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श्री थूलिभद्र गीतम्
( ३१५ )
तुम्हे पूरउ पास अम्हारी, हु जाऊ बलिहारी। अम्हे साध निग्रंथ कहावु, तू सुंदरि सांभलि रे ॥ ३ ॥ अम्हे धरम मारग संभलावु, सुंदरि सांभलि रे । तू भोलु बोलि मां भांभलि,तूंसु दरि सांभलि रे ॥ ४ ॥ अम्हे मुगति रमणि सुंरा,तू सुंदरि सांभलि रे । जिहां सासतं सुख छइ साचूँ, तुं संदरि सांभलि रे ।। ५ ।। रिषि ना वचन सुणि प्रतिबूधा, त सुंदरि सांभलि रे । एतो श्राविका थई अति सूधीत संदरि सांभलि रे ॥६॥ साबाश कोशा शील पाल्युं, तू सुंदरि सांभलि रे । समयसुंदर कहइ दुख टाल्यंत संदरि सांभलि रे ॥ ७॥ __इति श्री स्थूलिभद्र गीतम् ।। ४४॥
श्री स्थालेभद्र गीतम् मुझ दंत जिसा मचकुंद कली,
केसरी कटी लंक जिसी पतली । काया केलि गरभ जिसी कुयली,
___ सुसनेही हूँ कोसा आई मिली ॥१॥ रमउ रमउ रे स्थूलिभद्र रंग रली ।। रम० ॥अांकणी ॥ नीकी कस बंधी कसी कंचुली,
चंचल लोचन झबका बीजली । कंचन तनु गोरी हुँ नहीं सांमली
भामिनी मुझ थी नहिं काइ भलि ॥२॥२०॥
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