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________________ महोपाध्याय समयसुन्दर ( २५ ) सचमुच में कवि के जैसी गुणग्राहकता तत्कालीन मुनि-जनों में होती तो आज 'गच्छवाद' का विकृत स्वरूप हमें देखने को प्राप्त नहीं होता और न समाज की ऐसी करुणदशा ही होती। आज भी हम यदि कवि की इस गुणग्राहकता को अपना करके चलें तो निश्चय ही हम विश्व में अपना स्थान बना सकेंगे। अस्तु.. गुजरात का दुष्काल और कवि का क्रियोद्धार कवि के जीवन को करुण और दयनीय स्वरूप प्रदान करने पाला गुर्जर देश का संवत् १६८७ का भयंकर दुष्काल है। इस दुष्काल ने अन्नाभाव के कारण इस प्रकार की दुर्दशा कर दी थीकि चारों तरफ त्राहि-त्राहि की पुकार मची हुई थी: अध पान लहे अन्न भला नर थया भिखारी, मकी दीधउ मान, पेट पिण भरइ न भारी, पमाडियाना पान, केइ वगरौ नई कांटी, खावे खेजड़ छोड़, शालितूस सबला बांटी। अन्नकण चुणइ के अईठि में, पीयइ अईठि पुसली भरी। समयसुन्दर कहइ सत्यासीया, एह अवस्था तई करी ।।।। मांटी मुकी बइर, मुक्या बरै पणि मांटी, बेटे मुक्या बाप, चतुर देतां जे चांदी, भाई मुकी भइण, भइणि पिण मुक्या भाइ, प्रधिको व्हालो अन्न, गइ सहु कुटुम्ब सगाइ। घरबार मुकी माणस घणा, परदेशइ गया पाधरा, समयसुन्दर कहइ सत्यासीया. तेही न राख्या आधरा || इस दुष्काल ने अपने भयंकर वरद हस्त से समाज के रुधिर और मज्जा से यमराज को भी काफी प्रसन्न किया था: Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003810
Book TitleSamaysundar Kruti Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year1957
Total Pages802
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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