________________
( २२४ )
समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि
चत्तारि-अह-दस-दोयपदविचारगर्भितस्तवनम्
जिनवर भत्ति समुल्लसिय, रोमंचियनिय अंग । नाना विधि करि वरणयु, आणी मनि उछरंग ॥१॥ चार अट्ठ दस दोय जिन, वर्तमान चउवीस । अष्टापद प्रतिमा नमू, पूरूँ मनह जगीस ॥२॥ च्यार करीजइ अष्ट गुण, दस वलि दुगुणा हुति । नंदीसर बावन भुवन, सुरवर खयर नमंति ॥ ३ ॥ चत्त-अरि चत्तारि तिके, अट्ठ अनइ दस दोय । विहरमान जिन वीस इम, समरंतां सुख होय ॥४॥ अरि गंजण चचारि तिम, दस गुण कीजइ अष्ट । ते वलि दुगुणा सहि सम, वन्दं विजय विशिष्ट ॥ ५॥ चार अनइ अठ बार जिन, दस गुण दुगुणा सार। विसय चालीस नमूसयल, भर हैरवय मझार ॥ ६॥ चार अनुत्तर गेविज, कप्पिय जोइस जाणि । अठ वलि व्यंतर प्रतिमा, दस भुवणेसर ठाणि ॥७॥ दो सासय पडिमा, महियलि जिन चौवीस । त्रिभुवन माहि प्रशंसिय, नाम जपू निशदीस ॥८॥ अठ अनइ दस दोय मिलिय, हुन्ति अठारह तेह। चार गुणा बहुतरि सयल, त्रण चउवीसी एह ॥६॥
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org