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महोपाध्याय समयसुन्दर
कवि की लेखिनी इस साहित्य पर भी स्वाभाविक गति से अविराम चलती हुई दिखाई पड़ती है। कवि प्रणीत दो ग्रन्थ प्राप्त हैं :
१. जिनसिंहसूरि पदोत्सव काव्य, २. ऋषभ भक्ताभर,
इसमें प्रथम काव्य महाकवि कालिदास कृत रघुवंश महाकाव्य के तीसरे सर्ग के चतुर्थ चरण की पादपूर्ति रूप में है । इस काव्य में कवि अपने गणनायक, काकागुरु महिमराज के प्राचार्य पदोत्सव का वर्णन करता है । यह पद सम्राट अकबर के आग्रह पर यु० जिनचन्द्रसूरि ने दिया था और इसका महामहोत्सव महामन्त्री स्वनामधन्य श्री कर्मचन्द्र वच्छावत ने किया था। इस प्रसङ्ग का वर्णन कवि ने बड़ी कुशलता के साथ, कालिदास की पंक्ति के सौन्दर्य को अक्षुण्ण रखते हुए किया है। उदाहरण स्वरूप देखिये:“य रेखाभिधमहिपङ्कजे, भवान्ततः पूज्यपदं प्रलब्धवान् । प्रभो ! महामात्यवितीर्णकोटिशः-सुदक्षिणाऽदो हद !
लक्षणं दधौ ।। अकबरोक्त्या सचिवेशसद्गुरु, गणाधिपं कुर्विति मानसिंहकम् । गुरोर्यकः मरिपदं यतिव्रतिप्रियाऽऽप्रपेदे प्रकृतिप्रियं वद ।२।
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रलेष का चमत्कार देखिये, "अरे! महाम्लेच्छनृपाः पलाशिनः,
पशुव्रजां मां हत चेद्धितैषिणः ।
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