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श्री जिनसिंहसूरि गीतानि
( ३६७)
मन सुधि अकबर तुम कुं मानइ रे। ग०। तुम्ह चिर जीवउ गुरु जी वधतइ वानइ ॥ जिनसंघसरि अइसा मेरइ मनि भाया रे। ग०। समयसुन्दर प्रभु प्रणमइ पाया ॥४॥मा०॥
राग-भयरव भोर भयउ भविक जीव, जागि जागि जागिरी; जिनसिंघसरि उदय भाण, तेजपुञ्ज राज माण । ऊठि अइसे धरम मारगि, लागि लागि लागि री ।।भो। भविक कमल वन विकासन, ढुरित तिमिर भर विनासन; कुमति उलूक दूरि गए, भागि भागि भागिरी । श्रीजिनसिंघसरि सीस, पूरवइ सब मन जगीस; समयसुन्दर गावत भयरव, रागि रागि रागिरी ।२।भो।
इति श्रीजिनसिंघसूरीणां चर्चरी गीतम् ।
(२२)
राग-सारंग गुरु के दरस अंखियां मोहि तरसइ । नाम जपत रसना सुख पावत,
सुजस सुणत ही श्रवण सरसइ ।१। अं.।
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