SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महोपाध्याय समयसुन्दर कहियउ घणउ तउ थायइ किलेस ॥२॥ जोड़ घड़ी विस्तरी जगत मई, प्रसिद्धि थइ पातसाह पर्यन्त । पणि एकणि बात रही अरारति, न कियउ किण चेलइ निश्चिन्त ॥३॥ समयसुन्दर कहइ सांभलिज्यो, देतउ नहीं छु चेला दोस । इधर वृद्धावस्था, उधर दुष्काल से जर्जरित काय और ऐसी अवस्था में भी अपने प्राण प्यारे शिष्यों की उपेक्षा से कवि अत्यंत दुःखी हो जाता है जिसका वर्णन कवि अपने 'गुरु दुःखित वचनं' में विस्तार से प्रकट करता हुआ कहता है कि ऐसे शिष्य निरर्थक "क्लेशोपार्जितवित्तेन, गृहीत्वा अपवादतः । यदि ते न गुरोभक्ताः, शिष्यैः किं तैर्निरर्थकः ।। वंचयित्वा निजात्मानं, पोषिता मृष्टभुक्तितः । यदि ते न गुरोभक्ताः, शिष्यैः किं तैनिरर्थकैः ।२। लालिताः पोलिताः पश्चान्मातृपित्रादिवद् भृशम् । यदि ते न गुरोर्भक्ताः, शिष्यैः किं निरर्थकैः ।३। पाठिता दुःखपापेन, कर्मवन्धं विधाय च । यदि ते न गुरोभक्ताः, शिष्यैः किं तैर्निरर्थकैः ।४। गृहस्थानामुपालम्भाः, सोढा बाढं स्वमोहतः । यदि ते न गुरोभक्ताः, शिष्यैः किं तैर्निरर्थकैः ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003810
Book TitleSamaysundar Kruti Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year1957
Total Pages802
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy