________________
दानसील तप भाव संवाद शतक (५८७ ) इत्यादिक मइ ऊर्या, नरनारी केरा वंदो रे। समयसुन्दर प्रभु वीरजी, मुझ पहिलउ करउ आणंदो रे।१० सी०।
दहा तप बोल्यउ त्रटकी करी, दान नइ तु अवहीलि । पणि मुझ आगलि तुं किस्यउ रे, तुं सांभलि सील ॥१॥ सरसा भोजन तइ तज्या, न गमई मीठी नाद । देह तणी सोभा तजी, तुझ नइ विस्यउ सवाद ॥२॥ नारि थकी डरतउ रहइ, कायरि किस्यउ बखाण । कूड कपट बहु केलवी, जिम तिम राखइ प्राण ॥३॥ को बिरलउ तुझ* श्रादरइ, छांडइ सहु संसार । एक आपतुं भाजतउ, बीजा भांजर च्यार ॥४॥ करम निकाचित रोडवं, भांजं भव भड भीम । अरिहंत तुझ नइ आदर्यउ, वरस छमासी सीम ॥५॥ रुचक नंदीसर पर्वते, मुझ लबधइ मुनि जाय । चैत्य जुहारइ सासतां, आणंद अंग न माय ॥६॥ मोटा जोयण लाखना, लघु कथुक आकार । हय गयरथ पायक तणां, रूप करइ अणगार ॥७॥ मुझ कर फरसइ उपसमइ, कुष्टादिक ना रोग । सबधि अट्ठावीस ऊपजइ, उत्तम तप संयोग ॥८॥ जे मई तार्या ते कहुँ, सुणिज्यो मन उल्लास । चमतकार चित पामस्यउ, देस्यउ मुझ साबासि ॥६॥
_ * मुझ
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org