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शत्रु अय रास
( ५६३)
परवर्ती प्रति में अंत में निम्नोक्त दो गाथाएँ अधिक है - भणसाली थिरु अति भलो ए, दयावंत दातार । से.। सेत्र ञ्ज संघ करावीयउ ए, जेसलमेर मझार ।२२। से। सेत्र ञ्ज महातम ग्रन्थ नइ ए, रास रच्यो अनुसार । से.। भाव भगति सुणतां थकां ए, पामीजइ भवपार ।२३। से.।
सर्वगाथा १०८ इति श्री शत्रु ञ्जय रास सम्पूर्णः । सं० १६८३ वर्षे बीकानेर मध्ये शिष्य पंचायण लिखतं ।
दानशील तप भाव संवाद शतक
प्रथम जिणेसर पय नमो, पामी गुरु प्रसाद । दान सील तप भावना, बोलिसि बहु संवाद ॥१॥ वीर जिणिंद समोसर्या, राजगृह उद्यान । समोवसरण देवे रच्य, बयठा श्री बधमान ॥२॥ बइठी बारह परषदा, सुणिवा जिणवर वाणि । दान कहइ प्रभु हूं बडउ, मुझ नइ प्रथम वखाणि ॥३॥ सांभलिज्यो सहु को तुम्हे, कुण छइ मुझ समान। अरिहंत दीक्षा अवसरई, आपई पहिलु दान ॥४॥ प्रथम पहरि दातार नँ, ल्यइ सहु कोई नाम । दीधां री देवल चडई, सीझइ वंछित काम ॥५॥
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