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________________ श्री प्रसन्नचंद्र राजर्षि गीतम् (२८७ ) श्रेणिक नइ समझावियउ रिषी रूड़उ रे, अशुभ मनइ शुभ ध्यान रिषीसर रूड़उ रे ॥४॥ प्रसन्नचंद्र सरिखउ मिलइ रिषी रूड़उ रे, तउ हूँ तरू ततकाल रिषीसर रूड़उ रे । दूसम कालइ दोहिलउ रिषी रूड़उ रे, समय सुंदर मन वालि रिषीसर रूड़उ रे ॥ ५॥ इति श्री प्रसन्न चंद्र रिषीसर गीतम् ॥ ४ ॥ भी प्रसन्न चंद्र राजर्षि गीतम् ढाल-वेगि विहरण श्राव्यो घरे। प्रसन्न चंद प्रणमुं तुम्हारा पाय, तुम्हे अति मोटा रिषीराय । ॥०॥ आंकणी॥ राज छोड्यउ रलियामणो तुम जाण्यउ अथिर संसार । वयरागे मन वालियें तुमे लीधउ संयम भार ॥प्र.॥१॥ वन माहे काउसग्ग रह्या पग ऊपर पग चाढ़ई । बांह बेऊ ऊंची करी सूरिज सामी दृष्टि देह ॥प्र.॥२॥ दुरमुख दूत वचन सुणी तुम कोप चढ्या तत्काल । मन सुं संग्राम मांडियउ तुम जीव पड़यउ जंजाल |प्र.॥३॥ श्रोणिक प्रश्न करयं तिसे स्वामी एहनइ कुण गति थाइ । भगवंत कहइ हिवणां मरइ तउ सातमी नरके जाइ ॥प्र.॥४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003810
Book TitleSamaysundar Kruti Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year1957
Total Pages802
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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