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( ४१२ ) समयसुन्दरकृतिकुसुमाञ्जलि
(१) ढाल-भरत यात्रा भणी ए, अथवा-बहिण सिलामती ए जिनसागर सरि गुरु भला ए, मोटा साधु महंत ॥ जि०॥ रहणी अति रूड़ी रहइ ए, सौम्य मूरति शांत दांत ।। जि०॥१॥ लघु वय जिण संजम लियउ, सत्र सिद्धांत ना जाण ।। जि०॥ वचन कला भली केलवी ए, सुललित करइरे वखाण । जि०॥२॥ शीलवंत शोभा घणी ए, सहु को आपइ साख ॥ जि०॥ नींबोली सुं मन नहीं ए, मिली मुझ मीठी द्राख ॥ जि०॥३॥ अम्हारइ सखि गुरु एहवा ए, अम्हे राचुं नहीं काच॥जि०॥ जिनसागरसूरि चिरजयउजी, समयसुन्दर सुखकार ॥ जि०॥४॥
(१०) ढाल-भलु रे थयु म्हारा पूज जी पधार्या पुण्य संजोगई अम्हे सदगुरु पाया, नहीं ममता नहीं माया ।। जिनसागर सरि मिरगादे जाया, संघसरि पाट सवाया। खरतर गच्छ केरा राया, जिनसागरसूरि मिरगादे जाया। आं.।पु.। वयरागी गुरु सुललित वाणी,अम्ह मनि अमिय समाणी। जि.।२। चालइ ए गुरु पंचाचारइ, आप तरइ बीजां तारइ । जि.।३। बाई रे अम्हारा गुरु थोड़ा मुख बोलइ,रतन चिंतामणि तोलइ । जि.४। बाई रे अम्हे लह्या ए गुरु साचा, समयसुन्दर नी वाचा । जि.५॥ (११) ढाल-नयण निहालो रे नाहला, अथवा
पोपट चाल्यो रे परणवा एहनी. मनडु मोारे माहरू, गुरु ऊपरि गुणराग। जिनसागर सरि गुरु भला, साचउ जेहनउ सोभाग । म.१॥
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