________________
औपदे शक गीताति
(४४१)
जीव काया गीतम् जीव प्रति काया कहइ, मुनइ मुकि कां समझावइ रे। मइ अपराध न को कियउ, प्रियु को समझावइ रे॥जी॥१॥ राति दिवस तोरी रागिणी, राखुहृदय मझारिरे। सीत तावड़ हूँ सहु सहूं, तू छइ प्राण आधार रे॥जी॥२॥ प्रीतडी वालंभ पालियइ, नवि दीजियइ छेह रे। कठिन हियुनवि कीजियइ, कीजइ मुगुण सनेह रे । जी०॥३॥ जीव कहइ काया प्रति, अम्ह को नहीं दोस रे । खिण राचइ विरचइ खिण तेहनउ किसोय भरोस रे॥जी॥४॥ कारिमउ राग काया तणउ, कूट कपट निवास रे। गुण अवगुण जाणइ नहीं, रहइ चित्त उदास रे॥जी॥॥ जीव काया प्रतिबूझवी, भागो मन मो संदेह रे। समयसुन्दर कहइ सुगुण सुं, कीजइ धरम सनेह रे॥जी॥६॥
काया जीव गीतम
राग-केदारउ गउड़ी रूड़ा पंखीड़ा, पंखीड़ा मुन्हइ मेल्ही नइ म जाय । धुर थी प्रोति करी मई तो सैं, तुझ विण क्षण न रहाय॥रू॥१॥ चतुर अमृत रस मोरउ तई चाख्यउ, कीधी कोड़ि विलास । जाण्यं नहीं इम उड़ी जाइस, हुंती मोटी आस ॥रू.॥२॥ काया कमलनी जायइ कुमलानी, न रहइ रूप नइ रेख।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org