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उत्तर भारत में ईस्वी सन् की १० वीं शताब्दी के पाद विदेशी आक्रामकों के धक्के बार-बार लगते रहे हैं। इसका नतीजा यह हुआ है कि दसवीं से चौदहवीं शताब्दी तक देशी भाषाओं में जो साहित्य बना वह उचित संरक्षण नहीं पा सका। साधारणतः तीन प्रकार से प्राचीन काल में हस्तलिखित ग्रन्थों का रक्षण होता रहा है-(१) राजशक्ति के आश्रय में, (२) संघटित धर्म-संप्रदाय के संरक्षण में, और (३) लोक-मुख में । जिन प्रदेशों में परवर्तीकाल में अवधी और ब्रजभाषा का साहित्य लिखा गया, उनमें दुर्भाग्यवश चौदहवीं शताब्दी तक देशी भाषाओं में लिखे गए साहित्य के लिए प्रथम दो आश्रय बहुत कम उपलब्ध हुए । मुगल साम्राज्य की प्रतिष्ठा के बाद देश में शान्ति और सुव्यवस्था कायम हुई और हस्तलिखित ग्रन्थों के संरक्षण का सिलसिला भी जारी हुआ। परन्तु राजपूताने में दोनों प्रकार के आश्रय प्राप्त थे। इसीलिये राजस्थान में देशी भाषा के अनेक ग्रन्थ सुरक्षित रहे । यद्यपि विदेशी आक्रामको ने राजपूताने पर भी आक्रमण किए परन्तु भौगोलिक कारणों से उस प्रदेश में बहुत-सी साहित्यिक संपत्ति सुरक्षित रह गई। अनेक राजवंशों के पुस्तकालयों में ऐसी पुस्तकें किसी न किसी रूप में सुरक्षित रह गई। किन्तु पुस्तकों के संग्रह और सुरक्षण का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य जैन-ग्रन्थ-भारडारों ने किया है। जैन मुनि लोग सदाचारी और विद्याप्रेमी होते थे। वे स्वयं शास्त्रों का पठन-पाठन करते थे, और लोक-भाषा में काव्य-रचना भी करते थे। इन ग्रन्थ भाण्डारों का इतिहास बड़ा ही मनोरंजक है । काल-कम से गृहस्थ भक्तों के चित्त में इन ग्रन्थ भाण्डारों के प्रति कभी कभी मोहान्ध भक्ति भी देखी गई है । कितने ही भाण्डारों के ताले वर्षों से खुले ही नहीं, कितने ही ग्रन्थ भाण्डारों में पुस्तकें रखी-रखी राख हो गई, और जाने कितने बहुमूल्य
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