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सत्यासीया दुष्काल वर्णन छत्तीसी
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सत्यासीया दुष्काल वर्णन छत्तीसी
गरुई' श्रीगुजरातदेश, सगलां मांहे दाखी; धरम करम परघानर, लोक मुख मीठु भाखी । सुखी रहइ सरीर, साग तो सखरा भावइ ऊँचा करइ श्रावास, लाख कोडि द्रव्य लगावइ । गेहणी देह गणै भरइ, हँसी' लोकतणो हीयउ; 'समयसुन्दर' कहइ, सत्यासीय इसड (ह) पड्यउ अभागीयउ । १ । जोयउ टीपणउ जांण, साठि संवच्छरि साथइ, गुराचार शनिचार, हुंता ते लीधा हाथइ । कपूरचक्र पिण काढी, जांय ज्योतिषीए जोयउ आराधक थया अंध, खिजमति फल सगलउ खोयउ । निपट किur जाण्यउ नहीं, खरो शास्त्र खोटो कीयउ; 'समय सुन्दर' कहर सत्यासीयउ, पढ्यो अजांण्यउर पापीयउ | २ | महियलि न हुवा मेह, हुवा तिहां थोडा हुआ;
खब्धा पढ्या रझा खेत्र, कलंबी नोतरिया कुभा । कदाचि निपनो केथ, कोली ते लीधुं कापी; घटा करी घनघोर, पिण बूठो नहीं पापी । खलक लोक सहु खलभन्या, जीवई किम जलवाहिरा; 'समयसुन्दर' कह सत्यासीया, ते क्रतूत सहूर ताहरा | ३ | पाठ भेद:- १ रूड़ी, २ सुबिवेक, ३ होंसि, ४ असइ ५ अचिंत्यो, ६ सहि
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