________________
( ८२ )
महोपाध्याय समयसुन्दर
कथा-साहित्य के भण्डार को समृद्ध करने की दृष्टि से 'कथाकोष' रचा गया। इसमें छोटे-मोटे, रसपूर्ण, अनेकों आख्यायिकायें हैं जो श्रोता को मुग्ध करने में अपनी सानी नहीं रखती हैं। किन्तु अफसोस है कि यह चुटकलों और आख्यायिकाओं भण्डार आज हमें प्राप्त नहीं है; है तो भी अपूर्ण रूप में । अतः तज्ज्ञों का कर्त्तव्य है कि इसकी प्राप्ति के लिये अनुसन्धान करें।
संस्कृत भाषा सर्वग्राह्य न थी, क्योंकि सामान्य उपदेशक भी इससे अनभिज्ञ थे। अतः कवि ने सर्वग्राह्य दृष्टि से प्रान्तीय भाषाओं में 'रासक और चतुष्पदियों' की रचना की है। जिसकी तालिका हम ऊपर दे आये हैं। ये 'रास ' संस्कृत के काव्यों की तरह ही काव्य शास्त्रों के लक्षणों से युक्त प्रान्तीय भाषा के कलेवर से सुसज्जित किये गये हैं। कवि के रासक साहित्य में सोताराम चतुष्पदी' और 'द्रौपदी चतुष्पदी' महाकाव्यों की तरह ही विशद
और अनुपम सौन्दर्य को धारण किये हुये हैं। इनके रासक जनरखन के साथ विद्वजनों के हृदय को आह्लादित कर रसाभिव्यक्ति करने में भी समर्थ हैं । कवि ने 'कथा' के साथ प्रसङ्ग-प्रसङ्ग पर जो धार्मिक अनुष्ठानों की, उपदेशों की बहार दिखाई है, उससे रसाभिव्यक्ति के साथ जीवन की उत्कट श्रद्धा और विश्व-प्रेम का भी अभ्युदय होता दिखाई देता है।
कई संस्कृतनिष्ठ विद्वान भाषा-साहित्य की उपहास किया करते हैं, वे यदि कवि के रासक-साहित्य का अध्ययन करें तो उन्हें अपनी विचार-सरणि अवश्य बदलनी पड़ेगी।
भाषा-विज्ञान की दृष्टि से तो ये 'रास' बड़े ही उपयुक्त हैं। १७ वीं शती के भाषा के स्वरूप को स्थिर करने के लिये इन रासों में काफी सामर्थ्य है । आवश्यकता है केवल वैज्ञानिक दृष्टि से अनुसंधान करने की।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org