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श्री स्थूलिभद्र गीतम् (३१३ ) शील सुरंगी दोधी चूनड़ी रे,
समयसुदर कहइ एह ।पी./७/ इति स्थूलिभद्र गीतं ॥ २७॥ श्री स्थूलिभद्र गीतम
राग-जयतश्री-धन्या श्री मिश्र आवत मुनि के भेखि देखि दासी सासीनी । कोशि वेशि कुंआइ इसी जु बधाई दीनी ॥ पियु आये सखि आपुने सुनि हर्षित भई नारि । तबहि उतारी अंग हो दीनउ मोतिण हार ॥१॥ स्थूलिभद्र आये भलइ ए माइ जोवत जोवत माग के। आंकणी॥ चित्रशालि चउमास रहे लहे गुरु आदेसा । कोशि कामिनी नृत्य करइ सुरसुंदरी जैसा ॥ हाव भाव विभ्रम करइ कुंभये निठुर निटोल । पूरब प्रेम संभाल प्रियु तूं मान हमारो बोल के ॥२॥ काम भोग संयोग सबइ किंपाक समाने।। पेखत कूपइ कुण पड़इ सुणि कोश सयाने ॥ मेरु अडिग मुनिवर रहे ध्यान धरम चित लाय । समयसुंदर कहइ साध जी हो धन धन स्थूलिभद्र रिषिराय ॥३॥
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