________________
मन समाय
( ४२६ )
देहरइ जाइ नइ तुमे देव जुहारो। सगुरु वांदी नइ सूत्र संभारो रे॥भा० जा०॥४॥ मनुष्य जमारउ काइ आलि गमाड़उ । समयसुन्दर कहइ प्रमाद छांडउ रे भा० जा०॥५॥
मन सज्झाय मना तने कई रीते समझा। सोनु होवे तो सोगी रे मेलावु, तावणी ताप तपावु। .. लई फूंकणी ने फुकवा बेस, पाणी जेम पिगलावु । म०१। लोढुहोवे तो एरण मंडावू, दोय दोय धमण धमा। ऊपर घणारी घमसोर उडावू, जांतली तार कढावु। म०२। घोड़ो रे होवे तो ठाण बंधार्बु, खासी जन मंडावु। . अस्वार होइ करि माथे बैठावु, केइ केइ खेल खेलावूम०३। हस्ती होवे तो ठाण बंधावू, पाय घुघरी घमकावु। मावत होइ कर माथे बेठा, अंकुश दइ समझावु । म०।४। शिला होवे शिलावट मंगाएँ, टांकणे टांक टंकावु। विध विध देवकी प्रतिमा निपजाऊं,जगत ने पाये नमा। म०५॥ चचल चोर कठिन है तुं मनवा, पल एक ठौर न आवे। मना तने मुनिवर समझावे, जोत में जोत मिलावे । म०१६॥ जोगी जोगेसर तपसी रे तपिया, ज्ञान ध्यान से ध्यावो। समयसुंदर कहइ मंइ पण ध्यायो, ते पण हाथ न आयो। म०७)
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org