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( २८४ )
समयसुन्दरकृतिकुसुम अलि
शरीर सुश्रुषा नवि करइ, वाध्या नख नइ केस । मुनिवर आठे मद गालिया, विषय नहीं लवलेस ॥ गु०॥६॥ हाड हीडतां खड़ खड़इ, काया काग नी जंघ । सरीर संतोषे सूक, न कीधउ व्रत भंग ।। गु०॥७॥ नसा जाल सवि जूजुई, सूक्यउ लोही नइ मांस । भावीस परिसह जीपवा, रहवं वन वास ।।गु०॥८॥
आंखि ऊंडी तारा जगमगइ, सुरतरु सुरुमां कान। सूकी आंगली मग नी फली, पग जिम सूकू पान ।।गु०॥६॥ श्रेणिक श्री जिन वांद नइ, प्रश्न पूछइ जे एह । कुण तपसी तप आगला, मुझ नइ कहउ तेह ।। गु०॥१०॥ साधु शिरोमणि जाणस्यउ, धन धनउ अणगार ।
आठ खाण करमे भरी, काढी नांखइ छइ बाहर ॥ गु०॥११॥ श्रोणिक हीडइ वन सोझतो, देखू भूलों रूप । सूकु खोखु जेहवु सर्प नु, तेहईं दीठ सरूप ।। गु०॥१२॥ ऊठ कोड़ी रोम ऊलस्या, हुई सफल ते यात्र । त्रिण प्रदिक्षणा देइ करी, भावे वंदं हो पात्र ।। गु०॥१३॥ मास एक अणसण करी, ध्यवउ शुक्ल ते ध्यान । नव मासे कर्म खपेवो, पाम्थु अनुत्तर विमान ।।गु०॥१४॥ करि काउसग्ग कर्म खपेवी, यति तारण हो तरण। समयसुंदर कहइ एतलं, मुझ नइ साधु जी नउ शरण ।गु०१॥
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