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________________ ( ७२ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि वाद भणी विद्या भणी जी, पर रंजण उपदेस। मन संवेग धरचउ नहीं जी, किम संसार तरेस ।१७।०। सूत्र सिद्धांत वखाणतां जी, सुणतां करम विपाक । खिण इक मन मांहि ऊपजइ जी, मुझ मरकट वइराग।१८।१०। त्रिविध त्रिविध करि उच्चरंजी, भगवंत तुम्ह हजूर। वार वार भांजू वली जी, छूटक वारउ दूर ।१६। कृ०। आप काज सुख राचनइ जी, कीधा आरंभ कोड़। ...... जयणा न करी जीवनी जी, देव दया पर छोड़ ।२०। कु० । वचन दोष व्यापक कह्या जी, दाख्या अनरथ दंड । कूड कपट बहु केलवी जी, व्रत कीधा सत खंड २१शक० अण दीधउ लाजइ तृणो जी, तोहि अदत्तादान । ते दृषण लागा घणा जी, गिणतां नावै ज्ञान ।२२।१०। चंचल जीव रहइ नहीं जी, राचइ रमणी रूप । काम विटंबन सी कहूं जी, ते तूं जाणइ सरूप ।२३।१०। माया ममता मंइ पड्यउ जी, कीघो अधिकउ लोभ । . परिग्रह मेल्यउ कारमउ जी, न चढी संयम शोभ ।२४। कृ०। लागा मुझ नइ लालचइ जी, रात्रि भोजन दोष । मैं मनमक्यउ मोकलोजी, नधरयउधरम संतोष ।२५।०। इण भवपर भव दूहव्या जी, जीव चउरासी लाख । ते मुझ मिच्छामि दुकडं जी, भगवंत ताहरी साख ।२६।क। करमादान पनर कडा जी, प्रगट अठारै जी पाप । जे मंइ सेव्या ते हवह जी, बगस बगस माइ बाप ।२७०। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003810
Book TitleSamaysundar Kruti Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year1957
Total Pages802
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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