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महोपाध्याय समयसुन्दर
तुम दरमण हो मुझ मन उछरंग कि, मेह आगम जिम मोरड़ा । मो०:१२ । तुम नामइ हो मोरा पाप पुलाइ कि, जिम दिन ऊगह चोरड़ा | तुम नामइ हो सुख संपति थाय कि, मन वंछित फलइ मोरड़ा । मो०. १३। हुँ मांगू हो हिव विहड़ प्रेम कि, नित नित करूय निहोरड़ा । मुक देख्यो हो सामी भव भव सेव कि
(६०)
चरण न छोडूं तोरड़ा । मो० | १४ |
( शीतलनाथ स्तवन )
कवि अपने को वीतराग के पथ पर चल सकने के प्रयोग्य अनुभव करते हुए भी, जो आत्म विश्वास प्रकट करता है वस्तुतः वह स्तुत्य है :
धउ संजम नवि पलइ, नहिं तेहवउ हो मुज दरसण नाय । पण आधार छह एतलउ, एक तोरउ हो धरूँ निश्चल ध्यान । वी. १६ । ( वीर स्तवन )
तूं गति तूं मति तूं धणी जी, तूं साहिब तूं देव । श्रण धरु सिर ताहरी जी, भव भव ताहरी सेव | ३१ | कृ० | (आदिनाथ स्तव )
कवि केवल भगवद् स्वरूप को ही भक्ति का आधार मानकर नहीं चल रहा है, अपितु बाल्यक्रीड़ा को भी भक्ति का एक अङ्ग स्वीकार कर वात्सल्य भावना में रस विभोर हो जाता है :
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