________________
सत्यासीया दुष्काल वर्णन छत्तीसी
(५११)
सत्यासीयउ साहसी, ऊठि बलि सामउ थावइ, पड्यउ न रहई पापीय उ, धांन मुहगउ करि धावइ । अध्यासीयउ अन्न आणि, करइ वलि सुहगा काई; लागी लस्थापत्थि, किस्यु थास्यइ हो सांइ । अन्न पुण्यतणउ संचउ अधिक, लोक जिके करस्यइ लही; 'समयसुन्दर' साचउ कहइ, सुखी तिको थास्यइ सही ।३१। सगलइ हुवउ सुगाल, अन्न चिहुँ दिसिथी आयउ;
आप आपणइ व्यापारी, सको अधिकारइ लायउ । बाजरी चउंला मउठ, के के धान सुहगा कीधा; सहगा-मुंहगा सर्व, लोक ते आणी लीधा। नर-नारी नूर वाध्यउ नगरि, चहल-बलाई चहुटइ थई । 'समयसुंदर' कहइ अठ्यासीया, हिव चितनी चिंता गई ।३२॥ मरगी नइ मंदवाडि, गया गुजरातथी नीसरि; गयउ सोग संताप, घणो हरख हुयउ घरिघरि । गोरी गावइ गीत, वली विवाह मंडाणा; लाडू खाजा लोक, खायइ थालीभर भांणा।। शालि दालि घृत घोलसु भला पेट काठा भर्या; 'समयसुंदर' कहइ अध्यासीया,साध तउ अजे न सांभर्या ।३३।
६ उभउ. ७ इहां. ८ काइ लागी लछापछि स्यु. ६ पुत्र . १० धान ।।
-
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org