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________________ (३४ ) महोपाध्याय समयसुन्दर सूरि* १२ बारह वर्ष तक प्रा० जिनराजसूरि के साथ ही रहे। संद १६८६ में कवि का प्रसिद्ध शिष्य, बहुश्रुत, प्रकाण्ड विद्वान् , नव्यन्याय देसा, यशस्वी, वादी हनन्दन के बखेड़े के कारण दोनों आचार्यों में मनोमालिन्य हुमा । फलस्वरूप अलग अलग हो गये। वादी हर्षनन्दन ने जिनसागरसूरि का पक्ष लिया था, क्योंकि उनका वह एक नेता रहा है। अतः कवि को भी प्रमुख प्रा. जिनराजसुरि . साथ छोड़कर, अपने शिष्य के हठाग्रह से पराधीन हो उसके सर व नुसार ही चलना पड़ा। यहीं से खरतरगच्छ की एक 'प्राचार शाखा' का प्रादुर्भाव हुआ। हाय रे वार्धक्य ! तेरे कारण हीर बैसे समदर्शी विद्वान् को भी एक पक्ष स्वीकार करना पड़ा। * शिवसागरसूरि-बीकानेर निवासी बोहिथिरा गोत्रीय शासन राब और मृगादे माता की कुक्षि से सं०१६५२ काकिला रवि अश्विनी नक्षत्र में इनका जन्म हुआ था। जन्म नामावोगा। सं.१६६१ माह सुदि ७ को अमरसर में जिनहिरिने आपको दीक्षा दी। दीक्षा महोत्सव श्रीमाल थानसिंह ने किया था। युगप्रधानजी ने वृहहीक्षा देकर इसका नाम सिद्धसेन रखा था। इनके विद्यागुरु थे उपाध्याय समसुन्दरजी के शिष्य वादी हर्षनन्दान । सं० १६७४ फागुण सुदि ७ को मेड़ता में संघपति आसकरण द्वारा कारित नहोत्सव पूर्वक आप आचार्य बने। जिनराज सूरि के साथ ही आप शत्रुञ्जय खरतर वसही की प्रतिष्ठा केसमय मौजूद थे। १२ वर्ष तक श्राप जिनराजसूरि के साथ ही रहे । किन्तु सं० १६८६ में किंचित् मतभेद एवं वादी हर्षनन्दन के आग्रह के कारण आप पृथक् हुये । तब से आपकी शाखा प्राचार्य शाखा के नाम से प्रसिद्ध हुई । आपने अहमदाबाद में ११ दिन का अनशन कर सं० १७२० ज्येष्ठ कृष्णा३ को स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया था। श्राप बड़े ही मनस्वी और श्रेष्ठ संयमी थे तथा आपकी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003810
Book TitleSamaysundar Kruti Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year1957
Total Pages802
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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