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श्री तीर्थकर समवसरण गीतम्
( २२३ )
: श्री तीर्थकर समवशरण गीतम् विहरंता जिनराय, आव्या त्रिभुवन ताय । मिलिया चतुर्विध देवा, प्रभु नी भगति करेवा ॥१॥ विरचइ समवसरणा, भव भय दुख हरणा । त्रिगढउ विविध प्रकार, रूप सोवन वसुसार ॥२॥ च्यार धरम चक्र दीपइ, गगन मंडलि रवि जीपइ अद्भुत वक्ष अशोक, निरखइ भवियण लोक ॥३॥ छत्र त्रय सिरि छाजइ, विहुँ दिसि चामर राजइ । देव दुदुमी प्रभु वाजइ, नादइ अंबर गाजइ ।।४।। जानु प्रमाण पुष्प वष्टि, विरचइ समकित दृष्टि । ऊंची इन्द्रधज लहकइ, प्रभु जस परिमल महकइ ॥५॥ सिंहासनि प्रभु सोहइ, त्रिभुवन ना मन मोहह। भामंडल प्रभु भासइ, चिहुँ मुखि धर्म प्रकासइ ।। ६॥ बइठी परषद बार, सांभलइ धरम विचार । निज भव सफल करंति, हियइ हरख धरति ॥७॥ धन ते श्रावक जाण, तेहन जीव्यु प्रमाण । समवसरण जे मंडावइ, पुण्य भंडार भरावा ॥८॥ एहवं जिनवर रूप, सुंदर अतिहि सरूप । जोवंतां दख जायइ, आणंद अंगि नः माय ।।६॥ चिंता आरति चूरः, श्री संघ वांछित पूरइ । जिनवर जगत्र आधार, समयसुन्दर सुखकार ॥१०॥
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