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गति आगति २४ दण्डक विचार स्तवनम् ( २३१ ) नारक मरि नइ तिथंच थाई, नरक गति नर तिथंच जाइ । असुरादिक दसनी गति एह, भू पाणी प्रत्येक वनस्पति जेह ॥४॥ तियंच मनुष्य मंइ उत्पत्ति जोइ, आगति मनुष्य तिर्यच नी होई। भूजल अग्नि पवन वण पंच, विति चउरिन्द्री नर तिरजच ॥॥ ए दश पृथ्वी ना गति नादीश, आगति नारकि विण ते वीस । जिम पृथ्वी तिम पाणी तणी, गति आगति बोले जग धणी ॥६॥ नर विण अग्नि नी गति नवपदे, आगति दस विघटै नवि कदे। जिम अग्नि तिम जाणउ वायु, गति आगति बेहुँ कहिवाय ॥७॥ पृथ्वी प्रमुख दसे दंड के, वनस्पति नी गति छइ तिके ।
आगति नारक विण तेवीस, दंडक बोल्या श्री जगदीश ॥८॥ बे ते चउरिन्द्री दंडक त्रिहुं, गति आगति दस बोलनी कहुँ। गति आगति गर्भज तिर्यच, चउवीस दंडक सगले संच ॥६॥ गर्भज मनुष्य चउवीस नइ सिद्धि, अगनि वाय आगति प्रतिषिद्धि । वण ज्योतिष वैमानिक तणी, गति गर्भज नर तिर्यच भणी।१०। वली भूदग वण प्रत्येक सही, आवै नर नइ तिथंच वही। जीव तणी गति आगति कही, भगवंत भाखै संदेह नहीं ।११, चौवीस दंडक नगर मझार, हूँ भम्यउ देव अनंती वार । दुख सहिया त्या अनेक प्रकार, ते कहितां किम आवै पार ॥१२॥ वीनति करू ए वारंवार, स्वामी आवागमण निवार । भगवती सूत्र तणइ अनुसार, समयसुन्दर कहै एह विचार ।१३।
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