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सङ्घपति सोमजी वेलि
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पुण्य क्रतूत किया अति परिघल,
सुरपति सबल पड़ी मन सांक । पहुँतउ सोम इन्द्र परिचावा,
वरस्युं मुगति नहीं तुझ वांक ॥ सं०॥७॥ वड़ दातार दान गुण विक्रम,
संघपति जोगी साह सुतन्न । सोम गयउ धनद समझावा,
धरमइ कायन खरचइ धन्न । सं०॥८॥ बिंब प्रतीठ संघ करि बहुला,
लाहणि साहमी सगले लाहि । ख्याति घणी खरतर गच्छि कीधी,
बड़ हथ लीघउ वारउ वाहि ॥ सं.॥६॥ प्रोग वंश बिहुँ पखि पूरउ,
रूड़उ गुरु गच्छ उपरि राग । सानिध करे सोम सदगुरु नइ,
सुंदर जस दीपई सोभाग । सं० ॥१०॥ इति सोमजी निर्वाण वेलि गीतं संपूर्णम् । कृतं विक्रमनगरे समयसुन्दर गणिना ॥ शुभं भवतु ।।
गुरुदुःखितवचनम् । क्लेशोपार्जितविरेन, गृहीता अपवादतः । यदि ते न गुरोभक्ताः, शिष्यैः किं तैनिरर्थकैः ॥१॥
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