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औपदेशिक गीतानि
( ४५३ )
रूड़ा प्राणिया दान समउ नहीं कोइ रे, तँ हृदय विमासी नइ जोइ रे । श्रां. सालिभद्र नी रिद्धि संगमई लाधी, ते दान ताउ परमारा रे ।
देव दान थकी रथकार, पायुं अमर विभागा ॥ रू. ||२|| लियन सब दूर पुलाइ, दानइ दउलति होइ रे । इह भवि सुजस कीरति वाघ, पर भवि संचल सोइ ॥ रू. ॥३॥ दान ता फल परतिख देखो, दानइ जगत बसि थायह रे । समयसुन्दर कहइ दान धरम ना, रामगिरी गुण गाइ || रू. ||४|| शील गीतम्
राग - मेवाड़ उ
सील व्रत पालउ परम सोहामणउ रे, सील बड़उ संसार । सील प्रमाण शिव सुख संपजइ रे, शील आभरण उदार । सी. । १ । कलावती कर नवपल्लव थया रे, सीता अगनि थयउ नीर । सुदरसण सूली सिंहासण थयउ रे, द्र पदी अखंडित चीर । सी. । २ ॥ स्थूलभद्र जंबू सील वखाणियइ रे, नवि डोल्या मुनिराय । समयसुन्दर भाव भगति धरी रे, प्रणमह तेहना पाय । सी. | ३|
तप गीतम
राग- कालहरउ
तप तया काया हुई निरमल, तपतपंग इंद्री बसि थाह । तप तप्या परमार्थ सीझर, तप तप्या प्रणमइ पाइ । त. |१| ऋषभदेव बरसी तप कीउ, छमासी कीधउ वर्धमान । तप तपी मुगतिइजे पहुता, ते मुनिवर नुं नहिं को गान । त. |२|
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