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________________ ( ८८ ) महोपाध्याय समयसुन्दर प्रस्तुत-संग्रह प्रस्तुत संग्रह क्या भक्त की दृष्टि से, क्या उपदेशक की दृष्टि से, क्या उपदेश-पदों की दृष्टि से, क्या क्रियावादियों की दृष्टि से, क्या वर्णनात्मक दृष्टि से, क्या लोकोक्तियों की दृष्टि से, क्या ऐतिहासिकों की दृष्टि से, क्या संस्कृत-प्राकृत के विद्वानों की दृष्टि से अर्थात् सर्वांग दृष्टि से अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है। भक्त की दृष्टि से देखिये तो चावीसी, वीसी, तीर्थंकरों के स्तव, तीर्थ-स्तव, प्राचीन महर्षियों के गीत, सद्गुरुओं के गीत आदि की सामग्री इतनी भरी पड़ी है कि भक्त इसी गंगा की पावन-धरा में डुबकियां लगाता चल जाय, आराध्यों और सद्गुरुओं को प्रसन्न करता चला जाय अर्थात इस संग्रह में इतनी सामग्री है कि सबका अध्ययन कर, हृदयंगम करने में भक्त असमर्थ ही रहेगा। भक्त की भक्ति के लिये संग्रह के कुछ गीत और स्तवन ही पर्याप्त हैं । उदाहरण स्वरूप सुविधिनाय का स्तवन ही देखिये : प्रभु तेरे गुण अनन्त अपार । सहस रसना करत सुरगुरु, कहत न आवे पार ।प्र० ॥१॥ कोण अम्बर गिणे तारो, मेरु गिरी को भार । चरम सागर लहरि माला, करत कोण विचार प्र०॥२॥ भगति गुण लवलेश भाखं, सुविध जिन सुखकार । समयसुन्दर कहत हमकुं, स्वामी तुम आधार । प्र०३। (सुविधि जिन स्तवन, राग-केदार, पृ०७) प्रभु के सौन्दर्य का वर्णन करते हुये कवि की लेखनी का श्रास्वादन कीजिये : Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003810
Book TitleSamaysundar Kruti Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year1957
Total Pages802
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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