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________________ ( ४४ ) महोपाध्याय समयसुन्दर तृतीय विमाग सम्मुख न होने के कारण हम नहीं कह सकते कि इसमें कौन-कौन सी और कितनी कथायें हैं। इन कथाओं के लिये भी बादी का कथन है कि 'ये कथायें विकथायें नहीं हैं; अपितु जिन महापुरुषों के नाम स्मरण से ही चिर सश्चित पापों का नाश होता है, वैसी ही सार-गर्भित कथायें हैं : चिरपापप्रणाशिन्यः, प्राज्ञनिर्ग्रन्थसत्कथा । विकथा वर्जितो वाचा, कथयामि निरन्तरम् ।४। स्थानांगवृत्तिगत गायावृत्ति, युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि के विद्वान शिष्य वाचनाचार्य सुमतिकल्लोल और वादी इस युग्म ने, आचार्य अभयदेव द्वारा स्थानांग सूत्र की टीका में 'कर्मग्रन्थादि प्रकीर्ण साहित्य, नियुक्ति एवं भाष्य साहित्य, देवेन्द्रस्तव, विशेषणवती, षट् त्रिंशिकायें, सप्ततिकायें, संग्रहणी आदि, पंचाशक, सिद्धप्राभृत, सन्मतितर्क, आदि शास्त्र और ज्योतिष, संगीत, शिक्षा, प्राकृत, कोष, एवं सूक्तियें आदि सम्बन्धित विषयों के जो उद्धरण हजार के ऊपर दिये हैं; वे अत्यन्त क्लिष्ट हैं, अतः उन पर विशिष्ट प्रकाश डालते हुये विपुल परिमाण में यह टीका र ची है : कर्मग्रन्थबहुप्रकीर्णकवृहनियक्तिभाष्योत्तराः । देवेन्द्रस्तवसद्विशेषणवती प्रज्ञप्तिकल्पा श्रेयो (?)। अङ्गोपाङ्गकमूलसूत्रमिलिताः षट्त्रिंशिका-सप्ततिः, श्लिष्यत् संग्रहणीसमप्रकरणाः पञ्चाशिका संस्थिताः।। सिद्धप्राभृतसम्मतीप्टकरणे ज्योतिक-सङ्गीतकशिक्षा-प्राकृत-कोष-सूक्तललिता गाथाः सहस्रात्पराः। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003810
Book TitleSamaysundar Kruti Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year1957
Total Pages802
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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