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( ५४६ )
समय सुन्दरकृतिकुपमाञ्जलि
राग द्वेष खाम्या नहीं, जां जीव्यउ तां सीम। अनंतानुबंधी ते थया, कहि करिस तूं केम ॥ पा । २१ ॥ तड़ तड़ते नांख्या तावडे, सुल्या धान जिवार । तड़ फड़ नइ जीव ते मूत्र, दया न रही लगार || पा. ||२२|| अगल पाणी लुगड़ा, धोया नदी तलाव । जीव संहार कियो घणउ, साबू फरस प्रभाव | पा. ॥ २३ ॥ वैरी विष दे मारिया, गलै फांसी दीघ । वे तुझ नइ पि मारस्यै, मूकस्यै वैर लीध ॥ पा ॥२४॥ कोऊ अंगीठी तई करी, थाप्यो सिगड़ी कुंड ।
रातें दीवो राखियो, पापे भरचा पिंड ॥ पा. ।। २५ ।। मां थो विछोड़या बाछड़ा, नीरी नहीं चारि । ऊनाले तिरस्या मूत्र, कीधी नहीं सरि ॥ पा. ॥ २६ ॥ मां बाप नहं मान्या नहीं, सेठ सुं असंतोष । धर्म नो उपगार नवि धरयो, श्रोसिकल किम होस | पा. ||२७|| अांधी टॅटो पांगलो, कोढियो जार चोर । मरि फीट जाइ बोल तुं', कह्या वचन कठोर || पा. ॥ २८ ॥ मद्य नइ मांस अभक्ष जे, खाधा हुस्यइ हँसि । मिच्छामि दुक्कडं देह नै, पछह लेजे तूं संसि ॥ प. ॥ २६॥ सामाइक पोसह कीया, लीधा साधु नो वेस । मन संवेग धरचो नहीं, कहि तूं केम करेस ॥ पा ॥३०॥ सूत्र नै प्रकरण समझता, कथा विपरीत कोय । जय जय मति छह जूजुइ, सुणतां भ्रम होय ॥ पा. ॥३१॥
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