोयण अचल, नित प्रणमइ नरनारि ॥४॥ बार जोयण पंचम अरइ, मूल तणउ विस्तार । दो जोयण उंचउ अछइ, सेत्रञ्ज तीरथ सार ॥॥ सात हाथ द्यइ अरइ, पहिलउ परवत एह । उचउ होस्यइ सउ धनुष, सासतउ तीरथ तेह ॥६॥ सर्वगाथा १७ दाल बीजी-जिग्णवर सँ मेरो मन लीणउ, राग आसावरी केवलज्ञानी प्रमुख तिर्थकर, अनंत सीधा इण ठाम रे । अनंत वली सीझस्यइ इण ठामइ, तिण करूं नित्य परणाम रे।१। सेत्र ञ्ज साध अनंता सीधा, सीझस्यइ बलिय अनंत रे। जिण सेव॒ञ्ज तीरथ नहि भेट्यउ, ते प्रभवास कहंत रे । २ । से.। फागुण सुदि आठमिनइ दिवसइ, ऋषभदेव सुखकार रे।। राइणि रूखि समोसरया सामी, पूरव निवाण वार रे । ३।से। भरतपुत्र चैत्री पुनिम दिन, इण सेत्र ञ्ज गिर आई रे। पांच कोडि स पंडरीक सीधा, तिण कहाइ रे।४।से। नमि विनमी राजा विद्याधर, विवि कोडि संगाति रे । फागुण सुदि दसमी दिन सीधा, तिण प्रणम परभाति रे। ५१ से.। चेत्रमास वदि चवदस नइ दिन, नमि पुत्र चउसट्टि रे। अणसण करि सेत्रुञ्जगिरि ऊपरि, ए सहु सीधा एकढिरे। ६।से.। . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि पोतरा प्रथम तिथंकर केरा, द्राविड नइ "वालखिल्ल रे । काती सुदि पुनिम दिन सीधा,दस कोडि मुनि सुं निसल्ल रे।७। से.। पांचे पांडव इण गिरि सीधा, नव नारद रिषीराय रे। संब प्रजूण गया इहां मुगति, आठे करम खपाय रे । ८ ।से.। नेमि विना तेवीस तिर्थकर, समोसरचा गिरि शृङ्गिरे । अजित शांति तिर्थंकर बेऊ, रह्या चौमासउ रंगि रे । । ।से.। सहस साधु परिवार संघाति, थापच्चा सुत साध रे। पांचसइ साध सू सेलग मुनिवर, सेत्रुञ्ज शिवसुख लाधरे ।१०।से। असंख्यात मुनि सेत्रुञ्ज सीधा, भरतेसर नइ पाट रे। राम अनै भरतादिक सीधा, मुगति तणो ए बाट रे ।११। से.। जालि मयालि अन उवयालि, प्रमुख साधुनी कोडि रे। साध अनंता सेत्रुञ्ज सीधा, प्रणम चेकर जोडि रे ।१२। से.। सर्वगाथा २६ ढाल त्री जी चउपई नी सेत्रञ्जना कहूँ सोल उद्धार, ते सुणिज्यो सहु को सुविचार । सुणतां आणंद अंगिन माइ, जनम जनम ना पातक जाइ ॥१॥ रिषभदेव अयोध्यापुरी, समोसरचा सामी हित करी । भरत गयउ वंदणनइ काजि, ए उपदेस दियउ जिनराजि ॥२॥ जग मांहि मोटा अरिहंत देव, चउसहि इंद्र करउ जसु सेव । तेथी मोटउ संघ कहाय, जेहनइ प्रणमइ जिणवर राय ॥३॥ पवार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रु जय रास (५७५ ) तेथी मोटउ संघवी कहयउ, भरत सुणी नइ मन गह गाउ । भरत कहइ ते किम पामियइ, प्रभू कहइ सेत्रुञ्ज यात्र कीयइ ।।४।। भरत कहइ संघवी पद मुज्झ, ते आपउ हूं अंगज तुझ । इंद्रइ प्राण्या अक्षत वास, प्रभु आपइ संघवी पद तास ॥५॥ इंद्रइ तिण वेला ततकाल, भरत सुभद्रा बिहूँ नइ माल । पहिरावी घरि संप्रेडिया, सखर सोना ना रथ आपिया ॥६॥ रिषभदेव नी प्रतिमावली, रतन तणी दीधी मन रली । भरतइ गणधर घर तेड़िया,शांतिक पौष्टिक सहु तिहां किया॥७॥ कंकोत्री मूकी सहु देस, भरत तेडाया संघ असेस । आया संघ अयोध्यापुरी, प्रथम थकी रथयात्रा करी ॥८॥ संघ भगत कीधी अति घणी, संघ चलायउ सेव॒ञ्ज भणी । गणधर बाहुबलि केवली, मुनिवर कोडि साथि लिया वली॥६॥ चक्रवर्ती नी सगली रिद्धि, भरतइ साथि लीधी सिद्धि । हय गय रथ पायक परिवार, ते तउ कहतां न आवइ पार ॥१०॥ भरतेसर संघवी कहिवाय, मारगि चैत्य उधरतउ जाय । संघ आयउ सेवञ्जा पासि, सहु नी पूगी मन नी आस ॥११॥ नयणे निरख्यउ सेञ्जराय, मणि माणिक मोती ( वधाय। तिण ठामइ रहि महुछव कियउ, भरतइ आणंदपुर वासियउ ॥१२॥ संघ सेत्रंजा ऊपरि चड्यउ, फरसंतां पातक झड़ि पड्यउ । केवलज्ञानी पगला तिहां, प्रणम्या रायण रुख छइ जिहां ॥१२॥ केवलज्ञानी स्नात्र निमित्त, ईसानेंद्र आणि सुपवित्त । नदी सेबुजी सुहामणि, भरतइ दीठी कौतुक भणि ॥१४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७६ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि गणा देव तणइ उपदेस, इंद्रइ वलि दीघउ आदेस । आदिनाथ तणउ देहरउ, भरत करायउ गिरि सेहरउ ॥१५ सोना नउ प्रासाद उत्तङ्ग, रतन तणी प्रतिमा मन रंग । भरतइ श्री आदीसर तणी, प्रतिमा थापी सोहामणी ॥१६॥ मरुदेवी नी प्रतिमा वली, माही पुनिम थापी रली। ब्राह्मी सुंदरि प्रमुख प्रासाद, भरतइ थाप्या नवल निनाद ॥१७॥ इम अनेक प्रतिमा प्रासाद, भरत कराया गुरु सुप्रसाद । भरत तणउ पहलउ उद्धार, सगलउ ही जाणइ संसार ॥१८॥ सर्वगाथा ४७ दाल चौथी-राग आसाउरी-सिंधुडउ । (जीवड़ा जिन ध्रम कीजयइ, एइनी ढाल ) भरत तणइ पाटि आठमइ, दंडवीरज थयउ रायो जी। भरत तणी परि संघ कियउ, सेज संघवी कहायो जी।१। सेवज उद्धार सांभलउ, सोल मोटा श्रीकारो जी। असंख्यात बीजा बली, तेनहिीं कहूँ अधिकारो जी।। से.। चैत्य करायउ रूपा तणउ, सोना नउ बिंब सारो जी। मूलगउ बिंब भंडारियउ, पछिम दिस तिण वारो जी।३।से.। सेज नी यात्री करी, सफल कीयउ अवतारो जी। दंडवीरज राजा तणड, ए बीजउ उद्धारो जी।४।से. । सउ सागरोपम व्यतिक्रम्या, दंडवीरज थी जिवारो जी। ईसानेंद्र करावियउ, ए त्रीजउ उद्धारो जीशसे.। * नवलइ नाद हिना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रु जय रास (५७७ ) चउथा देवलोक नउ धणी, माहेन्द्र नाम उदारो जी। तिण सेज नउ करावियउ, ए चउथउ उद्धारो जी।६।से। पांचमा देवलोक नउ धणी, ब्रह्मद्र समकित धारो जी। तिण सेत्रंज नउ करावियउ, ए पांचमउ उद्धारो जी ७ से.। भवनपती इंद्र नउ कियउ, ए छट्ठउ उद्धारो जी। चक्रवर्ती सगर तणउ कियउ, ए सातमो उद्धारो जी।से.। अभिनंदन पासइ सुण्यउ, सेज नउ अधिकारो जी।। व्यंतर इंद्र करावियउ, ए आठमउ उद्धारो जी।।। से. चंद्रप्रभ सामि नउ पोतरउ, चंद्रशेखर नांउ मल्हारोजी। चंद्रजसराय करावियउ, ए नवमउ उद्धारो जी।१०।से। शान्तिनाथ नी सुणि देशणा, शांतिनाथ सुत सुविचारो जी। चक्रधर राय करावियउ, ए दसमो उद्धारो जी।११।से.। दशरथ सुत जगि दोपतउ, मुनिसुव्रत सामि बारो जी। श्री रामचन्द्र करावियउ, ए डग्यारमउ उद्धारो जी।१२। से.। पंडव कहइ अम्है पापिया, किम छूटां मोरी मायो जी। कहइ कुंती सेज तणी, जात्रा कियां पाप जायो जी।१३। से.। पांचे पांडव संघ करि, सेज भेट्यउ अपारो जी । काष्ट चैत्य विंव लेपनउ, ए बारमो उद्धारो जी।१४। से। मम्माणी पाषाण नी, प्रतिमा सुन्दर रूपो जी । श्री सेज नउ संघ करि, थापी सकल सरूपो जी।११ से.। अट्ठोतर सउ वरस गयां, विक्रम नृपथी जिवारो जी । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७८ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि पोरुयाड* जावड करावियउ, ए तेरमो उद्धारो जी ।१६। से.। संवत बार तिरोतरइ, श्रीमाली सुविचारो जी। बाहडदे महतइ करावियउ, ए चवदमउ उद्धारो जी।१७। से.। संवत तेर इकोतरइ, देसलहर अधिकारो जी। समरइ साह करावियउ, ए पनरमउ उद्धारो जी।१८ से.। संवत पनर सित्यासियइ, वैसाख वदि सुभ वारो जी। करमइ दोसी करावियउ, ए सोलमउ उद्धारो जी ।१६। से.। संप्रति कालइ सोलमउ, ए वरतइ छइ उद्धारो जी। नित नित कीजइ वंदना, पामीजइ भव पारो जी ।२० से.। मर्वगाथा ६७ दूहा बलि सेज महातम कहुं, सांभलउ जिम छइ तेम । सूरि धनेसर इम कहइ, महावीर कहइ एम ॥१॥ जेहवउ तेहबउ दरसणी, सेजइ पूजनीक । भगवंत नउ वेस वांदता, लाभ हुवइ तहतीक ॥२॥ श्री सजा ऊपरइ, चैत्य करावइ जेह । दल परमाणू समलहइ , पल्योपम सुख तेह ॥३॥ सैत्रुञ्ज ऊपरि देहरउ, नवउ नीपावइ कोय । जीरणोद्धार करावतां, आठ गुणउ फलहोय ॥४॥ सिर ऊपर गागरि धरि, स्नात्र करावइ नारि । चक्रवति नी अस्त्री थई, सिव सुख पामइ सार ॥५॥ * पोरवाड़, एकोतरइ, I मानता, समो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्र जय रास ( ५७६ ) काती पुनिम सेत्र अइ, चडि नइ करइ उपवास । नारकी सउ सागर समउ, नर करइ करमनउ नास ॥६॥ काती परब मोटउ काउ, जिहां सीधा दस कोडि । ब्रह्म स्त्री बालक हत्या, पाय थी नांखइ छोहि ॥७॥ सहस लाख श्रावक भणी, भोजन पण्य विशेखि । सेज साध पडिलाभता, अधिकउ तेह थी देखि ॥८॥ सर्वगाथा ७५ ढाल पांचमी-धन धन अवंती सुकुमाल नइ, एहनी ___ राग-बहराड़ी सेज गया पाय छूटियइ, लीजइ आलोयण एमो जी। . तप जप कीजइ तिहां रही, तीथकर काउ तेमो जी ।१।से.। जिण सोना नी चोरी करी, ए आलोयण तासो जी। चैत्री दिन सेत्रुज चडी, एक करइ उपवासो जी ।२। से. । वस्त्र तणी चोरो करी, सात प्रांबिल सूध थायो जी। काती सात दिन तप कीयां, रतन हरण पाप जायो जी।३। से.। कांसी पीतल वा रजतणी, चोरी कीधी जेणो जी। सात दिवस परमढ करइ, तउ छूटइ गिरि एणो जी ।४। से.। मोती प्रवाली मुंगिया, जिण चोर्या नरनारो जी। * चढो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८. ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि अंबिल करी पूजा करइ, तिण' टंक सूधर आचारोजीशसे.। धांन पाणी रस चोरिया, ते३ भेटइ सिध क्षेत्रो जी। सेज तलहटी साध नई, पडिलाभइ सुध चितो जी।६। से.। वस्त्राभरण जिणे हर्या, ते छूटइ इण मेलो जी। आदिनाथ नी पूजा करइ, प्रहऊठी बिहुँ वेलो जी।७। से.। देवगुरु नउ धन जे हरइ, ते सुध थायइ एमो जी। अधिक द्रव्य खरचइ तिहां, पात्र पोषइ बहु प्रेमो जी।।से.। गाइ भइंसि घोडा मही, गज गृह चोरणहारो जी। द्यइ ते ते वस्तु तीरथइ, अरिहंत ध्यान प्रकारो जी हासे.। पुस्तक देहरा पारका, तिहां लिखइ आपणउ नामो जी। छूटइ छम्मास६ तप कीयां, सामायिक तिण ठामो जी।१०।से.। कुमारी परिवोजिका, सधव अधव गुरु नारो जी। व्रत भांजइ तेहनइ काउ, छम्मासी तप सारो जी।११।से.। गो विप्र स्त्री बालक रिषी, एहनउ घातक जेहो जी। प्रतिमा आगइ आलोयतउ*, छूटइ तप करि तेहो जी।१२। से.। सर्वगाथा ८७ ढाल छठ्ठी-रिषभप्रभु पूजीयइ, एहनी राग-धन्यासिरी सांप्रत कालइ सोलमउ ए, बरतइ छइ उद्धार । सेचूँज जात्रा करूँ ए, सफल करूँ अवतार । १ । से.! १त्रिण, २ शुद्ध, ३ जे, ४ सिद्ध, ५ शुभ, ६ छमासी * आलोयतां, सिंप्रति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्र जय रास (८१) छोरी पालतां चालीयइ, सेत्रज्ञ केरी वाट । से.। पालीताणइ पहुँचीय ए, संघ मिल्या बहु थाट । २। से.। ललित सरोवर पेखीयइ ए, वली सत्ता नी वावि । से.। तिहां वीसामउ लीजीयइ ए, वड नइ चउतर आवि । ३ । से.। पालीताणा पाजही ए, चडियइ ऊठि परभाति ।से.।। सेत्र ञ्ज नदीय सोहामणी ए, दुरि थकी देखात । ४ । से.। चडियइ हींगुलाज नइ हडइ ए, कलि कुंड नमियइ पास । से.। बारी माहे पइसीयइ ए, आणी अंगि उल्हास । ५ । से। मरुदेवी ट्रॅक मनोहरु ए, गज चडी मरुदेवी माय । से.। सांतिनाथ जिण सोलमउ ए, प्रणमीजइ तसु पाय । ६। से.। वंस पोख्याडइ परगड उ ए, सोमजी साह मल्हार । से.। . रूपजी संघवी करावीयउ ए, चउमुख मूल उद्धार । ७ । से.। चउमुख प्रतिमा चरचीयइ ए, भमती मांहि भला बिंब । से.। पांचे पांडव पूजीयइ ए, अदबुद आदि प्रलब । ८ । से.। खरतर वसही खांति सँ ए, बिंब जुहारू अनेक । से.। नेमिनाथ चउरी* नमुँ ए, टाल अलग उदेको । । । से. धरमद्वार मांहि नीसरु ए, कुगति करु अति दूर । से.। आ आदिनाथ देहरइ ए, करम करूँ चकचूर ।१०। से.। मूलनायक प्रणमुं मुदा ए, आदिनाथ भगवंत ।से.। देव जुहारूँ देहरी ए, भमती मांहि भमंत ।११। से.। छहरी, * चंवरी, 1 उदेगउ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८२ ) समय सुन्दर कृतिकुसुमाञ्जलि सेत्रञ्ज ऊपरि कीजीयइ ए, पांचे ठामे कलस अोतर सउ करी ए, निरमल नीर प्रथम आदीसर आगल ए, पुण्डरीक गणधार | से. । रायणि नह पगली वली ए, शांतिनाथ सुखकार ।१३। सं.। रायणितलि पगलां नमेँ ए, चउमुख प्रतिमा च्यार । से. वीजी भूमि बिंत्रा * वली ए, पुण्डरीक गणधार | १४ | से. सूरजकुण्ड निहालीयइए, ति भलि उलखी + झोल । से. । चेला तलाई सिधसिला ए, अंगि फरसुँ उल्लोल | १५| से । आदिपुर पाज उतरूँ ए, सिधवड लं विश्राम | से. । चैत्र परिवड इण परि करी ए, सीधा वंछित काम | १६ | से. । जात्रा करी क्षेत्र अ तरणी ए, सफल कीयउ अवतार | से. । कुसल खेमसु श्रावीय ए, संघ सहु सपरिवार | १७ | से.। सेत्र रास सोहामणउ, सांभलजो सहु कोय । से. । ♡ घर बइठां भइ भाव सुं ए, तसु जात्रा फल होय । १८ । से. । संवत सोलसर व्यासीयइ ए, श्रावण वदि सुखकार । से. । रास भण्यउ सेज तणउ, नगर नागोर मकार | १६ | से. गिरुयउ गच्छ खरतर तखउ ए, श्री जिणचंद सरीस से. । प्रथम शिष्य श्री पूज्य ना ए, सकलचेद सुजगीस | २० | से. | तासु सीस जगि परगडा ए, समयसुन्दर उबकाय । से. । रास रच्यउ तिरण रुपडउ ए, सुणता आणंद थाय | २१ | से. * बिंष, + उलखा Jain Educationa International सनात्र । से. । सुगात्र । १२ से. । For Personal and Private Use Only Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रु अय रास ( ५६३) परवर्ती प्रति में अंत में निम्नोक्त दो गाथाएँ अधिक है - भणसाली थिरु अति भलो ए, दयावंत दातार । से.। सेत्र ञ्ज संघ करावीयउ ए, जेसलमेर मझार ।२२। से। सेत्र ञ्ज महातम ग्रन्थ नइ ए, रास रच्यो अनुसार । से.। भाव भगति सुणतां थकां ए, पामीजइ भवपार ।२३। से.। सर्वगाथा १०८ इति श्री शत्रु ञ्जय रास सम्पूर्णः । सं० १६८३ वर्षे बीकानेर मध्ये शिष्य पंचायण लिखतं । दानशील तप भाव संवाद शतक प्रथम जिणेसर पय नमो, पामी गुरु प्रसाद । दान सील तप भावना, बोलिसि बहु संवाद ॥१॥ वीर जिणिंद समोसर्या, राजगृह उद्यान । समोवसरण देवे रच्य, बयठा श्री बधमान ॥२॥ बइठी बारह परषदा, सुणिवा जिणवर वाणि । दान कहइ प्रभु हूं बडउ, मुझ नइ प्रथम वखाणि ॥३॥ सांभलिज्यो सहु को तुम्हे, कुण छइ मुझ समान। अरिहंत दीक्षा अवसरई, आपई पहिलु दान ॥४॥ प्रथम पहरि दातार नँ, ल्यइ सहु कोई नाम । दीधां री देवल चडई, सीझइ वंछित काम ॥५॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि तीर्थकर नइ पारणे, कुण करसइ मुझ होडि । वृष्टि करूँ सोवन तणी, साढी बारह कोडि ॥६॥ हुँ जग सगलउ वसि करूं, मुझ मोटी छह बात। कुण कुण दान थकी तर्या, ते सुणिज्यो अवदात ॥७॥ ढाल-मधुकर नी धनसारथवाहं साधु नइ, दीधुं घृत न दान । ललनां । तीथंकर पद मई दीउं, तिण मुझ ए अभिमान । ल.। १ । दान कहइ जगि हुँ बडउ, मुझ सरिखउ नही कोय । ल.। रिद्धि समृद्ध सुख संपदा, दानइ दउलति होइ । ल./२ दा.। समुख नाम गाथापती, पडिलाभ्यउ अणगार ।ल.। कुमर सुबाहु सुख लहइ, ते तउ मुझ उपगार ।ल.।३ दा.। पांचसइ मुनि नइ पारणइ, देतउ विहरी आणि । ल.। भरत थयउ चक्रवति भलउ, ते तउ मुझ फल जाणि । ल.।४ दा.। मासखमण नई पारणइ, पडिलाभ्यउ रिपोराय । ल.। सालिभद्र सख भोगवइ, दान तणइ सुपसाय । ल.५ दा.। आप्या उडद ना बाकुला, उत्तम पात्र विशेष । ल.। मूलदेव राजा थयउ, दान तणा फल देखि । ल.६ दा.। प्रथम जिणेसर पारणइ, श्री श्रेयांस कुमार ।ल.। सेलडि रस विहरावियउ, पाम्यउ भवनउ पार । ल.७दा.। चंदनवाला बाकुला, पडिलाभ्या महावोर ।ल.। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानसील तप भाव संवाद शतक (५५) पंच दिव्य परगट थया, सुन्दर रूप सरीर ।ल.दा.। पूरव भव पारेवडउ, सरणइ राख्यउ मर । ल.। तीर्थकर चक्रवति तणउ, प्रागट्यउ पुण्य पडूर । ल. दा.। गज भव ससिलउ राखियउ, करुणा कीधी सार ।ल.। श्रोणिक नइ घरि अवतर्यउ, अंगज मेघकुमार । ल..१०दा.। इम अनेक मइ ऊधर्या, कहतां नावइ पार ।ल.। समयसुन्दर प्रभु वीरजी, पहिलउ मुझ अधिकार। ल.।११दा.। सील कहइ सुणि दान तु, किसउ करइ अहंकार । आडंबर आठे पहुर, याचक सुं विवहार ॥१॥ अंतराय बलि ताहरइ, भोग्य करम संसार । जिणवर कर नीचो करइ. तुम्ह नइ पडउ धिकार ॥२॥ गर्व म कर रे दान तू, मुझ पूठइ सहु कोय । चाकर चालइ आगलिं, तउ स्यु राजा होइ ॥३॥ जिन मंदिर सोना तणउ, नवउ नीपावइ कोय। सोवन कोडि को दान द्यइ, सील समउ नहि कोय ॥४॥ सोलइ संकट सवि टलइ, सीलइ जस सोभाग । सीलइ सुर सानिध करइ, सील वडउ वहाग ॥५॥ सीलइ सर्प न आभडइ, सीलइ सीतल आगि। सीलइ अरि करि केसरी, भय जायइ सब भागि ॥६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८६) समयसुन्दरकृतिकुसमाञ्जलि जनम मरण ना दुख थकी, मई छोडाव्या अनेक । नाम कहुं हिव तेहना, सांभलिज्यो सविवेक ॥७॥ ... ढाल-पास जिणंद जुहारीयइ एहनी सील कहइ जगि हुँ बडउ, मुझ बात सुगाउ अति मीठी रे। लालच लावइ लोक नइ, मइ दाण तणी बात दीठी रे।१ सी०। कलिकारक नगि जाणियइ, वलि विरति नही पणि काइरे। ते नारद मइ सीझव्यउ, मुझ जोवउ ए अधिकाइ रे ।१ सी बांहे पहिर्या बहिरखा, संख राजा दूषण दीधा रे। काप्या हाथ कलावती, पणि मइ नवपल्लव कीधा रे ।३ सी०। रावणि घरि सीता रही, तउ रामचंद्र का आणी रे। सीता कलंक उतारीयउ, मइ पावक कीधुं पाणी रे।४ सी। चंपा बार उघाडीयां, वलि चालणि काढ्य नीरो रे।। सती सुभद्रा जस थयउ, ते मई तस कीधी भीरो रे ।५ सी०। राजा मारण मांडीयउ, राणी अभया दूषण दाख्यउ रे। सूली सिंहासन थयुं, मइ सेठ सुदरसण राख्यउ रे ।६ सी०। सील सनाह मंत्रीसरई, आवंता अरिदल थंभ्या रे। तिहां पणि सानिध मई कीधी, वलि धरम कारज प्रारंभ्यारे।७ सी०। पहिरण चीर प्रगट कीआ, मइ अट्ठोतर-सइ वारो रे। पांडव हारी द्रपदी, मई राखी माम उदारो रे।८ सी०। ब्राह्मी चंदनवालका, वलि सीलवंती दवदंती । चेडा नी साते सुता, राजोमतो सुन्दरि कुन्ती रे ।। सी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानसील तप भाव संवाद शतक (५८७ ) इत्यादिक मइ ऊर्या, नरनारी केरा वंदो रे। समयसुन्दर प्रभु वीरजी, मुझ पहिलउ करउ आणंदो रे।१० सी०। दहा तप बोल्यउ त्रटकी करी, दान नइ तु अवहीलि । पणि मुझ आगलि तुं किस्यउ रे, तुं सांभलि सील ॥१॥ सरसा भोजन तइ तज्या, न गमई मीठी नाद । देह तणी सोभा तजी, तुझ नइ विस्यउ सवाद ॥२॥ नारि थकी डरतउ रहइ, कायरि किस्यउ बखाण । कूड कपट बहु केलवी, जिम तिम राखइ प्राण ॥३॥ को बिरलउ तुझ* श्रादरइ, छांडइ सहु संसार । एक आपतुं भाजतउ, बीजा भांजर च्यार ॥४॥ करम निकाचित रोडवं, भांजं भव भड भीम । अरिहंत तुझ नइ आदर्यउ, वरस छमासी सीम ॥५॥ रुचक नंदीसर पर्वते, मुझ लबधइ मुनि जाय । चैत्य जुहारइ सासतां, आणंद अंग न माय ॥६॥ मोटा जोयण लाखना, लघु कथुक आकार । हय गयरथ पायक तणां, रूप करइ अणगार ॥७॥ मुझ कर फरसइ उपसमइ, कुष्टादिक ना रोग । सबधि अट्ठावीस ऊपजइ, उत्तम तप संयोग ॥८॥ जे मई तार्या ते कहुँ, सुणिज्यो मन उल्लास । चमतकार चित पामस्यउ, देस्यउ मुझ साबासि ॥६॥ _ * मुझ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (155) समय सुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ढाल - नगदल नी प्रहारि ति पापीयर, हत्या कीधो च्यारि हो । सुन्दर । ते मईति भवि ऊघउ, मुंक्यउ मुगति मझारि हो । सु. । १ । तप सरिखउ जगि को नहीं, तप करइ करम नउ सूड हो । सु. । तप करतां प्रतिदोहिल, तप मांहि नही को कूड हो । सु. |२| त. । सात माणस नित मारत, करतउ पाप अघोर हो । सु . । अरजुन माली महं ऊधर्यो, छेद्या करम कठोर हो । सु. | ३ | त. नंदिसेा नइ मइ कीयउ, स्त्री वल्लभ वसुदेव हो । सु. । बहुतरि सहस अंतेउरी, सुख भोगवइ नित मेव हो । सु. १४ । त. रूप कुरूप कालउ घणुं, हरिकेसी चंडाल हो । सु. सुर नर कोडि सेवा करइ, ते मई कीधी चाल हो । सु. १५ त । विष्णुकुमार लवधिं कीयउ, लाख जोयग नउ रूप हो । सु. । श्री संघ केरह कारण, ए मुझ सकति अनूप हो । सु । ६ । त । अष्टापद गौतम चड्या, वांद्या जिन चउवीस हो । सु. 1 तापस पि प्रतिबूझव्या, तिरिण मुझ अधिक जगीस हो । सु. ७/ त.। चउदस सहस अणगार मई, श्री धन्न अणगार हो । सु । वीर जिणंद वखाणीयउ, ए पणि मुझ कृष्ण नरेसर आगलइ, दुकर कारक ढंढण नेम प्रसंसीयउ, मुझ महिमा सवि नंदिषेण विहरण गयउ, गणिका कीधुं वृष्टि करी सोनातणी, मई तसु पूरी अधिकार हो । सु. ८|त. एह हो । सु । तेह हो । सु. ६ | त हास हो । सु । Jain Educationa International आस For Personal and Private Use Only हो । सु । १० ।त. Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानसील तप भाव संवाद शतक (५८६ ) इम बलभद्र प्रमुख बहु, तार्या तपसी जाव हो । सु.। समयसुन्दर प्रभु वीरजी, पहिलउ मुझ प्रस्ताव हो । सु.।११।त.। सवेगाथा ५५ भाव कहइ तप तुं कीस्यं, छेड्यउ* करइ कषाय । पूरव कोडि तप तुं तप्यउ, खिण मांहि खेरू थाय ॥१॥ खंदक आचारिज प्रतई, तई बालाव्यउ देस । असुभ निपाणउ तुं करइ, क्षमा नहीं लवलेस ॥२॥ दीपायन रिषि दहव्यउ, संब प्रजूने साहि । तई तप क्रोध करी तिहां, कीधउ द्वारिका दाह ॥३॥ दानसील तप सांभलउ, म करउ जूठ गुमान । लोक सह बड़े साखि घइ, धरमइं भाव प्रधान ||४|| आप नपुंसक सहु त्रिरहे, यह व्याकरणी साखि । काम सरह नहीं को तुम्हे, भाव भणइ मो पाखि ॥५॥ रस विण कनकन नीपजइ, जल विण तरुवर वृद्धि । रसवती रस नहीं लवण विण,तिम मुझविण नहिं सिद्धि ॥६॥ मंत्र तंत्र मणि औषधि, देव धरम गुरु सेव । भाव बिना ते सवि वृथा, भाव फलइ नित मेव ॥७॥ दानसील तप जे तुम्हे, निज निज कह्या वृतांत । तिहां जउ भाव न हूंत हु, तउ को सिद्धि न जांत ।।८।। भाव कहइ मइ एकलइ, तार्या बहु नर नारि । सावधान थइ सांभलउ, नाम कहुँ निरधारि ॥६॥ *छोयेठ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६० ) समय सुन्दर कृति कुसुमाञ्जलि ढाल चउथी - कपूर हुयइ अति ऊजलु रे, एहनी कांनन मांहि काउसग राउ रे प्रसनचंद रिषिराय । ते महं कीधउ केवली रे, ततखिण करम खपाय | १| सोभागी सुन्दर भाव बडउ संसारि, एतउ बीजा मुझ परिवार । दानादिक विण एकलउ रे, पहुँचाहुं वंस उपरि चढ्यउ खेलतउ रे, इलापुत्र केवलज्ञानी महं कीयउ रे, प्रतिबोध्यउ भवपार | २ | सो .| आहोर । अणगार | ४ | सो. | भूख क्षमा बेउ अतिघणो रे, केवल महिमा सुर करई रे, लाभ थी लोभ वाघ घणउ रे, आरण्यउ मन वयराग । कपिल थयउ ते केवली रे, ते मुझ नह सोभाग | ५|सो. | अनिका सुत गछ नउ धणी रे, खीण जंघा बल जाणि । की अंतगड केवली रे, गंगाजलि गुण खाणि | ६ | सो . | परहसहं तापस भयो रे, दीधी गोतम दीख । ततखिण कीधी केवली रे, जउ मुझ मानी सीख | ७|सो. | पालक वाणी* पीलीया रे, खंदक सूरि ना सीस । जनम मरण थी छोडव्या रे, आप चंडरुद्र निसि चालतs रे, दीघा दण्ड प्रहार | नव दीक्षित थय केवली रे, ते गुरु पथि तिणवार || सो. | धन धन रथकार साधु नइ रे, पडिलाभह उल्लासि । मृगलउ भावन भावतउ रे, पहुतउ सुर आवास | १० | सो. | मुझ आसीस ||सो. * पापो, सु Jain Educationa International करतउ क्रूर कूरगडू For Personal and Private Use Only अपार । परिवार | ३ | सो. | Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानसील तप भाव संवाद शतक (५६१ ) निज अपराध खमावतो रे, मुंको मन थी मान । मृगावतो नई मई दीयं रे, निरमल केवलज्ञान ।११।सो.। मरुदेवी गज चडी मारगई रे, पेखी पुत्र नी रिद्धि । मुझ नइ मनमांहे धर्यउ रे, ततखिण पामी सिद्धि ।१२।सो.। वीर बांदण चाल्यउ मारगई रे, चांप्यउ चपल तुरंगि। ददुर नामहं देवता रे, तेह थयउ मझ संगि ।१३।सो.। प्रभु पाय पूजण नीसरी रे, दुर्गता नामइ नारि । काल-धरम विचि मई करी रे, पहुती सरग मझारि ।१४।सो.। काया सोभा कारमी रे, मुंक्यउ मन अभिमान । भरत आरीसा भवन मई रे, पाम्युं केवलज्ञान ।१शसो.। आषाढ भूति कला निलउ रे, प्रगत्यउ भरत सरूप । नाटक करतां पामीयुं रे, केवलज्ञान अनूप ।१६।सो.। दीक्षा दिन काउसगि राउ, गयसुकमाल मसाणि । सोमिल सीम प्रजालीउं रे, सिद्धि गयउ सुह झाणि।१७सो.। गुणसागर थयउ केवली रे, सांभन्यउ पृथिवीचंद । पोतह केवल पामीयुं रे, सेव करइ सुरवृन्द ।१८सो.। इम अनंत मई ऊधयों रे, मुंक्या सिवपुर वासिं । समयसुन्दर प्रभु वीर जी रे, मुझ नइ प्रथम प्रकासि ।१६।सो.। रतां पामा प्रगत्या केवलज्ञान ।। वीर कहइ तुम्हे सांभलउ, दानसील तप भाव । निंदा छह अति पाडुई, धरम काम प्रस्तावि ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६२) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि परनिंदा करतां थकां, पापइं पिंड भराइ । वेढि राढि बाधई घणो, दुर्गति प्राणी जाइ ॥२॥ निंदक सरिखउ पापीयउ, मँड उकोइ न दीठ ।। वलि चंडाल समउ काउ, नंदक मुख अदीठ ॥३॥ आप प्रसंसा आपणी, करता इंद नरिंद। लघुता पोमह लोक मइ, नासइ निज गुणवृन्द ॥४॥ को केहनी म करउ तुम्हे, निंदा नइ अहंकार । आप आपणो ठामइ रह्यउ, सहु को भलउ संसार ॥॥ तउ पणि अधिकउ भाव छइ, एकाकी समरत्थ । . दानसील तप त्रिण भला, पणि भाव विना अकयत्थ ॥६॥ अंजन आंखे प्रांजतां, अधिकी आणि ए रेख । रज मांहे तज काढतां, अधिकउ भाव विशेष ॥७॥ भगवंत हठ भांजण भणी, च्यारे सरिखा गणंति । च्यार करी मुख आपणा, चतुर्विध धरम भणंति ॥८॥ ढाल पंचमी-चेति चेतन करी एहनी वीर जिणेसर इम भणइ रे, बइठी परषदा बार । धरम करउ तुम्हे प्राणीया रे, जिम पामउ भव पारो रे।१। धरम हीयइ धरउ, धरम ना च्यार प्रकारो रे। भवियण सांभलउ, धरम मुगति सुखकारो रे ॥२॥ धरम थकी धन संपजइ रे, धरम थकी सुख होय । धरम थकी प्रारति टलइरे, धरम समउ नही कोयो रे।३।१०। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानसील तप भाव संवाइ शतक ( ५६.३ ) दुर्गति पडतां प्राणियां रे, राख श्री जिन धर्म | कुटंब सहू को कारिमुँ रे, मंति भूलउ भव मर्मो रे |४| ६० जीव जिके सुखी हूवा रे, बलि हुस्यड़ छह जेह | ते जिवर ना धर्म थी रे, मति को करज्यो संदेहो रे || ध० ] सोलह सइ छासठि समइ रे, सांगानयर मारि । पद्म प्रभु सुपसाउ लइ रे, एह भयउ अधिकारो रे | ६ | ६० सोहम सामि परंपरा रे, खरतरगछ कुलचंद | जुगप्रधान जगि परगडा रे, श्री जिनचंद सूरिंदो रे | ७ | १० | तास सीस अति दीपतां रे, विनयवंत जशवंत । याचारिज चडती कला रे, श्री जिनसिंघसूरि महंतो रे | ८ | ध० | प्रथम शिष्य श्रीपूजना रे, सकलचंद तस सीस । समय सुन्दर वाचक भरणी रे, संघ सदा सुजगीसो रे || घः । दानसील तप भावना रे, सरस रच्यउ संवादो रे । भगतां गुणता भावसुं रे, रिद्धि समृद्धि सुप्रसादो रे | १०|ध ० । इति श्री दानसील तप भाव संवाद शतर्क संपूर्णम् । सर्वगाथा १०१ ग्रन्थाग्रन्थ श्लोक १३५ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६४) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि पौषध-विधि गीतम् जेसलमेरु नगर भलउ, जिहां श्री पास जिणंद । प्रह उठी नइ प्रणमतां, आपइ परमाणंद ॥१॥ तासु चरण प्रणमी करो, पोषध विधि विस्तार । पभणं श्रावक हित भणी, आगम नइ अनुसारि ॥२॥ पोसउ पोसउ सहु कहइ, पोसउ करइ सहु कोइ ।। पण पोसा विधि सांभलउ, जिम निस्तारउ होइ ॥३॥ ढाल पहिजी-प्रभु प्रणमुरे पास जिणेसर थंभणट, एहनी ढाल. पहिलइ दिन रे, सांझ समई उपग्रहण सहु। पडिलेही रे, रुड़ी परि राखइ बहु ।। पहिली रातई रे, साधु समीति आवी करी । राइ प्रालित रे, प्रथम करइ मन संवरी ॥ संवरी श्रावक करइ पोसउ, आठ पुहरि गुरु मुखइ । उचरइ दंडक त्रिबह वेला, सामाइक पणि तिणि रुखई ।। पछई करइ पडिकमणउ आंतरणी, साधु बांदइंता गिणइ । कमभूमि अठावयंमि उसभो मंगलीक कुलक भणइ ॥४॥ पडिलेहण रे, अंग उही सगली करई। उपासरउ रे, पुंजी काजउ ऊधरइ । इरियावही रे, थापनो आगई पडिकमई । करि सज्झाय रे, साधु सहुना पाय नमइ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौषध-विधि गीतम् पाय नमई सगला साधु केरा, सुराई सुगुरु बखाण ए । ध्यान करइ अथवा गुणइ, प्रकरण कहइ अरथ सुजाण ए । पण पहुर पडिलेहण करीन, मातरा पडिलेह ए । G जल घड़ा लोटी बाटका, पडिलेहवा वलि तेह ए ॥ ५ ॥ गुरु सांथह रे, चैत्य प्रवाडि करइ खरी । देव वदह रे, शक्र स्तव पांचे करी ॥ उपासिरइ रे, यावी इरिया पडी कमी । आगमण रे, आलोय नीचउ नमी || atar नमी बस बइसइ, मिळामि दुक्कड देहि नई | त्रिविहार हुइ तउ पाणी पारइ, मुहपत्ती पडिलेह नई ॥ नउकार गुणतां पाठ भगतां, पहुर त्रीजर दिवस रह । पडिकमी इरिया वही पहिली, बेउ पडिलेहण करइ || ६ || । धमसाला रे, पुंजी इरिया पकिमी । थे पालउ रे, थापना पडिलेही समी || मुहपत्ती रे, पडिलेही उभउ थई । करइ गुरु मुखि रे, पच्चखाण मनि गह गई || । ( ५६५ ) Jain Educationa International गह गई आठे दे खमास, वस्त्र सगला आपणा । पडिलेहिवा मातरा ति परि, चलवला पुंजण तणा ॥ देहनी चिंता काजि जातां, कहइ भगवन आवस्सही । मारगई इरिया समिति सोझ, आता कहै निस्सही ॥ ७ ॥ For Personal and Private Use Only Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ढाल-बीजी, बीसामा रो गीतनी ढाल. हिव भवियण तुम्हें सांभलउ जी, गुरु नई नामी सीस । सामाइक पोसा तणा जी, दृषण टालउ वत्रीस ।। बत्रीस दूषण बारह तनुना, मारि बइसइ पालठी । अति अथिर आसण दिष्टि चंचल, करइ काया एकठी।। करइ काम सावध ल्यइ उटिंगण आलस करडक मोड ए। खणइ खाजि वीसामण करावइ उंघ करइ मल छोड ए॥८॥ वचन तणा दूषण दसे जी, जाणउ एणि प्रकार । कुवचन बोलइ लोकनइ जी, घइ दोष सहसातकार ॥ सहसातकार कलंक धइ वलि आप छंदइ बोल ए । संखेप सूत्र कहइ अालावउ करइ कलह निटोल ए॥ विकथा करइ उपहास मांडइ न राखइ पद संपदा । जा प्रावि बठि तुं ऊठि एहवी कहइ भाषा सरवदा ॥६॥ दस दूषण हिव मन तणा जी, सांभलिज्यो चित एक । नून अधिक न लहइ क्रिया जी, मन मांहि नहीं य विवेक ।। सुविवेक जस धन लाभ वांछइ करइ पोसउ बीहतउ । पोसउ करीनइ करइ नियाणउ पुत्र प्रमुख नई ईह तउ ।। अभिमान रीसइ करई पोसउ धरइ फल संदेह । वलि विनय भगति लगार न करइ मन दूषण दस एह ॥१०॥ काया वचन नइ मन तणा जी, दूषण एह बत्रीस । जे टालई दोष तेहनउ जी, पोसउ विसवो बीस ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौषध-विधि गीतम् ( ५६७ ) वीस विसा बोलइ नहीं वलि उघाडइ मुखि आंपरइ । छूटी ग्रही सुं बात न करइ पांच दृषण परिहरइ ।। उपवास करिनइ दिवस पोसउ कीघउ नहि निस करइ । एक पक्ष छोडइ नहीं उत्तराध्यन अक्षर अनुसरइ ॥११॥ चउपरवी पोसउ काउ जी, सूत्र सिद्धांत मझारि । हरिभद्र सूरि विवरउ कीयौजी, बावीस सहस्त्री सार ॥ बावीस सहस्री सार बोले दिवस प्रति करिव्यौ नही । पोसहउ अथिति संविभाग बेऊ परव दिन करि वासही ।। उद्दिष्ट सबद तणउ अरथ हिव, सीलांगा-च्यारिज करइ। पोसउ पजूसण परव कल्याणक तिथि पणि ओदरइ ॥१२॥ उपधाने पोसउ काउ जी, सूत्र निसीथ प्रमाणि । त्रिविहार चउविहार जीमणइ जी, एक विगय घृतजाणि ॥ घृत जाण आचरणा परंपर पूरवाचारिज कही । भगवंत भाष्यउ सत्य तेहिज खांचा-ताण करिवी नहीं। त्रिविहार पोसउ च्यार पहुरी पुण पहुर सीमा करी । ए त्रिएह गछ तणी आचरणा अविधि छइ पणि आदरी॥१३॥ ढाल त्रीजी-(सोभागी सुन्दर भाव वडउ संसारि, एहनी ढाल ) सांझ समइ थंडिला करइ रे, बारे बाहिर मांहि बार। इरियावहि वलि पडिकमी रे, जइ तिहुण कहइ सार ।१४। सोभागी श्रावक साचउ पोसउ एह, एतउ भगवंत भाख्यउ तेह । त्रिकरण सुद्ध करउ तुम्हे रे, जिम पामउ भव छेह ॥१॥सो.। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६८) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि अरध बिंब रवि प्राथम्यौ रे, सूत्र कहइ सुविचार । तवन कहइ तेहवह समई रे, तारा दीसइ वि च्यार ।१६।सो.। काल वेलायइं पडिकमई रे, लांबी खमासण देइ । सुध क्रिया नी खप करइ रे, मन संवेग धरेइ ।१७।सो.। जिणदत्तमरि काउसग करइ रे, पडिकमणा नइ छेह । पडिकमणउ पूरउ थयोरे, खरतरनी विधि एह ।१८।सो.। मधुरइ सरि रातई करइ रे, पोरस सीम सझाय । गीत गायइ वइरागना रे, पातक दूरि पुलाइ ।१६।सो.। ढाल चौथी-(चेति चेतन करो, एहनी ढाल ) बहु पडिपन्ना पोरसी रे, वांदइ देव उल्लास । संथारा गाथा सुणइ रे, खामइ जीवनी रासो रे ॥२०॥ धन धन ते नर-नारि, सफल करई अवतारो रे । निसि पोसउ कर भावनई भावना बारो रे २१ध.। पाप अठारइ परिहरे रे, चित धरई सरणा च्यारि । डाभ संथारइ संथरइ रे, ध्यान धरइ सुविचारो रे ।२२ध.। धरम जागरिया जागतां रे, करइ मनोरथ एह । संजम लेइसि जिणी दिनइ रे, धन दिवस मुझ तेहो रे।२३ध.। संख श्रावक पोषउ कीयौ रे, वीर बखाणउ तेह । तिण परि तुम्हे पोसौ करउ रे, जिम पामउ सिव गेहो।२४ध.। वीतभय पाटण नउ धणी रे, नाम उदयन राय । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौषध-विधि गीतम् ( ५ ) तिणि रातई पोसउ कीयौरे, वीर वांदण चित लायरे ।२५ध.। तुंगिया नगरी तणा रे, श्रावक सुध अनेक । जिण विधि तिणि पोसउ कीयौ रे, ते विधि करउ सुविवेक रे।२६ध.। लेप श्रावक पोसउ लीयौ रे, आणंद नई कामदेव । वलि दृिष्टांत सुबाहुनउ रे, मनि धरिजो नितमेव रे ।२७धः। ढाल पांचमी-(जग जीवन वीरजी कुवण तुम्हारइ सीस, एहनी ढाल) पाछिली रांतइ उठई नइ हो, श्रावक हुयई सावधान । राइ पायछत काउसग करी हो, देव वांदइ सुभ ध्यान ।२८ संवेगी श्रावक पोसउ नी विधि एह । मिलती सूत्र सिद्धांत सुं हो, मति करउ करिज्यो संदेह ।२६।सं.। उंचइ सरि बोलइ नहीं हो, दोष कह्या भगवंत । वलि सामाइक ल्यइ नवउ हो, पडिकमणउ करइ तंत ।३०।सं.। पडिलेहण किरिया करइ हो, सगली पूरव रीति । सहु सज्झाय कियां पछी हो, खिण पडखइ दृढ चीति ।३१।सं.। पहिलउ पोसौ पारिनइं हो, सामाइक पारेइ । पडिलाभइ अणगारनइ हो, अतिथि संभाग करेइ ।३२।सं. विधि सेती पोसउ कीयउ हो, बहु फलदायक होइ । अविधि संघाति कीजतां हो, काज सरह नही कोइ ।३३।सं.। पणि विधिनी खप कीजता हो, अविधि हुवई जिकाय। मिच्छा दुक्कड दीजतां हो, छुटक बारउ थाय ।३४।सं.। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६०० ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि पोसउ ओसउ कर्मनउ हो, टालइ दुरगति दुख । असुभ करम नउ खय करइ हो, आपइ सासतां सुख ।३शसं.। उतक्रष्टी पोसा तणी हो, ए विधि कही उपगार । जेसलमेरी संघ नई हो, आग्रह करि सुविचार ।३६सं. सोलइ सइ सत सठि समइ हो, नगर मरोट मझार । मगसिर सुदी दसमी दिनइ हो, सुभ दिन सुर गुरुवार ।३७।सं.। श्री जिणचंद सूरीसरू हो, श्री जिनसिंघ सूरीस । सकलचंद सुपसाउलइ हो, समयसुन्दर भणइ सीस ।३८|सं.। इति पौषध विधि गीतं सपूर्ण श्री शुभं भवतु । जेसलमेरु संघमभ्यर्थन्या कृतं च --::-- Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री मुनिसुव्रत पक्ष पवास स्तवन (६०१ ) श्री मुनिसुव्रत पक्षोपवास स्तवन जंबूदीव सोहामj, दक्षिण भरत उदार । राजगृह नगरी भली, अलकोपुरि अवतार ॥१॥ श्री मुनिसुव्रत स्वामि जी, समरंतां सुख थाय । मन वंछित फल पामियइ, दोहग दूरि पुलाय ॥२॥ श्री.॥ राज करइ तिहां राजियउ, सुमित्र नरेसर नाम । पटराणी पदमावती, शील गुणे अभिराम ॥३॥ श्री.॥ श्रावण ऊजल पूनिमइ, श्री जिनवर हरिवंश । माता कुक्षि सरोवरइ, अवतरियउ रायहंस ॥४॥श्री.॥ जेठ पढम पखि अष्टमी, जायउ श्री जिनराय । जनम महोच्छव सुर करइ, त्रिभुवन हरख न माय ॥ ५ ॥ श्री.।। सामल वरण सोहामणउ, निरुपम रूप निधान । जिनवर लांछन काछवउ, वीस धनुष तनुमान ॥६॥ श्री.।। परणी नारि प्रभावती, भोग पुरंदर सामि । राजलीला सुख भोगवइ, पूरइ वंछित काम ॥७॥ श्री.॥ नव लोगान्तिक देवता, प्रावि जंपइ जयकार । प्रभु फागुण सुदि बारसइ, लीधउ संजम भार ॥८॥श्री.॥ फागुण बदि प्रभु बारसइ, मनि धरि निर्मल ध्यान। च्यार करम प्रभु चूरियां, पाम्यउ केवल ज्ञान ॥8॥श्री.॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०२ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ॥ ढाल ॥ ततखिण तिहां मिलिया चलियासण सुर कोडि । प्रभुना पद पंकज प्रणमइ बेकर जोडि ॥ बेकर जोड़ी मछर छोडी समवसरण विरचंति । माणिक हेम रूप मय त्रिगढ छत्र त्रय झलकति ॥ सिंहासन बइठा तिहां सामी चउविह धरम प्रकासइ। बार परपदा आगलि बइठी निसुणइ मन ऊलासइ ॥१०॥ तप नइ अधिकारइ पखवासउ तप सार । पडिया थी लोजइ पनरह तिथि सुविचार ॥ पनरह तिथि कीजइ गुरु मुखि लीजई जिण दिन हुइ उपवास । श्री मुनिसुव्रत नाम जपीजइ, वांदी देव उल्लास ॥ तप ऊजमणइ रजत पालणउ सोवन पूतलि चंग। मोदक थाल देहरइ ढोइ जिनवर स्नात्र सुचंग ॥११॥ तप कीजइ रे निरंतर अदुख दर्शनी जेम । मन वंछित सुख संपति पामीजइ तेम ॥ संपति पामीजइ लील करोजइ राज रिद्धि विस्तार । पुत्र मित्र परिवार परंपर अति वल्लभ भरतार ।। जस कीरति सोभाग वढइ महियल महिमा जाण । पर भवि मुगति तणा फल लहियइ ए तप तणइ प्रमाण ॥१२॥ थिर थापी रे चतुर्विध संघ तणउ अधिकारि । . भरुयच्छि प्रमुख नगरादिक करिय विहार ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री मुनि सुव्रत पक्षोपवास स्तवन (६०३ ) विहार करी प्रतिबोधी खंधग पंच सयां परिवार । कार्तिक सेठ जितशत्रु तुरंगम सुव्रत नाम कुमार ॥ त्रीस सहस वरस आउखु पाली जगदाधार । श्री सम्मेत शिखरि परमेसर पहुँता मुगति मझारि ॥१३॥ इम पंच कल्याणक थुणियउ त्रिभुवन ताय । मुनि सुव्रत सामी वीसमउ जिणवर राय ॥ वीसमउ जिणवर राय जगत्र गुरु भय भंजण भगवंत । निराकार निरंजण निरुपम अजरामर अरिहंत ॥ श्री जिणचंद विनेय शिरोमणि सकलचंद गणि सीस । वाचक समयसुंदर इम बोलइ पूरउ मनह जगीस ॥१४॥ इति श्री मुनि सुव्रत स्वामी पक्षोपवास स्तवनम् ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६०४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि प्राकृत संस्कृत स्तवन संग्रह ऋषभ-भकामर-स्तोत्रम् । नम्रन्द्रवन्द्र ! कृतभद्र ! जिनेन्द्र! चन्द्र!, ज्ञानात्मदर्श-परिहष्ट-विशिष्ट-विश्व !। त्वन्मृतिरत्तिहरणी तरणी मनोज्ञे वालम्बनं भवजस्ले पततां जनानाम् ॥१॥ टीका-ऐं नमः । हे जिनेंद्र! त्वन्मूर्ति जनानामालंबनं । किं० भवजले पततां । केव ? तरणीव । किं० त्वन्मूति ? अतिहरणी-संतापनाशिनी। हे नमेंद्र ! नम्र इन्द्राणां वंद्रः-समुहो यस्य यस्मिन्वा। शेषं सुगमम् ॥१॥ गृहणाति यजगति गारुडिको हि रत्नं, तन्मंत्र-तंत्र-महिमैव बुधोप्यशक्तः । स्तोतुं हि यं यदबुधोप्यदशीयशक्तिः, - स्तोव्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ॥२॥ टीका-'किलेति' सत्येऽहमबुधोपि तं प्रथमं जिनेंद्र स्तोष्ये । तत अदशीयशक्तिः । तं कथंः स्तोतुं बुधोपि-सौम्योपि अथवा पण्डितोपि असक्तोऽसमर्थः ? दृष्टांतमाह-यजगति गारुहिकोऽहिरत्नं-सर्पमणिं गृहणाति तन्मंत्र-तंत्र-महिमैव इत्यनेन निजगनिरास: जिनमहात्म्यैव दर्शिते । मणि-शब्दः इकरांतोऽपि स्त्रीलिंगेप्यस्ति ॥२॥ त्वां संस्मरन्नहमरं करमीप्सितस्य, दूरं चिरं परिहरामि हरादिदेवान् । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषभ भक्तामर हित्वा मणिं करगतामुपलं हि विनं, मन्यः क इच्छति जना सहसा ग्रहीतुम् ॥३॥ ध्यानानुकूलपवनं गुण-पुण्य पात्रं, स्वामद्भुतं भुवि विना जिन यानपात्रं । मिथ्यात्वमत्स्य-भवनं भवरूपमेनं, ___को वा तरीतुमलमंबुनिधिं भुजाभ्याम् ॥ ४॥ सुत्क्षाम-कुक्षि-तृषिताऽऽतप-शीत-वात, . दुःखीकृताद्भुत-ततोर्मरुदेविमाता । अद्याप्युवाच भरतेति भवान् जिनस्य, नाभ्योति कि निजशिशोः परिपालनार्थम् ॥ ५॥ टीका-मरुदेविमाता इति उवाच । इतीति किं ? हे भरत! भवान् जिन स्य परिपालनार्थ अद्यापि किं न अभ्येति ? मुक्तिप्रदा भवति देव ! तवैव भक्ति र्नान्यस्य देवनिकरस्य कदाचनापि । युक्त यतः सुरभिरेव न रौद्रमास स्तचारु-चूत-कलिकानिकरैक हेतुः ॥६॥ गांगेयगात्र* ! नृतमस्तणसत्रदात्र, त्वन्नाम मंत्रवशतो गुणरत्नपात्र !। मिथ्यात्वमेति विलयं मम हृन्निलीनं, सूर्याशुभिन्नमिव शार्वरमन्धकारम् ॥ ७॥ *स्वर्ण. - - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय सुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि नेत्रामृते भवति भाग्यबलेन दृष्टे, हर्ष प्रकर्षवशतस्तव भक्तिभाजाम् । वक्षस्थल - स्थित तु ते क्षणतश्च्युतोऽसौ ( ६०६ ) मुक्ताफलद्युतिमुपैति ननूद बिंदुः ॥ ८ ॥ श्रीनाभिनंदन ! तवाननलोकनेन, नित्यं भवंति नयनानि विकस्वराणि । भव्यात्मनामिव दिवाकरदर्शनेन । पद्माकरेषु जलजानि विकासभाजि ॥ ६ ॥ त्वत्पादपद्मशरणानुगतान्नरांस्त्वं, संसारसिंधुपतिपारगतान्करोषि । निःपाप ! पारगत ! यच्च स एव धन्यो, भूस्याश्रितं च य इह् नात्मसमं करोति ॥१०॥ टीका- हे पारगत ! त्वं नरान् संसारसिंधुपतितान् पारगतान करोषि । संसारसिंधुपतेः पारे गतान्-तीरे प्राप्तान् सृजसि - स्वसदृशान् करोषीत्यर्थः । किं० न० ? त्वत्पादपद्मेति, सुगमं । यत् यस्मात्कारणात् स एव ना- पुमान् धन्यो य इह जगति आश्रितं नरं प्रति भूत्या कृत्वा आत्मसमं करोति - आत्मतुल्यं कुर्यात् । अतः पारगतः सन् परान्नरानपि पारगतान् करोपीति युक्तम् ॥१०॥ युक्त त्वदुक्तवचनानि निशम्य सम्यक्, नो रोचते किमपि देव! कुदेववाक्यम् । भवति त्वयि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषभ भक्तामर पीयूषपानमसमानमहो विधाय, क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत् ॥ ११॥ शंभुस्वकीय ललनाकलिताङ्गभोगो, विष्णुर्गदासहितपाणिरितीव देव ! | द्वेषरागरहितोऽसि जिन ! त्वमेव, यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति ॥ १२॥ टीका - हे देव ! ईशः-शंभुः स्वकीयलल नाकलितां गभागः, विष्णुर्गदासहित पाणिरितीव तो रागद्वे परहितः त्वमेवासि । यत्-यस्मात्कारणात्ते समानं - तब तुल्यमपरं रूप नास्ति । अयं भावार्थ: । देवत्वं त्रिष्वपि द्र- हरि-जिनेषु वर्त्तते परं रागद्वेषरहित जिन एव । कथं ? हरस्तु स्त्री सहितत्वाद्रागवान् । हरिस्तु गदाशस्त्रकलितपाणित्वात् द्वेषवान् । तेजस्विनं जिन ! सदेह भवंतमेव, ( ६०७ ) मन्येऽस्तमेति सविता दिवसावसाने । दीपोऽपि वर्तिविरहे विधुमंडलं च, यद्वासरे भवति पांडुपलासकल्पम् ॥१३॥ ये व्याप्नुवंति जगदीश्वर ! विश्व- विश्व, मेऽद्यान् जनापि सृजतितरां ? त्रिलोक्याम् । त्वां भास्करं जिन ! विना तमसः समूहान् कस्ता निवारयति संचरतो यथेष्टम् ॥ १४ ॥ टीका - हे जिन ! त्वां भास्करविना तान् तमसः समूहान् - अज्ञानव्रजान, पक्षे अन्धकारव्रजान् को निवारयति ? कोपीत्यर्थः, इत्युक्तिः, शेषं सुगमम् । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६०८ ) समयसुन्दरकृति कुसुमाञ्जलि सिंहासनं विमलहेममयं त्रिरेजे, मध्यस्थितत्रिजगदीश्वरमूर्त्तिरम्यम् । नोद्योतनार्थमुपरिस्थितसूर्यबिंबं, किं मन्दराद्रिशिखरं चलितं कदाचित् ॥ १५॥ टीका- किं मन्दराद्रिशि• न कदाचिञ्चलितम् । दोषाकरो न सकरो न कलंक युक्तो, नास्तंगतो न सतमानसविग्रहो न । स्वामिन् विधुर्जगति नाभिनरेंद्रवंश Jain Educationa International दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ | जगत्प्रकाशः ॥ १६ ॥ टीका - हे स्वामिन्! जगति त्वमपरो विधुरसि नवीनचन्द्र असि । कथं ? विलक्षणधर्मानाह - स तु विधुर्दोषाकरो - दोषः रात्रि करोतीति दोषाकरोऽथवा दोषायां रात्रौ कराः-किरणाः यस्य स त्वं तु न दोषाकरो दोषाणामन्तरायादीनामष्टानामाकरः । पुनः स तु सकर:- सहकरैः किरणैर्वर्त्तते यः सः, त्वं तु न सकर:सह करेण दण्डेन वर्त्तते यः सः । पुनः स तु कलंकयुक्त :कलंकेनाभिज्ञानेन युक्तो य सः । त्वं तु न कलङ्कयुक्तो - न दोषविशेष सहितः । पुनः स तु अस्तंगतोऽस्तमस्ताचलङ्गतः प्राप्तः सायमित्यर्थात् ग्राह्यः । त्वं तु नास्तंगतः । नास्तमित उद्गत् इत्यर्थः । पुनः स तु 'सतमा' सह तमसा- राहुणा वर्त्तते यः सः, त्वं तु न सतमा - सह तमसाऽज्ञानेन वर्त्तते य सः एवंविधो पुनः स तु विग्रहः सह विशिष्टैर्य हैर्वर्त्तते यः सः, त्वं तु सविग्रहः सह विग्रहेण - संग्रामेण वर्त्तते यः सः, एवंविधोन, शेषं सुगमम् ॥१६॥ For Personal and Private Use Only Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषभ भक्तामर नित्योदयस्त्रिजगतीस्थतमोपहारी, भव्यात्मनां वदनकैरवबोधकारी । मिथ्यात्वमेघपटलैर्न समावृतो यत्, सूर्यातिशायिमहिमासि मुनींद्रलोके ॥ १७॥ लावण्यपुण्य सुवरेण्य सुधानिधानं, प्रह्लादकं जनविलोचन कैरवाणाम् । ari विभो ! तव विभाति विभातिरेकं, विद्योतयज्जगदपूर्व शशांक बिम्बम् ॥ १८ ॥ ध्यातस्त्वमेव यदि देव ! जनाभिलाष पूर्णाकरः किमपरै विविधैरुपायैः । निःपद्यते यदि च भौमजलेन धान्यं, ( ६०६ ) कार्य कियज्जल घरैर्जलभारनम्रः ॥१६॥ यदनंतगुणाभिराम, माहात्म्यमस्ति सर्व्वज्ञ ते हरिहरादिषु तल्लवो न । चिंतामणौ हि भवतीह यथा प्रभावो, नैवं तु काचशकले किरण | कुलेपि ॥ २० ॥ तदेव ! देहि मम दर्शननात्मनस्त्व मत्यद्भुतं नृनयनामृत यत्र* दृष्टे । स्वामिनिहापि परमेश्वर मिऽन्यदेवं, Jain Educationa International कश्चिन्मनोहरति नाऽथ मवांतरेपि ॥ २१ ॥ * दर्शने । मम ॥ अत्रभवे. For Personal and Private Use Only Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि ज्ञानस्य शिष्टतरदृष्टसमस्तलोका लोकस्य शीघ्रहतसंतमसस्य शश्वत् । दाता त्वमेव भुवि देव ! हि भानुमंतं, प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशुजालम् ॥२२॥ सिंहासनस्थ भवदुक्त चतुर्विधात्मा, धर्मावृते त्रिजगदीश ! युगादिदेव!। सद्दानशीलतपनिर्मलभावनाख्या, ___ नान्यःशिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र पंथाः ॥२३॥ टीका-तपशब्दः शब्दप्रभेदेऽकारांतोप्यस्ति अतो नात्र दोषः । स्वामिन्ननंतगुणयुक्तकषायमुक्तः, साक्षात्कृत त्रिजगदेव भवत्सदृक्षाः । नान्ये विभंगमतयो रुचिरं च पंच ज्ञानस्वरूपममलं प्रविदंति संतः ॥२४॥ चिंतामणिमणिषु धेनुषु कामधेनु गंगानदीषु नलिनेषु च पुण्डरीके । कल्पद्र मस्तरुषु देव ! यथा तथात्र*, व्यक्तं त्वमेव भगवन्पुरुषोत्तमोसि ॥२५॥ भास्वद्गुणाय करणाय मुदोरणाय, विद्याचणाय कमलप्रतिमेक्षणाय । सल्लषणाय जनताकृतरक्षणाय । ___ तुम्यं नमो जिन ! भबोदपिशोषणाय ॥२६॥ धर्मावृते-पुण्यमन्तरेणेति पर्यायः. * जगति. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषभ भक्तामर (६११ ) पुंसां छलेन पतितं पुरतो हि रत्नं, दृश्येत किं नियतमंतरतत्त्वदृष्ट्या । मोहाहतेन मयि का त्वयि संस्थितेऽग्रे. स्वप्नांतरेपि न कदाचिदपीक्षितोसि ॥२७॥ मन्मानसान्तरगतं भवदीय नाम, पापं प्रणाशयति पारगत प्रभूतम् । श्रीमयुगादिजिनराज ! हिमं समंता निम्बरवेरिख पयोधरपार्श्ववर्ति ॥२८॥ जन्माभिषेकसमये गिरिराजशृङ्ग, प्रस्थापितं तव वपुर्विधिना सुरेंद्र। प्रद्योतते प्रबलकांतियुतं च बिंब, तुङ्गोदयादिशिरसीव नवांबुवाहम् ॥२६॥ केशच्छटां स्फुटतरां दधदंगदेशे, श्रीतीर्थराज ! विबुधावलिसंश्रितस्त्वम् । मूर्धस्थकृष्णलतिका सहितं च शृङ्ग मुचैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम् ॥३०॥ स श्रीयुगादिजिन ! मेऽभिमतं प्रदेहि, धर्मोपदेशसमये दिवि गच्छदूर्ध्वम् । ज्योतिर्दता जयति यस्य शिवस्य मार्ग, प्रख्यापयत् त्रिजगत, परमेश्वरत्वम् ॥३१॥ सिहस्ररश्मेः. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१२) समयमुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि सोपानपंक्तिमरजांसि भवद्वचांसि, स्वर्गाधिरोहणकृते यदि नो कथं तत् । तत्राश्रितास्त्रिजगदीश्वर : यांति जीवा, पमानि तत्र विबुधाः परिकल्पयंति ॥३२॥ भाति त्वया भुवि यथा न तथा विना त्वां, श्रीसंघनायकगुणैस्सहितोपि संघः । शोभा हि यागमृता तिना विना तं, ताहक्कुतो ग्रहगणस्य विकाशिनोपि ॥३३॥ त्वत्स्कंधसंस्थचिकुरावलिकृष्णवल्लिं, ___ वक्त्रस्फुरद्विषनिजाक्षिविनियंदमिम् । सोपि न प्रभवति प्रबलप्रकोपो, दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम् ॥३४॥ संप्राप्तसंयमदरी वसनं प्रलंब पुण्यौषधं परमशर्मफलोपपेतम् । मयं महोदयपते ! भववैरिवृन्दो, नाऽऽकामति क्रमयुगाचलसंश्रितं ते ॥३५॥ धर्मे धनानि विविधानि सनादहंतं, मानुष्य मानसवने नियतं वसंतम् । प्रोद्यत्तरस्मरसमीपसखं वृषांक ! तबामकीर्तनजलं शमयत्यशेषम् ॥३६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषभ भक्तामर ( ६१३ ) यत्रोद्गता शितिलताहि गिरेगहायां, किं तत्र तिष्ठति फणी गुणगेह तस्मात् । मिथ्यात्वमेतदगमन्नितरामुवष्ट, त्वनाम नागदमनी हृदि यस्य पुंसः ॥३७॥ पीडां करोति न कदापि सतां जनानां, सूर्योदयादमृत सरसीरुहाणाम् । दुःखीकृत त्रिभुवनो विपदां च यश्च, स्वकीर्तनात्तम इवांशामिदामुपैति ॥३८॥ त्वद्वाणिमंजुलमरंदरसं पिबंत स्तापोष्मितां परमनिवृतिमादिदेव ! ।। पुण्याठ्यपंचजनचंचुरचंचरीका स्त्वत्पादपङ्कजवनायिको लभते ॥३६॥ कंदप्पदेवरिपुसैन्यमपि प्रजित्य, वल्लोहकारकृतमार्गसु वम्मितांगाः । देव ! प्रभो जय जयारवमगिधीरा - स्वासं विहाय भवतः स्मरणाद् व्रजति ॥४०॥ त्वत्पादपद्मनखदीधितिकुंकुमेन, चित्रीकृतः प्रणमतां स्वललाटपट्टः। येषां तयेव सुतरां शिवसौख्यभाजो, मां मवंति मकरध्वजतुल्यरूपा॥ ॥४१॥ भने च कर्मनिगडे जिन ! लोहकार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि वाङ्मुद्गरेण भवगप्तिगृहाप्तवासाः । कर्मावली-निगडितापि-भक्त-सत्वा, सद्यः स्वयं विगतबंधभया भवति ॥४२॥ रोषादिवेलिसहगामपहाय माम सौ संपदाभिरमते सह... 'पत्न्या । द्राक्चक्रवालमगमद्विपदेव तस्य, यस्ताव कस्तवमिम मतिमानधीते ॥४३॥ तस्यां गणे सुरतरुसुरधेनुरंही चिंतामणिकरतलं निजमंदिरं च । यः श्रीयुगादिजिनदेवमलंस्तवीति, तं मानतुंगमषसा समुपैति लक्ष्मीः ॥४४॥ श्रीमन्मुनीन्द्रजिनचन्द्रयतीन्द्रशिष्यं, पूर्णेदुशिष्यसमयादिमसुंदरेण । भक्तामरस्तवनतुर्यपदं समस्या, काव्यैः स्तुतः प्रथमतीर्थपतिगृहीत्वा ॥४॥ इति श्रीमदादीश्वरस्य गृहीतभक्तामर चतुर्थपादसमस्यास्तवः समाप्तः। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नानाविध श्लेषमयं श्रीआदिनाथस्तोत्रम् ( ६१५ ) नानाविधश्लेषमयं श्रीआदिनाथस्तोत्रम् विनौति यो नो सकलानिकेतनं, कुले जिनं हंसकलानिकेतनम् । सुखानि लेभे समहंस किन्नर, प्रणम्य पादं समहंसकिन्नरः । १। निमुक्तराग प्रमदाभिराम, वने मतंगप्रमदाभिराम । नम्रीभवन्मंदरविग्रहाभ, जय प्रभो ! मंदरविग्रहाभ । २। पुण्यांकुरे जीवन्मुक्तमोहं, गुणह-राजीवनमुक्तमोहम् । विनौम्यहं स्कंधरमंगदांतं, जिनं वचस्कं घर मंगदान्तम् । ३ । जय प्रभो ! कैतवचक्रहारी, यस्य स्मृतेस्त्वं तव चक्रहारी । मायामहीदारहलो भवामः, स्वर्गाधियामारह-लोभवाम ।४। प्रथमजिनवरा संकल्पभावप्रमाणं, प्रगटभुवनकीर्ते कल्पभावप्रमाण । प्रदलितरिपुवृन्दः सर्वदा तातमेशं, प्रथय मदतिमिश्रे सर्वदाता तमेश । ५। अपवर्गसरोवरराजहंस, कुमतानलसंवरराजहंस । भुवनोत्तमवंशमतागमेन, जय हेमतनो ! शमतागमेन । ६। सुमनस्कृतसातपपातकान्त, भववारिणि भूत पपात कान्त ।। ददृशे तब येन सनावृषांक, वदनं नयनेन सना वृषांक । ७। पत्कजे चंचरीकायते नायका, द्वषविध्वंसनाकायते नायकः । उन्मुखस्तप्तगांगेयनालीकरुग, भक्तिभाजांसतांगेयनालीकरुन् ।। नम्रीभवत्सुरपुरन्दरमौलिरंगत्पादांबुजो नलिनसंदरमौलिरंग। अज्ञानपंकहरणं न रराज चक्रे, जीयात्सकेवलवने नरराजचक्रे ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि पालय मांप स्तवाालक परतिकं जगतांगज, मानमहीरहनाभिदेशजितकंजगतांगज । ऊचे तरचमिह प्रमोदवरमालसदायक, ईतिभीतिविततेः सहावरमालसदायक।१० नमतामजहारवंदित, स्मरसुजनैर्विजहारवंदित । विनुवे विभवालयादरं, तं त्वां नष्टभवालयादरम् ॥११॥ प्रथमदेव सतानयनामृत, पदनता जनतानयनामृत । तव सुरेधृतपंकजगामया, समलकोलवृषांक जगाम या ।१२। खां नुवे यस्य तं शं करे मे मते, देवपादांबुजेशं करे मे मते । मन्मनश्चंचरीकोपसंतापते, नाभिभूपांगभूः कोपसंतापते ।१३। एवं श्रीजिनचंद्रसरिसुगुरो पादा नत स्वगुरो, श्रीनाभेयसमेन्दुकुन्दयशसा संछन्नगौरीगुरो। भंग श्लेपविशेषकाव्यकलितं स्तोत्रं तवाश्चर्यकृत, संकुर्यात्समयादिसुन्दरकृतं कर्तुः सदा संपदम् ।१४ नानाविधकाव्यजातिमयं नेमिनाथ स्तवनम् ......... 'वारं स सायं वरं । सञ्जो नंदित वायरं पणमिमो हे देव ! सम्मं तुमं ॥७॥ अत्र काव्ये प्राकृतश्लोकोऽनुक्रमेण निस्सरति, सच यं नेमिनाहं सया बंदे, वरायमपयासयं । सायरंतरगंभीरं, भयवं स दिवायरं ॥८॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नानाविधकाव्यजातिमयं नेमिनाथ स्तवनम् ( ६१७ भक्त्या जे....'हं जरागणमदानंदादयध्वंसकं । लक्ष्मीदीप्रतनुं दयागुणभुवं तातां सतां दे वरम् ।। कृष्णस्फीतरुचिं नरा नमत भो जीवामतीति क्षिपं । त्यागश्रेष्ठयसोरसं कृतनति नेमिं मुदा त्रायक ॥ ६ ॥ अत्र कवित्वे संस्कृतश्लोकोऽनुक्रमेण निस्सरति सचायं भजेहं जगदानंद सकलप्रभुतावरम् । कृतराजीमतीत्यागं श्रेयः संततिदायकम् ॥१०॥ पदकजनत सदमरशरण वरकमलवदन वरकरचरण । शमदमधर नरदरहरण जय जलजधरणमरकरकरण ॥११॥ ___एक स्वर मय काव्यम्श्रीसर्वज्ञं प्रोद्यतप्रज्ञ, मोक्षावासं दत्तोल्लासम् । भव्याधारं रम्याकारं, वंदे नित्यं नष्टासत्यं ॥१२॥ सर्वगुरुवर्णमयं काव्यम् - प्रोत्सर्पद्गुणपुष्यपुञ्जकलितः कृष्णच्छविः सर्वदा । मानां शिवसौख्यवंछितफलं सहाशाखावरः ।। दद्यादद्य दरिद्रताभरहरः सद्धर्मपत्राकरः । श्रीमद्रवतमेरुमण्डनमसौ श्रीनेमिकल्पद्र मः ॥१३॥ विविधवरकाव्यभेदः, स्तुत एवं सकलचंद्रबिंबमुखः । प्रणतेन्द्रसमयसुन्दर गुणविततिर्नेमितीर्थेशः ॥१४॥ इति श्रीनेमिनाथस्तवनं नानाविधकाव्य जातिमयं समाप्तं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१८ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि नेमिनाथ गीतम् राग-आसारी जादवराय जीवे त कोडि वरीस । गगन मंडल उडत प्रमुदित चित, पांख्या देत आसीस ११ जा.। हम उपरि करुणा तई कीनी, जगजीवन जगदीस । तोरण थी रथ फेरि सिधारे, जोग ग्राउ सुजगीस ।२। जा.। समुद्र विजय राजाकउ अंगज, सुरनर नामई सोस । समयसुंदर कहई नेमि जिणिंद कउ,नाम जपुँ निस दीस ।३। जा.। ____ इति नेमिनाथ गीतं (३३) (नेमिनाथ गीत छत्तीसी में स्वयं लिखित ।) यमकबद्ध-प्राकृतभाषायां पार्श्वनाथलघुस्तवनम् परमपासपहू महिमालयं, जस विणिजिय सोमहिमालयं । सम....य रायमयं गयं, सिव पए य पयो अमयं गयं ॥१॥ चरणपाणिजिय (?) नीरयं, सयलदूषणवज्जियनीरयं । नमिर-नाग-पुरंदर-देवयं, भविअ-माणव-सुन्दर-देवयं ।२। तणुविहा वि जिअंजणपव्वयं, कयकसायखयं जणपव्वयं । महिमवम्महमाणस हं सयं, जणणमंजुलमाणसहंसयं ।। वरमरुजयणामहिआयमं, भुवणलच्छिललामहिआयमं । ललिअलच्छणलंछणलच्छि, कणयतामरसेच्छणलच्छि।४। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस्यामयं पार्श्वनाथ वृहत्स्तवनम् (६१६ ) विअरणाभिणवामरपाययं, परमसुक्खकरामरपाययं । लहुअरं परवाइसयासयं, सुपणतीसरवाइसया सयं ।। परमपुण्णलयावणनीरयं, दुहदवाणलजीवणनीरयं । सुकइकेरवरंगनिसायरं, गुणमणीभवणंगणिसायरं ।६। दुरिअयं दवणेगयमच्छरं, पवरसुक्खकरं गयमच्छरं। णयणनिजिअ-पंकयसंपयं, सरयसोममहं कयसंपयं ७ कलिकसायकलंकमलावहं, निरुत्रमाणकलाकमलावहं । अहिणुवामि तुमं समयालयं, जयइदीव समं समयालयं ।। इय थुप्रो पहुपासजिणेसरो, सुहगसुक्खनिवासजिणेसरो। सयलचंदजसप्पसरो वरो, समयसुन्दरकप्पसरोवरो ।। इति श्रीपार्श्वनाथस्यशुद्धप्राकृतभाषायां लघुस्तवनसम्पूर्णम् । समस्यामयं पार्श्वनाथवृहत्स्तवनम् त्वद्भामंडलभास्करे स्फुटतरे भास्वत्प्रभाभासुरे । दृष्टे त्वेकपदे त्वदीयवदने पूर्णेन्दुबिम्बात्प्रति ॥ धर्माख्यानविधौ त्वयीति भगवन् व्यज्ञायि.... । सूर्याचन्द्रमसौ प्रभातसमये ह्यकत्र किं रेजतुः ? ॥१॥ विष्णुब्रह्ममहेश्वरप्रभृतयः सर्वेपि श................ ......: खलु पर्यवाः प्रतिदिनं प्रोच्यार्यमाणः परैः॥ श्रीअर्हन् भगवन् जगत्त्रयपदेस्त्वन्धेर्जलानां यथा । अम्भोधिर्जलधिः पयोधिरुदधिरांनिधिर्वारिधिः ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दरकृति कुसुमाञ्जलि श्रीवामेयगुणत्रयमहिमामेयाभिधेयाभिधस्वत्पादाम्बुज सुप्रसादवशतः राजत् त्रिलोकीपते ! ॥ धो पश्यति निर्धनो धनपती रंकोपि राजायते । मूको जल्पति संशृणोति बधिरः पंगुर्नरी नृत्यति ॥ ३ ॥ सिंहासनं समधिरोहयतः प्रभाते, ( ६२० ) प्राच्यां स्थितेन पुरुषेण विनिश्चितं य भामंडलं भगवतः प्रविलोक्य दूरात् । .. दभ्युद्यतो दिनकरः खलु पश्चिमायाम् ॥ ४ ॥ त्वय्यशोभिरभितस्त्रिविष्टपे, शुभितेऽभ्रशरदिंदुसुन्दरे । पार्श्वदेव ! गुणरत्ननीरधे, कजलं रजतसन्निभं बभौ ॥ ५ ॥ लोकोत्तरां धर्मधुरां दधाने, देव ! त्वयि ज्ञानगुणप्रधाने । त्वद्वादिवक्त्रेषु तवोरुकीर्ति-सुधाव्यधादंजननीलिमानम् ॥ ६ ॥ मा दृष्ट दोषोस्त्वति सुंदरत्वान्मात्रा कृतां कज्जलकृष्णरेखाम् । प्रभोः कपोले प्रविलोक्य कोप्यवक्, पिपीलिका चुंवति चंद्रबिंबम् ७ मनोभवे क्षोभयितुं भवन्तं, समुद्यते तीर्थपते ! नितान्तम् । स्त्वया तत्र नियन्त्रितं यत्सुतापराधे जनकस्य दण्डः ॥ ८ ॥ अस्योपरिश्यामकरण | मणीनां प्रभा प्र... पार्श्वप्रभो ! कोपि विदो वदत्कि, चन्द्रोपरि क्रीडति सैंहिकेयः ॥६॥ दशशतनयनौघैः स्वर्ण कुंभ...... " Jain Educationa International विमलसलिलपूर्णै: स्नापिते श्री जिनेंद्र । प्रवहदतुल पाथः प्रोच्छ............ ..................था दुरासीत्पयोधिः ॥ १०॥ For Personal and Private Use Only Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यमकमयं पार्श्वनाथ लघुस्तवनम् (६२१ ) शस्त्रो हस्तप्रशस्तो ऽ भिनवकिशलयं शो ......... .............. भिरामौ मधुकरनिकरप्रस्फुरनीलपौ। कोन्ता-दन्ताश्च कुन्दान् कथयत कवयः पार्श्वनाथस्य शंभो। ......"को केकस्को (?) कान् प्रहसति हसतः फुल्लगल्लहसंति।११॥ स जयत्वनिशं भुवनाधिपते स्तसि स्व. 'तत्त्व वि...। भुवि यास्मयदीय ववोनधि (१) सं वदते वदते वदते वदते ।१२। इत्थं श्रीजिनचन्द्रसुन्दरजगत्स्वामिन् ! समस्योस्तवो । ............. 'पुरतः प्रधाय वदते विज्ञप्तियुद्भक्तये ।। मोहेनात्तचतुर्गतिस्थितिनिजग्रासाय रोषावशान् । मह्य देवथ पार्श्वदेव ! पदवीं त्वच्छासनस्थेयसीम् ॥१३॥ इति श्रीपार्श्वनाथस्य समस्यास्तवनबृहत्समाप्तम् । यमकमयं पार्श्वनाथ-लघुस्तवनम् विज्ञान-विज्ञा न नुवंति केत्वां, मासार-मासारमधर्मपंके । नीराग-नीरागम-कानने सहेला-महेला-मव-हेलयंतम् ॥१॥ सद्यः प्रसद्य प्रकटोपदेश-नावासनावासबसेवितां । मेधार मे धारय दुःखतोये, साद-प्रसाद-प्रणतं पतंतम् ॥२॥ सत्याग-सत्यागम-केवलेन, विस्फार-विस्फारय मे सुखानि । वामाभवामाभव - पार्श्वनाथा - पद्मार - पद्मारतिराज-राज ॥३॥ चिन्ताम-चिंतामणि-रीश देवमायाति मायातिमिरे गभस्तिम्। तस्या-मत स्यामहरं करे त्वं, दानं ददान-दडिनं विनौति ॥४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२२ । समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि पमा विपनां विदुषां दिशन्तं शान्तं निशान्तं नियतं गुणानाम्। सेवामि सेवामि तमुत्रिलोकीनाथं सनाथं समया मयाहम् ॥५॥ संकल्प संकल्पसमं नतेन्द्र ! कोटीरकोटीरमणीयपादम् । तारं जितारं जिनपं वरेण्य !, दन्तं भदन्तं भविका भजध्वम् ॥६॥ योगाय योगाय...'शस्ते, सोमानसोमाननदेव धन्यः। देवाधिदेवाधिमतंगसिंहा, सत्कीर्ति-सत्कीर्तितमोक्षमार्गः ॥७॥ इति नुतो जिनचन्द्र दिवाकरः, सकलचंद्रमुख प्रभुतावरः । यमकवन्धकवित्वकदम्बकः, समयसुन्दरभक्तिविनिर्मितैः ॥८॥ इति श्रीपार्श्वनाथस्य लघुस्तवनं यमकमयम् ॥ यमकमयं महावीरबृहद्स्तवनम् जयति वीरजिनो जगतांगज, सकलविघ्नवने विगतांगजः । क्षणनिरस्तसमस्त 'मानवग्रहनिषेव्य पदो नत मानवः ॥१॥ विधुवरेण्ययशः प्रसरो वर-प्रविलसद्गुणहंससरोवर । दिशतु मेऽभिमतं सुमनोहर, स्मरतिरस्कृतरूपमनोहरः ॥२॥ जिनवरं विनुवामि कलापदं, हृतनमत्सुमनः सकलापदम् । त्रिजगतीयुक्तोतिलकोपमं, कमलकान्तदृशं मलकोपमम् ॥३॥ पिबत निर्मलवाक्यसुधारसं, जिनपते जनद्वसुधारसम्। त्रिभुवनस्य तिरस्कृततामसं, मुखशशिप्रसृतं विततामसम् ॥४॥ कुशलकंदपयः कुशलाभवं, भज नतं हतवांस्त्रिशलाभवम् । शिवसरोजरविं शमतामलं, सुखकरं कृतिनां नमतामलम् ॥५॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यमकमयं महावीरबृहतस्तवनं (६२३ ) सुजनकैरवसोमसमोदयस्तनुसमस्तसुखालस मोदय। त्वमिह मां करुणाखिलभूधनः, कमलकुड्मलकोमलभूधनः।६। जपति नाम जनो जिन तावक, स्पृशति ते न विपजनतावकम्। मुखकरण्डमणिं महिमाशुभं, हृदयकैरवपूर्णहिमां शुभम् ॥७॥ जिन जडोपि जनस्तव नामतः, कवि पदं लभते स्तवनामतः। मुकृतिसजनसंचयसोदर, प्रबलपुण्यलतापयसोदर ॥८॥ तव वचौ जिन मे सरसंशय, द्य तिजितांबुजविस्मरसंशय। हरतु सर्वतमः पुन रक्षणं, भवपयोधिपतजनरक्षण ॥६॥ त्वमिह पुण्यगुणेन समुद्धर, पतितं भववारिसमुद्धर । रतिपतौ जिन मां सहसालसल्ललनवल्ललनैकहसालस ॥१०॥ कनककैरवकायकलाप का'रुपमानतलोककलापरुक। . सजननेत्रसधारविराजते, चरमतीर्थप ! कापि विराजते ॥११॥ समय मे जिनराज भवानल, पदकजं प्रणतस्य भवानलम् । परिहरन् प्रतिपापपरंपर, व्रतकृताद्भुतपपापरंपरः ॥१२।। तव विलोक्य रुचिं भुवि कांचन, कृत तदा 'नो भवि कांचन । प्रविशतीव शुचौ शमतालसद्भवपयोनिधिपोतमतालस॥१३॥ इति मयका महितो जिनचंद्रश्वरमजिनश्चरमोदधिमंद्रः स्तुति करणेन वितन्द्रः। करुणाकैरविणीसमचंद्रः समयमनोहरकृतिकृतभद्रः प्रदलितभवभयवंद्रः॥१४॥ इति श्री महावीरस्य बृहत्स्तवनं यमकमयं सम्पूर्णम् ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२४ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि अल्पाबहुत्व-विचारगर्भित-श्रीमहावीर-बृहतस्तवनम् अण परूविअमेयं, दिसाणुवारण अप्पबहुठाणं । जीवाण बायराण य, थुणामि तं वद्धमाणजिणं ॥१॥ सामन्नणं जीवा पाऊ-वण - विगल - तिरित्र - पंचिंदी। पच्छिमथोवा - अहिया, पुवादिसि दाहिणुत्तरओ ॥२॥ मणुया सिद्धा तेऊ, सब - थोवा य दाहिणुत्तरो। पुट्विं संखा पच्छिम, अहिया कहिया तुमे नाह ! ॥३॥ वाउ थोवा पुचि, तत्तो अहिश्रा य पच्छिमुत्तरो । दाहिण नारय थोवा, पुव्वुत्तर पच्छिमासु समा ॥४॥ दाहिण असंख पुढवी, दाहिण थोवा कमेण अहिअ तो। उत्तर पुव्वा वरदिसि, तुज्झ नमो जेण निदिट्ठा ॥ ५॥ भवणवइ-पुव्व-पच्छिम, थोवा तुल्ला य उत्तर असंखा । दाहिण तो असंखा, वंतर - थोवा य पुव्वदिसि ॥६॥ पच्छिम उत्तर दाहिण, अहिया थोवा य जोइसा तुल्ला। पुव्वा वरदिसि दाहिण, उत्तर अहिया कमा भणिया ॥ ७ ॥ पढम - चउकप्प - देवा, सव्वत्थोवा य पुठ्यपच्छिमओ। उत्तर-असंख दाहिण, अहिश्रा तुह मय विऊविति ॥८॥ बंभाइ - कप्प - चउगे, पुव्वुत्तर पच्छिमासु थोवसमा । दाहिण संखा तत्तो, उवरिम देवा य सम सव्वे ॥६॥ थोवा पुग्गल उट्ट, अहित्र अहे तह य संखतुल्ला य । उत्तरपुरथिमेणं, दाहिण पचत्थिमेण तो ॥१०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पाबहुत्व विचारगर्भित श्रीमहावीर बृहत्स्तवनं ( ६२५ ) दाहिण - पुरथिमेणं, उत्तरपञ्चस्थिमेण अहिअसमा । पुचि असंख अहिआ, पच्छिम तह दाहिणुत्तरो ॥११॥ अप्पबहुत्तसरूवं, इय दिट्ठ केवलेण नाह ! तुमे । अह तह कुणसु पसायं, अहमवि पासेमि जह सक्खं ॥१२॥ इय चउदिसासु भमित्रो, तुह आणा वजिओ यवीर ! अहं। गणिसमयसुंदरोहिं, थुणिो संपइ सिवं देसु ॥१३॥ इति श्रीअल्पाबहुत्व विचारगर्भितं श्री महावीरदेववृहत्स्तन संपूर्ण ।१६। ___ संवत् १६५४ वर्षे मार्गशीर्ष वदि १ दिने बुधवासरे श्रीपत्तने श्रीकंसारपाटके कृतं चोपड़ा पा० देवजी समभ्यर्थनया। मणिधारी जिनचंद्रसूरि गीत ..'केसर अगर कपूर पूजा करी। चाढउ कुसुम की माला।शाडि नगर विश्राम विमान.............. ...............धि । खरतरगछ प्रतिपालाशडि। महतीयाण श्रीवक प्रतिबोधक । जाणत बाल गोपा(ला)....। ..........।३डि इति श्री डिल्ली मण्डन श्री जिनचन्द्रसूरि गीतं ॥१॥ जिनकुशलसूरि गीत राग-सारङ्ग दादउ""" ................................."रसावडशदास । * यह टीका सहित आत्मानन्द सभा भावनगर से बहुत वर्षों पूर्व छपा था, अब अप्राप्य है।) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२६ ) समय सुन्दरकृति कुसुमाञ्जलि श्री संघ जाच करत विधि सेती । मन सुधि भावना भाव । प्रारथिया ....... • जागति जोति कुसलसूरि जागइ ...सुख संपति पूरति । खरतर सोह वडावड़ । "लसूरि गीतं ||३|| ५. दादा श्री जिनकुशलसूरि गीतं राग - जयत सिरी- धन्यासिरी देराउर उंचउ गढ ..... 'ट घट अलि बिघन बिडारण | मांग्या मेह वरीस । पुत्र कलत्र आसा सुख नाम जपं निसदीस | साहिब करउ बगसी (स) । मुलताण मंडन जिनदत्तसूरि जिनकुशलसूरि गीत राग -- भूपाल जिणदत्त जि० २ सूरि कुस Jain Educationa International "समयसुन्दर मांगति पद सेवा । हितकरि हि० एक गुरु दुखह 'राजी । जग वोलई जसवाद ॥१॥ जि० ॥ ..... 'परिजी । मनोरथ चाढहं प्रमाण ||२|| जि०|| For Personal and Private Use Only Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजयमेरु मण्डन जिनदत्तसरि गीत ( ६२७ ) परतखि २ थई कहई... .. ............ 'गोजी। सबलउ देस्यइ सोभाग ॥३॥ जि०॥ केसर के० २ भरिय कचोल ......... ....... ... ... ...| अगर उखेवउ अति भाय ॥४॥जि०॥ दिन २ दिन २ बेउ दादा दीपताजी...' ...........'ऊगत भांण ॥५॥ जि०॥ इति श्री मुलताण मण्डन श्री जिनदत्तसूरि श्री जि ........ .........रण समये ।। अजयमेरु मंडन जिनदत्तसूरि गीतम् राग-मारुणी पूजिजी अ...... ......... .. ....''गुरु एह विचारवा। संघ उदय करिज्यो संभारवा ।। पू०। जागति जोति........ .....'भय संकट भागइ । मोटा महिपति सेवा मांगइ ।। पू०। मेदनि तटसंघ ......''तणइ परमाणइ । वखतवंत गुरु एह वखाणइ ।। पू०। समरवउ सद..." ..''ण दत्तसूरि दादा। समयसुंदर कहइ सुगुरु प्रसादा।४ पू० इति श्री मेड..... .....'करणे श्री अजयमेरु मंडन श्री जिनदत्तसूरि गीतं ।।६।। सं० १६८८ वर्षे मार्गशीर्ष ५ दिन श्रीसमयसुन्दरोपाध्यायः लिखितम...................* Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२८) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि प्रबोधगीतम् साझां थकां सहु ध्रम करउ, पछइ आपणउ काम । दुख आव्यां थायइ दोहिलउ, मन न रहह ठाम ॥१॥सा० जीवण जाणइ...", सउ वरस नी आस । पणि वेसास नहीं घड़ी, आविउ नाव्यो के सास ॥२॥सा. अमर तो को दीसइ नहीं, जग ऊलटय ........। बइसि रह्यउ किउं बापड़ा, करि जउ काइ थाइ ॥३॥सा. ए सामग्री दोहिली, बली नोरोग डील । भोजन प्राण..."उ, हिवइ काई करइ ढील ॥४||सा० पहिलु परिवारी रह्य, लेजे संबल साथि । समयसुन्दर कहइ...', हुस्यइ सहु सुख हाथि ॥शासा० साजा० इति गीतं । लिखितं पंडित अगजीवनेन साध्वी लखमी माला पठन कृते शुभम् भवतु कल्याणमस्तु । * (पत्र १ आधा त्रुटित मिला, इसमें दादा गुरु के १० गीत हैं जिनमें पूर्व प्रकाशित ५ गीतों को छोड़ अन्य ५ गीत यहाँ दिये गये हैं।) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट परिशिष्ट कविवर के गद्य रचना का एक उदाहरण २४ तीर्थंकरों के नामों का अर्थ व कारण ( चवीस तीर्थंकर ना सामान्य अनइ विशेष अर्थ ) १. । ॐ । संयम धुरा वहिवा भरणी ऋषभ - समानि, ते ऋषभ | ए सामान्य अर्थ । उरू नइ विषय ऋषभ लांछन अथवा चउद सुपना माहे मरुदेवायs ऋषभ दीठउ, पहिलउ २. परीसन ते भणी ऋषभ । ए विशेष | १ | जीत, ते अजित । ए सामान्य । गर्भ थकां माता नइ पासा सारी रमतां राजायइ जीती नहीं । ए वि० |२| ३. चउन्नीस अतिसय अथवा सुख जेहनइ विषय संभवइ, ते संभव | ए सामान्य । ( ६२७ ) जिइ गर्भ थकां पृथिवी मांहि धान्य निष्पत्ति अधिकी थई, ते सम्भव | ए वि० |३| ४. अभिनंदियइ देवेंद्रादिके ते अभिनन्दने । ए सामान्य । भव्य पछी वा २ इंद्रइ अभिनंद्य ते अभि० । ए वि० |४| ५. जेह नी भली मति सुमति । ए सामान्य । गर्भि थकां सउकि नइ झगडइ माता नइ भली मति ऊपनी, झगडउ भागउ ते भरणी सुमति । ए वि० |५| ६. पद्म नी परि प्रभा ते भरणी पद्मप्रभ । ए सामान्य । गर्मिथकां माता नइ पद्म नी शय्या नउ डोहलड ऊपनउ, ते भरणी पद्मप्रभ । ए वि० | ६ | ते सुपार्श्व । ए सामान्य । ७. शोभन छइ पसवाड़ा गर्भि थकां माता ना Jain Educationa International जेहना पसवाडा भला थया, रोग गयउ, ते भरणी सुपार्श्व । ए वि० /७१ For Personal and Private Use Only Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२८) परिशिष्ट ८. चंद्र नी परि सौम्य प्रभा छइ जेहनी, ते चंद्रप्रभ । ए सामाग्य। गर्मि थकां माता नइ चंद्रमा नउ डोहलउ थयउ, ते भणी चंद्रप्रभ । ए वि०।। ६. शोभन भलउ विधि आचार जेहनउ, ते सुविधि । ए सामान्य। गर्भि थकां माता सर्व विधि नइ विषइ कुशल थई, ते भणी सुविधि । ए वि० ।।। १०. समस्त जीव नइ सन्ताप पाप उपशमावी शीतल करइ, ते शीतल ।ए सामान्य। गर्भि थका माताना कर स्पर्श थी पिता नउ पूर्वोत्पन्न असाध्य रोग उपशम्यउ, ते भणी शीतल । एवि०।१०। ११. समस्त लोक नइ श्रेय हित करइ, ते श्रेयांस । ए सामान्य। गर्मि थकां मातायइ किणइ अनाक्रमी शय्या आक्रमो श्रेय कल्याण थयउ ते भणी श्रेयांस । ए वि०॥११॥ १२. वसु देव विशेष तेहनइ पूज्य, ते वसुपूज्य ।ए सामान्य। गर्मि थकां वसु रत्ने करी इंद्रराज कुल पूरतउ हुयउ अथवा वसुपूज्य राजा नउ बेटउ, ते वासुपूज्य । ए वि०॥१२॥ १३. विमल निर्मल ज्ञान छइ जेहनउ, ते विमल । अथवा गयर छइ मल जेहथो, ते विमल । ए सामान्या गर्भि थकां मातानी मति अनइ देह विमल निमल थई, ते विमल । ए वि०।१४.अनन्त कर्म ना अंश जीता अथवा अनन्त ज्ञानादि छइ। जेहनां, ते अनन्त । ए सामान्य।। गर्मि थकां माता रत्न खचित अनन्त कहतां महत्प्रमाण दाम स्वप्नई दीठु, ते भणी अनन्त । ए वि०।१४।। १५. दुर्गति पडतां प्राणी नइ घरइ ते धर्म ।ए सामान्य। गर्भि थकां माता दानादि धर्म नइ विषय तत्पर थई, ते भणी धर्म । एवि०१ ते विमल । HTRANSim Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (६२६) १६. शांति करइ, ते शांति । ए सामान्य। गर्भि थकां अशिव उपशग्यउ शांति थई, ते भणी शांति ए वि०॥१६॥ १७. कु कहतां पृथिवी विषइ राउ, ते कुन्थु । ए सामान्य। गर्मि थकां माता सर्वरत्नखचित कुन्थु कहतां थूभ देखती हुई, ते भणी कुन्थु । एवि०।१७। १८. कुल नी वृद्धि भणी हुवइ ते अर ।ए सामान्य। गर्भि थकां माता सर्व रत्नमय अरउ दीठउ, ते भणी अर। एवि०॥१८॥ १६. परीषहादि मल्ल जीता ते भणी मल्लि ।ए सामान्य। __ गभि थकां माता नइ सर्व ऋतु कुसुम माल्य शय्या नउ डोहलउ देवता पूरयउ, ते भणी मल्लि ।ए वि०।१६। २०. जगत् नी त्रिकालावस्था जाणइ ते मुनि, अनइ भला व्रत छइ जेहना ते सुव्रत, (बे) पद मिल्यां मुनि सुव्रत । ए सामान्य। गर्भि थकां भातामुनिनी परि सुव्रत थई, ते भणीसु०। एवि०॥२०॥ २१. परीसहां नइ नमाड्या, ते भणि नमि । ए सामान्य। गर्भि थकां गढ परि माता नइ देखी नई वैरी नम्या, ते भणि नमि । ए वि०॥२१॥ २२. अरिष्ट उपद्रव छेदिवा नइ नेमि कहतां चक्रधारा समावि, ते नेमि । ए सामान्य। गभिं थकां माता अरिष्ट रत्नमय नेमि दीठउ ते भणी, नेमि । एवि०॥२२॥ २३. सर्व भाव देखइ ते पार्श्व । ए सामान्य। गभि थकां माता अन्धारइ सांप दीठउ, ते भणी पार्श्व । ए वि०।२३। २४. ज्ञानादि के वध्यउ ते वर्द्धमान । ए सामान्य। गर्भि थकां ज्ञान, कुल, धन, धान्यादिकइ, करी वध्यउ, ते भणी वर्द्धमान । एवि०।२४। ए चउवीस तीर्थंकर ना सामान्य अनइ विशेष अर्थ जाणिवा। (पत्र १ स्वयं लिखित समयसुन्दर ) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभय जैन ५५डादे महत्वपूर्ण प्रकाशन * रति जन काव्य मंगइ -4 :चित्र मू० 5) 12 वी ते 16 के अति० भाषा . युगप्रधान जिदत्त- सोचत्र जैन दार्शनिक सं वहंगन पृ० 15 म०) 4. ज्ञानमार थावर 400 स..जल्द पू०२। (प्राम - ल जी, प्रस्ता० परशुराम चतुती), 5. बीकानेर उनले श्रह -चित्र 11 सजिल्द मू०१०) (बीननेर राज्य और जैसलमेर के अप्रकाशित 2800 अभिलेख ) 0 डा उपभुदव शरण अग्नल, (रेजी गईज) 6. नेर रे गेय जैन मंदिर-पृ०२ .. समत , गंजलि-०८० 8. श्रीमद् . पली - 2 (जीवनी सहित) स्थान। दरिषद प्रका। 1. राजस्थानी / पहा ).ग 1. सु) 11), 3) 2. राजस्थानी वहावता ( 2500 भाग 1-2 सजिल्द 3) 3) Seny linShasan प्राहि स्थान - नाह अदर्स, 43 मो ) शंकरदान नाहा T / 093094 gyanrandirokobatirth.org Prorey.org