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श्री जेसलमेर मंडण पार्श्वजिन स्तवनम् ( १४६ )
६ राग- श्री
लोकान्तिक सुद आये, जंपर जयकार, जिन नइ जरणावर, दीक्षा तउ अधिकार | लो० ॥ १६ ॥ इग्यारस वदि पोष तणी, त्रिभुवन धणी,
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करम छेदन भणी, तजति संसार | लो० ॥२० पंच मुष्टि लोच करि, प्रभु अणगार हुया, संजम सिरी रा, गुणवंत भरतार || लो० ॥२१॥
७ राग - कान्हरउ
अम माय मोह मच्छर, नहीं लवलेश लोभ मानरौ । अप्रतिबंध अकिंचन श्रमदन,
दायक सकल अभय दातरौ ||२२||
सुमति गुपति शोभित मुनि नायक,
उपयोग एक धरम ध्यान रौ । पंचेन्द्रिय विषया रस जीते, फरसन रसन घाण चक्षु कान रौ ||२३||
= राग- आसाउरी
पार्श्व जिन स्वामी हो तेरी अनंत क्षमा । सगति थकी तू सहह ततखिण तोड़इ करम बंधन
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उपसर्गा, वर्गा ॥ प० ॥ २४ ॥
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